तत्त्व: Difference between revisions
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<span class="GRef"> पंचाध्यायी /3/186 </span><span class="SanskritGatha">ततोऽनर्थांतरं तेभ्य: किंचिच्छुद्धमनीदृशम् । शुद्धं नव पदान्येव तद्विकारादृते परम् ।186। </span>=<span class="HindiText">शुद्ध तत्त्व कुछ उन तत्त्वों से विलक्षण अर्थांतर नहीं है, किंतु केवल नव संबंधी विकार को छोड़कर नव तत्त्व ही शुद्ध हैं। (<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/155 </span>)। </span></li> | <span class="GRef"> पंचाध्यायी /3/186 </span><span class="SanskritGatha">ततोऽनर्थांतरं तेभ्य: किंचिच्छुद्धमनीदृशम् । शुद्धं नव पदान्येव तद्विकारादृते परम् ।186। </span>=<span class="HindiText">शुद्ध तत्त्व कुछ उन तत्त्वों से विलक्षण अर्थांतर नहीं है, किंतु केवल नव संबंधी विकार को छोड़कर नव तत्त्व ही शुद्ध हैं। (<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/155 </span>)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> सात तत्त्व या नौपदार्थों में केवल जीव व अजीव ही प्रधान हैं</strong></span><br><span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/13/31 </span><span class="SanskritText">विकार्यविकारकोभयं पुण्यं तथा पापम्, आस्राव्यास्रावकोभयमास्रव:, संवार्यसंवारकोभयं संवर:, निर्जर्यनिर्जरकोभयं निर्जरा, बंध्यबंधकोभयं बंध:, मोच्यमोचकोभयं मोक्ष:, स्वयमेकस्य पुण्यपापास्रवसंवर-निर्जराबंधमोक्षानुपपत्ते:। तदुभयं च जीवाजीवाविति।</span> =<span class="HindiText">विकारी होने योग्य और विकार करने वाला दोनों पुण्य हैं तथा दोनों पाप हैं, आस्रव होने योग्य और आस्रव करने वाला दोनों आस्रव हैं, संवर रूप होने योग्य और संवर करने वाला दोनों संवर हैं; निर्जरा होने के योग्य और निर्जरा करने वाला दोनों निर्जरा हैं, बँधने के योग्य और बंधन करने वाला दोनों बंध हैं, और मोक्ष होने योग्य और मोक्ष करने वाला दोनों मोक्ष हैं; क्योंकि एक के ही अपने आप पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष की उत्पत्ति नहीं बनती। वे दोनों जीव और अजीव है। <br> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> सात तत्त्व या नौपदार्थों में केवल जीव व अजीव ही प्रधान हैं</strong></span><br><span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/13/31 </span><span class="SanskritText">विकार्यविकारकोभयं पुण्यं तथा पापम्, आस्राव्यास्रावकोभयमास्रव:, संवार्यसंवारकोभयं संवर:, निर्जर्यनिर्जरकोभयं निर्जरा, बंध्यबंधकोभयं बंध:, मोच्यमोचकोभयं मोक्ष:, स्वयमेकस्य पुण्यपापास्रवसंवर-निर्जराबंधमोक्षानुपपत्ते:। तदुभयं च जीवाजीवाविति।</span> =<span class="HindiText">विकारी होने योग्य और विकार करने वाला दोनों पुण्य हैं तथा दोनों पाप हैं, आस्रव होने योग्य और आस्रव करने वाला दोनों आस्रव हैं, संवर रूप होने योग्य और संवर करने वाला दोनों संवर हैं; निर्जरा होने के योग्य और निर्जरा करने वाला दोनों निर्जरा हैं, बँधने के योग्य और बंधन करने वाला दोनों बंध हैं, और मोक्ष होने योग्य और मोक्ष करने वाला दोनों मोक्ष हैं; क्योंकि एक के ही अपने आप पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष की उत्पत्ति नहीं बनती। वे दोनों जीव और अजीव है।</span> <br> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी /3/152 </span>तद्यथा नव तत्त्वानि केवलं जीवपुद्गलौ। स्वद्रव्याद्यैरनन्यत्वाद्वस्तुत: कर्तृकर्मणो:।152। =ये नव तत्त्व केवल जीव और पुद्गल रूप हैं, क्योंकि वास्तव में अपने द्रव्य क्षेत्रादिक के द्वारा कर्ता तथा कर्म में अन्यत्व है–अनन्यत्व नहीं है।</span></li> | <span class="GRef"> पंचाध्यायी /3/152 </span><span class="SanskritText">तद्यथा नव तत्त्वानि केवलं जीवपुद्गलौ। स्वद्रव्याद्यैरनन्यत्वाद्वस्तुत: कर्तृकर्मणो:।152। </span><span class="HindiText"> =ये नव तत्त्व केवल जीव और पुद्गल रूप हैं, क्योंकि वास्तव में अपने द्रव्य क्षेत्रादिक के द्वारा कर्ता तथा कर्म में अन्यत्व है–अनन्यत्व नहीं है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">शेष 5 तत्त्वों या 7 पदार्थों का आधार एक जीव ही है</strong> </span><br><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/29 </span><span class="SanskritText">आस्रवाद्या यतस्तेषां जीवोऽधिष्ठानमन्वयात् ।</span><br><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/155 </span><span class="SanskritGatha">अर्थान्नवपदीभूय जीवश्चैको विराजते। तदात्वेऽपि परं शुद्धस्तद्विशिष्टदशामृते।155। </span>=<span class="HindiText">आस्रवादि शेष तत्त्वों में जीव का आधार है।29। अर्थात् एक जीव ही जीवादिक नव पदार्थ रूप होकर के विराजमान है, और उन नव पदार्थों की अवस्था में भी यदि विशेष दशा की विवक्षा न की जावे तो केवल शुद्ध जीव ही अनुभव में आता है। (<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/138 </span>) </span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">शेष 5 तत्त्वों या 7 पदार्थों का आधार एक जीव ही है</strong> </span><br><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/29 </span><span class="SanskritText">आस्रवाद्या यतस्तेषां जीवोऽधिष्ठानमन्वयात् ।</span><br><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/155 </span><span class="SanskritGatha">अर्थान्नवपदीभूय जीवश्चैको विराजते। तदात्वेऽपि परं शुद्धस्तद्विशिष्टदशामृते।155। </span>=<span class="HindiText">आस्रवादि शेष तत्त्वों में जीव का आधार है।29। अर्थात् एक जीव ही जीवादिक नव पदार्थ रूप होकर के विराजमान है, और उन नव पदार्थों की अवस्था में भी यदि विशेष दशा की विवक्षा न की जावे तो केवल शुद्ध जीव ही अनुभव में आता है। (<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/138 </span>) </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> शेष 5 तत्त्व या सात पदार्थ जीव अजीव की ही पर्याय हैं</strong></span><br> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> शेष 5 तत्त्व या सात पदार्थ जीव अजीव की ही पर्याय हैं</strong></span><br> | ||
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<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/176,178 </span><span class="SanskritGatha">नावश्यं वाच्यता सिद्ध्येत्सर्वतो हेयवस्तुनि। नांधकारेऽप्रविष्टस्य प्रकाशानुभवो मनाक् ।176। न स्यात्तेभ्योऽतिरिक्तस्य सिद्धि: शुद्धस्य सर्वत:। साधनाभावतस्तस्य तद्यथानुपलब्धित:।178।</span> =<span class="HindiText">सर्वथा हेय वस्तु में अभावात्मक वस्तु में वाच्यता अवश्य सिद्ध नहीं हो सकती है। क्योंकि अंधकार में प्रवेश नहीं करने वाले मनुष्य को कुछ भी प्रकाश का अनुभव नहीं होता है।176। नौ पदार्थों से अतिरिक्त सर्वथा शुद्ध द्रव्य की सिद्धि नहीं हो सकती है क्योंकि साधन का अभाव होने से उस शुद्ध द्रव्य की उपलब्धि नहीं हो सकती।</span></li> | <span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/176,178 </span><span class="SanskritGatha">नावश्यं वाच्यता सिद्ध्येत्सर्वतो हेयवस्तुनि। नांधकारेऽप्रविष्टस्य प्रकाशानुभवो मनाक् ।176। न स्यात्तेभ्योऽतिरिक्तस्य सिद्धि: शुद्धस्य सर्वत:। साधनाभावतस्तस्य तद्यथानुपलब्धित:।178।</span> =<span class="HindiText">सर्वथा हेय वस्तु में अभावात्मक वस्तु में वाच्यता अवश्य सिद्ध नहीं हो सकती है। क्योंकि अंधकार में प्रवेश नहीं करने वाले मनुष्य को कुछ भी प्रकाश का अनुभव नहीं होता है।176। नौ पदार्थों से अतिरिक्त सर्वथा शुद्ध द्रव्य की सिद्धि नहीं हो सकती है क्योंकि साधन का अभाव होने से उस शुद्ध द्रव्य की उपलब्धि नहीं हो सकती।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> सप्त तत्त्व व नव पदार्थों के व्याख्यान का प्रयोजन शुद्धात्मोपादेयता</strong></span><br> <span class="GRef"> नियमसार/38 </span><span class="PrakritGatha">जीवादि बहित्तच्चं हेयमुवादेयमप्पणो अप्पा। कम्मोपाधिसमुब्भवगुणपज्जाएहिं वदिरित्तो।38। </span>=<span class="HindiText">जीवादि बाह्य तत्त्व हेय है, कर्मोपाधिजनित गुणपर्यायों से व्यतिरिक्त आत्मा, आत्मा को उपादेय है। </span><br> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> सप्त तत्त्व व नव पदार्थों के व्याख्यान का प्रयोजन शुद्धात्मोपादेयता</strong></span><br> <span class="GRef"> नियमसार/38 </span><span class="PrakritGatha">जीवादि बहित्तच्चं हेयमुवादेयमप्पणो अप्पा। कम्मोपाधिसमुब्भवगुणपज्जाएहिं वदिरित्तो।38। </span>=<span class="HindiText">जीवादि बाह्य तत्त्व हेय है, कर्मोपाधिजनित गुणपर्यायों से व्यतिरिक्त आत्मा, आत्मा को उपादेय है। </span><br> | ||
<span class="GRef"> इष्टोपदेश/ </span> | <span class="GRef"> इष्टोपदेश/ मूल/50 </span><span class="SanskritGatha">जीवोऽन्य: पुद्गलश्चान्य इत्यसौ तत्त्वसंग्रह:। यदन्यदुच्यते किंचित् सोऽस्तु तस्यैव विस्तर:।50। </span>=<span class="HindiText">जीव शरीरादिक पुद्गल से भिन्न है और पुद्गल जीव से भिन्न है यही तत्त्व का संग्रह है, इसके अतिरिक्त जो कुछ भी कहा जाता है वह सब इसही का विस्तार है।–देखें [[ सम्यग्दर्शन#II.3.3 | सम्यग्दर्शन - II.3.3 ]](पर व स्व में हेयोपादेय बुद्धि पूर्वक एक शुद्धात्मा का आश्रय करना)।<br> | ||
</span> मोक्ष पंचाशत्/37-38 <span class="SanskritText">जीवे जीवार्पितो बंध: परिणामविकारकृत् । आस्रवादात्मनोऽशुद्धपरिणामात्प्रजायते।37। इति बुद्धास्रवं रुद्ध्वा कुरु संवरमुत्तमम् । जहीहि पूर्वकर्माणि तपसा निर्वृत्तिं व्रज।38। </span>=<span class="HindiText">जीव में जीव के द्वारा किया गया बंध परिणामों में विकार पैदा करता है और आत्मा में अशुद्ध परिणामों में कर्मों का आस्रव होता है। ऐसा जानकर आस्रव को रोको, उत्तम संवर को करो, तप के द्वारा पूर्वाबद्ध कर्मों की निर्जरा करो और मोक्ष को प्राप्त करो। </span><br> | </span> <span class="GRef">मोक्ष पंचाशत्/37-38</span> <span class="SanskritText">जीवे जीवार्पितो बंध: परिणामविकारकृत् । आस्रवादात्मनोऽशुद्धपरिणामात्प्रजायते।37। इति बुद्धास्रवं रुद्ध्वा कुरु संवरमुत्तमम् । जहीहि पूर्वकर्माणि तपसा निर्वृत्तिं व्रज।38। </span>=<span class="HindiText">जीव में जीव के द्वारा किया गया बंध परिणामों में विकार पैदा करता है और आत्मा में अशुद्ध परिणामों में कर्मों का आस्रव होता है। ऐसा जानकर आस्रव को रोको, उत्तम संवर को करो, तप के द्वारा पूर्वाबद्ध कर्मों की निर्जरा करो और मोक्ष को प्राप्त करो। </span><br> | ||
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/ | <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा/मूल/204 </span> <span class="PrakritGatha">उत्तर-गुणाण धामं सव्व-दव्वाण उत्तमं दव्वं। तच्चाण परम-तच्चं जीवं जाणेणि णिच्छयदो।204।</span> =<span class="HindiText">जीव ही उत्तम गुणों का धाम है, सब द्रव्यों में उत्तम द्रव्य है और सब तत्त्वों में परम तत्त्व है, यह निश्चय से जानो।20। <br> | ||
</span><span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/389/490/8 </span><span class="SanskritText">व्यावहारिकनवपदार्थमध्ये भूतार्थनयेन शुद्धजीव एक एव वास्तव: स्थित इति। </span>=<span class="HindiText">व्यावहारिक नव पदार्थ में निश्चयनय से एक शुद्ध जीव ही वास्तव में उपादेय है। </span><br> | </span><span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/389/490/8 </span><span class="SanskritText">व्यावहारिकनवपदार्थमध्ये भूतार्थनयेन शुद्धजीव एक एव वास्तव: स्थित इति। </span>=<span class="HindiText">व्यावहारिक नव पदार्थ में निश्चयनय से एक शुद्ध जीव ही वास्तव में उपादेय है। </span><br> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/128-130/193/11 </span><span class="SanskritText"> रागादिपरिणामानां कर्मणश्च योऽसौ परस्परं कार्यकारणभाव: स एव वक्ष्यमाणपुण्यादिपदार्थानां कारणमिति ज्ञात्वा पूर्वोक्तसंसारचक्रविनाशार्थमव्याबाधानंतसुखादिगुणानां चक्रभूते समूहरूपे निजात्मस्वरूपे रागादिविकल्पपरिहारेण भावना कर्तव्येति। </span>=<span class="HindiText">रागादि परिणामों और कर्मों का जो परस्पर में कार्य कारण भाव है वही यहाँ वक्ष्यमाण पुण्यादि पदार्थों का कारण है। ऐसा जानकर संसार चक्र के विनाश करने के लिए अव्याबाध अनंत सुखादि गुणों के समूह रूप निजात्म स्वरूप में रागादि भावों के परिहार से भावना करनी चाहिए। <br> | <span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/128-130/193/11 </span><span class="SanskritText"> रागादिपरिणामानां कर्मणश्च योऽसौ परस्परं कार्यकारणभाव: स एव वक्ष्यमाणपुण्यादिपदार्थानां कारणमिति ज्ञात्वा पूर्वोक्तसंसारचक्रविनाशार्थमव्याबाधानंतसुखादिगुणानां चक्रभूते समूहरूपे निजात्मस्वरूपे रागादिविकल्पपरिहारेण भावना कर्तव्येति। </span>=<span class="HindiText">रागादि परिणामों और कर्मों का जो परस्पर में कार्य कारण भाव है वही यहाँ वक्ष्यमाण पुण्यादि पदार्थों का कारण है। ऐसा जानकर संसार चक्र के विनाश करने के लिए अव्याबाध अनंत सुखादि गुणों के समूह रूप निजात्म स्वरूप में रागादि भावों के परिहार से भावना करनी चाहिए। <br> | ||
</span><span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/38 </span><span class="SanskritText">निजपरमात्मानमंतरेण न किंचिदुपादेयमस्तीति। </span>=<span class="HindiText">निज परमात्मा के अतिरिक्त (अन्य) कुछ उपादेय नहीं है। </span><br> | </span><span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/38 </span><span class="SanskritText">निजपरमात्मानमंतरेण न किंचिदुपादेयमस्तीति। </span>=<span class="HindiText">निज परमात्मा के अतिरिक्त (अन्य) कुछ उपादेय नहीं है। </span><br> | ||
परमात्मप्रकाश/1/7/14/4 <span class="SanskritText">नवपदार्थेषु मध्ये शुद्धजीवास्तिकायशुद्ध जीवद्रव्य शुद्धजीवतत्त्वशुद्धजीवपदार्थसंज्ञस्वशुद्धात्मभावमुपादेयं तस्माच्चान्यद्धेयं। </span>=<span class="HindiText">नवपदार्थों में, शुद्ध जीवास्तिकाय निजशुद्ध जीवद्रव्य, निजशुद्ध जीवतत्त्व, निज शुद्ध जीवपदार्थ जो आप शुद्धात्मा है, वही उपादेय है, अन्य सब त्यागने योग्य है (<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/53/220/8 </span>)। <br> | <span class="GRef">परमात्मप्रकाश/1/7/14/4</span> <span class="SanskritText">नवपदार्थेषु मध्ये शुद्धजीवास्तिकायशुद्ध जीवद्रव्य शुद्धजीवतत्त्वशुद्धजीवपदार्थसंज्ञस्वशुद्धात्मभावमुपादेयं तस्माच्चान्यद्धेयं। </span>=<span class="HindiText">नवपदार्थों में, शुद्ध जीवास्तिकाय निजशुद्ध जीवद्रव्य, निजशुद्ध जीवतत्त्व, निज शुद्ध जीवपदार्थ जो आप शुद्धात्मा है, वही उपादेय है, अन्य सब त्यागने योग्य है (<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/53/220/8 </span>)। <br> | ||
</span><span class="GRef"> पंचाध्यायी /3/457 </span><span class="SanskritText">तत्रायं जीवसंज्ञो य: स्वयं (यं) वेद्यश्चिदात्मक:। सोऽहमन्ये तु रागाद्या हेया: पौद्गलिका अमी।457।</span> =<span class="HindiText">उन नव तत्त्वों में जो यह स्वसंवेदन प्रत्यक्ष का विषय चैतन्यात्मक और जीव संज्ञा वाला है वह मैं उपादेय हूँ तथा ये मुझसे भिन्न पौद्गलिक रागादिक भाव त्याज्य हैं। </span><br> | </span><span class="GRef"> पंचाध्यायी /3/457 </span><span class="SanskritText">तत्रायं जीवसंज्ञो य: स्वयं (यं) वेद्यश्चिदात्मक:। सोऽहमन्ये तु रागाद्या हेया: पौद्गलिका अमी।457।</span> =<span class="HindiText">उन नव तत्त्वों में जो यह स्वसंवेदन प्रत्यक्ष का विषय चैतन्यात्मक और जीव संज्ञा वाला है वह मैं उपादेय हूँ तथा ये मुझसे भिन्न पौद्गलिक रागादिक भाव त्याज्य हैं। </span><br> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह/ | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह/ चूलिका/28/82/5</span> <span class="SanskritText">हेयोपादेयतत्त्वपरिज्ञानप्रयोजनाथमास्रवादिपदार्था: व्याख्येया भवंति। </span>=<span class="HindiText">कौन तत्त्व हेय है और कौन तत्त्व उपादेय है इस विषय के परिज्ञान के लिए आस्रवादि तत्त्वों का व्याख्यान करने योग्य है। <br> | ||
<span class="GRef"> मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/331/13 </span>यहु जीव की क्रिया है, ताका पुद्गल निमित्त है, यहु पुद्गल की क्रिया है, ताका जीव निमित्त है इत्यादि भिन्न-भिन्न भाव भासे नाहीं...तातैं जीव अजीव जानने का प्रयोजन तो यही था। <br> | <span class="GRef"> मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/331/13 </span><br><span class="HindiText">यहु जीव की क्रिया है, ताका पुद्गल निमित्त है, यहु पुद्गल की क्रिया है, ताका जीव निमित्त है इत्यादि भिन्न-भिन्न भाव भासे नाहीं...तातैं जीव अजीव जानने का प्रयोजन तो यही था।</span> <br> | ||
<span class="GRef"> भावपाहुड़ टीका/114 </span> | <span class="GRef"> भावपाहुड़ टीका/114 पं.जयचंद</span><br><span class="HindiText">=प्रथम जीव तत्त्व की भावना करनी, पीछै ‘ऐसा मैं हूँ’ ऐसे आत्मतत्त्व की भावना करनी। दूसरे अजीव तत्त्व की भावना...करनी जो यह मैं...नाहीं हूँ। तीसरा आस्रव तत्त्व...तै संसार होय है ताते तिनिका कर्ता न होना। चौथा बंधतत्त्व...तै मेरे विभाव तथा पुद्गल कर्म सर्व हेय है...(अत:) मोकूं राग, द्वेष, मोह न करना। पाँचवाँ तत्त्व संवर है...सो अपना भाव है...याही करि भ्रमण मिटे है ऐसे इन पाँच तत्त्वनि की भावना करन में आत्मतत्त्व की भावना प्रधान है। (इस प्रकार) आत्मभाव शुद्ध अनुक्रम तै होना तो निर्जरा तत्त्व भया। और (तिन छह का फलरूप) सर्व कर्म का अभाव होना मोक्ष भया। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5"> अन्य संबंधित विषय</strong> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5"> अन्य संबंधित विषय</strong> | ||
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Revision as of 14:01, 7 September 2023
सिद्धांतकोष से
चौथे नरक का चौथा पटल–देखें नरक - 5।
तत्त्व―प्रयोजनभूत वस्तु के स्वभाव को तत्त्व कहते हैं। परमार्थ में एक शुद्धात्मा ही प्रयोजनभूत तत्त्व है। वह संसारावस्था में कर्मों से बँधा हुआ है। उसको उस बंधन से मुक्त करना इष्ट है। ऐसे हेय व उपादेय के भेद से वह दो प्रकार का है अथवा विशेष भेद करने से वह सात प्रकार का कहा जाता है। यद्यपि पुण्य व पाप दोनों ही आस्रव हैं, परंतु संसार में इन्हीं दोनों की प्रसिद्धि होने के कारण इनका पृथक् निर्देश करने से वे तत्त्व नौ हो जाते हैं।
- भेद व लक्षण
- सप्त तत्त्व व नव पदार्थ निर्देश
- तत्त्व वास्तव में एक है
- सात तत्त्व या नौपदार्थों में केवल जीव व अजीव ही प्रधान हैं
- शेष 5 तत्त्वों या 7 पदार्थों का आधार एक जीव ही है
- शेष 5 तत्त्व या सात पदार्थ जीव अजीव की ही पर्याय हैं
- जीव पुद्गल के निमित्त नैमित्तिक संबंध से इनकी उत्पत्ति होती है
- पुण्य पाप का आस्रव बंध में अंतर्भाव करने पर 9 पदार्थ ही सात तत्त्व बन जाते हैं
- पुण्य व पाप का आस्रव में अंतर्भाव
- तत्त्वोपदेश का कारण व प्रयोजन
- भेद व लक्षण
- तत्त्व का अर्थ
- वस्तु का निज स्वरूप
सर्वार्थसिद्धि/2/1/150/11 तद् भावस्तत्त्वम् । =जिस वस्तु का जो भाव है वह तत्त्व है। ( सर्वार्थसिद्धि/5/42/317/5 ); ( धवला 13/5,5,50/285/11 ); ( मोक्षमार्ग प्रकाशक/4/80/14 )।
राजवार्तिक/2/1/6/100/25 स्वं तत्त्वं स्वतत्त्वं, स्वोभावोऽसाधारणो धर्म:। =अपना तत्त्व स्वतत्त्व होता है, स्वभाव असाधारण धर्म को कहते हैं। अर्थात् वस्तु के असाधारण रूप स्वतत्त्व को तत्त्व कहते हैं।
समाधिशतक टी./35/235 आत्मनस्तत्त्वमात्मन: स्वरूपम् ।=आत्म तत्त्व अर्थात् आत्मा का स्वरूप।
समयसार / आत्मख्याति/356/491/1 यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति...इति तत्त्व संबंधे जीवति। =जिसका जो होता है वह वही होता है...ऐसा तात्त्विक संबंध जीवित होने से...। - यथावस्थित वस्तु स्वभाव
सर्वार्थसिद्धि/1/2/8/3 तत्त्वशब्दो भावसामान्यवाची। कथम् ? तदिति सर्वनामपदम् । सर्वनाम च सामान्ये वर्तते। तस्य भावस्तत्त्वम् । तस्य कस्य ? योऽर्थो यथावस्थितस्तथा तस्य भवनमित्यर्थ:। =तत्त्व शब्द भाव सामान्य वाचक है, क्योंकि ‘तत्’ यह सर्वनाम पद है और सर्वनाम सामान्य अर्थ में रहता है अत: उसका भाव तत्त्व कहलाया। यहाँ तत्त्व पद से कोई भी पदार्थ लिया गया है। आशय यह कि जो पदार्थ जिस रूप से अवस्थित है, उसका उस रूप होना यही यहाँ तत्त्व शब्द का अर्थ है। ( राजवार्तिक 1/2/1/19/9 ); ( राजवार्तिक 1/2/5/19/19 ); ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/56/150/16 ); ( स्याद्वादमंजरी/25/296/15 ) - सत्, द्रव्य, कार्य इत्यादि
नयचक्र/4 तच्चं तह परमट्ठ दव्वसहावं तहेव परमपरं। धेयं सुद्धं परमं एयट्ठा हुंति अभिहाणा।4। =तत्त्व, परमार्थ, द्रव्यस्वभाव, परमपरम, ध्येय, शुद्ध और परम ये सब एकार्थवाची शब्द हैं।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/561/1006 आर्या नं.1 प्रदेशप्रचयात्काया: द्रवणाद्-द्रव्यनामका:। परिच्छेद्यत्वतस्तेऽर्था: तत्त्वं वस्तु स्वरूपत:।1। =बहुत प्रदेशनि का प्रचय समूहकौं धरैं है तातैं काय कहिये। बहुरि अपने गुण पर्यायनिकौं द्रवैं है तातै द्रव्यनाम कहिए। जीवनकरि जानने योग्य हैं तातै अर्थ कहिए, बहुरि वस्तुस्वरूपपनाकौं धरै हैं तातैं तत्त्व कहिए।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/8 तत्त्वं सल्लाक्षणिकं सन्मात्रं वा यत: सवत: सिद्धम् । तस्मादनादिनिधनं स्वसहायं निर्विकल्पं च।8। =तत्त्व का लक्षण सत् है अथवा सत् ही तत्त्व है। जिस कारण से कि वह स्वभाव से ही सिद्ध है, इसलिए वह अनादि निधन है, वह स्वसहाय है और निर्विकल्प है। - अविपरीत विषय
राजवार्तिक/1/2/1/19/8 अविपरीतार्थविषयं तत्त्वमित्युच्यते। =अविपरीत अर्थ के विषय को तत्त्व कहते हैं। - श्रुतज्ञान के अर्थ में
धवला 13/5,5,50/285/11 तदिति विधिस्तस्य भावस्तत्त्वम् । कथं श्रुतस्य विधिव्यपदेश: ? सर्वनयविषयाणामस्तित्वविधायकत्वात् । तत्त्वं श्रुतज्ञानम् । =‘तत्’ इस सर्वनाम से विधि की विवक्षा है, ‘तत्’ का भाव तत्त्व है। प्रश्न–श्रुत की विधि संज्ञा कैसे है ? उत्तर–चूँकि वह सब नयों के विषय के अस्तित्व विधायक है, इसलिए श्रुत की विधि संज्ञा उचित ही है। तत्त्व श्रुतज्ञान है। इस प्रकार तत्त्व का विचार किया गया है।
- वस्तु का निज स्वरूप
- तत्त्वार्थ का अर्थ
नियमसार/9 जीवापोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं। तच्चत्था इदि भणिदा णाणागुणपज्जएहिं संजुत्ता।9। =जीव, पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म, काल और आकाश यह तत्त्वार्थ कहे हैं, जो कि विविधगुणपर्यायों से संयुक्त है।
सर्वार्थसिद्धि/1/2/8/5 अर्यत इत्यर्थो निश्चीयत इति यावत् । तत्त्वेनार्थस्तत्त्वार्थ: अथवा भावेन भाववतोऽभिधानम्, तदव्यतिरेकात् । तत्त्वमेवार्थस्तत्त्वार्थ:। =अर्थ शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है–अर्यते निश्चीयते इत्यर्थ:=जो निश्चय किया जाता है। यहाँ तत्त्व और अर्थ इन दोनों शब्दों के संयोग से तत्त्वार्थ शब्द बना है जो ‘तत्त्वेन अर्थ: तत्त्वार्थ’ ऐसा समास करने पर प्राप्त होता है। अथवा भाव द्वारा भाववाले पदार्थ का कथन किया जाता है, क्योंकि भाव भाववाले से अलग नहीं पाया जाता है। ऐसी हालत में इसका समास होगा ‘तत्त्वमेव अर्थ: तत्त्वार्थ:।’
राजवार्तिक/1/2/6/19/23 अर्यते गम्यते ज्ञायते इत्यर्थ:, तत्त्वेनार्थस्तत्त्वार्थ:। येन भावेनार्थो व्यवस्थितस्तेन भावेनार्थस्य ग्रहणं (तत्त्वार्थ:) ।=अर्थ माने जो माना जाये। तत्त्वार्थ माने जो पदार्थ जिस रूप से स्थित है उसका उसी रूप से ग्रहण। - तत्त्वों के 3,7 या 9 भेद
तत्त्वार्थसूत्र/1/4 जीवाजीवास्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ।7। =जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। (नयचक्र/150)।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/5/12/1 तत्त्वानि बहिस्तत्त्वांतस्तत्त्वपरमात्मतत्त्वभेदभिंनानि अथवा जीवाजीवास्रवसंवरनिर्जराबंधमोक्षाणां भेदात्सप्तधा भवंति। =तत्त्व बहिस्तत्त्व और अंतस्तत्त्व रूप परमात्म तत्त्व ऐसे (दो) भेदों वाले हैं। अथवा जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ऐसे भेदों के कारण सात प्रकार के हैं। (इन्हीं में पुण्य, पाप और मिला देने पर तत्त्व नौ कहलाते हैं)। नौ तत्त्वों का नाम निर्देश–देखें पदार्थ ।
- गरुड तत्त्व आदि ध्यान योग्य तत्त्व–देखें पृथिवी मंडल, वारुणी मंडल, वायु मंडल, अग्नि मंडल।
- परम तत्त्व के अपर नाम–देखें मोक्षमार्ग - 2.5।
- तत्त्व का अर्थ
- सप्त तत्त्व व नव पदार्थ निर्देश
- तत्त्व वास्तव में एक है
सर्वार्थसिद्धि/1/4/16/1 तत्त्वशब्दो भाववाचीत्युक्त:। स कथं जीवादिभिर्द्रव्यवचनै: समानाधिकरण्यं प्रतिपद्यते ? अव्यतिरेकात्तद्भावाध्यारोपाच्च समानाधिकरण्यं भवति। यथा उपयोग एवात्मा इति। यद्येवं तत्तलिंगसंख्यानुव्यतिक्रमो न भवति। =प्रश्न–तत्त्व शब्द भाववाची है इसलिए उसका द्रव्यवाची जीवादि शब्दों के साथ समानाधिकरण कैसे हो सकता है? उत्तर–एक तो भाव द्रव्य से अलग नहीं पाया जाता, दूसरा भाव में द्रव्य का अध्यारोप कर लिया जाता है इसलिए समानाधिकरण बन जाता है। जैसे–‘उपयोग ही आत्मा है’ इस वचन में गुणवाची उपयोग के साथ द्रव्यवाची आत्मा शब्द का समानाधिकरण है उसी प्रकार प्रकृत में जानना चाहिए। प्रश्न–यदि ऐसा है, तो विशेष्य का जो लिंग और संख्या है वही विशेषण को भी प्राप्त होते हैं ? उत्तर–व्याकरण का ऐसा नियम है कि ‘‘विशेषण विशेष्य संबंध के रहते हुए भी शब्द शक्ति की अपेक्षा जिसने जो लिंग और संख्या प्राप्त कर ली है उसका उल्लंघन नहीं होता’’ अत: यहाँ विशेष्य और विशेषण के लिंग के पृथक्-पृथक् रहने पर भी कोई दोष नहीं है। ( राजवार्तिक/1/4/29-30/27 )।
राजवार्तिक/2/1/16/101/27 औपशिमिकादिपंचतयभावसामानाधिकरण्यात्तत्त्वस्य बहुवचनं प्राप्तनोतीति; तन्न; किं कारणम् । भावस्यैकत्वात्, ‘तत्त्वम्’ इत्येष एको भाव:। =प्रश्न–औपशमिकादि पाँच भावों के समानाधिकरण होने से ‘तत्त्व’ शब्द के बहुवचन प्राप्त होता है। उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि सामान्य स्वतत्त्व की दृष्टि से यह एकवचन निर्देश है।
पंचाध्यायी /3/186 ततोऽनर्थांतरं तेभ्य: किंचिच्छुद्धमनीदृशम् । शुद्धं नव पदान्येव तद्विकारादृते परम् ।186। =शुद्ध तत्त्व कुछ उन तत्त्वों से विलक्षण अर्थांतर नहीं है, किंतु केवल नव संबंधी विकार को छोड़कर नव तत्त्व ही शुद्ध हैं। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/155 )। - सात तत्त्व या नौपदार्थों में केवल जीव व अजीव ही प्रधान हैं
समयसार / आत्मख्याति/13/31 विकार्यविकारकोभयं पुण्यं तथा पापम्, आस्राव्यास्रावकोभयमास्रव:, संवार्यसंवारकोभयं संवर:, निर्जर्यनिर्जरकोभयं निर्जरा, बंध्यबंधकोभयं बंध:, मोच्यमोचकोभयं मोक्ष:, स्वयमेकस्य पुण्यपापास्रवसंवर-निर्जराबंधमोक्षानुपपत्ते:। तदुभयं च जीवाजीवाविति। =विकारी होने योग्य और विकार करने वाला दोनों पुण्य हैं तथा दोनों पाप हैं, आस्रव होने योग्य और आस्रव करने वाला दोनों आस्रव हैं, संवर रूप होने योग्य और संवर करने वाला दोनों संवर हैं; निर्जरा होने के योग्य और निर्जरा करने वाला दोनों निर्जरा हैं, बँधने के योग्य और बंधन करने वाला दोनों बंध हैं, और मोक्ष होने योग्य और मोक्ष करने वाला दोनों मोक्ष हैं; क्योंकि एक के ही अपने आप पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष की उत्पत्ति नहीं बनती। वे दोनों जीव और अजीव है।
पंचाध्यायी /3/152 तद्यथा नव तत्त्वानि केवलं जीवपुद्गलौ। स्वद्रव्याद्यैरनन्यत्वाद्वस्तुत: कर्तृकर्मणो:।152। =ये नव तत्त्व केवल जीव और पुद्गल रूप हैं, क्योंकि वास्तव में अपने द्रव्य क्षेत्रादिक के द्वारा कर्ता तथा कर्म में अन्यत्व है–अनन्यत्व नहीं है। - शेष 5 तत्त्वों या 7 पदार्थों का आधार एक जीव ही है
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/29 आस्रवाद्या यतस्तेषां जीवोऽधिष्ठानमन्वयात् ।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/155 अर्थान्नवपदीभूय जीवश्चैको विराजते। तदात्वेऽपि परं शुद्धस्तद्विशिष्टदशामृते।155। =आस्रवादि शेष तत्त्वों में जीव का आधार है।29। अर्थात् एक जीव ही जीवादिक नव पदार्थ रूप होकर के विराजमान है, और उन नव पदार्थों की अवस्था में भी यदि विशेष दशा की विवक्षा न की जावे तो केवल शुद्ध जीव ही अनुभव में आता है। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/138 ) - शेष 5 तत्त्व या सात पदार्थ जीव अजीव की ही पर्याय हैं
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/128-130/192/11 यतस्तेऽपि तयो: एव पर्याया इति। =आस्रवादि जीव व अजीव की पर्याय हैं। द्रव्यसंग्रह व टी./28/85 आसवबंधण संवर णिज्जर सपुण्णपावा जे। जीवाजीवविसेसा तेवि समासेण पभणामो।28। चैतन्या अशुद्धपरिणामा जीवस्य, अचेतना: कर्मपुद्गलपर्याया अजीवस्येत्यर्थ:।
द्रव्यसंग्रह/ चूलिका/28/85/2 आस्रवबंधपुण्यपापपदार्था: जीवपुद्गलसंयोगपरिणामरूपविभावपर्यायेणोत्पद्यंते। संवरनिर्जरामोक्षपदार्था: पुनर्जीवपुद्गलसंयोगपरिणामविनाशोत्पन्नेन विवक्षितस्वभावपर्यायेणेति स्थितम् ।=जीव, अजीव के भेदरूप जो आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य तथा पाप ऐसे सात पदार्थ हैं।28। चेतन्य आस्रवादि तो जीव के अशुद्ध परिणाम हैं और जो अचेतन कर्मपुद्गलों की पर्याय हैं वे अजीव के हैं। आस्रव, बंध, पुण्य और पाप ये चार पदार्थ जीव और पुद्गल के संयोग परिणामस्वरूप जो विभाव पर्याय हैं उनसे उत्पन्न होते हैं। और संवर, निर्जरा तथा मोक्ष ये तीन पदार्थ जीव और पुद्गल के संयोगरूप परिणाम के विनाश से उत्पन्न जो विवक्षित स्वभाव पर्याय है, उससे उत्पन्न होते हैं, यह निर्णीत हुआ।
श्लोकवार्तिक 2/1/4/48/156/9 जीवाजीवौ हि धर्मिणौ तद्धर्मास्त्वास्रवादय इति। धर्मिधर्मात्मकं तत्त्वं सप्तविधमुक्तम् । =सात तत्त्वों में जीव और अजीव दो तत्त्व तो नियम से धर्मी हैं। तथा आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये पाँच उन जीव तथा अजीव के धर्म हैं। इस प्रकार दो धर्मी स्वरूप और पाँच धर्म स्वरूप ये सात प्रकार के तत्त्व उमास्वामी महाराज ने कहे हैं। - जीव पुद्गल के निमित्त नैमित्तिक संबंध से इनकी उत्पत्ति होती है।
द्रव्यसंग्रह/ चूलिका/28/81-82/9 कथंचित्परिणामित्वे सति जीवपुद्गलसंयोगपरिणतिनिर्वृत्तत्वादास्रवादिसप्तपदार्था घटंते। =इनके कथंचित् परिणामित्व (सिद्ध) होने पर जीव और पुद्गल के संयोग से बने हुए आस्रवादि सप्त पदार्थ घटित होते हैं।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/154 किंतु संबंधयोरेव तद्द्वयोरितरेतरम् । नैमित्तिकनिमित्ताभ्यां भावा नव पदा अमी।154। =परस्पर में संबंध को प्राप्त उन दोनों जीव और पुद्गलों के ही नैमित्तिक निमित्त संबंध से होने वाले भाव ये नव पदार्थ हैं। और भी–देखें ऊपर शीर्षक नं - 4। - पुण्य पाप का आस्रव बंध में अंतर्भाव करने पर 9 पदार्थ ही सात तत्त्व बन जाते हैं
द्रव्यसंग्रह/ चूलिका/28/81/11 नव पदार्था:। पुण्यपापपदार्थद्वयस्याभेदनयेन कृत्वा पुण्यपापयोर्बंधपदार्थस्य वा मध्ये अंतर्भावविवक्षया सप्ततत्त्वानि भण्यंते। =नौ पदार्थों में पुण्य और पाप दो पदार्थों का सात पदार्थों से अभेद करने पर अथवा पुण्य और पाप पदार्थ का बंध पदार्थ में अंतर्भाव करने पर सात तत्त्व कहे जाते हैं। - पुण्य व पाप का आस्रव में अंतर्भाव–देखें पुण्य - 2.4।
- तत्त्व वास्तव में एक है
- तत्त्वोपदेश का कारण व प्रयोजन
- सप्त तत्त्व निर्देश व उसके क्रम का कारण
सर्वार्थसिद्धि/1/4/14/6/ सर्वस्य फलस्यात्माधीनत्वात्तदनंतरमास्रवग्रहणम् । तत्पूर्वकत्वात्तदनंतरं बंधाभिधानम् । संवृतस्य बंधाभावात्तत्प्रत्यनीकप्रतिपत्त्यर्थं तदनंतरं संवरवचनम् । संवरे सति निर्जरोपपत्तेस्तदंतिके निर्जरावचनम् । अंते प्राप्यत्वांमोक्षस्यांते वचनम् ।...इह मोक्ष: प्रकृत: सोऽवश्यं निर्देष्टव्य:। स च संसारपूर्वक: संसारस्य प्रधानहेतुरास्रवो बंधश्च। मोक्षस्य प्रधानहेतु: संवरो निर्जरा च। अत: प्रधानहेतुहेतुमत्फलनिदर्शनार्थत्वात्पृथगुपदेश: कृत:। =सब फल जीव को मिलता है। अत: सूत्र के प्रारंभ में जीव का ग्रहण किया है। अजीव जीव का उपकारी है यह दिखलाने के लिए जीव के बाद अजीव का कथन किया है। आस्रव जीव और अजीव दोनों को विषय करता है अत: इन दोनों के बाद आस्रव का ग्रहण किया है। बंध आस्रव पूर्वक होता है, इसलिए आस्रव के बाद बंध का कथन किया है। संवृत जीव के बंध नहीं होता, अत: संवर बंध का उल्टा हुआ इस बात का ज्ञान कराने के लिए बंध के बाद संवर का कथन किया है। संवर के होने पर निर्जरा होती है इसलिए संवर के पास निर्जरा कही है। मोक्ष अंत में प्राप्त होता है। इसलिए उसका अंत में कथन किया है। अथवा क्योंकि यहाँ मोक्ष का प्रकरण है। इसलिए उसका कथन करना आवश्यक है। वह संसारपूर्वक होता है, और संसार के प्रधान कारण आस्रव और बंध हैं तथा मोक्ष के प्रधान कारण संवर और निर्जरा हैं अत: प्रधान हेतु, हेतुवाले और उनके फल के दिखलाने के लिए अलग-अलग उपदेश किया है। ( राजवार्तिक/1/4/3/25/6 )
द्रव्यसंग्रह/ चूलिका/28/82/3 यथैवाभेदनयेन पुण्यपापपदार्थद्वयस्यांतर्भावो जातस्तथैव विशेषाभेदनयविवक्षायामास्रवादिपदार्थानामपि जीवाजीवद्वयमध्येऽंतर्भावे कृते जीवाजीवौ द्वावेव पदार्थाविति। तत्र परिहार:–हेयोपादेयतत्त्वपरिज्ञानप्रयोजनार्थमास्रवादिपदार्था: व्याख्येया भवंति। तदेव कथयति–उपादेयतत्त्वमक्षयानंतसुखं तस्य कारणं मोक्षो। मोक्षस्य कारणं संवरनिर्जराद्वयं, तस्य कारणं विशुद्ध...निश्चयरत्नत्रयस्वरूपमात्मा।...आकुलोत्पादकं नारक आदि दु:खं निश्चयेनेंद्रियसुखं च हेयतत्त्वम् । तस्य कारणं संसार: संसारकारणमास्रवबंधपदार्थद्वयं, तस्य कारणं...मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रत्रयमिति। एवं हेयोपादेयतत्त्वव्याख्याने कृति सति सप्ततत्त्वनवपदार्था: स्वयमेव सिद्धा:। =प्रश्न–अभेदनय की अपेक्षा पुण्य पाप इन दो पदार्थों का सात पदार्थों में अंतर्भाव हुआ है उसी तरह विशेष अभेद नय की अपेक्षा से आस्रवादि पदार्थों का भी इन दो पदार्थों में अंतर्भाव कर लेने से जीव तथा अजीव दो ही पदार्थ सिद्ध होते हैं ? उत्तर–‘‘कौन तत्त्व हेय है और कौन तत्त्व उपादेय है’’ इस विषय का परिज्ञान कराने के लिए आस्रवादि पदार्थ निरूपण करने योग्य हैं। इसी को कहते हैं–अविनाशी अनंतसुख उपादेय तत्त्व है। उस अनंत सुख का कारण मोक्ष है, मोक्ष के कारण संवर और निर्जरा हैं। उन संवर और निर्जरा का कारण, विशुद्ध...निश्चय रत्नत्रय स्वरूप आत्मा है। अब हेयतत्त्व को कहते हैं–आकुलता को उत्पन्न करने वाला नरकगति आदि का दुख तथा इंद्रियों में उत्पन्न हुआ सुख हेय यानी–त्याज्य है, उसका कारण संसार है और उसके कारण आस्रव तथा बंध ये दो पदार्थ हैं, और उस आस्रव का तथा बंध का कारण पहले कहे हुए...मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान तथा मिथ्याचारित्र हैं। इस प्रकार हेय और उपादेय तत्त्व का निरूपण करने पर सात तत्त्व तथा नौ पदार्थ स्वयं सिद्ध हो गये हैं। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/128-130/192/11 )। - सप्त तत्त्व नव पदार्थ के उपदेश का कारण
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/127 एवमिह जीवाजीवयोर्वास्तवो भेद: सम्यग्ज्ञानिनां मार्गप्रसिद्धयर्थं प्रतिपादित इति। =यहाँ जीव और अजीव का वास्तविक भेद सम्यग्ज्ञानियों के मार्ग की प्रसिद्धि के हेतु प्रतिपादित किया गया है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/175 तदसत्सर्वतस्त्याग: स्यादसिद्ध: प्रमाणत:। तथा तेभ्योऽतिरिक्तस्य, शुद्धस्यानुपलब्धित:।175। =उक्त कथन ठीक नहीं है, क्योंकि उनका सर्वथा त्याग अर्थात् अभाव प्रमाण से असिद्ध है तथा उन नव पदार्थों को सर्वथा हेय मानने पर उनके बिना शुद्धात्मा की उपलब्धि नहीं हो सकती है। - हेय तत्त्वों के व्याख्यान का कारण
द्रव्यसंग्रह टीका/14/49/10 हेयतत्त्वपरिज्ञाने सति पश्चादुपादेयस्वीकारो भवतीति। =पहले हेय तत्त्व का ज्ञान होने पर फिर उपादेय पदार्थ स्वीकार होता है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/176,178 नावश्यं वाच्यता सिद्ध्येत्सर्वतो हेयवस्तुनि। नांधकारेऽप्रविष्टस्य प्रकाशानुभवो मनाक् ।176। न स्यात्तेभ्योऽतिरिक्तस्य सिद्धि: शुद्धस्य सर्वत:। साधनाभावतस्तस्य तद्यथानुपलब्धित:।178। =सर्वथा हेय वस्तु में अभावात्मक वस्तु में वाच्यता अवश्य सिद्ध नहीं हो सकती है। क्योंकि अंधकार में प्रवेश नहीं करने वाले मनुष्य को कुछ भी प्रकाश का अनुभव नहीं होता है।176। नौ पदार्थों से अतिरिक्त सर्वथा शुद्ध द्रव्य की सिद्धि नहीं हो सकती है क्योंकि साधन का अभाव होने से उस शुद्ध द्रव्य की उपलब्धि नहीं हो सकती। - सप्त तत्त्व व नव पदार्थों के व्याख्यान का प्रयोजन शुद्धात्मोपादेयता
नियमसार/38 जीवादि बहित्तच्चं हेयमुवादेयमप्पणो अप्पा। कम्मोपाधिसमुब्भवगुणपज्जाएहिं वदिरित्तो।38। =जीवादि बाह्य तत्त्व हेय है, कर्मोपाधिजनित गुणपर्यायों से व्यतिरिक्त आत्मा, आत्मा को उपादेय है।
इष्टोपदेश/ मूल/50 जीवोऽन्य: पुद्गलश्चान्य इत्यसौ तत्त्वसंग्रह:। यदन्यदुच्यते किंचित् सोऽस्तु तस्यैव विस्तर:।50। =जीव शरीरादिक पुद्गल से भिन्न है और पुद्गल जीव से भिन्न है यही तत्त्व का संग्रह है, इसके अतिरिक्त जो कुछ भी कहा जाता है वह सब इसही का विस्तार है।–देखें सम्यग्दर्शन - II.3.3 (पर व स्व में हेयोपादेय बुद्धि पूर्वक एक शुद्धात्मा का आश्रय करना)।
मोक्ष पंचाशत्/37-38 जीवे जीवार्पितो बंध: परिणामविकारकृत् । आस्रवादात्मनोऽशुद्धपरिणामात्प्रजायते।37। इति बुद्धास्रवं रुद्ध्वा कुरु संवरमुत्तमम् । जहीहि पूर्वकर्माणि तपसा निर्वृत्तिं व्रज।38। =जीव में जीव के द्वारा किया गया बंध परिणामों में विकार पैदा करता है और आत्मा में अशुद्ध परिणामों में कर्मों का आस्रव होता है। ऐसा जानकर आस्रव को रोको, उत्तम संवर को करो, तप के द्वारा पूर्वाबद्ध कर्मों की निर्जरा करो और मोक्ष को प्राप्त करो।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/मूल/204 उत्तर-गुणाण धामं सव्व-दव्वाण उत्तमं दव्वं। तच्चाण परम-तच्चं जीवं जाणेणि णिच्छयदो।204। =जीव ही उत्तम गुणों का धाम है, सब द्रव्यों में उत्तम द्रव्य है और सब तत्त्वों में परम तत्त्व है, यह निश्चय से जानो।20।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/389/490/8 व्यावहारिकनवपदार्थमध्ये भूतार्थनयेन शुद्धजीव एक एव वास्तव: स्थित इति। =व्यावहारिक नव पदार्थ में निश्चयनय से एक शुद्ध जीव ही वास्तव में उपादेय है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/128-130/193/11 रागादिपरिणामानां कर्मणश्च योऽसौ परस्परं कार्यकारणभाव: स एव वक्ष्यमाणपुण्यादिपदार्थानां कारणमिति ज्ञात्वा पूर्वोक्तसंसारचक्रविनाशार्थमव्याबाधानंतसुखादिगुणानां चक्रभूते समूहरूपे निजात्मस्वरूपे रागादिविकल्पपरिहारेण भावना कर्तव्येति। =रागादि परिणामों और कर्मों का जो परस्पर में कार्य कारण भाव है वही यहाँ वक्ष्यमाण पुण्यादि पदार्थों का कारण है। ऐसा जानकर संसार चक्र के विनाश करने के लिए अव्याबाध अनंत सुखादि गुणों के समूह रूप निजात्म स्वरूप में रागादि भावों के परिहार से भावना करनी चाहिए।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/38 निजपरमात्मानमंतरेण न किंचिदुपादेयमस्तीति। =निज परमात्मा के अतिरिक्त (अन्य) कुछ उपादेय नहीं है।
परमात्मप्रकाश/1/7/14/4 नवपदार्थेषु मध्ये शुद्धजीवास्तिकायशुद्ध जीवद्रव्य शुद्धजीवतत्त्वशुद्धजीवपदार्थसंज्ञस्वशुद्धात्मभावमुपादेयं तस्माच्चान्यद्धेयं। =नवपदार्थों में, शुद्ध जीवास्तिकाय निजशुद्ध जीवद्रव्य, निजशुद्ध जीवतत्त्व, निज शुद्ध जीवपदार्थ जो आप शुद्धात्मा है, वही उपादेय है, अन्य सब त्यागने योग्य है ( द्रव्यसंग्रह टीका/53/220/8 )।
पंचाध्यायी /3/457 तत्रायं जीवसंज्ञो य: स्वयं (यं) वेद्यश्चिदात्मक:। सोऽहमन्ये तु रागाद्या हेया: पौद्गलिका अमी।457। =उन नव तत्त्वों में जो यह स्वसंवेदन प्रत्यक्ष का विषय चैतन्यात्मक और जीव संज्ञा वाला है वह मैं उपादेय हूँ तथा ये मुझसे भिन्न पौद्गलिक रागादिक भाव त्याज्य हैं।
द्रव्यसंग्रह/ चूलिका/28/82/5 हेयोपादेयतत्त्वपरिज्ञानप्रयोजनाथमास्रवादिपदार्था: व्याख्येया भवंति। =कौन तत्त्व हेय है और कौन तत्त्व उपादेय है इस विषय के परिज्ञान के लिए आस्रवादि तत्त्वों का व्याख्यान करने योग्य है।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/331/13
यहु जीव की क्रिया है, ताका पुद्गल निमित्त है, यहु पुद्गल की क्रिया है, ताका जीव निमित्त है इत्यादि भिन्न-भिन्न भाव भासे नाहीं...तातैं जीव अजीव जानने का प्रयोजन तो यही था।
भावपाहुड़ टीका/114 पं.जयचंद
=प्रथम जीव तत्त्व की भावना करनी, पीछै ‘ऐसा मैं हूँ’ ऐसे आत्मतत्त्व की भावना करनी। दूसरे अजीव तत्त्व की भावना...करनी जो यह मैं...नाहीं हूँ। तीसरा आस्रव तत्त्व...तै संसार होय है ताते तिनिका कर्ता न होना। चौथा बंधतत्त्व...तै मेरे विभाव तथा पुद्गल कर्म सर्व हेय है...(अत:) मोकूं राग, द्वेष, मोह न करना। पाँचवाँ तत्त्व संवर है...सो अपना भाव है...याही करि भ्रमण मिटे है ऐसे इन पाँच तत्त्वनि की भावना करन में आत्मतत्त्व की भावना प्रधान है। (इस प्रकार) आत्मभाव शुद्ध अनुक्रम तै होना तो निर्जरा तत्त्व भया। और (तिन छह का फलरूप) सर्व कर्म का अभाव होना मोक्ष भया। - अन्य संबंधित विषय
- सप्त तत्त्व नव पदार्थ के व्याख्यान का प्रयोजन कर्ता कर्म रूप भेदविज्ञान–देखें ज्ञान - II.1।
- सप्त तत्त्व श्रद्धान का सम्यग्दर्शन में स्थान–देखें सम्यग्दर्शन - II.1।
- सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि के तत्त्वों का कर्तृत्व–देखें मिथ्यादृष्टि - 4।
- मिथ्यादृष्टि का तत्त्व विचार मिथ्या है–देखें मिथ्यादृष्टि - 3।
- तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान करने का उपाय–देखें न्याय ।
- सप्त तत्त्व निर्देश व उसके क्रम का कारण
पुराणकोष से
जीव आदि सात तत्त्व । तत्त्व सात है― जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । महापुराण 21.108, 24. 85-87, हरिवंशपुराण 58.21, पांडवपुराण 22.67, वीरवर्द्धमान चरित्र 16.32