हरिवंश पुराण - सर्ग 19: Difference between revisions
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<span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p> अथानंतर गौतम गणधर ने कहा कि है श्रेणिक ! अब | |||
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Revision as of 10:58, 18 September 2023
अथानंतर गौतम गणधर ने कहा कि है श्रेणिक ! अब वसुदेव को पृथिवी तथा विजयार्ध संबंधी चेष्टाओं का वर्णन करता हूँ सो सुन ॥1॥ राजा समुद्रविजय ने अपने आठ छोटे भाइयों के नवयौवन आने पर उनका राजपुत्रियों के साथ विवाह करा दिया ॥2॥ अक्षोभ्य ने धृति को, स्तिमितसागर ने उत्कृष्ट प्रभा को धारण करने वाली स्वयंप्रभा को, हिमवान ने सुनीता को, विजय ने सिता को, अचल ने प्रियालापा को, युवा तथा धीर वीर धारण ने प्रभावती को, पूरण ने कालिंगी को, और अभिचंद्र ने सुप्रभा को विवाहा । ये आठों स्त्रियाँ अक्षोभ्य आदि कुमारों की आठ महादेवियाँ थी तथा अनेकों स्त्रियों में प्रधान मानी गयी थीं ॥3-5॥ जो कला तथा अनेक गुणों में चतुर थे, अपनी-अपनी स्त्रियों से सहित थे और पारस्परिक प्रेम से आपस में बँधे हुए थे ऐसे उन सब भाइयों में परस्पर बेजोड़ प्रेम था ।꠰ 6 ॥ उस समय लक्ष्मी से सेवित वसुदेव, देव कुमार के समान जान पड़ते थे और बालक्रीड़ा से युक्त हो शौर्यपुरी नगरी में यथेच्छ क्रीड़ा करते थे ॥7॥ रूप, लावण्य, सौभाग्य, भाग्य और चतुराई से सागर तथा कामदेव के समान सुंदर वसुदेव जनता के चित्त को हरण करते थे ॥ 8॥ अतिशय उदार वसुदेव क्रम-क्रम से चार लोकपालों का मनोहर वेष रखकर पूर्व आदि दिशाओं में निकलते थे ॥9॥ जिनका शरीर सूर्य के समान देदीप्यमान था तथा मुख कमल चंद्रमा के समान सौम्य था ऐसे वसुदेव जब उस शौर्यपुर में बाहर निकलते थे तब स्त्रियों में बड़ी आकुलता उत्पन्न हो जाती थी ॥10॥ जिस प्रकार पूर्णचंद्र का उदय होने पर समुद्र की वेला में संघट्ट मच जाता है उसी प्रकार वसुदेव को देखने की इच्छा से नगर की स्त्रियों में संघट मच जाता था― उनकी बड़ी भोर इकट्ठी हो जाती थी ॥11॥ उनके बाहर निकलते ही देखने के लिए इच्छुक स्त्रियां अपने प्रारब्ध कार्यों को छोड़कर पृथिवी पर तो गलियों को रोक लेती थीं और ऊपर महलों के झरोखों को आच्छादित कर लेती थीं ॥ 12 ॥ वसुदेव के सौभाग्य से जिसका चित्त हरा गया था ऐसा समस्त नगर उस समय भीतर-बाहर उद्भ्रांत हो गया था तथा जहाँ-तहाँ एक वसुदेव की ही कथा सुनाई देती थी ॥13 ॥ तदनंतर किसी समय जिनके हृदय मात्सर्य से परिपूर्ण थे ऐसे वृद्ध जन राजा समुद्रविजय के पास जाकर तथा नमस्कार कर एकांत में इस प्रकार निवेदन करने लगे ॥14॥
उन्होंने कहा कि हे प्रभो! जिस प्रकार बालक के वचन चाहे युक्त हों चाहे अयुक्त, उन्हें पिता सुनता ही है उसी प्रकार आप हम लोगों को अभय देकर हमारे वचन सुनिए । हमारे वे वचन भले ही युक्त हों अथवा अयुक्त हों ॥ 15 ॥ हे नाथ ! आप मनुष्यों की रक्षा करते हैं इसलिए नृप हैं, पृथिवी की रक्षा करते हैं इसलिए भूप हैं और प्रजा को अनुरंजित करते हैं इसलिए आप ही राजा हैं ॥16॥ जिस प्रकार पहले आपके पिता के राज्य-काल में प्रजा सानंद तथा क्षुद्र उपद्रवों से रहित थी उसी प्रकार इस समय आपके राज्य-काल में भी प्रजा सानंद तथा क्षुद्र उपद्रवों से रहित है ॥17॥ यहाँ की उपजाऊ भूमि वर्षा के प्रतिबंध से रहित शालि, ब्रीहि आदि सब प्रकार के उत्तमोत्तम धान्यों के समूह से प्रतिवर्ष सफलता को धारण करती है ॥18॥ हे प्रभो ! जिस प्रकार खेती सफल रहती है उसी प्रकार वाणिज्य भी सफल रहता है । आपका राज्य व्यापारियों के क्रय विक्रय की अधिकता से अत्यधिक संपन्न हो रहा है ॥19॥ घट के समान बड़े-बड़े स्तनों को धारण करने वाली एवं हरे-भरे तृणों से संतुष्ट बहुत-सी गायें, भैंसे और उत्तमजाति की धेनुएँ निरंतर घड़े भर-भरकर दूध देती हैं ॥20॥ घर के उपयोग के लिए साधारण रीति से तैयार किया हुआ थोड़ा-सा अन्न भी, दान के समय धर्मात्माओं के भोजन में आने से सायंकाल तक भी समाप्त नहीं होता ॥21॥ हे नाथ ! साठ संवत्सरीरूप जो वस्तु है उसमें स्वभाव वश ही अन्यथा परिणमन होता रहता है परंतु आपके प्रभाव से हम लोगों का तो दुंदुभि नामक काल ही चिरकाल से स्थिर है । भावार्थ― ज्योतिषशास्त्र के अनुसार साठ संवत्सर होते हैं जो क्रम से परिवर्तित होते रहते हैं, उनमें हानिलाभ सभी कुछ होते हैं । परंतु उन संवत्सरों में एक दुंदुभि नाम का संवत्सर भी होता है जिसमें प्रजा का समय आनंद से बीतता है । प्रजा के लोग राजा समुद्रविजय से कह रहे हैं कि यद्यपि संवत्सर परिवर्तनशील हैं परंतु हमारे लिए आपके प्रभाव से दुंदुभि नामक संवत्सर ही चिरस्थायी होकर आया है ॥22 ॥ हे राजन् ! इस प्रकार सुख के रहते हुए थोड़ा-सा दुःख भी है परंतु जिस प्रकार अपना पेट फाड़कर नहीं दिखाया जा सकता उसी प्रकार वह थोड़ा-सा दुःख भी नहीं प्रकट किया जा सकता ॥ 23 ॥
इस प्रकार सुनकर राजा समुद्रविजय ने नगर के वृद्धजनों से कहा कि यदि आप लोग हमारा हित चाहते हैं तो निर्भय होकर वह दुःख कहिए ॥24॥ क्योंकि हृदय में रहने वाली छोटी-सी मानसिक व्यथा भी शारीरिक व्यथा के ही समान, प्राण-रक्षा का कारण जो अन्न है उसे भी छुड़ा देती है इसमें संशय नहीं है । भावार्थ― मानसिक पीड़ा के कारण मनुष्य खाना-पीना भी छोड़ देता है ॥25॥ इस प्रकार समुद्रविजय के कहने पर प्रजा के लोग विश्वस्त हो कहने लगे । उन्होंने कहा कि हे राजन् ! हमारी विज्ञप्ति, विज्ञप्ति नहीं किंतु दुर्विज्ञप्ति है परंतु प्रजा के हित के लिए उसे अवश्य सुनिए ॥26॥ वसुदेव कुमार प्रतिदिन नगर से बाहर निकलते हैं जिससे नगर की स्त्रियाँ उनका रूप देखकर पागल-सी हो जाती हैं और अपने शरीर की सुध-बुध भूल जाती हैं ॥27॥ कुमार के बाहर निकलने और भीतर प्रवेश करने के समय स्त्रियाँ इंद्रियों से रहित जैसी हो जाती हैं इसलिए वे न अन्य किसी को देखती हैं और न अन्य कुछ सुनती हैं ॥28॥ स्त्रियों के अपने करने योग्य दूसरे काम तो दूर रहें परंतु रागांध होकर वे छोटे-छोटे बच्चों के लिए स्तन देना दूध पिलाना भी भूल जाती हैं ॥29॥ हे राजन् ! यद्यपि कुमार वसुदेव, अत्यंत सुंदर, धीर वीर, स्वभाव से स्वच्छ हृदय के धारक, सर्वप्रकार से विशुद्ध आत्मा से युक्त और शील के शिरोमणि हैं ॥30॥ यह समस्त पृथिव तल पर किसे नहीं विदित है ? फिर भी हम क्या करें ? नगरवासियों का चित्त उद्भ्रांत हो रहा है ॥ 31 ॥ हे स्वामिन् ! हम लोगों ने अपनी मनोव्यथा कही अब यहाँ जो कुछ करना उचित हो तथा जिससे नगर और कुमार दोनों का परिणाम अच्छा हो वह आप ही कहिए ॥32 ॥ राजा समुद्रविजय ने नगरवासियों की बात सुनकर चिरकाल तक अपने-आप में उसका विचार किया, उसके बाद सबको आश्वासन देकर विदा किया और आश्वासन पाकर नगरवासी यथास्थान चले गये ॥33॥
उसी समय भाई वसुदेव ने चिरकाल तक भ्रमण करने के बाद आकर राजा समुद्रविजय को प्रणाम किया । समुद्रविजय ने उनका आलिंगन कर गोद में बैठाया और स्नेह से मस्तक सूँघते हुए कहा कि कुमार! तुम चिरकाल तक वन के मध्य में भ्रमण करने से अत्यंत थक गये हो । देखो, तुम्हारा वर्ण फी का पड़ गया है और तुम भूख-प्यास से पीड़ित जान पड़ते हो । इतनी देर तुमने किसलिए की ? वायु तथा घाम से तुम मुरझा गये हो, तुम्हारे सिर का सेहरा भी कांतिहीन हो गया है, तुम घूमने के ऐसे शौकीन हो कि शरीर के खेद की परवाह न कर घूमते रहते हो ? अब आज से स्नान तथा भोजन के समय का उल्लंघन नहीं करना तथा आज से अंतःपुर के भीतर जो बग़ीचा है उसी में क्रीड़ा करना ॥34-37॥ इस प्रकार राजा समुद्रविजय भक्ति से भरे हुए छोटे भाई वसुदेव को समझाकर तथा हाथ पकड़कर सात कक्षाओं से घिरे हुए शिवादेवी के महल में प्रविष्ट हुए ॥38॥ वहाँ वसुदेव के साथ ही उन्होंने स्नान किया, भोजन किया तथा वे वहीं रहे इस बात की स्वयं ऐसी व्यवस्था कर दी कि जिसका वसुदेव को कुछ भी संकेत मालूम नहीं हुआ । यह सब कर राजा समुद्रविजय सुखी हुए― निश्चिंत हो गये ॥39॥ और कुमार वसुदेव भी शिवादेवी के बगीचों में नाट्य-संगीत आदि विनोदों से क्रीड़ा करते हुए सदा रहने लगे ॥40॥
अथानंतर एक दिन अंतःपुर की एक कुब्जा दासी शिवादेवी के लिए विलेपन लिये जा रही थी सो कुमार ने उसे तंग कर छीन लिया । इससे रुष्ट होकर कुब्जा ने कहा कि कुमार ! ऐसी ही चेष्टाओं से तुम इस प्रकार बंधनागार को प्राप्त हो― कैद किये गये हो ॥ 41-42॥ कुब्जा की बात सुनकर शंका युक्त हो वसुदेव ने उससे पूछा कि कुब्जे ! तूने यह क्या कहा ?-तेरे कहने का क्या तात्पर्य है ? तब उसने राजा की जो सलाह थी वह ज्यों की त्यों कुमार को बता दी ॥43॥ तदनंतर हमारे प्रति धोखा किया गया यह जानकर कुमार राजा से विमुख हो गये । वे चतुर तो थे ही इसलिए छलपूर्वक घर से तथा नगर से बाहर निकल गये ॥44॥ वे मंत्रसिद्धि का बहाना बना एक नौकर को साथ लेकर रात्रि के समय श्मशान में गये । वहाँ नौकर को एक स्थानपर बैठाकर तथा जब मैं पुकारूँ उत्तर देना ऐसा संकेत कर कुछ दूर अकेले गये । वहाँ एक मुर्दा को अपने आभूषणों से अलंकृत कर तथा उसे एक चिता पर रखकर उन्होंने कहा कि पिता के समान पूज्य राजा और चुगली करने वाले नगरवासी संतुष्ट होकर चिरकाल तक सुख से जीवित रहें; मैं अग्नि में प्रविष्ट हो रहा हूँ । इस प्रकार जोर से कहकर तथा दौड़कर अग्नि में प्रवेश किया है यह दिखाकर अंतर्हित हो दूर चले गये । इस घटना के बाद वह नौकर भी नगर में वापस आ गया ॥45-48॥ नौकर द्वारा वसुदेव का वृत्तांत कहे जाने पर राजा समुद्रविजय उसी समय नगरवासी, अंतःपुर, भाई तथा अन्य यदुवंशियों के साथ श्मशान गये । उस समय सबके मुख से रोने की ध्वनि निकल रही थी । जब प्रातःकाल राख में कुमार के आभूषण देखे तब कुमार निश्चित ही मर गये हैं यह जानकर सब रोने लगे । राजा समुद्रविजय पश्चात्ताप से पीड़ित हो बहुत दुःखी हुए । उन्होंने मरणोत्तर काल की सब क्रियाएं की, अपने-आपकी बहुत निंदा की और हम भाई से वंचित हुए हैं इस खेद से उनका उद्यम कुछ मंद पड़ गया ॥49-51॥
इधर धीर-वीर वसुदेव निःशंक हो पश्चिम दिशा को ओर चल पड़े और एक ब्राह्मण का वेष रखकर बहुत योजन दूर निकल गये ॥52॥ चलते-चलते वे देवों के नगर के समान सुंदर विजयखेट नामक नगर में पहुंचे । वहाँ क्षत्रियवंश में उत्पन्न सुग्रीव नाम का एक गंधर्वाचार्य रहता था । वह गंधर्वाचार्य संगीत विद्या के इच्छुक मनुष्यों का बड़ा उपकारी था तथा वसुदेव का रूप देखकर उनका वशीभूत जैसा हो गया ॥53-54॥ उस गंधर्वाचार्य की, रूप में अपनी शानी न रखने वाली चंद्रमुखी सोमा और विजयसेना नाम की दो उत्तम पुत्रियां थीं । ये पुत्रियां सौंदर्य की परम सीमा को प्राप्त हुई-सी जान पड़ती थीं ॥55॥ ये कन्याएँ गंधर्व आदि कलाओं की परम सीमा को प्राप्त थीं इसलिए उनके पिता सुग्रीव ने अभिमानवश ऐसा विचार कर लिया था कि जो गंधर्व-विद्या में इन दोनों को जीतेगा वही इनका भर्ता होगा ॥56॥ लक्ष्यलक्षण के योग से अन्यत्र जिन-जिन विषयों में उन दोनों कन्याओं की जीत हुई थी उन्हीं-उन्हीं विषयों में सभा के बीच वसुदेव ने उन कन्याओं को पराजित कर दिया ॥ 57॥ तदनंतर सुग्रीव ने संतुष्ट होकर अपनी दोनों कन्याएँ वसुदेव के लिए दे दी । वसुदेव उन्हें विवाह कर महल की उत्तम भूमियों में आनंदपूर्वक क्रीड़ा करने लगे ॥58॥ शूरवीरता ही जिनकी सहायक थी ऐसे वसुदेव, विजयसेना नामक स्त्री में अकर नामक पुत्र उत्पन्न कर अज्ञात रूप से बाहर निकल गये ॥ 59॥
मार्ग के अनुसार भ्रमण करते हुए उन्होंने एक बहुत बड़ी अटवी में प्रवेश किया और वहाँ हंस, सारस तथा कमलों से सुशोभित एक सुंदर सरोवर देखा ॥60॥ जलावर्त नाम के उस महासरोवर में प्रवेश कर वसुदेव ने ठंडा पानी पिया तथा चिरकाल तक स्नान किया ॥61 ॥ तदनंतर अतिशय उन्नत शरीर के धारक वसुदेव ने वहाँ जल को इस तरह बजाया कि जिससे मृदंग के समान शब्द निकलता था । उस शब्द को सुनकर वहाँ सोया हुआ एक बड़ा हाथी उठकर खड़ा हो गया ॥62 ॥ मारने के लिए आने वाले उस हाथी को छलकर अतिशय चतुर वसुदेव उसके दांतों के अग्रभाग पर झूला-सा झूलते हुए क्रीड़ा करने लगे॥63॥ तदनंतर जो चंद्रमा के समान जल के कणों से सुशोभित था, ऐसे निश्चल खड़े हुए उस हाथी को वश कर जितेंद्रिय वसुदेव हाथ से उसका आस्फालन करते हुए उस पर सवार हो गये ॥64॥ उस समय एकाकी वसुदेव स्वयं आश्चर्य से चकित हो तथा हाथ ऊपर को उठा सिर हिलाते हुए । मन में इस प्रकार विचार करने लगे कि मेरा यह कार्य अरण्यरोदन जैसा हुआ ॥65॥ यदि यह हस्ति क्रीड़ा शौर्यपुर में हुई होती तो लोग धन्यवाद से मुखर हो जाते अथवा यह संसार धन्यवाद की ध्वनि से गूंज उठता ॥66॥
वसुदेव इस प्रकार विचार कर रहे थे कि उसी समय सौम्यरूप के धारक दो धीर-वीर विद्याधरकुमार हाथी के मस्तक से उन्हें हर ले गये ॥67॥ और विजयार्ध पर्वत के कुंजरावत नगर में ले जाकर उसके सर्वकामिक नामक बाह्य उपवन में छोड़ दिया ॥68॥ वहाँ जब वसुदेव अशोक वृक्ष के नीचे शोक और क्लेश से रहित सुख से बैठ गये तब उन दोनों विद्याधर कुमारों ने नमस्कार कर कहा कि ॥69॥ हे स्वामिन् ! तुम अशनिवेग नामक विद्याधर राजा की आज्ञा से यहाँ लाये गये हो । उसे तुम अपना श्वसुर समझो ॥70॥ मैं अचिमाली नाम का कुमार हूँ और यह दूसरा वायुवेग है । इस तरह वसुदेव से कहकर उनमें से एक तो नगर को ओर चला गया और एक रक्षा करता हुआ वहीं खड़ा रहा ॥71 ॥ हे स्वामिन् ! आप भाग्य से बढ़ रहे हैं । हाथी को मर्दन करने वाला, धीर-वीर, शूरवीर, सुंदर, विनीत और नवयौवन से सुशोभित वह कुमार यहाँ लाया जा चुका है इस प्रकार नमस्कार कर जब उसने राजा से कहा तो राजा आनंद से विभोर हो गया । उसने मात्र वस्त्र शेष रखकर शरीर पर के सब आभूषण उसे पुरस्कार में दे दिये ॥72-73॥ तदनंतर जिसका शरीर अलंकृत था और नगर के नर-नारी जिसे बड़ी उत्सुकता से देख रहे थे ऐसे वसुदेव को राजा ने मंगलाचार पूर्वक नगर में प्रविष्ट कराया ॥ 74॥ वहाँ उत्तम तिथि, नक्षत्र, मुहूर्त और करण का उदय होने पर वसुदेव ने राजा अशनिवेग को यौवनवती श्यामा नामक कन्या को विवाहा ॥75॥ जो कलाओं और गुणों में अत्यंत चतुर थी ऐसी उस कन्या के साथ वसुदेव इच्छानुसार क्रीड़ा करने लगे । अधिक क्या कहें उस समय वसुदेव उसके अतिशय देदीप्यमान मुखरूपी कमल के भ्रमर हो गये ॥76॥
एक दिन उसने सत्रह तार वाली वीणा बजायी जिससे वसुदेव बहुत ही प्रसन्न हुए और प्रसन्न होकर बोले कि प्रिये ! तुम शीघ्र ही वर मांगो ॥77॥ इसके उत्तर में उसने नमस्कार कर वसुदेव से यह उत्तम वर माँगा कि हे स्वामिन् ! चाहे दिन हो चाहे रात्रि, आप मेरे बिना अकेले न रहें यही उत्तम वर मुझे दीजिए ॥ 78॥ हे प्रिय ! मेरे इस वरदान के मांगने का कारण भी सुनिए ? वह कारण यही है कि मेरा शत्रु अंगारक अवसर पाकर तुम्हें हर ले जा सकता है यह भय मुझे लगा हुआ है ॥ 79 ॥ इसका स्पष्ट विवरण इस प्रकार है । विजयार्ध पर्वत की इस दक्षिण श्रेणी पर, किन्नर देव जिसके सद्गुणों की प्रशंसा करते हैं तथा जो विजयार्ध पर्वत के मुकुट के समान जान पड़ता है ऐसा किन्नरोद्गीत नाम का नगर है ॥80॥ उस नगर में विद्याधरों पर पूर्ण शासन चलाने वाला अचिमाली नाम का राजा था । उसकी प्रभावती स्त्री है और उसके ज्वलनवेग तथा अशनिवेग नाम के दो पुत्र हैं ॥81॥ राजा अचिमाली, बड़े पुत्र के लिए राज्य तथा प्रज्ञप्ति विद्या और छोटे पुत्र के लिए युवराज पद देकर अरिंदम गुरु के पास दीक्षित हो गया ॥82॥ हे नाथ ! आगे चलकर राजा ज्वलनवेग की विमला रानी के अंगारक नाम का पुत्र हुआ और युवराज अशनिवेग को सुप्रभा स्त्री से मैं श्यामा नाम की पुत्री हुई ॥83॥ तत्पश्चात् राजा ज्वलनवेग ने भी मेरे पिता अशनिवेग के लिए राज्य और अपने पुत्र के लिए प्रज्ञप्ति विद्या देकर कल्याण दायिनी जिनदीक्षा ग्रहण कर ली ॥84॥ युवराज अंगारक प्रकृति का बड़ा दुष्ट तथा गर्वीला है इसलिए उस पापी ने हमारे पिता को शीघ्र ही देश से निकालकर राज्य छीन लिया है ॥85॥ हे नरकुंजर ! अब मेरे पिता राज्य से भ्रष्ट हो इसी कुंजरावत नगर में रहते हैं और पिंजड़े में स्थित पक्षी के समान निरंतर चिंता से दुःखी रहते हैं ॥ 86 ॥
किसी दिन मेरे पिता कैलास पर्वत पर गये थे वहाँ पर्वत पर आये हुए एक चारण ऋद्धिधारी मुनिराज के दर्शन कर पिता ने उन्हें नमस्कार किया । तदनंतर मुनिराज को त्रैलोक्यदर्शी जानकर पिता ने पूछा कि हे भगवन् ! आप तो अवधिज्ञानरूपी नेत्र से मेरे राज्य को अवश्य ही देख रहे हैं । हे नाथ ! कृपा कर कहिए मुझे पुनः राज्य प्राप्त होगा या नहीं? ॥87-88 । इसके उत्तर में मुनिराज ने अतिशय निर्मल अवधिज्ञानरूपी दिव्य नेत्र को खोलकर कहा कि जो तुम्हारी श्यामा नाम की कन्या है उसके पति के द्वारा तुम्हें पुनः राज्य की प्राप्ति होगी ॥ 89॥ पिता ने इसके उत्तर में पुनः पूछा कि हे नाथ ! श्यामा कन्या का पति कौन होगा ? यह स्पष्ट किस तरह जाना जावेगा ? तब मुनिराज ने कहा कि जलावर्त नामक सरोवर में जो मदोन्मत्त हाथी के मद का मर्दन करेगा वही तुम्हारी श्यामा कन्या का पति होगा, यही उसकी पर्याप्त पहचान है । मुनिराज के आदेश से उसी समय से पिता ने जलावर्त नामक सरोवर पर आपकी स्थिति का अन्वेषण करने के लिए दो विद्याधर नियुक्त कर दिये ॥90-91 ॥ ओर उसके फलस्वरूप शीघ्र ही आपकी प्राप्ति हो गयी है । हे नाथ ! आप मेरे मनरूपी रथ के सारथी हैं― उसे आगे बढ़ाने वाले हैं । यथार्थ में मुनिराज के वचन कभी मिथ्या नहीं होते ॥92॥ अंगारक को इस वृत्तांत का निश्चित ही पता चल गया होगा क्योंकि वह हम लोगों से सदा द्वेष रखता है और हम लोगों को नष्ट करने के लिए सदा धूमिल अग्नि के समान उद्यत रहता है ॥ 93 ॥ वह महाविद्या के बल से उद्धत है और आप विद्या में कुशल नहीं हैं । यद्यपि मैं विद्या से युक्त होने के कारण आपको रक्षा करने में समर्थ हूँ तो भी यदि कदाचित् आप मेरे बिना रहेंगे तो वह आपको हर ले जा सकता है । हे नाथ ! इसी भय के कारण मैंने आप से वर मांगा है कि आप चाहे दिन हो चाहे रात, कभी मेरे बिना न रहें ॥94॥ श्यामा के उक्त वचन सुनकर वसुदेव ने कहा कि ऐसा ही हो इसमें क्या दोष है । यह कहकर मंद-मंद हंसते हुए वसुदेव ने मुस्कुराती हुई प्रिया का गाढ़ आलिंगन किया ॥95 ॥ वहाँ रहकर वसुदेव ने ईर्ष्या रहित हो विद्याधर लोक संबंधी सुंदर गंधर्व विद्या को विशेषता के साथ सीखा ॥96॥
तदनंतर उन दोनों का समय सदा सावधानी के साथ बीत रहा था । एक दिन रात्रि के समय चिरकाल तक संभोग क्रीड़ा से खिन्न होकर दोनों सोये हुए थे ॥97॥ कि अंगारक ने स्वच्छंदता से आकर उनके आलिंगन संबंधी बंधन को अलग कर दिया और जिस प्रकार गरुड़ सांप को ले उड़ता है उसी प्रकार वह श्यामा की शय्या से राजा वसुदेव को ले उड़ा ॥98॥ अपने आपको हरा हुआ जानकर वसुदेव ने आकाश में उस विद्याधर से कहा कि अरे पापी ! तू कौन मुझे हरे लिये जा रहा है छोड़-छोड़ ॥99॥ यद्यपि वसुदेव ने उसे जान लिया था कि यह श्यामा के द्वारा बताये हुए आकार को धारण करने वाला शत्रु अंगारक है फिर भी आकाश से नीचे गिरने की आशंका से उन्होंने उसे मुठ्ठियों की मार से मारा नहीं ॥100॥ इतने में ही सहसा जागकर तथा तलवार और ढाल हाथ में ले वीरांगना श्यामा ने बड़े वेग से जाकर उसे रोका ॥101 श्यामा ने ललकारते हुए कहा कि ठहर, ठहर, अरे दुराचारी, निर्दय ! चोर विद्याधर ! तू मेरे जीवित रहते हुए मेरे प्राणनाथ को कैसे हर सकता है ? ॥102॥ तू राज्य पर बैठकर भी संतुष्ट नहीं हुआ । सदा हमारे दुःख का ध्यान रखता है ! तू आज मुझे चिरकाल बाद दिखा है, जाता कहां है ? तू अभी मारा जाता है ॥103॥ यह कहकर श्यामा ने उसका मार्ग रोक लिया और तलवार उभार कर वह उसके आगे खड़ी हो गयी । तदनंतर राक्षस के समान रुक्ष वचनों का प्रयोग करने वाला शत्रु अपनी रक्षा करता हुआ श्यामा से बोला ॥104॥ अरी नीच श्यामा ! संसार में स्त्री का मारना निंदित समझा जाता है इसलिए तू सामने से हट जा । तू मेरी बहन भी है अतः तुझे मारने के लिए मेरा हाथ कैसे उठे ? ॥105॥ अथवा कार्य के इच्छुक मनुष्यों के लिए क्या स्त्री ? क्या बहन ? क्या भाई ? उन्हें तो जो वैरी अपना घात करे उसका अवश्य ही घात करना चाहिए इसमें कुछ भी अपयश नहीं है ॥106॥ क्या पुरुषों को मारने वाली सिंही और व्याघ्री नहीं मारी जाती? इसलिए न्याय का विचार करना व्यर्थ है । यदि तुझ में पौरुष है तो मार ॥107॥
तदनंतर जिसने विद्यारूपी शाखा के बल से उठकर अंगारक का मार्ग रोग रखा था ऐसी श्यामा को अंगारों के समूह के समान उग्र अंगारक, तलवार की धार और पत्थरों की चोट से मारने लगा ॥108 ॥ प्रत्येक चोट के समय तलवार और ढाल की करारी टक्कर होती थी । कुछ समय बाद श्यामा ने तलवार से निकले हुए तिलंगों के द्वारा अंगारक के शरीर को आच्छादित कर दिया ॥109॥ श्यामा और अंगारक के इस माया युद्ध को देखकर कुमार वसुदेव ने भी शत्रु के हृदय पर अपनी मुठ्ठियों से इतना दृढ़ प्रहार किया कि उसे प्राणों का संदेह उत्पन्न कर दिया ॥110 ॥ अंत में दुःखी होकर अंगारक ने कुमार को छोड़ दिया । नीचे गिरने के भय से कुमार कुछ खिन्न हुए परंतु श्यामा के द्वारा नियुक्त श्यामलछाया नाम की दासी उन्हें बीच में ही संभालकर अपने नगर ले जाने लगी । उस समय यह आकाशवाणी हुई कि कुमार को इसी ग्राम में लाभ होने वाला है इसलिए इस समय यहीं छोड़ दो । आकाशवाणी के अनुसार श्यामलछाया कुमार को अपनी पर्णलध्वी नामक विद्या के लिए सौंपकर अपने घर चली गयी और कुमार उस पर्णलध्वी विद्या के द्वारा पत्ते के समान लघु शरीर होकर धीरे-धीरे पृथिवी की ओर आये ॥111-113॥
तदनंतर कुमार वसुदेव, चंपा नगरी के बाह्योद्यान में कमलों से ढका हुआ जो कमलसरोवर था उसमें गिरे । तालाब से निकलकर वे तट पर आये ॥114॥ सरोवर के तट पर मानस्तंभ आदि से युक्त श्रीवासुपूज्य भगवान् का मंदिर था । वसुदेव ने पास जाकर प्रदक्षिणा दी, वंदना की और उसके बाद दीपिकाओं के प्रकाश से प्रकाशित उसी मंदिर में वह बस गये ॥ 115॥ प्रातःकाल भगवान् की पूजा के लिए एक ब्राह्मण आया तो वसुदेव ने उससे पूछा कि यह कौन देश है ? तथा कौन नगरी है ? इसके उत्तर में ब्राह्मण ने कहा कि यह अंग देश है और यह तीन लोक में प्रसिद्ध चंपा नगरी है । इसे क्या तुम नहीं जानते ? अरे महाविद्वान् ! क्या तुम यहाँ आकाश से पड़े हो ? ॥116-117 । इसके उत्तर में वसुदेव ने कहा कि हे ब्राह्मण ! आपने बिल्कुल ठीक जाना । क्या आप ज्योतिष जानते हैं ? आपका ज्ञान संवादी यथार्थज्ञान है । अहा ! जिनशासन अन्यथा नहीं हो सकता ॥118॥ रूप के लोभ से दो यक्ष कुमारियां मुझे हरकर ले गयी थीं; उनका आपस में झगड़ा होने लगा और मैं छूटकर आकाश से पृथिवी पर गिरा हूँ ॥119॥ यह उत्तर देकर विशाल नेत्रों के धारक वसुदेव ने ब्राह्मण का वेष रख गंधर्व नगरी के समान उस चंपापुरी में प्रवेश किया ॥120॥ वहाँ उन्होंने जहां-तहाँ वीणा हाथ में लिये मनुष्यों को देखकर एक ब्राह्मण से पूछा कि ये लोग इधर-उधर क्यों घूम रहे हैं ? ॥121 ॥
ब्राह्मण ने कहा कि इस नगरी में कुबेर के समान वैभव वाला एक चारुदत्त नाम का सेठ रहता है । उसकी गंधर्व सेना नाम की पुत्री है । वह पुत्री सौंदर्य के गर्व से युक्त है, गंधर्व शास्त्र में अत्यंत निपुण है तथा उसने यह नियम किया है कि जो मुझे गंधर्व शास्त्र-संगीत शास्त्र में जीतेगा वह मेरा पति होगा ॥122-123 ॥ लोभ से प्रेरित, वीणा बजाने में निपुण, तथा नाना देशों से आये हुए ये लोग उसी कन्या के लिए यहाँ इकट्ठे मिले हैं ॥124॥ रूप-लावण्य और सौभाग्य के सागर में तैरने वाली इस मगनेत्री मनोहर कन्या ने समस्त संसार को व्यामोहित कर रखा है ॥125॥ यहाँ जो भी ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य रहता है वह कन्या का अर्थी, यश का अर्थी, वीणा बजाने में निपुण और विजय का अभिलाषी है ॥126 ॥ यहाँ एक-एक महीने में कला के जानकार मनुष्यों को सभा जुड़ती है जिससे सदा जयपताका को हरने वाली यही कन्यारूपी सरस्वती रहती है-सदा इसी की जीत होती है ॥127॥ पिछले दिन ही यहाँ गुणी मनुष्यों की सभा जुड़ी थी अब एक माह बाद फिर से होगी ॥128 ॥ यह सुन वसुदेव ने उस ब्राह्मण से पूछा कि इस नगरी में संगीत का प्रसिद्ध विद्वान् कौन है ? यह कहो? इसके उत्तर में ब्राह्मण ने कहा कि इस समय सुग्रीव संगीत का सबसे अधिक प्रसिद्ध विद्वान् है ॥129 ॥
तदनंतर वसुदेव घर के लोगों की तरह सुग्रीव के पास चले गये और उसे नमस्कार कर बोले कि मैं गौतम गोत्री हूँ तथा आपकी शिष्यता करना चाहता हूँ ॥130॥ यह परम सुंदर तथा भोला-भाला है यह मानकर सुग्रीव ने दयापूर्वक उन्हें स्वीकार कर लिया― अपना शिष्य बना लिया और वे अपनी उलटी-सीधी वीणा से सबको हँसाते हुए वहाँ रहने लगे ॥131॥ दिन आने पर पहले की भांति फिर से विद्वानों की सभा हुई; वसुदेव भी उस सभा में प्रविष्ट होकर विशाल जन-समूह को देखने लगे ॥132 ॥ वह सभा बाजा सुनने की कला से युक्त तथा बहुत भारी कोलाहल करने वाले अन्य कौतूहली मनुष्यों से क्षोभ को प्राप्त हो रही थी ॥133 ॥ तदनंतर जिस प्रकार वर्षाऋतु में बिजली आकाश के मध्य में प्रवेश करती है उसी प्रकार निर्मल कांति की धारक एवं उत्तमोत्तम आभूषणों से अलंकृत कन्या ने सभा के मध्य में प्रवेश किया ॥134॥ मूर्तिमती गंधर्व विद्या के समान कन्या गंधर्वसेना के द्वारा जब क्रम-क्रम से वीणा बजाने में निपुण बहुत―से विद्वान् जीत लिये गये तब वसुदेव भी उत्तम आसन पर आसीन हुए । उस समय वसुदेव को अनेक वीणाएं दी गयों पर उन सबको दोषयुक्त बता दिया ॥ 135-136 ॥ अंत में गंधर्वसेना ने अपनी सुघोषा नाम की सत्रह तारों वाली वीणा उन्हें दी । उसे बजाकर वे प्रसन्न होते हुए बोले कि यह वीणा बहुत अच्छी है, बहुत अच्छी है, हे चतुरे ! यह वीणा निर्दोष है । हे गंधर्वसेने ! कह तुझे कौनसी गेय वस्तु पसंद है ? तू गेय वस्तुओं में पंडित है अतः मुझे आदेश दे मैं इन विद्वानों के आगे कोमल-कांत वीणा बजाता हूँ ॥137-139॥ इसके उत्तर में गंधर्व सेना ने कहा कि बलि को बाँधने वाले विष्णु कुमार मुनि ने जब अपनी तीन डगों का कर्तव्य दिखाया था तब हाहा, तुंबुरु तथा नारद ने जो गेय वस्तु गायी थी यदि आप वाद्य विद्या के जानकार हैं तो वही वस्तु आज बजाइए क्योंकि पुराण से संबंध रखने वाली गेय वस्तु ही प्रशंसनीय होती है ॥140-141॥ गंधर्वसेना का आदेश पाकर वसुदेव संगीतविद्या का निम्न प्रकार वर्णन करने लगे ꠰
1 तत, 2 अवनद्ध, 3 घन और 4 सुषिर के भेद से बाजे चार प्रकार के हैं । ये सभी बाजे यथायोग्य अपने-अपने लक्षणों से युक्त हैं ॥142 ॥ जो तार से बजते हैं ऐसे वीणा आदि तत कहलाते हैं । जो चमड़े से मढ़े जाते हैं ऐसे मृदंग आदि अवनद्ध कहलाते हैं । काँसे के झांझ, मजीरा आदि घन कहलाते हैं और बाँसुरी आदि को सुधीर कहते हैं ॥143 ॥ इनमें तत नाम का वादित्र कर्णइंद्रिय को तृप्त करने वाला होने से प्रायः प्राणियों के लिए अधिक प्रीति उपजाने वाला है तथा गंधर्व शरीर के साथ संबद्ध होने से गांधर्व नाम से प्रसिद्ध है ॥144॥ गांधर्व की उत्पत्ति में वीणा, वंश और गान ये तीन कारण हैं तथा स्वरगत, तालगत और पदगत के भेद से वह तीन प्रकार का माना गया है ॥145॥ वैण और शारीर के भेद से स्वर दो प्रकार के माने गये हैं और उनके भेद तथा लक्षण इस प्रकार कहे गये हैं ॥146॥ श्रुति, वृत्ति, स्वर, ग्राम, वर्ण, अलंकार, मूर्च्छना, धातु और साधारण आदि वैण स्वर माने गये हैं और जाति, वर्ण, स्वर, ग्राम, स्थान, साधारण क्रिया और अलंकार विधि ये शारीर स्वर के भेद कहे हैं ॥147-148॥ जाति, तद्धित, छंद, संधि, स्वर, विभक्ति, सुबंत, तिङंत, उपसर्ग तथा वर्ण आदि पदगत गांधर्व को विधि हैं और आवाप, निष्काम, विक्षेप, प्रवेशन, शम्याताल, परावर्त, सन्निपात, सवस्तुक मात्रा, अविदार्य, अंग, लय, गति, प्रकरण, यति, दो प्रकार को गीति, मार्ग, अवयव, पादभाग और सपाणि, ये तालगत गांधर्व के बाईस प्रकार हैं । इस प्रकार गांधर्व (तत) वाद्य का जितना विस्तार है वसुदेव ने उस सबका प्रयोग किया अर्थात् तदनुसार वीणा बजायी ॥142-152 ॥
दूसरी तरह से स्वर 1 षड̖ज, 2 ऋषभ, 3 गांधार, 4 मध्यम, 5 पंचम, 6 धैवत और 7 निषाद के भेद से सात प्रकार के हैं । इन स्वरों के प्रयोग करने के वादी, संवादी, विवादी और अनुवादी ये चार प्रकार हैं सो वसुदेव ने इन चारों प्रकारों का यथाक्रम से प्रयोग किया ॥153-154॥ मध्यम ग्राम में पंचम और ऋषभ स्वर का तथा षड̖ज ग्राम में षड̖ज तथा पंचम स्वर का संवाद होता है ॥155 ॥ षड̖ज ग्राम के षड̖ज स्वर में चार, ऋषभ में तीन, गांधार में दो, मध्यम में चार, पंचम में चार, धैवत में दो और निषाद में तीन श्रुतियाँ होती हैं ॥156-157॥ मध्यम ग्राम के मध्यम स्वर में चार,गांधार में दो, ऋषभ में तीन, षड̖ज में चार, निषाद में दो, धैवत में तीन, पंचम में तीन श्रुतियाँ होती हैं॥158-159 ॥ इस प्रकार षड̖ज और मध्यम-दोनों ग्रामों में प्रत्येक की बाईस-बाईस श्रुतियाँ होती हैं एवं उक्त दोनों ग्रामों की मिलकर चौदह मूर्च्छनाएँ कही गयी हैं ॥160॥ इनमें पहली उत्तरभद्रा, दूसरी रजनी, तीसरी उत्तरायता, चौथी शुद्धषड̖जा, पांचवीं मत्सरीकृता, छठी अश्वक्रांता और सातवीं आभिरुद्गती ये सात षड̖ज ग्राम की मूर्च्छनाएं हैं ॥161-162॥ और पहली सौवीरी, दूसरी हरिणाश्वा, तीसरी कलोपनता, चौथी शुद्धमध्यमा, पांचवीं मार्गवी, छठी पोरवी और सातवीं रिष्य का (हृष्य का) ये सात मूर्च्छनाएं मध्यम ग्राम में विद्वज्जनों के द्वारा जानने योग्य हैं ॥163-164॥
षड̖ज स्वर में उत्तरमंद्रा, ऋषभ में आभिरुद्गता, गांधार में अश्वक्रांता, मध्यम में मत्सरीकृता, पंचम में शुद्ध षड्जा, धैवत में उत्तरायता और निषाद में रजनी मूर्च्छना होती है । ये मूर्च्छनाएं षड̖ज ग्राम संबंधिनी हैं ॥ 165-166 ॥ अब मध्य में ग्राम संबंधिनी मूर्च्छनाएं कहते हैं । मध्यम ग्राम के मध्यम, गांधार, ऋषभ, षड̖ज; निषाद, धैवत और पंचम ――स्वर में क्रम से सौवीरी को आदि लेकर ह्रष्य का तक सात मूर्च्छनाएँ होती हैं अर्थात मध्यम में सौवीरी गांधार में हरिणाश्वा, ऋषभ में कलोपनता, षड̖ज में शुद्धमध्यमा, निषाद में मार्गवी, धैवत में पौरखी और पंचम में हृष्य का मूर्च्छना होती है । इस प्रकार दोनों ग्रामों की ये चौदह मूर्च्छनाएँ हैं ॥167-168॥ इन चौदह मूर्च्छनाओं के षाडव, औडव; साधारण-कृत और काकली के भेद से चार-चार स्वर होते हैं, इस तरह इनके छप्पन स्वर हो जाते हैं । जिसकी उत्पत्ति छह स्वरों से होती है उसे षाडव और जिसकी पांच स्वरों से उत्पत्ति होती है उसे औडव कहते हैं ॥169 ॥ षड̖ज मध्यम इन दोनों ग्रामों की-मूर्च्छनाएँ अनंतर स्वर से भी संयुक्त होती हैं तथा इनका यथा योग्य मेल होने पर एक मूर्च्छना दो रूप हो जाती है इसकी सिद्धि भी बतायी गयी हैं ॥10॥
तान चौरासी प्रकार की हैं । इनमें पाँच स्वरों से उत्पन्न होने वाली पैंतीस और छह स्वरों से उत्पन्न होने वाली उनचास हैं ॥171॥ अंतर स्वर का संयोग सदा आरोही अवस्था में ही करना चाहिए अवरोही अवस्था में थोड़ा या बहुत किसी भी रूप में कभी भी नहीं करना चाहिए ॥172॥ क्योंकि यदि अवरोही अवस्था में थोड़ा या बहुत अंतर स्वर का संयोग किया जाता है तो उस समय अंतर स्वर जाति के राग और श्रुति दोनों को समाप्त कर देता है ॥173 ॥ अब दोनों ग्रामों की जातियों का वर्णन करते हैं, उनमें षड̖ज ग्राम से संबंध रखने वाली 1 षड̖जी, 2 आषभी, 3 धैवती, 4 निषादजा, 5 सुषड̖जा, 6 उदीच्यवा, 7 षड̖जकैशिकी और 8 षडजमध्या ये आठ जातियाँ हैं एवं नीचे लिखी दस जातियां मध्यमग्राम के आश्रित हैं-1 गांधारी, 2 मध्यमा, 3 गांधारोदीच्यवा, 4 पंचमी, 5 रक्तगांधारी, 6 रक्तपंचमी, 7 मध्यमोदीच्यवा, 8 नंदयंती, 9 करिवी, 10 आंध्री, 11 कैशिकी । दोनों ग्रामों की मिलाकर अठारह जातियां होती हैं ॥174-177॥ इन जातियों में मध्यमा, षड̖जमध्या और पंचमी ये तीन जातियां साधारण स्वरगत हैं ॥178॥ ये
जातियां शुद्ध और विकृत के भेद से दो प्रकार की कही गयी हैं । जो परस्पर में मिलकर उत्पन्न नहीं हुई हैं तथा पृथक-पृथक् लक्षणों से युक्त हैं वे शुद्ध कहलाती हैं और जो समान लक्षणों से युक्त हैं वे विकृत कहलाती हैं । विकृत जातियां दोनों ग्रामों की जातियों से मिलकर बनती हैं तथा दोनों के स्वरों से आप्लुत रहती हैं । इन जातियों में चार जातियां सात स्वर वाली, चार जातियाँ छह स्वर वाली और शेष दस जातियाँ पाँच स्वर वाली कही गयी हैं । मध्यमोदीच्यवा, षडजकैशिकी, कर्मारवी और गांधारपंचमी ये चार जातियां सात स्वर वाली हैं षड्जा, आंध्री, नंदयंती और गांधारीदोच्यवा ये चार जातियां छह स्वर वाली हैं और शेष दस जातियाँ पाँच स्वर वाली हैं । नैषादी, आर्षभी, धैवती, षड̖जमध्यमा और षड̖जीदीच्यवती ये पांच जातियाँ षड̖जग्राम के आश्रित हैं और गांधारी, रक्तगांधारी, मध्यमा, पंचमी तथा कैशिकी ये पाँच मध्यमग्राम के आश्रित हैं । इन जातियों में जो पांच स्वर वाली (ओडव) और छह स्वरवाली (षाडव) जातियाँ कही गयी हैं वे कदाचित् क्रम से षाडव (छह स्वर वाली) और ओडव (पांच स्वर वाली) हो जाती हैं । षड̖जग्राम में सात स्वर वाली षड̖जकैशिकी जाति होती है और गान के योग से छह स्वर वाली भी होती है । मध्यमग्राम में सात स्वर वाली कर्मारवी, गांधारपंचमी और मध्यमोदीच्यवा होती हैं और छह स्वर वाली गांधारीदीच्यवा, आंध्री एवं नंदयंती जातियां होती हैं । इस तरह विद्वानों के द्वारा ये दोनों ग्रामों की जातियां जानने योग्य हैं ॥179-189 ॥
जहाँ छह स्वर होते हैं वहाँ षड̖जमध्यम स्वर उसका सप्तांश नहीं होता और संवादी का लोप हो जाने से वहाँ गांधार स्वर विशेषता को प्राप्त नहीं होता ॥190॥ गांधारी, रक्तगांधारी, कैशिकी और षड्जा में पंच स्वर नहीं होता तथा षाडव को गांधारी का हृदय जानना चाहिए ॥191॥ षाडव में धैवत स्वर नहीं रहता क्योंकि वहाँ षड̖जीदीच्यवा जाति का वियोग हो जाता है एवं ये सात जातियाँ संवादी का अभाव होने से छह स्वरों से वर्जित रहती हैं ॥192॥ इनमें से रक्तगांधारी जाति में षड̖ज, मध्यम और पंचम स्वर सप्तम स्वर रूप हो जाते हैं तथा इनमें ओडवित नहीं रहता ॥193॥ षड̖ज, मध्यम, गांधार, निषाद और ऋषभ ये पाँच अंश पंचमी जाति में रहते हैं और कैशिकी में धैवत के साथ छह रहते हैं । ये बारहों जातियाँ पंच स्वर में सदा वर्जनीय मानी गयी हैं किंतु इनमें जो औडवित से रहित हैं उनका स्वर के आश्रय निरंतर प्रयोग करना चाहिए ॥194-195 ॥ जातियों में समस्त स्वरों का नाश किया जा सकता है परंतु मध्यम स्वर का, नाश कभी नहीं करना चाहिए ॥196 ॥ क्योंकि मध्यम स्वर का कभी नाश नहीं होता इसलिए वह समस्त स्वरों में प्रधान स्वर माना गया है । साथ ही यह मध्यम स्वर गांधर्व कल्प के समस्त भेदों में भी स्वीकृत किया गया है ॥ 197 ॥ 1 तार, 2 मंद्र, 3 न्यास, 4 उपन्यास, 5 ग्रह, 6 अंश, 7 अल्पत्व; 8 बहुत्व, 9 षाडव और 10 औडवित ये जातियों के नाम हैं ॥198॥ । इस प्रकार विद्वानों द्वारा ये दस जातियां जानने योग्य हैं ।
उन जातियों का जिस रस में जितना प्रयोग होता है उसका कथन किया जाता है ॥199॥