आहार: Difference between revisions
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<p class="HindiText" id="2.1.1">1. छियालीस दोषों से रहित लेते हैं</p> | <p class="HindiText" id="2.1.1">1. छियालीस दोषों से रहित लेते हैं</p> | ||
<span class="GRef">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 421,482,483,812</span> <p class="PrakritText">उग्गम उप्पादण एसणं च संजोजणं पमाणं च। गालधूमकारण अट्ठविहा पिंडसुद्धीहु ॥421॥ णवकोडीपरिसुद्धं असणं बादालदोसपरिहीणं। संजोजणायहीणं पमाणसहियं विहिसु दिण्णं ॥482॥ विगदिगाल विधूमं छक्कारणसंजुदं कमविसुद्धं। जत्तासाधणमत्तं चोद्दसमलवज्जिदं भंजे ॥483॥ उद्देसिय कोदयडं अण्णादं संकिदं अभिहडं च। सुत्तप्पडिकुट्टाणि य पडिसिद्धं तं विवज्जेंति ॥812॥</p> | <span class="GRef">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 421,482,483,812</span> <p class="PrakritText">उग्गम उप्पादण एसणं च संजोजणं पमाणं च। गालधूमकारण अट्ठविहा पिंडसुद्धीहु ॥421॥ णवकोडीपरिसुद्धं असणं बादालदोसपरिहीणं। संजोजणायहीणं पमाणसहियं विहिसु दिण्णं ॥482॥ विगदिगाल विधूमं छक्कारणसंजुदं कमविसुद्धं। जत्तासाधणमत्तं चोद्दसमलवज्जिदं भंजे ॥483॥ उद्देसिय कोदयडं अण्णादं संकिदं अभिहडं च। सुत्तप्पडिकुट्टाणि य पडिसिद्धं तं विवज्जेंति ॥812॥</p> | ||
<p class="HindiText">= उद्गम, उत्पादन, अशन, संयोजन, प्रमाण, अंगार, धूम कारण - इन आठ दोषों कर रहित जो भोजन लेना वह आठ प्रकार की पिंडशुद्धि कही है ॥421॥ ऐसे आहार को लेना चाहिए-जो नवकोटि अर्थात् मन, वचन, काय, कृत कारित अनुमोदना से शुद्ध हो, ब्यालीस दोषों कर रहित हो, मात्रा प्रमाण हो, संयोजन दोष से रहित हो, विधि से अर्थात् नवधा भक्ति दाता के सात गुणसहित क्रिया से दिया गया हो। अंगार दोष, धूमदोष, इन दोनों से रहित हो, छह कारणों से सहित हो, क्रम विशुद्ध हो, प्राणों के धारण के लिए हो, अथवा मोक्ष यात्रा के साधन के लिए हो, चौदह मलों से रहित हो, ऐसा भोजन साधु ग्रहण करें ॥482-483॥ ( <span class="GRef">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 811</span>) औद्देशिक क्रीततर, अज्ञात, शंकित, अन्यास्थानसे आया सूत्रसे विरुद्ध और सूत्रसे निषद्ध ऐसे आहार को मुनि त्याग देते हैं।</p> | <p class="HindiText">= उद्गम, उत्पादन, अशन, संयोजन, प्रमाण, अंगार, धूम कारण - इन आठ दोषों कर रहित जो भोजन लेना वह आठ प्रकार की पिंडशुद्धि कही है ॥421॥ ऐसे आहार को लेना चाहिए-जो नवकोटि अर्थात् मन, वचन, काय, कृत कारित अनुमोदना से शुद्ध हो, ब्यालीस दोषों कर रहित हो, मात्रा प्रमाण हो, संयोजन दोष से रहित हो, विधि से अर्थात् नवधा भक्ति दाता के सात गुणसहित क्रिया से दिया गया हो। अंगार दोष, धूमदोष, इन दोनों से रहित हो, छह कारणों से सहित हो, क्रम विशुद्ध हो, प्राणों के धारण के लिए हो, अथवा मोक्ष यात्रा के साधन के लिए हो, चौदह मलों से रहित हो, ऐसा भोजन साधु ग्रहण करें ॥482-483॥ </p><br> | ||
( <span class="GRef">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 811</span>) <br> | |||
<p class="HindiText">औद्देशिक क्रीततर, अज्ञात, शंकित, अन्यास्थानसे आया सूत्रसे विरुद्ध और सूत्रसे निषद्ध ऐसे आहार को मुनि त्याग देते हैं।</p> | |||
<span class="GRef">भावपाहूड/मूल.101</span> <p class="PrakritText">छायीसदोस दूसियमसणं गसिउ उसुद्धभावेण। पत्तोसिं महावसणं तिरयगईए अणप्पवसो ॥101॥</p> | <span class="GRef">भावपाहूड/मूल.101</span> <p class="PrakritText">छायीसदोस दूसियमसणं गसिउ उसुद्धभावेण। पत्तोसिं महावसणं तिरयगईए अणप्पवसो ॥101॥</p> | ||
<p class="HindiText">= हे मुने! तैं अशुद्ध भावकरि छियालीस दोष करि दूषित अशुद्ध अशन कहिए आहार ग्रस्या खाया ताकारण करि तिर्यंच गति विषें पराधीन भया संता महान् बड़ा व्यसन कहिए कष्ट ताकूं प्राप्त भया ॥101॥</p> | <p class="HindiText">= हे मुने! तैं अशुद्ध भावकरि छियालीस दोष करि दूषित अशुद्ध अशन कहिए आहार ग्रस्या खाया ताकारण करि तिर्यंच गति विषें पराधीन भया संता महान् बड़ा व्यसन कहिए कष्ट ताकूं प्राप्त भया ॥101॥</p> |
Revision as of 10:48, 29 June 2023
सिद्धांतकोष से
आहार अनेकों प्रकार का होता है। एक तो सर्व जगत् प्रसिद्ध मुख द्वारा किया जाने वाला खाने-पीने वा चाटने की वस्तुओं का है। उसे कवलाहार कहते हैं। जीव के परिणामों द्वारा प्रतिक्षण कर्म वर्गणाओं का ग्रहण कर्माहार है। वायुमंडल से प्रतिक्षण स्वतः प्राप्त वर्गणाओँ का ग्रहण नोकर्माहार है। गर्भस्थ बालक द्वारा ग्रहण किया गया माता का रजांश भी उसका आहार है। पक्षी अपने अंडों को सेते हैं वह ऊष्माहार है - इत्यादि। साधुजन इंद्रियों को वश में रखने के लिए दिन में एक बार, खड़े होकर, यथालब्ध, गृद्धि व रस निरपेक्ष, तथा पुष्टिहीन आहार लेते हैं।
I आहार सामान्य
- भेद व लक्षण
• खाद्यस्वाद्यादि आहार - देखें खाद्य, स्वाद्य, लेह्य, पेय
• पानक व कांजी आदि के लक्षण - देखें कांजी , पानक
• निर्विकृति आहार का लक्षण - देखें निर्विकृति
- भोजन शुद्धि
• देखें - भक्ष्याभक्ष्य विचार, जल गालन, रात्रि भोजन त्याग, अंतराय
• चौके के बाहर से लाये गये आहार की ग्राह्यता - देखें आहार 1.1.6
• मन, वचन, काय आदि शुद्धियाँ - देखें शुद्धि
- आहार व आहार काल का प्रमाण
• भोगभूमियों के आहारका प्रमाण - देखें भूमि
II आहार (साधुचर्या)
- साधु की भोजन ग्रहण विधि
- दिन में एकबार खड़े होकर भिक्षावृत्ति से व पाणि पात्र में लेते हैं
- भोजन करते समय खड़े होने की विधि व विवेक
- खड़े होकर भोजन करने का तात्पर्य
- नवधा भक्ति पूर्वक लेते हैं
- एक चौके में एक साथ अनेक साधु भोजन कर सकते हैं
- चौके से बाहर का लाया आहार भी कर लेते हैं
- पंक्तिबद्ध सात घरों से लाया आहार ले लेते हैं पर अन्यत्र का नहीं
- साधु के योग्य आहार शुद्धि
- छियालीस दोषों से रहित लेते हैं
- अधःकर्मादि दोषों से रहित लेते हैं
- अधःकर्मादि दोषों का नियम केवल प्रथम व अंतिम तीर्थ में ही है
- योग्य मात्रा व प्रमाण में लेते हैं
- यथालब्ध व रस निरपेक्ष लेते हैं
- पौष्टिक भोजन नहीं लेते हैं
- गृद्धता या स्वछंदता सहित नहीं लेते
- दातार पर भार न पडे इस प्रकार लेते हैं
- भाव सहित दिया व लिया गया आहार ही वास्तवमें शुद्ध है
- आहार व आहार काल का प्रमाण
- स्वस्थ साधु के आहार का प्रमाण
- साधु के आहार ग्रहण करने के काल की मर्यादा
- आहार के 46 दोष
- छियालीस दोषों का नाम निर्देश
- चौदह मल दोष
- सात विशेष दोष
- छियालीस दोषों के लक्षण।
- दातार संबंधी विचार
- भोजन ग्रहण करने के कारण व प्रयोजन
- संयम रक्षार्थ करते हैं शरीर रक्षार्थ नहीं
- शरीर के रक्षाणार्थ भी कथंचित् ग्रहण
- शरीर के रक्षाणार्थ औषध आदि की भी इच्छा नहीं
- शरीर व संयमार्थ ग्रहण का समन्वय
भिक्षा विधि - देखें भिक्षा
• नवधा भक्ति - देखें भक्ति#2.6
• योग्यायोग्य घर व कुलादि - देखें भिक्षा#3.1
• क्षपक को माँगकर लाया गया आहार ग्राह्य है - देखें सल्लेखना - 5.6
• परिस्थिति वश नौकोटि शुद्ध की बजाय पाँच कोटी शुद्ध का भी ग्रहण - देखें अपवाद - 3.1
• दातार योग्य आहार शुद्धि - देखें शुद्धि
• भक्ष्याभक्ष्य संबंधी विचार - देखें भक्ष्याभक्ष्य
• साधु के आहार ग्रहण का काल - देखें भिक्षा#1.3 1 व रात्रि_भोजन 1.2
• उद्देशिक व अधःकर्म दोष - देखें उद्देशिक अधःकर्म दोष
• आहार के अतिचार - देखें अतिचार
• आहार संबंधी अंतराय - देखें अंतराय - 2
• आहार छोड़ने योग्य व अन्यत्र उठ कर चले जाने योग्य अवसर - देखें अंतराय - 2
• केवली को कवलाहार का निषेध - देखें केवली - 4
I आहार सामान्य
1. भेद व लक्षण
1. आहार सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 2/30/186/9
त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्यपुद्गलग्रहणमाहारः।
= तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों के ग्रहण करने को आहार कहते हैं।
(राजवार्तिक अध्याय 2/30/4/140), ( धवला पुस्तक 1/1,1,4/152/7)
राजवार्तिक अध्याय 9/7/11/604/19
उपभोगशरीरप्रायोग्यपुद्गलग्रहणमाहार..तत्राहारः शरीरनामोदयात् विग्रहगतिनामोदयाभावाच्च भवति।
= उपभोग्य शरीर के योग्य पुद्गलों का ग्रहण आहार है। वह आहार शरीर नामकर्म के उदय तथा विग्रह गति नामकर्म के उदय के अभाव से होता है।
2. आहार के भेद-प्रभेद
नोट - आगम में चार प्रकार से आहार के भेदों का उल्लेख मिलता है। उन्हीं की अपेक्षा से नीचे सूची दी जाती है।
कर्माहारादि | खाद्यादि | कांजी आदि | पानकादि |
---|---|---|---|
1 | 2 | 3 | 4 |
कर्माहार | अशन | कांजी | स्वच्छ |
नोकर्माहार | पान | आंवली | बहल |
कवलाहार | भक्ष्य या खाद्य | आचाम्ल | लेवड़ |
लेप्याहार | लेह्य | बेलड़ी | अलेवड़ |
ओजाहर | स्वाद्य | एकलटाना | ससिक्थ |
मानसाहार | -- | -- | असिक्थ |
उपरोक्त सूचीके प्रमाण
1. ( धवला पुस्तक 1/1,1,176/409/10); ( नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 63 में उद्धृत) ( प्रवचनसार/ तात्पर्यवृत्ति 20 में उद्धृत प्रक्षेपक गाथा सं.2) ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 405)
2. ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 676); (राजवार्तिक अध्याय 7/21/8/548/8); ( अनगार धर्मामृत अधिकार 7/13/667); ( लांटी संहिता अधिकार 2/16-17)
3. (व्रत विधान संग्रह पृ. 26)
4. ( भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 700); ( सागार धर्मामृत अधिकार 8/56)
3. नोकर्माहार व कवलाहार का लक्षण
बोधपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 34
समयं समयं प्रत्यनन्ताः परमाणवोऽनन्यजनासाधारणाः शरीरस्थितिहेतवः पुण्यरूपाः शरीरे संबंधं यांति नोकर्मरूपा अर्हत आहार उच्यते न त्वितरमनुष्यवद्भगवति कवलाहारो भवति।
= अन्य जनों को असाधारण ऐसे शरीर की स्थिति के हेतु भूत तथा पुण्यरूप अनंते परमाणु समय-समय प्रति अर्हंत भगवान के शरीर से संबंध को प्राप्त होते हैं। ऐसा नोकर्मरूप आहार ही भगवान का कहा गया है। इतर मनुष्यों की भाँति कवलाहार भगवान को नहीं होता।
2. भोजन शुद्धि
1. भोजन शुद्धि सामान्य
भोजन शुद्धि के चार प्रमुख अंग हैं - मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि व आहार शुद्धि। इनमें से आहार शुद्धि के भी चार अंग हैं - द्रव्य शुद्धि, क्षेत्र शुद्धि, काल शुद्धि व भाव शुद्धि। इनमें से भाव शुद्धि मन शुद्धि में गर्भित हो जाती है। इस प्रकार भोजन शुद्धि के प्रकरण में 6 बातें व्याख्यात हैं-मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि, द्रव्यशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि व कालशुद्धि।
2. अन्न शोधन विधि
लांटी संहिता अधिकार 2/19-32
विद्धं त्रसाश्रितं यावद्वर्जयेत्तभक्ष्यवत्। शतशः शोधितं चापि सावधानैर्दृगादिभिः ॥19॥ संदिग्धं च यदन्नादि श्रितं वा नाश्रितं त्रसैः। मन शुद्धिप्रसिद्ध्यर्थं श्रावकः क्वापि नाहरेत् ॥20॥ अविद्धमपि निर्दोषं योग्यं चानाश्रिते त्रसैः। आचरैच्छ्रावकः सम्यग्दृष्टं नादृष्टमीक्षणैः ॥21॥ ननु शुद्धं यदन्नादि कृतशोधनयानया। मैवं प्रमाददोषत्वात्कल्मषस्यास्रवो भवेत ॥22॥ गालितं दृढवस्त्रेण सर्पिस्तैलं पयो द्रवम्। तोयं जिनागमाम्नायादाहरेत्स न चान्यथा ॥23॥ अन्यथा दोष एव स्यान्मांसातीचारसंज्ञकः। अस्ति तत्र त्रसादोनां मृतस्यांगस्य शेषता ॥24॥ दुरवधानता मोहात्प्रमादाद्वापि शोधितम्। दुःशोधितं तदेव स्याद्ज्ञेयं चाशोधिपं यथा ॥25॥ तस्मात्सद्व्रतरक्षार्थं पलदोषनिवृत्तये। आत्मदृग्भिः स्वहस्तैश्च सम्यगन्नादि शोधयेत् ॥26॥ यथात्मार्थं सुवर्णादिक्रियार्थी सम्यगीक्षयेत्। व्रतवानपि गृह्णीयादाहारं सुनिरीक्षितम् ॥27॥ सधर्मेणानभिज्ञेन साभिज्ञेन विधर्मिणा। शोधितं पाचितं चापि नाहरेद् व्रतरक्षक: ॥28॥ ननु केनापि स्वीयेन सधर्मेण विधर्मिणा। शोधितं पाचितं भोज्यं सुज्ञेन स्पष्टचक्षुषः ॥29॥ मैवं यथोदितस्योश्चैर्विश्वासो व्रतहानये। अनार्यस्याप्यनार्द्रस्य संयमे नाधिकारता ॥30॥ चलितत्वात्सीम्नश्चैव नूनं भाविव्रतक्षति। शैथिल्याद्धीयमानस्य संयमस्य कुतः स्थितिः ॥31॥ शोधितस्य चिरात्तस्य न कुर्यात् ग्रहणं कृती। कालस्यातिक्रमाद् भूयो दृष्टिपूतं समाचरेत् ॥32॥
= (केवल भावार्थ) घुने हुए वा बीधे अन्न में भी अनेक त्रस जीव होते हैं, सैंकड़ो बार शोधा जाये तो भी उसमें से जीव निकलने असंभव हैं। इसलिए वह अभक्ष्य है। जिसमें त्रस जीव का संदेह हो `कि इसमें जीव हैं या नहीं' ऐसे अन्न का भी त्याग कर देना चाहिए। जो अन्नादि पदार्थ घुने हुए नहीं है, जिनमें त्रस जीव नहीं हैं, ऐसा पदार्थ अच्छी तरह देख शोधकर काम में लाने चाहिए। शोधा हुआ अन्न, यदि मन की असावधानी से शोधा गया है, होशहवाश रहित अवस्था में शोधा गया है, प्रमाद पूर्वक शोधा गया है तो वह अन्न दुःशोधित कहलाता है। ऐसे अन्न को पुनः अपने हाथ से अच्छी तरह शोध लेना चाहिए। शोधन की विधि का अजानकार साधर्मी, अथवा शोधन विधि के जानकार विधर्मी के द्वारा शोधा गया अन्न कभी भी ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि जो पुरुष अनार्य है अथवा निर्दय है, उसको संयम के काम में संयम की रक्षा करने में कोई अधिकार नहीं है। जिस अन्न को शोधे हुए बहुत काल व्यतीत हो गया है, अथवा उनकी मर्यादा से अधिक काल हो गया है, ऐसे अन्नादिक को पुनः अच्छी तरह शोध कर काम में लेना चाहिए। ताकि हिंसा का अतिचार न लगे।
3. आहार शुद्धिका लक्षण
वसुनंदि श्रावकाचार गाथा 231
चउदसमलपरिसुद्धं जं दाणं सोहिऊण जइणाए। संजमिजणस्स दिज्जइ सा णेया एसणासुद्धी ॥23॥
= चौदह मल दोषों से रहित, यतन से शोध कर संयमी जन को आहार दान दिया जाता है, वह एषणा शुद्धि जानना चाहिए।
3. आहार व आहार काल का प्रमाण
1. कर्म भूमिया स्त्री पुरुष का उत्कृष्ट आहार
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 211
बत्तीसं किर कवला आहारो कुक्खिपूरणो होई। पुरिसस्स महिलियाए अठ्ठावीसं हवे कवला ॥211॥
= पुरुष के आहार का प्रमाण बत्तीस ग्रास है, इतने ग्रासो से पुरुष का पेट पूर्ण भरता है। स्त्रियों के आहार का प्रमाण अट्ठाईस ग्रास है।
( धवला पुस्तक 13/5,4,26/7/56)
हरिवंश पुराण सर्ग 11/125
सहस्रसिक्थः कवलो द्वात्रिंशत तेऽपि चक्रिणः। एकश्चासौ सुभद्रायाः एकोऽन्येषां तु तृप्तये ॥125॥
= एक हजार चावलों का एक कवल होता है ऐसे बत्तीस कवल प्रमाण चक्रवर्ती का आहार था, सुभद्रा का आहार एक कवल था और वह एक कवल समस्त लोगों की तृप्तिके लिए पर्याप्त था।
धवला पुस्तक 13/5,4,26/56/6
साहितंदुलसहस्से ट्ठिदे जं क्रूरपमाणं त सव्वमेगो कवलो होदि। एसो पयडिपुरिसस्स कवलो परूविदो। एदे हि बत्तीसकवलेहि पयडिपुरिसस्स आहारो होदि, अट्ठावीसकवलेहि माहिलियाए। इमं कवलमेदमाहारं च मोत्तूण जो जस्स पयडकवलो पयडि आहारो सो च घेत्तव्वो। ण च सव्वेसिं कवलो आहारो वा अवट्ठिदो अत्थि एक्कुडव्तडुलकूरभुंजमाणपुरिसाणं एगगलत्थ कूराहार पुरिसाणं च उबलंभादो।
= शाली धान्य के एक हजार धान्यों का भात बनता है वह सब एक ग्रास होता है। यह प्रकृतिस्थ पुरुष का ग्रास कहा गया है। ऐसे बत्तीस ग्रासों द्वारा प्रकृतिस्थ पुरुष का आहार होता है और अट्ठाईस ग्रासों द्वारा महिला का आहार होता है। प्रकृत में (अवमौदर्य नामक तप के प्रकरण में) इस ग्रास और इस आहार का ग्रहण न कर जो जिसका प्रकृतिस्थ ग्रास और प्रकृतिस्थ आहार है वह लेना चाहिए। कारण कि सबका ग्रास व आहार समान नहीं होता, क्योंकि कितने ही पुरुष एक कुडव प्रमाण चावलों के भात का और कितने ही एक गलस्थ प्रमाण चावलों के भात का आहार करते हैं।
2. आहारके प्रमाण संबंधी सामान्य नियम
सागार धर्मामृत अधिकार 6/24 में उद्धृत
“सायं प्रातर्वा वह्निमनवसादयन् भुंजीत। गुरुणामर्धसौदृत्यं लघूनां नातितृप्तता। मात्रप्रमाणं निर्दिष्टं सुखं तावद्विजीर्यति।
= सुबह और शाम को उतना ही खावे जिस को जठराग्नि सुगमता से पचा सके। गरिष्ठ पदार्थों को भूख से आधा और हल्के पदार्थों को तृप्ति पर्यंत ही खावे। भूख से अधिक न खावे। इस प्रकार खाया हुआ अन्न सुख से पचता है। यह मात्रा का प्रमाण है।
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 491
अर्धाशनेन सव्यंजनेनुदरस्य तृतीयमुदकेन। वायोः संचारणार्थँ चतुर्थमवशेषयत् भिक्षुः।
= भिक्षु के उदर का आधा भाग भोजन से भरे, तृतीय भाग जल से भरे, और चतुर्थ भाग वायु के संचरणार्थ अवशेष रखे।
3. भोजन मौन पूर्वक करना चाहिए
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 817
...। मोणव्वदेण मुणिणो चरंति भिक्खं अभासंता।
= वे मौन व्रत सहित भिक्षा के निमित्त विचरते हैं ॥817॥
पद्मपुराण सर्ग 4/97
भिक्षां परगृहे लब्धां निर्दोषां मौनमास्थिताः ॥97॥
= श्रावकों के घर ही भोजन के लिए जाते हैं, और वहाँ प्राप्त हुई निर्दोष भिक्षा को मौन से खड़े रहकर ग्रहण करते हैं...॥97॥
सागार धर्मामृत अधिकार 4/34-35
गृद्ध्यै हुंकारादिसंज्ञां, संक्लेशं च पुरोऽनु च। मुंचन्मौनमदन्कुर्यात्, तपः संयमबृंहणम् ॥34॥ अभिमानावनेगृद्धिरोधाद् वर्धयते तपः। मौनं तनोति श्रेयश्च, श्रुतप्रश्रयतायनात् ॥35॥
= खाने योग्य पदार्थ की प्राप्ति के लिए अथवा भोजन विषयक इच्छा को प्रगट करने के लिए हुंकारना और ललकारना आदि इशारों को तथा भोजन के पीछे संक्लेश को छोड़ता हुआ, भोजन करने वाला व्रती श्रावक तप और संयम को बढ़ानेवाले मौन को करे ॥34॥ मौन स्वाभिमान की अयाचकत्वरूप व्रत की रक्षा होने पर तथा भोजन विषयक लोलुपता के निरोध से तप को बढ़ाता है और श्रुतज्ञान की विनय के संबंध से पुण्य को बढ़ाता है।
II आहार (साधुचर्या)
1. साधु की भोजन ग्रहण विधि
1. दिन में एक बार खड़े होकर भिक्षावृत्ति से व पाणिपात्र में लेते हैं
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 35,811,937
उदयत्थमणे काले णालीतियवज्जियम्हिमज्झम्हि। एकम्हि दुअ तिए वा मुहुत्तकालेयभत्तं तु ॥35॥...। भुंजंति पाणिपत्ते परेण दत्तं परघरम्मि ॥811॥ जोगेसु मूलजोगं भिक्खाचरियं च वण्णियं सुत्ते। अण्णे य पुणो जोगा विण्णाणविहीणएहिं क्या ॥937॥
= सूर्य के उदय और अस्तकाल की तीन घड़ी छोड़कर वा, मध्यकाल में एक मुहूर्त, दो मुहूर्त, तीन मुहूर्त काल में एक बार भोजन करना वह एक भक्त मूलगुण है ॥35॥ ...पर घर में परकर दिये हुए ऐसे आहार को हाथरूप पात्र पर रखकर वे मुनि खाते हैं ॥811॥ आगम में सब मूल उत्तरगुणों के मध्य में भिक्षाचर्या ही प्रधान व्रत कहा गया है और अन्य जे योग हैं वे सब अज्ञानी चारित्र हीन साधुओं के किये हुए जानना ॥937॥
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 229
एकं खलु तं भत्तं अप्पडिपुण्णोदरं जधा लद्धं। चरणं भिक्खेण दिवा ण रसावेक्खं ण मधुमंसं ॥229॥
= भूख से कम, यथा लब्ध तथा भिक्षा वृत्ति से, रस निरपेक्ष तथा मधुमांसादि रहित, ऐसा शुद्ध अल्प आहार दिन के समय केवल एक बार ग्रहण करते हैं ॥229॥
पद्मपुराण सर्ग 4/97
भिक्षां परगृहे लब्ध्वा निर्दोषं मौनमास्थिताः। भुंजते...॥97॥
= श्रावकों के घर ही भोजन के लिए जाते हैं। वहाँ प्राप्त हुई भिक्षा को मौन से खड़े होकर ग्रहण करते हैं।
आचार सार 1/49
...एकद्वित्रिमुहूर्तं स्यादेकभक्तं दिने मुनेः ॥49॥
= एक, दो व तीन मुहूर्त तक एक बार दिन के समय मुनि आहार लेवे।
2. भोजन करते समय खड़े होने की विधि व विवेक
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 34
अंजलिपुडेण ठिच्चा कुड्डादि विवज्जणेण समपायं। पडिसुद्धे भूमितिए असणं ठिदिभोयणं णाम ॥34॥
= अपने हाथ रूप भाजन कर भीत आदि के आश्रय रहित चार अंगुल के अंतर से समपाद खडे रह कर अपने चरण की भूमि, जूठन पड़ने की भूमि, जिमाने वाले के प्रदेश की भूमि-ऐसी तीन भूमियों की शुद्धता से आहार ग्रहण करना वह स्थिति भोजन नाम मूल गुण है।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 1206/1204/15
समे विच्छिद्रे, भूभागे चतुरंगुलपादांतरो निश्चला कुड्यस्तंभादिकमनवलम्ब्य तिष्ठेत्।
= समान व छिद्र रहित ऐसी जमीन पर अपने दोनों पाँव में चार अंगुल अंतर रहे इस तरह निश्चल खडे रहना चाहिए। भीत (दीवार) खंबा वगैरह का आश्रय न लेकर स्थिर खड़े रहना चाहिए।
अनगार धर्मामृत अधिकार 9/94
..। चतुरंगुलांतरसमक्रम...॥94॥
= जिस समय ऋषि अनगार भोजन करे उसी समय उनको अपने दोनों पैर उनमें चार अंगुल का अंतर रखकर समरूप से स्थापित करने चाहिए।
3. खड़े होकर भोजन करनेका तात्पर्य
अनगार धर्मामृत अधिकार 9/93
यावत्करौ पुटीकृत्य भोक्तुमुद्भः क्षमेऽद्म्यम्। तावन्नैवान्यथेत्यागूसंयमार्थं स्थिताशनम् ॥93॥
= जब तक खड़े होकर और अपने हाथ को जोड़कर या उनको ही पात्र बनाकर उन्हीं के द्वारा भोजन करने की समार्थ्य रखता हूँ, तभी तक भोजन करने में प्रवृत्ति करूँगा, अन्यथा नहीं। इस प्रतिज्ञा का निर्वाह और इंद्रिय-संयम तथा प्राणि-संयम साधन करने के लिए मुनियों को खड़े होकर भोजन का विधान किया है।
4. नवधा भक्ति पूर्वक लेते है
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 482
..।..विहिसु दिण्णं ॥482॥
= विधि से अर्थात् नवधा भक्ति दाता के सात गुण सहित क्रिया से दिया गया हो। (ऐसा भोजन साधु ग्रहण करें)।
5. एक चौके में एक साथ अनेक साधु भोजन कर सकते हैं
योगसार अमितगति 8/64
पिंडः पाणिगतोऽन्यस्मै दातुं योग्यो न युज्यते। दीयते चेन्न भोक्तव्यं भुंक्ते चेच्छेदभाग्यतिः ॥64॥
= आहार देते समय गृहस्थ को चाहिए कि वह जिस मुनि को देने के लिए हाथ में आहार ले उसे उसी मुनि को देना योग्य, यदि कदाचित् अन्य को भी दे दिया जाये तो मुनि को खाना न चाहिए क्योंकि यदि मुनि उसे खा लेगा तो वह छेद-प्रायश्चित्त का भागी गिना जायेगा ॥64॥
6. चौके से बाहर का लाया आहार भी कर लेते हैं
अनेक गृह भोजी क्षुल्लक अनेक घरों में से अपने पात्र में भोजन लाकर, अन्य किसी श्रावक के घर जहाँ पानी मिल जाये, वहाँ पर गृहस्थ की भाँति मुनि को आहार देकर पीछे स्वयं करता है। देखें क्षुल्लक - 1 तथा सल्लेखना गत साधु को कदाचित् क्षुधा की वेदना बढ़ जानेपर गृहस्थों के घर से मंगाकर आहार जिमा दिया जाता है। - देखें सल्लेखना - 5। उपरोक्त विषय पर से सिद्ध होता है कि साधु कदाचित् चौके से बाहर का भी आहार ग्रहण कर लेते हैं।
जंबू स्वामी चरित्र 163
प्रासुकं शुद्धमाहारं कृतकारितवर्जितं। आदत्तं भिक्षयानीतं मित्रेण दृढधर्मणा ॥163॥
= दृढधर्म नाम के मित्र द्वारा भिक्षा से लाया हुआ, कृत, कारित, दोषों से वर्जित शुद्ध प्रासुक आहार विरक्त शिवकुमार (श्रावक) घर बैठकर कर लेता था।
7. पंक्तिबद्ध सात घरों से लाया हुआ आहार ले लेते हैं। पर अन्यत्र का नहीं
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 438-440
देसत्तिय सव्वत्तियदुविहं पुण अभिहडं वियाणाहि। आचिण्णमणाचिण्णं देसाविहडं हवे दुविहं ॥438॥ उज्जु तिहिं सत्तहिं वा घरेहिं जदि आगदं दु आचिण्णं। परदो वा तेहिं भवे तव्विवरीदं अणाचिण्णं ॥439॥ सव्वाभिघडं चदुधा सयपरगामे सदेसपरदेसे पुव्वपरपाडणयडं पढमं संसपि णापव्वं ॥440॥
= अभिघट दोष के दो भेद हैं - एक देश व सर्व। देशाभिघट के दो भेद हैं - आचिन्न व अनाचिन्न ॥439॥ पंक्ति बद्ध सीधे तीन अथवा सात घरों से लाया भात आदि अन्न आचिन्न अर्थात् ग्रहण करने योग्य है। और इससे उलटे-सीधे घर न हों ऐसे सात घरों से भी लाया अन्न अथवा आठवाँ आदि घर से आया ओदनादि भोजन अनाचिन्न अर्थात् ग्रहण करने योग्य नहीं है। सर्वाभिघट दोष के चार भेद हैं - स्वग्राम, परग्राम, स्वदेश, परदेश। पूर्व-दिशा के मोहल्ले से पश्चिम दिशा के मोहल्ले में भोजन ले जाना स्वग्रामाभिघट दोष है।
2. साधु के योग्य आहार शुद्धि
1. छियालीस दोषों से रहित लेते हैं
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 421,482,483,812
उग्गम उप्पादण एसणं च संजोजणं पमाणं च। गालधूमकारण अट्ठविहा पिंडसुद्धीहु ॥421॥ णवकोडीपरिसुद्धं असणं बादालदोसपरिहीणं। संजोजणायहीणं पमाणसहियं विहिसु दिण्णं ॥482॥ विगदिगाल विधूमं छक्कारणसंजुदं कमविसुद्धं। जत्तासाधणमत्तं चोद्दसमलवज्जिदं भंजे ॥483॥ उद्देसिय कोदयडं अण्णादं संकिदं अभिहडं च। सुत्तप्पडिकुट्टाणि य पडिसिद्धं तं विवज्जेंति ॥812॥
= उद्गम, उत्पादन, अशन, संयोजन, प्रमाण, अंगार, धूम कारण - इन आठ दोषों कर रहित जो भोजन लेना वह आठ प्रकार की पिंडशुद्धि कही है ॥421॥ ऐसे आहार को लेना चाहिए-जो नवकोटि अर्थात् मन, वचन, काय, कृत कारित अनुमोदना से शुद्ध हो, ब्यालीस दोषों कर रहित हो, मात्रा प्रमाण हो, संयोजन दोष से रहित हो, विधि से अर्थात् नवधा भक्ति दाता के सात गुणसहित क्रिया से दिया गया हो। अंगार दोष, धूमदोष, इन दोनों से रहित हो, छह कारणों से सहित हो, क्रम विशुद्ध हो, प्राणों के धारण के लिए हो, अथवा मोक्ष यात्रा के साधन के लिए हो, चौदह मलों से रहित हो, ऐसा भोजन साधु ग्रहण करें ॥482-483॥
( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 811)
औद्देशिक क्रीततर, अज्ञात, शंकित, अन्यास्थानसे आया सूत्रसे विरुद्ध और सूत्रसे निषद्ध ऐसे आहार को मुनि त्याग देते हैं।
भावपाहूड/मूल.101
छायीसदोस दूसियमसणं गसिउ उसुद्धभावेण। पत्तोसिं महावसणं तिरयगईए अणप्पवसो ॥101॥
= हे मुने! तैं अशुद्ध भावकरि छियालीस दोष करि दूषित अशुद्ध अशन कहिए आहार ग्रस्या खाया ताकारण करि तिर्यंच गति विषें पराधीन भया संता महान् बड़ा व्यसन कहिए कष्ट ताकूं प्राप्त भया ॥101॥
मोक्षपाहुड़ / प्रस्तावना 6/270/9
बहुरि जहाँ मुनि कै धात्रीदूत आदि छ्यालीस दोष आहारादि विषैं कहै हैं तहाँ गृहस्थनिकैं बालकनिकौं प्रसन्न करना...इत्यादि क्रियाका निषेध किया है। और भी - देखें आहार - I.2।
2. अधःकर्मादि दोषों से रहित लेते हैं
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 922-934
जो ठाणमोणवीरासणेहिं अत्थदि चउत्थछट्ठेहिं। भुंजदि आधाकम्मं सव्वेवि णिरत्था जोगा ॥922॥ जो भुंजदि आधाकम्मं छज्जीवाणं घायणं किच्चा। अबुद्धो लोल सजिब्भो णवि समणो सावओ होज्जं ॥937॥ आधाकम्म परिणदो पासुगदव्वेदि बंधगोभणिदो। सुद्धं गवेसमाणो आधाकम्मेवि सो सुद्धो ॥934॥
= जो साधुस्थान मौन और वीरासन से उपवास वाले तेला आदि कर तिष्ठता है और अधःकर्म सहित भोजन करता है उसके सभी योग निरर्थक हैं ॥922॥ जो मूढ़ मुनि छह काय के जीवों का घात करके अधःकर्म सहित भोजन करता है वह लोलुपी जिह्वा के वश हुआ मुनि नहीं है श्रावक है ॥927॥ प्रासुक द्रव्य होने पर भी जो साधु अधःकर्म कर परिणत है वह आगम में बंध का कर्ता है, और जो शुद्ध भोजन देखकर ग्रहण करता है वह अधःकर्म दोष के परिणाम शुद्धि से शुद्ध है ॥938॥
मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 79
...। आधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि।
= अधःकर्म जे पापकर्म ताविषैं रत हैं, सदोष आहार करैं हैं ते मोक्ष मार्ग तैं च्युत हैं।
राजवार्तिक 9/6/16/597/19
भिक्षा शुद्धि...प्रासुकाहारगवेषणप्रणिधाना।
= प्रासुक आहार ढूँढना ही मुख्य लक्ष्य है ऐसी भिक्षा-शुद्धि है।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 421/613/9
श्रमणानुद्दिश्य कृतं भक्तादिकं उद्देशिगमित्युच्यते। तच्च षोडशविधं आधाकर्मादि विकल्पेन। तत्परिहारो द्वितीयः स्थितिकल्पः।
= मुनि के उद्देश्यसे किया हुआ आहार, वसतिका वगैरह को उद्देशिक कहते हैं। उसके आधाकर्मादि विकल्प से सोलह प्रकार हैं। उसका त्याग करना। यही द्वितीय स्थिति कल्प है।
समयसार/आत्मख्याति टीका/286-287
अधःकर्मनिष्पन्नमुद्देशनिष्पन्नं च पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतप्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बंधसाधकं भावं न प्रत्याचष्टे। तथा समस्तमपि परद्रव्यमप्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तकं भावं न प्रत्याचष्टे।
= अधःकर्म से तथा उद्देश से उत्पन्न निमित्त भूत पुद्गल द्रव्य न त्यागता हुआ नैमित्तक भूत बन्ध साधक भावों को भी वास्तवमें नहीं त्यागता है, ऐसा ही द्रव्य व भाव का निमित्त-नैमित्तिक संबंध है।
प्रवचनसार/तात्त्पर्यवृत्ति229
समस्तहिंसायतनशून्य एवाहारो युक्ताहारः।
= समस्त हिंसा के निमित्तों से रहित आहार ही योग्य है।
चारित्रसार पृष्ठ 68/2
उपद्रवणविद्रावणपरितापनारंभक्रियया निष्पन्न मन्नंस्वेन कृतं परेण कारितं वानुमानितं वाधःकर्म (जनितं) तत्सेविनोऽनशनादितपस्यभ्रावकाशादियोगविशेषाश्च भिन्नभाजनभरितामृतवत्प्ररक्षंति, ततश्च तदभक्ष्यमिव परिहरतो भिक्षोः।
= उपद्रवण, विद्रावण, परितापन और आरंभ रूप क्रियाओं के द्वारा जो आहार तैयार किया गया है-वह चाहे अपने हाथ से किया है अथवा दूसरे से कराया है अथवा करते हुए की अनुमोदना की है अथवा जो नीच कर्म से बनाया गया है ऐसे अधःकर्म युक्त आहार को ग्रहण करनेवाले मुनियों के उपवासादि तपश्चरण, अभ्रावकाशादि योग और वीरासनादि विशेष योग सब फूटे बर्तन में भरे हुऐ अमृत के समान नष्ट हो जाते हैं।
3. अधःकर्मादि दोषों का नियम केवल प्रथम व अंतिम तीर्थ में ही है
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 421/613/9
तथा चोक्तं कल्पे-सोहलविधमुद्देसं वज्जेदव्वंति पुरिमचरिमाणं। तित्थगराणं तित्थे ठिदिकप्पो होदि विदिओ हु।
कल्प नामक ग्रंथ (कल्पसूत्र) में ऐसा वर्णन है
=- श्री आदिनाथ तीर्थंकर और श्री महावीर स्वामी इनके तीर्थ में सोलह प्रकार के उद्देश का परिहार करते आहारादिक ग्रहण करना चाहिए, यह दूसरा स्थिति कल्प है।
4. योग्य मात्रा व प्रमाण में लेते हैं
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 482
...।...पमाण सहियं... ॥482॥
= जो मात्रा प्रमाण हो ऐसा आहार साधु ग्रहण करते हैं।
5. यथा लब्ध व रस निरपेक्ष लेते हैं
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 229
...जधा लद्धं।...ण रसावेक्खं ण मधुमंसं ॥229॥
= वह शुद्ध आहार यथालब्ध तथा रस से निरपेक्ष तथा मधु मांसादि अभक्ष्यों से रहित किया जाता है।
लिंग पाहूड/मूल या टीका 12
कंदप्प (प्पा) इय वट्टइ करमाणो भोयणेसु रसगिद्धिं। माई लिंगविवाई तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥12॥
= जो लिंग धार कर भी भोजन में रस की गृद्धि करता है, सो कंदर्पादि विषै वर्ते है। उसको काम सेवन की इच्छा तथा प्रमाद निद्रादि प्रचुर रूप से बढ़ते हैं तब वह लिंग व्यापादी अर्थात् व्यभिचारी कहलाता है। मायाचारी होता है, इसलिए वह तिर्यंच योनि है मनुष्य नाहीं। इसलिए वह श्रमण नहीं।
रयणसार गाथा 113
भुंजेइ जहालाहं लहेइ जइ णाणसंजमणिमित्तं। झाणज्झयणणिमित्तं अणियारो मोक्खमग्गरओ ॥113॥
= जो मुनि केवल संयम ज्ञान की वृद्धि के लिए तथा ध्यान अध्ययन करने के लिए जो मिल गया भक्ति पूर्वक, जिसने जो शुद्ध आहार दे दिया उसी को ग्रहण कर लते हैं। वे मुनि अवश्य ही मोक्ष मार्ग में लीन रहते हैं।
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 481,814,928.
..साउ अट्ठं ण..।..भुंजेज्जो ॥481॥ सीदलमसीदलं वा सुक्कं लुक्खं सुणिद्ध सुद्धं वा। लोणिदमलोणिदं वा भुंजंति मुणी अणासादं ॥814॥ पयणं व पायणं वा अणुमणचित्तो ण तत्थ बोहेदि। जेमंतो विसंघादी णवि समणो दिट्ठिसंपण्णो ॥928॥
= साधु स्वाद के लिए भोजन नहीं करते हैं ॥481॥ शीतल गरम अथवा सूखा, रूखा चिकना विकार रहित लोंन सहित अथवा लोंन रहित ऐसे भोजन को वे मुनि स्वाद रहित जीमते हैं ॥814॥ पाक करने में अथवा पाक कराने में पाँच उपकरणों से अधःकर्म में प्रवृत्त हुआ और अनुमोदना प्रसन्न जो मुनि उस पचनादि से नहीं डरता वह मुनि भोजन करता हुआ भी आत्मघाती है। न तो मुनि है और न सम्यग्दृष्टि है।
परमात्मप्रकाश/मूल या टीका 111/2,4 प्रक्षेपक गाथा
“काऊणं णग्गरूवं बीभत्स दड्ढमडयसारिच्छं। अहिलससि किं ण लज्जसि भक्खाए भोयणं मिट्ठं ॥111*2॥ जे सरसिं संतुट्ठ-मण विरसि कसाउ वहंति। ते मुणि भोयणधार गणि णवि परमत्थु मुणंति ॥111*4॥
= भयानक देह के मैल से युक्त जले हुए मुरदे के समान रूप सहित ऐसे वस्त्र रहित नग्न रूप को धारण करके हे साधु, तु पर के घर भिक्षा को भ्रमता हुआ उस भिक्षा में स्वाद युक्त आहार की इच्छा करता है, तो तू क्यों नहीं शरमाता? यह बड़ा आश्चर्य है ॥111*2॥ जो योगी स्वादिष्ट आहार से हर्षित होते हैं और नीरस आहार में क्रोधादि कषाय करते हैं वे मुनि भोजन के विषय में गृद्ध पक्षी के समान हैं, ऐसा तू समझ। वे परम तत्त्व को नहीं समझते हैं ॥111*4॥
आचारसार 4/64
रोगों का कारण होने से लाडू, पेड़ा, चावल के बने पदार्थ वा चिकने द्रव्य का त्याग द्रव्य शुद्धि है।
अनगार धर्मामृत अधिकार 7/10
इष्टमृष्टोत्कटरसैराहारैरूद्भरीकृताः। यथेष्टमिंद्रियभटा भ्रमयंति बहिर्मनः ॥10॥
= इन इंद्रिय रूपी सुभटों को यदि अभीष्ट तथा स्वादु और उत्कट रस से परिपूर्ण-ताजी बने हुए भोजनों के द्वारा उद्भट-दुर्वम बना दिया जाये तो ये अपनी इच्छानुसार जो-जो इन्हें इष्ट हों उन सभी बाह्य पदार्थों में मन को भ्रमाने लगते हैं। अर्थात् इष्ट सरस और स्वादु भोजन के निमित्त से इंद्रियाँ स्वाधीन नहीं रह सकतीं।
6. पौष्टिक भोजन नहीं लेते हैं
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 7/7,35
...वृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागाः पंच ॥7॥ सचित्तसंबंधसंमिश्राभिषवदुष्पक्वाहाराः ॥35॥
द्रवो वृष्योवाभिषवः (सर्वार्थसिद्धि)
= गरिष्ठ और इष्ट रस का त्याग तथा अपने शरी रके संस्कार का त्याग ये ब्रह्मचर्य की रक्षा करने के लिए ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाएँ हैं ॥7॥ सचित्ताहार, संबंधाहार, सम्मिश्राहार अर्थात् सचित्त या सचित्त से संबंध को प्राप्त अथवा सचित्त से मिला हुआ आहार, अभिषवाहार और ठीक न पका हुआ आहार, इनका ग्रहण उपभोग परिभोग परिमाण व्रत के अतिचार हैं ॥7॥ यहाँ द्रव, वृष्य और अभिषव इनका एक अर्थ है अर्थात् पौष्टिक आहार इसका अर्थ है।
( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/35/371/6)
अनगार धर्मामृत अधिकार 4/102
को न वाजीकृतां दृप्तः कन्तुं कंदलयेद्यतः। ऊर्ध्वमूलमधःशाखमृषयः पुरुषं विदुः ॥102॥
= मनुष्यों को घोड़े के समान बना देनेवाले प्रभृति वीर्य प्रवर्धक पदार्थों को वाजीकरण कहते हैं। इसमें ऐसा कौन सा पदार्थ है जो कि उद्दृप्त-उत्तेजित होकर कामदेव को उद्भूत नहीं कर देता अर्थात् सभी सगर्व पदार्थ ऐसे ही हैं। क्योंकि ऋषियों ने पुरुष का स्वरूप ऊर्ध्वमूल और अधःशाख माना है। जिह्वा और कंठ प्रभृति अवयव मनुष्य के मूल हैं और हस्तादि अवयव शाखाएँ हैं। जिस प्रकार वृक्ष के मूल में सिंचन किये गये सिंचन का प्रभाव उसकी शाखाओं पर पड़ता है उसी प्रकार जिह्वादिक के द्वारा उपयुक्त आहरादिक का प्रभाव हस्तादिक अंगों पर पड़ता है।
क्रियाकोश श्लोक 982
अतिदुर्जर आहार जे वस्तु गरिष्ट सु होय। नहीं जोग जिनवर कहे तजै धन्न हैं सोय ॥982॥
= जो अत्यंत गरिष्ठ आहार है उसको ग्रहण करना योग्य नहीं, ऐसा जिनेंद्र भगवान ने कहा है। जो नर उसका त्याग करते हैं वे धन्य हैं।
7. गृद्धता या स्वच्छंदता सहित नहीं लेते
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 290,292
एसा गणधरमेरा आयारत्थाण वण्णियासुत्ते। लोगसुहाणुरदाणं अप्पच्छंदो जहिच्छाए ॥290॥ पिंडं उवधिं सेज्जामविसोधिय जो खु भुंजमाणो हु। मूलट्ठाणं पत्तो बालो त्ति य णो समणबालो ॥292॥
= यह अच्छा संयत मुनि है, ऐसा मेरा जगत में यश फैले अथवा अपने मत का प्रकाशन करने से मेरे को लाभ होगा ऐसे भाव मन में धारण न करके केवल चारित्र रक्षणार्थ ही निर्दोष आहारादिक को जो ग्रहण करता है वही सच्चारित्र मुनि समझना चाहिये ॥290॥ उद्गमादि दोषों से युक्त आहार, उपकरण, वसतिका इनका जो साधु ग्रहण करता है जिसको प्राणि संयम व इंद्रिय संयम हैं ही नहीं वह साधु मूल स्थान प्रायश्चित्त को प्राप्त होता है, वह अज्ञानी है, वह केवल नग्न है, वह यति भी नहीं है, और न गणधर ही है।
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 931
जो जट्ठा जहा लद्धं गेण्हदि आहारमुवधियादीयं। समणगुणमुक्कजोगी संसारपवड्ढओ होदि ॥931॥
= जो साधु जिस शुद्ध अशुद्ध देश में जैसा शुद्ध अशुद्ध मिला आहार व उपकरण ग्रहण करता है वह श्रमण गुण से रहित योगी संसार का बढ़ाने वाला ही होता है।
सूत्रपाहुड़ 9
उक्किट्ठसीहचरियं वहुपरियम्मो य गरूयभारो य। जो विहरइ सच्छंदं पावं गच्छेदि होदि मिच्छत्तं ॥9॥
लिंगपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 13
धावदि पिंडणिमित्तं कलहं काऊणं भुंजदे पिंडं। एवरुपरूई संतो जिणमग्गि ण होई सो समणो ॥13॥
= जो मुनि होकर उत्कृष्ट सिंहवत् निर्भय हुआ आचरण करता है और बहुत परिकर्म कहिए तपश्चरणादि क्रिया कर युक्त है, तथा गुरु के भारवाला है अर्थात् बड़े पद वाला है, संघ नायक कहलाता है, और जिन सूत्र से च्युत हुआ स्वच्छंद प्रवर्तता है तो वह पाप ही को प्राप्त होय है, मिथ्यात्व को प्राप्त होता है ॥9॥ जो लिंगधारी पिंड अर्थात् आहार के लिए दौड़े हैं आहार के लिए कलह करके उसे खाता है तथा उसके निमित्त परस्पर अन्य से ईर्ष्या करता है वह श्रमण जिनमार्गी नहीं है ॥13॥
(और भी देखें साधु - 5)
8. दातार पर भार न पड़े इस प्रकार लेते हैं
राजवार्तिक अध्याय 9/6/16/597/29
दातृजनबाधया बिना कुशलो मुनिभवदाहारमिति भ्रमाहार इत्यपि परिभाष्यते।
= दातृ जनों को किसी भी प्रकार की बाधा पहुंचाये बिना मुनि कुशल से भ्रमर की तरह आहार लेते हैं। अतः उनकी भिक्षा वृत्ति को भ्रामरोवृत्ति और आहार को भ्रमराहार कहते हैं।
मोक्षमार्गप्रकाशक अधिकार 6/270
मुनिनिकै भ्रमरी आदि आहार लेनें की विधि कही है। ए आसक्त होय दातार के प्राण पीड़ि आहारादिक ग्रहैं हैं।...इत्यादि अनेक विपरीतता प्रत्यक्ष प्रतिभासे अर आपकौ मुनि मानै, मूल गुणादिक के धारक कहावै।
9. भाव सहित दिया व लिया गया आहार ही वास्तव में शुद्ध है
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 485
पगदा असओ जह्मा तह्मादो दव्व दोत्ति तं दव्वं। पासुगमिद्रि सिद्धेवि य अप्पट्ठकदं अशुद्धं तु ॥485॥
= साधु द्रव्य व भाव दोनों से प्रासुक द्रव्य का भोजन करे। जिसमें-से एकेंद्री जीव निकल गये वह द्रव्य प्रासुक है और जो प्रासुक आहार होने पर भी “मेरे लिए किया गया है ऐसा चिंतन करे वह भाव से अशुद्ध जानना, तथा चिंतन नहीं करना वह भाव शुद्ध आहार है।
अनगार धर्मामृत अधिकार 5/67
द्रव्यतः शुद्धमप्यन्नं भावाशुद्ध्या प्रदुष्यते। भावो ह्यशुद्धो बंधाय शुद्धो मोक्षाय निश्चितः ॥67॥
= यदि अन्न-भौज्य सामग्री द्रव्यगतः शुद्ध भी हो किंतु भावतः `मेरे लिए इसने यह बहुत अच्छा किया' इत्यादि परिणामों की दृष्टि से अशुद्ध है तो उसको अशुद्ध-सर्वथा दूषित ही समझना चाहिए। क्योंकि बंध मोक्ष के कारण परिणाम ही माने हैं। आगम में अशुद्ध परिणामों को कर्मबंध का और विशुद्ध परिणामों को मोक्ष का कारण बताया है। अतएव जो अन्न द्रव्य से शुद्ध रहते हुये भी भाव से भी शुद्ध हो वही ग्रहण करना चाहिये।
3. आहार व आहार काल का प्रमाण
1. स्वस्थ साधु के आहार का प्रमाण
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 491
अद्धमसणस्स सव्विंजणस्स उदरस्स तदियमुदयेण। वाऊसंचरणट्ठं चउथमवसेसये भिक्खु ॥491॥
= साधु उदर के चार भागों में से दो भाग तो व्यंजन सहित भोजन से भरे, तीसरा भाग जल से परिपूर्ण करे और चौथा भाग पवन के विचरण के लिए खाली छोड़े ॥491॥
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 229
...अपरिपूर्णोदरो यथालब्धः।...॥229॥
= यथालब्ध तथा पेट न भरे इतना भोजन दिन में एक बार करते हैं।
2. साधु के आहार ग्रहण करने के काल की मर्यादा
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 492
.../ तिरदुगएगमुहूत्ते जहण्णमज्झिम्मुक्कस्से।
= भोजन काल में तीन मुहूर्त लगना वह जघन्य आचरण है, दो मुहूर्त लगना वह मध्यम आचरण है, और एक मुहूर्त लगना वह उत्कृष्ट आचरण है।
( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 35) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 9/92)
4. आहार के 46 दोष
1. छियालीस दोषोंका नाम निर्देश
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 421-477
उग्गम उप्पादन एसणं संजीजणं पमाणं च। इंगाल धूमकारण अट्ठविहा पिंडसुद्धी हु ॥421॥ आधाकम्मुद्देसिय अज्झावसोय पूदि मिस्से य। पामिच्छे वलि पाहुडिदे पादूकारे य कोदे य ॥422॥ पामिच्छे परियट्ठे अभिहइमच्छिण्ण मालआरोहे। आच्छिज्जे अणिसट्ठे उग्गदीसादु सेलसिमे ॥422॥ घादीदूदणिमित्ते आजीवे वणिवगे य तेगिंछे। कोधी माणी मायी लोभी य हवंति दस एदे ॥445॥ पुव्वीपच्छा संथुदि विज्जमंते य चुण्णजोगे य। उप्पादणा य दोसो सोलसमो मूलकम्मे य ॥446॥ संकिदमक्खिदपिहिदसंववहरणदायगुम्मिस्से। अपरिणदलित्तछोडिद एसणदोसइं दस एदे ॥62॥
1. सामान्य दोष - उद्गम्, उत्पादन, अशन, संयोजन प्रमाण, अंगार या आगर और धूम कारण - इन आठ दोषों कर रहित, जो भोजन लेना वह आठ प्रकार की पिंड शुद्धि कही है।
2. उद्गम् दोष - गृहस्थ के आश्रित जो चक्की आदि आरंभ रूप कर्म वह अधःकर्म है उसका तो सामान्य रीति से साधु को त्याग ही होता है। तथा उपरोक्त मूल आठ दोषों मे-से उद्गम दोष के सोलह भेद कहते हैं - औद्देशिक दोष, अध्यधि दोष, पूतिदोष, मिश्र दोष, स्थापित दोष, बलि दोष, प्रावर्तित दोष, प्राविष्करण दोष, क्रीत दोष, प्रामृश्य दोष, परिवर्तक दोष, अभिघट दोष, अच्छिन्न दोष, मालारोह दोष, अच्छेद्य दोष, अनिसृष्ट दोष,।
3. उत्पादन दोष - सोलह दोष उत्पादन के हैं- धात्री दोष, दूत, निमित्त, आजीव, वनीपक, चिकित्सक, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, ये दस दोष। तथा पूर्व संस्तुति, पश्चात् संस्तुति, विद्या, मंत्र, चूर्णयोग, मूल कर्म छह दोष ये हैं।
4. अशन दोष - शंकित, मृक्षित, निक्षिप्त, पिहित, संव्यवहरण, दायक, उन्मिश्र, अपरिणत, लिप्त, त्यक्त ये दस दोष अशन के हैं।
(चारित्रसार 68-72/4) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 5/5-37) ( भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 99)
2. चौदह मल दोष
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 484
णहरोमजंतुअट्ठीकणकुंडयपुयिचम्मरुहिरमंसाणि। वीयफलकंदमूला छिण्णाणि मला चउदसा होंति ॥484॥
= नख रोम (बाल) प्राण सहित शरीर, हाड़ गेहूँ आदि का कण, चावल का कण, खराब-लोही (राधि) चाम, लोही, मांस, अंकुर होने योग्य गेहूँ आदि, आम्र आदि फल कंदमूल-ये चौदह मल हैं। इनको देखकर आहार त्याग देना चाहिए।
( वसुनंदि श्रावकाचार गाथा 231 का विशेषार्थ)
अनगार धर्मामृत अधिकार 5/39
पूयास्रपल्यस्थ्यजिनं नखः कचमृतविकलत्रके कन्दः। बीजं मूलफले कणकुंडौ च मलाश्चतुर्दशान्नगताः ॥36॥
= जिनसे कि संसक्त-स्पृष्ट होनेपर अन्नादिक आहार्य सामग्री साधुओं को ग्रहण न करनी चाहिए उनको मल कहते हैं। उनके चौदह भेद हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं। - पीब-फोड़े आदि में हो जाने वाला कच्चा रुधिर तथा साधारण रुधिर, मांस, हड्डी. चर्म, नख, केश, मरा हुआ विकलत्रय, कंद सूरण आदि. जो उत्पन्न हो सकता है ऐसा गेहुँ आदि बीज, मूली अदरख आदि मूल, बेर आदि फल, तथा कण-गेहुँ आदि का बाह्य खंड, और कुण्ड - शाली आदि के सूक्ष्म अभ्यंतर अवयव अथवा बाहर से पक्व और भीतर से अपक्व को कुण्ड कहते हैं।
3. सात विशेष दोष
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 812
उद्देसिय कीदयंड अण्णादं संकि्दं अभिहडं च। सत्तप्पडिकुट्ठाणि य पडिसिद्धं तं विवज्जेंति ॥812॥
= औद्देशिक, क्रीततर, अज्ञात, शंकित, अन्य स्थान से आया सूत्र के विरुद्ध और सूत्र से निषिद्ध ऐसे आहर को वे मुनि त्याग देते हैं ॥812॥
4. छियालीस दोषों के लक्षण
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 427,444 -
उद्गम दोष : जलतंदुल पक्खेवो दाणट्ठं संजदाण सयपयणे। अज्झोवोज्झं णेयं अहवा पागं तु जाव रोहो वा ॥427॥ अप्पासुएण मिस्सं पासुयदव्वं तु पूदिकम्मं तुं। चुल्ली उक्खलिदव्वी भायणमंधत्ति पंचविहं ॥428॥ पासंडेहिं य सद्धं सागरेहिं य जदण्णमुद्दिसियं। दादुमिदि संजदाणं सिद्धं मिस्सं वियाणाहि ॥429॥ पागादु भायणाओ अण्णाह्मि य भायणह्मिपक्कविय। सघरे वा परघरे वा णिहिदं ठविदं वियाणाहि ॥430॥ जक्खयणागदीणं बलिसेसं स बलित्ति पण्णत्तं। संजदआगमणट्ठं बलियम्मं वा बलिं जाणे ॥431॥ पाहुडिहं दुविहं बादर सुहुमं च दुविहमेक्केकं। ओकस्सणमुक्कस्सणमह कालोवट्टणावड्ढी ॥432॥ दिवसे पक्खे मासे वासे परत्तीय बादरं दुविहं। पुव्वपरमज्झवेलं परियत्तं दुविहं सुहुमं च ॥433॥ पादुक्कारो दुविहो संकमण पयासणा य बोधव्वो। भायण भोयणादीणं मंडवविरलादियं कमसो ॥434॥ कीदयडं पुण दुविहं दव्वं भावं च सगपरं दुविहं। सच्चितादी दव्वं विज्जामंतादि भावं च ॥435॥ लहरिय रिणं तु भणियं पामिच्छे ओदणादि अण्णदरं। तं पुण दुविहं भणिदं सवड्ढियमवड्ढियं चावि ॥436॥ बीहीकूरादीहिं य सालीकूरादियं तु जं गहिदं। दातुमिति संजदाणं परियट्ट होदि णायव्वं ॥437॥ देसत्ति य सव्वत्ति य दुविहं पुण अभिहडं वियाणाहि। आचिण्णमणाचिण्णं देसाविहडं हवे दुविहं ॥438॥ उज्जुत्तिहिं सत्तहिं वा घरेहिं जदि आगदं दु आचिण्णं। परदो वा तेहिं भवे तव्विबरीदं अणाचिण्णं ॥439॥ सव्वाभिघडं चदुधा सयपरगामे सदेसपरदेसे। पुव्वपरपाडणयडं पढमं सेसं पि णादव्वं ॥440॥ पिहिदं लंछिदयं वा ओसहघिदसक्कारादि जं दव्वं। उब्भिण्णिऊण देयं उब्भिण्णं होदि णादव्वं ॥441॥ णिस्सेणिकट्ठादीहि णिहिदं पूवादियं तु धित्तणं। मालारोहिं किच्चा देयं मालारोहणं णाम ॥442॥ रायाचोरादीहिं य संजदभिक्खसमं तु दट्ठूणं। बीहेदूण णिजुज्जं अच्छिज्जं होदि णादव्वं ॥443॥ अणिसट्ठं पुण दुविहं इस्सरसह णिस्सरं चदुवियप्यं। पढमिस्सर सारक्खं वत्तावत्तं च संघाडं ॥444॥
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 447-461
सोलह उत्पादन दोष-मज्जणमंडणधादी खेल्लावखीरअंबधादी य। पंचविधघादिकम्मेणुप्पादो धादिदेसो दु ॥447॥ जलथलआयासगदं सयपरगामे सदेसपरदेसे। संबंधिवयणणयणं दूदीदोसो भवदि एसो ॥448॥ वंजणमगं च सरं छिण्णं भूमं च अंतरिक्खं च। लक्खण सुविणं च तहा अट्ठविहं होह णेमित्तं ॥449॥ जादी कुलं च सिप्पं तवकम्मं ईसरत्त आजीवं। तेहिं पुण उप्पादो आजीव दोसो हवदि एसो ॥450॥ साणकिविणतिधिमाहणपासंडियसवणकागदाणादी। पुण्णं णवेति पुट्ठे पुण्णोत्ति वणीवत्तं वयणं ॥451॥ कोमारतणुतिगिंछारसायणविसभूदखारतंतं च। सालंकियं च सल्लं तिगिंछदोसो दु अट्ठविहो ॥452॥ कोधेण य माणेण य मायालोभेण चावि उप्पादो। उप्पादणा य दोसो चदुव्विहो होदि णायव्वो ॥453॥ दायगपुरदो कित्ती तं दाणवदी जसोधरो वेत्ति। पुव्वीसंथुदि दोसो विस्सरिदं बोधणं चावि ॥455॥ पच्छासंथुदिदोसो दाणंगहिदूण तं पुणो कित्तिं। विक्खादो दाणवदी तुज्झ जसो विस्सुदो वेंति ॥456॥ विज्जासाधित सिद्धा तिस्से आसापदाणकरणेहिं। तस्से माहप्पेण य विज्जादोसो दु उप्पादो ॥457॥ सिद्धे पढिदे मंते तस्स य आसापदाणकरणेण। तस्स य माहप्पेण य उप्पादो मंतदोसो दु ॥458॥ आहारदायगाणं बिज्जामंतेहिं देवदाणं तु। आहुय साधिदव्वा विज्जामंतो हवे दोसो ॥459॥ णेत्तस्संजणचुण्णं भूसणचुण्णं च गत्त सोभयरं। चुण्णं तेणुप्पदो चुण्णयदोसो हवदि एसो ॥460॥ अवसाणं वसियसणं संजोजयणं च विप्पजुत्ताणं। भणिदं तु मूलकम्मं एदे उप्पादणा दोसा ॥461॥
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 463-475
`10 अशन दोष' - असणं च पाणयं वा खादियमध सादियं च अज्झप्पे। कप्पियमकप्पियत्ति य संदिद्धं संकियं जाणे ॥463॥ ससिणिद्धेण य देयं हत्थेण य भायणेण दव्वीए। एसो मक्खिददोसो परिहरदव्वो सदा मुणिणा ॥464॥ सच्चित्तपुढविआऊतेऊहरिदं च वीयतसजीवा। जं तेसिमुवरि हठविदं णिक्खित्तं होदि छब्भेयं ॥465॥ सच्चित्तेण व पिहिदं अथवा अचित्तगुरुगपिहिदं च। जं छंडिय जं देयं पिहिदं तं होदि बोधव्वं ॥466॥ संववहरणं किच्चा पदादुमिदि चेल भायणादीणं। असमिक्खय जं देयं संववहरणो हवदि दोसो ॥467॥ सूदी सूंडी रोगीमदयणपंसय पिसायणग्गो य। उच्चारपडिदवंतरुहिरवेसी समणी अगमक्खिया ॥468॥ अतिबाला अतिबुड्ढा घासत्ती गब्भिणी य अधलिय। अंतरिदाव विसण्णा उच्चत्था अहव णीचत्था ॥469॥ पूयणं पज्जलणं वा सारणं पच्छादणं च विज्झवणं। किच्चा तहग्गिकज्जं णिव्वादं घट्टणं चावि ॥470॥ लेवणमज्जणकम्मं पियमाणं दारयं च णिक्खिविय। एवं विहादिया पुण दाणं जदि दिंति दायगा दोसा ॥471॥ पुढवी आऊ य तहा हरिदा बीया तसा य सज्जीवा। पंचेहिं तेहिं मिस्सं आहारं होदि उम्मिस्सं ॥472॥ तिलतंडुलउसणोदय चणोदय तुसोदयं अविधुत्थं। अण्णं तहाविहं वा अपरिणदं णेव गेण्हिज्जो ॥473॥ गेरुय हरिदालेण व सेडीय मणो सिलामपिट्ठेण। सपबालोदणलेवे ण व देयं करभायणे लित्तं ॥474॥ बहुपरिसाडणमुज्झिअ आहारो परिगलंत दिज्जंतं। छंडिय भुंजणमहवा छंडियदोसो हवेणेओ ॥475॥
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 476-477
संयोजना आदि 4 दोष-संयोजणा य दोसो जो संजाएदि भतपाणं तु। अदिमत्तो आहारो पमाणदोसो हवदि एसो ॥476॥ तं होदि सयंगालं जं आहारेदि मुच्छिदो संतो। तं पुण होदि सधूमं जं आहारेदि णिंदिंदो ॥477॥
1. अधः कर्मादि 16 उद्गम दोष -
1. अधःकर्मदोष - देखें अधःकर्म ।
2. अध्यधि दोष - संयमी साधु को आता देख उनको देने के लिए अपने निमित्त चूल्हे पर रखे हुए जल और चावलों मे और अधिक जल और चावल मिला कर फिर पकावे। अथवा जब तक भोजन तैय्यार न हो, तब तक धर्म प्रश्न के बहाने साधु को रोक रखे, वह अध्यधि दोष है।
3. पूतिदोष - प्रासुक आहारादिक वस्तु सचित्तादि वस्तु से मिश्रित हो वह पूति होष है। प्रासुक द्रव्य भी पूतिकर्म से मिला पूतिकर्म कहलाता है। उसके पाँच भेद हैं - चूल्ही (चूल्हा), ओखली, कड़छी, पकाने के बासन तथा गंध युक्त द्रव्य। इन पाँचों मे संकल्प करना कि इन चूलि आदि से पका भोजन जब तक साधु को न दे दें तक तब अन्य किसी को नहीं देंगे। ये ही पाँच आरंभ दोष हैं जो पूति दोष में गर्भित हैं ॥428॥
4. मिश्रदोष - प्रासुक तैयार हुआ भोजन अन्य भेषधारियों के साथ तथा गृहस्थों के साथ संयमी साधुओँ को देने का उद्देश्य करे तो मिश्र दोष जानना ॥429॥
5. स्थापित दोष - जिस बासन में पकाया था उससे दूसरे भाजन में पके भोजन को रखकर अपने घर में तथा दूसरे के घर में जाकर उस अन्न को रख दे उसे स्थापित दोष जानना ॥430॥
6. बलिदोष - यक्ष नागादि देवताओं के लिए जो बलि (पूजन) किया हो उससे शेष रहा भोजन बलिदोष सहित है। अथवा संयमियों के आगमन के लिए जो बलिकर्म (सावद्य पूजन) करे वहाँ भी बलिदोष जानना ॥431॥
7. प्राभृतदोष - प्राभृत दोष के दो भेद हैं - बादर और सूक्ष्म। इन दोनोंके भी दो-दो भेद हैं - अपकर्षण और उत्कर्षण। काल की हानि का नाम अपकर्षण है, और काल की वृद्धि को उत्कर्षण कहते हैं ॥432॥ दिन, पक्ष, महीना, वर्ष इनको बदल कर जो आहार दान देना वह बादर प्राभृत दोष है। वह बादर दोष उत्कर्षण व अपकर्षण करने से दो प्रकार का है। सूक्ष्म प्रावर्तित दोष भी दो प्रकार का है। पूर्वाह्ण समय व अपराह्ण समय को पलटने से काल को बढ़ाना घटाना रूप है ॥433॥
8. प्रादुष्कार दोष - प्रादुष्कार दोष के दो भेद हैं - संक्रमण और प्रकाशन। साधु के आ जाने पर भोजन भाजन आदि को एक स्थान से दूसरे स्थान पर लेजाना संक्रमण है और भाजन को मांजना या दीपक का प्रकाश करना अथवा मंडप का उद्योतन करना आदि प्रकाशन दोष हैं ॥434॥
9. क्रीत दोष - क्रीततर दोष के दो भेद हैं - द्रव्य और भाव। हर एक के पुनः दो भेद हैं - स्व व पर। संयमी के भिक्षार्थ प्रवेश करने पर गाय आदि देकर बदले में भोजन लेकर साधु को देना द्रव्य क्रीत है। प्रज्ञप्ति आदि विद्या या चेटकादि मंत्रों के बदले में आहार लेके साधु को देना भावक्रीत दोष है ॥435॥
10. प्रामृष्य दोष - साधुओं को आहार कराने के लिए दूसरे से उधार भात आदिक भोजन सामग्री लाकर देना प्रामृष्य दोष है। उसके दो भेद हैं - सवृद्धिक और अवृद्धिक। कर्ज से अधिक देना सवृद्धिक है। जितना कर्ज लिया उतना ही देना अवृद्धिक हैं ॥436॥
11. परिवर्त दोष - साधुओं को आहार देने के लिए अपने साठी के चावल आदिक देकर दूसरे से बढिया चावलादिक लेकर साधु को आहार दे वह परिवर्त दोष जानना ॥437॥
12. अभिघट दोष - अभिघट दोष के दो भेद हैं - एक देश और सर्वदेश। उसमें भी देशाभिघट के दो भेद हैं - आचिन्न और अनाचिन्न। पंक्तिबद्ध सीधे तीन अथवा सात घरों से आया योग्य भोजन आचिन्न अर्थात् ग्रहण करने योग्य है। और तितर-बितर किन्हीं सात घरों से आया अथवा पंक्तिबद्ध आठवाँ आदि घरों से आया हुआ भोजन अनाचिन्न है अर्थात् ग्रहण करने योग्य नहीं है ॥439॥ सर्वाभिघट दोष के चार भेद हैं - स्वग्राम, परग्राम, स्वदेश और परदेश। पूर्वादि दिशा के मोहल्ले से पश्चिमादि दिशा के मोहल्ले में भोजन ले जाना स्वग्रामाभिघट दोष है। इसी तरह शेष तीन भी जान लेने। इसमें ईर्यापथ का दोष आता है ॥440॥
13. उद्भिन्न दोष - मिट्टी लाख आदि से ढका हुआ अथवा नाम की मोहर कर चिह्नित जो औषध घी या शक्कर आदि द्रव्य हैं अर्थात् सील बंद पदार्थों को उघाड़कर या खोलकर देना उद्भिन्न दोष है। इसमें चींटी आदि के प्रवेश का दोष लगता है ॥441॥
14. मालारोहण दोष - काष्ठ आदि की बनी हूई सीढी अथवा पैड़ी से घर के ऊपर के खनपर चढ़कर वहाँ रखे हुए पूवा लड्डू आदि अन्न को लाकर साधु को देना मालारोहण दोष है। इसमें दाता को विघ्न होता है ॥442॥
15. आछेद्य दोष - संयमी साधुओं के भिक्षा के परिश्रम को देख राजा, चोर आदि गृहस्थियों को ऐसा डर दिखाकर ऐसा कहें कि यदि तुम इन साधुओं को भिक्षा नहीं दोगे तो हम तुम्हारा द्रव्य छीन लेंगे ऐसा डर दिखाकर दिया गया आहार वह आछेद्य दोष है ॥443॥
16. अनिसृष्ट दोष - अनीशार्थके दो भेद हैं - ईश्वर और अनीश्वर दोनों के भी मिलाकर चार भेद हैं। पहला भेद ईश्वर सारक्ष तथा ईश्वर के तीन भेद - व्यक्त, अव्यक्त व संघाट। दान का स्वामी देने की इच्छा करे और मंत्री आदि मना करें तो दिया हुआ भी अनीशार्थ है। स्वामी से अन्य जनों का निषेध किया अनीश्वर कहलाता है। वह व्यक्त अर्थात् वृद्ध, अव्यक्त अर्थात् बाल और संघाट अर्थात् दोनों के भेद से तीन प्रकार का है ॥444॥
( चारित्रसार पृष्ठ 69/2) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 5/5-6)
2. धात्री आदि 16 उत्पादन दोष
1. धात्री दोष - पोषन करे वह धाय कहलाती है। वह पाँच प्रकार की होती है-स्नान कराने वाली, आभूषण पहनाने वाली, बच्चों को रमाने वाली, दूध पिलाने वाली तथा मातावत अपने पास सुलाने वाली। इनका उपदेश करके जो साधु भोजन ले तो धात्री दोष युक्त होता है। इससे स्वाध्याय का नाश होता है तथा साधु मार्ग में दूषण लगता है ॥447॥
2. दूत दोष - कोई साधु अपने ग्राम से व अपने देश से दूसरे ग्राम में व दूसरे देश में जल के मार्ग नाव में बैठकर व स्थलमार्ग व आकाशमार्ग से होकर जाय। वहाँ पहुँचकर किसी के संदेश को उसके संबंधी से कह दे, फिर भोजन ले तो वह दूत दोष युक्त होता है ॥448॥
3. निमित्त दोष - निमित्त ज्ञान के आठ भेद हैं - मसा, तिल आदि व्यंजन, मस्तक आदि अंग, शब्द रूप स्वर, वस्त्रादिक का छेद वा तलवारादि का प्रहार, भूमिविभाग, सूर्यादि ग्रहों का उदय अस्त होना, पद्म चक्रादि लक्षण और स्वप्न। इन अष्टांग निमित्तों से शुभाशुभ कहकर भोजन-लेने से साधु निमित्त दोष युक्त होता है।
4. आजीव दोष - जाति, कुल, चात्रादि शिल्प तपश्चरण की क्रिया आदि द्वारा अपने को महान् प्रगट करने रूप वचन गृहस्थों को कहकर आहार लेना आजीव दोष है। इसमें बलहीनपना व दीनपना का दोष आता है ॥450॥
5. वनीपक दोष - कोई दाता ऐसे पूछे कि कुत्ता, कृपण, भिखारी, असदाचारी, ब्राह्मण, भेषी साधु तथा त्रिदंडी आदि साधु और कौआ इनको आहारादि देने में पुण्य होता है या नहीं? तो उसकी रुचि के अनुकूल ऐसा कहा कि पुण्य ही होता है। फिर भोजन करे तो वनीपक दोष युक्त होता है। इसमें दीनता प्रगट होती है ॥451॥
6. चिकित्सा दोष - चिकित्सा शास्त्र के आठ भेद हैं - बालचिकित्सा, शरीरचिकित्सा, रसायन, विषतंत्र, भूततंत्र, क्षारतंत्र शलाकाक्रिया, शल्यचिकित्सा। इनका उपदेश देकर आहार लेने से चिकित्सा दोष होता है ॥452॥
7-10. क्रोधी, मानी, मायी, लोभी दोष - क्रोध से भिक्षा लेना, मान से आहार लेना, माया से आहार लेना, लोभ से आहार लेना, इस प्रकार क्रोध, मान, मायी, लोभ रूप उत्पादन दोष होता है ॥453॥
11. पूर्व स्तुति दोष - दातार के आगे `तुम दानपति हो, यशोधर हो, तुम्हारी कीर्ति लोक प्रसिद्ध हैं' इस प्रकार के वचनों द्वारा उसकी प्रशंसा करके आहार लेना, अथवा दातार यदि भूल गया हो तो उसे याद दिलाया कि पहले तो तुम बड़े दानी थे, अब कैसे भूल गये, इस प्रकार प्रशंसा करके आहार लेना पूर्व स्तुति दोष है ॥455॥
12. पश्चात् स्तुति दोष - आहार लेकर पीछे जो साधु दाता की प्रशंसा करे, कि तुम प्रसिद्ध दानपति हो, तुम्हारा यश प्रसिद्ध है, ऐसा कहने से पश्चात् स्तुति दोष लगता है ॥456॥
13. विद्या दोष - जो साधने से सिद्ध हो वह विद्या है, उसे विद्या की आशा देने से कि हम तुमको विद्या देंगे तथा उस विद्या की महिमा वर्णन करने से जो आहार ले उस साधु के विद्या दोष आता है ॥457॥
14. मंत्र दोष - पढने मात्र से जो मंत्र सिद्ध हो वह पठित सिद्ध मंत्र होता है, उस मंत्र की आशा देकर और उसकी महिमा कहकर जो साधु आहार ग्रहण करता है उसके मंत्र दोष होता है ॥458॥ आहार देने वाले व्यंतरादि देवों को विद्या तथा मंत्र से बुलाकर साधन करे वह विद्या मंत्र दोष है। अथवा आहार देने वाले गृहस्थों के देवता को बुलाकर साधना वह भी विद्या मंत्र दोष है ॥459॥
15. चूर्ण दोष - नेत्रों का अंजन, भूषण साफ करनेका चूर्ण, शरीर की शोभा बढानेवाला चूर्ण - इन चूर्णों की विधि बतलाकर आहार ले वहाँ चूर्ण दोष होता है ॥460॥
16. मूल कर्म दोष - जो वश में नहीं है उनको वश में करना, जो स्त्री पुरुष वियुक्त हैं उनका संयोग कराना - ऐसे मंत्र-तंत्र आदि उपाय बतलाकर गृहस्थों से आहार लेना मूलकर्म दोष है।
( चारित्रसार पृष्ठ 71/1), ( अनगार धर्मामृत अधिकार 5/20-27)
3. शंकितादि 10 अशन दोष
1. शंकित दोष - अशन, पान, खाद्य व स्वाद्य यह चार प्रकार भोजन आगमानुसार मेरे लेने योग्य है अथवा नहीं ऐसे संदेह सहित आहार को लेना शंकित दोष है ॥363॥
2. मृक्षित दोष - चिकने हाथ व पात्र तथा कड़छी से भात आदि भोजन देना मृक्षित दोष है। उसका सदा त्याग करे ॥464॥
3. निक्षिप्त दोष - अप्रासुक सचित्त पृथिवी, जल, तेज, हरितकाय, बीजकाय, त्रसकाय, जीवों के ऊपर रखा हुआ आहार इस प्रकार छह भेद वाला निक्षिप्त दोष है ॥465॥
4. पिहित दोष - जो आहार अप्रासुक वस्तु से ढँका हो, उसे उघाड़ कर दिया गये आहार को लेना पिहित दोष होता है ॥466॥
5. संव्यवहरण दोष - भोजनादि का देन-लेन शीघ्रता से करते हुए, बिना देखे भोजन-पान दे तो उसको लेने में संव्यवहरण दोष होता है ॥467॥
6. दायक दोष - जो स्त्री बालक का शृंगार कर रही हो, मदिरा पीने में लंपट हो, रोगी हो, मुरदे को जलाकर आया हो, नपुञ्सक हो, आयु आदि से पीड़ित हो, वस्त्रादि ओढ़े हुए न हो, मूत्रादि करके आया हो, मूर्छा से गिर पड़ा हो, वमन करके आया हो, लोहू सहित हो, दास या दासी हो, अर्जिका रक्तपटिका आदि हो, अंग को मर्दन करने वाली हो, - इन सबों के हाथ से मुनि आहार न लें ॥468॥ अति बालक हो, अधिक बूढी हो, भोजन करती जूठे मुंह हो, पाँच महीना आदि के गर्भ से युक्त हो, अंधी हो, भीत आदि के आँतरे से या सहारे से बैठी हो, ऊँची जगह पर बैठी हो, नीची जगह पर बैठी हो ॥469॥ मूँह से फूंककर अग्नि जलाना, काठ आदि डालकर आग जलाना, काठ को जलाने के लिए सरकाना, राख से अग्नि को ढँकना, जलादि से अग्नि का बुझाना, तथा अन्य भी अग्नि को निर्वातन व घट्टन आदि करने रूप कार्य करते हुए भोजन देना ॥470॥ गोबर आदि से भीति का लीपना, स्नानादि क्रिया करना, दूध पीते बालक कों छोड़कर आहार देना, इत्यादि क्रियाओं से युक्त होते हुए आहार दे तो दायक दोष जानना ॥471॥
7. उन्मिश्र दोष - मिट्टी, अप्रासुक जल, पान-फूल, फल आदि हरी, जौ, गेहुँ आदि बीज, द्वींद्रियादिक त्रस जीव - इन पाँचों से मिला हुआ आहार देने से उन्मिश्र दोष होता है ॥472॥
8. अपरिणत दोष - तिल के धोने का जल, चावल का जल, गरम होके ठंढा हुआ जल, तुष का जल, हरण चूरण आदि कर भी परिणित न हुआ जल हो वह नहीं ग्रहण करना। ग्रहण करने से अपरिणत दोष आता है ॥473॥
9. लिप्त दोष - गेरू, हरताल, खड़िया, मैनशिल, चावल, आदि का चून, कच्चा शाक - इनसे लिप्त हाथ तथा पात्र अथवा अप्रासुक जल से भीगा हाथ तथा पात्र इन दोनों से भोजन दे तो लिप्त दोष आता है ॥474॥
10. त्यक्त दोष - बहुत भोजन को थोड़ा भोजन करे अर्थात् जूठ छोड़ना या बहुत-सा भोजन कर पात्र में-से नीचे गिराता भोजन करे छाछ आदि से झरते हुए हाथ से भोजन करे अथवा किसी एक आहार को (अशन, पान, खाद्य स्वाद्यादिमें-से किसी एक को) छोड़कर भोजन करे तो त्यक्त दोष आता है ॥475॥
( चारित्रसार पृष्ठ 72/1), ( अनगार धर्मामृत अधिकार 5/29-36)
4. संयोजनादि 4 दोष
1. संयोजना दोष - जो ठंडा भोजन गर्म जल से मिलाना अथवा ठंडा जल गर्म भोजन से मिलाना, सो संयोजना दोष है ॥476॥
2. प्रमाण दोष - मात्रा से अधिक भोजन करना प्रमाण दोष है ॥477॥
3. अंगार दोष - जो मूर्च्छित हुआ अति तृष्णा से आहार ग्रहण करता है उसके अंगार दोष होता है।
4. धूम दोष - जो निंदा अर्थात् ग्लानि करता हुआ भोजन करता है उसके धूम दोष होता है ॥477॥
( चारित्रसार पृष्ठ 72/4), ( अनगार धर्मामृत अधिकार 5/37)
5. दातार संबंधी विचार
1. दातार के गुण व दोष
राजवार्तिक अध्याय 7/39/4/559/29
प्रतिग्रहीतरि अनसूया त्यागेऽविषादः दित्सतो ददतो दत्तवतश्च प्रीतियोगः कुशलाभिसंधिता दृष्टफलानपेक्षिता निरुपरोधत्वमनिदानत्वमित्येवमादिः दातृविशेषोऽवसेयः।
= पात्र में ईर्षा न होना, त्याग में विषाद न होना, देने की इच्छा करने वाले में तथा देने वालो में या जिसने दान दिया है सब में प्रीति होना, कुशल अभिप्राय, प्रत्यक्ष फल की आकांक्षा न करना, निदान नहीं करना, किसी से विसंवाद नहीं करना आदि दाता की विशेषताए हैं।
( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/39/373/6)
महापुराण सर्ग संख्या /20/82-85
श्रद्धा शक्तिश्च भक्तिश्च विज्ञानंचाप्यलुब्धता। क्षमात्यागश्च सप्तैते प्रोक्ता दानपतैर्गुणाः ॥82॥ श्रद्धास्तिक्यमनास्तिवये प्रदाने स्यादनादरः। भवेच्छक्तिरनालस्यं भक्तिः स्यात्तद्गुणादरः ॥83॥ विज्ञानं स्यात् क्रमज्ञत्वं देयासक्तिरलुब्धताक्षमातितिक्षाददतस्त्यागः सद्व्ययशीलता ॥84॥ इति सप्तगुणोपेतो दाता स्यात् पात्रसंपदि। व्यपेतश्च निदानादेः दोषान्निश्रेयसोद्यतः ॥85॥
= श्रद्धा, शक्ति, भक्ति, विज्ञान, अक्षुब्धता, क्षमा और त्याग ये दानपति अर्थात् दान देने वाले के सात गुण कहलाते हैं ॥82॥ श्रद्धा आस्तिक्य बुद्धिको कहते हैं; आस्तिक्य बुद्धि अर्थात् श्रद्धा के न होने पर दान देने में अनादार हो सकता है। दान देने में आलस्य नहीं करना सो शक्ति नाम का गुण है, पात्र के गुणों में आदर करना सो भक्ति नाम का गुण है ॥83॥ दान देने आदि के क्रम का ज्ञान होना सो विज्ञान नाम का गुण है, दान देने की आसक्ति को अलुब्धता कहते हैं, सहनशीलता होना क्षमा गुण है और उत्तम द्रव्य दान में देना सो त्याग है ॥84॥ इस प्रकार जो दाता ऊपर कहे सात गुणों सहित है और निदानादि दोष से रहित होकर पात्र रूपी संपदा में दान देता है वह मोक्ष प्राप्त करने के लिए तत्पर होता है ॥85॥
गुणभद्र श्रावकाचार श्लोक 151
श्रद्धा भक्तिश्च विज्ञानं पुष्टिः शक्तिरलुब्धता। क्षमा च यत्र सप्तैते गुणाः दाता प्रशस्यते ॥151॥
= श्रद्धा, भक्ति, विज्ञान, संतोष, शक्ति, अलुब्धता और क्षमा ये सात गुण जिसमें पाये जाये, वह दातार प्रशंसनीय है।
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 169
ऐहिकफलानपेक्षा क्षांतिर्निष्कपटतानसूयत्वम्। अविषादित्वमुदित्वे निरहंकारित्वमिति हि दातृगुणाः ॥169॥
= इस लोक संबंधी फल की अपेक्षा रहित, क्षमा, निष्कपटता, ईर्षा रहितता, अखिन्नभाव, हर्षभाव और निरभिमानता, इस प्रकार ये सात निश्चय करके दाताके गुण हैं।
चारित्रसार पृष्ठ 26/6 में उद्धृत
“श्रद्धा शक्तिरलुब्धत्वं भक्तिर्ज्ञानं दया क्षमा। इति श्रद्धादयः सप्त गुणाः स्युर्गृहमेधिनाम्॥
= श्रद्धा, भक्ति, निर्लोभता, भक्ति, ज्ञान, दया और क्षमा आदि सात दान देने वाले गृहस्थों के गुण है।
( वसुनंदि श्रावकाचार गाथा 151)
सागार धर्मामृत अधिकार 5/47
भक्तिश्रद्धासत्त्वतुष्टि-ज्ञानालौल्यक्षमागुणः। नवकोटिविशुद्धस्य दाता दानस्य यः पतिः ॥47॥
= भक्ति, श्रद्धा, सत्त्व, तुष्टि, ज्ञान, अलौल्य और क्षमा इनके साथ असाधारण गुण सहित जो श्रावक मन, वचन, काय तथा कृत, कारित और अनुमोदना इन नौ कोटियों के द्वारा विशुद्ध दान का अर्थात् देने योग्य द्रव्य का स्वामी होता है वह दाता कहलाता है।
2. दान देने योग्य अवस्थाएँ विशेष
भगवतीआराधना/विजयोदयी टीका/1206/1204/17
स्तनं प्रयच्छन्त्या, गर्भिण्या वा दीयमानं न गृह्णीयात्। रोगिणा, अतिवृद्धेन, बालेनोत्मत्तेन, पिशाचेन, मुग्धेनान्धेन, मूकेन, दूर्बलेन, भीतेन, शंकितेन, अत्यासन्नेन, अदूरेण लज्जाव्यावृतमुख्या, आवृतमुख्या, उपानदुपरिन्यस्तपादेन वा दीयमानं न गृह्णीयात्। स्त्रण्डेन भिन्नेन वा कडकच्छुकेन दीयमानं वा।
= जो अपने बालक को स्तन पान करा रही है और जो गर्भिणी है ऐसी स्त्रियों का दिया हुआ आहार न लेना चाहिए। रोगी अतिशय वृद्ध, बालक, उन्मत्त, अंधा, गूंगा, अशक्त, भययुक्त, शंकायुक्त, अतिशय नजदीक जो खड़ा हुआ है, जो दूर खड़ा हुआ है ऐसे पुरुष से आहार नहीं लेना चाहिए। लज्जा से जिसने अपना मुँह फेर लिया है, जिसने जूता अथवा चप्पल पर पाँव रखा है, जो ऊँची जगह पर खड़ा हुआ है, ऐसे मनुष्य का दिया हुआ आहार नहीं लेना चाहिए। टूटी हुई अथवा खंडयुक्त हुई ऐसी कड़छी के द्वारा दिया हुआ नहीं लेना चाहिए।
( अनगार धर्मामृत अधिकार 5/34 मे उद्धृत) (और भी विशेष - देखें आहार - II.4.3 में दायक दोष)
6. भोजन ग्रहण के कारण व प्रयोजन
1. संयम रक्षार्थ करते है शरीर रक्षार्थ नहीं
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 481,483
ण बालाउसाउअट्ठं ण शरीरस्सुवसुवचयट्ठं तेजट्ठं णाणट्ठं संजमट्ठं झाड़ट्ठं चेव भुंजेज्जो ॥481॥...। जत्तासाधणमत्तं चाद्दसमलवज्जिदं भुंजे ॥483॥
= साधु बल के लिए, आयु बढ़ाने के लिए, स्वाद के लिए, शरीर के पुष्ट होने के लिए, शरीर के तेज बढ़ाने के लिए भोजन नहीं करते। किंतु वे ज्ञान (स्वाध्याय) के लिए, संयम पालने के लिए, ध्यान होने के लिए भोजन करते हैं ॥481॥ ...प्राणों के धारण के लिए हो अथवा मोक्ष यात्रा के साधने के लिए हो, और चौदह मलों से रहित हो ऐसा भोजन साधु करे ॥483॥
रयणसार गाथा 113
भुंजेइ जहालाहं लहेइ जइ णाणसंजमणिमित्तं। झाणज्झयणंणिमित्तं अणियारो मोक्खमग्गरओ ॥113॥
= मुनि केवल संयम और ज्ञान की वृद्धि के लिए तथा ध्यान और अध्ययन करने के लिए जो मिल गया शुद्ध भोजन, उसको ग्रहण करते हैं वे मुनि अवश्य ही मोक्षमार्ग में लीन रहते हैं।
अनगार धर्मामृत अधिकार 5/61
क्षुच्छमं संयम स्वान्यवैयावृत्त्यसुस्थितिम्। वांछन्नावयश्कं ज्ञानध्यानादींश्चाहरेन्मुनिः ॥61॥
= क्षुधा बाधा का उपशमन, संयम की सिद्धि, और स्व पर की वैयावृत्य, - आपत्तियों का प्रतिकार करने के लिए तथा प्राणों की स्थिति बनाये रखने के लिये एवं आवश्यकों और ध्यानाध्ययनादिकों को निर्विघ्न चलते रहने के लिए मुनियों को आहार ग्रहण करना चाहिए। और भी देखें नीचे मूलाचार आचारवृत्ति / गाथा 479।
2. शरीर के रक्षणार्थ भी कथंचित् ग्रहण
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 479
वेयणवेज्जावच्चे किरियाठाणे य संयमट्ठाए। तध पाण धम्मचिंता कुज्जा एदेहि आहारं ॥479॥
= क्षुधा की वेदना के उपशमार्थ, वैयावृत्य करने के लिए, छह आवश्यक क्रिया के अर्थ, तेरह प्रकार चारित्र के लिए, प्राण रक्षा के लिए, उत्तम क्षमादि धर्म के पालन के लिए भोजन करना चाहिए। और भी देखें ऊपर ( अनगार धर्मामृत अधिकार 5/61)
रयणसार गाथा 116
वहुदुक्खभायणं कम्मक्कारणं भिण्णमप्पणो देहो। तं देहं धम्मणुट्ठाण कारणं चेदि पोसए भिक्खू ॥116॥
= यह शरीर दुखों का पात्र हैं, कर्म आने का कारण है और आत्मा से सर्वथा भिन्न है। ऐसे शरीर को मुनिराज कभी पोषण नहीं करते हैं, किंतु यही शरीर धर्मानुष्ठान का कारण है, यही समझकर इस शरीर से धर्म सेवन करने के लिए और मोक्ष में पहुंचने के लिए मुनिराज इसको थोड़ा सा आहार देते हैं।
पद्मपुराण सर्ग 4/79
...। भुंजते प्राणधृत्यर्थं प्राणा धर्मस्य हेतवः ॥79॥
= (मुनि) भोजन प्राणों की रक्षा के लिए ही करते हैं, क्योंकि प्राण धर्म के कारण हैं।
3. शरीर के उपचारार्थ औषध आदि की भी इच्छा नहीं
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 839-840
उप्पण्णम्मि य वाही सिरवेयण कुक्खिवेयणं चेव। अधियासिंति सुधिदिया कार्यातगिंछं ण इच्छंति ॥439॥ ण य दुम्मणा ण विहला अणाउला होंति चेय सप्पुरिसा। णिप्पड़ियम्मसरीरा देंति उरं वाहिरोगाणं ॥840॥
= ज्वररोगादिक उत्पन्न होने पर भी तथा मस्तक में पीड़ा होने पर भी चारित्र में दृढ परिणाम वाले वे मुनि पीड़ा को सहन कर लेते हैं परंतु शरीर का इलाज करने की इच्छा नहीं रखते ॥839॥ वे सत्पुरुष रोगादिक के आने पर भी मन में खेद खिन्न नहीं होते, न विचारशून्य होते हैं, न आकृल होते हैं किंतु शरीर में प्रतिकार रहित हुए व्याधि रोगों के लिए हृदय दे देते हैं। अर्थात् सबको सहते हैं।
4.शरीर व संयमार्थ ग्रहण का समन्वय
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 815
अक्खोमक्खणमेत्तं भुंजंति मुणी पाणधारणणिमित्तं। पाणं धम्मणिमित्तं घम्मंपि चरंति मोक्खट्ठं ॥815॥
= गाड़ी के धुरा चुपरने के समान, प्राणों के धारण के निमित्त वे मुनि आहार लेते हैं, प्राणों को धारण करना धर्म के निमित्त है और धर्म को मोक्ष के निमित्त पालते हैं ॥815॥
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 230
बालवृद्धश्रांतग्लानेन संयमस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्यमतिकर्कशमाचरणमाचरता शरीरस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनभूतसंयमसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात् तथा बालवृद्धश्रांत ग्लानस्य स्वस्य योग्यं मृद्वप्याचरणमाचरणीयमित्यापवादसापेक्ष उत्सर्गः।
= बाल, वृद्ध-श्रांत-ग्लान के संयम का जो कि शुद्धात्म तत्त्व का साधनभूत होने से मूलभूत है उसका छेद जैसे न हो उस प्रकार का संयत ऐसा अपने योग्य अतिकठोर आचरण आचरते हुए (उसके) शरीर का-जो कि शुद्धात्मतत्त्वके साधन भूत संयम का साधन होने से मूलभूत है उसका (भी) छेद जैसे न हो उस प्रकार बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लान के (अपने) योग्य मृदु आचरण भी आचरना। इस प्रकार अपवाद सापेक्ष उत्सर्ग है।
आत्मानुशासन श्लोक 116-117
अमी प्ररूढवैराग्यास्तनुमप्यनुपाल्य यत्। तपस्यंति चिरं तद्धि ज्ञातं ज्ञानस्य वैभवम् ॥116॥ क्षणार्धमपि देहेन साहचर्यं सहेत कः। यदि प्रकोष्ठमादाय न स्याद्बोधो निरोधकः ॥117॥
= जिनके हृदय में विरक्ति उत्पन्न हई है, वे शरीर की रक्षा करके जो चिरकाल तक तपश्चरण करते हैं, वह निश्चय से ज्ञान का ही प्रभाव है ऐसा प्रतीत होता है ॥116॥ यदि ज्ञान पौंचे (हथेली के ऊपर का भाग) को ग्रहण करके रोकने वाला न होता तो कौन सा विवेकी जीव उस शरीर के साथ आधे क्षण के लिए भी रहना सहन करता? अर्थात् नहीं करता।
अनगार धर्मामृत अधिकार 4/140
शरीरं धर्मसंयुक्त रक्षितव्यं प्रयत्नतः। इत्याप्तवाचस्त्वग्देहस्त्याज्य एवेति ॥140॥
अनगार धर्मामृत अधिकार 7/9
शरीरमाद्यं किल धर्मसाधनं तदस्य यस्येत् स्थितयेऽशनादिना। तथा यथाक्षाणि वशे स्युरुत्पथं, न वानुधावंत्यनुबद्धतृड्वशात् ॥9॥
= जिससे धर्म का साधन हो सकता है, उस शरीर की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए इस शिक्षा को आप्त भगवान के उपदिष्ट प्रवचन का तुष-छिलका समझना चाहिए, क्योंकि आत्म-सिद्धि के लिए शरीर रक्षा का प्रयत्न निरुपयोगी है ॥140॥ शरीर के बिना तप तथा और भी ऐसे ही धर्मों का साधन नहीं हो सकता। अतएव आगम में ऐसा कहा है कि रत्नत्रय रूप धर्म का आद्य साधन शरीर है। इसीलिए साधुओं को भी भोजन पान शयन आदि के द्वारा इसके स्थिर रखने का प्रयत्न करना चाहिए। किंतु इस बात को लक्ष्यमें रखना चाहिए कि भोजनादि में प्रवृत्ति ऐसी व उतनी ही हो जिससे कि इंद्रियाँ अपनी अधीन बनी रहें। ऐसा नहीं होना चाहिए कि अनादिकाल की वासना के वशवर्ती होकर वे उन्मार्ग की तरफ भी दौड़ने लगें ॥9॥
पुराणकोष से
काय की स्थिति के लिए साधुओं द्वारा गृहीत निर्दोष और मित आहार । यह साधुओं को गोचरी से प्राप्त होता है । इसमें साधु आसक्ति रहित रहते हैं । यह साधुओं की प्राण-रक्षा का साधन मात्र होता है । इसके सोलह उद्गमन, सोलह उत्पादक, दस एषणा संबंधी और धूम, अंगार, प्रमाण और संयोजना ये चार दाता संबंधी इस तरह छियालीस दोष होते हैं । महापुराण 20. 2-4, 9, 34.205-207, पद्मपुराण 4.97, हरिवंशपुराण 9.187-188