अतिचार
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
राजवार्तिक अध्याय 7/23,3/552/19
दर्शनमोहोदयादतिचरणमतिचारः।3। दर्शनमोहोदयात्तत्त्वार्थश्रद्धानादतिचरणमतिचारः अतिक्रम इत्यनर्थांतरम्।
= दर्शन मोह के उदय से तत्त्वार्थ श्रद्धान से विचलित होना (सम्यग्दर्शन का) अतिचार है। अतिक्रम भी इसी का नाम है।
धवला पुस्तक 8/3,41/82/6
सुरावाण-मांसभक्खण-कोह-माण-माया-लोह-हरस-रइ-सोग-भय-दुगुंछित्थि-पुरिस-णवुंसर वेयापरिच्चागो अदिचारो, एदेसिं विणासो णिरदिचारो संपुण्णदा, तस्स भावो णिरदिचारदा।
= सुरापान, मांसभक्षण, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद एवं नपुंसक वेद इनके त्याग न करने का नाम अतिचार है और इनके विनाश का नाम निरतिचार या संपूर्णता है। इसके भाव को निरतिचारता कहते हैं।
चारित्रसार पृष्ठ 137/2
कर्तव्यस्याकरणे वर्जनीयस्यावर्जने यत्पापं सोऽतिचारः।
= किसी करने योग्य कार्य के न करने पर और त्याग करने योग्य पदार्थ के त्याग न करने पर जो पाप होता है उसे अतिचार कहते हैं।
अमितगति सामायिक पाठ श्लोक 9
....प्रभोऽतिचारं विषयेषु वर्तनम्।
= विषयों में वर्तन करने का नाम अतिचार है।
सागार धर्मामृत अधिकार 4/18
सापेक्षस्य व्रते हि स्यादतिचारोंऽशभंजनम्। मंत्रतंत्रप्रयोगाद्याः, परेऽप्यूह्यास्तथात्ययाः।
= `मैं ग्रहण किये हुए अहिंसा व्रत का भंग नहीं करूँगा" ऐसी प्रतिज्ञा करने वाले श्रावक के व्रत का एक अंश भंग होना अर्थात् चाहे अंतरंग व्रत का खंडन होना अथवा बहिरंग व्रत का खंडन होना उस व्रत में अतिचार कहलाता है। (देखें अतिक्रम पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ) इंद्रियों की असावधानी अर्थात् व्रतों में शिथिलता सो अतिचार है।
1. अतिचार सामान्य के भेद
भगवती आराधना /मूल व.विजयोदयी टीका/487/706
दंसणणाणादिचारे वदादिचारे तवादिचारे य। देसच्चाए विविधे सव्वच्चाए य आवण्णो ॥487॥ ...सर्वो द्विप्रकार इत्याचष्टे देशच्चाए विविधे देशातिचारं नानाप्रकारं मनोवाक कायभेदात्कृतकारितानुमतविकल्पाच्च। सव्वच्चागे य सर्वातिचारे च आवण्णो आपन्नः।
= सम्यग्दर्शन और ज्ञान में अतिचार उत्पन्न हुए हों, देशरूप अतिचार उत्पन्न हुए हों अथवा सर्व प्रकारों से अतिचार उत्पन्न हुए हों ये सर्व अतिचार क्षपक आचार्य के पास विश्वास युक्त होकर कहे ॥487॥ ....अतिचार के देशत्याग और सर्वत्याग ऐसे दो भेद हैं। मन, वचन, शरीर, कृत, कारित और अनुमोदन ऐसे नौ भेदों में से किसी एक के द्वारा सम्यग्दर्शनादिकों में दोष उत्पन्न होना ये देशातिचार है और सर्वप्रकार से अतिचार उत्पन्न होना सर्वत्यागातिचार है।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 612/812/6
[इस प्रकरण में अतिचारों के लक्षण दिये हैं। परंतु यहाँ पर केवल भाषा में अतिचारों के नाम मात्र देते हैं]
1. अज्ञानातिचार; 2. अनाभोगकृत अतिचार; 3. आपात अतिचार; 4. आर्तातिचार; 5. उपधि अतिचार; 6. उपचारातिचार; 7. गौरव अतिचार 8. तित्तिणदा अतिचार; 9. देशातिचार; 10. परवशातिचार; 11. पालिकुंचन अतिचार; 12. प्रदोषातिचार; 13. प्रमादातिचार; 14. भयातिचार; 15. परीक्षा मीमांसा अतिचार; 16. वचनातिचार; 17. वसति अतिचार; 18. विनयातिचार; 19. शंकितातिचार; 20 सर्वातिचार; 21. सहसातिचार; 22. स्नेहातिचार; 23. स्वप्नातिचार; 24. स्वयं शोधक अतिचार तथा इसी प्रकार अन्य भी अनेकों अतिचार हो सकते हैं।
• आखेट व द्यूत के अतिचार - देखें वह वह नाम ।
• ईर्यासमिति के अतिचार - देखें समिति - 1।
• कायोत्सर्ग के अतिचार - देखें व्युत्सर्ग - 1।
• जलगालन के अतिचार - देखें जलगालन - 2।
• तपों के अतिचार - देखें वह वह नाम ।
• निरतिचार शोलव्रत - देखें शील ।
• परस्त्री व वेश्या के अतिचार - देखें ब्रह्मचर्य - 2।
• मद्य, मांस, मधु के अतिचार - देखें वह वह नाम ।
• मन, वचन, कायगुप्ति के अतिचार - देखें गुप्ति - 2।
• व्रतों के अतिचार - देखें वह वह नाम ।
• सम्यग्ज्ञान के अतिचार - देखें आगम - 1।
• सम्यग्दर्शन के अतिचार - देखें सम्यग्दर्शन - I.2।
2. अतिचार के भेदों के लक्षण
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 612/812/6
उपयुक्तोऽपि सम्यगतिचारं न वेत्ति सोऽनाभोगकृत व्याक्षिप्तचेतसा वा कृतः। नदीपूरः, अग्न्युत्थापनं, महावातापातः, वर्षाभिघातः, परचक्ररोध इत्यादि का आपाताः। रोगार्तः शोकार्तो, वेदनार्तः इत्यार्तता त्रिविधाः। रसासक्तता मुखरता चेति द्विप्रकारता तित्तिणदाशब्दवाच्या। सचित्तं किमचित्तमिति शंकिते द्रव्ये भंजनभेदनभक्षणाभिराहारस्योपकरणस्य, वसतेर्वा उद्गमादिदोषोपहतिरस्ति न वेति शंकायामप्युपादानम्। अशुभस्य मनसो वाचो वा झटिति प्रवृत्तिः सहसेत्युच्यते। एकांतायां वसतौ व्यालमृगव्याघ्रादयस्स्तेना वा प्रविशंति इति भयेन द्वारस्थगने जातोऽतिचारस्तीव्रकषायपरिणामः प्रदोष इत्युच्यते। उदकराज्यादिसमानतया प्रत्येक चतुर्विकल्पाश्चत्वारः कषायाः। आत्मनश्चापरस्य वा बललाघवादिपरीक्षा मीमांसा तत्र जातोऽतिचारः। प्रसारितकराकुंचितम्, आकुंचितकरप्रसारणम्, धनुषाद्यारोपणं, उपलाद्युत्क्षेपणं, बाधनं, वृतिकंठकाद्युल्लंघनं, पशुसर्पादीनां मंत्रपरीक्षणार्थं धारणं औषधवीर्यपरोक्षणार्थमंजनस्य चूर्णस्य वा प्रयोगः द्रव्यसंयोजनया त्रसानामेकेंद्रियाणां च समूर्च्छना परीक्षा। अज्ञानामाचरणं दृष्ट्वा स्वयमपि तथा चरति तत्र दोषानभिज्ञः। अथवाज्ञानिनोपनीतमुद्गमादिदोषोपहतं उपकरणादिकं सेवते इति अज्ञानात्प्रवृत्तोऽतीचारः। शरीरे, उपकरणे, वसतौ, कुले, ग्रामे, नगरे, देशे, बंधुषु, पार्श्वस्तेषु वा ममेदभावः स्नेहस्तेन प्रवर्तित आचारः। मम शरीरमिदं शीतो वातो बाधयति, कटादिभिरंतर्धानं, अग्निसेवा, ग्रीष्मातपनोदनार्थं प्रावरणग्रहणं वा, उद्वर्तनं वा। उपकरणं विनस्यतीति तेन स्वकार्याकरणं यथा पिच्छविनाशभयादप्रमार्जनं इत्यादिकम्। म्रक्षणं, तैलादिना कमंडल्वादीनां प्रक्षालनं वा, वसतितृणादिभक्षणस्य भंजनादेर्वा ममतया निवारणं, बहूनां यतीनां प्रवेशनं मदीयं कुलं न सहते, इति भाषणं, प्रवेशे कोपः, बहूनां न दातव्यमिति निषेधन, कुलस्यैव वैयावृत्त्यकरणम्। निमित्ताद्यु पदेशश्च तत्र ममतया ग्रामे नगरे देशे वा अवस्थानानिषेधनम्। यतीनां संबंधिनां सुखेन सुखमात्मनो दुःखेन दुःखमित्यादिरतिचारः। पार्श्वस्थानां वंदना, उपकरणादिदानं वा। तदुल्लंघनासमर्थता। गुरुता, ऋद्धित्यागासहता, ऋद्धिगौरवं, परिवारे कृतादरः। परकीयमात्मसात्करोति प्रियवचनेन उपकरणदानेन। अभिमतरसात्यागोऽनाभिमतानादरश्च नितरां रसगौरवम्। निकामभोजने, निकामशयनादौ वा आसक्तिः सातगौरवम्। अनात्मवशतया प्रवर्तिताचारः। उन्मादेन, पित्तेन पिशाचदेशेन वा परवशता। अथवा ज्ञातिभिः परिगृहीतस्य बलात्कारेण गंधमाल्यादिसेवा प्रत्याख्यातभोजनं, मुखवासतांबूलादिभक्षणं वा स्तीभिर्नपुंसकैर्वा बलादब्रह्मकरण्। चतुर्षु स्वाध्यायेषु आवश्यकेषु वा आलस्यम्। उबधिशब्देन मायोच्यते प्रच्छन्नमनाचारे वृत्तिः। ज्ञात्वा दातृकुलं पूर्वमन्येभ्यः प्रवेशः। कार्यापदेशेन यथा परे न जानंति तथा वा। भद्रकं भुक्त्वा विरसमशनं भुक्तमिति कथनम्। ग्लानस्याचार्यादेर्वा वैयावृत्त्यं करिष्यामि इति किंचिद्गृहीत्वा स्वयं तस्य सेवनम्। स्वप्ने वायोग्यसेवा सुमिणमित्युच्यते। द्रव्यक्षेत्रकालभावाश्रयेण प्रवृत्तस्यातिचारस्यान्यथा कथनं पालिकुंचनशब्देनोच्यते। कथं, सचित्तसेवांकृत्वा अचित्तं सेवितमिति। अचित्तं सेवित्वा सचित्तं सेवितमिति वदति। तथा स्वावस्थाने कृतमध्वनि कृतमिति, सुभिक्षे कृत दुर्भिक्षे कृतमिति, दिवसे कृतं रात्रौ कृतमिति, अकषायतया संपादितं तीव्रक्रोधायिना संपादितमिति। यथावत्कृतालोचनो यतिर्यावत्सूरिः प्रायश्चित्तं प्रयच्छति, तावत्स्वयमेवेदं मम प्रायश्चित्तम् इति स्वयं गृह्णाति स स्वयं शोधकः। एवं मया स्वशुद्धिरनुष्ठितेति निवेदनम्
= (यद्यपि मूल ज्यों का त्यों दे दिया है, पर सुविधार्थ भाषार्थ वर्णानुक्रम से दिया है)
1. अज्ञानातिचार - देखें अज्ञान - 4। 2. अनाभोग कृत - उपयोग देकर भी जिसे अतिचारों का सम्यग्ज्ञान नहीं होता, उसको अनाभोगकृत अतिचार कहते हैं। अथवा मन दूसरी तरफ लगने पर जो अतिचार होता है वह भी अनाभोग कृत है। 3. आपात - नदीपूर, अग्नि लगना, महावायु बहना, वृष्टि होना, शत्रु के सैन्य से घिर जाना, इत्यादिक कारणों से होने वाले अतिचारों को आपात अतिचार कहते हैं। 4. आर्त-रोग, शोक, या वेदना से व्यथित होना ऐसे आर्तताके तीन प्रकार हैं। इससे होने वाले अतिचारों को आर्तातिचार कहते हैं। 5. उपाधि-उवधि शब्द का अर्थ माया होता है। गुप्त रीति से मायाचार में प्रवृत्ति करना, दाता के घर का शोध करके अन्य मुनि जाने के पूर्व में वहाँ आहारार्थ प्रवेश करना, अथवा किसी कार्य के निमित्त से दूसरे नहीं जान सकें इस प्रकार से प्रवेश करना, मिष्ठ पदार्थ खाने को मिलनेपर `मुझे विरस अन्न खाने को मिला' ऐसा कहना, रोगी मुनि आचार्य की वैयावृत्त्य के लिए श्रावकों से कुछ चीज माँगकर उसका स्वयं उपयोग करना। ऐसे दोषों की आलोचना करनी चाहिए। 6. उपचार-यह ठंडी हवा मेरे शरीर को पीड़ा देती है ऐसा विचार कर चटाई से उसको ढकना, अग्नि का सेवन करना, ग्रीष्म ऋतु का ताप मिटाने के लिए वस्त्र ग्रहण करना, उबटन लगाना, साफ करना, तैलादिकों से कमंडलु वगैरह साफ करना, धोना, उपकरण नष्ट होगा इस भय से उसको अपने उपयोग में न लाना, जैसे-पिच्छिका झड़ जायेगी इस भय से उससे जमीन, शरीर व पुस्तकादि साफ न करना, ऐसे अतिचारों की उपचारातिचार यह संज्ञा है। (और भी दे.-सं. 17 व 18) 7. गौरव - ऋद्धि का त्याग करने में असमर्थ होना, ऋद्धि में गौरव समझना, परिवार में आदर करना, प्रिय भाषण करके और उपकरण देकर परकीय वस्तु अपने वश करना, इसको ऋद्धि गौरव कहते हैं। इष्ट रस का त्याग न करना, अनिष्ट रसमें अनादर रखना, इसको रस गौरव कहते हैं, अतिशय भोजन करना, अतिशय सोना इसको सात गौरव कहते हैं। इन दोषों की आलोचना करनी चाहिए। 8. तित्तिणदा - रस में आसक्त होना और वाचाल होना इसको तित्तिणदा अतिचार कहते हैं। 9. देशातिचार - (मन, वचन, काय तथा कृत, कारित, अनुमोदना के विकल्पों से देशातिचार नाना प्रकार का है)। 10. परवश - परवश होने से जो अतिचार होते हैं उनका विवेचन इस प्रकार है - उन्माद, पित्त, पिशाच इत्यादि कारणों से परवश होने से अतिचार होते हैं। अथवा जाति के लोगों से पकड़नेपर बलात्कार से इत्र, पुष्प, वगैरह का सेवन किया जाना, त्यागे हुए पदार्थों का भक्षण करना, रात्रि भोजन करना, मुखको सुगंधित करनेवाला पदार्थ तांबूल वगैरह भक्षण करना, स्त्री अथवा नपुंसकों के द्वारा बलात्कार से ब्रह्मचर्य का विनाश होना, ऐसे कार्य परवशता से होने से अतिचार लगते हैं। इनकी आलोचना करना क्षपक का कर्तव्य है। 11. पालिकुंचन - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रय से जो अतिचार हुए हों उनका अन्यथा कथन करना उसको पालिकंचन कहते हैं - जैसे सचित्त पदार्थ का सेवन करके अचित्त का सेवन किया ऐसा कहना, या अचित्त का सेवन करके सचित्त का सेवन किया ऐसा कहना (द्रव्य), वसति में कोई कृत्य किया हो तो `मैंने यह कार्य रास्ते में किया' ऐसा कहना (क्षेत्र), सुभिक्ष में किया हुआ कृत्य दुर्भिक्ष में किया था ऐसा कहना, तथा दिनमें कोई कृत्य करनेपर भी मैंने रातमें अमुक कार्य किया था ऐसा बोलना (काल), अकषाय भावसे किये हुए कृत्य को तीव्र परिणाम से किया था ऐसा बोलना (भाव), इन दोषों की आलोचना करनी चाहिए। 12. प्रदोष - संज्वलन कषायों का तीव्र परिणमन होना अर्थात् उनका तीव्र उदय होना। जल, धूलि, पृथिवी, व पाषाण रेखा तुल्य क्रोध, मान, माया, व लोभ के प्रत्येक के चार-चार भेद हैं। इन सोलह कषायों से होनेवाले अतिचार को प्रदोषातिचार कहते हैं। 13. प्रमाद - वाचना पृच्छना आदि चार प्रकार स्वाध्याय तथा सामायिक वंदनादि आवश्यक क्रियाओं में अनादर आलस्य करना प्रमाद नामका अतिचार है। 14. भय - एकांत स्थानमें वसति होने से सर्प, दुष्ट पशु, बाघ इत्यादिक प्राणि प्रवेश करेंगे इस भयसे वसति के द्वार बंद करना भयातिचार है। 15. मीमांसा परीक्षा - अपना बल और दूसरे का बल, इसमें कम और ज्यादा किसका है इसकी परीक्षा करना, इससे होनेवाले अतिचार को मीमांसातिचार कहते हैं - जैसे फैले हुए हाथको समेट लेना, संकुचित हाथ को फैला लेना, धनुष को डोरी लगाकर सज्ज करना, पत्थर फेंकना, माटी का ढेला फेंकना, बाधा देना, मर्यादा बाड़को उल्लंघना, कंटकादिको लाँघकर गमन करना, पशु सर्प वगैरह प्राणियों को मंत्र को परीक्षा करने के लिए पकड़ना, और सामर्थ्य की परीक्षा करने के लिए अंजन और चूर्ण का प्रयोग करना, द्रव्यों का संयोग करने से त्रस और एकेंद्रिय जीवों की उत्पत्ति होती है या नहीं इसकी परीक्षा करना, इन कृत्यों को परीक्षा कहते हैं। ऐसे कृत्य करने से व्रतों में दोष उत्पन्न होते हैं। 16. वचन - देखें सं - 11 पालिकुंचन अतिचार। 17. वसति - वसति का तृण कोई पशु खाता हो तो उसका निवारण करना, वसति भग्न होती हो तो उसका निवारण करना, बहुत से व्यक्ति मेरी वसति में नहीं ठहर सकते ऐसा भाषण करना, बहुत मुनि प्रवेश करने लगें तो उन पर क्रुद्ध होना, बहुत यतियों को वसति मत दो ऐसा कहना, वसति की सेवा करना, अथवा अपने कुल के मुनियों से सेवा कराना, निमित्तादिकों का उपदेश देना, ममत्त्व से ग्राम नगर में अथवा देश में रहने का निषेध न करना, अपने संबंधी यतियों के सुख से अपने को सुखी और उनके दुःखसे अपने को दुःखी समझना। (इस प्रकार के अतिचारों का अंतर्भाव उपचारातिचार में होता है) 18. विनयातिचार - पार्श्वस्थादि मुनियों की वंदना करना, उनको उपकरणादि देना, उनका उल्लंघन करने की सामर्थ्य न रखना, इत्यादि कृत्यों से जो दोष होते हैं, उनकी आलोचना करनी चाहिए (इसका अंतर्भाव संख्या 6 वाले उपचारातिचार में करना चाहिए) 19. शंका - पिच्छि का वगैरह उपयोगी द्रव्यों में ये सचित्त हैं या अचित्त हैं ऐसी शंका उत्पन्न होनेपर भी उन्हें मोड़ना, फोड़ना, भक्षण करना। आहार, उपकरण और वसति ये पदार्थ उद्गमादि दोष रहित हैं, अथवा नहीं हैं ऐसी शंका आनेपर भी उनको स्वीकार करना यह शंकितातिचार है। 20. सर्वातिचार - (व्रत का बिलकुल भंग हो जाना सर्वातिचार है) 21. सहसातिचार - अशुभवचन और अशुभ विचारों में वचन की और मन की तत्काल अविचार पूर्वक प्रवृत्ति होना इसको सहसातिचार कहना चाहिए। 22. स्नेहातिचार - शरीर, उपकरण, वसति, कुल, गाँव, नगर, श, बंधु और पार्श्वस्थ मुनि इनमें `ये मेरे हैं' ऐसा भाव उत्पन्न होना इसको स्नेह कहते हैं। इससे उत्पन्न हुए दोषों को स्नेहातिचार कहते हैं। 23. स्वप्नातिचार - स्वप्न में अयोग्य पदार्थ का सेवन होना उसको सुमिण (स्वप्न) कहते हैं। 24. स्वयं शोधक - आचार्य के पास आलोचना करने पर आचार्य के प्रायश्चित्त देने से पूर्व ही स्वयं यह प्रायश्चित्त मैंने लिया है, ऐसा विचार कर स्वयं प्रायश्चित्त लेता है, उसको स्वयं शोधक कहते हैं। स्वयं मैंने ऐसी शुद्धि की है ऐसा कथन जानना।
• बड़े-बड़े दोष भी अतिचार हो सकते हैं – देखें अतिचार सामान्य के भेद ।
3. अतिचार व अनाचार में अंतर
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/25/366
दंडकशावेत्रादिभिरभिघातः प्राणिनां वधः न प्राणव्यपरोपणम्, ततः प्रागेवास्य विनिवृत्तत्वात्।
= डंडा, चाबुक और बेंत आदि से प्राणियों को मारना वध है। यहाँ वध का अर्थ प्राणों का वियोग करना नहीं लिया है, क्योंकि अतिचार के पहले ही हिंसा का त्याग कर दिया जाता है। (भावार्थ-प्राण-व्यपरोपण अतिचार नहीं है, उससे तो व्रत का नाश होता है)।
अमितगति सामायिक पाठ श्लोक 9
क्षतिं मनःशुद्धिबिधेरतिक्रमं व्यतिक्रमं शीलब्रतेर्विलंघनम्। प्रभोतिचारं विषयेषु वर्तनं वदंत्यनाचारमिहातिसक्तताम्।
= मन की शुद्धि में क्षति होना अतिक्रम है, शील तथा व्रतों की मर्यादा का उल्लंघन करना व्यतिक्रम है, विषयों में वर्तन करना अतिचार है, और विषयों में अत्यंत आसक्ति का होना अनाचार है।
(पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 30 में उद्धृत)।
4. अतिचार लगने के कारण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/35/371
कथं पुनरस्य सचित्तादिषु प्रवृत्तिः। प्रमादसंमोहाभ्याम्।
= प्रश्न -यह गृहस्थ सचित्तादिक में प्रवृत्ति किस कारण से करता है। उत्तर - प्रमाद और संमोह के कारण।
राजवार्तिक अध्याय 7/35/580
क्रमशः प्रमाद तै तथा अति भूख तै तथा तीव्र राग तै होय है।
• अतिचार लगने की संभावना - देखें सम्यग्दर्शन - I 2.6।
• व्रतों में अतिचार लगाने का निषेध - देखें व्रत - 2।
पुराणकोष से
व्रतों में शिथिलता लाकर विषयों में प्रवृत्ति करना । ये सम्यग्दर्शन के आठ, तथा अणुव्रतों और शीलव्रतों के पाँच-पाँच होते हैं । हरिवंशपुराण - 58.162-165, 170