सम्यग्दृष्टि: Difference between revisions
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<p class="HindiText"><strong name="1" id="1">1. सम्यग्दृष्टि सामान्य निर्देश</li> | <p class="HindiText"><strong name="1" id="1">1. सम्यग्दृष्टि सामान्य निर्देश</strong></li> | ||
<p class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">1. सम्यग्दृष्टि का लक्षण</li> | <p class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">1. सम्यग्दृष्टि का लक्षण</strong></li> | ||
<p | <p><span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/14 </span><span class="PrakritText">सद्दव्वरओ सवणो सम्माइट्ठी हवेइ सो साहू। सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुट्ठट्ठकम्मइं।14।</span> | ||
<span class="HindiText">जो साधु अपनी आत्मा में रत हैं अर्थात् रुचि सहित हैं वे सम्यग्दृष्टि हैं। सम्यक्त्व भाव से युक्त होते हुए वे दुष्ट अष्टकर्मों का क्षय करते हैं। ( | <span class="HindiText">जो साधु अपनी आत्मा में रत हैं अर्थात् रुचि सहित हैं वे सम्यग्दृष्टि हैं। सम्यक्त्व भाव से युक्त होते हुए वे दुष्ट अष्टकर्मों का क्षय करते हैं। (<span class="GRef">भावपाहुड/मूल/31</span>)</span></p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ मूल/1/76 </span><span class="PrakritText">अप्पिं अप्पु मुणंतु जिउ सम्मादिट्ठि हवेइ। सम्माइट्ठिउ जीवडउ लहु कम्मइं मुच्चेइ।76।</span> =<span class="HindiText">अपने को अपने से जानता हुआ यह जीव सम्यग्दृष्टि होता है और सम्यग्दृष्टि होता हुआ शीघ्र ही कर्मों से छूट जाता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]/1/1/6 [सूत्र प्रणीत जीव अजीव आदि पदार्थों को हेय व उपादेय बुद्धि से जो जानता है वह सम्यग्दृष्टि है।]</p> | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]/1/1/6 [सूत्र प्रणीत जीव अजीव आदि पदार्थों को हेय व उपादेय बुद्धि से जो जानता है वह सम्यग्दृष्टि है।]</p> | ||
<p class="HindiText">देखें [[ नियति#1.2 | नियति - 1.2 ]][जो जब जहाँ जैसे होना होता है वह तब तहाँ तैसे ही होता है, इस प्रकार जो मानता है वह सम्यग्दृष्टि है।]</p> | <p class="HindiText">देखें [[ नियति#1.2 | नियति - 1.2 ]][जो जब जहाँ जैसे होना होता है वह तब तहाँ तैसे ही होता है, इस प्रकार जो मानता है वह सम्यग्दृष्टि है।]</p> | ||
<p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दृष्टि#5 | सम्यग्दृष्टि - 5 ]][वैराग्य भक्ति आत्मनिंदन युक्त होता]</p> | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दृष्टि#5 | सम्यग्दृष्टि - 5 ]][वैराग्य भक्ति आत्मनिंदन युक्त होता]</p> | ||
<p class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">2. सिद्धांत या आगम को भी कथंचित् सम्यग्दृष्टि व्यपदेश</li> | <p class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">2. सिद्धांत या आगम को भी कथंचित् सम्यग्दृष्टि व्यपदेश</strong></li> | ||
<p | <p><span class="GRef"> धवला 13/5,5,50/11 </span><span class="SanskritText">सम्यग्दृश्यंते परिच्छिद्यंते जीवादय: पदार्था: अनया इति सम्यग्दृष्टि: श्रुति: सम्यग्दृश्यंते अनया जीवादय: पदार्था: इति सम्यग्दृष्टि: सम्यग्दृष्टयविनाभाववद्वा सम्यग्दृष्टि:। | ||
</span>=<span class="HindiText">इसके द्वारा जीवादि पदार्थ सम्यक् प्रकार से देखे जाते हैं अर्थात् जाने जाते हैं, इसलिए इस (सिद्धांत) का नाम सम्यग्दृष्टि या श्रुति है। इसके द्वारा जीवादिक पदार्थ सम्यक् प्रकार से देखे जाते हैं अर्थात् श्रद्धान किये जाते हैं इसलिए इसका नाम सम्यग्दृष्टि है। अथवा सम्यग्दृष्टि के साथ श्रुति का अविनाभाव होने से उसका नाम सम्यग्दृष्टि है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">इसके द्वारा जीवादि पदार्थ सम्यक् प्रकार से देखे जाते हैं अर्थात् जाने जाते हैं, इसलिए इस (सिद्धांत) का नाम सम्यग्दृष्टि या श्रुति है। इसके द्वारा जीवादिक पदार्थ सम्यक् प्रकार से देखे जाते हैं अर्थात् श्रद्धान किये जाते हैं इसलिए इसका नाम सम्यग्दृष्टि है। अथवा सम्यग्दृष्टि के साथ श्रुति का अविनाभाव होने से उसका नाम सम्यग्दृष्टि है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong name="2" id="2">2. सम्यग्दृष्टि की महिमा का निर्देश</li> | <p class="HindiText"><strong name="2" id="2">2. सम्यग्दृष्टि की महिमा का निर्देश</strong></li> | ||
<p class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">1. उसके सब भाव ज्ञानमयी हैं</li> | <p class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">1. उसके सब भाव ज्ञानमयी हैं</strong></li> | ||
<p | <p><span class="GRef"> समयसार/128 </span><span class="PrakritText">णाणमया भावाओ णाणमओ चेव जायए भावो। जम्हा तम्हा णाणिस्स सव्वे भावा हु णाणमया।</span> =<span class="HindiText">क्योंकि ज्ञानमय भावों में से ज्ञानमय ही भाव उत्पन्न होते हैं, इसलिए ज्ञानियों के समस्त भाव वास्तव में ज्ञानमय ही होते हैं।128। (<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/128/ कलश 67</span>)।</span></p> | ||
<p | <p><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/231 </span><span class="SanskritText">यस्माज्ज्ञानमया भावा ज्ञानिनां ज्ञाननिर्वृता:। अज्ञानमयभावानां नावकाश: सुदृष्टिषु।231।</span> =<span class="HindiText">क्योंकि ज्ञानियों के सर्वभाव ज्ञानमयी होते हैं, इसलिए सम्यग्दृष्टियों में अज्ञानमयी भाव अवकाश नहीं पाते।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2">2. वह सदा निरास्रव व अबंध है</li> | <p class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2">2. वह सदा निरास्रव व अबंध है</strong></li> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef"> समयसार मूल/107</span> <span class="PrakritText">चउविहं अणेयभेहं बंधंते णाणदंसणगुणेहिं। समए समए जम्हा तेण अबंधोत्ति णाणो दु।</span> =<span class="HindiText">क्योंकि चार प्रकार के द्रव्यास्रव ज्ञानदर्शन गुणों के द्वारा समय-समय पर अनेक प्रकार का कर्म बाँधते हैं, इसलिए ज्ञानी तो अबंध है। (विशेष देखें [[ सम्यग्दृष्टि#3.2 | सम्यग्दृष्टि - 3.2]])</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">3. कर्म करता हुआ भी वह बँधता नहीं</li> | <p class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">3. कर्म करता हुआ भी वह बँधता नहीं</strong></li> | ||
<p | <p> <span class="GRef"> समयसार/196,218 </span><span class="PrakritText">जह मज्जं पिवमाणो अरदिभावेण मज्जदि ण पुरिसो। दव्वुवभोगे अरदो णाणी वि ण बज्झदि तहेव।196। णाणी रागप्पजहो सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो। णे लिप्पदि रजएण दु कद्दममज्झे जहा कणयं।218।</span> =<span class="HindiText">1. जैसे कोई पुरुष मदिरा को अरति भाव से पीता हुआ मतवाला नहीं होता, इसी प्रकार ज्ञानी भी द्रव्य के उपभोग के प्रति अरति वर्तता हुआ बंध को प्राप्त नहीं होता।196। 2. ज्ञानी जो कि सर्व द्रव्यों के प्रति राग को छोड़ने वाला है, वह कर्मों के मध्य में रहा हुआ हो तो भी कर्म रूपी रज से लिप्त नहीं होता -जैसे सोना कीचड़ के बीच पड़ा हुआ हो तो भी लिप्त नहीं होता।218।</span></p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef"> भावपाहुड़/ मूल/154</span> <span class="PrakritText">जह सलिलेण ण लिप्पइ कमलिणिपत्तं सहावपयडीए। तह भावेण ण लिप्पइ कसायविसएहिं सप्पुरिसो।154।</span> =<span class="HindiText">जिस प्रकार जल में रहता हुआ भी कमलिनीपत्र अपने स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि पुरुष क्रोधादि कषाय और इंद्रियों के विषयों में संलग्न भी अपने भावों से उनके साथ लिप्त नहीं होता।</span></p> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef"> योगसार/अमितगति/4/19 </span><span class="SanskritText">ज्ञानी विषयसंगेऽपि विषयैर्नैव लिप्यते। कनकं मलमध्येऽपि न मलैरुपलिप्यते।19।</span> =<span class="HindiText">जिस प्रकार स्वर्ण कीचड़ के बीच रहता हुआ भी कीचड़ से लिप्त नहीं होता उसी प्रकार ज्ञानी विषय भोग करता हुआ भी विषयों में लिप्त नहीं होता।19।</span></p> | ||
<p | <p><span class="GRef"> भावपाहुड़ टीका/152/296 पर उद्धृत</span> <span class="SanskritText">-धात्री बालाऽसतीनाथपद्मिनीदलवारिवत् । दग्धरज्जुवदाभासं भुंजन् राज्यं न पापभाक् ।6।</span> =<span class="HindiText">जिस प्रकार पतिव्रता नहीं है ऐसी युवती धाय अपने पति के साथ दिखावटी संबंध रखती है, जिस प्रकार कमल का पत्ता पानी के साथ दिखावटी संबंध रखता है, और जिस प्रकार जली हुई रज्जू मात्र देखने में ही रज्जू है, उसी प्रकार ज्ञानी राज्य को भोगता हुआ भी पाप का भागी नहीं होता।</span></p> | ||
<p | <p><span class="GRef"> दर्शनपाहुड़/ टीका/7/7/8</span> <span class="SanskritText">सम्यग्दृष्टेर्लग्नमपि पापं बंधं न याति कौरघटस्थितं रज इव न बंधं याति। | ||
</span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार कोरे घड़े पर पड़ी हुई रज उसके साथ संबंध को प्राप्त नहीं होती, उसी प्रकार पाप के साथ लग्न भी सम्यग्दृष्टि बंध को प्राप्त नहीं होता।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार कोरे घड़े पर पड़ी हुई रज उसके साथ संबंध को प्राप्त नहीं होती, उसी प्रकार पाप के साथ लग्न भी सम्यग्दृष्टि बंध को प्राप्त नहीं होता।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4">4. उसके सर्व कार्य निर्जरा के निमित्त हैं</li> | <p class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4">4. उसके सर्व कार्य निर्जरा के निमित्त हैं</strong></li> | ||
<p | <p><span class="GRef"> समयसार/193 </span><span class="PrakritText">उवभोगमिंदियेहिं दव्वाणमचेदणाणमिदराणं। जं कुणदि सम्मदिट्ठी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं।193।</span> =<span class="HindiText">सम्यग्दृष्टि जीव जो इंद्रियों के द्वारा अचेतन तथा चेतन द्रव्यों का उपभोग करता है वह सर्व उसके लिए निर्जरा का निमित्त है।</span></p> | ||
<p | <p><span class="GRef"> ज्ञानार्णव/32/38 </span><span class="SanskritText">अलौकिकमहो वृत्तं ज्ञानिन: केन वर्ण्यते। अज्ञानी बध्यते यत्र ज्ञानी तत्रैव मुच्यते।38।</span> =<span class="HindiText">अहो, देखो ज्ञानी पुरुषों के इस अलौकिक चारित्र का कौन वर्णन कर सकता है। जहाँ अज्ञानी बंध को प्राप्त होता है, उसी आचरण में ज्ञानी कर्मों से छूट जाता है।38। (<span class="GRef"> योगसार/अमितगति/6/18</span>)</span></p> | ||
<p | <p><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/230 </span><span class="SanskritText">आस्तां न बंधहेतु: स्याज्ज्ञानिनां कर्मजा क्रिया। चित्रं यत्पूर्वबद्धानां निर्जरायै च कर्मणाम् ।230।</span> =<span class="HindiText">ज्ञानियों की कर्म से उत्पन्न होने वाली क्रिया बंध का कारण नहीं होती है, यह बात तो दूर रही, परंतु आश्चर्य तो यह है कि उनकी जो भी क्रिया है वह सब पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा के लिए ही कारण होती है।230।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5">5. अनुपयुक्त दशा में भी उसे निर्जरा होती है</li> | <p class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5">5. अनुपयुक्त दशा में भी उसे निर्जरा होती है</strong></li> | ||
<p | <p><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/878 </span><span class="SanskritText">आत्मन्येवोपयोग्यवस्तु ज्ञानं वा स्यात् परात्मनि। सत्सु सम्यक्त्वभावेषु संति ते निर्जरादय:।</span> =<span class="HindiText">ज्ञान चाहे आत्मा में उपयुक्त हो अथवा कदाचित् परपदार्थों में उपयुक्त हो परंतु सम्यक्त्व भाव के होने पर वे निर्जरादिक अवश्य होते हैं।878।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6">6. उसकी कर्म चेतना भी ज्ञान चेतना है</li> | <p class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6">6. उसकी कर्म चेतना भी ज्ञान चेतना है</li> | ||
<p | <p><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/275 </span><span class="SanskritText">अस्ति तस्यापि सद्दृष्टे: कस्यचित्कर्मचेतना। अपि कर्मफले सा स्यादर्थतो ज्ञानचेतना।275।</span> =<span class="HindiText">यद्यपि जघन्य भूमिका में किसी-किसी सम्यग्दृष्टि के कर्मचेतना और कर्मफलचेतना भी होती है, पर वास्तव में वह ज्ञानचेतना ही है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7">7. उसके कुध्यान भी कुगति के कारण नहीं</li> | <p class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7">7. उसके कुध्यान भी कुगति के कारण नहीं</strong></li> | ||
<p><span class=" | <p><span class="GRef">द्रव्यसंग्रह/टीका/48/201/3</span> <span class="SanskritText">चतुर्विधमार्त्तध्यानम् । ...यद्यपि मिथ्यादृष्टीनां तिर्यग्गतिकारणं भवति तथापि बद्धायुष्कं विहाय सम्यग्दृष्टीनां न भवति।...रौद्रध्यानं...तच्च मिथ्यादृष्टीनां नरकगतिकारणमपि बद्धायुष्कं विहाय सम्यग्दृष्टीनां तत्कारणं न भवति।</span> =<span class="HindiText">चार प्रकार का आर्तध्यान यद्यपि मिथ्यादृष्टि जीवों को तिर्यंचगति का कारण होता है तथापि बद्धायुष्क को छोड़कर अन्य सम्यग्दृष्टियों को वह तिर्यंचगति का कारण नहीं होता है। (इसी प्रकार) रौद्रध्यान भी मिथ्यादृष्टियों को नरकगति का कारण होता है, परंतु बद्धायुष्क को छोड़कर अन्य सम्यग्दृष्टियों को वह नरक का कारण नहीं होता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8">8. वह वर्तमान में ही मुक्त है</li> | <p class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8">8. वह वर्तमान में ही मुक्त है</strong></li> | ||
<p | <p><span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/318/ कलश 198 </span><span class="SanskritText">ज्ञानी करोति न न वेदयते च कर्म, जानाति केवलमयं किल तत्स्वभावम् । जानन्परं करणवेदनयोरभावाच्छुद्धस्वभावनियत: स हि मुक्त एव।198।</span> =<span class="HindiText">ज्ञानी कर्म को न तो करता है और न भोगता है, वह कर्म के स्वभाव को मात्र जानता ही है। इस प्रकार मात्र जानता हुआ करने और भोगने के अभाव के कारण, शुद्ध स्वभाव में निश्चल ऐसा वह वास्तव में मुक्त है।</span></p> | ||
<p | <p><span class="GRef"> ज्ञानार्णव/6/57 </span><span class="SanskritText">मन्ये मुक्त: स पुण्यात्मा विशुद्धं यस्य दर्शनम् । यतस्तदेव मुत्तयंगमग्रिमं परिकीर्तितम् ।57। | ||
</span>=<span class="HindiText">जिसको विशुद्ध सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ है वह पुण्यात्मा मुक्त है ऐसा मैं मानता हूँ। क्योंकि, सम्यग्दर्शन ही मोक्ष का मुख्य अंग कहा गया है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">जिसको विशुद्ध सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ है वह पुण्यात्मा मुक्त है ऐसा मैं मानता हूँ। क्योंकि, सम्यग्दर्शन ही मोक्ष का मुख्य अंग कहा गया है।</span></p> | ||
<p | <p><span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/61/ कलश 81</span> <span class="SanskritText">इत्थं बुद्धवा परमसमितिं मुक्तिकांतासखीं यो, मुक्तवा संगं भवभयकरं हेमरामात्मकं च। स्थित्वाऽपूर्वे सहजविलसच्चिच्चमत्कारमात्रे, भेदाभावे समयति च य: सर्वदा मुक्त एव।81।</span> =<span class="HindiText">इस प्रकार मुक्तिकांता ही सखी परम समिति को जानकर जो जीव भवभय के करने वाले कंचनकामिनी के संग को छोड़कर, अपूर्व सहज विलसते अभेद चैतन्य चमत्कार मात्र स्थित रहकर सम्यक् ‘इति’ करते हैं अर्थात् सम्यक् रूप से परिणमित होते हैं वे सर्वदा मुक्त ही हैं।</span></p> | ||
<p | <p><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/232 </span><span class="SanskritText">वैराग्यं परमोपेक्षाज्ञानं स्वानुभव: स्वयम् । तद्द्वयं ज्ञानिनो लक्ष्म जीवन्मुक्त: स एव च।232।</span> =<span class="HindiText">परमोपेक्षारूप वैराग्य और आत्मप्रत्यक्ष रूप स्वसंवेद ज्ञान ही ज्ञानी के लक्षण है। जिसके ये दोनों होते हैं, वह ज्ञानी जीवन्मुक्त है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong name="3" id="3">3. उपरोक्त महिमा संबंधी समन्वय</li> | <p class="HindiText"><strong name="3" id="3">3. उपरोक्त महिमा संबंधी समन्वय</strong></li> | ||
<p class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1">1. भावों में ज्ञानमयीपने संबंधी</li> | <p class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1">1. भावों में ज्ञानमयीपने संबंधी</strong></li> | ||
<p class="HindiText"><span class="GRef"> समयसार/ </span>पं.जयचंद/128 ज्ञानी के सर्वभाव ज्ञान जाति का उल्लंघन न करने से ज्ञानमयी हैं।</p> | <p class="HindiText"><span class="GRef"> समयसार/ </span>पं.जयचंद/128 ज्ञानी के सर्वभाव ज्ञान जाति का उल्लंघन न करने से ज्ञानमयी हैं।</p> | ||
<p class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2">2. सदा निरास्रव व अबंध होने संबंधी</li> | <p class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2">2. सदा निरास्रव व अबंध होने संबंधी</strong></li> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> समयसार/177-178 </span>रागो दोसो मोहो य आसवा णत्थि सम्मदिट्ठिस्स। तम्हा आसवभावेण विणा हेदू ण पंचया होंति।177। हेदू चदुवियप्पो अट्ठवियप्पस्स कारणं भणिदं। तेसिं पि य रागादी तेसिमभावे ण बज्झंति।178।</span> =<span class="HindiText">राग, द्वेष और मोह ये आस्रव सम्यग्दृष्टि के नहीं होते, इसलिए आस्रवभाव के बिना द्रव्यप्रत्यय कर्मबंध के कारण नहीं होते।177। मिथ्यात्व अविरति प्रमाद और कषाय ये चार प्रकार के हेतु, आठ प्रकार के कर्मों के कारण कहे गये हैं, और उनके भी कारण रागादि भाव हैं। इसलिए उनके अभाव में ज्ञानी को कर्म नहीं बँधते।178।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> समयसार/177-178 </span>रागो दोसो मोहो य आसवा णत्थि सम्मदिट्ठिस्स। तम्हा आसवभावेण विणा हेदू ण पंचया होंति।177। हेदू चदुवियप्पो अट्ठवियप्पस्स कारणं भणिदं। तेसिं पि य रागादी तेसिमभावे ण बज्झंति।178।</span> =<span class="HindiText">राग, द्वेष और मोह ये आस्रव सम्यग्दृष्टि के नहीं होते, इसलिए आस्रवभाव के बिना द्रव्यप्रत्यय कर्मबंध के कारण नहीं होते।177। मिथ्यात्व अविरति प्रमाद और कषाय ये चार प्रकार के हेतु, आठ प्रकार के कर्मों के कारण कहे गये हैं, और उनके भी कारण रागादि भाव हैं। इसलिए उनके अभाव में ज्ञानी को कर्म नहीं बँधते।178।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> इष्टोपदेश/44 </span>अगच्छंस्तद्विशेषाणामनभिज्ञश्च जायते। अज्ञाततद्विशेषस्तु बद्धयते न विमुच्यते।44।</span> =<span class="HindiText">स्वात्मतत्त्व में निष्ठ योगी की जब पर पदार्थों से निवृत्ति होती है, तब उनके अच्छे बुरे आदि विकल्पों का उसे अनुभव नहीं होता। तब वह योगी कर्मों से भी नहीं बँधता, किंतु कर्मों से छूटता ही है।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> इष्टोपदेश/44 </span>अगच्छंस्तद्विशेषाणामनभिज्ञश्च जायते। अज्ञाततद्विशेषस्तु बद्धयते न विमुच्यते।44।</span> =<span class="HindiText">स्वात्मतत्त्व में निष्ठ योगी की जब पर पदार्थों से निवृत्ति होती है, तब उनके अच्छे बुरे आदि विकल्पों का उसे अनुभव नहीं होता। तब वह योगी कर्मों से भी नहीं बँधता, किंतु कर्मों से छूटता ही है।</span></p> | ||
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<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/172/239/6 </span>यथाख्यातचारित्राधस्तादंतर्मूहूर्तानंतरं निर्विकल्पसमाधौ स्थातुं न शक्यत इति भणितं पूर्वं। एवं सति कथं ज्ञानी निरास्रव इति चेत्, ज्ञानी तावदीहापूर्वरागादिविकल्पकरणाभावान्निरास्रव एव। किंतु सोऽपि यावत्कालं परमसमाधेरनुष्ठानाभावे सति शुद्धात्मस्वरूपं द्रष्टुं ज्ञातुमनुचरितुं वासमर्थ: तावत्कालं तस्यापि संबंधि यद्दर्शनं ज्ञानं चारित्रं तज्जघन्यभावेन सकषायभावेन अनोहितवृत्त्या परिणमति, तेन कारणेन स तु भेदज्ञानी...विविधपुण्यकर्मणा बध्यते।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> -यथाख्यात चारित्र से पहले अंतर्मुहूर्त के अनंतर निर्विकल्प समाधि में स्थित रहना शक्य नहीं है, ऐसा पहले कहा गया है। ऐसा होने पर ज्ञानी निरास्रव कैसे हो सकता है ? <strong>उत्तर</strong> -1. ज्ञानी क्योंकि ईहा पूर्वक अर्थात् अभिप्रायपूर्वक रागादि विकल्प नहीं करता है, इसलिए वह निरास्रव ही है। (<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/8/4/733 </span>) 2. किंतु जबतक परमसमाधि के अनुष्ठान के अभाव में वह भी शुद्धात्मस्वरूप को देखने-जानने व आचरण करने में असमर्थ रहता है, तब तक उसके भी तत्संबंधी जो दर्शन ज्ञान चारित्र हैं वे जघन्यभाव से अर्थात् कषायभाव से अनीहितवृत्ति से स्वयं परिणमते हैं। उसके कारण यह भेदज्ञानी भी विविध प्रकार के पुण्यकर्म से बँधता है।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/172/239/6 </span>यथाख्यातचारित्राधस्तादंतर्मूहूर्तानंतरं निर्विकल्पसमाधौ स्थातुं न शक्यत इति भणितं पूर्वं। एवं सति कथं ज्ञानी निरास्रव इति चेत्, ज्ञानी तावदीहापूर्वरागादिविकल्पकरणाभावान्निरास्रव एव। किंतु सोऽपि यावत्कालं परमसमाधेरनुष्ठानाभावे सति शुद्धात्मस्वरूपं द्रष्टुं ज्ञातुमनुचरितुं वासमर्थ: तावत्कालं तस्यापि संबंधि यद्दर्शनं ज्ञानं चारित्रं तज्जघन्यभावेन सकषायभावेन अनोहितवृत्त्या परिणमति, तेन कारणेन स तु भेदज्ञानी...विविधपुण्यकर्मणा बध्यते।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> -यथाख्यात चारित्र से पहले अंतर्मुहूर्त के अनंतर निर्विकल्प समाधि में स्थित रहना शक्य नहीं है, ऐसा पहले कहा गया है। ऐसा होने पर ज्ञानी निरास्रव कैसे हो सकता है ? <strong>उत्तर</strong> -1. ज्ञानी क्योंकि ईहा पूर्वक अर्थात् अभिप्रायपूर्वक रागादि विकल्प नहीं करता है, इसलिए वह निरास्रव ही है। (<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/8/4/733 </span>) 2. किंतु जबतक परमसमाधि के अनुष्ठान के अभाव में वह भी शुद्धात्मस्वरूप को देखने-जानने व आचरण करने में असमर्थ रहता है, तब तक उसके भी तत्संबंधी जो दर्शन ज्ञान चारित्र हैं वे जघन्यभाव से अर्थात् कषायभाव से अनीहितवृत्ति से स्वयं परिणमते हैं। उसके कारण यह भेदज्ञानी भी विविध प्रकार के पुण्यकर्म से बँधता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText">देखें [[ उपयोग#II.3 | उपयोग - II.3]] [जितने अंश में उसे राग है उतने अंश में आस्रव व बंध है और जितने अंश में राग का अभाव है, उतने अंश में निरास्रव व अबंध है।]</p> | <p class="HindiText">देखें [[ उपयोग#II.3 | उपयोग - II.3]] [जितने अंश में उसे राग है उतने अंश में आस्रव व बंध है और जितने अंश में राग का अभाव है, उतने अंश में निरास्रव व अबंध है।]</p> | ||
<p class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3">3. सर्व कार्यों में निर्जरा संबंधी</li> | <p class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3">3. सर्व कार्यों में निर्जरा संबंधी</strong></li> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> समयसार/194 </span>दव्वे उवभुंजंते णियमा जायदि सुहं च दुक्खं वा। तं सुहदुक्खमुदिण्णं वेददि अह णिज्जरं जादि।194।</span> =<span class="HindiText">वस्तु भोगने में आने पर सुख अथवा दु:ख नियम से उत्पन्न होता है। उदय को प्राप्त उस सुखदु:ख का अनुभव करता है तत्पश्चात् वह (सुख-दुखरूपभाव) निर्जरा को प्राप्त होता है। (इस प्रकार भाव निर्जरा की अपेक्षा समाधान है)।194।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> समयसार/194 </span>दव्वे उवभुंजंते णियमा जायदि सुहं च दुक्खं वा। तं सुहदुक्खमुदिण्णं वेददि अह णिज्जरं जादि।194।</span> =<span class="HindiText">वस्तु भोगने में आने पर सुख अथवा दु:ख नियम से उत्पन्न होता है। उदय को प्राप्त उस सुखदु:ख का अनुभव करता है तत्पश्चात् वह (सुख-दुखरूपभाव) निर्जरा को प्राप्त होता है। (इस प्रकार भाव निर्जरा की अपेक्षा समाधान है)।194।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/193-195 </span>रागादिभावानां सद्भावेन मिथ्यादृष्टेरचेतनान्यद्रव्योपभोगो बंधनिमित्तमेव स्यात् । स एव रागादिभावानामभावेन सम्यग्दृष्टेर्निर्जरानिमित्तमेव स्यात् । एतेन द्रव्यनिर्जरास्वरूपमावेदयति।193। अथ भावनिर्जरास्वरूपमावेदयति। स तु यदा वेद्यते तदा मिथ्यादृष्टे: रागादिभावानां सद्भावेन बंधनिमित्तं भूत्वा निर्जीर्यमाणोपजीर्ण: सन् बंध एव स्यात् । सम्यग्दृष्टेस्तु रागादिभावानामभावेन बंधनिमित्तमभूत्वा केवलमेव निर्जीयमाणो निर्जीर्ण: सन्निर्जरैव स्यात् ।194।</span> =<span class="HindiText">रागादि भावों के सद्भाव से मिथ्यादृष्टि के जो अचेतन तथा चेतन द्रव्यों का उपभोग बंध का निमित्त होता है; वही रागादिभावों के अभाव के कारण सम्यग्दृष्टि के लिए निर्जरा का निमित्त होता है। इस प्रकार द्रव्य निर्जरा का स्वरूप कहा।193। अब भाव निर्जरा का स्वरूप कहते हैं -जब उस (कर्मोदयजन्य सुखरूप अथवा दु:खरूप) भाव का वेदन होता है तब मिथ्यादृष्टि को, रागादिभावों के सद्भाव से (नवीन) बंध का निमित्त होकर निर्जरा को प्राप्त होता हुआ भी, निर्जरित न होता हुआ बंध ही होता है; किंतु सम्यग्दृष्टि के रागादिभावों के अभाव से बंध का निमित्त हुए बिना केवल मात्र निर्जरित होने से, निर्जरित होता हुआ, निर्जरा ही होती है।194।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/193-195 </span>रागादिभावानां सद्भावेन मिथ्यादृष्टेरचेतनान्यद्रव्योपभोगो बंधनिमित्तमेव स्यात् । स एव रागादिभावानामभावेन सम्यग्दृष्टेर्निर्जरानिमित्तमेव स्यात् । एतेन द्रव्यनिर्जरास्वरूपमावेदयति।193। अथ भावनिर्जरास्वरूपमावेदयति। स तु यदा वेद्यते तदा मिथ्यादृष्टे: रागादिभावानां सद्भावेन बंधनिमित्तं भूत्वा निर्जीर्यमाणोपजीर्ण: सन् बंध एव स्यात् । सम्यग्दृष्टेस्तु रागादिभावानामभावेन बंधनिमित्तमभूत्वा केवलमेव निर्जीयमाणो निर्जीर्ण: सन्निर्जरैव स्यात् ।194।</span> =<span class="HindiText">रागादि भावों के सद्भाव से मिथ्यादृष्टि के जो अचेतन तथा चेतन द्रव्यों का उपभोग बंध का निमित्त होता है; वही रागादिभावों के अभाव के कारण सम्यग्दृष्टि के लिए निर्जरा का निमित्त होता है। इस प्रकार द्रव्य निर्जरा का स्वरूप कहा।193। अब भाव निर्जरा का स्वरूप कहते हैं -जब उस (कर्मोदयजन्य सुखरूप अथवा दु:खरूप) भाव का वेदन होता है तब मिथ्यादृष्टि को, रागादिभावों के सद्भाव से (नवीन) बंध का निमित्त होकर निर्जरा को प्राप्त होता हुआ भी, निर्जरित न होता हुआ बंध ही होता है; किंतु सम्यग्दृष्टि के रागादिभावों के अभाव से बंध का निमित्त हुए बिना केवल मात्र निर्जरित होने से, निर्जरित होता हुआ, निर्जरा ही होती है।194।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/193/267/14 </span>अत्राह शिष्य: -रागद्वेषमोहाभावे सति निर्जराकारणं भणितं सम्यग्दृष्टेस्तु रागादय: संति, तत: कथं निर्जराकारणं भवतीति। अस्मिन्पूर्वपक्षे परिहार: -अत्र ग्रंथे वस्तुवृत्त्या वीतरागसम्यग्दृष्टेर्ग्रहणं, यस्तु चतुर्थगुणस्थानवर्तिसरागसम्यग्दृष्टयस्तस्य गौणवृत्त्या ग्रहणं, तत्र तु परिहार: पूर्वमेव भणित:। कथमिति चेत् । मिथ्यादृष्टे: सकाशादसंयतसम्यग्दृष्टे: अनंतानुबंधिक्रोधमानमायालोभमिथ्यात्वोदयजनिता:, श्रावकस्य च प्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभोदयजनिता रागादयो न संतीत्यादि। किंच सम्यग्दृष्टे: संवरपूर्विका निर्जरा भवति, मिथ्यादृष्टेस्तु गजस्नानवत् बंधपूर्विका भवति। तेन कारणेन मिथ्यादृष्टयपेक्षया सम्यग्दृष्टिरबंधक इति। एवं द्रव्यनिर्जराव्याख्यानरूपेण गाथा गता।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> -राग-द्वेष व मोह का अभाव होने पर भोग आदि निर्जरा के कारण कहे गये हैं, परंतु सम्यग्दृष्टि के तो रागादि होते हैं, इसलिए उसे वे निर्जरा के कारण कैसे हो सकते हैं ? <strong>उत्तर</strong> -1. इस ग्रंथ में वस्तु वृत्ति से वीतराग सम्यग्दृष्टि ग्रहण किया गया है, जो चौथे गुणस्थानवर्ती सरागसम्यग्दृष्टि है उसका गौण वृत्ति से ग्रहण किया गया है। 2. सराग सम्यग्दृष्टि संबंधी समाधान पहले ही दे दिया गया है। वह ऐसे कि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा असंयत सम्यग्दृष्टि को अनंतानुबंधी चतुष्क और मिथ्यात्वोदयजन्य रागादिक तथा श्रावक को अप्रत्याख्यान चतुष्क जनित रागादि नहीं होते हैं। 3. सम्यग्दृष्टि को निर्जरा संवरपूर्वक होती है और मिथ्यादृष्टि की गजस्नानवत् बंधपूर्वक होती है। इस कारण मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि अबंधक है। इस प्रकार द्रव्यनिर्जरा के व्याख्यानरूप गाथा कही। 4. [सम्यग्दृष्टि चारित्रमोहोदय के वशीभूत होकर अरुचिपूर्वक सुख-दु:ख आदिक अनुभव करता है और मिथ्यादृष्टि उपादेय बुद्धि से करता है। इसलिए सम्यग्दृष्टि को भोगों का भोगना निर्जरा का निमित्त है। इस प्रकार भाव निर्जरा की अपेक्षा व्याख्यान जानना। (देखें [[ राग#6 | राग - 6]]/6)]</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/193/267/14 </span>अत्राह शिष्य: -रागद्वेषमोहाभावे सति निर्जराकारणं भणितं सम्यग्दृष्टेस्तु रागादय: संति, तत: कथं निर्जराकारणं भवतीति। अस्मिन्पूर्वपक्षे परिहार: -अत्र ग्रंथे वस्तुवृत्त्या वीतरागसम्यग्दृष्टेर्ग्रहणं, यस्तु चतुर्थगुणस्थानवर्तिसरागसम्यग्दृष्टयस्तस्य गौणवृत्त्या ग्रहणं, तत्र तु परिहार: पूर्वमेव भणित:। कथमिति चेत् । मिथ्यादृष्टे: सकाशादसंयतसम्यग्दृष्टे: अनंतानुबंधिक्रोधमानमायालोभमिथ्यात्वोदयजनिता:, श्रावकस्य च प्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभोदयजनिता रागादयो न संतीत्यादि। किंच सम्यग्दृष्टे: संवरपूर्विका निर्जरा भवति, मिथ्यादृष्टेस्तु गजस्नानवत् बंधपूर्विका भवति। तेन कारणेन मिथ्यादृष्टयपेक्षया सम्यग्दृष्टिरबंधक इति। एवं द्रव्यनिर्जराव्याख्यानरूपेण गाथा गता।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> -राग-द्वेष व मोह का अभाव होने पर भोग आदि निर्जरा के कारण कहे गये हैं, परंतु सम्यग्दृष्टि के तो रागादि होते हैं, इसलिए उसे वे निर्जरा के कारण कैसे हो सकते हैं ? <strong>उत्तर</strong> -1. इस ग्रंथ में वस्तु वृत्ति से वीतराग सम्यग्दृष्टि ग्रहण किया गया है, जो चौथे गुणस्थानवर्ती सरागसम्यग्दृष्टि है उसका गौण वृत्ति से ग्रहण किया गया है। 2. सराग सम्यग्दृष्टि संबंधी समाधान पहले ही दे दिया गया है। वह ऐसे कि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा असंयत सम्यग्दृष्टि को अनंतानुबंधी चतुष्क और मिथ्यात्वोदयजन्य रागादिक तथा श्रावक को अप्रत्याख्यान चतुष्क जनित रागादि नहीं होते हैं। 3. सम्यग्दृष्टि को निर्जरा संवरपूर्वक होती है और मिथ्यादृष्टि की गजस्नानवत् बंधपूर्वक होती है। इस कारण मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि अबंधक है। इस प्रकार द्रव्यनिर्जरा के व्याख्यानरूप गाथा कही। 4. [सम्यग्दृष्टि चारित्रमोहोदय के वशीभूत होकर अरुचिपूर्वक सुख-दु:ख आदिक अनुभव करता है और मिथ्यादृष्टि उपादेय बुद्धि से करता है। इसलिए सम्यग्दृष्टि को भोगों का भोगना निर्जरा का निमित्त है। इस प्रकार भाव निर्जरा की अपेक्षा व्याख्यान जानना। (देखें [[ राग#6 | राग - 6]]/6)]</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4">4. ज्ञान चेतना संबंधी</li> | <p class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4">4. ज्ञान चेतना संबंधी</strong></li> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध 276 </span>चेतनाया: फलं बंधस्तत्फले वाऽथ कर्मणि। रागाभावान्न बंधोऽस्य तस्मात्सा ज्ञानचेतना।276।</span> =<span class="HindiText">कर्म व कर्मफलरूप चेतना का फल कर्म बंध है, पर सम्यग्दृष्टि को राग का अभाव होने से बंध नहीं होता है, इसलिए उसकी वह कर्म व कर्मफल चेतना ज्ञानचेतना है।276।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध 276 </span>चेतनाया: फलं बंधस्तत्फले वाऽथ कर्मणि। रागाभावान्न बंधोऽस्य तस्मात्सा ज्ञानचेतना।276।</span> =<span class="HindiText">कर्म व कर्मफलरूप चेतना का फल कर्म बंध है, पर सम्यग्दृष्टि को राग का अभाव होने से बंध नहीं होता है, इसलिए उसकी वह कर्म व कर्मफल चेतना ज्ञानचेतना है।276।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5">5. अशुभ ध्यानों संबंधी</li> | <p class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5">5. अशुभ ध्यानों संबंधी</strong></li> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/48/201/5 </span>कस्मादिति चेत् -स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति विशिष्टभावनाबलेन तत्कारणभूतसंक्लेशाभावादिति।5।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> -आर्तध्यान सम्यग्दृष्टि को मिथ्यादृष्टि की भाँति तिर्यंच गति का कारण क्यों नहीं होता ? <strong>उत्तर</strong> -सम्यग्दृष्टि जीवों के ‘निज शुद्ध आत्मा ही उपादेय है’ ऐसी भावना के कारण तिर्यंचगति का कारण रूप संक्लेश नहीं होता। [यही उत्तर रौद्रध्यान के लिए भी दिया गया है]</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/48/201/5 </span>कस्मादिति चेत् -स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति विशिष्टभावनाबलेन तत्कारणभूतसंक्लेशाभावादिति।5।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> -आर्तध्यान सम्यग्दृष्टि को मिथ्यादृष्टि की भाँति तिर्यंच गति का कारण क्यों नहीं होता ? <strong>उत्तर</strong> -सम्यग्दृष्टि जीवों के ‘निज शुद्ध आत्मा ही उपादेय है’ ऐसी भावना के कारण तिर्यंचगति का कारण रूप संक्लेश नहीं होता। [यही उत्तर रौद्रध्यान के लिए भी दिया गया है]</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong name="4" id="4">4. सम्यग्दृष्टि की विशेषताएँ</li> | <p class="HindiText"><strong name="4" id="4">4. सम्यग्दृष्टि की विशेषताएँ</strong></li> | ||
<p class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1">1. सम्यग्दृष्टि ही सम्यक्त्व व मिथ्यात्व के भेद को यथार्थत: जानता है</li> | <p class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1">1. सम्यग्दृष्टि ही सम्यक्त्व व मिथ्यात्व के भेद को यथार्थत: जानता है</strong></li> | ||
<p class="HindiText"><span class="GRef"> समयसार/ </span>पं.जयचंद/200/क.137 सम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्व सहित राग नहीं होता और जिसके मिथ्यात्व सहित राग हो वह सम्यग्दृष्टि नहीं होता। ऐसे अंतर को सम्यग्दृष्टि ही जानता है। पहले तो मिथ्यादृष्टि का आत्म शास्त्र में प्रवेश ही नहीं है, और यदि वह प्रवेश करता है तो विपरीत समझता है -शुभभाव को सर्वथा छोड़कर भ्रष्ट होता है अथवा अशुभभावों में प्रवर्तता है, अथवा निश्चय को भली भाँति जाने बिना व्यवहार से ही (शुभभाव से ही) मोक्ष मानता है, परमार्थ तत्त्व में मूढ़ रहता है। यदि कोई बिरला जीव स्याद्वाद न्याय से सत्यार्थ को समझते तो उसे अवश्य ही सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, वह अवश्य सम्यग्दृष्टि हो जाता है।</p> | <p class="HindiText"><span class="GRef"> समयसार/ </span>पं.जयचंद/200/क.137 सम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्व सहित राग नहीं होता और जिसके मिथ्यात्व सहित राग हो वह सम्यग्दृष्टि नहीं होता। ऐसे अंतर को सम्यग्दृष्टि ही जानता है। पहले तो मिथ्यादृष्टि का आत्म शास्त्र में प्रवेश ही नहीं है, और यदि वह प्रवेश करता है तो विपरीत समझता है -शुभभाव को सर्वथा छोड़कर भ्रष्ट होता है अथवा अशुभभावों में प्रवर्तता है, अथवा निश्चय को भली भाँति जाने बिना व्यवहार से ही (शुभभाव से ही) मोक्ष मानता है, परमार्थ तत्त्व में मूढ़ रहता है। यदि कोई बिरला जीव स्याद्वाद न्याय से सत्यार्थ को समझते तो उसे अवश्य ही सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, वह अवश्य सम्यग्दृष्टि हो जाता है।</p> | ||
<p class="HindiText"><strong<strong name="4.2" id="4.2">2. सम्यग्दृष्टि को पक्षपात नहीं होता</li> | <p class="HindiText"><strong<strong name="4.2" id="4.2">2. सम्यग्दृष्टि को पक्षपात नहीं होता</strong></li> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/ </span>मू.श्लो.30/334 अन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षभावात् यथा परे मत्सरिण: प्रवादा:। नयानशेषानविशेषमिच्छन् न पक्षपाती समयस्तथा ते।30।</span> =<span class="HindiText">आत्मवादी लोग परस्पर पक्ष और प्रतिपक्ष भाव रखने के कारण एक दूसरे से ईर्ष्या करते हैं, परंतु संपूर्ण नयों को एक समान देखते वाले (देखें [[ अनेकांत#2 | अनेकांत - 2]]) आपके शास्त्र में पक्षपात नहीं है।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/ </span>मू.श्लो.30/334 अन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षभावात् यथा परे मत्सरिण: प्रवादा:। नयानशेषानविशेषमिच्छन् न पक्षपाती समयस्तथा ते।30।</span> =<span class="HindiText">आत्मवादी लोग परस्पर पक्ष और प्रतिपक्ष भाव रखने के कारण एक दूसरे से ईर्ष्या करते हैं, परंतु संपूर्ण नयों को एक समान देखते वाले (देखें [[ अनेकांत#2 | अनेकांत - 2]]) आपके शास्त्र में पक्षपात नहीं है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3">3. जहाँ जगत् जागता है वहाँ ज्ञानी सोता है</li> | <p class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3">3. जहाँ जगत् जागता है वहाँ ज्ञानी सोता है</strong></li> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> मोक्षपाहुड़ 31 </span>जो सुत्तो ववहारे सो जोइ जग्गए सकज्जम्मि। जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे।31। | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> मोक्षपाहुड़ 31 </span>जो सुत्तो ववहारे सो जोइ जग्गए सकज्जम्मि। जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे।31। | ||
</span>=<span class="HindiText">जो योगी व्यवहार में सोता है वह अपने स्वरूप के कार्य में जागता है। और व्यवहार में जागता है, वह अपने कार्य में सोता है।31। (<span class="GRef"> समाधिशतक/78 </span>)</span></p> | </span>=<span class="HindiText">जो योगी व्यवहार में सोता है वह अपने स्वरूप के कार्य में जागता है। और व्यवहार में जागता है, वह अपने कार्य में सोता है।31। (<span class="GRef"> समाधिशतक/78 </span>)</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ </span>मू./2/46 जा णिसि सयलहँ देहियँ जोग्गिउ तर्हि जग्गेइ। जहिँ पुणु जग्गइ सयलु जगु सा णिसि मणिवि सुवेइ।46।</span> =<span class="HindiText">जो सब संसारी जीवों की रात है, उसमें परम तपस्वी जागता है, और जिसमें सब संसारी जीव जाग रहे हैं, उस दशा में योगी रात मानकर योग निद्रा में सोता है। (<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/18/37 </span>)।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> परमात्मप्रकाश/ </span>मू./2/46 जा णिसि सयलहँ देहियँ जोग्गिउ तर्हि जग्गेइ। जहिँ पुणु जग्गइ सयलु जगु सा णिसि मणिवि सुवेइ।46।</span> =<span class="HindiText">जो सब संसारी जीवों की रात है, उसमें परम तपस्वी जागता है, और जिसमें सब संसारी जीव जाग रहे हैं, उस दशा में योगी रात मानकर योग निद्रा में सोता है। (<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/18/37 </span>)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong name="5" id="5">5. अविरत सम्यग्दृष्टि निर्देश</li> | <p class="HindiText"><strong name="5" id="5">5. अविरत सम्यग्दृष्टि निर्देश</strong></li> | ||
<p><strong name="5.1" id="5.1">1. अविरति सम्यग्दृष्टि का सामान्य लक्षण</li> | <p><strong name="5.1" id="5.1">1. अविरति सम्यग्दृष्टि का सामान्य लक्षण</strong></li> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/11 </span>णो इंदियेसु विरदो णो जीवे थावरे तसे चावि। जो सद्दहइ जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो।11।</span> =<span class="HindiText">जो पाँचों इंद्रियों के विषयों में विरत नहीं है और न त्रस तथा स्थावर जीवों के घात से ही विरक्त है, किंतु केवल जिनोक्त तत्त्व का श्रद्धान करता है, वह चतुर्थगुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि है।11। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,12/ </span>गा.111/173); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/29/58 </span>); (और भी देखें [[ असंयम ]])</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/11 </span>णो इंदियेसु विरदो णो जीवे थावरे तसे चावि। जो सद्दहइ जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो।11।</span> =<span class="HindiText">जो पाँचों इंद्रियों के विषयों में विरत नहीं है और न त्रस तथा स्थावर जीवों के घात से ही विरक्त है, किंतु केवल जिनोक्त तत्त्व का श्रद्धान करता है, वह चतुर्थगुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि है।11। (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,12/ </span>गा.111/173); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/29/58 </span>); (और भी देखें [[ असंयम ]])</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> राजवार्तिक/9/1/15/589/26 </span>औपशमिकेन क्षायोपशमिकेन क्षायिकेण वा सम्यक्त्वेन समन्वित: चारित्रमोहोदयात् अत्यंतविरतिपरिणामप्रवणोऽसंयतसम्यग्दृष्टिरिति व्यपदिश्यते।</span> =<span class="HindiText">औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक इन तीनों में से किसी भी सम्यक्त्व से समन्वित तथा चारित्रमोह के उदय से जिसके परिणाम अत्यंत अविरतिरूप रहते हैं, उसको ‘असंयत सम्यग्दृष्टि’ ऐसा कहा जाता है।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> राजवार्तिक/9/1/15/589/26 </span>औपशमिकेन क्षायोपशमिकेन क्षायिकेण वा सम्यक्त्वेन समन्वित: चारित्रमोहोदयात् अत्यंतविरतिपरिणामप्रवणोऽसंयतसम्यग्दृष्टिरिति व्यपदिश्यते।</span> =<span class="HindiText">औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक इन तीनों में से किसी भी सम्यक्त्व से समन्वित तथा चारित्रमोह के उदय से जिसके परिणाम अत्यंत अविरतिरूप रहते हैं, उसको ‘असंयत सम्यग्दृष्टि’ ऐसा कहा जाता है।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 1/1,1,12/171/1 </span>समीचीनदृष्टि: श्रद्धा यस्यासौ सम्यग्दृष्टि:, असंयतश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्च, असंयतसम्यग्दृष्टि:। सो वि सम्माइट्ठी तिविहो, खइयसम्माइट्ठी वेदयसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी चेदि।</span> =<span class="HindiText">जिसकी दृष्टि अर्थात् श्रद्धा समीचीन होती है, उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं, और संयम रहित [अर्थात् इंद्रिय भोग व जीव हिंसा से विरक्त न होना (देखें [[ असंयम ]])] सम्यग्दृष्टि को असंयत सम्यग्दृष्टि कहते हैं। वे सम्यग्दृष्टि जीव तीन प्रकार के हैं -क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और औपशमिक सम्यग्दृष्टि।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 1/1,1,12/171/1 </span>समीचीनदृष्टि: श्रद्धा यस्यासौ सम्यग्दृष्टि:, असंयतश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्च, असंयतसम्यग्दृष्टि:। सो वि सम्माइट्ठी तिविहो, खइयसम्माइट्ठी वेदयसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी चेदि।</span> =<span class="HindiText">जिसकी दृष्टि अर्थात् श्रद्धा समीचीन होती है, उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं, और संयम रहित [अर्थात् इंद्रिय भोग व जीव हिंसा से विरक्त न होना (देखें [[ असंयम ]])] सम्यग्दृष्टि को असंयत सम्यग्दृष्टि कहते हैं। वे सम्यग्दृष्टि जीव तीन प्रकार के हैं -क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और औपशमिक सम्यग्दृष्टि।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2">2. अव्रत सम्यग्दृष्टि सर्वथा अव्रती नहीं</li> | <p class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2">2. अव्रत सम्यग्दृष्टि सर्वथा अव्रती नहीं</strong></li> | ||
<p class="HindiText">देखें [[ श्रावक#3 | श्रावक - 3]]/4 [यद्यपि व्रतरूप से कुछ भी अंगीकार नहीं करता, पर कुलाचाररूप से अष्टमूलगुण धारण, स्थूल अणुव्रत पालन, स्थूल रूपेण रात्रि भोजन व सप्तव्यसन त्याग अवश्य करता है। क्योंकि ये सब क्रियाएँ व्रत न कहलाकर केवल कुलक्रिया कहलाती हैं, इसलिए वह अव्रती या असंयत कहलाता है। ये क्रियाएँ व्रती व अव्रती दोनों को होती हैं। व्रती को नियम व्रतरूप से और अव्रती को कुलाचार रूप से।]</p> | <p class="HindiText">देखें [[ श्रावक#3 | श्रावक - 3]]/4 [यद्यपि व्रतरूप से कुछ भी अंगीकार नहीं करता, पर कुलाचाररूप से अष्टमूलगुण धारण, स्थूल अणुव्रत पालन, स्थूल रूपेण रात्रि भोजन व सप्तव्यसन त्याग अवश्य करता है। क्योंकि ये सब क्रियाएँ व्रत न कहलाकर केवल कुलक्रिया कहलाती हैं, इसलिए वह अव्रती या असंयत कहलाता है। ये क्रियाएँ व्रती व अव्रती दोनों को होती हैं। व्रती को नियम व्रतरूप से और अव्रती को कुलाचार रूप से।]</p> | ||
<p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]/1/6 [निश्चय सम्यक्त्व युक्त होने पर भी चारित्र मोहोदयवश उसे आत्मध्यान में स्थिरता नहीं है तथा व्रत व प्रतिज्ञाएँ भंग भी हो जाती हैं, इसलिए असंयत कहा जाता है।]</p> | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]/1/6 [निश्चय सम्यक्त्व युक्त होने पर भी चारित्र मोहोदयवश उसे आत्मध्यान में स्थिरता नहीं है तथा व्रत व प्रतिज्ञाएँ भंग भी हो जाती हैं, इसलिए असंयत कहा जाता है।]</p> | ||
<p class="HindiText"><span class="GRef"> मोक्षमार्ग प्रकाशक/9/499/22 </span>कषायनि के असंख्यात लोकप्रमाण स्थान हैं। तिनिविषै सर्वत्र पूर्वस्थानतैं उत्तरस्थानविषैं मंदता पाइए है।...आदि के बहुत स्थान तौ असंयमरूप कहे, पीछे केतेक देश संयमरूप कहे। ...तिनिविषैं प्रथमगुणस्थानतैं लगाय चतुर्थ गुणस्थान पर्यंत जे कषाय के स्थान हो हैं, ते सर्व असंयम ही के हो हैं।...परमार्थतै कषाय का घटना चारित्र का अंश है...सर्वत्र असंयम की समानता न जानना।</p> | <p class="HindiText"><span class="GRef"> मोक्षमार्ग प्रकाशक/9/499/22 </span>कषायनि के असंख्यात लोकप्रमाण स्थान हैं। तिनिविषै सर्वत्र पूर्वस्थानतैं उत्तरस्थानविषैं मंदता पाइए है।...आदि के बहुत स्थान तौ असंयमरूप कहे, पीछे केतेक देश संयमरूप कहे। ...तिनिविषैं प्रथमगुणस्थानतैं लगाय चतुर्थ गुणस्थान पर्यंत जे कषाय के स्थान हो हैं, ते सर्व असंयम ही के हो हैं।...परमार्थतै कषाय का घटना चारित्र का अंश है...सर्वत्र असंयम की समानता न जानना।</p> | ||
<p class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3">3. अपने दोषों के प्रति निंदन गर्हण करना उसका स्वाभाविक व्रत है</li> | <p class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3">3. अपने दोषों के प्रति निंदन गर्हण करना उसका स्वाभाविक व्रत है</strong></li> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/4 </span>विरलो अज्जदि पुण्णं सम्मादिट्ठी वएहि संजुत्तो। उवसमभावे सहिदो णिंदण-गरहाहिसंजुत्तो।</span> =<span class="HindiText">सम्यग्दृष्टि, व्रती, उपशम भाव से युक्त, तथा अपनी निंदा और गर्हा करने वाले विरलेजन ही पुण्य कर्म का उपार्जन करते हैं।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/4 </span>विरलो अज्जदि पुण्णं सम्मादिट्ठी वएहि संजुत्तो। उवसमभावे सहिदो णिंदण-गरहाहिसंजुत्तो।</span> =<span class="HindiText">सम्यग्दृष्टि, व्रती, उपशम भाव से युक्त, तथा अपनी निंदा और गर्हा करने वाले विरलेजन ही पुण्य कर्म का उपार्जन करते हैं।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/13/33/9 </span>निजपरमात्मद्रव्यमुपादेयम्, इंद्रियसुखादिपरद्रव्यं हि हेयमित्यर्हत्सर्वज्ञप्रणीतनिश्चयव्यवहारनयसाध्यसाधकभावेन मन्यते परं किंतु भूमिरेखादिसदृशक्रोधादिद्वितीयकषायोदयेन मारणनिमित्तं तलवरगृहीततस्करवदात्मनिंदासहित: संनिंद्रियसुखमनुभवतीत्यविरतसम्यग्दृष्टेर्लक्षणम् ।</span> =<span class="HindiText">निज परमात्म द्रव्य उपादेय है तथा इंद्रिय सुख आदि परद्रव्य त्याज्य हैं, इस प्रकार सर्वज्ञ प्रणीत निश्चय, व्यवहार को साध्य साधक भाव से मानता है, परंतु भूमि की रेखा के समान क्रोध आदि अप्रत्याख्यानकषाय के उदय से, मारने के लिए कोतवाल से पकड़े हुए चोर की भाँति आत्मनिंदादि सहित होकर इंद्रिय सुख का अनुभव करता है, वह अविरत सम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थानवर्ती है। (<span class="GRef"> सागार धर्मामृत/1/13 </span>)</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/13/33/9 </span>निजपरमात्मद्रव्यमुपादेयम्, इंद्रियसुखादिपरद्रव्यं हि हेयमित्यर्हत्सर्वज्ञप्रणीतनिश्चयव्यवहारनयसाध्यसाधकभावेन मन्यते परं किंतु भूमिरेखादिसदृशक्रोधादिद्वितीयकषायोदयेन मारणनिमित्तं तलवरगृहीततस्करवदात्मनिंदासहित: संनिंद्रियसुखमनुभवतीत्यविरतसम्यग्दृष्टेर्लक्षणम् ।</span> =<span class="HindiText">निज परमात्म द्रव्य उपादेय है तथा इंद्रिय सुख आदि परद्रव्य त्याज्य हैं, इस प्रकार सर्वज्ञ प्रणीत निश्चय, व्यवहार को साध्य साधक भाव से मानता है, परंतु भूमि की रेखा के समान क्रोध आदि अप्रत्याख्यानकषाय के उदय से, मारने के लिए कोतवाल से पकड़े हुए चोर की भाँति आत्मनिंदादि सहित होकर इंद्रिय सुख का अनुभव करता है, वह अविरत सम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थानवर्ती है। (<span class="GRef"> सागार धर्मामृत/1/13 </span>)</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/427 </span>दृङ्मोहस्योदयाभावात् प्रसिद्ध: प्रशमो गुण:। तत्राभिव्यंजकं बाह्यंनिंदनं चापि गर्हणम् ।472।</span> =<span class="HindiText">दर्शनमोहनीय के उदय के अभाव से प्रशम गुण उत्पन्न होता है और प्रशम के बाह्यरूप अभिव्यंजक निंदा तथा गर्हा ये दोनों होते हैं।472।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/427 </span>दृङ्मोहस्योदयाभावात् प्रसिद्ध: प्रशमो गुण:। तत्राभिव्यंजकं बाह्यंनिंदनं चापि गर्हणम् ।472।</span> =<span class="HindiText">दर्शनमोहनीय के उदय के अभाव से प्रशम गुण उत्पन्न होता है और प्रशम के बाह्यरूप अभिव्यंजक निंदा तथा गर्हा ये दोनों होते हैं।472।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/ </span>पं.जयचंद/391 इसके असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि कार्यों में हिंसा होती है। तो भी मारने का अभिमत नहीं है, कार्य का अभिप्राय है। वहाँ घात होता है, उसके लिए अपनी निंदा गर्हा करता है। इसके त्रस हिंसा न करने के पक्ष मात्र से पाक्षिक कहलाता है। यह अप्रत्याख्यानावरण कषाय के मंद परिणाम हैं, इसलिए अव्रती ही है।</p> | <p class="HindiText"><span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/ </span>पं.जयचंद/391 इसके असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि कार्यों में हिंसा होती है। तो भी मारने का अभिमत नहीं है, कार्य का अभिप्राय है। वहाँ घात होता है, उसके लिए अपनी निंदा गर्हा करता है। इसके त्रस हिंसा न करने के पक्ष मात्र से पाक्षिक कहलाता है। यह अप्रत्याख्यानावरण कषाय के मंद परिणाम हैं, इसलिए अव्रती ही है।</p> | ||
<p class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4">4. अविरत सम्यग्दृष्टि के अन्य बाह्य चिह्न</li> | <p class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4">4. अविरत सम्यग्दृष्टि के अन्य बाह्य चिह्न</strong></li> | ||
<p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/313-324 </span>जो ण या कुव्वदि गव्वं पुत्तकलत्ताइसव्वअत्थेसु। उवसमभावे भावदि अप्पाणं मुणदि तिणमेत्तं।313। उत्तमगुणगहणरओ उत्तमसाहूण विणयसंजुत्तो। साहम्मिय अणुराई सो सद्दिट्ठी हवे परमो।315। एवं जो णिच्छयदो जाणदि दव्वाणि सव्वपज्जाए। सो सद्दिट्ठी सुद्धो जो संकदि सो हु कुदिट्ठी।323। जो ण विजाणदि तच्चं सो जिणवयणे करेदि सद्दहणं। जं जिणवरेहि भणियं तं सव्वमहं समिच्छामि।324।</span>=<span class="HindiText">वह सम्यग्दृष्टि पुत्र, स्त्री आदि समस्त पदार्थों में गर्व नहीं करता, उपशमभाव को भाता है और अपने को तृणसमान मानता है।313। जो उत्तम गुणों को ग्रहण करने में तत्पर रहता है, उत्तम साधुओं की विनय करता है, तथा साधर्मी जनों से अनुराग करता है, वह उत्कृष्ट सम्यग्दृष्टि है।315। इस प्रकार जो निश्चय से सब द्रव्यों को और सब पर्यायों को जानता है, वह सम्यग्दृष्टि है और जो उनके अस्तित्व में शंका करता है, वह मिथ्यादृष्टि है।323। जो तत्त्वों को नहीं जानता किंतु जिनवचन में श्रद्धान करता है (देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.1.2 | सम्यग्दर्शन - I.1.2]],3) कि जिनवर भगवान् ने को कुछ कहा है, वह सब मुझे पसंद है। वह भी श्रद्धावान् है।324।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/313-324 </span>जो ण या कुव्वदि गव्वं पुत्तकलत्ताइसव्वअत्थेसु। उवसमभावे भावदि अप्पाणं मुणदि तिणमेत्तं।313। उत्तमगुणगहणरओ उत्तमसाहूण विणयसंजुत्तो। साहम्मिय अणुराई सो सद्दिट्ठी हवे परमो।315। एवं जो णिच्छयदो जाणदि दव्वाणि सव्वपज्जाए। सो सद्दिट्ठी सुद्धो जो संकदि सो हु कुदिट्ठी।323। जो ण विजाणदि तच्चं सो जिणवयणे करेदि सद्दहणं। जं जिणवरेहि भणियं तं सव्वमहं समिच्छामि।324।</span>=<span class="HindiText">वह सम्यग्दृष्टि पुत्र, स्त्री आदि समस्त पदार्थों में गर्व नहीं करता, उपशमभाव को भाता है और अपने को तृणसमान मानता है।313। जो उत्तम गुणों को ग्रहण करने में तत्पर रहता है, उत्तम साधुओं की विनय करता है, तथा साधर्मी जनों से अनुराग करता है, वह उत्कृष्ट सम्यग्दृष्टि है।315। इस प्रकार जो निश्चय से सब द्रव्यों को और सब पर्यायों को जानता है, वह सम्यग्दृष्टि है और जो उनके अस्तित्व में शंका करता है, वह मिथ्यादृष्टि है।323। जो तत्त्वों को नहीं जानता किंतु जिनवचन में श्रद्धान करता है (देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.1.2 | सम्यग्दर्शन - I.1.2]],3) कि जिनवर भगवान् ने को कुछ कहा है, वह सब मुझे पसंद है। वह भी श्रद्धावान् है।324।</span></p> | ||
<p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]/1 (देव, गुरु, धर्म, तत्त्व व पदार्थों आदि की श्रद्धा करता है, आत्मस्वभाव की रुचि रखता है।)</p> | <p class="HindiText">देखें [[ सम्यग्दर्शन#II | सम्यग्दर्शन - II]]/1 (देव, गुरु, धर्म, तत्त्व व पदार्थों आदि की श्रद्धा करता है, आत्मस्वभाव की रुचि रखता है।)</p> |
Revision as of 14:11, 13 April 2023
सम्यग्दृष्टि-सम्यग्दर्शन युक्त जीव को सम्यग्दृष्टि कहते हैं जो चारों गतियों में होने संभव हैं। दृष्टि की विचित्रता के कारण इनका विचारण व चिंतवन सांसारिक लोगों से कुछ विभिन्न प्रकार का होता है, जिसे साधारण जन नहीं समझ सकते। सांसारिक लोग बाह्य जगत् की ओर दौड़ते हैं और वह अंतरंग जगत् की ओर। बाह्यपदार्थों के संयोग आदि को भी कुछ विचित्र ही प्रकार से ग्रहण करता है। इसी कारण बाहर में रागी व भोगी रहता हुआ भी वह अंतरंग में विरागी व योगी बना रहता है। यद्यपि कषायोद्रेक वश कषाय आदि भी करता है पर विवेक ज्योति खुली रहने के कारण नित्य उनके प्रति निंदन गर्हण वर्तता है। इसी से उसके कषाय युक्त भाव भी ज्ञानमयी व निरास्रव कहे जाते हैं।
- सम्यग्दृष्टि सामान्य निर्देश
- * अन्य अनेकों लक्षण वैराग्य, गुण, नि:शंकितादि
- * अंग आदि का निर्देश -देखें सम्यग्दृष्टि - 5.4।
- * भय व संशय आदि के अभाव संबंधी -देखें नि:शंकित ।
- * आकांक्षा व राग के अभाव संबंधी -देखें राग - 6।
- * सम्यग्दृष्टि का सुख -देखें सुख - 2.7।
- * अंधश्रद्धान का विधि निषेध -देखें श्रद्धान /3।
- * एक पारिणामिक भाव का आश्रय -देखें मोक्षमार्ग - 2/4।
- * सम्यग्दृष्टि दो तीन ही होते हैं -देखें संख्या - 2.7।
- * सम्यग्दृष्टि को ज्ञानी कहने की विवक्षा -देखें ज्ञानी ।
- सम्यग्दृष्टि की महिमा का निर्देश
- * सम्यग्दृष्टि एकदेशजिन कहलाते हैं -देखें जिन - 3।
- * वह रागी भी विरागी है -देखें राग - 6/3,4।
- * विषय सेवता हुआ भी वह असेवक है -देखें राग - 6।
- उसके सब कार्य निर्जरा के निमित्त हैं।
- अनुपयुक्त दशा में भी उसे निर्जरा होती है।
- उसकी कर्म चेतना भी ज्ञान चेतना है।
- * कर्म करता हुआ भी वह अकर्ता है -देखें चेतना - 3।
- * सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि के पुण्य व धर्म में अंतर -देखें मिथ्यादृष्टि - 4।
- * सम्यग्दृष्टि को ही सच्ची भक्ति होती है -देखें भक्ति - 1।
- * सम्यग्दृष्टि का ही ज्ञान प्रमाण है -देखें प्रमाण - 2.2,4।
- * सम्यग्दृष्टि का आत्मानुभव व उसकी प्रत्यक्षता। -देखें अनुभव /4,5।
- * उसका कुशास्त्र ज्ञान भी सम्यक् है -देखें ज्ञान - III.2/10।
- * मरकर उच्चकुल आदिक में ही जन्मता है -देखें जन्म - 3।
- * उसकी भवधारणा की सीमा -देखें सम्यग्दर्शन - I.5।
- उपरोक्त महिमा संबंधी समन्वय
- * शुद्धाशुद्धोपयोग दोनों युगपत् होते हैं। -देखें उपयोग - II.3।
- * राग व विराग संबंधी -देखें राग - 6।
- * कर्तापने व अकर्तापने संबंधी -देखें चेतना - 3।
- सम्यग्दृष्टि की विशेषताएँ
- * सम्यग्दृष्टि स्व व पर दोनों के सम्यक्त्व को जानता है -देखें सम्यग्दर्शन - I.3।
- * वह नय को जानता है पर उसका पक्ष नहीं करता -देखें नय - I.3.5।
- * सम्यग्दृष्टि वाद नहीं करता -देखें वाद ।
- * वह पुण्य को हेय जानता है पर विषय वंचनार्थ उसका सेवन करता है -देखें पुण्य - 3,5।
- * सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि की क्रियाओं व कर्म क्षपणा में अंतर -देखें मिथ्यादृष्टि - 4।
- अविरत सम्यग्दृष्टि
- * उसके परिणाम अध:प्रवृत्तिकरणरूप होते हैं -देखें करण - 4।
- * उस गुणस्थान में संभव भाव -देखें भाव - 2.9।
- * वेदक सम्यग्दृष्टि के क्षायोपशमिक भाव संबंधी शंका -देखें क्षयोपशम - 2।
- अपने दोषों के प्रति निंदन गर्हण करना उसका स्वाभाविक व्रत है।
- अविरत सम्यग्दृष्टि के अन्य बाह्य चिह्न।
- * इस गुणस्थान में मार्गणा जीवसमास आदि रूप 20 प्ररूपणाएँ -देखें सत्
- * इस गुणस्थान में सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ -देखें वह वह नाम ।
- * सभी गुणस्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम -देखें मार्गणा ।
- * इस गुणस्थान में कर्मों का बंध उदय सत्त्व -देखें वह वह नाम ।
- * अविरत सम्यग्दृष्टि व दर्शन प्रतिमा में अंतर -देखें दर्शन प्रतिमा ।
- * अविरत सम्यग्दृष्टि और पाक्षिक श्रावक में कथंचित् समानता -देखें श्रावक - 3।
- * पुन: पुन: यह गुणस्थान प्राप्ति की सीमा -देखें सम्यग्दर्शन - I.1.7।
- * असंयत सम्यग्दृष्टि वंद्य नहीं -देखें विनय - 4।
- * अविरत भी वह मोक्षमार्गी है -देखें सम्यग्दर्शन - I.5।
1. सम्यग्दृष्टि सामान्य निर्देश
1. सम्यग्दृष्टि का लक्षण
मोक्षपाहुड़/14 सद्दव्वरओ सवणो सम्माइट्ठी हवेइ सो साहू। सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुट्ठट्ठकम्मइं।14। जो साधु अपनी आत्मा में रत हैं अर्थात् रुचि सहित हैं वे सम्यग्दृष्टि हैं। सम्यक्त्व भाव से युक्त होते हुए वे दुष्ट अष्टकर्मों का क्षय करते हैं। (भावपाहुड/मूल/31)
परमात्मप्रकाश/ मूल/1/76 अप्पिं अप्पु मुणंतु जिउ सम्मादिट्ठि हवेइ। सम्माइट्ठिउ जीवडउ लहु कम्मइं मुच्चेइ।76। =अपने को अपने से जानता हुआ यह जीव सम्यग्दृष्टि होता है और सम्यग्दृष्टि होता हुआ शीघ्र ही कर्मों से छूट जाता है।
देखें सम्यग्दर्शन - II/1/1/6 [सूत्र प्रणीत जीव अजीव आदि पदार्थों को हेय व उपादेय बुद्धि से जो जानता है वह सम्यग्दृष्टि है।]
देखें नियति - 1.2 [जो जब जहाँ जैसे होना होता है वह तब तहाँ तैसे ही होता है, इस प्रकार जो मानता है वह सम्यग्दृष्टि है।]
देखें सम्यग्दृष्टि - 5 [वैराग्य भक्ति आत्मनिंदन युक्त होता]
2. सिद्धांत या आगम को भी कथंचित् सम्यग्दृष्टि व्यपदेश
धवला 13/5,5,50/11 सम्यग्दृश्यंते परिच्छिद्यंते जीवादय: पदार्था: अनया इति सम्यग्दृष्टि: श्रुति: सम्यग्दृश्यंते अनया जीवादय: पदार्था: इति सम्यग्दृष्टि: सम्यग्दृष्टयविनाभाववद्वा सम्यग्दृष्टि:। =इसके द्वारा जीवादि पदार्थ सम्यक् प्रकार से देखे जाते हैं अर्थात् जाने जाते हैं, इसलिए इस (सिद्धांत) का नाम सम्यग्दृष्टि या श्रुति है। इसके द्वारा जीवादिक पदार्थ सम्यक् प्रकार से देखे जाते हैं अर्थात् श्रद्धान किये जाते हैं इसलिए इसका नाम सम्यग्दृष्टि है। अथवा सम्यग्दृष्टि के साथ श्रुति का अविनाभाव होने से उसका नाम सम्यग्दृष्टि है।
2. सम्यग्दृष्टि की महिमा का निर्देश
1. उसके सब भाव ज्ञानमयी हैं
समयसार/128 णाणमया भावाओ णाणमओ चेव जायए भावो। जम्हा तम्हा णाणिस्स सव्वे भावा हु णाणमया। =क्योंकि ज्ञानमय भावों में से ज्ञानमय ही भाव उत्पन्न होते हैं, इसलिए ज्ञानियों के समस्त भाव वास्तव में ज्ञानमय ही होते हैं।128। ( समयसार / आत्मख्याति/128/ कलश 67)।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/231 यस्माज्ज्ञानमया भावा ज्ञानिनां ज्ञाननिर्वृता:। अज्ञानमयभावानां नावकाश: सुदृष्टिषु।231। =क्योंकि ज्ञानियों के सर्वभाव ज्ञानमयी होते हैं, इसलिए सम्यग्दृष्टियों में अज्ञानमयी भाव अवकाश नहीं पाते।
2. वह सदा निरास्रव व अबंध है
समयसार मूल/107 चउविहं अणेयभेहं बंधंते णाणदंसणगुणेहिं। समए समए जम्हा तेण अबंधोत्ति णाणो दु। =क्योंकि चार प्रकार के द्रव्यास्रव ज्ञानदर्शन गुणों के द्वारा समय-समय पर अनेक प्रकार का कर्म बाँधते हैं, इसलिए ज्ञानी तो अबंध है। (विशेष देखें सम्यग्दृष्टि - 3.2)
3. कर्म करता हुआ भी वह बँधता नहीं
समयसार/196,218 जह मज्जं पिवमाणो अरदिभावेण मज्जदि ण पुरिसो। दव्वुवभोगे अरदो णाणी वि ण बज्झदि तहेव।196। णाणी रागप्पजहो सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो। णे लिप्पदि रजएण दु कद्दममज्झे जहा कणयं।218। =1. जैसे कोई पुरुष मदिरा को अरति भाव से पीता हुआ मतवाला नहीं होता, इसी प्रकार ज्ञानी भी द्रव्य के उपभोग के प्रति अरति वर्तता हुआ बंध को प्राप्त नहीं होता।196। 2. ज्ञानी जो कि सर्व द्रव्यों के प्रति राग को छोड़ने वाला है, वह कर्मों के मध्य में रहा हुआ हो तो भी कर्म रूपी रज से लिप्त नहीं होता -जैसे सोना कीचड़ के बीच पड़ा हुआ हो तो भी लिप्त नहीं होता।218।
भावपाहुड़/ मूल/154 जह सलिलेण ण लिप्पइ कमलिणिपत्तं सहावपयडीए। तह भावेण ण लिप्पइ कसायविसएहिं सप्पुरिसो।154। =जिस प्रकार जल में रहता हुआ भी कमलिनीपत्र अपने स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि पुरुष क्रोधादि कषाय और इंद्रियों के विषयों में संलग्न भी अपने भावों से उनके साथ लिप्त नहीं होता।
योगसार/अमितगति/4/19 ज्ञानी विषयसंगेऽपि विषयैर्नैव लिप्यते। कनकं मलमध्येऽपि न मलैरुपलिप्यते।19। =जिस प्रकार स्वर्ण कीचड़ के बीच रहता हुआ भी कीचड़ से लिप्त नहीं होता उसी प्रकार ज्ञानी विषय भोग करता हुआ भी विषयों में लिप्त नहीं होता।19।
भावपाहुड़ टीका/152/296 पर उद्धृत -धात्री बालाऽसतीनाथपद्मिनीदलवारिवत् । दग्धरज्जुवदाभासं भुंजन् राज्यं न पापभाक् ।6। =जिस प्रकार पतिव्रता नहीं है ऐसी युवती धाय अपने पति के साथ दिखावटी संबंध रखती है, जिस प्रकार कमल का पत्ता पानी के साथ दिखावटी संबंध रखता है, और जिस प्रकार जली हुई रज्जू मात्र देखने में ही रज्जू है, उसी प्रकार ज्ञानी राज्य को भोगता हुआ भी पाप का भागी नहीं होता।
दर्शनपाहुड़/ टीका/7/7/8 सम्यग्दृष्टेर्लग्नमपि पापं बंधं न याति कौरघटस्थितं रज इव न बंधं याति। =जिस प्रकार कोरे घड़े पर पड़ी हुई रज उसके साथ संबंध को प्राप्त नहीं होती, उसी प्रकार पाप के साथ लग्न भी सम्यग्दृष्टि बंध को प्राप्त नहीं होता।
4. उसके सर्व कार्य निर्जरा के निमित्त हैं
समयसार/193 उवभोगमिंदियेहिं दव्वाणमचेदणाणमिदराणं। जं कुणदि सम्मदिट्ठी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं।193। =सम्यग्दृष्टि जीव जो इंद्रियों के द्वारा अचेतन तथा चेतन द्रव्यों का उपभोग करता है वह सर्व उसके लिए निर्जरा का निमित्त है।
ज्ञानार्णव/32/38 अलौकिकमहो वृत्तं ज्ञानिन: केन वर्ण्यते। अज्ञानी बध्यते यत्र ज्ञानी तत्रैव मुच्यते।38। =अहो, देखो ज्ञानी पुरुषों के इस अलौकिक चारित्र का कौन वर्णन कर सकता है। जहाँ अज्ञानी बंध को प्राप्त होता है, उसी आचरण में ज्ञानी कर्मों से छूट जाता है।38। ( योगसार/अमितगति/6/18)
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/230 आस्तां न बंधहेतु: स्याज्ज्ञानिनां कर्मजा क्रिया। चित्रं यत्पूर्वबद्धानां निर्जरायै च कर्मणाम् ।230। =ज्ञानियों की कर्म से उत्पन्न होने वाली क्रिया बंध का कारण नहीं होती है, यह बात तो दूर रही, परंतु आश्चर्य तो यह है कि उनकी जो भी क्रिया है वह सब पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा के लिए ही कारण होती है।230।
5. अनुपयुक्त दशा में भी उसे निर्जरा होती है
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/878 आत्मन्येवोपयोग्यवस्तु ज्ञानं वा स्यात् परात्मनि। सत्सु सम्यक्त्वभावेषु संति ते निर्जरादय:। =ज्ञान चाहे आत्मा में उपयुक्त हो अथवा कदाचित् परपदार्थों में उपयुक्त हो परंतु सम्यक्त्व भाव के होने पर वे निर्जरादिक अवश्य होते हैं।878।
6. उसकी कर्म चेतना भी ज्ञान चेतना है
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/275 अस्ति तस्यापि सद्दृष्टे: कस्यचित्कर्मचेतना। अपि कर्मफले सा स्यादर्थतो ज्ञानचेतना।275। =यद्यपि जघन्य भूमिका में किसी-किसी सम्यग्दृष्टि के कर्मचेतना और कर्मफलचेतना भी होती है, पर वास्तव में वह ज्ञानचेतना ही है।
7. उसके कुध्यान भी कुगति के कारण नहीं
द्रव्यसंग्रह/टीका/48/201/3 चतुर्विधमार्त्तध्यानम् । ...यद्यपि मिथ्यादृष्टीनां तिर्यग्गतिकारणं भवति तथापि बद्धायुष्कं विहाय सम्यग्दृष्टीनां न भवति।...रौद्रध्यानं...तच्च मिथ्यादृष्टीनां नरकगतिकारणमपि बद्धायुष्कं विहाय सम्यग्दृष्टीनां तत्कारणं न भवति। =चार प्रकार का आर्तध्यान यद्यपि मिथ्यादृष्टि जीवों को तिर्यंचगति का कारण होता है तथापि बद्धायुष्क को छोड़कर अन्य सम्यग्दृष्टियों को वह तिर्यंचगति का कारण नहीं होता है। (इसी प्रकार) रौद्रध्यान भी मिथ्यादृष्टियों को नरकगति का कारण होता है, परंतु बद्धायुष्क को छोड़कर अन्य सम्यग्दृष्टियों को वह नरक का कारण नहीं होता है।
8. वह वर्तमान में ही मुक्त है
समयसार / आत्मख्याति/318/ कलश 198 ज्ञानी करोति न न वेदयते च कर्म, जानाति केवलमयं किल तत्स्वभावम् । जानन्परं करणवेदनयोरभावाच्छुद्धस्वभावनियत: स हि मुक्त एव।198। =ज्ञानी कर्म को न तो करता है और न भोगता है, वह कर्म के स्वभाव को मात्र जानता ही है। इस प्रकार मात्र जानता हुआ करने और भोगने के अभाव के कारण, शुद्ध स्वभाव में निश्चल ऐसा वह वास्तव में मुक्त है।
ज्ञानार्णव/6/57 मन्ये मुक्त: स पुण्यात्मा विशुद्धं यस्य दर्शनम् । यतस्तदेव मुत्तयंगमग्रिमं परिकीर्तितम् ।57। =जिसको विशुद्ध सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ है वह पुण्यात्मा मुक्त है ऐसा मैं मानता हूँ। क्योंकि, सम्यग्दर्शन ही मोक्ष का मुख्य अंग कहा गया है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/61/ कलश 81 इत्थं बुद्धवा परमसमितिं मुक्तिकांतासखीं यो, मुक्तवा संगं भवभयकरं हेमरामात्मकं च। स्थित्वाऽपूर्वे सहजविलसच्चिच्चमत्कारमात्रे, भेदाभावे समयति च य: सर्वदा मुक्त एव।81। =इस प्रकार मुक्तिकांता ही सखी परम समिति को जानकर जो जीव भवभय के करने वाले कंचनकामिनी के संग को छोड़कर, अपूर्व सहज विलसते अभेद चैतन्य चमत्कार मात्र स्थित रहकर सम्यक् ‘इति’ करते हैं अर्थात् सम्यक् रूप से परिणमित होते हैं वे सर्वदा मुक्त ही हैं।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/232 वैराग्यं परमोपेक्षाज्ञानं स्वानुभव: स्वयम् । तद्द्वयं ज्ञानिनो लक्ष्म जीवन्मुक्त: स एव च।232। =परमोपेक्षारूप वैराग्य और आत्मप्रत्यक्ष रूप स्वसंवेद ज्ञान ही ज्ञानी के लक्षण है। जिसके ये दोनों होते हैं, वह ज्ञानी जीवन्मुक्त है।
3. उपरोक्त महिमा संबंधी समन्वय
1. भावों में ज्ञानमयीपने संबंधी
समयसार/ पं.जयचंद/128 ज्ञानी के सर्वभाव ज्ञान जाति का उल्लंघन न करने से ज्ञानमयी हैं।
2. सदा निरास्रव व अबंध होने संबंधी
समयसार/177-178 रागो दोसो मोहो य आसवा णत्थि सम्मदिट्ठिस्स। तम्हा आसवभावेण विणा हेदू ण पंचया होंति।177। हेदू चदुवियप्पो अट्ठवियप्पस्स कारणं भणिदं। तेसिं पि य रागादी तेसिमभावे ण बज्झंति।178। =राग, द्वेष और मोह ये आस्रव सम्यग्दृष्टि के नहीं होते, इसलिए आस्रवभाव के बिना द्रव्यप्रत्यय कर्मबंध के कारण नहीं होते।177। मिथ्यात्व अविरति प्रमाद और कषाय ये चार प्रकार के हेतु, आठ प्रकार के कर्मों के कारण कहे गये हैं, और उनके भी कारण रागादि भाव हैं। इसलिए उनके अभाव में ज्ञानी को कर्म नहीं बँधते।178।
इष्टोपदेश/44 अगच्छंस्तद्विशेषाणामनभिज्ञश्च जायते। अज्ञाततद्विशेषस्तु बद्धयते न विमुच्यते।44। =स्वात्मतत्त्व में निष्ठ योगी की जब पर पदार्थों से निवृत्ति होती है, तब उनके अच्छे बुरे आदि विकल्पों का उसे अनुभव नहीं होता। तब वह योगी कर्मों से भी नहीं बँधता, किंतु कर्मों से छूटता ही है।
समयसार / आत्मख्याति/170-171 ज्ञानी हि तावदास्रव-भावभावनाभिप्रायाभावान्निरास्रव एव। यत्तु तस्यापि द्रव्यप्रत्यया: प्रतिसमयमनेकप्रकारं पुद्गलकर्म बध्नंति तत्र ज्ञानगुणपरिणाम एव हेतु:।170। ...तस्यांतर्मुहूर्तविपरिणामित्वात् पुन: पुनरन्यतमोऽस्ति परिणाम:। स तु यथाख्यातचारित्रावस्थाया अधस्तादवश्यंभाविरागसद्भावात् बंधहेतुरेव स्यात् ।171। =ज्ञानी तो आस्रवभाव की भावना के अभिप्राय के अभाव के कारण निरास्रव ही है परंतु जो उसे भी द्रव्यप्रत्यय प्रति समय अनेक प्रकार का पुद्गलकर्म बाँधते हैं, वहाँ क्षायोपशमिक ज्ञान का परिणमन ही कारण है।170। क्योंकि वह अंतर्मुहूर्तपरिणामी है। इसलिए यथाख्यात चारित्रअवस्था से पहले उसे अवश्य ही रागभाव का सद्भाव होने से, वह ज्ञान बंध का कारण ही है।
समयसार / आत्मख्याति/172/ क./116 संन्यसन्निजबुद्धिपूर्वमनिशं रागं समग्रं स्वयं, बारंबारमबुद्धिपूर्वमपि ते जेतुं स्वशक्तिं स्पृशन् । उच्छिनदन्परवृत्तिमेव सकलो ज्ञानस्य पूर्णोभवन्नात्मा नित्यनिरास्रवो भवति हि ज्ञानी यदा स्यात्तदा।116। =आत्मा जब ज्ञानी होता है, तब स्वयं अपने समस्त बुद्धिपूर्वक राग को निरंतर छोड़ता हुआ अर्थात् न करता हुआ, और जो अबुद्धिपूर्वक राग है उसे भी जीतने के लिए बारंबार (ज्ञानानुभव रूप) स्वशक्ति को स्पर्श करता हुआ, और (इस प्रकार) समस्त प्रवृत्ति को -परपरिणति को उखाड़ता हुआ, ज्ञान के पूर्ण भावरूप होता हुआ, वास्तव में सदा निरास्रव है।
समयसार / आत्मख्याति 173-176 ज्ञानिनो यदि द्रव्यप्रत्यया: पूर्वबद्धा: संति, संतु; तथापि स तु निरास्रव एव, कर्मोदयकार्यस्य रागद्वेषमोहरूपस्यास्रवभावस्याभावे द्रव्यप्रत्ययानामबंधहेतुत्वात् ।=ज्ञानी के यदि पूर्वबद्ध द्रव्यप्रत्यय विद्यमान हैं; तो भले रहें; तथापि वह तो निरास्रव ही है; क्योंकि, कर्मोदय का कार्य जो रागद्वेषमोहरूप आस्रवभाव हैं उसके अभाव में द्रव्य प्रत्यय बंध का कारण नहीं है।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/172/239/6 यथाख्यातचारित्राधस्तादंतर्मूहूर्तानंतरं निर्विकल्पसमाधौ स्थातुं न शक्यत इति भणितं पूर्वं। एवं सति कथं ज्ञानी निरास्रव इति चेत्, ज्ञानी तावदीहापूर्वरागादिविकल्पकरणाभावान्निरास्रव एव। किंतु सोऽपि यावत्कालं परमसमाधेरनुष्ठानाभावे सति शुद्धात्मस्वरूपं द्रष्टुं ज्ञातुमनुचरितुं वासमर्थ: तावत्कालं तस्यापि संबंधि यद्दर्शनं ज्ञानं चारित्रं तज्जघन्यभावेन सकषायभावेन अनोहितवृत्त्या परिणमति, तेन कारणेन स तु भेदज्ञानी...विविधपुण्यकर्मणा बध्यते। =प्रश्न -यथाख्यात चारित्र से पहले अंतर्मुहूर्त के अनंतर निर्विकल्प समाधि में स्थित रहना शक्य नहीं है, ऐसा पहले कहा गया है। ऐसा होने पर ज्ञानी निरास्रव कैसे हो सकता है ? उत्तर -1. ज्ञानी क्योंकि ईहा पूर्वक अर्थात् अभिप्रायपूर्वक रागादि विकल्प नहीं करता है, इसलिए वह निरास्रव ही है। ( अनगारधर्मामृत/8/4/733 ) 2. किंतु जबतक परमसमाधि के अनुष्ठान के अभाव में वह भी शुद्धात्मस्वरूप को देखने-जानने व आचरण करने में असमर्थ रहता है, तब तक उसके भी तत्संबंधी जो दर्शन ज्ञान चारित्र हैं वे जघन्यभाव से अर्थात् कषायभाव से अनीहितवृत्ति से स्वयं परिणमते हैं। उसके कारण यह भेदज्ञानी भी विविध प्रकार के पुण्यकर्म से बँधता है।
देखें उपयोग - II.3 [जितने अंश में उसे राग है उतने अंश में आस्रव व बंध है और जितने अंश में राग का अभाव है, उतने अंश में निरास्रव व अबंध है।]
3. सर्व कार्यों में निर्जरा संबंधी
समयसार/194 दव्वे उवभुंजंते णियमा जायदि सुहं च दुक्खं वा। तं सुहदुक्खमुदिण्णं वेददि अह णिज्जरं जादि।194। =वस्तु भोगने में आने पर सुख अथवा दु:ख नियम से उत्पन्न होता है। उदय को प्राप्त उस सुखदु:ख का अनुभव करता है तत्पश्चात् वह (सुख-दुखरूपभाव) निर्जरा को प्राप्त होता है। (इस प्रकार भाव निर्जरा की अपेक्षा समाधान है)।194।
समयसार / आत्मख्याति/193-195 रागादिभावानां सद्भावेन मिथ्यादृष्टेरचेतनान्यद्रव्योपभोगो बंधनिमित्तमेव स्यात् । स एव रागादिभावानामभावेन सम्यग्दृष्टेर्निर्जरानिमित्तमेव स्यात् । एतेन द्रव्यनिर्जरास्वरूपमावेदयति।193। अथ भावनिर्जरास्वरूपमावेदयति। स तु यदा वेद्यते तदा मिथ्यादृष्टे: रागादिभावानां सद्भावेन बंधनिमित्तं भूत्वा निर्जीर्यमाणोपजीर्ण: सन् बंध एव स्यात् । सम्यग्दृष्टेस्तु रागादिभावानामभावेन बंधनिमित्तमभूत्वा केवलमेव निर्जीयमाणो निर्जीर्ण: सन्निर्जरैव स्यात् ।194। =रागादि भावों के सद्भाव से मिथ्यादृष्टि के जो अचेतन तथा चेतन द्रव्यों का उपभोग बंध का निमित्त होता है; वही रागादिभावों के अभाव के कारण सम्यग्दृष्टि के लिए निर्जरा का निमित्त होता है। इस प्रकार द्रव्य निर्जरा का स्वरूप कहा।193। अब भाव निर्जरा का स्वरूप कहते हैं -जब उस (कर्मोदयजन्य सुखरूप अथवा दु:खरूप) भाव का वेदन होता है तब मिथ्यादृष्टि को, रागादिभावों के सद्भाव से (नवीन) बंध का निमित्त होकर निर्जरा को प्राप्त होता हुआ भी, निर्जरित न होता हुआ बंध ही होता है; किंतु सम्यग्दृष्टि के रागादिभावों के अभाव से बंध का निमित्त हुए बिना केवल मात्र निर्जरित होने से, निर्जरित होता हुआ, निर्जरा ही होती है।194।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/193/267/14 अत्राह शिष्य: -रागद्वेषमोहाभावे सति निर्जराकारणं भणितं सम्यग्दृष्टेस्तु रागादय: संति, तत: कथं निर्जराकारणं भवतीति। अस्मिन्पूर्वपक्षे परिहार: -अत्र ग्रंथे वस्तुवृत्त्या वीतरागसम्यग्दृष्टेर्ग्रहणं, यस्तु चतुर्थगुणस्थानवर्तिसरागसम्यग्दृष्टयस्तस्य गौणवृत्त्या ग्रहणं, तत्र तु परिहार: पूर्वमेव भणित:। कथमिति चेत् । मिथ्यादृष्टे: सकाशादसंयतसम्यग्दृष्टे: अनंतानुबंधिक्रोधमानमायालोभमिथ्यात्वोदयजनिता:, श्रावकस्य च प्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभोदयजनिता रागादयो न संतीत्यादि। किंच सम्यग्दृष्टे: संवरपूर्विका निर्जरा भवति, मिथ्यादृष्टेस्तु गजस्नानवत् बंधपूर्विका भवति। तेन कारणेन मिथ्यादृष्टयपेक्षया सम्यग्दृष्टिरबंधक इति। एवं द्रव्यनिर्जराव्याख्यानरूपेण गाथा गता। =प्रश्न -राग-द्वेष व मोह का अभाव होने पर भोग आदि निर्जरा के कारण कहे गये हैं, परंतु सम्यग्दृष्टि के तो रागादि होते हैं, इसलिए उसे वे निर्जरा के कारण कैसे हो सकते हैं ? उत्तर -1. इस ग्रंथ में वस्तु वृत्ति से वीतराग सम्यग्दृष्टि ग्रहण किया गया है, जो चौथे गुणस्थानवर्ती सरागसम्यग्दृष्टि है उसका गौण वृत्ति से ग्रहण किया गया है। 2. सराग सम्यग्दृष्टि संबंधी समाधान पहले ही दे दिया गया है। वह ऐसे कि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा असंयत सम्यग्दृष्टि को अनंतानुबंधी चतुष्क और मिथ्यात्वोदयजन्य रागादिक तथा श्रावक को अप्रत्याख्यान चतुष्क जनित रागादि नहीं होते हैं। 3. सम्यग्दृष्टि को निर्जरा संवरपूर्वक होती है और मिथ्यादृष्टि की गजस्नानवत् बंधपूर्वक होती है। इस कारण मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि अबंधक है। इस प्रकार द्रव्यनिर्जरा के व्याख्यानरूप गाथा कही। 4. [सम्यग्दृष्टि चारित्रमोहोदय के वशीभूत होकर अरुचिपूर्वक सुख-दु:ख आदिक अनुभव करता है और मिथ्यादृष्टि उपादेय बुद्धि से करता है। इसलिए सम्यग्दृष्टि को भोगों का भोगना निर्जरा का निमित्त है। इस प्रकार भाव निर्जरा की अपेक्षा व्याख्यान जानना। (देखें राग - 6/6)]
4. ज्ञान चेतना संबंधी
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध 276 चेतनाया: फलं बंधस्तत्फले वाऽथ कर्मणि। रागाभावान्न बंधोऽस्य तस्मात्सा ज्ञानचेतना।276। =कर्म व कर्मफलरूप चेतना का फल कर्म बंध है, पर सम्यग्दृष्टि को राग का अभाव होने से बंध नहीं होता है, इसलिए उसकी वह कर्म व कर्मफल चेतना ज्ञानचेतना है।276।
5. अशुभ ध्यानों संबंधी
द्रव्यसंग्रह टीका/48/201/5 कस्मादिति चेत् -स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति विशिष्टभावनाबलेन तत्कारणभूतसंक्लेशाभावादिति।5। =प्रश्न -आर्तध्यान सम्यग्दृष्टि को मिथ्यादृष्टि की भाँति तिर्यंच गति का कारण क्यों नहीं होता ? उत्तर -सम्यग्दृष्टि जीवों के ‘निज शुद्ध आत्मा ही उपादेय है’ ऐसी भावना के कारण तिर्यंचगति का कारण रूप संक्लेश नहीं होता। [यही उत्तर रौद्रध्यान के लिए भी दिया गया है]
4. सम्यग्दृष्टि की विशेषताएँ
1. सम्यग्दृष्टि ही सम्यक्त्व व मिथ्यात्व के भेद को यथार्थत: जानता है
समयसार/ पं.जयचंद/200/क.137 सम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्व सहित राग नहीं होता और जिसके मिथ्यात्व सहित राग हो वह सम्यग्दृष्टि नहीं होता। ऐसे अंतर को सम्यग्दृष्टि ही जानता है। पहले तो मिथ्यादृष्टि का आत्म शास्त्र में प्रवेश ही नहीं है, और यदि वह प्रवेश करता है तो विपरीत समझता है -शुभभाव को सर्वथा छोड़कर भ्रष्ट होता है अथवा अशुभभावों में प्रवर्तता है, अथवा निश्चय को भली भाँति जाने बिना व्यवहार से ही (शुभभाव से ही) मोक्ष मानता है, परमार्थ तत्त्व में मूढ़ रहता है। यदि कोई बिरला जीव स्याद्वाद न्याय से सत्यार्थ को समझते तो उसे अवश्य ही सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, वह अवश्य सम्यग्दृष्टि हो जाता है।
<strong2. सम्यग्दृष्टि को पक्षपात नहीं होता
स्याद्वादमंजरी/ मू.श्लो.30/334 अन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षभावात् यथा परे मत्सरिण: प्रवादा:। नयानशेषानविशेषमिच्छन् न पक्षपाती समयस्तथा ते।30। =आत्मवादी लोग परस्पर पक्ष और प्रतिपक्ष भाव रखने के कारण एक दूसरे से ईर्ष्या करते हैं, परंतु संपूर्ण नयों को एक समान देखते वाले (देखें अनेकांत - 2) आपके शास्त्र में पक्षपात नहीं है।
3. जहाँ जगत् जागता है वहाँ ज्ञानी सोता है
मोक्षपाहुड़ 31 जो सुत्तो ववहारे सो जोइ जग्गए सकज्जम्मि। जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे।31। =जो योगी व्यवहार में सोता है वह अपने स्वरूप के कार्य में जागता है। और व्यवहार में जागता है, वह अपने कार्य में सोता है।31। ( समाधिशतक/78 )
परमात्मप्रकाश/ मू./2/46 जा णिसि सयलहँ देहियँ जोग्गिउ तर्हि जग्गेइ। जहिँ पुणु जग्गइ सयलु जगु सा णिसि मणिवि सुवेइ।46। =जो सब संसारी जीवों की रात है, उसमें परम तपस्वी जागता है, और जिसमें सब संसारी जीव जाग रहे हैं, उस दशा में योगी रात मानकर योग निद्रा में सोता है। ( ज्ञानार्णव/18/37 )।
5. अविरत सम्यग्दृष्टि निर्देश
1. अविरति सम्यग्दृष्टि का सामान्य लक्षण
पंचसंग्रह / प्राकृत/11 णो इंदियेसु विरदो णो जीवे थावरे तसे चावि। जो सद्दहइ जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो।11। =जो पाँचों इंद्रियों के विषयों में विरत नहीं है और न त्रस तथा स्थावर जीवों के घात से ही विरक्त है, किंतु केवल जिनोक्त तत्त्व का श्रद्धान करता है, वह चतुर्थगुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि है।11। ( धवला 1/1,1,12/ गा.111/173); ( गोम्मटसार जीवकांड/29/58 ); (और भी देखें असंयम )
राजवार्तिक/9/1/15/589/26 औपशमिकेन क्षायोपशमिकेन क्षायिकेण वा सम्यक्त्वेन समन्वित: चारित्रमोहोदयात् अत्यंतविरतिपरिणामप्रवणोऽसंयतसम्यग्दृष्टिरिति व्यपदिश्यते। =औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक इन तीनों में से किसी भी सम्यक्त्व से समन्वित तथा चारित्रमोह के उदय से जिसके परिणाम अत्यंत अविरतिरूप रहते हैं, उसको ‘असंयत सम्यग्दृष्टि’ ऐसा कहा जाता है।
धवला 1/1,1,12/171/1 समीचीनदृष्टि: श्रद्धा यस्यासौ सम्यग्दृष्टि:, असंयतश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्च, असंयतसम्यग्दृष्टि:। सो वि सम्माइट्ठी तिविहो, खइयसम्माइट्ठी वेदयसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी चेदि। =जिसकी दृष्टि अर्थात् श्रद्धा समीचीन होती है, उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं, और संयम रहित [अर्थात् इंद्रिय भोग व जीव हिंसा से विरक्त न होना (देखें असंयम )] सम्यग्दृष्टि को असंयत सम्यग्दृष्टि कहते हैं। वे सम्यग्दृष्टि जीव तीन प्रकार के हैं -क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और औपशमिक सम्यग्दृष्टि।
2. अव्रत सम्यग्दृष्टि सर्वथा अव्रती नहीं
देखें श्रावक - 3/4 [यद्यपि व्रतरूप से कुछ भी अंगीकार नहीं करता, पर कुलाचाररूप से अष्टमूलगुण धारण, स्थूल अणुव्रत पालन, स्थूल रूपेण रात्रि भोजन व सप्तव्यसन त्याग अवश्य करता है। क्योंकि ये सब क्रियाएँ व्रत न कहलाकर केवल कुलक्रिया कहलाती हैं, इसलिए वह अव्रती या असंयत कहलाता है। ये क्रियाएँ व्रती व अव्रती दोनों को होती हैं। व्रती को नियम व्रतरूप से और अव्रती को कुलाचार रूप से।]
देखें सम्यग्दर्शन - II/1/6 [निश्चय सम्यक्त्व युक्त होने पर भी चारित्र मोहोदयवश उसे आत्मध्यान में स्थिरता नहीं है तथा व्रत व प्रतिज्ञाएँ भंग भी हो जाती हैं, इसलिए असंयत कहा जाता है।]
मोक्षमार्ग प्रकाशक/9/499/22 कषायनि के असंख्यात लोकप्रमाण स्थान हैं। तिनिविषै सर्वत्र पूर्वस्थानतैं उत्तरस्थानविषैं मंदता पाइए है।...आदि के बहुत स्थान तौ असंयमरूप कहे, पीछे केतेक देश संयमरूप कहे। ...तिनिविषैं प्रथमगुणस्थानतैं लगाय चतुर्थ गुणस्थान पर्यंत जे कषाय के स्थान हो हैं, ते सर्व असंयम ही के हो हैं।...परमार्थतै कषाय का घटना चारित्र का अंश है...सर्वत्र असंयम की समानता न जानना।
3. अपने दोषों के प्रति निंदन गर्हण करना उसका स्वाभाविक व्रत है
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/4 विरलो अज्जदि पुण्णं सम्मादिट्ठी वएहि संजुत्तो। उवसमभावे सहिदो णिंदण-गरहाहिसंजुत्तो। =सम्यग्दृष्टि, व्रती, उपशम भाव से युक्त, तथा अपनी निंदा और गर्हा करने वाले विरलेजन ही पुण्य कर्म का उपार्जन करते हैं।
द्रव्यसंग्रह टीका/13/33/9 निजपरमात्मद्रव्यमुपादेयम्, इंद्रियसुखादिपरद्रव्यं हि हेयमित्यर्हत्सर्वज्ञप्रणीतनिश्चयव्यवहारनयसाध्यसाधकभावेन मन्यते परं किंतु भूमिरेखादिसदृशक्रोधादिद्वितीयकषायोदयेन मारणनिमित्तं तलवरगृहीततस्करवदात्मनिंदासहित: संनिंद्रियसुखमनुभवतीत्यविरतसम्यग्दृष्टेर्लक्षणम् । =निज परमात्म द्रव्य उपादेय है तथा इंद्रिय सुख आदि परद्रव्य त्याज्य हैं, इस प्रकार सर्वज्ञ प्रणीत निश्चय, व्यवहार को साध्य साधक भाव से मानता है, परंतु भूमि की रेखा के समान क्रोध आदि अप्रत्याख्यानकषाय के उदय से, मारने के लिए कोतवाल से पकड़े हुए चोर की भाँति आत्मनिंदादि सहित होकर इंद्रिय सुख का अनुभव करता है, वह अविरत सम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थानवर्ती है। ( सागार धर्मामृत/1/13 )
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/427 दृङ्मोहस्योदयाभावात् प्रसिद्ध: प्रशमो गुण:। तत्राभिव्यंजकं बाह्यंनिंदनं चापि गर्हणम् ।472। =दर्शनमोहनीय के उदय के अभाव से प्रशम गुण उत्पन्न होता है और प्रशम के बाह्यरूप अभिव्यंजक निंदा तथा गर्हा ये दोनों होते हैं।472।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/ पं.जयचंद/391 इसके असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि कार्यों में हिंसा होती है। तो भी मारने का अभिमत नहीं है, कार्य का अभिप्राय है। वहाँ घात होता है, उसके लिए अपनी निंदा गर्हा करता है। इसके त्रस हिंसा न करने के पक्ष मात्र से पाक्षिक कहलाता है। यह अप्रत्याख्यानावरण कषाय के मंद परिणाम हैं, इसलिए अव्रती ही है।
4. अविरत सम्यग्दृष्टि के अन्य बाह्य चिह्न
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/313-324 जो ण या कुव्वदि गव्वं पुत्तकलत्ताइसव्वअत्थेसु। उवसमभावे भावदि अप्पाणं मुणदि तिणमेत्तं।313। उत्तमगुणगहणरओ उत्तमसाहूण विणयसंजुत्तो। साहम्मिय अणुराई सो सद्दिट्ठी हवे परमो।315। एवं जो णिच्छयदो जाणदि दव्वाणि सव्वपज्जाए। सो सद्दिट्ठी सुद्धो जो संकदि सो हु कुदिट्ठी।323। जो ण विजाणदि तच्चं सो जिणवयणे करेदि सद्दहणं। जं जिणवरेहि भणियं तं सव्वमहं समिच्छामि।324।=वह सम्यग्दृष्टि पुत्र, स्त्री आदि समस्त पदार्थों में गर्व नहीं करता, उपशमभाव को भाता है और अपने को तृणसमान मानता है।313। जो उत्तम गुणों को ग्रहण करने में तत्पर रहता है, उत्तम साधुओं की विनय करता है, तथा साधर्मी जनों से अनुराग करता है, वह उत्कृष्ट सम्यग्दृष्टि है।315। इस प्रकार जो निश्चय से सब द्रव्यों को और सब पर्यायों को जानता है, वह सम्यग्दृष्टि है और जो उनके अस्तित्व में शंका करता है, वह मिथ्यादृष्टि है।323। जो तत्त्वों को नहीं जानता किंतु जिनवचन में श्रद्धान करता है (देखें सम्यग्दर्शन - I.1.2,3) कि जिनवर भगवान् ने को कुछ कहा है, वह सब मुझे पसंद है। वह भी श्रद्धावान् है।324।
देखें सम्यग्दर्शन - II/1 (देव, गुरु, धर्म, तत्त्व व पदार्थों आदि की श्रद्धा करता है, आत्मस्वभाव की रुचि रखता है।)
देखें सम्यग्दर्शन - I.2 (नि:शंकितादि आठ अंगों को व प्रशम संवेग अनुकंपा आस्तिक्य आदि गुणों को धारण करता है।)
देखें सम्यग्दृष्टि - 2 (सम्यग्दृष्टि को राग द्वेष व मोह का अभाव है।)
द्रव्यसंग्रह टीका/45/194/10 शुद्धात्मभावनोत्पन्ननिर्विकारवास्तवसुखामृतमुपादेयं कृत्वा संसारशरीरभोगेषु योऽसौ हेयबुद्धि: सम्यग्दर्शनशुद्ध: स चतुर्थगुणस्थानवर्ती व्रतरहितो दर्शनिको भण्यते। =शुद्धात्म भावना से उत्पन्न निर्विकार यथार्थ सुखरूपी अमृत को उपादेय करके संसार शरीर और भोगों में जो हेय बुद्धि है वह सम्यग्दर्शन से शुद्ध चतुर्थगुणस्थान वाला व्रतरहित दर्शनिक है। (देखें सम्यग्दृष्टि - 5-2); (और भी देखें राग - 6)
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/261,271 उपेक्षा सर्वभोगेषु सद्दृष्टेर्दृष्टरोगवत् । अवश्यं तदवस्थायास्तथाभावो निसर्गज:।261। इत्येवं ज्ञाततत्त्वीऽसौ सम्यग्दृष्टिर्निजात्मदृक । वैषयिके सुखे ज्ञाने राग-द्वेषौ परित्यजेत् ।371। =सम्यग्दृष्टि को सर्वप्रकार के भोगों में प्रत्यक्ष रोग की तरह अरुचि होती है, क्योंकि, उस सम्यक्त्वरूप अवस्था का, विषयों में अवश्य अरुचि का होना स्वत:सिद्ध स्वभाव है।261। इस प्रकार तत्त्वों को जानने वाला स्वात्मदर्शी यह सम्यग्दृष्टि जीव इंद्रियजंय सुख और ज्ञान में राग तथा द्वेष का परित्याग करे।371। -देखें राग - 6।
स्वत: अथवा परोपदेश के द्वारा भक्तिपूर्वक तत्वार्थ में श्रद्धा रखने वाला जीव । सम्यग्दृष्टि ही कर्मों की निर्जरा करके संसार से मुक्त होता है । पद्मपुराण 26.103, 105.212, 244