ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 59 - समय-व्याख्या
From जैनकोष
भावो कम्मणिमित्तो कम्मं पुण भावकरणं हवदि । (59)
ण दु तेसिं खलु कत्ता ण विणा भूदा दु कत्तारं ॥66॥
अर्थ:
(रागादि) भाव कर्मनिमित्तक हैं, कर्म (रागादि) भावनिमित्तक हैं; परन्तु वास्तव में उनके (परस्पर ) कर्तापना नहीं है; तथा वे कर्ता के बिना भी नहीं होते हैं।
समय-व्याख्या:
पूर्वसूत्रोदितपूर्वपक्षसिद्धांतोऽयम् । व्यवहारेण निमित्तमात्रत्वाज्जीवभावस्य कर्म कर्तृ, कर्मणोऽपि जीवभाव: कर्ता; निश्चयेन तु न जीवभावानां कर्म कर्तृ, न कर्मणो जीवभाव: । न च ते कर्तारमंतरेण संभूयेते; यतो निश्चयेन जीवपरिणामानां जीव: कर्ता कर्मपरिणामानां कर्म कर्तृ इति ॥५९॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यह, पूर्व-सूत्र में (५९वीं गाथा में) कहे हुए पूर्व-पक्ष के समाधान-रूप सिद्धान्त है ।
व्यवहार से निमित्त-मात्र-पने के कारण जीव-भाव का कर्म कर्ता है (औदयिकादि जीव-भाव का कर्ता द्रव्य-कर्म है), कर्म का भी जीव-भाव कर्ता है; निश्चय से तो जीव-भावों का न तो कर्म कर्ता है और न कर्म का जीव-भाव कर्ता है । वे (जीव-भाव और द्रव्य-कर्म) कर्ता के बिना होते हैं ऐसा भी नहीं है; क्योंकि निश्चय से जीव-परिणामों का जीव कर्ता है और कर्म-परिणामों का कर्म (पुद्गल) कर्ता है ॥५९॥