पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 140 - तात्पर्य-वृत्ति: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:26, 30 June 2023
जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व सव्वदव्वेसु । (140)
णासवदि सुहं असुहं समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स ॥150॥
अर्थ:
सुख-दुःख में सम-भावी जिन भिक्षु / मुनि के सभी द्रव्यों में राग, द्वेष, मोह नहीं है; उन्हें शुभ-अशुभ का आस्रव नहीं होता है ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[जस्स ण विज्जदि] जिनके नहीं है । वह क्या नहीं है ? [रागो दोसो मोहो] जीव के शुद्ध परिणाम-रूप परम धर्म लक्षण से विपरीत राग-द्वेष परिणाम या मोह परिणाम नहीं है । किन विषयों में ये नहीं हैं ? [सव्वदव्वेसु] सभी शुभाशुभ द्रव्यों में ये नहीं हैं । [णासवदि सुहं असुहं] शुभाशुभ कर्म आस्रवित नहीं होते हैं । किसके ये आस्रवित नहीं होते हैं ? [भिक्खुस्स] रागादि से रहित शुद्धोपयोग से सहित उन तपोधन के वे आस्रवित नहीं होते हैं । कैसे तपोधन के वे आस्रवित नहीं होते हैं ? [समसुहदुक्खस्स] समस्त शुभ-अशुभ संकल्प से रहित शुद्धात्मा के ध्यान से उत्पन्न परम सुखामृत की तृप्ति रूप एकाकार समरसी भाव के बल से सुख-दु:ख-रूप हर्ष-विषाद-मय विकार व्यक्त नहीं होने के कारण सुख-दु:ख में समभावी तपोधन के वे आस्रवित नहीं होते हैं ।
यहाँ शुभ-अशुभ के संवर में समर्थ शुद्धोपयोग भाव-संवर है और भाव-संवर के आधार से नवीन द्रव्य कर्मों का निरोध / नहीं आना द्रव्य-संवर है, ऐसा तात्पर्यार्थ है ॥१५०॥