द्रव्य लिंग: Difference between revisions
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<li class="HindiText"> भाव ही प्रथम लिंग है इसलिए हे भव्य जीव! तू '''द्रव्यलिंग''' को परमार्थरूप मत जान। और गुण दोष का कारणभूत भाव ही हैं, ऐसा जिन भगवान् कहते हैं।2। (<span class="GRef"> भावपाहुड़/मूल/6,7,48, 54, 55 </span>); (<span class="GRef"> योगसार (अमितगति)/5/57 </span>)। </li> | <li class="HindiText"> भाव ही प्रथम लिंग है इसलिए हे भव्य जीव! तू '''द्रव्यलिंग''' को परमार्थरूप मत जान। और गुण दोष का कारणभूत भाव ही हैं, ऐसा जिन भगवान् कहते हैं।2। (<span class="GRef"> भावपाहुड़/मूल/6,7,48, 54, 55 </span>); (<span class="GRef"> योगसार (अमितगति)/5/57 </span>)। </li> | ||
<li class="HindiText"> भाव ही स्वर्ग मोक्ष का कारण है। भाव से रहित श्रमण पाप स्वरूप है, तिर्यंच गति का स्थानक है और कर्ममल से मलिन है चित्त जिसका ऐसा है।74। जो भाव श्रमण हैं वे परंपरा कल्याण है जिसमें ऐसे सुखों को पाते हैं। जो द्रव्य श्रमण हैं वे मनुष्य कुदेव आदि योनियों में दु:ख पाते हैं।100।<br /> | <li class="HindiText"> भाव ही स्वर्ग मोक्ष का कारण है। भाव से रहित श्रमण पाप स्वरूप है, तिर्यंच गति का स्थानक है और कर्ममल से मलिन है चित्त जिसका ऐसा है।74। जो भाव श्रमण हैं वे परंपरा कल्याण है जिसमें ऐसे सुखों को पाते हैं। जो द्रव्य श्रमण हैं वे मनुष्य कुदेव आदि योनियों में दु:ख पाते हैं।100।<br /> | ||
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<span class="HindiText">अधिक जानकारी के लिये देखें [[ लिंग#3 | लिंग - 3]],5।</span> | |||
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Revision as of 12:27, 11 August 2023
भावपाहुड़/ मूल/2,74,100 भावो हि पढमलिंगं ण दव्वलिंगं च जाणपरमत्थं। भावो कारणभूदो गुणदोसाणं जिणा विंति।2। भावो वि दिव्वसिवसुक्खभायणे भाववज्जिओ सवणो। कम्ममलमलिणचित्तो तिरियालयभायणो पावो।74। पावंति भावसवणा कल्लाणपरंपराइं सोक्खाइं। दुक्खाइं दव्वसवणा णरतिरियकुदेवजोणीए।100। =
- भाव ही प्रथम लिंग है इसलिए हे भव्य जीव! तू द्रव्यलिंग को परमार्थरूप मत जान। और गुण दोष का कारणभूत भाव ही हैं, ऐसा जिन भगवान् कहते हैं।2। ( भावपाहुड़/मूल/6,7,48, 54, 55 ); ( योगसार (अमितगति)/5/57 )।
- भाव ही स्वर्ग मोक्ष का कारण है। भाव से रहित श्रमण पाप स्वरूप है, तिर्यंच गति का स्थानक है और कर्ममल से मलिन है चित्त जिसका ऐसा है।74। जो भाव श्रमण हैं वे परंपरा कल्याण है जिसमें ऐसे सुखों को पाते हैं। जो द्रव्य श्रमण हैं वे मनुष्य कुदेव आदि योनियों में दु:ख पाते हैं।100।
अधिक जानकारी के लिये देखें लिंग - 3,5।