पद्मपुराण - पर्व 23: Difference between revisions
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<div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर किसी समय विशाल तेज के धारक तथा इंद्र के समान शोभा से संपन्न राजा दशरथ जिनराज की कथा करते हुए सभा में सुख से बैठे थे कि सहसा शरीर के तेज से प्रकाश उत्पन्न करते हुए शिष्ट पुरुष तथा उत्तम बुद्धि के धारक नारदजी वहाँ आ पहुंचे ।।1-2।। राजा ने उठकर उनका सम्मान किया तथा सुखदायक आसन पर बैठाया। नारद ने राजा को आशीर्वाद दिया। तदनंतर बुद्धिमान् राजा ने कुशल-समाचार पूछा ।।3।। जब नारद कुशल समाचार कह चुके तब राजा ने ‘क्षेम अर्थात् कल्याणरूप हो?’ यह पूछा। इसके उत्तर में ‘राजन्! सब कल्याण रूप है’ यह उत्तर दिया ।।4।। इतनी वार्ता हो चुकने के बाद राजा दशरथ ने फिर पूछा कि हे भगवन्! आप किस स्थान से आ रहे हैं? और कहां आपका विहार हो रहा है? आपने क्या देखा, क्या सुना सो कहिए? ऐसा कोई देश नहीं जहाँ आप न गये हों ।।5।।< | <span id="1" /><span id="2" /><div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर किसी समय विशाल तेज के धारक तथा इंद्र के समान शोभा से संपन्न राजा दशरथ जिनराज की कथा करते हुए सभा में सुख से बैठे थे कि सहसा शरीर के तेज से प्रकाश उत्पन्न करते हुए शिष्ट पुरुष तथा उत्तम बुद्धि के धारक नारदजी वहाँ आ पहुंचे ।।1-2।।<span id="3" /> राजा ने उठकर उनका सम्मान किया तथा सुखदायक आसन पर बैठाया। नारद ने राजा को आशीर्वाद दिया। तदनंतर बुद्धिमान् राजा ने कुशल-समाचार पूछा ।।3।।<span id="4" /> जब नारद कुशल समाचार कह चुके तब राजा ने ‘क्षेम अर्थात् कल्याणरूप हो?’ यह पूछा। इसके उत्तर में ‘राजन्! सब कल्याण रूप है’ यह उत्तर दिया ।।4।।<span id="5" /> इतनी वार्ता हो चुकने के बाद राजा दशरथ ने फिर पूछा कि हे भगवन्! आप किस स्थान से आ रहे हैं? और कहां आपका विहार हो रहा है? आपने क्या देखा, क्या सुना सो कहिए? ऐसा कोई देश नहीं जहाँ आप न गये हों ।।5।।<span id="6" /><span id="7" /></p> | ||
<p>तदनंतर मन में स्थित जिनेंद्रदेव संबंधी वर्णन से जिन्हें आनंद उत्पन्न हो रहा था तथा इसी कारण जो उन्नत रोमांच धारण कर रहे थे ऐसे नारदजी कहने लगे कि हे राजन्! उत्तम जन जिसकी सदा इच्छा करते हैं तथा जो जिनमंदिरों के आधारभूत मेरु, गजदंत, विजयार्ध आदि पर्वत से सुशोभित है ऐसे विदेह क्षेत्र में गया था ।।6-7।। वहाँ नाना रत्नों के विशाल तेज से युक्त पुंडरीकिणी नगरी में मैंने सीमंधर स्वामी का दीक्षा कल्याणक देखा ।।8।। पताकाओं और छत्रों से सुशोभित रंग-बिरंगे विमानों तथा विविध प्रकार के वाहनों से व्याप्त देवों का आगमन देखा ।।9।। मैंने वहाँ सुना था कि जिस प्रकार अपने इस भरत क्षेत्र में इन्होंने मुनि सुव्रतनाथ भगवान का सुमेरु पर्वत पर अभिषेक किया था वैसा ही वहाँ उन भगवान का इन्होंने सुमेरु पर्वत पर अभिषेक किया था ।।10।। | <p>तदनंतर मन में स्थित जिनेंद्रदेव संबंधी वर्णन से जिन्हें आनंद उत्पन्न हो रहा था तथा इसी कारण जो उन्नत रोमांच धारण कर रहे थे ऐसे नारदजी कहने लगे कि हे राजन्! उत्तम जन जिसकी सदा इच्छा करते हैं तथा जो जिनमंदिरों के आधारभूत मेरु, गजदंत, विजयार्ध आदि पर्वत से सुशोभित है ऐसे विदेह क्षेत्र में गया था ।।6-7।।<span id="8" /> वहाँ नाना रत्नों के विशाल तेज से युक्त पुंडरीकिणी नगरी में मैंने सीमंधर स्वामी का दीक्षा कल्याणक देखा ।।8।।<span id="9" /> पताकाओं और छत्रों से सुशोभित रंग-बिरंगे विमानों तथा विविध प्रकार के वाहनों से व्याप्त देवों का आगमन देखा ।।9।।<span id="10" /> मैंने वहाँ सुना था कि जिस प्रकार अपने इस भरत क्षेत्र में इन्होंने मुनि सुव्रतनाथ भगवान का सुमेरु पर्वत पर अभिषेक किया था वैसा ही वहाँ उन भगवान का इन्होंने सुमेरु पर्वत पर अभिषेक किया था ।।10।।<span id="11" /> मुनिव्रत भगवान का जैसा बांचा गया चरित्र यहाँ सुना है वैसा ही वहाँ उनका चरित्र अपनी आँखों से देखा है ।।11।।<span id="12" /> जो नाना प्रकार के रत्नों की प्रभा से व्याप्त हैं, ऊँचे हैं, विशाल हैं तथा जिन में निरंतर पूजा होती रहती है ऐसे वहाँ के जिन-मंदिर देखे हैं ।।12।।<span id="13" /> हे राजन्! वहाँ नंदनवन में जो अत्यंत मनोहर चैत्यालय हैं वे भी देखे हैं। उन मंदिरों में अनेक प्रकार के मणियों के बेल बूटे निकाले गये हैं तथा उनकी कुर्सियाँ सुवर्णनिर्मित हैं ।।13।।<span id="14" /><span id="15" /><span id="16" /> सो सुवर्णमय खंभों से युक्त हैं, जिन में नाना प्रकार की किरणें देदीप्यमान हो रही हैं, जो सूर्य विमान के समान जान पड़ते हैं, जो हार तथा तोरणों से मनोहर हैं, जो रत्नमयी मालाओं से समृद्ध हैं, जिनकी भूमियों में बड़ी विस्तृत वेदिकाएं बनी हुई हैं, जिनकी वैदूर्य मणि निर्मित उत्तम दीवालें हाथी, सिंह आदि के चित्रों से अलंकृत हैं और जिनके भीतरी भाग संगीत करने वाली दिव्य स्त्रियों से भरे हुए हैं, ऐसे देवारण्य के चैत्यालयों में जो जिन प्रतिमाएँ हैं उन सबके लिए मैंने नमस्कार किया ।।14-16।।<span id="17" /> अकृत्रिम प्रतिमाओं की प्रभा के विकास में युक्त जो मेरु पर्वत है उसकी प्रदक्षिणा देकर तथा मेघ-पटल को भेदन कर बहुत ऊँचे आकाश में गया ।।17।।<span id="18" /> तथा कुलाचलों के शिखरों पर जो महा देदीप्यमान अनेक जिन चैत्यालय हैं उनकी वंदना की है ।।18।।<span id="19" /> हे राजन्! उन समस्त चैत्यालयों में जिनेंद्र भगवान की महा देदीप्यमान अकृत्रिम प्रतिमाएँ हैं, मैं उन सबको वंदना करता हूँ ।।19।।<span id="20" /> नारद के इस प्रकार कहने पर ‘देवाधिदेवों को नमस्कार हो’ शब्दों का उच्चारण करते हुए राजा दशरथ ने दोनों हाथ जोड़ें तथा शिर नम्रीभूत किया ।।20।।<span id="21" /></p> | ||
<p>अथानंतर संकेत द्वारा नारद की प्रेरणा पाकर राजा दशरथ ने प्रतिहारी के द्वारा आदर के साथ सब लोगों को वहाँ से अलग कर दिया ।।21।। तदनंतर जब एकांत हो गया तब नारद ने कौसलाधिपति राजा दशरथ से कहा कि हे राजन्! एकाग्रचित्त होकर सुनो मैं तुम्हारे लिए एक उत्तम बात कहता हूँ ।।22।। मैं बड़ी उत्सुकता के साथ वंदना करने के लिए त्रिकूटाचल के शिखर पर गया था सो मैंने वहाँ अत्यंत मनोहर शांतिनाथ भगवान के जिनालय की वंदना की ।।23।। | <p>अथानंतर संकेत द्वारा नारद की प्रेरणा पाकर राजा दशरथ ने प्रतिहारी के द्वारा आदर के साथ सब लोगों को वहाँ से अलग कर दिया ।।21।।<span id="22" /> तदनंतर जब एकांत हो गया तब नारद ने कौसलाधिपति राजा दशरथ से कहा कि हे राजन्! एकाग्रचित्त होकर सुनो मैं तुम्हारे लिए एक उत्तम बात कहता हूँ ।।22।।<span id="23" /> मैं बड़ी उत्सुकता के साथ वंदना करने के लिए त्रिकूटाचल के शिखर पर गया था सो मैंने वहाँ अत्यंत मनोहर शांतिनाथ भगवान के जिनालय की वंदना की ।।23।।<span id="24" /> तदनंतर आपके पुण्य के प्रभाव से मैंने लंकापति रावण के विभीषणादि मंत्रियों का एक निश्चय सुना है ।।24।।<span id="25" /> वहाँ सागर बुद्धि नामक निमित्त ज्ञानी ने रावण को बताया है कि राजा दशरथ का पुत्र तुम्हारी मृत्यु का कारण होगा ।।25।।<span id="26" /><span id="27" /> इसी प्रकार राजा जनक की पुत्री भी इसमें कारणपने को प्राप्त होगी। यह सुनकर जिसकी आत्मा विषाद से भर रही थी ऐसे विभीषण ने निश्चय किया कि जब तक राजा दशरथ और जनक के संतान होती है उसके पहले ही मैं इन्हें मारे डालता हूँ ।।26-27।।<span id="28" /> यह निश्चय कर वह तुम लोगों की खोज के लिए चिरकाल तक पृथ्वी में घूमता रहा पर पता नहीं चला सका। तदनंतर इच्छानुकूल रूप धारण करने वाले उसके गुप्तचर ने स्थान, रूप आदि लक्षणों से तुम दोनों का उसे परिचय कराया है ।।28।।<span id="29" /> मुनि होने के कारण मेरा विश्वास कर उसने मुझ से पूछा कि हे मुने! पृथ्वी पर कोई दशरथ तथा जनक नाम के राजा हैं सो उन्हें तुम जानते हो ।।29।।<span id="30" /> इस प्रश्न के बदले मैंने उत्तर दिया कि खोजकर बतलाता हूँ। हे नरपुंगव मैं उसके अभिप्राय को अत्यंत कठोर देखता हूँ ।।30।।<span id="31" /> इसलिए हे राजन्! यह विभीषण जब तक तुम्हारे विषय में कुछ नहीं कर लेता है तब तक तुम अपने आपको छिपाकर कहीं गुप्तरूप से रहने लगो ।।31।।<span id="32" /> सम्यग्दर्शन से युक्त तथा गुरुओं की पूजा करने वाले पुरुषों पर मेरी समान प्रीति रहती है और तुम्हारे जैसे पुरुषों पर विशेषरूप से विद्यमान है ।।32।।<span id="33" /> तुम जैसा उचित समझो सो करो। तुम्हारा भला हो। अब मैं यह वार्ता कहने के लिए शीघ्र ही राजा जनक के पास जाता हूँ ।।33।।<span id="34" /> </p> | ||
<p>तदनंतर जिसे राजा दशरथ ने नमस्कार किया था ऐसे नारद मुनि इस प्रकार कहकर तथा आकाश में उड़कर बड़े वेग से मिथिला की ओर चले गये ।।34।। वहाँ जाकर राजा जनक के लिए भी उन्होंने यह सब समाचार बतलाया सो ठीक ही है क्योंकि भव्य जीव उन्हें प्राणों से भी अधिक प्यारे थे ।।35।। नारद मुनि के चले जाने पर जिसके मन में मरण की आशंका उत्पन्न हो गयी थी ऐसे राजा दशरथ ने समुद्र हृदय नामक मंत्री को बुलवाया ।।36।। वक्ताओं में श्रेष्ठ तथा स्वामी भक्ति में तत्पर मंत्री ने राजा के मुख से महाभय को निकट स्थल सुन कहा ।।37।। कि हे नाथ! प्राणी जितना कुछ कार्य करते हैं वह जीवन के लिए ही करते हैं। आप ही कहिए, जीवन से रहित प्राणी के लिए यदि तीन लोक का राज्य भी मिल जाये तो किस काम का है ।।38।। | <p>तदनंतर जिसे राजा दशरथ ने नमस्कार किया था ऐसे नारद मुनि इस प्रकार कहकर तथा आकाश में उड़कर बड़े वेग से मिथिला की ओर चले गये ।।34।।<span id="35" /> वहाँ जाकर राजा जनक के लिए भी उन्होंने यह सब समाचार बतलाया सो ठीक ही है क्योंकि भव्य जीव उन्हें प्राणों से भी अधिक प्यारे थे ।।35।।<span id="36" /> नारद मुनि के चले जाने पर जिसके मन में मरण की आशंका उत्पन्न हो गयी थी ऐसे राजा दशरथ ने समुद्र हृदय नामक मंत्री को बुलवाया ।।36।।<span id="37" /> वक्ताओं में श्रेष्ठ तथा स्वामी भक्ति में तत्पर मंत्री ने राजा के मुख से महाभय को निकट स्थल सुन कहा ।।37।।<span id="38" /> कि हे नाथ! प्राणी जितना कुछ कार्य करते हैं वह जीवन के लिए ही करते हैं। आप ही कहिए, जीवन से रहित प्राणी के लिए यदि तीन लोक का राज्य भी मिल जाये तो किस काम का है ।।38।।<span id="39" /> इसलिए जब तक मैं शत्रुओं के नाश का प्रयत्न करता हूँ तब तक तुम किसी की पहचान में रूप न आ सके इस प्रकार वेष बदलकर पृथ्वी में विहार करो ।।39।।<span id="40" /> मंत्री के ऐसा कहने पर राजा दशरथ उसी समुद्र हृदय मंत्री के लिए खजाना, देश, नगर तथा प्रजा को सौंपकर नगर से बाहर निकल गया सो ठीक ही है क्योंकि वह मंत्री राजा का अच्छी तरह परीक्षा किया हुआ था ।।40।।<span id="41" /> राजा के चले जाने पर मंत्री ने राजा दशरथ के शरीर का एक पुतला बनवाया। वह पुतला मूल शरीर से इतना मिलता-जुलता था कि केवल एक चेतना की अपेक्षा ही भिन्न जान पड़ता था ।।41।।<span id="42" /> उसके भीतर लाख आदि का रस भरकर रुधिर की रचना की गयी थी तथा सचमुच के प्राणी के शरीर में जैसी कोमलता होती है वैसी ही कोमलता उस पुतले में रची गयी थी ।।42।।<span id="43" /> राजा का वह पुतला पहले के समान ही समस्त परिकर के साथ महल के सातवें खंड में उत्तम आसन पर विराजमान किया गया था ।।43।।<span id="44" /> वह मंत्री तथा पुतला को बनाने वाला चित्रकार ये दोनों ही राजा को कृत्रिम राजा समझते थे और बाकी सब लोग उसे सचमुच का ही राजा समझते थे। यही नहीं उन दोनों को भी देखते हुए जब कभी भ्रांति उत्पन्न हो जाती थी ।।44।।<span id="45" /> </p> | ||
<p>उधर यही हाल राजा जनक का भी किया गया सो ठीक ही है क्योंकि विद्वानों की बुद्धियाँ प्राय: ऊपर-ऊपर ही चलती हैं अर्थात् एक से एक बढ़कर होती हैं ।।45।। जिस प्रकार वर्षाऋतु के समय चंद्रमा और सूर्य छिपे छिपे रहते हैं उसी प्रकार संसार की स्थिति के जानकार दोनों राजा भी आपत्ति के समय पृथिवी पर छिपे छिपे रहने लगे ।।46।। | <p>उधर यही हाल राजा जनक का भी किया गया सो ठीक ही है क्योंकि विद्वानों की बुद्धियाँ प्राय: ऊपर-ऊपर ही चलती हैं अर्थात् एक से एक बढ़कर होती हैं ।।45।।<span id="50" /><span id="46" /> जिस प्रकार वर्षाऋतु के समय चंद्रमा और सूर्य छिपे छिपे रहते हैं उसी प्रकार संसार की स्थिति के जानकार दोनों राजा भी आपत्ति के समय पृथिवी पर छिपे छिपे रहने लगे ।।46।।<span id="47" /><span id="48" /> गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे मगधाधिपते! जो राजा पहले बड़े-बड़े महलों में रहते थे, उदार भोग से संपन्न थे। उत्तमोत्तम स्त्रियां जिनकी सेवा करती थीं वे ही राजा अन्य मनुष्यों के समान असहाय हो पृथिवी पर पैरों से पैदल भटकते फिरते थे, सो इस संसार की दशा को धिक्कार हो ।।47-48।।<span id="45" /> ऐसा निश्चय कर जो प्राणियों के लिए अभयदान देता है, सत्पुरुषों के अग्रभाग में स्थित रहनेवाले उस पुरुष ने क्या नहीं दिया? अर्थात् सब कुछ दिया ।।45।।<span id="50" /><span id="46" /> गुप्तचरों के समूह ने जहां-जहां उनका सद्भाव जाना वहाँ-वहाँ विभीषण ने उन्हें स्वयं देखा तथा बहुत से वधक भेजे ।।50।।<span id="51" /> जिनके हाथों में शस्त्र विद्यमान थे, जो स्वभाव से क्रूर थे, जिनके शरीर नेत्रों से दिखाई नहीं देते थे तथा जिनके नेत्र अत्यंत चंचल थे, ऐसे वधक रात-दिन नगरी में घूमने लगे ।।51।।<span id="52" /> हीन शक्ति के धारक वे वधक राजमहल में प्रवेश करने के लिए समर्थ नहीं हो सके इसलिए जब उन्हें अपने कार्य में विलंब हुआ तब विभीषण स्वयं ही आया ।।52।।<span id="53" /> संगीत के शब्द से उसने दशरथ का पता लगा लिया, जिससे नि:संदेह तथा निर्भय हो राजमहल में प्रवेश किया। वहाँ जाकर उसने अंतःपुर के बीच में स्थित राजा दशरथ को स्पष्ट रूप से देखा ।।53।।<span id="54" /> उसी समय उसके द्वारा प्रेरित विद्युद विलसित नामक विद्याधर ने दशरथ का शिर काटकर बड़े हर्ष से अपने स्वामी विभीषण को दिखाया ।।54।।<span id="55" /> तदनंतर जिसने अंतःपुर के रुदन का शब्द सुना था ऐसे विभीषण ने उस कटे हुए शिर को समुद्र में गिरा दिया और राजा जनक के विषय में भी ऐसी ही निर्दय चेष्टा की ।।55।।<span id="56" /> तदनंतर भाई के स्नेह से भरा विभीषण अपने आपको कृतकृत्य मानकर हर्षित होता हुआ लंका चला गया ।।56।।<span id="57" /> दशरथ का जो परिजन था उसने पहले बहुत ही विलाप किया पर अंत में जब उसे यह विदित हुआ कि वह पुतला था तब आश्चर्य करता हुआ धैर्य को प्राप्त हुआ ।।57।।<span id="58" /> विभीषण ने भी नगरी में जाकर अशुभ कर्म की शांति के लिए बड़े उत्सव के साथ दान-पूजा आदि शुभ कर्म किये ।।58।।<span id="59" /></p> | ||
<p>तदनंतर किसी समय जब उसका चित्त शांत हुआ तब कर्मो की इस विचित्रता से पश्चात्ताप करता हुआ इस प्रकार विचार करने लगा कि ।।59।। मिथ्या भय से मैंने उन बेचारे भूमिगोचरियों को व्यर्थ ही मारा क्योंकि सर्प आशीविष के शरीर से उत्पन्न होने पर भी क्या गरुड़ के ऊपर प्रहार करने के लिए समर्थ हो सकता है? अर्थात् नहीं ।।60।। | <p>तदनंतर किसी समय जब उसका चित्त शांत हुआ तब कर्मो की इस विचित्रता से पश्चात्ताप करता हुआ इस प्रकार विचार करने लगा कि ।।59।।<span id="60" /> मिथ्या भय से मैंने उन बेचारे भूमिगोचरियों को व्यर्थ ही मारा क्योंकि सर्प आशीविष के शरीर से उत्पन्न होने पर भी क्या गरुड़ के ऊपर प्रहार करने के लिए समर्थ हो सकता है? अर्थात् नहीं ।।60।।<span id="61" /> अत्यंत तुच्छ पराक्रम को धारण करने वाला भूमिगोचरी कहाँ और इंद्र के समान पराक्रम को धारण करनेवाला रावण कहां? शंका से सहित तथा मद से धीरे-धीरे गमन करनेवाला हाथी कहां और वायु के समान वेगशाली सिंह कहां? ।।61।।<span id="62" /> जिस पुरुष को जहाँ जिससे जिस प्रकार जितना और जो सुख अथवा दुःख मिलना है कर्मो के वशीभूत हुए उस पुरुष को उससे उस प्रकार उतना और वह सुख अथवा दुःख अवश्य ही प्राप्त होता है ।।62।।<span id="63" /> यदि कोई अच्छी तरह निमित्त को जानता है तो वह अपनी आत्मा का कल्याण क्यों नहीं करता? जिससे कि इस लोक में तथा आगे चलकर शरीर का त्याग हो जाने से मोक्ष में भी उत्तम सुख को प्राप्त होता ।।63।।<span id="64" /> मैंने जो उन दो राजाओं का प्राणघात किया है उससे जान पड़ता है कि मेरा विवेक निमित्तज्ञानी के द्वारा अत्यंत मूढ़ता को प्राप्त हो गया था। सो ठीक ही है क्योंकि हीन बुद्धि मनुष्य दुशिक्षित मनुष्यों की प्रेरणा से अकार्य में प्रवृत्ति करने ही लगते हैं ।।64।।<span id="65" /> यह लंकानगरी पाताल तल को भेदन करने वाले इस समुद्र के मध्य में स्थित है तथा देवों को भी भय उत्पन्न करने में समर्थ है फिर भूमिगोचरियों के गम्य कैसे हो सकती है? ।।65।।<span id="66" /> मैंने जो यह कार्य किया है वह सर्वथा मेरे योग्य नहीं है अब आगे कभी भी ऐसा अविचारपूर्ण कार्य नहीं करूँगा ऐसा विचारकर सूर्य के समान उत्तम कांति से युक्त विभीषण अपने महल में क्रीड़ा करने लगा ।।66।।<span id="23" /></p> | ||
<p>इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मचरित में विभीषण के व्यसन का वर्णन करनेवाला तेईसवाँ पर्व समाप्त हुआ ।।23।।</p> | <p>इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मचरित में विभीषण के व्यसन का वर्णन करनेवाला तेईसवाँ पर्व समाप्त हुआ ।।23।।<span id="24" /></p> | ||
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Latest revision as of 21:50, 9 August 2023
अथानंतर किसी समय विशाल तेज के धारक तथा इंद्र के समान शोभा से संपन्न राजा दशरथ जिनराज की कथा करते हुए सभा में सुख से बैठे थे कि सहसा शरीर के तेज से प्रकाश उत्पन्न करते हुए शिष्ट पुरुष तथा उत्तम बुद्धि के धारक नारदजी वहाँ आ पहुंचे ।।1-2।। राजा ने उठकर उनका सम्मान किया तथा सुखदायक आसन पर बैठाया। नारद ने राजा को आशीर्वाद दिया। तदनंतर बुद्धिमान् राजा ने कुशल-समाचार पूछा ।।3।। जब नारद कुशल समाचार कह चुके तब राजा ने ‘क्षेम अर्थात् कल्याणरूप हो?’ यह पूछा। इसके उत्तर में ‘राजन्! सब कल्याण रूप है’ यह उत्तर दिया ।।4।। इतनी वार्ता हो चुकने के बाद राजा दशरथ ने फिर पूछा कि हे भगवन्! आप किस स्थान से आ रहे हैं? और कहां आपका विहार हो रहा है? आपने क्या देखा, क्या सुना सो कहिए? ऐसा कोई देश नहीं जहाँ आप न गये हों ।।5।।
तदनंतर मन में स्थित जिनेंद्रदेव संबंधी वर्णन से जिन्हें आनंद उत्पन्न हो रहा था तथा इसी कारण जो उन्नत रोमांच धारण कर रहे थे ऐसे नारदजी कहने लगे कि हे राजन्! उत्तम जन जिसकी सदा इच्छा करते हैं तथा जो जिनमंदिरों के आधारभूत मेरु, गजदंत, विजयार्ध आदि पर्वत से सुशोभित है ऐसे विदेह क्षेत्र में गया था ।।6-7।। वहाँ नाना रत्नों के विशाल तेज से युक्त पुंडरीकिणी नगरी में मैंने सीमंधर स्वामी का दीक्षा कल्याणक देखा ।।8।। पताकाओं और छत्रों से सुशोभित रंग-बिरंगे विमानों तथा विविध प्रकार के वाहनों से व्याप्त देवों का आगमन देखा ।।9।। मैंने वहाँ सुना था कि जिस प्रकार अपने इस भरत क्षेत्र में इन्होंने मुनि सुव्रतनाथ भगवान का सुमेरु पर्वत पर अभिषेक किया था वैसा ही वहाँ उन भगवान का इन्होंने सुमेरु पर्वत पर अभिषेक किया था ।।10।। मुनिव्रत भगवान का जैसा बांचा गया चरित्र यहाँ सुना है वैसा ही वहाँ उनका चरित्र अपनी आँखों से देखा है ।।11।। जो नाना प्रकार के रत्नों की प्रभा से व्याप्त हैं, ऊँचे हैं, विशाल हैं तथा जिन में निरंतर पूजा होती रहती है ऐसे वहाँ के जिन-मंदिर देखे हैं ।।12।। हे राजन्! वहाँ नंदनवन में जो अत्यंत मनोहर चैत्यालय हैं वे भी देखे हैं। उन मंदिरों में अनेक प्रकार के मणियों के बेल बूटे निकाले गये हैं तथा उनकी कुर्सियाँ सुवर्णनिर्मित हैं ।।13।। सो सुवर्णमय खंभों से युक्त हैं, जिन में नाना प्रकार की किरणें देदीप्यमान हो रही हैं, जो सूर्य विमान के समान जान पड़ते हैं, जो हार तथा तोरणों से मनोहर हैं, जो रत्नमयी मालाओं से समृद्ध हैं, जिनकी भूमियों में बड़ी विस्तृत वेदिकाएं बनी हुई हैं, जिनकी वैदूर्य मणि निर्मित उत्तम दीवालें हाथी, सिंह आदि के चित्रों से अलंकृत हैं और जिनके भीतरी भाग संगीत करने वाली दिव्य स्त्रियों से भरे हुए हैं, ऐसे देवारण्य के चैत्यालयों में जो जिन प्रतिमाएँ हैं उन सबके लिए मैंने नमस्कार किया ।।14-16।। अकृत्रिम प्रतिमाओं की प्रभा के विकास में युक्त जो मेरु पर्वत है उसकी प्रदक्षिणा देकर तथा मेघ-पटल को भेदन कर बहुत ऊँचे आकाश में गया ।।17।। तथा कुलाचलों के शिखरों पर जो महा देदीप्यमान अनेक जिन चैत्यालय हैं उनकी वंदना की है ।।18।। हे राजन्! उन समस्त चैत्यालयों में जिनेंद्र भगवान की महा देदीप्यमान अकृत्रिम प्रतिमाएँ हैं, मैं उन सबको वंदना करता हूँ ।।19।। नारद के इस प्रकार कहने पर ‘देवाधिदेवों को नमस्कार हो’ शब्दों का उच्चारण करते हुए राजा दशरथ ने दोनों हाथ जोड़ें तथा शिर नम्रीभूत किया ।।20।।
अथानंतर संकेत द्वारा नारद की प्रेरणा पाकर राजा दशरथ ने प्रतिहारी के द्वारा आदर के साथ सब लोगों को वहाँ से अलग कर दिया ।।21।। तदनंतर जब एकांत हो गया तब नारद ने कौसलाधिपति राजा दशरथ से कहा कि हे राजन्! एकाग्रचित्त होकर सुनो मैं तुम्हारे लिए एक उत्तम बात कहता हूँ ।।22।। मैं बड़ी उत्सुकता के साथ वंदना करने के लिए त्रिकूटाचल के शिखर पर गया था सो मैंने वहाँ अत्यंत मनोहर शांतिनाथ भगवान के जिनालय की वंदना की ।।23।। तदनंतर आपके पुण्य के प्रभाव से मैंने लंकापति रावण के विभीषणादि मंत्रियों का एक निश्चय सुना है ।।24।। वहाँ सागर बुद्धि नामक निमित्त ज्ञानी ने रावण को बताया है कि राजा दशरथ का पुत्र तुम्हारी मृत्यु का कारण होगा ।।25।। इसी प्रकार राजा जनक की पुत्री भी इसमें कारणपने को प्राप्त होगी। यह सुनकर जिसकी आत्मा विषाद से भर रही थी ऐसे विभीषण ने निश्चय किया कि जब तक राजा दशरथ और जनक के संतान होती है उसके पहले ही मैं इन्हें मारे डालता हूँ ।।26-27।। यह निश्चय कर वह तुम लोगों की खोज के लिए चिरकाल तक पृथ्वी में घूमता रहा पर पता नहीं चला सका। तदनंतर इच्छानुकूल रूप धारण करने वाले उसके गुप्तचर ने स्थान, रूप आदि लक्षणों से तुम दोनों का उसे परिचय कराया है ।।28।। मुनि होने के कारण मेरा विश्वास कर उसने मुझ से पूछा कि हे मुने! पृथ्वी पर कोई दशरथ तथा जनक नाम के राजा हैं सो उन्हें तुम जानते हो ।।29।। इस प्रश्न के बदले मैंने उत्तर दिया कि खोजकर बतलाता हूँ। हे नरपुंगव मैं उसके अभिप्राय को अत्यंत कठोर देखता हूँ ।।30।। इसलिए हे राजन्! यह विभीषण जब तक तुम्हारे विषय में कुछ नहीं कर लेता है तब तक तुम अपने आपको छिपाकर कहीं गुप्तरूप से रहने लगो ।।31।। सम्यग्दर्शन से युक्त तथा गुरुओं की पूजा करने वाले पुरुषों पर मेरी समान प्रीति रहती है और तुम्हारे जैसे पुरुषों पर विशेषरूप से विद्यमान है ।।32।। तुम जैसा उचित समझो सो करो। तुम्हारा भला हो। अब मैं यह वार्ता कहने के लिए शीघ्र ही राजा जनक के पास जाता हूँ ।।33।।
तदनंतर जिसे राजा दशरथ ने नमस्कार किया था ऐसे नारद मुनि इस प्रकार कहकर तथा आकाश में उड़कर बड़े वेग से मिथिला की ओर चले गये ।।34।। वहाँ जाकर राजा जनक के लिए भी उन्होंने यह सब समाचार बतलाया सो ठीक ही है क्योंकि भव्य जीव उन्हें प्राणों से भी अधिक प्यारे थे ।।35।। नारद मुनि के चले जाने पर जिसके मन में मरण की आशंका उत्पन्न हो गयी थी ऐसे राजा दशरथ ने समुद्र हृदय नामक मंत्री को बुलवाया ।।36।। वक्ताओं में श्रेष्ठ तथा स्वामी भक्ति में तत्पर मंत्री ने राजा के मुख से महाभय को निकट स्थल सुन कहा ।।37।। कि हे नाथ! प्राणी जितना कुछ कार्य करते हैं वह जीवन के लिए ही करते हैं। आप ही कहिए, जीवन से रहित प्राणी के लिए यदि तीन लोक का राज्य भी मिल जाये तो किस काम का है ।।38।। इसलिए जब तक मैं शत्रुओं के नाश का प्रयत्न करता हूँ तब तक तुम किसी की पहचान में रूप न आ सके इस प्रकार वेष बदलकर पृथ्वी में विहार करो ।।39।। मंत्री के ऐसा कहने पर राजा दशरथ उसी समुद्र हृदय मंत्री के लिए खजाना, देश, नगर तथा प्रजा को सौंपकर नगर से बाहर निकल गया सो ठीक ही है क्योंकि वह मंत्री राजा का अच्छी तरह परीक्षा किया हुआ था ।।40।। राजा के चले जाने पर मंत्री ने राजा दशरथ के शरीर का एक पुतला बनवाया। वह पुतला मूल शरीर से इतना मिलता-जुलता था कि केवल एक चेतना की अपेक्षा ही भिन्न जान पड़ता था ।।41।। उसके भीतर लाख आदि का रस भरकर रुधिर की रचना की गयी थी तथा सचमुच के प्राणी के शरीर में जैसी कोमलता होती है वैसी ही कोमलता उस पुतले में रची गयी थी ।।42।। राजा का वह पुतला पहले के समान ही समस्त परिकर के साथ महल के सातवें खंड में उत्तम आसन पर विराजमान किया गया था ।।43।। वह मंत्री तथा पुतला को बनाने वाला चित्रकार ये दोनों ही राजा को कृत्रिम राजा समझते थे और बाकी सब लोग उसे सचमुच का ही राजा समझते थे। यही नहीं उन दोनों को भी देखते हुए जब कभी भ्रांति उत्पन्न हो जाती थी ।।44।।
उधर यही हाल राजा जनक का भी किया गया सो ठीक ही है क्योंकि विद्वानों की बुद्धियाँ प्राय: ऊपर-ऊपर ही चलती हैं अर्थात् एक से एक बढ़कर होती हैं ।।45।। जिस प्रकार वर्षाऋतु के समय चंद्रमा और सूर्य छिपे छिपे रहते हैं उसी प्रकार संसार की स्थिति के जानकार दोनों राजा भी आपत्ति के समय पृथिवी पर छिपे छिपे रहने लगे ।।46।। गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे मगधाधिपते! जो राजा पहले बड़े-बड़े महलों में रहते थे, उदार भोग से संपन्न थे। उत्तमोत्तम स्त्रियां जिनकी सेवा करती थीं वे ही राजा अन्य मनुष्यों के समान असहाय हो पृथिवी पर पैरों से पैदल भटकते फिरते थे, सो इस संसार की दशा को धिक्कार हो ।।47-48।। ऐसा निश्चय कर जो प्राणियों के लिए अभयदान देता है, सत्पुरुषों के अग्रभाग में स्थित रहनेवाले उस पुरुष ने क्या नहीं दिया? अर्थात् सब कुछ दिया ।।45।। गुप्तचरों के समूह ने जहां-जहां उनका सद्भाव जाना वहाँ-वहाँ विभीषण ने उन्हें स्वयं देखा तथा बहुत से वधक भेजे ।।50।। जिनके हाथों में शस्त्र विद्यमान थे, जो स्वभाव से क्रूर थे, जिनके शरीर नेत्रों से दिखाई नहीं देते थे तथा जिनके नेत्र अत्यंत चंचल थे, ऐसे वधक रात-दिन नगरी में घूमने लगे ।।51।। हीन शक्ति के धारक वे वधक राजमहल में प्रवेश करने के लिए समर्थ नहीं हो सके इसलिए जब उन्हें अपने कार्य में विलंब हुआ तब विभीषण स्वयं ही आया ।।52।। संगीत के शब्द से उसने दशरथ का पता लगा लिया, जिससे नि:संदेह तथा निर्भय हो राजमहल में प्रवेश किया। वहाँ जाकर उसने अंतःपुर के बीच में स्थित राजा दशरथ को स्पष्ट रूप से देखा ।।53।। उसी समय उसके द्वारा प्रेरित विद्युद विलसित नामक विद्याधर ने दशरथ का शिर काटकर बड़े हर्ष से अपने स्वामी विभीषण को दिखाया ।।54।। तदनंतर जिसने अंतःपुर के रुदन का शब्द सुना था ऐसे विभीषण ने उस कटे हुए शिर को समुद्र में गिरा दिया और राजा जनक के विषय में भी ऐसी ही निर्दय चेष्टा की ।।55।। तदनंतर भाई के स्नेह से भरा विभीषण अपने आपको कृतकृत्य मानकर हर्षित होता हुआ लंका चला गया ।।56।। दशरथ का जो परिजन था उसने पहले बहुत ही विलाप किया पर अंत में जब उसे यह विदित हुआ कि वह पुतला था तब आश्चर्य करता हुआ धैर्य को प्राप्त हुआ ।।57।। विभीषण ने भी नगरी में जाकर अशुभ कर्म की शांति के लिए बड़े उत्सव के साथ दान-पूजा आदि शुभ कर्म किये ।।58।।
तदनंतर किसी समय जब उसका चित्त शांत हुआ तब कर्मो की इस विचित्रता से पश्चात्ताप करता हुआ इस प्रकार विचार करने लगा कि ।।59।। मिथ्या भय से मैंने उन बेचारे भूमिगोचरियों को व्यर्थ ही मारा क्योंकि सर्प आशीविष के शरीर से उत्पन्न होने पर भी क्या गरुड़ के ऊपर प्रहार करने के लिए समर्थ हो सकता है? अर्थात् नहीं ।।60।। अत्यंत तुच्छ पराक्रम को धारण करने वाला भूमिगोचरी कहाँ और इंद्र के समान पराक्रम को धारण करनेवाला रावण कहां? शंका से सहित तथा मद से धीरे-धीरे गमन करनेवाला हाथी कहां और वायु के समान वेगशाली सिंह कहां? ।।61।। जिस पुरुष को जहाँ जिससे जिस प्रकार जितना और जो सुख अथवा दुःख मिलना है कर्मो के वशीभूत हुए उस पुरुष को उससे उस प्रकार उतना और वह सुख अथवा दुःख अवश्य ही प्राप्त होता है ।।62।। यदि कोई अच्छी तरह निमित्त को जानता है तो वह अपनी आत्मा का कल्याण क्यों नहीं करता? जिससे कि इस लोक में तथा आगे चलकर शरीर का त्याग हो जाने से मोक्ष में भी उत्तम सुख को प्राप्त होता ।।63।। मैंने जो उन दो राजाओं का प्राणघात किया है उससे जान पड़ता है कि मेरा विवेक निमित्तज्ञानी के द्वारा अत्यंत मूढ़ता को प्राप्त हो गया था। सो ठीक ही है क्योंकि हीन बुद्धि मनुष्य दुशिक्षित मनुष्यों की प्रेरणा से अकार्य में प्रवृत्ति करने ही लगते हैं ।।64।। यह लंकानगरी पाताल तल को भेदन करने वाले इस समुद्र के मध्य में स्थित है तथा देवों को भी भय उत्पन्न करने में समर्थ है फिर भूमिगोचरियों के गम्य कैसे हो सकती है? ।।65।। मैंने जो यह कार्य किया है वह सर्वथा मेरे योग्य नहीं है अब आगे कभी भी ऐसा अविचारपूर्ण कार्य नहीं करूँगा ऐसा विचारकर सूर्य के समान उत्तम कांति से युक्त विभीषण अपने महल में क्रीड़ा करने लगा ।।66।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मचरित में विभीषण के व्यसन का वर्णन करनेवाला तेईसवाँ पर्व समाप्त हुआ ।।23।।