पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 58 - समय-व्याख्या: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:26, 30 June 2023
भावों जदि कम्मकदो आदा कम्मस्स होदि किह कत्ता । (58)
ण कुणदि अत्ता किंचिवि मुत्ता अण्णं सगं भावं ॥65॥
अर्थ:
यदि (सर्वथा) भाव कर्मकृत हों, तो आत्मा कर्म का कर्ता होना चाहिए; परन्तु वह कैसे हो सकता है? क्योंकि आत्मा अपने भाव को छोडकर अन्य कुछ भी नहीं करता है ।
समय-व्याख्या:
जीवभावस्य कर्मकर्तृत्वे पूर्वपक्षोऽयम् । यदि खल्वौदयिकादिरूपो जीवस्य भाव: कर्मणा क्रियते, तदा जीवस्तस्य कर्ता न भवति । न च जीवास्याकर्तृत्वमिष्यते । तत: पारिशष्येण द्रव्यकर्मण: कर्तापद्यते । तत्तु कथम् ? यतो निश्चयनयेनात्मा स्वं भावमुज्झित्वा नान्यत्किमपि करोतीति ॥५८॥
समय-व्याख्या हिंदी :
कर्म की जीव-भाव का कर्तृत्व होने के सम्बन्ध में यह १पूर्व-पक्ष है ।
यदि औदयिकादि जीव का भाव, कर्म द्वारा किया जाता हो, तो जीव उसका (औदयिकादि जीव-भाव का) कर्ता नहीं है ऐसा सिद्ध होता है । और जीव का अकर्तृत्व तो इष्ट (मान्य) नहीं है । इसलिये, शेष यह रहा कि जीव द्रव्य-कर्म का कर्ता होना चाहिये । लेकिन वह तो कैसे हो सकता है ? क्योंकि, निश्चय-नय से आत्मा अपने भाव को छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं करता (इस प्रकार पूर्व-पक्ष उपस्थित किया गया) ॥५८॥
१पूर्व-पक्ष = चर्चा या निर्णय के लिए किसी शास्त्रीय विषय के सम्बन्ध में उपस्थित किया हुआ पक्ष वा प्रश्न ।