ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 140 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व सव्वदव्वेसु । (140)
णासवदि सुहं असुहं समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स ॥150॥
अर्थ:
सुख-दुःख में सम-भावी जिन भिक्षु / मुनि के सभी द्रव्यों में राग, द्वेष, मोह नहीं है; उन्हें शुभ-अशुभ का आस्रव नहीं होता है ।
समय-व्याख्या:
सामान्यसंवरस्वरूपाख्यानमेतत् ।
यस्य रागरूपो द्वेषरूपो मोहरूपो वा समग्रपरद्रव्येषु न हि विद्यते भावः तस्यनिर्विकारचैतन्यत्वात्समसुखदुःखस्य भिक्षोः शुभमशुभञ्च कर्म नास्रवति, किन्तु संव्रियत एव ।तदत्र मोहरागद्वेषपरिणामनिरोधो भावसंवरः । तन्निमित्तः शुभाशुभकर्मपरिणामनिरोधोयोगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानां द्रव्यसंवर इति ॥१४०॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यह, सामान्य-रूप से संवर के स्वरूप का कथन है ।
जिसे समग्र पर-द्रव्यों के प्रति राग-रूप, द्वेष-रूप या मोह-रूप भाव नहीं है, उस भिक्षु को, जो कि निर्विकार चैतन्य-पने के कारण १सम-सुख-दुःख है उसे, शुभ और अशुभ कर्म का आस्रव नहीं होता, परन्तु संवर ही होता है । इसलिये यहाँ (ऐसा समझना कि) मोह-राग-द्वेष परिणाम का निरोध सो भाव-संवर है, और वह (मोह-राग-द्वेष-रूप परिणाम का निरोध) जिसका निमित्त है ऐसा जो योग-द्वारा प्रविष्ट होने वाले पुद्गलों के शुभाशुभ-कर्म-परिणाम का (शुभाशुभ कर्मरूप परिणाम का) निरोध सो द्रव्य-संवर है ॥१४०॥
१सम-सुख-दुःख = जिसे सुख दुःख समान है ऐसे इष्टानिष्ट संयोगों में जिसे हर्ष-शोकादि विषम परिणाम नहीं होते ऐसे । (जिसे राग-द्वेष-मोह नहीं है, वह मुनि निर्विकार चैतन्य-मय है अर्थात् उसका चैतन्य पर्याय में भी विकार-रहित है इसलिये सम-सुख-दुःख है । )