ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 22
From जैनकोष
अथानंतर जो घोर तपस्वी थे, पृथ्वी के समान क्षमा के धारक थे, जिनका शरीर मैलरूपी कंचुक से व्याप्त था, जिन्होंने मान को नष्ट कर दिया था, जो उदार हृदय थे, जिनका समस्त शरीर तप से सूख गया था, जो अत्यंत धीर थे, केश लोच करने को जो आभूषण के समान समझते थे, जिनकी लंबी भुजाएँ नीचे की ओर लटक रही थीं, जो युग प्रमाण अर्थात् चार हाथ प्रमाण मार्ग में दृष्टि डालते हुए चलते थे, जो स्वभाव से ही मत्त हाथी के समान मंदगति से चलते थे, विकार शून्य थे, समाधान अर्थात् चित्त की एकाग्रता से सहित थे, विनीत थे, लोभरहित थे, आगमानुकूल आचार का पालन करते थे, जिनका मन दया से निर्मल था, जो स्नेहरूपी पैक से रहित थे, मुनिपदरूपी लक्ष्मी से सहित थे और जिन्होंने चिरकाल का उपवास धारण कर रखा था, ऐसे कीर्तिधर मुनिराज भ्रमण करते हुए गृह पंक्ति के क्रम से प्राप्त अपने पूर्व घर में भिक्षा के लिए प्रवेश करने लगे ।।1-5।। उस समय उनकी गृहस्थावस्था की स्त्री सहदेवी झरोखे में दृष्टि लगाये खड़ी थी सो उन्हें आते देख परम क्रोध को प्राप्त हुई। क्रोध से उसका मुंह लाल हो गया। ओंठ चाबती हुई उस दुष्टा ने द्वारपालों से कहा कि यह मुनि घर को फोड़ने वाला है इसलिए यहाँ से शीघ्र ही निकाल दिया जाय ।।6-7।। मुग्ध, सर्वजन प्रिय और स्वभाव से ही कोमल चित्त का धारक, सुकुमार कुमार जब तक इसे नहीं देखता है तब तक शीघ्र ही दूर कर दो। यही नहीं यदि मैं और भी नग्न मनुष्यों को महल के अंदर देखूँगी तो हे द्वारपालों! याद रखो मैं अवश्य ही तुम्हें दंडित करूँगी। यह निर्दय जब से शिशु पुत्र को छोड़कर गया है तभी से इन लोगों में मेरा संतोष नहीं रहा ।।8-10।। ये लोग महा शूर वीरों से सेवित राज्यलक्ष्मी से द्वेष करते हैं तथा महान् उद्योग करने में तत्पर रहनेवाले मनुष्यों को अत्यंत निर्वेद प्राप्त करा देते हैं ।।11।। सहदेवी के इस प्रकार कहने पर जिनके मुख से दुर्वचन निकल रहे थे तथा जो हाथ में वेत्र धारण कर रहे थे, ऐसे दुष्ट द्वारपालों ने उन मुनिराज को दूर से ही शीघ्र निकाल दिया ।।12।। इन्हें ही नहीं, राजभवन में विद्यमान राजकुमार धर्म का शब्द न सुन ले इस भय से नगर में जो और भी मुनि विद्यमान थे उन सबको नगर से बाहर निकाल दिया ।।13।।
इस प्रकार वचनरूपी वसूली के द्वारा छीलें हुए मुनिराज को सुनकर तथा देखकर जिसका भारी शोक फिर से नवीन हो गया था तथा जो भक्ति से युक्त थी ऐसी सुकौशल धाय चिरकाल बाद अपने स्वामी कीर्तिधर को पहचान कर गला फाड़-फाड़कर रोने लगी ।।14-15।। उसे रोती सुनकर सुकौशल शीघ्र ही उसके पास आया और सांतवना देता हुआ बोला कि हे माता! कह तेरा अपकार किसने किया है? ।।16।। माता ने तो इस शरीर को गर्भ मात्र में ही धारण किया है पर आज यह शरीर तेरे दुग्ध-पान से ही इस अवस्था को प्राप्त हुआ है ।।17।। तू मेरे लिए माता से भी अधिक गौरव को धारण करती है। बता, यमराज के मुख में प्रवेश करने की इच्छा करने वाले किस मनुष्य ने तेरा अपमान किया है? ।।18।। यदि आज माता ने भी तेरा पराभव किया होगा तो मैं उसकी अविनय करने को तैयार हूँ फिर दूसरे प्राणी की तो बात ही क्या है? ।।19।। तदनंतर वसंतलता नामक धाय ने बड़े दुख से आँसुओं की धारा को कम कर सुकौशल से कहा कि तुम्हारा जो पिता शिशु अवस्था में ही तुम्हारा राज्याभिषेक कर संसाररूपी दु:खदायी पंजर से भयभीत हो तपोवन में चला गया था आज वह भिक्षा के लिए आपके घर में प्रविष्ट हुआ सो तुम्हारी माता ने अपने अधिकार से उसे द्वारपालों के द्वारा अपमानित कर बाहर निकलवा दिया ।।20-22।। उसे अपमानित होते देख मुझे बहुत शोक हुआ और उस शोक को मैं रोक नहीं सकी। इसलिए हे वत्स! मैं रो रही हूँ ।।23।। जिसे आप सदा गौरव से देखते हैं उसका पराभव कौन कर सकता है? मेरे रोने का कारण यही है जो मैंने आप से कहा है ।।24।। उस समय स्वामी कीर्तिधर ने हमारा जो उपकार किया था वह स्मरण में आते ही शरीर को स्वतंत्रता से जलाने लगता है ।।25।। पाप के उदय से दुख का पात्र बनने के लिए ही मेरा यह शरीर रुका हुआ है। जान पड़ता है कि यह लोहे से बना है इसलिए तो स्वामी का वियोग होने पर भी स्थिर है ।।26।। निर्ग्रंथ मुनि को देखकर तुम्हारी बुद्धि वैराग्यमय न हो जावे इस भय से नगर में मुनियों का प्रवेश रोक दिया गया है ।।27।। परंतु तुम्हारे कुल में परंपरा से यह धर्म चला आया है कि पुत्र को राज्य देकर तपोवन की सेवा करना ।।28।। तुम कभी घर से बाहर नहीं निकल सकते हो इतने से ही क्या मंत्रियों के इस निश्चय को नहीं जान पाये हो ।।29।। इसी कारण नीति के जानने वाले मंत्रियों ने तुम्हारे भ्रमण आदि की व्यवस्था इसी भवन में कर रखी है ।।30।।
तदनंतर वसंतलता धाय के द्वारा निरूपित समस्त वृत्तांत सुनकर सुकौशल शीघ्रता से महल के अग्रभाग से नीचे उतरा ।।31।। और छत्र चमर आदि राज चिह्नों को छोड़कर कमल के समान कोमल कांति को धारण करने वाले पैरों से पैदल ही चल पड़ा। वह लक्ष्मी से सुशोभित था तथा मार्ग में लोगों से पूछता जाता था कि यहाँ कहीं आप लोगों ने उत्तम मुनिराज को देखा है? इस तरह परम उत्कंठा से युक्त सुकौशल राजकुमार पिता के समीप पहुँचा ।।32-33।। इसके जो छत्र धारण करने वाले आदि सेवक थे वे सब व्याकुल चित्त होते हुए हड़बड़ाकर उसके पीछे दौड़ते आये ।।34।। जाते हो उसने प्रासुक विशाल तथा उत्तम शिलातल पर विराजमान अपने पिता कीर्तिधर मुनिराज की तीन प्रदक्षिणाएँ दीं। उस समय उसके नेत्र आँसुओं से व्याप्त थे और उसकी भावनाएँ अत्यंत उत्तम थीं ।।35।। उसने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक से लगाये तथा घुटनों और मस्तक से पृथिवी का स्पर्श कर बड़े स्नेह के साथ उनके चरणों में नमस्कार किया ।।36।। वह हाथ जोड़कर विनय से मुनिराज के आगे बैठ गया। अपने घर से मुनिराज का तिरस्कार होने के कारण मानो वह लज्जा को प्राप्त हो रहा था ।।37।। उसने मुनिराज से कहा कि जिस प्रकार अग्नि की ज्वालाओं से व्याप्त घर में सोते हुए मनुष्यों को तीव्र गर्जना से युक्त मेघों का समूह जगा देता है उसी प्रकार जन्म-मरण रूपी अग्नि से प्रज्वलित इस संसार रूपी घर में मैं मोहरूपी निद्रा से आलिंगित होकर सो रहा था सो हे प्रभो! आपने मुझे जगाया है ।।38-39।। आप प्रसन्न होइए तथा आपने स्वयं जिस दीक्षा को धारण किया है वह मेरे लिए भी दीजिये। हे भगवन्! मुझे भी इस संसार के व्यसन रूपी संकट से बाहर निकालिए ।।40।। नीचे की ओर मुख किये सुकौशल जब तक मुनिराज से यह कह रहा था तब तक उसके समस्त सामंत वहाँ आ पहुँचे ।।41।। सुकौशल की स्त्री विचित्र माला भी गर्भ के भार को धारण करती, विषाद भरी, अंतःपुर के साथ वहाँ आ पहुँची ।।42।। सुकौशल को दीक्षा के सम्मुख जानकर अंतःपुर से एक साथ भ्रमर की झंकार के समान कोमल रोने की आवाज उठ पड़ी ।।43।।
तदनंतर सुकौशल ने कहा कि यदि विचित्र माला के गर्भ में पुत्र है तो उसके लिए मैंने राज्य दिया इस प्रकार कहकर उसने निस्पृह हो, आशारूपी पाश को छेदकर, स्नेहरूपी पंजर को जलाकर, स्त्रीरूपी बेड़ी को तोड़कर, राज्य को तृण के समान छोड़कर, अलंकारों का त्यागकर अंतरंग—बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह का उत्सर्ग कर, पर्यंकासन से बैठकर, केशों का लोंचकर पिता से महाव्रत धारण कर लिये और दृढ़ निश्चय हो शांत चित्त से पिता के साथ विहार करने लगा ।।44-47।। जब वह विहार के योग्य पृथिवी पर भ्रमण करता था तब पैरों की लाल-लाल किरणों से ऐसा जान पड़ता था मानो कमलों का उपहार ही पृथिवी पर चढ़ा रहा हो। लोग उसे आश्चर्य भरे नेत्रों से देखते थे ।।48।। मिथ्यादृष्टि तथा पाप करने में तत्पर रहने वाली सहदेवी आर्तध्यान से मरकर तिर्यंच योनि में उत्पन्न हुई ।।49।। इस प्रकार पिता-पुत्र आगमानुकूल विहार करते थे। विहार करते करते जहाँ सूर्य अस्त हो जाता था वे वहीं सो जाते थे। तदनंतर दिशाओं को मलिन करता हुआ वर्षा काल आ पहुंचा ।।50।। काले काले मेघों के समूह से आकाश ऐसा जान पड़ने लगा मानो गोबर से लीपा गया हो और कहीं कहीं उड़ती हुई वलाकाओं से ऐसा जान पड़ता था मानो उस पर कुमुदों के समूह से अर्चा ही की गयी हो ।।51।। जिन पर भ्रमर गुंजार कर रहे थे ऐसी कदंब की बड़ी-बड़ी बेडियां ऐसी जान पड़ती थीं मानो वर्षाकाल रूपी राजा का यशोगान ही कर रहे हों ।।52।। जगत् ऐसा जान पड़ता था मानो ऊंचे-ऊँचे पर्वतों के समान नीलांजन के समूह से ही व्याप्त हो गया हो और चंद्रमा तथा सूर्य कहीं चले गये थे मानो मेघों की गर्जना से तर्जित होकर ही चले गये थे ।।53।। आकाशतल से अखंड जलधारा बरस रही थी सो उससे ऐसा जान पड़ता था मानो आकाशतल पिघल पिघलकर बह रहा हो और पृथिवी में हरी हरी घास उग रही थी उससे ऐसा जान पड़ती था मानो उसने संतोष से घास रूपी कंचुक (चोली) ही पहन रखी हो ।।54।। जिस प्रकार अतिशय दुष्ट मनुष्य का चित्त ऊंच-नीच सबको समान कर देता है उसी प्रकार वेग से बहने वाले जल के पूरने ऊँची-नीची समस्त भूमि को समान कर दिया था ।।55।। पृथिवी पर जल के समूह गरज रहे थे और आकाश में मेघों के समूह गर्जना कर रहे थे उससे ऐसा जान पडता था मानो वे भागे हुए ग्रीष्मकाल रूपी शत्रु को खोज ही रहे थे ।।56।। झरनों से सुशोभित पर्वत अत्यंत सघन कंदलों से आच्छादित हो गये थे। उससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो जल के बहुत भारी भार से मेघ ही नीचे गिर पड़े हों ।।57।। वन की स्वाभाविक भूमि में जहां तहां चलते फिरते इंद्रगोप (बीरबहूटी) नामक कीड़े दिखाई देते थे। जो ऐसे जान पड़ते थे मानो मेघों के द्वारा चूर्णीभूत सूर्य के टुकड़े ही पृथिवी पर आ पड़े हों ।।58।। बिजली का तेज जल्दी जल्दी समस्त दिशाओं में घूम रहा था उससे ऐसा जान पड़ता था मानो आकाश का नेत्र कौन देश जल से भरा गया और कौन देश नहीं भरा गया इस बात को देख रहा था ।।59।। अनेक प्रकार के तेज को धारण करने वाले इंद्रधनुष से आकाश ऐसा सुशोभित हो गया मानो अत्यंत ऊँचे सुंदर तोरण से ही सुशोभित हो गया हो ।।60।। जो दोनों तटों को गिरा रही थीं, जिन में भयंकर आवर्त उठ रहे थे और जो बड़े वेग से बह रही थीं ऐसी कलुषित नदियां व्यभिचारिणी स्त्रियों के समान जान पडती थीं ।।61।। जो मेघों की गर्जना से भयभीत हो रहीं थीं तथा जिनके नेत्र हरिणी के समान चंचल थे ऐसी प्रोषितभर्तृका स्त्रियां शीघ्र ही खंभों का आलिंगन कर रही थीं ।।62।। अत्यंत भयंकर गर्जना से जिनकी चेतना जर्जर हो रही थी ऐसे प्रवासी- परदेशी मनुष्य जिस दिशा में स्त्री थी उसी दिशा में नेत्र लगाये हुए विह्वल हो रहे थे ।।63।। सदा अनुकंपा (दया) के पालन करने में तत्पर रहनेवाले दिगंबर मुनिराज प्रासुक स्थान पाकर चातुर्मास व्रत का नियम लिये हुए थे ।।64।। जो शक्ति के अनुसार नाना प्रकार के व्रत-नियम आखड़ी आदि धारण करते थे तथा सदा साधुओं की सेवा में तत्पर रहते थे ऐसे श्रावकों ने दिग्व्रत धारण कर रखा था ।।65।। इस प्रकार मेघों से युक्त वर्षाकाल के उपस्थित होने पर आगमानुकूल आचार को धारण करने वाले दोनों पिता-पुत्र निर्ग्रंथ साधु कीर्तिधर मुनिराज और सुकौशल स्वामी इच्छानुसार विहार करते हुए उस श्मशान भूमि में आये जो वृक्षों के अंधकार से गंभीर था, अनेक प्रकार के सर्प आदि हिंसक जंतुओं से व्याप्त था, पहाड़ की छोटी छोटी शाखाओं से दुर्गम था, भयंकर जीवों को भी भय उत्पन्न करने वाला था, काक, गीध, रीछ तथा शृगाल आदि के शब्दों से जिसके गर्त भर रहे थे, जहाँ अधजले मुरदे पड़े हुए थे, जो भयंकर था, जहाँ की भूमि ऊँची-नीची थी, जो शिर की हड्डियों के समूह से कहीं-कहीं सफेद हो रहा था, जहाँ चर्बी की अत्यंत सड़ी बास से तीक्ष्ण वायु बड़े वेग से बह रही थी, जो अट्टहास से युक्त घूमते हुए भयंकर राक्षस और वेतालों से युक्त था तथा जहाँ तृणों के समूह और लताओं के जाल से बड़े-बड़े वृक्ष परिबद्ध-व्याप्त थे। ऐसे विशाल श्मशान में एक साथ विहार करते हुए, तपरूपी धन के धारक तथा उज्ज्वल मन से युक्त धीरवीर पिता-पुत्र दोनों मुनिराज आषाढ़ सुदी पूर्णिमा को अनायास ही आ पहुँचे ।।66-71।। सब प्रकार की स्पृहा से रहित दोनों मुनिराज, जहाँ पत्तों के पड़ने से पानी प्रासुक हो गया था ऐसे उस श्मशान में एक वृक्ष के नीचे चार मास का उपवास लेकर विराजमान हो गये ।।72।। वे दोनों मुनिराज कभी पर्यंकासन से विराजमान रहते थे, कभी कायोत्सर्ग धारण करते थे और कभी वीरासन आदि विविध आसनों से अवस्थित रहते थे। इस तरह उन्होंने वर्षाकाल व्यतीत किया ।।73।।
तदनंतर जिसमें समस्त मानव उद्योग धंधों से लग गये थे तथा जो प्रातःकाल के समान समस्त संसार को प्रकाशित करने में निपुण थी ऐसी शरद् ऋतु आयी ।।74।। उस समय आकाशांगण में कहीं-कहीं ऐसे सफेद मेघ दिखाई देते थे जो फूले हुए काश के फूलों के समान थे तथा मंद मंद हिल रहे थे ।।75।। जिस प्रकार उत्सर्पिणी काल के दुषमा-काल बीतने पर भव्य जीवों के बंधु श्रीजिनेंद्र देव सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार मेघों के आगमन से रहित आकाश में सूर्य सुशोभित होने लगा ।।76।। जिस प्रकार कुमुदों के बीच में तरुण राजहंस सुशोभित होता है उसी प्रकार ताराओं के समूह के बीच में चंद्रमा सुशोभित होने लगा ।।77।। रात्रि के समय चंद्रमा रूपी प्रणाली के मुख से निकली हुई क्षीरसागर के समान सफेद चाँदनी से समस्त संसार व्याप्त हो गया ।।78।। जिनके रेतीले किनारे तरंगों से चिह्नित थे तथा जो क्रौंच सारस चकवा आदि पक्षियों के शब्द के बहाने मानो परस्पर में वार्तालाप कर रही थीं ऐसी नदियाँ प्रसन्नता को प्राप्त हो गयी थीं ।।79।। जिन पर भ्रमर चल रहे थे ऐसे कमलों के समूह तालाबों में इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे मानो मिथ्यात्व रूपी मैल के समूह को छोड़ते हुए भव्य जीवो के समूह ।।80।। भोगी मनुष्य फूलों के समूह से सुंदर ऊंचे-ऊंचे महलों के तल्लों से रात्रि के समय अपनी वल्लभाओं के साथ रमण करने लगे ।।81।। जिन में मित्र तथा बंधुजनों के समूह सम्मानित किये गये थे तथा जिन में महान् उत्सव की बुद्धि हो रही थी ऐसे वियुक्त स्त्री पुरुषों के समागम होने लगे ।।82।। कार्तिक मास की पूर्णिमा व्यतीत होने पर तपस्वीजन उन स्थानों में विहार करने लगे जिन में भगवान के गर्भ जन्म आदि कल्याणक हुए थे तथा जहाँ लोग अनेक प्रकार की प्रभावना करने में उद्यत थे ।।83।।
अथानंतर जिनका चातुर्मासोपवास का नियम पूर्ण हो गया था ऐसे वे दोनों मुनिराज आगमानुकूल गति से गमन करते हुए पारणा के निमित्त नगर में जाने के लिए उद्यत हुए ।।84।। उसी समय एक व्याघ्री जो पूर्वभव में सुकौशल मुनि की माता सहदेवी थी उन्हें देखकर क्रोध से भर गयी, उसकी खून से लाल-लाल दिखने वाली बिखरी जटाएँ कांप रही थीं, उसका मुख दाढ़ों से भयंकर था, पीले-पीले नेत्र चमक रहे थे, उसकी गोल पूंछ मस्तक के ऊपर आकर लग रही थी, नखों के द्वारा वह पृथिवी को खोद रही थी, गंभीर हुंकार कर रही थी, ऐसी जान पड़ती थी मानो शरीर को धारण करने वाली मारी ही हो, उसकी लाल-लाल जिह्वा का अग्रभाग लपलपा रहा था, वह देदीप्यमान शरीर को धारण कर रही थी और मध्याह्न के सूर्य के समान जान पड़ती थी। बहुत देर तक क्रीड़ा करने के बाद उसने सुकौशल स्वामी को लक्ष्य कर ऊंची छलांग भरी ।।85-88।। सुंदर शोभा को धारण करने वाले दोनों मुनिराज, उसे छलांग भरती देख यदि इस उपसर्ग से बचे तो आहार पानी ग्रहण करेंगे अन्यथा नहीं इस प्रकार की सालंब प्रतिज्ञा लेकर निर्भय हो कायोत्सर्ग से खड़े हो गये ।।81।। वह दयाहीन व्याघ्री सुकौशल मुनि के ऊपर पड़ी और नखों के द्वारा उनके मस्तक आदि अंगों को विदारती हुई पृथिवी पर आयी ।।90।। उसने उनके समस्त शरीर को चीर डाला जिससे खून की धाराओं को छोड़ते हुए वे उस पहाड़ के समान जान पड़ते थे जिससे गेरू आदि धातुओं से मिश्रित पानी के निर्झरने झर रहे हों ।।91।।
तदनंतर वह पापिन उनके सामने खड़ी होकर तथा नाना प्रकार को चेष्टाएँ कर उन्हें ओर से खाने लगी ।।92।। गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे श्रेणिक! मोह की चेष्टा तो देखो जहाँ माता ही प्रिय पुत्र के शरीर को खाती है ।।93।। इससे बढ़कर और क्या कष्ट की बात होगी कि दूसरे जन्म से मोहित हो बांधवजन ही अनर्थकारी शत्रुता को प्राप्त हो जाते हैं ।।94।।
तदनंतर मेरु के समान स्थिर और शुक्ल ध्यान को धारण करने वाले सुकौशल मुनि को शरीर छूटने के पहले ही केवलज्ञान उत्पन्न हो गया ।।95।। सुर और असुरों ने इंद्र के साथ आकर बड़े हर्ष से दिव्य पुष्पादि संपदा के द्वारा उनके शरीर की पूजा की ।।96।। सुकौशल के पिता कीर्तिधर मुनिराज ने भी उस व्याघ्री को मधुर शब्दों से संबोधा जिससे संन्यास ग्रहण कर वह स्वर्ग गयी ।।97।। तदनंतर उसी समय कीर्तिधर मुनिराज को भी केवलज्ञान उत्पन्न हुआ सो महिमा को करने वाले देवों की वही एक यात्रा पिता और पुत्र दोनों का केवलज्ञान महोत्सव करने वाली हुई ।।98।। सुर और असुर केवलज्ञान की परम महिमा फैलाकर तथा दोनों केवलियों के चरणों को नमस्कार कर यथायोग्य अपने अपने स्थान पर गये ।।99।। गौतमस्वामी कहते हैं कि जो पुरुष सुकौशल स्वामी के माहात्म्य को पढ़ता है वह उपसर्ग से रहित हो चिरकाल तक सुख से जीवित रहता है ।।100।।
अथानंतर सुकौशल की स्त्री विचित्रमाला ने गर्भ का समय पूर्ण होने पर सुंदर लक्षणों से चिह्नित शरीर को धारण करनेवाला पुत्र उत्पन्न किया ।।101।। चूँकि उस बालक के गर्भ में स्थित रहने पर माता सुवर्ण के समान सुंदर हो गयी थी इसलिए वह बालक हिरण्यगर्भ नाम को प्राप्त हुआ ।।102।। आगे चलकर हिरण्यगर्भ ऐसा राजा हुआ कि उसने अपने गुणों के द्वारा भगवान् ऋषभदेव का समय ही मानो पुन: वापस लाया था। उसने राजा हरि की अमृतवती नाम की शुभ पुत्री के साथ विवाह किया ।।103।। राजा हिरण्यगर्भ समस्त मित्र तथा बांधवजनों से सहित था, सर्व शास्त्रों का पारगामी था, अखंड धन का स्वामी था, श्रीमान् था, सुमेरु पर्वत के समान सुंदर था और उदार हृदय था। वह उत्कृष्ट भोगों को भोगता हुआ समय बिताता था कि एक दिन उसने अपने भ्रमर के समान काले केशों के बीच एक सफेद बाल देखा ।।104-105।। दर्पण के मध्य में स्थित उस सफेद बाल को देखकर वह ऐसा शोक को प्राप्त हुआ मानो अपने आपको बुलाने के लिए यम का दूत ही पहुंचा हो ।।106।। वह विचार करने लगा कि हाय बड़े कष्ट की बात है कि इस समय शक्ति और कांति को नष्ट करने वाली इस वृद्धावस्था के द्वारा मेरे अंग बलपूर्वक हरे जा रहे हैं ।।107।। मेरा यह करीर चंदन के वृक्ष के समान सुंदर है सो अब वृद्धावस्था रूपी अग्नि से जलकर अंगार के समान हो जावेगा ।।108।। जो वृद्धावस्था रोगरूपी छिद्र की प्रतीक्षा करती हुई चिरकाल से स्थित थी अब वह पिशाची की नाई प्रवेश कर मेरे शरीर को बाधा पहुँचावेंगी ।।109।। ग्रहण करने में उत्सुक जो मृत्यु व्याघ्र की तरह चिरकाल से बद्धकर्म होकर स्थित था अब वह हठात् मेरे शरीर का भक्षण बनेगा ।।110।। वे श्रेष्ठ तरुण धन्य हैं जो इस कर्मभूमि को पाकर तथा व्रत रूपी नाव पर सवार हो संसाररूपी सागर से पार हो चुके हैं ।।111।। ऐसा विचारकर उसने अमृतवती के पुत्र नघुष को राज्य सिंहासन पर बैठाकर विमल योगी के समीप दीक्षा धारण कर ली ।।112।। चूंकि उस पुत्र के गर्भ में स्थित रहते समय पृथिवी पर अशुभ की घोषणा नहीं हुई थी अर्थात् जब से वह गर्भ में आया था तभी से अशुभ शब्द नहीं सुनाई पड़ा था इसलिए वह नघुष इस नाम से प्रसिद्ध हुआ था। उसने अपने गुणों से समस्त संसार को नम्रीभूत कर दिया था ।।113।।
अथानंतर किसी समय राजा नघुष अपनी सिंहिका नामक रानी को नगर में रखकर प्रतिकूल शत्रुओं को वश करने के लिए उत्तर दिशा को ओर गया ।।114।। इधर दक्षिण दिशा के राजा नघुष को दूरवर्ती जानकर उसकी अयोध्या नगरी को हथियाने के लिए आ पहुँचे। वे राजा बहुत भारी सेना से सहित थे ।।115।। परंतु अत्यंत प्रतापनी सिंहिका रानी ने उन सबको युद्ध में जीत लिया। इतना ही नहीं वह एक विश्वासपात्र राजा को नगर की रक्षा के लिए नियुक्त कर युद्ध में जीते हुए सामंतों के साथ शेष राजाओं को जीतने के लिए दक्षिण दिशा को ओर चल पड़ी। शस्त्र और शास्त्र दोनों में ही उसने अच्छा परिश्रम किया था ।।116-117।। वह प्रतिकूल सामंतों को अपने प्रताप से ही जीतकर विजयनाद से दिशाओं को पूर्ण करती हुई नगरी में वापस आ गयी ।।118।। उधर जब राजा नघुष उत्तर दिशा को वश कर वापस आया तब स्त्री के पराक्रम की बात सुनकर वह परम क्रोध को प्राप्त हुआ ।।119।। अखंड शील को धारण करने वाली कुलांगना की ऐसी धृष्टता नहीं हो सकती ऐसा निश्चय कर वह सिंहिका से विरक्त हो गया ।।120।। वह उत्तम चेष्टाओं से सहित थी फिर भी राजा ने उसे महादेवी के पद से च्युत कर दिया। इस तरह महा दरिद्रता को प्राप्त हो वह कुछ समय तक बड़े कष्ट से रही ।।121।।
अथानंतर किसी समय राजा को ऐसा महान् दाह ज्वर हुआ कि जो समस्त वैद्यों के द्वारा प्रयुक्त औषधियों से भी अच्छा नहीं हो सका ।।122।। जब सिंहिका को इस बात का पता चला तब वह शोक से बहुत ही आकुल हुई। उसी समय उसने अपने आपको निर्दोष सिद्ध करने के लिए यह काम किया ।।123।। कि उसने समस्त बंधुजनों, सामंतों और प्रजा को बुलाकर अपने करपुट में पुरोहित के द्वारा दिया हुआ जल धारण किया और कहा कि यदि मैंने अपने चित्त में किसी दूसरे भर्ता को स्थान नहीं दिया हो तो इस जल से सींचा हुआ भर्ता दाह ज्वर से रहित हो जावे ।।124-125।। तदनंतर सिंहिका रानी के हाथ में स्थित जल का एक छींटा ही राजा पर सींचा गया था कि वह इतना शीतल हो गया मानो बर्फ में ही डुबा दिया गया हो। शीत के कारण उसकी दंतावली वीणा के समान शब्द करने लगी ।।126।। उसी समय साधु-साधु शब्द से आकाश भर गया औ अदृष्टजनों के द्वारा छोड़े हुए फूलों के समूह बरसने लगे ।।127।। इस प्रकार राजा नघुष ने सिंहिका रानी को शीलसंपन्न जानकर फिर से उसे महादेवी पद पर अधिष्ठित किया तथा उसकी बहुत भारी पूजा की ।।128।। शत्रु रहित होकर उसने चिरकाल तक उसके साथ भोगों का अनुभव किया और अपने पूर्व पुरुषों के द्वारा आचरित समस्त कार्य किये। उसकी यह विशेषता थी कि भोगरत रहने पर भी वह मन में सदा भोगों से निस्पृह रहता था ।।129।। अंत में वह धीरवीर सिंहिका देवी से उत्पन्न पुत्र को राज्य देकर अपने पिता के द्वारा सेवित मार्ग का अनुसरण करने लगा अर्थात् पिता के समान उसने जिन दीक्षा धारण कर ली ।।130।।
राजा नघुष समस्त शत्रुओं को वश कर लेने के कारण सूदास कहलाता था। इसलिए उसका पुत्र संसार में सौदास (सुदासस्यापत्यं पुमान् सौदास) नाम से प्रसिद्ध हुआ ।।131।। प्रत्येक चार मास समाप्त होने पर जब अष्टानहिका के आठ दिन आते थे तब उसके गौत्र में कोई भी माँस नहीं खाता था भले ही उसका शरीर माँस से ही क्यों न वृद्धिगत हुआ हो ।।132।। किंतु इस राजा सौदास को किसी अशुभ कर्म के उदय से इन्हीं दिनों में मांस खाने की इच्छा उत्पन्न हुई ।।133।। तब उसने रसोइया को बुलाकर एकांत में कहा कि हे भद्र! आज मेरे मांस खाने की इच्छा उत्पन्न हुई है ।।134।। रसोइया ने उत्तर दिया कि देव! आप यह जानते हैं कि इन दिनों में समस्त पृथ्वी में बड़ी समृद्धि के साथ जिनपूजा होती है तथा जीवों के मारने की मनाही है ।।135।। यह सुन राजा ने रसोइया से कहा कि यदि आज मैं मांस नहीं खाता हूँ तो मर जाऊंगा। ऐसा निश्चय कर जो उचित हो सो करो। बात करने से क्या लाभ है? ।।136।। राजा की ऐसी दशा जानकर रसोइया नगर के बाहर गया। वहाँ उसने उसी दिन परिखा में छोड़ा हुआ एक मृतक बालक देखा ।।137।। उसे वस्त्र से लपेटकर वह ले आया और स्वादिष्ट वस्तुओं से पकाकर खाने के लिए राजा को दिया ।।138।। महा मांस (नरमांस) के रसास्वाद से जिसका मन अत्यंत प्रसन्न हो रहा था ऐसा राजा उसे खाकर जब उठा तब उसने आश्चर्यचकित हो रसोइया से कहा कि भद्र! जिसके इस अत्यंत मधुर रस का मैंने पहले कभी स्वाद नहीं लिया ऐसा यह मांस तुमने कहाँ से प्राप्त किया है? ।।139-140।। इसके उत्तर में रसोइया ने अभयदान की याचना कर सब बात ज्यों की ज्यों बतला दी। तब राजा ने कहा कि सदा ऐसा ही किया जाये ।।141।।
अथानंतर रसोइया ने छोटे-छोटे बालकों के लिए लड्डू देना शुरू किया, उसके लोभ से बालक प्रतिदिन उसके पास आने लगे ।।142।। लड्डू लेकर जब बालक जाने लगते तब उनके जो पीछे रह जाता था उसे मारकर तथा पकाकर वह निरंतर राजा को देने लगा ।।143।। जब प्रतिदिन नगर के बालक कम होने लगे तब लोगों ने इसका निश्चय किया और रसोइया के साथ-साथ राजा को नगर से निकाल दिया ।।144।। सौदास की कनकाभा स्त्री से एक सिंहरथ नाम का पुत्र हुआ था। नगरवासियों ने उसे ही राज्यपद पर आरूढ़ किया तथा सब राजाओं ने उसे प्रणाम किया।।145।। राजा सौदास नरमांस में इतना आसक्त हो गया कि उसने अपने रसोइया को ही खा लिया। अंत में वह छोड़े हुए मुर्दो को खाता हुआ दुःखी हो पृथ्वी पर भ्रमण करने लगा ।।146।। जिस प्रकार सिंह का आहार मांस है उसी प्रकार इसका भी आहार मांस हो गया था। इसलिए यह संसार में सिंहसौदास के नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ ।।147।।
अथानंतर वह दक्षिण देश में जाकर एक दिगंबर मुनि के पास पहुंचा और उनसे धर्म श्रवण कर बड़ा भारी अणुव्रतों का धारी हो गया ।।148।। तदनंतर उसी समय महापुर नगर का राजा मर गया था। उसके कोई संतान नहीं थी। सो लोगों ने निश्चय किया कि पट्टबंध हाथी छोड़ा जावे। वह जिसे कंधे पर बैठाकर लावे उसे ही राजा बना दिया जाये। निश्चयानुसार पट्टबंध हाथी छोड़ा गया और वहीं सिंहसौदास को कंधे पर बैठाकर नगर में ले गया। फलस्वरूप उसे राज्य प्राप्त हो गया ।।149।। कुछ समय बाद जब सौदास बलिष्ठ हो गया तब उसने नमस्कार करने के लिए पुत्र के पास दूत भेजा। इसके उत्तर में पुत्र ने निर्भय होकर लिख दिया कि चूंकि तुम निंदित आचरण करने वाले हो अत: तुम्हें नमस्कार नहीं करूंगा ।।150।। तदनंतर सौदास पुत्र के ऊपर चढ़ाई करने के लिए चला सो ‘कहीं यह खा न ले’ इस भय से समस्त देशवासी लोगों ने भागना शुरू कर दिया ।।151।। अंत में सौदास ने युद्ध में पुत्र को जीतकर उसे ही राजा बना दिया और स्वयं कृतकृत्य हो वह महा वैराग्य से युक्त होता हुआ तपोवन में चला गया ।।152।।
तदनंतर सिंहरथ के ब्रह्मरथ, ब्रह्मरथ के चतुर्मुख, चतुर्मुख के हेमरथ, हेमरथ के शतरथ, शतरथ के मांधाता, मांधाता के वीरसेन, वीरसेन के प्रतिमन्यु, प्रतिमन्यु के दीप्ति से सूर्य की तुलना करनेवाला कमलबंधु, कमलबंधु के प्रताप से सूर्य के समान तथा समस्त मर्यादा को जाननेवाला रविमन्यु, रविमन्यु के वसंततिलक, वसंततिलक के कुबेरदत्त, कुबेरदत्त के कीर्तिमान कुंधुभक्ति, कुंधुभक्ति के शरभरथ, शरभरथ के द्विरदरथ, द्विरदरथ के सिंहदमन, सिंहदमन के हिरण्यकशिपु, हिरण्यकशिपु के पुंजस्थल, पुंजस्थल के ककुत्थ और ककुत्थ के अतिशय पराक्रमी रघु पुत्र हुआ ।।153-158।। इस प्रकार इक्ष्याकु वंश में उत्पन्न हुए राजाओं का वर्णन किया। इनमें से अनेक राजा दिगंबर व्रत धारण कर मोक्ष को प्राप्त हुए ।।159।। तदनंतर राजा रघु के अयोध्या में अनरण्य नाम का ऐसा पुत्र हुआ कि जिसने लोगों को बसाकर देश को अनरण्य अर्थात् वनों से रहित कर दिया ।।160।। राजा अनरण्य की पृथिवीमती नाम की महादेवी थी जो महा गुणों से युक्त थी, कांति के समूह के मध्य में स्थित थी और समस्त इंद्रियों के सुख धारण करने वाली थी ।।161।। उसके उत्तम लक्षणों के धारक दो पुत्र हुए। उनमें ज्येष्ठ पुत्र का नाम अनंतरथ और छोटे पुत्र का नाम दशरथ था ।।162।। माहिष्मती के राजा सहस्ररश्मि की अनरण्य के साथ उत्तम मित्रता थी ।।163।। परस्पर के आने-जाने से जिनका प्रेम वृद्धि को प्राप्त हुआ था ऐसे दोनों राजा अपने अपने घर सौधर्म और ऐशानेंद्र के समान रहते थे ।।164।।
अथानंतर रावण से पराजित होकर राजा सहस्ररश्मि प्रतिबोध को प्राप्त हो गया जिससे उत्तम संवेग को धारण करते हुए उसने जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली ।।165।। दीक्षा धारण करने के पहले उसने राजा अनरण्य के पास दूत भेजा था सो उससे सब समाचार जानकर राजा अनरण्य, जिसे उत्पन्न हुए एक माह ही हुआ था ऐसे दशरथ के लिए राज्यलक्ष्मी सौंपकर अभयसेन नामक निर्ग्रंथ महात्मा के समीप ज्येष्ठ पुत्र अनंतरथ के साथ अत्यंत निःस्पृह हो दीक्षित हो गया ।।166-167।। अनरण्य मुनि तो मोक्ष चले गये और अनंतरथ मुनि सब प्रकार के परिग्रह से रहित हो यथायोग्य पृथिवी पर विहार करने लगे ।।168।। अनंतरथ मुनि अत्यंत दु:सह बाईस परीषहों से क्षोभ को प्राप्त नहीं हुए थे इसलिए पृथिवी पर अनंतवीर्य इस नाम को प्राप्त हुए ।।169।।
अथानंतर राजा दशरथ ने नवयौवन से सुशोभित तथा नाना प्रकार के फूलों से सुभूषित पहाड़ के शिखर के समान ऊँचा शरीर प्राप्त किया ।।170।। तदनंतर उसने दर्भस्थल नगर के स्वामी तथा सुंदर विभ्रमों को धारण करने वाले राजा सुकौशल की अमृतप्रभावा नाम की उत्तम स्त्री से उत्पन्न अपराजिता नाम की पुत्री के साथ विवाह किया। अपराजिता इतनी उत्तम स्त्री थी कि स्त्रियों के योग्य गुणों के द्वारा रति भी उसे पराजित नहीं कर सकी थी ।।171-172।। तदनंतर कमलसंकुल नाम का एक महा सुंदर नगर था। उसमें सुबंधुतिलक नाम का राजा राज्य करता था। उसकी मित्रा नाम की स्त्री थी। उन दोनों के कैकयी नाम की गुणवती पुत्री थी। वह इतनी सुंदरी थी कि उसके नेत्ररूपी नील कमलों की माला से मस्तक मालारूप हो गया था ।।173-174।। चूंकि यह मित्रा नामक माता से उत्पन्न हुई थी, उत्तम चेष्टाओं से युक्त थी तथा रूपवती थी इसलिए लोक में सुमित्रा इस नाम से भी प्रसिद्धि को प्राप्त हुई थी। राजा दशरथ ने उसके साथ भी विवाह किया था ।।175।। इनके सिवाय लावण्यरूपी संपदा के द्वारा लक्ष्मी को भी लज्जा उत्पन्न करने वाली सुप्रभा नाम की एक अन्य राजपुत्री के साथ भी उन्होंने विवाह किया था ।।176।। राजा दशरथ ने सम्यग्दर्शन तथा परम वैभव से युक्त राज्य इन दोनों वस्तुओं की प्राप्त किया था। सो प्रथम जो सम्यग्दर्शन है उसे वह रत्न समझता था और अंतिम जो राज्य था उसे तृण मानता था ।।177।। इस प्रकार मानने का कारण यह है कि यदि राज्य का त्याग नहीं किया जाये तो उससे अधोगति होती है और सम्यग्दर्शन के सुयोग से नि:संदेह ऊर्ध्वगति होती है ।।178।। भरतादि राजाओं ने जो पहले जिनेंद्र भगवान के उत्तम मंदिर बनवाये थे वे यदि कहीं भग्नावस्था को प्राप्त हुए थे तो उन रमणीय मंदिरों को राजा दशरथ ने मरम्मत कराकर पुन: नवीनता प्राप्त करायी थी ।।179।। यही नहीं, उसने स्वयं भी ऐसे जिनमंदिर बनवाये थे जिनकी कि इंद्र स्वयं स्तुति करता था तथा रत्नों के समूह से जिनकी विशाल कांति स्फुरायमान हो रही थी ।।180।। गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! अन्य भवों में जो धर्म का संचय करते हैं वे देवों की अत्यंत रमणीय लक्ष्मी प्राप्त कर संसार में पुन: राजा दशरथ के समान भाग्यशाली जीव होते हैं और सूर्य के समान कांति को धारण करते हुए समृद्धि को प्राप्त होते हैं ।।181।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य द्वारा कथित, पद्मचरित में सुकौशल स्वामी के महात्म्य से युक्त राजा दशरथ की उत्पत्ति का कथन करनेवाला बाईसवाँ पर्व समाप्त हुआ ।।22।।