जन्म: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> परंतु बद्धायुष्क उन-उन गतियों के उत्तम स्थानों में ही उत्पन्न होते हैं नीचों में नहीं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> परंतु बद्धायुष्क उन-उन गतियों के उत्तम स्थानों में ही उत्पन्न होते हैं नीचों में नहीं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef">पंचसंग्रह प्राकृत/1/193</span> <span class="PrakritGatha">छसु हेट्ठिमासु पुढवीसु जोइसवणभवणसव्व इत्थीसु। बारस मिच्छावादे सम्माइट्ठीसु णत्थि उववादो।</span> =<span class="HindiText">प्रथम पृथिवियों के बिना अधस्थ छहों पृथिवियों में, ज्योतिषी व्यंतर भवन-वासी देवों में सर्व प्रकार की स्त्रियों में अर्थात् तिर्यंचिनी मनुष्यणी और देवियों में तथा बारह मिथ्यावादों में अर्थात् जिनमें केवल मिथ्यात्व गुणस्थान ही संभव है ऐसे एकेंद्रिय विकलेंद्रिय और असंज्ञीपंचेंद्रिय तिर्यंचों के बारह जीवसमासों में, सम्यग्दृष्टि जीव का उत्पाद नहीं है, अर्थात् सम्यक्त्व सहित ही मरकर इनमें उत्पन्न नहीं होता है। <span class="GRef">( धवला 1/1,1,26/ गाथा 133/209); ( गोम्मटसार जीवकांड मूल/129/339)</span></span><br /> | <span class="GRef">पंचसंग्रह प्राकृत/1/193</span> <span class="PrakritGatha">छसु हेट्ठिमासु पुढवीसु जोइसवणभवणसव्व इत्थीसु। बारस मिच्छावादे सम्माइट्ठीसु णत्थि उववादो।</span> =<span class="HindiText">प्रथम पृथिवियों के बिना अधस्थ छहों पृथिवियों में, ज्योतिषी व्यंतर भवन-वासी देवों में सर्व प्रकार की स्त्रियों में अर्थात् तिर्यंचिनी मनुष्यणी और देवियों में तथा बारह मिथ्यावादों में अर्थात् जिनमें केवल मिथ्यात्व गुणस्थान ही संभव है ऐसे एकेंद्रिय विकलेंद्रिय और असंज्ञीपंचेंद्रिय तिर्यंचों के बारह जीवसमासों में, सम्यग्दृष्टि जीव का उत्पाद नहीं है, अर्थात् सम्यक्त्व सहित ही मरकर इनमें उत्पन्न नहीं होता है। <span class="GRef">( धवला 1/1,1,26/ गाथा 133/209); ( गोम्मटसार जीवकांड मूल/129/339)</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/41/179/2 </span><span class="SanskritText">इदानीं सम्यक्त्वग्रहणात्पूर्व देवायुष्कं विहाय ये बद्धायुष्कास्तान् प्रति सम्यक्त्वमाहात्म्यं कथयति। हेटि्ठमछप्पुढवीणं जोइसवणभवणसव्वइच्छीणं। पुण्णिदरेण हि समणो णारयापुण्णे। | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/41/179/2 </span><span class="SanskritText">इदानीं सम्यक्त्वग्रहणात्पूर्व देवायुष्कं विहाय ये बद्धायुष्कास्तान् प्रति सम्यक्त्वमाहात्म्यं कथयति। हेटि्ठमछप्पुढवीणं जोइसवणभवणसव्वइच्छीणं। पुण्णिदरेण हि समणो णारयापुण्णे। <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड मूल/128/339)</span>। तमेवार्थं प्रकारांतरेण कथयति–ज्योतिर्भावनभौमेषु षट्स्वध: श्वभ्रभूमिषु। तिर्यक्षु नृसुरस्त्रीषु सद्दृष्टिर्नैव जायते। </span>=<span class="HindiText">अब जिन्होंने सम्यक्त्व ग्रहण करने के पहले ही देवायु को छोड़कर अन्य किसी आयु का बंध कर लिया है उनके प्रति सम्यक्त्व का माहात्म्य कहते हैं। (यहाँ दो गाथाएँ उद्धृत की हैं)। <span class="GRef"> (गोम्मटसार जीवकांड मूल/128/339 से)</span>–प्रथम नरक को छोड़कर अन्य छह नरकों में; ज्योतिषी, व्यंतर व भवनवासी देवों में, सब स्त्री लिंगों में और तिर्यंचों में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते। <span class="GRef"> (गोम्मटसार जीवकांड/128)</span> इसी आशय को अन्य प्रकार से कहते हैं–ज्योतिषी, भवनवासी और व्यंतर देवों में, नीचे के 6 नरकों की पृथिवियों में, तिर्यंचों में और मनुष्यणियों व देवियों में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> बद्धायुष्क क्षायिक सम्यग्दृष्टि चारों ही गतियों के उत्तम स्थानों में उत्पन्न होता है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> बद्धायुष्क क्षायिक सम्यग्दृष्टि चारों ही गतियों के उत्तम स्थानों में उत्पन्न होता है</strong></span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> पंचेंद्रिय तिर्यंचों में गर्भज संज्ञी पर्याप्त में ही जन्मता है अन्य में नहीं</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> पंचेंद्रिय तिर्यंचों में गर्भज संज्ञी पर्याप्त में ही जन्मता है अन्य में नहीं</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> षट्खंडागम/6/1,9-9/ सूत्र 122-125/461</span><span class="PrakritText"> पंचिंदिएसु गच्छंता सण्णीसु गच्छंति, णो असण्णीसु।122। सण्णीसु गच्छंता गब्भोवक्कंतिएसु गच्छंता, णो सम्मुच्छिमेसु।123। गब्भोवक्कंतिएसु गच्छंता पज्जयत्तएससु, णो अप्पज्जत्तएसु।124। पज्जत्तएसु गच्छंता संखेज्जवासाउएसु वि गच्छंति असंखेज्जवासाउवेसु वि।125।</span> =<span class="HindiText">तिर्यंचों में जाने वाले संख्यात वर्षायुष्क सासादन सम्यग्दृष्टि तिर्यंच।119। पंचेंद्रियों में भी जाते हैं।120। पंचेंद्रियों में भी संज्ञियों में ही जाते हैं असंज्ञियों में नहीं।122। संज्ञियों में भी गर्भजों में जाते हैं संमूर्च्छिमों में नहीं।123। गर्भजों में भी पर्याप्तकों में जाते हैं अपर्याप्तकों में नहीं।124। पर्याप्तकों में जाने वाले वे संख्यात वर्षायुष्कों में भी जाते हैं और असंख्यात वर्षायुष्कों में भी।125। (देखो आगे गति अगति चूलिका नं.3 शेष गतियों से आने वाले जीवों के लिए भी उपरोक्त ही नियम है।) | <span class="GRef"> षट्खंडागम/6/1,9-9/ सूत्र 122-125/461</span><span class="PrakritText"> पंचिंदिएसु गच्छंता सण्णीसु गच्छंति, णो असण्णीसु।122। सण्णीसु गच्छंता गब्भोवक्कंतिएसु गच्छंता, णो सम्मुच्छिमेसु।123। गब्भोवक्कंतिएसु गच्छंता पज्जयत्तएससु, णो अप्पज्जत्तएसु।124। पज्जत्तएसु गच्छंता संखेज्जवासाउएसु वि गच्छंति असंखेज्जवासाउवेसु वि।125।</span> =<span class="HindiText">तिर्यंचों में जाने वाले संख्यात वर्षायुष्क सासादन सम्यग्दृष्टि तिर्यंच।119। पंचेंद्रियों में भी जाते हैं।120। पंचेंद्रियों में भी संज्ञियों में ही जाते हैं असंज्ञियों में नहीं।122। संज्ञियों में भी गर्भजों में जाते हैं संमूर्च्छिमों में नहीं।123। गर्भजों में भी पर्याप्तकों में जाते हैं अपर्याप्तकों में नहीं।124। पर्याप्तकों में जाने वाले वे संख्यात वर्षायुष्कों में भी जाते हैं और असंख्यात वर्षायुष्कों में भी।125। (देखो आगे गति अगति चूलिका नं.3 शेष गतियों से आने वाले जीवों के लिए भी उपरोक्त ही नियम है।) <span class="GRef">( धवला 2/1,1/427 )</span>।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> असंज्ञियों में भी जन्मता है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> असंज्ञियों में भी जन्मता है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/695/1131/13 </span><span class="PrakritText"> सासादने...संज्ञ्यसंज्ञ्यपर्याप्तसंज्ञिपर्याप्ता:...। द्वितीयोपशम सम्यक्त्वविराधकस्य सासादनत्वप्राप्तिपक्षे च संज्ञिपर्याप्तदेवापर्याप्ताविति द्वौ।</span>=<span class="HindiText">सासादनविषै जीवसमास असंज्ञी अपर्याप्त और संज्ञी पर्याप्त व अपर्याप्त भी होते हैं और द्वितीयोपशम सम्यक्त्वतै पड़ जो सासादनको भया होइ ताकि अपेक्षा तहाँ सैनी पर्याप्त और देव अपर्याप्त ये दो ही जीव समास है। | <span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/695/1131/13 </span><span class="PrakritText"> सासादने...संज्ञ्यसंज्ञ्यपर्याप्तसंज्ञिपर्याप्ता:...। द्वितीयोपशम सम्यक्त्वविराधकस्य सासादनत्वप्राप्तिपक्षे च संज्ञिपर्याप्तदेवापर्याप्ताविति द्वौ।</span>=<span class="HindiText">सासादनविषै जीवसमास असंज्ञी अपर्याप्त और संज्ञी पर्याप्त व अपर्याप्त भी होते हैं और द्वितीयोपशम सम्यक्त्वतै पड़ जो सासादनको भया होइ ताकि अपेक्षा तहाँ सैनी पर्याप्त और देव अपर्याप्त ये दो ही जीव समास है। <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/703/1137/14 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/551/753/4 )</span>।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> विकलेंद्रियों में नहीं जन्मता</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> विकलेंद्रियों में नहीं जन्मता</strong> </span><br /> | ||
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<span class="GRef"> षट्खंडागम 6/1,9-9/ सूत्र120/459 </span> <span class="SanskritText">तिरिक्खेसु गच्छंता एइंदिया पंचिंदिएसु गच्छंति, णो विगलिंदिएसु।120।</span>=<span class="HindiText">तिर्यंचों में जाने वाले संख्यात वर्षायुष्क सासादन सम्यग्दृष्टि तिर्यंच एकेंद्रिय व पंचेंद्रिय में जाते हैं, परंतु विकलेंद्रिय में नहीं जाते।<br /> | <span class="GRef"> षट्खंडागम 6/1,9-9/ सूत्र120/459 </span> <span class="SanskritText">तिरिक्खेसु गच्छंता एइंदिया पंचिंदिएसु गच्छंति, णो विगलिंदिएसु।120।</span>=<span class="HindiText">तिर्यंचों में जाने वाले संख्यात वर्षायुष्क सासादन सम्यग्दृष्टि तिर्यंच एकेंद्रिय व पंचेंद्रिय में जाते हैं, परंतु विकलेंद्रिय में नहीं जाते।<br /> | ||
<span class="GRef"> षट्खंडागम 6/1,9-9/ सूत्र 76-78/150-152;175 सारार्थ</span> (नरक मनुष्य व देवगति में आकर तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले सासादन सम्यग्दृष्टियों के लिए भी उपरोक्त ही नियम कहा गया है)।</span><br /> | <span class="GRef"> षट्खंडागम 6/1,9-9/ सूत्र 76-78/150-152;175 सारार्थ</span> (नरक मनुष्य व देवगति में आकर तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले सासादन सम्यग्दृष्टियों के लिए भी उपरोक्त ही नियम कहा गया है)।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/695/1131/13 </span><span class="SanskritText"> सासादने बादरैकद्वित्रिचतुरिंद्रियसंज्ञ्यसंज्ञ्यपर्याप्तसंज्ञिपर्याप्ता: सप्त।</span> =<span class="HindiText">सासादन में बादर एकेंद्रिय अपर्याप्त जीवसमास भी होता है। | <span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/695/1131/13 </span><span class="SanskritText"> सासादने बादरैकद्वित्रिचतुरिंद्रियसंज्ञ्यसंज्ञ्यपर्याप्तसंज्ञिपर्याप्ता: सप्त।</span> =<span class="HindiText">सासादन में बादर एकेंद्रिय अपर्याप्त जीवसमास भी होता है। <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/703/1137/11 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/551/753/4 )</span>।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.8" id="4.8"> एकेंद्रियों में नहीं जन्मता</strong><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.8" id="4.8"> एकेंद्रियों में नहीं जन्मता</strong><br /> | ||
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<span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/ टीका/4/60/99/5</span><span class="SanskritText"> तयोरेकं कथम् ? सासादनस्थो जीवो मृत्वा तेजोवायुकायिकयोर्मध्ये न उत्पद्यते, इति हेतो:। </span>=<span class="HindiText">काय मार्गणा की अपेक्षा पृथिवीकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों में आदि के दो गुणस्थान होते हैं। तेजस्कायिक और वायुकायिक में एक मिथ्यात्व गुणस्थान होता है, क्योंकि सासादन सम्यग्दृष्टि जीव मरकर तेज व वायुकायिकों में उत्पन्न नहीं होते।</span><br /> | <span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/ टीका/4/60/99/5</span><span class="SanskritText"> तयोरेकं कथम् ? सासादनस्थो जीवो मृत्वा तेजोवायुकायिकयोर्मध्ये न उत्पद्यते, इति हेतो:। </span>=<span class="HindiText">काय मार्गणा की अपेक्षा पृथिवीकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों में आदि के दो गुणस्थान होते हैं। तेजस्कायिक और वायुकायिक में एक मिथ्यात्व गुणस्थान होता है, क्योंकि सासादन सम्यग्दृष्टि जीव मरकर तेज व वायुकायिकों में उत्पन्न नहीं होते।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/115/105 </span><span class="PrakritText">ण हि सासणो अपुण्णे साहारणसुहुमगे य तेउदुगे।...।115।</span>=<span class="HindiText">लब्धि अपर्याप्त, साधारणशरीरयुक्त, सर्व सूक्ष्म जीव, तथा बातकायिक तेजस्कायिक विषैं सासादन गुणस्थान न पाइए है।</span><br /> | <span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/115/105 </span><span class="PrakritText">ण हि सासणो अपुण्णे साहारणसुहुमगे य तेउदुगे।...।115।</span>=<span class="HindiText">लब्धि अपर्याप्त, साधारणशरीरयुक्त, सर्व सूक्ष्म जीव, तथा बातकायिक तेजस्कायिक विषैं सासादन गुणस्थान न पाइए है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/309/438/8 </span><span class="SanskritText">गुणस्थानद्वयं। कुत:। ‘‘ण हि सासणो अपुण्णे...।’’ इति पारिशेषात् पृथ्व्यप्प्रत्येकवनस्पतिषु सासादनस्योत्पत्ते:। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–पृथिवी आदिकों में दो गुणस्थान कैसे होते हैं ? <strong>उत्तर</strong>–</span><span class="PrakritText">‘‘ण हि सासण अपुण्णो–’’</span><span class="HindiText"> इत्यादि उपरोक्त गाथा नं.195 में अपर्याप्तकादि स्थानों का निषेध किया है। परिशेष न्याय से उनसे बचे जो पृथिवी, अप् और प्रत्येक वनस्पतिकायिक उनमें सासादन की उत्पत्ति जानी जाती है। | <span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/309/438/8 </span><span class="SanskritText">गुणस्थानद्वयं। कुत:। ‘‘ण हि सासणो अपुण्णे...।’’ इति पारिशेषात् पृथ्व्यप्प्रत्येकवनस्पतिषु सासादनस्योत्पत्ते:। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–पृथिवी आदिकों में दो गुणस्थान कैसे होते हैं ? <strong>उत्तर</strong>–</span><span class="PrakritText">‘‘ण हि सासण अपुण्णो–’’</span><span class="HindiText"> इत्यादि उपरोक्त गाथा नं.195 में अपर्याप्तकादि स्थानों का निषेध किया है। परिशेष न्याय से उनसे बचे जो पृथिवी, अप् और प्रत्येक वनस्पतिकायिक उनमें सासादन की उत्पत्ति जानी जाती है। <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/703/1137/14 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/551/753/4 )</span><br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="4.10" id="4.10">बादर पृथिवी आदि कायिकों में भी नहीं जन्मते</strong><br /> | <li class="HindiText"><strong name="4.10" id="4.10">बादर पृथिवी आदि कायिकों में भी नहीं जन्मते</strong><br /> | ||
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<span class="GRef"> भगवती आराधना/17/66 </span><span class="PrakritText"> दिट्ठा अणादिमिच्छादिट्ठी जम्हा खणेण सिद्धा य। आरणा चरित्तस्स तेण आराहणा सारो।17।</span> | <span class="GRef"> भगवती आराधना/17/66 </span><span class="PrakritText"> दिट्ठा अणादिमिच्छादिट्ठी जम्हा खणेण सिद्धा य। आरणा चरित्तस्स तेण आराहणा सारो।17।</span> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/17/66/6 </span><span class="SanskritText"> भद्दणादयो राजपुत्रास्तस्मिन्नेव भवे त्रसतामापन्ना: अतएव अनादिमिथ्यादृष्टय: प्रथमजिनपादमूले श्रुतधर्मसारा: समारोपितरत्नत्रया:, ...क्षणेन क्षणग्रहणं कालस्याल्पत्वोपलक्षणार्थम् ...सिद्धाश्च परिप्राप्ताशेषज्ञानादिस्वभावा:....दृष्टा: आराधनासंपादका:, चारित्रस्य।</span> =<span class="HindiText">चारित्र की आराधना करने वाले अनादि मिथ्यादृष्टि जीव भी अल्प काल में संपूर्ण कर्मों का नाश करके मुक्त हो गये ऐसा देखा गया है। अत: जीवों को आराधना का अपूर्व फल मिलता है ऐसा समझना चाहिए।<br /> | <span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/17/66/6 </span><span class="SanskritText"> भद्दणादयो राजपुत्रास्तस्मिन्नेव भवे त्रसतामापन्ना: अतएव अनादिमिथ्यादृष्टय: प्रथमजिनपादमूले श्रुतधर्मसारा: समारोपितरत्नत्रया:, ...क्षणेन क्षणग्रहणं कालस्याल्पत्वोपलक्षणार्थम् ...सिद्धाश्च परिप्राप्ताशेषज्ञानादिस्वभावा:....दृष्टा: आराधनासंपादका:, चारित्रस्य।</span> =<span class="HindiText">चारित्र की आराधना करने वाले अनादि मिथ्यादृष्टि जीव भी अल्प काल में संपूर्ण कर्मों का नाश करके मुक्त हो गये ऐसा देखा गया है। अत: जीवों को आराधना का अपूर्व फल मिलता है ऐसा समझना चाहिए।<br /> | ||
अनादि काल से मिथ्यात्व का तीव्र उदय होने से अनादि काल पर्यंत जिन्होंने नित्यनिगोद पर्याय का अनुभव लिया था ऐसे 923 जीव निगोद पर्याय छोड़कर भरत चक्रवर्ती के भद्रविवर्धनादि नाम धारक पुत्र उत्पन्न हुए थे। वे इसी भव से त्रस पर्याय को प्राप्त हुए थे। भगवान् आदिनाथ के समवशरण में द्वादशांग वाणी का सार सुनकर रत्नत्रय की आराधना से अल्पकाल में ही मोक्ष प्राप्त किया है। <span class="GRef"> धवला 6/1,9-8,11/247/4 </span> | अनादि काल से मिथ्यात्व का तीव्र उदय होने से अनादि काल पर्यंत जिन्होंने नित्यनिगोद पर्याय का अनुभव लिया था ऐसे 923 जीव निगोद पर्याय छोड़कर भरत चक्रवर्ती के भद्रविवर्धनादि नाम धारक पुत्र उत्पन्न हुए थे। वे इसी भव से त्रस पर्याय को प्राप्त हुए थे। भगवान् आदिनाथ के समवशरण में द्वादशांग वाणी का सार सुनकर रत्नत्रय की आराधना से अल्पकाल में ही मोक्ष प्राप्त किया है। <span class="GRef"> धवला 6/1,9-8,11/247/4 )</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/35/106/6 </span><span class="SanskritText">अनुपमद्वितीयमनादिमिथ्यादृशोऽपि भरतपुत्रास्त्रयोविंशत्यधिकनवशतपरिमाणास्ते च नित्यनिगोदवासिन: क्षपितकर्माण: इंद्रगोपा: संजातास्तेषां च पंचीभूतानामुपरि भरतहस्तिना पादो दत्तस्ततस्ते मृत्वापि वर्द्धमानकुमारादयो भरतपुत्रा जातास्ते...तपो गृहीत्वा क्षणस्तोककालेन मोक्षं गता:।</span> =<span class="HindiText">यह वृत्तांत अनुपम और अद्वितीय है कि नित्यनिगोदवासी अनादि मिथ्यादृष्टि 923 जीव कर्मों की निर्जरा होने से इंद्रगोप हुए। सो उन सबके ढेर पर भरत के हाथी ने पैर रख दिया। इससे वे मरकर भरत के वर्द्धमानकुमार आदि पुत्र हुए। वे तप ग्रहण करके थोड़े ही काल में मोक्ष चले गये।<br /> | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/35/106/6 </span><span class="SanskritText">अनुपमद्वितीयमनादिमिथ्यादृशोऽपि भरतपुत्रास्त्रयोविंशत्यधिकनवशतपरिमाणास्ते च नित्यनिगोदवासिन: क्षपितकर्माण: इंद्रगोपा: संजातास्तेषां च पंचीभूतानामुपरि भरतहस्तिना पादो दत्तस्ततस्ते मृत्वापि वर्द्धमानकुमारादयो भरतपुत्रा जातास्ते...तपो गृहीत्वा क्षणस्तोककालेन मोक्षं गता:।</span> =<span class="HindiText">यह वृत्तांत अनुपम और अद्वितीय है कि नित्यनिगोदवासी अनादि मिथ्यादृष्टि 923 जीव कर्मों की निर्जरा होने से इंद्रगोप हुए। सो उन सबके ढेर पर भरत के हाथी ने पैर रख दिया। इससे वे मरकर भरत के वर्द्धमानकुमार आदि पुत्र हुए। वे तप ग्रहण करके थोड़े ही काल में मोक्ष चले गये।<br /> | ||
देखो [[जन्म#6.11 | जन्म - 6.11]] (सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्तक व निगोद को आदि लेकर सभी 34 प्रकार के तिर्यंच अनंतर भव में मनुष्यपर्याय प्राप्त करके मुक्त हो सकते हैं, पर शलाकापुरुष नहीं बन सकते)।</span><br /> | देखो [[जन्म#6.11 | जन्म - 6.11]] (सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्तक व निगोद को आदि लेकर सभी 34 प्रकार के तिर्यंच अनंतर भव में मनुष्यपर्याय प्राप्त करके मुक्त हो सकते हैं, पर शलाकापुरुष नहीं बन सकते)।</span><br /> | ||
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<ol start="4"> | <ol start="4"> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="6.4" id="6.4"> नरकगति में उत्पत्ति की विशेष प्ररूपणा</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="6.4" id="6.4"> नरकगति में उत्पत्ति की विशेष प्ररूपणा</strong> <br /> | ||
(मू.आ./1153-1154); | (मू.आ./1153-1154); <span class="GRef">( तिलोयपण्णत्ति/2/284-286 )</span>; <span class="GRef">( राजवार्तिक/3/6/7/168/15 )</span>; <span class="GRef">( हरिवंशपुराण/4/373-377 )</span>; <span class="GRef">( त्रिलोकसार/205 )</span>।<br /> | ||
अर्थात्–किस प्रकार का मनुष्य या तिर्यंच किस नरक में उपजै और उत्कृष्ट कितनी बार उपजै।</span></li> | अर्थात्–किस प्रकार का मनुष्य या तिर्यंच किस नरक में उपजै और उत्कृष्ट कितनी बार उपजै।</span></li> | ||
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<ol start="5"> | <ol start="5"> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="6.5" id="6.5"> गतियों में प्रवेश व निर्गमन संबंधी गुणस्थान</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="6.5" id="6.5"> गतियों में प्रवेश व निर्गमन संबंधी गुणस्थान</strong> <br /> | ||
अर्थात् –किस गति में कौन गुणस्थान सहित प्रवेश संभव है, तथा किस विवक्षित गुणस्थान सहित प्रवेश करने वाला जीव वहाँ से किस गुणस्थान सहित निकल सकता है। | अर्थात् –किस गति में कौन गुणस्थान सहित प्रवेश संभव है, तथा किस विवक्षित गुणस्थान सहित प्रवेश करने वाला जीव वहाँ से किस गुणस्थान सहित निकल सकता है। <span class="GRef">( षट्खंडागम 6/1,9-9/ </span>सू.44-75/437-446); <span class="GRef">( राजवार्तिक/3/6/7/168/18 )</span>।</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="6.6" id="6.6"> गतिमार्गणा की अपेक्षा गति प्राप्ति</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="6.6" id="6.6"> गतिमार्गणा की अपेक्षा गति प्राप्ति</strong> <br /> | ||
अर्थात्–कौन जीव किस गति से किस गुणस्थान सहित निकलकर किस गति में उत्पन्न होता है। | अर्थात्–कौन जीव किस गति से किस गुणस्थान सहित निकलकर किस गति में उत्पन्न होता है। <span class="GRef">( षट्खंडागम 6/1,9-9/ </span>सूत्र76-202/437-484);</span></li> | ||
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<td width="653" colspan="7" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>नरकगति―</strong> | <td width="653" colspan="7" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>नरकगति―</strong><span class="GRef">( राजवार्तिक/3/6/7/168/23 )</span>; <span class="GRef">( हरिवंशपुराण/4/378 )</span>; <span class="GRef">( त्रिलोकसार/203 )</span></span></p></td> | ||
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<td width="455" colspan="5" valign="top"><p><span class="HindiText">(मू.आ./1156)–श्वापद, भुजंग, व्याघ्र, सिंह, सूकर, गीध आदि होते हैं, तथा– | <td width="455" colspan="5" valign="top"><p><span class="HindiText">(मू.आ./1156)–श्वापद, भुजंग, व्याघ्र, सिंह, सूकर, गीध आदि होते हैं, तथा–<span class="GRef">( हरिवंशपुराण/4/378 )</span>–पुन: तीसरे भव में नरक जाता है।</span></p></td> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="6.9" id="6.9"> शलाका पुरुषों की अपेक्षा गति प्राप्ति</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="6.9" id="6.9"> शलाका पुरुषों की अपेक्षा गति प्राप्ति</strong> <br /> | ||
अर्थात्–शलाका पुरुष कौन गति नियम से प्राप्त करते हैं– | अर्थात्–शलाका पुरुष कौन गति नियम से प्राप्त करते हैं–<span class="GRef">( तिलोयपण्णत्ति/4/गा.नं. )</span>।</span></li> | ||
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Revision as of 22:21, 17 November 2023
जीवों का जन्म तीन प्रकार माना गया है, गर्भज, संमूर्च्छन व उपपादज। तहाँ गर्भज भी तीन प्रकार का है जरायुज, अंडज, पोतज। तहाँ मनुष्य तिर्यंचों का जन्म गर्भज व संमूर्च्छन दो प्रकार से होता है और देव नारकियों का केवल उपपादज। माता के गर्भ से उत्पन्न होना गर्भज है, और जेर सहित या अंडे में उत्पन्न होते हैं वे जरायुज व अंडज है, तथा जो उत्पन्न होते ही दौड़ने लगते हैं वे पोतज हैं। इधर-उधर से कुछ परमाणुओं के मिश्रण से जो स्वत: उत्पन्न हो जाते हैं जैसे मेंढक, वे संमूर्च्छन हैं। देव नारकी अपने उत्पत्ति स्थान में इस प्रकार उत्पन्न होते हैं, मानो सोता हुआ व्यक्ति जाग गया हो, वह उपपादज जन्म है।
सम्यग्दर्शन आदि गुण विशेषों का अथवा नारक, तिर्यंचादि पर्याय विशेषों में व्यक्ति का जन्म के साथ क्या संबंध है वह भी इस अधिकार में बताया गया है।
- जन्म सामान्य निर्देश
- आय के अनुसार ही व्यय होता है–देखें मार्गणा ।
- गतिबंध जन्म का कारण नहीं आयु है।देखें आयु - 2।
- चारों गतियों में जन्म लेने संबंधी परिणाम।–देखें आयु - 3।
- जन्म के पश्चात् बालक के जातकर्म आदि–देखें संस्कार - 2।
- आय के अनुसार ही व्यय होता है–देखें मार्गणा ।
- गर्भज आदि जन्म विशेषों का निर्देश
- जन्म के भेद।
- बाये गये बीज में बीजवाला ही जीव या अन्य कोई भी जीव उत्पन्न हो सकता है।
- उपपादज व गर्भज जन्मों का स्वामित्व।
- सम्मूर्च्छिम जन्म–देखें सम्मूर्च्छन ।
- जन्म के भेद।
- सम्यग्दर्शन में जीव के जन्म संबंधी नियम।
- अबद्धायुष्क् सम्यग्दृष्टि उच्चकुल व गतियों आदि में ही जन्मता है, नीच में नहीं।
- बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टियों की चारों गतियों में उत्पत्ति संभव है।
- परंतु बद्धायुष्क उन-उन गतियों के उत्तम स्थानों में ही उत्पन्न होता है नीचों में नहीं।
- बद्धायुष्क क्षायिक सम्यग्दृष्टि चारों गतियों के उत्तम स्थानों में उत्पन्न होता है।
- नरकादि गतियों में जन्म संबंधी शंकाएँ–देखें वह वह नाम ।
- उपशमसम्यक्त्व सहित देवगति में ही उत्पन्न होने का नियम।–देखें मरण - 3।
- अबद्धायुष्क् सम्यग्दृष्टि उच्चकुल व गतियों आदि में ही जन्मता है, नीच में नहीं।
- सासादन गुणस्थान में जीवों के जन्म संबंधी मतभेद
- नरक में जन्म का सर्वथा निषेध है।
- अन्य तीन गतियों में उत्पन्न होने योग्य काल विशेष
- पंचेंद्रिय तिर्यंचों में गर्भज संज्ञी पर्याप्त में ही जन्मता है, अन्य में नहीं।
- असंज्ञियों में भी जन्मता है।
- विकलेंद्रियों में नहीं जन्मता।
- विकलेंद्रियों में भी जन्मता है।
- एकेंद्रियों में जन्मता है।
- एकेंद्रियों में नहीं जन्मता।
- बादर पृथिवी, अप् व प्रत्येक वनस्पति में जन्मता है अन्य कायों में नहीं।
- बादर पृथिवी आदि कायिकों में भी नहीं जन्मता।
- द्वितीयोपशम से प्राप्त सासादन वाला नियम से देवों में उत्पन्न होता है–देखें मरण - 3।
- नरक में जन्म का सर्वथा निषेध है।
- जीवों के उत्पाद संबंध कुछ नियम
- 3 तथा 5-14 गुणस्थानों में उपपाद का अभाव–देखें क्षेत्र - 3।
- मार्गणास्थानों में जीव के उपपाद संबंधी नियम व प्ररूपणाएँ–देखें क्षेत्र - 3,4।
- चरम शरीरियों व रुद्रादिकों का जन्म चौथे काल में होता है।
- अच्युतकल्प से ऊपर संयमी ही जाते हैं।
- लौकांतिक देवों में जन्मने योग्य जीव।
- संयतासंयत नियम से स्वर्ग में जाता है।
- निगोद से आकर उसी भव से मोक्ष की संभावना।
- कौनसी कषाय में मरा हुआ कहाँ जन्मता है।
- लेश्याओं में जन्म संबंधी सामान्य नियम।
- महामत्स्य से मरकर जन्म धारने संबंधी मतभेद–देखें मरण - 5.6।
- नरक व देवगति में जीवों के उपपाद संबंधी अंतर प्ररूपणाएँ–देखें अंतर - 4।
- सत्कर्मिक जीवों के उपपाद संबंधी–देखें वह वह कर्म ।
- 3 तथा 5-14 गुणस्थानों में उपपाद का अभाव–देखें क्षेत्र - 3।
- गति अगति चूलिका
- तालिकाओं में प्रयुक्त संकेत।
- किस गुणस्थान से मरकर किस गति में उपजे।
- मनुष्य व तिर्यंच गति से चयकर देवगति में उत्पत्ति संबंधी।
- नरकगति में उत्पत्ति की विशेष प्ररूपणा।
- गतियों में प्रवेश व निर्गमन संबंधी गुणस्थान।
- गतिमार्गणा की अपेक्षा गति प्राप्ति।
- इंद्रिय काय व योग की अपेक्षा गति प्राप्ति।–देखें जन्म - 6.6 में तिर्यंचगति।
- वेदमार्गणा की अपेक्षा गति प्राप्ति–देखें जन्म - 6.5।
- कषाय मार्गणा की अपेक्षा गति प्राप्ति–देखें जन्म - 5.6।
- ज्ञान व संयम मार्गणा की अपेक्षा गति प्राप्ति–देखें जन्म - 6.3।
- सम्यक्त्व मार्गणा की अपेक्षा गति प्राप्ति–देखें जन्म - 3.4।
- भव्यत्व, संज्ञित्व व आहारकत्व की अपेक्षा गति प्राप्ति–देखें जन्म - 6.6।
- संहनन की अपेक्षा गति प्राप्ति।
- शलाका पुरुषों की अपेक्षा गति प्राप्ति।
- नरकगति में पुन: पुन: भवधारण की सीमा।
- लब्ध्यपर्याप्तकों में पुन: पुन: भवधारण की सीमा–देखें आयु - 7।
- सम्यग्दृष्टि की भवधारण सीमा–देखें सम्यग्दर्शन - I.5.4।
- सल्लेखनागत जीव की भवधारण सीमा–देखें सल्लेखना - 1।
- तालिकाओं में प्रयुक्त संकेत।
- जन्म सामान्य निर्देश
- जन्म का लक्षण
राजवार्तिक/2/34/1/5 देवादिशरीरनिवृत्तौ हि देवादिजन्मेष्टम् ।=देव आदिकों के शरीर की निवृत्ति को जन्म कहा जाता है।
राजवार्तिक/4/42/4/250/15 उभयनिमित्तवशादात्मलाभमापद्यमानो भाव: जायत इत्यस्य विषय:। यथा मनुष्य गत्यादिनामकर्मोदयापेक्षया आत्मा मनुष्यादित्वेन जायत इत्युच्यते।=बाह्य आभ्यंतर दोनों निमित्तों से आत्मलाभ करना जन्म है, जैसे मनुष्यगति आदि के उदय से जीव मनुष्य पर्याय रूप से उत्पन्न होता है।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/25/85/14 प्राणग्रहणं जन्म।=प्राणों को ग्रहण करना जन्म है।
- जन्म धारण से पहिले जीव प्रदेशों के संकोच का नियम
धवला 4/1,3,2/29/6 उव्रवादो एयविहो। सो वि उप्पण्णपढमसमए चेव होदि। तत्थ उज्जुवगदीए उप्पण्णाणं खेत्तं बहुवं ण लब्भदि, संकोचिदासेसजीवपदेसादो=उपपाद एक प्रकार का है, और वह भी उत्पन्न होने के पहिले समय में ही होता है। उपपाद में ऋजुगति से उत्पन्न हुए जीवों का क्षेत्र बहुत नहीं पाया जाता है, क्योंकि इसमें जीव के समस्त प्रदेशों का संकोच हो जाता है।
- विग्रहगति में ही जीव का नवीन जन्म नहीं मान सकते
राजवार्तिक/2/34/1/145/3 मनुष्यस्तैर्यग्योनो वा छिन्नायु: कार्मणकाययोगस्थो देवादिगत्युदयाद् देवादिव्यपदेशभागिति कृत्वा तदेवास्य जन्मेति मतमिति; तन्न; किं कारणम् । शरीरनिर्वर्तकपुद्गलाभावात् । देवादिशरीरनिवृत्तौ हि देवादिजन्मेष्टम् ।=प्रश्न–मनुष्य व तिर्यंचायु के छिन्न हो जाने पर कार्मण काययोग में स्थित अर्थात् विग्रह गति में स्थित जीव को देवगति का उदय हो जाता है; और इस कारण उसको देवसंज्ञा भी प्राप्त हो जाती है। इसलिए उस अवस्था में ही उसका जन्म मान लेना चाहिए? उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि शरीरयोग्य पुद्गलों का ग्रहण न होने से उस समय जन्म नहीं माना जाता। देवादिकों के शरीर की निष्पत्ति को ही जन्म संज्ञा प्राप्त है।
- जन्म का लक्षण
- गर्भज आदि जन्म विशेषों का निर्देश
- जन्म के भेद
तत्त्वार्थसूत्र/2/21 सम्मूर्च्छनगर्भोपपादा जन्म।31। सर्वार्थसिद्धि/2/31/187/5 एते त्रय; संसारिणां जीवानां जन्मप्रकारा:। =सम्मूर्च्छन, गर्भज और उपपादज ये (तीन) जन्म हैं। संसारी जीवों के ये तीनों जन्म के भेद हैं। ( राजवार्तिक/2/31/4/140/30 )
- बोये गये बीज में बीजवाला ही जीव या अन्य कोई जीव उत्पन्न हो सकता है
गोम्मटसार जीवकांड/187/425 बीजे जोणीभूदे जीवो चंकमदि सो व अण्णो वा। जे वि य मूलादीया ते पत्तेया पढमदाए।=मूल को आदि देकर जितने बीज कहे गये हैं वे जीव के उपजने के योनिभूत स्थान हैं। उसमें जल व काल आदि का निमित्त पाकर या तो उस बीज वाला ही जीव और या कोई अन्य जीव उत्पन्न हो जाता है।
- उपपादज व गर्भज जन्मों का स्वामित्व
तिलोयपण्णत्ति/4/2948 उप्पत्ति मणुवाणं गब्भजसम्मुच्छियं खु दो भेदा।2948। तिलोयपण्णत्ति/5/293 उप्पत्ति तिरियाणं गब्भजसम्मुच्छिमो त्ति पत्तेक्कं। =मनुष्यों का जन्म गर्भ व सम्मूर्च्छन के भेद से दो प्रकार का है।2948। तिर्यंचों की उत्पत्ति गर्भ और सम्मूर्च्छन जन्म से होती है।293।
गोम्मटसार जीवकांड मूल/90-92/212 उववादा सुरणिरिया गब्भजसमुच्छिमा ह णरतिरिया।...।90। पंचिक्खतिरिक्खाओ गब्भजसम्मुच्छिमा तिरिक्खाणं। भोगभूमा गब्भभवा णरपुण्णा गब्भजा चेव।91। उबवादगब्भजेसु य लद्धिअप्पज्जत्तगा ण णियमेण।...।92। =देव और नारकी उपपाद जन्मसंयुक्त है। मनुष्य और तिर्यंच यथासंभव गर्भज और सम्मूर्च्छन होता है। पंचेंद्रिय तिर्यंच गर्भज और सम्मूर्च्छन दोनों प्रकार के होते हैं (विकलेंद्रिय व एकेंद्रिय सम्मूर्च्छन दोनों प्रकार के होते हैं)। तिर्यंच योनि में भोगभूमिया तिर्यंच गर्भज ही होते हैं और पर्याप्त मनुष्य भी गर्भज ही होते हैं। उपपादज और गर्भज जीवों में नियम से अपर्याप्तक नहीं है (सम्मूर्च्छनों में ही होते हैं)।
तत्त्वार्थसूत्र/2/34 देवनारकाणामुपपाद:।34। =देव व नारकियों का जन्म उपपादज ही होता है। (मू.आ./1131)
- उपपादज जन्म की विशेषताएँ
तिलोयपण्णत्ति/2/313-314 पावेणं णिरयबिले जादूणं ता मुहुत्तगंमेत्ते। छप्पज्जत्ती पाविय आकस्सियभयजुदो होदि।313। भीदीए कंपमाणो चलिदुं दुक्खेण पट्ठिओ संतो। छत्तीसाऊहमज्झे पडिदूणं तत्थ उप्पलइ।314। =नारकी जीव पाप से नरकबिल में उत्पन्न होकर और एक मुहूर्त मात्र काल में छह पर्याप्तियों को प्राप्त कर आकस्मिक भय से युक्त होता है।313। पश्चात् वह नारकी जीव भय काँपता हुआ बड़े कष्ट से चलने के लिए प्रस्तुत होकर और छत्तीस आयुधों के मध्य में गिरकर वहाँ से उछलता है (उछलने का प्रमाण–देखें नरक - 2)।
तिलोयपण्णत्ति/8/567 जायंते सुरलोए उववादपुरे महारिहे सयणे। जादा य मुहुत्तेण छप्पज्जत्तीओ पावंति।567। =देव सुरलोक के भीतर उपपादपुर में महार्घ शय्या पर उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होने पर एक मुहूर्त में ही छह पर्याप्तियों को भी प्राप्त कर लेते हैं।567।
- वीर्यप्रदेश के सात दिन पश्चात् तक जीव गर्भ में आ सकता है
यशोधर चरित्र/पृष्ठ 109
वीर्य तथा रज मिलने के पश्चात् 7 दिन तक जीव उसमें प्रवेश कर सकता है, तत्पश्चात् वह स्रवण कर जाता है।
- इसीलिए कदाचित् अपने वीर्य से स्वयं भी अपना पुत्र होना संभव है
यशोधर चरित्र/पृष्ठ 109
अपने वीर्य द्वारा बकरी के गर्भ में स्वयं मरकर उत्पन्न हुआ।
- गर्भवास का काल प्रमाण
धवला 10/4,2,4,58/278/8 गब्भम्मिपदिदपढमसमयप्पहुडि के वि सत्तमासे गब्भे अच्छिदूण गब्भादो णिस्सरंति, केवि अट्ठमासे, केवि णवमासे, के वि दसमासे, अच्छिदूण गब्भादो णिप्फिडंति। =गर्भ में आने के प्रथम समय से लेकर कोई सात मास गर्भ में रहकर उससे निकलते हैं, कोई आठ मास, कोई नौ मास और कोई दस मास रहकर गर्भ से निकलते हैं।
- रज व वीर्य से शरीर निर्माण का क्रम
भगवती आराधना/1007-1017 कललगदं दसरत्तं अच्छदि कलुसकिदं च दसरत्तं। थिरभूदं दसरत्तं अच्छवि गब्भम्मि तं बीयं।1007। तत्तो मासं बुब्बुदभूदं अच्छदि पुणो वि घणभूदं। जायदि मासेण तदो मंसप्पेसी य मासेण।1008। मासेण पंचपुलगा तत्तो हुंति हु पुणो वि मासेण। अंगाणि उवंगाणि य णरस्स जायंति गब्भम्मि।1009। मासम्मि सत्तमे तस्स होदि चम्मणहरोमणिप्पत्ती। फंदणमट्ठममासे णवमे दसमे य णिग्गमणं।1010। आमासयम्मि पक्कासयस्स उवरिं अमेज्झमज्झम्मि। वत्थिपडलपच्छण्णो अच्छइ गब्भे हु णवमासं।1012। दंतेहिं चव्विदं वीलणं च सिंभेण मेलिदं संतं। मायाहारिपमण्णं जुत्तं पित्तेण कडुएण।1015। वमिगं अमेज्झसरिसं वादविओजिदरसं खलं गब्भे। आहारेदि समंता उवरिं थिप्पंतगं णिच्चं।1016। तो सत्तमम्मि मासे उप्पलणालसरिसी हवइ णाही। तत्तो पाए वमियं तं आहारेदि णाहीए।1017।=माता के उदर में वीर्य का प्रवेश होने पर वीर्य का कलल बनता है, जो दस दिन तक काला रहता है और अगले 10 दिन तक स्थिर रहता है।1007। दूसरे मास वह बुदबुदरूप हो जाता है, तीसरे मास उसका घट्ट बनता है और चौथे मास में मांसपेशी का रूप धर लेता है।1008। पाँचवें मास उसमें पाँच पुंलव (अंकुर) उत्पन्न होते हैं। नीचे के अंकुर से दो पैर, ऊपर के अंकुर से मस्तक और बीच में अंकुरों से दो हाथ उत्पन्न होते हैं। छठे मास उक्त पाँच अंगों की और आँख, कान आदि उपांगों की रचना होती है।1009। सातवें मास उन अवयवों पर चर्म व रोम उत्पन्न होते हैं और आठवें मास वह गर्भ में ही हिलने-डुलने लगता है। नवमें या दसवें मास वह गर्भ से बाहर आता है।1010। आमाशय और पक्वाशय के मध्य वह जेर से लिपटा हुआ नौ मास तक रहता है।1012। दाँत से चबाया गया कफ से गीला होकर मिश्रित हुआ ऐसा, माता द्वारा भुक्त अन्न माता के उदर में पित्त से मिलकर कडुआ हो जाता है।1015। वह कडुआ अन्न एक-एक बिंदु करके गर्भस्थ बालक पर गिरता है और वह उसे सर्वांग से ग्रहण करता रहता है।1016। सातवें महीने में जब कमल के डंठल के समान दीर्घ नाल पैदा हो जाता है तब उसके द्वारा उपरोक्त आहार को ग्रहण करने लगता है। इस आहार से उसका शरीर पुष्ट होता है।1017।
- जन्म के भेद
- सम्यग्दर्शन में जीव के जन्म संबंधी नियम
- अबद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि उच्च कुल व गतियों आदि में ही जन्मता है नीच में नहीं
रत्नकरंड श्रावकाचार/35 ,36 सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकतिर्यङ्नपुंसकस्त्रीत्वानि। दुष्कुलविकृताल्पायुर्दरिद्रतां च व्रजंति नाप्यव्रतिका:।35। ओजस्तेजो विद्यावीर्ययशोवृद्धिविजयविभवसनाथा:। महाकुला महार्था मानवतिलका भवंति दर्शनपूता:।36। =जो सम्यग्दर्शन से शुद्ध हैं वे व्रतरहित होने पर भी नरक, तिर्यंच, नपुंसक व स्त्रीपने को तथा नीचकुल, विकलांग, अल्पायु और दरिद्रपने को प्राप्त नहीं होते हैं।35। शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव कांति, प्रताप, विद्या, वीर्य, यश की वृद्धि, विजय विभव के स्वामी उच्चकुली धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के साधक मनुष्यों में शिरोमणि होते हैं।36। (द्रव्यसंग्रह टीका/41/178/8 पर उद्धृत)
द्रव्यसंग्रह टीका/41/178/7 इदानीं येषां जीवानां सम्यग्दर्शनग्रहणात्पूर्वमायुर्बंधो नास्ति तेषां व्रताभावेऽपि नरनारकादिकुत्सितस्थानेषु जन्म न भवतीति कथयति।=अब जिन जीवों के सम्यग्दर्शन ग्रहण होने से पहले आयु का बंध नहीं हुआ है, वे व्रत न होने पर भी निंदनीय नर नारक आदि स्थानों में जन्म नहीं लेते, ऐसा कथन करते हैं। (आगे उपरोक्त श्लोक उद्धृत किये हैं। अर्थात् उपरोक्त नियम अबद्धायुष्क के लिए जानना बद्धायुष्क के लिए नहीं)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/327 सम्माइट्ठी जीवो दुग्गदि हेदुं ण बंधदे कम्मं। जं बहु भवेसु बद्धं दुक्कम्मं तं पि णासेदि।37। =सम्यग्दृष्टि जीव ऐसे कर्मों का बंध नहीं करता जो दुर्गति के कारण हैं बल्कि पहले अनेक भवो में जो अशुभ कर्म बाँधे हैं उनका भी नाश कर देता है।
- बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि की चारों गतियों में उत्पत्ति संभव है
गोम्मटसार जीवकांड/ जीवतत्त्व प्रदीपिका/127/338/15 मिथ्यादृष्टसंयतगुणस्थानमृताश्चतुर्गतिषु...चोत्पद्यंते। =मिथ्यादृष्टि और संयत गुणस्थानवर्ती चारों गतियों में उत्पन्न होते हैं।
- परंतु बद्धायुष्क उन-उन गतियों के उत्तम स्थानों में ही उत्पन्न होते हैं नीचों में नहीं
पंचसंग्रह प्राकृत/1/193 छसु हेट्ठिमासु पुढवीसु जोइसवणभवणसव्व इत्थीसु। बारस मिच्छावादे सम्माइट्ठीसु णत्थि उववादो। =प्रथम पृथिवियों के बिना अधस्थ छहों पृथिवियों में, ज्योतिषी व्यंतर भवन-वासी देवों में सर्व प्रकार की स्त्रियों में अर्थात् तिर्यंचिनी मनुष्यणी और देवियों में तथा बारह मिथ्यावादों में अर्थात् जिनमें केवल मिथ्यात्व गुणस्थान ही संभव है ऐसे एकेंद्रिय विकलेंद्रिय और असंज्ञीपंचेंद्रिय तिर्यंचों के बारह जीवसमासों में, सम्यग्दृष्टि जीव का उत्पाद नहीं है, अर्थात् सम्यक्त्व सहित ही मरकर इनमें उत्पन्न नहीं होता है। ( धवला 1/1,1,26/ गाथा 133/209); ( गोम्मटसार जीवकांड मूल/129/339)
द्रव्यसंग्रह टीका/41/179/2 इदानीं सम्यक्त्वग्रहणात्पूर्व देवायुष्कं विहाय ये बद्धायुष्कास्तान् प्रति सम्यक्त्वमाहात्म्यं कथयति। हेटि्ठमछप्पुढवीणं जोइसवणभवणसव्वइच्छीणं। पुण्णिदरेण हि समणो णारयापुण्णे। ( गोम्मटसार जीवकांड मूल/128/339)। तमेवार्थं प्रकारांतरेण कथयति–ज्योतिर्भावनभौमेषु षट्स्वध: श्वभ्रभूमिषु। तिर्यक्षु नृसुरस्त्रीषु सद्दृष्टिर्नैव जायते। =अब जिन्होंने सम्यक्त्व ग्रहण करने के पहले ही देवायु को छोड़कर अन्य किसी आयु का बंध कर लिया है उनके प्रति सम्यक्त्व का माहात्म्य कहते हैं। (यहाँ दो गाथाएँ उद्धृत की हैं)। (गोम्मटसार जीवकांड मूल/128/339 से)–प्रथम नरक को छोड़कर अन्य छह नरकों में; ज्योतिषी, व्यंतर व भवनवासी देवों में, सब स्त्री लिंगों में और तिर्यंचों में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते। (गोम्मटसार जीवकांड/128) इसी आशय को अन्य प्रकार से कहते हैं–ज्योतिषी, भवनवासी और व्यंतर देवों में, नीचे के 6 नरकों की पृथिवियों में, तिर्यंचों में और मनुष्यणियों व देवियों में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते।
- बद्धायुष्क क्षायिक सम्यग्दृष्टि चारों ही गतियों के उत्तम स्थानों में उत्पन्न होता है
कषायपाहुड़/2/2/240/213/3 खीणदंसणमोहणीयं चउग्गईसु उप्पज्जमाणं पेक्खिदूण। =जिनके दर्शनमोहनीय का क्षय हो गया है ऐसे जीव चारों गतियों में उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं।
धवला 2/1,1/481/1 मणुस्सा पुव्वबद्ध-तिरिक्खयुगापच्छा सम्मत्तं घेत्तूण दंसणमोहणीय खविय खइय सम्माइट्ठी होदूण असंखेज्ज-वस्सायुगेसु तिरिक्खेसु उप्पज्जंति ण अणत्थ। =जिन मनुष्यों ने सम्यग्दर्शन होने से पहले तिर्यंचायु को बाँध लिया वे पीछे सम्यक्त्व को ग्रहण कर और दर्शनमोहनीय का क्षपण करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर असंख्यात वर्ष की आयुवाले भोगभूमि के तिर्यंचों में ही उत्पन्न होते हैं अन्यत्र नहीं। (विशेष देखें तिर्यंच - 2)।
धवला 1/1,1,25/205/5 सम्यग्दृष्टीनां बद्धायुषां तत्रोत्पत्तिरस्तीति तत्रासंयतसम्यग्दृष्टय: संति। =बद्धायुष्क (क्षायिक) सम्यग्दृष्टियों की नरक में उत्पत्ति होती है, इसलिए नरक में असंयत सम्यग्दृष्टि पाये जाते हैं।
धवला 1/1,1,25/207/1 प्रथमपृथिव्युत्पत्तिं प्रति निषेधाभावात् । प्रथमपृथिव्यामिव द्वितीयादिषु पृथिवीषु सम्यग्दृष्टय: किंनोत्पद्यंत इति चेन्न, सम्यक्त्वस्य तत्रतन्न्यापर्याप्ताद्धया सह विरोधात् । =सम्यग्दृष्टि मरकर प्रथम पृथिवी में उत्पन्न होते हैं, इसका आगम में निषेध नहीं है। प्रश्न–प्रथम पृथिवी की भाँति द्वितीयादि पृथिवियों में भी वे क्यों उत्पन्न नहीं होते हैं? उत्तर–नहीं, क्योंकि, द्वितीयादि पृथिवियों की अपर्याप्त अवस्था के साथ सम्यग्दर्शन का विरोध है। (विशेष–देखें नरक - 4)।
- कृतकृत्य वेदक सहित जीवों के उत्पत्ति क्रम संबंधी नियम
कषायपाहुड़/2/2-/242/215/7 पढमसमयकदकरणिज्जो जदि मरदि णियमो देवेसु उव्वज्जदि। जदि णेरइएसु तिरिक्खेसु मणुस्सेसु वा उववज्जदि तो णियमा। अंतोमुहुत्तकदकरणिज्जो त्ति जइवसहाइरियपरूविद चुण्णिसुत्तादो। =कृतकृत्यवेदक जीव यदि कृतकृत्य होने के प्रथम समय में मरण करता है तो नियम से देवों में उत्पन्न होता है। किंतु जो कृतकृत्यवेदक जीव नारकी तिर्यंचों और मनुष्यों में उत्पन्न होता है वह नियम से अंतर्मुहूर्त काल तक कृतकृत्यवेदक रहकर ही मरता है। इस प्रकार यतिवृषभाचार्य के द्वारा कहे चूर्ण सूत्र में जाना जाता है।
धवला 2/1,1/481/4 तत्थ उप्पज्जमाण कदकरणिज्जं पडुच्च वेदगसम्मत्तं लब्भदि।=उन्हीं भोग भूमि के तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले (बद्धायुष्क–देखो अगला शीर्षक) जीवों के कृतकृत्य वेदक की अपेक्षा वेदक सम्यक्त्व भी पाया जाता है।
गोम्मटसार कर्मकांड/562/764 देवेसु देवमणुवे सुरणरतिरिये चउगईसुंपि। कदकरणिज्जुप्पत्ती कमसो अंतोमुहुत्तेण।562। =कृतकृत्य वेदक का काल अंतर्मुहूर्त है। ताका चार भाग कीजिए। तहाँ क्रमतैं प्रथमभाग का अंतर्मुहूर्तकरि मरया हुआ देवविषै उपजै है, दूसरे भाग का मरा हुआ देवविषै व मनुष्यविषै, तीसरे भाग का देव मनुष्य व तिर्यंचविषै, चौथे भाग का देव, मनुष्य, तिर्यंच व नारक (इन चारों में से) किसी एक विषै उपजै है। ( लब्धिसार/ मूल/146/200)
- सम्यग्दृष्टि मरने पर पुरुषवेदी ही होता है
धवला 2/1,1/510/10 देव णेरइय मणुस्स-असंजदसम्माइट्ठिणो जदि मणुस्सेसु उप्पज्जंति तो णियमा पुरिसवेदेसु चेव उप्पंज्जंति ण अण्णवेदेसु तेण पुरिसवेदो चेव भणिदो।=देव नारकी और मनुष्य असंयत सम्यग्दृष्टि जीव मरकर यदि मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, तो नियम से पुरुषवेदी मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं; अन्य वेदवाले मनुष्यों में नहीं। इससे असंयत सम्यग्दृष्टि अपर्याप्त के एक पुरुषवेद ही कहा है (विशेष देखें पर्याप्ति )।
धवला 1/1,1,93/332/10 हुंडावसर्पिंयां स्त्रीषु सम्यग्दृष्टय: किंनोत्पद्यंते इति चेन्न, उत्पद्यंते। कुतोऽवसीयते ? अस्मादेवार्षात् ।=प्रश्न–हुंडावसर्पिणीकाल संबंधी स्त्रियों में सम्यग्दृष्टि जीव क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ? उत्तर–नहीं, क्योंकि उनमें सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होते हैं। प्रश्न–यह किस प्रमाण से जाना जाता है ? उत्तर–इसी षट्खंडागम आगमप्रमाण से जाना जाता है।
- अबद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि उच्च कुल व गतियों आदि में ही जन्मता है नीच में नहीं
- सासादन गुणस्थान में जीवों के जन्म संबंधी मतभेद
- नरक में जन्मने का सर्वथा निषेध है
धवला 6/1,9-9/47/438/8 सासणसम्माइट्ठीणं च णिरयगदिम्हि पवेसो णत्थि। एत्थ पवेसापदुप्पायण अण्णहाणुववत्तीदो। =सासादन सम्यग्दृष्टियों का नरकगति में प्रवेश ही नहीं है, क्योंकि यहाँ प्रवेश के प्रतिपादन न करने की अन्यथा उपपत्ति नहीं बनती। (सूत्र नं.46 में मिथ्यादृष्टि के नरक में प्रवेश विषयक प्ररूपणा करके सूत्र नं.47 में सम्यग्दृष्टि के प्रवेश विषयक प्ररूपणा की गयी है। बीच में सासादन व मिश्र गुणस्थान की प्ररूपणाएँ छोड़ दी हैं)।
धवला 1/1,1,25/205/9 न सासादनगुणवतां तत्रोत्पत्तिस्तद्गुणस्य तत्रोत्पत्त्या सह विरोधात् ।...किमित्यपर्याप्तया विरोधश्चेत्स्वभावोऽयं, न हि स्वभावा: परपर्यनुयोगार्हा:। =सासादन गुणस्थान का नरक में उत्पत्ति के साथ विरोध है। प्रश्न–नरकगति में अपर्याप्तावस्था के साथ दूसरे (सासादन) गुणस्थान का विरोध क्यों है? उत्तर–यह नारकियों का स्वभाव है, और स्वभाव दूसरे के प्रश्न के योग्य नहीं होते।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/127/338/15 सासादनगुणस्थानमृता नरकवर्जितगतिषु उतोत्पद्यंते। =सासादन गुणस्थान में मरा हुआ जीव नरक रहित शेष तीन गतियों में उत्पन्न होते हैं।
- अन्य तीन गतियों में उत्पन्न होने योग्य कालविशेष
धवला 5/1,6,38/35/3 सासणं पडिवण्णविदिए समए जदि मरदि, तो णियमेण देवगदीए उववज्जदि। एवं जाव आवलियाए असंखेज्जदिभागो देवगदिपाओग्गो कालो होदि। तदो उवरि मणुसगदिपाओग्गो आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो कालो होदि। एवं सण्णिपंचिंदियतिरिक्ख-चउरिंदिय-तेइंदिय-वेइंदिय-एइंदियपाओग्गो होदि। एसो णियमो सव्वत्थ सासणगुणं पडिवज्जमाणाणं। =सासादन गुणस्थान को प्राप्त होने के द्वितीय समय में यदि वह जीव मरता है तो नियम से देवगति में उत्पन्न होता है। इस प्रकार आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल देवगति में उत्पन्न होने के योग्य होता है। उसके ऊपर मनुष्यगति (में उत्पन्न होने) के योग्यकाल आवली के असंख्यातवेंभाग प्रमाण है। इसी प्रकार से आगे-आगे संज्ञी पंचेंद्रिय, असंज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच, चतुरिंद्रिय, त्रींद्रिय, द्वींद्रिय और एकेंद्रियों में उत्पन्न होने योग्य (काल) होता है। यह नियम सर्वत्र सासादन गुणस्थान को प्राप्त होने वालों का जानना चाहिए।
- पंचेंद्रिय तिर्यंचों में गर्भज संज्ञी पर्याप्त में ही जन्मता है अन्य में नहीं
षट्खंडागम/6/1,9-9/ सूत्र 122-125/461 पंचिंदिएसु गच्छंता सण्णीसु गच्छंति, णो असण्णीसु।122। सण्णीसु गच्छंता गब्भोवक्कंतिएसु गच्छंता, णो सम्मुच्छिमेसु।123। गब्भोवक्कंतिएसु गच्छंता पज्जयत्तएससु, णो अप्पज्जत्तएसु।124। पज्जत्तएसु गच्छंता संखेज्जवासाउएसु वि गच्छंति असंखेज्जवासाउवेसु वि।125। =तिर्यंचों में जाने वाले संख्यात वर्षायुष्क सासादन सम्यग्दृष्टि तिर्यंच।119। पंचेंद्रियों में भी जाते हैं।120। पंचेंद्रियों में भी संज्ञियों में ही जाते हैं असंज्ञियों में नहीं।122। संज्ञियों में भी गर्भजों में जाते हैं संमूर्च्छिमों में नहीं।123। गर्भजों में भी पर्याप्तकों में जाते हैं अपर्याप्तकों में नहीं।124। पर्याप्तकों में जाने वाले वे संख्यात वर्षायुष्कों में भी जाते हैं और असंख्यात वर्षायुष्कों में भी।125। (देखो आगे गति अगति चूलिका नं.3 शेष गतियों से आने वाले जीवों के लिए भी उपरोक्त ही नियम है।) ( धवला 2/1,1/427 )।
- असंज्ञियों में भी जन्मता है
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/695/1131/13 सासादने...संज्ञ्यसंज्ञ्यपर्याप्तसंज्ञिपर्याप्ता:...। द्वितीयोपशम सम्यक्त्वविराधकस्य सासादनत्वप्राप्तिपक्षे च संज्ञिपर्याप्तदेवापर्याप्ताविति द्वौ।=सासादनविषै जीवसमास असंज्ञी अपर्याप्त और संज्ञी पर्याप्त व अपर्याप्त भी होते हैं और द्वितीयोपशम सम्यक्त्वतै पड़ जो सासादनको भया होइ ताकि अपेक्षा तहाँ सैनी पर्याप्त और देव अपर्याप्त ये दो ही जीव समास है। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/703/1137/14 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/551/753/4 )।
- विकलेंद्रियों में नहीं जन्मता
धवला 6/1,9-9/ सूत्र 120/459 तिरिक्खेसु गच्छंता एइंदिए पंचिंदिएसु गच्छंति णो विगलिंदिएसु।120। =तिर्यंचों में जाने वाले संख्यात वर्षायुष्क सासादन सम्यग्दृष्टि तिर्यंच एकेंद्रिय व पंचेंद्रियों में जाते हैं पर विकलेंद्रियों में नहीं।120।
धवला 6/1,9-9/ सूत्र76-78;150-152;175 (नरक, मनुष्य व देवगति से आकर तिर्यंचों में उपजने वाले सासादन सम्यग्दृष्टियों के लिए भी उपरोक्त ही नियम कहा गया है)।
धवला 2/1,1/576,580 (विकलेंद्रिय पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों अवस्थाओं में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही कहा गया है)।
(देखें इंद्रिय - 4.4) विकलेंद्रियों में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही कहा गया है।
- विकलेंद्रियों में भी जन्मता है
पंचसंग्रह / प्राकृत/4/59 मिच्छा सादा दोण्णि य इगि वियले होंति ताणि णायव्वा। पंचसंग्रह / प्राकृत टीका /4/59/99/1 तेदेकेंद्रियविकलेंद्रियाणां पर्याप्तकाले एकं मिथ्यात्वम् । तेषां केषांचित् अपर्याप्तकाले उत्पत्तिसमये सासादनं संभवति। =इंद्रिय मार्गणा की अपेक्षा एकेंद्रिय और विकलेंद्रिय जीवों में मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होते हैं। यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि उक्त जीवों में सासादन गुणस्थान निवृत्त्यपर्याप्त दशा में ही संभव है अन्यत्र नहीं, क्योंकि पर्याप्त दशा में तो तहाँ एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही पाया जाता है।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/695/1131/13 सासादने बादरैकद्वित्रिचतुरिंद्रिय संज्ञ्यसंज्ञ्यपर्याप्तसंज्ञिपर्याप्ता: सप्त। =सासादन विषै बादर एकेंद्री बेंद्री तेंद्री चौइंद्री व असैनी तो अपर्याप्त और सैनी पर्याप्त व अपर्याप्त ए सात जीव समास होते हैं। (गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/703/1137/11 ), (गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/551/753/4)
- एकेंद्रियों में जन्मता है
षट्खंडागम 6/1,9-9/ सूत्र120/459 तिरिक्खेसु गच्छंता एइंदिया पंचिंदिएसु गच्छंति, णो विगलिंदिएसु।120।=तिर्यंचों में जाने वाले संख्यात वर्षायुष्क सासादन सम्यग्दृष्टि तिर्यंच एकेंद्रिय व पंचेंद्रिय में जाते हैं, परंतु विकलेंद्रिय में नहीं जाते।
षट्खंडागम 6/1,9-9/ सूत्र 76-78/150-152;175 सारार्थ (नरक मनुष्य व देवगति में आकर तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले सासादन सम्यग्दृष्टियों के लिए भी उपरोक्त ही नियम कहा गया है)।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/695/1131/13 सासादने बादरैकद्वित्रिचतुरिंद्रियसंज्ञ्यसंज्ञ्यपर्याप्तसंज्ञिपर्याप्ता: सप्त। =सासादन में बादर एकेंद्रिय अपर्याप्त जीवसमास भी होता है। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/703/1137/11 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/551/753/4 )।
- एकेंद्रियों में नहीं जन्मता
देखें इंद्रिय - 4.4 एकेंद्रिय व विकलेंद्रिय पर्याप्त व अपर्याप्त सब में एक मिथ्यात्व गुणस्थान बताया है।
धवला 4/1,4,4/165/7 जे पुण देवसासणा एइंदिएसुप्पज्जंति त्ति भणंति तेसिमभिप्पाएण, बारहचोद्दसभागा देसूणा उववादफोसणं होदि, एदं पि वक्खाणं संत-दव्वसुत्तविरुद्धं ति ण घेत्तव्वं।=जो ऐसा कहते हैं कि सासादन सम्यग्दृष्टि देव एकेंद्रियों में उत्पन्न होते हैं, उनके अभिप्राय से कुछ कम 12/14 उपपाद पद का स्पर्शन होता है। किंतु यह भी व्याख्यान सत्प्ररूपणा और द्रव्यानुयोगद्वार के सूत्रों के विरुद्ध पड़ता है, इसलिए उसे नहीं ग्रहण करना चाहिए।
धवला 7/2,7,262/457/2 ण, सासणाणमेइंदिएसु उववादाभावादो।=सासादन सम्यग्दृष्टियों की एकेंद्रियों में उत्पत्ति नहीं है।
- बादर पृथिवी अप् व प्रत्येक वनस्पति में जन्मता है अन्य कार्यों में नहीं
षट्खंडागम 6/1,9-9/ सूत्र121/460 एइंदिएसु गच्छंता बादरपुढवीकाइयाबादरआउक्काइया-बादरबणप्फइकाइयपत्तेयसरीर पज्जत्तएसु गच्छंत्ति णो अप्पज्जत्तेसु।121। =एकेंद्रियों में जाने वाले वे जीव (संख्यात वर्षायुष्क सासादन सम्यग्दृष्टि तिर्यंच) बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्तकों में ही जाते हैं अपर्याप्तों में नहीं।
षट्खंडागम 6/1,9-9/सूत्र 153,176 मनुष्य व देवगति से आने वालों के लिए भी उपरोक्त ही नियम है।
पंचसंग्रह / प्राकृत/4/59-60 भूदयहरिएसु दोण्णि पढमाणि।59। तेऊवाऊकाए मिच्छं...।60। पंचसंग्रह / प्राकृत/ टीका/4/60/99/5 तयोरेकं कथम् ? सासादनस्थो जीवो मृत्वा तेजोवायुकायिकयोर्मध्ये न उत्पद्यते, इति हेतो:। =काय मार्गणा की अपेक्षा पृथिवीकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों में आदि के दो गुणस्थान होते हैं। तेजस्कायिक और वायुकायिक में एक मिथ्यात्व गुणस्थान होता है, क्योंकि सासादन सम्यग्दृष्टि जीव मरकर तेज व वायुकायिकों में उत्पन्न नहीं होते।
गोम्मटसार कर्मकांड/115/105 ण हि सासणो अपुण्णे साहारणसुहुमगे य तेउदुगे।...।115।=लब्धि अपर्याप्त, साधारणशरीरयुक्त, सर्व सूक्ष्म जीव, तथा बातकायिक तेजस्कायिक विषैं सासादन गुणस्थान न पाइए है।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/309/438/8 गुणस्थानद्वयं। कुत:। ‘‘ण हि सासणो अपुण्णे...।’’ इति पारिशेषात् पृथ्व्यप्प्रत्येकवनस्पतिषु सासादनस्योत्पत्ते:। =प्रश्न–पृथिवी आदिकों में दो गुणस्थान कैसे होते हैं ? उत्तर–‘‘ण हि सासण अपुण्णो–’’ इत्यादि उपरोक्त गाथा नं.195 में अपर्याप्तकादि स्थानों का निषेध किया है। परिशेष न्याय से उनसे बचे जो पृथिवी, अप् और प्रत्येक वनस्पतिकायिक उनमें सासादन की उत्पत्ति जानी जाती है। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/703/1137/14 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/551/753/4 )
- बादर पृथिवी आदि कायिकों में भी नहीं जन्मते
धवला 2/1,1/607,610,615 सारार्थ (बादरपृथिवीकायिक, बादरवायुकायिक व प्रत्येक वनस्पतिकायिक पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों अवस्थाओं में सर्वत्र एक मिथ्यात्व ही गुणस्थान बताया गया है।)
देखें काय - 2.4 पृथिवी आदि सभी स्थावर कायिकों में केवल एक मिथ्यात्वगुणस्थान ही बताया गया है।
- एकेंद्रियों में उत्पन्न नहीं होते बल्कि उनमें मारणांतिक समुद्घात करते हैं
धवला 4/1,4,4/162/10 जदि सासणा एइंदिएसु उपज्जंति, तो तत्थ दो गुणट्ठाणाणि होंति। ण च एवं, संताणिओगद्दारे तत्थ एक्कमिच्छादिटि्ठगुणप्पदुप्पायणादो दव्वाणिओगद्दारे वि तत्थ एगगुणट्ठाणदव्वस्स पमाणपरूवणादो च। को एवं भणदि जधा सासणा एइंदियसुप्पज्जंति त्ति। किंतु ते तत्थ मारणंतियं मेल्लंति त्ति अम्हाणं णिच्छओ। ण पुण ते तत्थ उप्पज्जंति त्ति, छिण्णाउकाले तत्थ सासणगुणाणुवलंभादो। जत्थ सासणाणमुववादो णत्थि, तत्थ वि जदि सासणा मारणंतियं मेल्लंति, तो सत्तमपुढविणेरइया वि सासणगुणेण सह पंचिंदियतिरिक्खेसु मारणंतियं मेल्लंतु, सासणत्तं पडि विसेसाभावादो। ण एस दोसो, भिण्णजादित्तादो। एदे सत्तमपुढविणेरइया पंचिंदियतिरिक्खेसु गब्भोवक्कंतिएसु चेव उप्पजणसहावा, ते पुण देवा पंचिंदिएसु एइंदिएसु य उप्पज्जणसहावा, तदो ण समाणजादीया। ...तम्हा सत्तमपुढविणेरइया सासणगुणेण सह देवा इव मारणंतियं ण करेंति त्ति सिद्धं। ...वाउकाइएसु सासणा मारणंतियं किण्ण करेंति। ण, सयलसासणाणं देवाणं व तेउ-वाउकाइएसु मारणंतियाभावादो, पुढविपरिणाम-विमाण-तल-सिला-थंभ-थूभतल-उब्भसालहंजिया-कुडु-तोरणादीणं तदुप्पत्तिजोगाणं दंसणादो च। प्रश्न–यदि सासादन सम्यग्दृष्टि जीव एकेंद्रियों में उत्पन्न होते हैं तो उनमें वहाँ पर दो गुणस्थान प्राप्त होते हैं। किंतु ऐसा नहीं है, क्योंकि सत्प्ररूपणा अनुयोग द्वार में एकेंद्रियों में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही कहा गया है, तथा द्रव्यानुयोगद्वार में भी उनमें एक ही गुणस्थान के द्रव्य का प्रमाण प्ररूपण किया गया है ? उत्तर–कौन ऐसा कहता है कि सासादन सम्यग्दृष्टि जीव एकेंद्रियों में होते हैं ? किंतु वे उस एकेंद्रिय में मारणांतिक समुद्धात को करते हैं; ऐसा हमारा निश्चय है। न कि वे अर्थात् सासादन सम्यग्दृष्टि जीव एकेंद्रियों में उत्पन्न होते हैं; क्योंकि उनमें आयु के छिन्न होने के समय सासादन गुणस्थान नहीं पाया जाता है। प्रश्न–जहाँ पर सासादन सम्यग्दृष्टियों का उत्पाद नहीं है, वहाँ पर भी यदि (वे देव) सासादन सम्यग्दृष्टि जीव मारणांतिक समुद्घात को करते हैं, तो सातवीं पृथिवी के नारकियों को सासादन गुणस्थान के साथ पंचेंद्रिय तिर्यंचों में मारणांतिक समुद्घात करना चाहिए, क्योंकि, सासादन गुणस्थान की अपेक्षा दोनों में कोई विशेषता नहीं है ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, देव और नारकी इन दोनों की भिन्न जाति है, ये सातवीं पृथिवी के नारकी गर्भजन्म वाले पंचेंद्रियों में ही उपजने के स्वभाव वाले हैं, और वे देव पंचेंद्रियों में तथा एकेंद्रियों में उत्पन्न होने रूप स्वभाव वाले हैं, इसलिए दोनों समान जातीय नहीं हैं।...इसलिए सातवीं पृथिवी के नारकी देवों की तरह मारणांतिक समुद्घात नहीं करते हैं। प्रश्न–सासादन सम्यग्दृष्टि जीव वायुकायिकों में मारणांतिक समुद्घात क्यों नहीं करते ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, सकल सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों का देवों के समान तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों में मारणांतिक समुद्घात का अभाव माना गया है। और पृथिवी के विकाररूप विमान, शय्या, शिला, स्तंभ और स्तूप, इनके तलभाग तथा खड़ी हुई शालभंजिका (मिट्टी की पुतली) भित्ति और तोरणादिक उनकी उत्पत्ति के योग्य देखे जाते हैं।
- दोनों दृष्टियों में समन्वय
धवला 7/2,7,259/457/2 सासणाणमेइंदिएसु उववादाभावादो। मारणंतियमेइंदिएसु गदसासणा तत्थ किण्ण उप्पज्जंति। ण मिच्छत्तमागंत्तूण सासणगुणेण उप्पत्तिविरोहादो।=सासादन सम्यग्दृष्टियों की एकेंद्रियों में उत्पत्ति नहीं है। प्रश्न–एकेंद्रियों में मारणांतिक समुद्घात को प्राप्त हुए सासादन सम्यग्दृष्टि जीव उनमें उत्पन्न क्यों नहीं होते ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, आयु के नष्ट होने पर उक्त जीव मिथ्यात्व गुणस्थान में आ जाते हैं, अत: मिथ्यात्व में आकर सासादन गुणस्थान के साथ उत्पत्ति का विरोध है।
धवला 6/1,9,9,120/459/8 जदि एइंदिएसु सासणसम्माइट्ठी उप्पज्जदि तो पुढवीकायादिसु दो गुणट्ठाणाणि होंति त्ति चे ण, छिण्णाउअपढमसमए सासणगुणविणासादो। =प्रश्न–यदि एकेंद्रियों में सासादन सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं तो पृथिवीकायिकादिक जीवों में मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होने चाहिए। उत्तर–नहीं, क्योंकि, आयु क्षीण होने के प्रथम समय में ही सासादन गुणस्थान का विनाश हो जाता है।
धवला/1/1,1,36/261/8 एइंदिएसु सासणगुणट्ठाणं पि सुणिज्जदि तं कधं घडदे। ण एदम्हि सुत्ते तस्स णिसिद्धत्तादो। विरुद्धाणं कथं दोण्हं पि सुत्ताणमिदि ण, दोण्हं एक्कदरस्स सुत्तादो। दोण्हं मज्झे इदं सुत्तमिदं च ण भवदीदि कधं णव्वदि। उवदेसमंतरेण तदवगमाभावा दोण्हं पि संगहो कायव्वो। =प्रश्न–एकेंद्रिय जीवों में सासादन गुणस्थान भी सुनने में आता है, इसलिए उनके केवल एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के कथन करने से वह कैसे बन सकेगा। उत्तर–नहीं, क्योंकि, इस षट्खंडागम सूत्र में एकेंद्रियादिकों के सासादन गुणस्थान का निषेध किया है। प्रश्न–जबकि दोनों वचन परस्पर विरोधी हैं तो उन्हें सूत्रपना कैसे प्राप्त हो सकता है? उत्तर–नहीं, क्योंकि दोनों वचन सूत्र नहीं हो सकते हैं, किंतु उन दोनों वचनों में से किसी एक वचन को ही सूत्रपना प्राप्त हो सकता है। प्रश्न–दोनों वचनों में यह सूत्ररूप है और यह नहीं, यह कैसे जाना जाये। उत्तर–उपदेश के बिना दोनों में से कौन वचन सूत्ररूप है यह नहीं जाना जा सकता है, इसलिए दोनों वचनों का संग्रह करना चाहिए (आचार्यों पर श्रद्धान करके ग्रहण करने के कारण इससे संशय भी उत्पन्न होना संभव नहीं। (–देखें श्रद्धान - 3)।
- नरक में जन्मने का सर्वथा निषेध है
- जीवों के उपपाद संबंधी कुछ नियम
- चरम शरीरियों का व रुद्र आदिकों का उपपाद चौथे काल में ही होता है
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/185 रुद्दा य कामदेवा गणहरदेवा व चरमदेहधरा दुस्समसुसमे काले उप्पत्ती ताण बोद्धव्वो।185। =रुद्र, कामदेव, गणधरदेव और जो चरमशरीरी मनुष्य हैं, उनकी उत्पत्ति दुषमसुषमा काल में जानना चाहिए।
- अच्युत कल्प से ऊपर संयमी ही जाते हैं
धवला 6/1,9-9,133/465/6 उवरिं किण्ण गच्छंति। ण तिरिक्खसम्माइट्ठीसु संजमाभावा। संजमेण विणा ण च उवरिं गमणमत्थि। ण मिच्छाइट्ठीहि तत्थुप्पज्जंतेहि विउचारो, तेसिं पि भावसंजमेण विणा दव्वसंजमस्स संभवा। =प्रश्न–संख्यात वर्षायुष्क असंयत सम्यग्दृष्टि तिर्यंच मरकर आरण अच्युत कल्प से ऊपर क्यों नहीं जाते ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, तिर्यंच सम्यग्दृष्टि जीवों में संयम का अभाव पाया जाता है। और संयम के बिना आरण अच्युत कल्प से ऊपर गमन होता नहीं है। इस कथन से आरण अच्युत कल्प से ऊपर (नवग्रैवेयक पर्यंत) उत्पन्न होने वाले मिथ्यादृष्टि जीवों के साथ व्यभिचार दोष भी नहीं आता, क्योंकि, उन मिथ्यादृष्टियों के भी भावसंयम रहित द्रव्य संयम होना संभव है।
- लौकांतिक देवों में जन्मने योग्य जीव
तिलोयपण्णत्ति/8/645-651 भत्तिपसत्ता सज्झयसाधीणा सव्वकालेसुं।645। इह खेत्ते वेरग्गं बहुभेयं भाविदूण बहुकालं।646। थुइणिंदासु समाणो सुदुक्खेसुं सबंधुरिउवग्गे।647। जे णिरवेक्खा देहे णिद्दंदा णिम्ममा णिरारंभा। णिरवज्जा समणवरा...।648। संजोगविप्पयोगे लाहालाहम्मि जीविदे मरणे।649। अणवरदसमं पत्ता संजमसमिदीसुं झाणजोगेसुं। तिव्वतवचरणजुत्ता समणा।650। पंचमहव्वय सहिदा पंचसु समिदीसु चिरम्मि चेट्ठंति। पंचक्खविसयविरदा रिसिणो लोयंतिया होंति।651। =जो भक्ति में प्रशक्त और सर्वकाल स्वाध्याय में स्वाधीन होते हैं।645। बहुत काल तक बहुत प्रकार के वैराग्य को भाकर संयम से युक्त होते हैं।646। जो स्तुति-निंदा, सुख दु:ख और बंधु-रिपु में समान होते हैं।647। जो देह के विषय में निरपेक्ष निर्द्वंद, निर्मम, निरारंभ और निरवद्य हैं।648। जो संयोग व वियोग में, लाभ व अलाभ में तथा जीवित और मरण में सम्यग्दृष्टि होते हैं।649। जो संयम, समिति, ध्यान, समाधि व तप आदि में सदा सावधान हैं।650। पंच महाव्रत, पंच समिति, पंच इंद्रिय निरोध के प्रति चिरकाल तक आचरण करने वाले हैं, ऐसे विरक्त ऋषि लौकांतिक होते हैं।651।
- संयतासंयत नियम से स्वर्ग में जाता है
महापुराण/26/103 सम्यग्दृष्टि: पुनर्जंतु: कृत्वाणु व्रतधारणम् । लभते परमान्भोगान् ध्रुवं स्वर्गनिवासिनाम् ।103। =यदि सम्यग्दृष्टि मनुष्य अणुव्रत धारण करता है तो वह निश्चित ही देवों के उत्कृष्ट भोग प्राप्त करता है। और भी (देखें जन्म - 6.3)।
- निगोद से आकर उसी भव से मोक्ष की संभावना
भगवती आराधना/17/66 दिट्ठा अणादिमिच्छादिट्ठी जम्हा खणेण सिद्धा य। आरणा चरित्तस्स तेण आराहणा सारो।17। भगवती आराधना / विजयोदया टीका/17/66/6 भद्दणादयो राजपुत्रास्तस्मिन्नेव भवे त्रसतामापन्ना: अतएव अनादिमिथ्यादृष्टय: प्रथमजिनपादमूले श्रुतधर्मसारा: समारोपितरत्नत्रया:, ...क्षणेन क्षणग्रहणं कालस्याल्पत्वोपलक्षणार्थम् ...सिद्धाश्च परिप्राप्ताशेषज्ञानादिस्वभावा:....दृष्टा: आराधनासंपादका:, चारित्रस्य। =चारित्र की आराधना करने वाले अनादि मिथ्यादृष्टि जीव भी अल्प काल में संपूर्ण कर्मों का नाश करके मुक्त हो गये ऐसा देखा गया है। अत: जीवों को आराधना का अपूर्व फल मिलता है ऐसा समझना चाहिए।
अनादि काल से मिथ्यात्व का तीव्र उदय होने से अनादि काल पर्यंत जिन्होंने नित्यनिगोद पर्याय का अनुभव लिया था ऐसे 923 जीव निगोद पर्याय छोड़कर भरत चक्रवर्ती के भद्रविवर्धनादि नाम धारक पुत्र उत्पन्न हुए थे। वे इसी भव से त्रस पर्याय को प्राप्त हुए थे। भगवान् आदिनाथ के समवशरण में द्वादशांग वाणी का सार सुनकर रत्नत्रय की आराधना से अल्पकाल में ही मोक्ष प्राप्त किया है। धवला 6/1,9-8,11/247/4 )।
द्रव्यसंग्रह टीका/35/106/6 अनुपमद्वितीयमनादिमिथ्यादृशोऽपि भरतपुत्रास्त्रयोविंशत्यधिकनवशतपरिमाणास्ते च नित्यनिगोदवासिन: क्षपितकर्माण: इंद्रगोपा: संजातास्तेषां च पंचीभूतानामुपरि भरतहस्तिना पादो दत्तस्ततस्ते मृत्वापि वर्द्धमानकुमारादयो भरतपुत्रा जातास्ते...तपो गृहीत्वा क्षणस्तोककालेन मोक्षं गता:। =यह वृत्तांत अनुपम और अद्वितीय है कि नित्यनिगोदवासी अनादि मिथ्यादृष्टि 923 जीव कर्मों की निर्जरा होने से इंद्रगोप हुए। सो उन सबके ढेर पर भरत के हाथी ने पैर रख दिया। इससे वे मरकर भरत के वर्द्धमानकुमार आदि पुत्र हुए। वे तप ग्रहण करके थोड़े ही काल में मोक्ष चले गये।
देखो जन्म - 6.11 (सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्तक व निगोद को आदि लेकर सभी 34 प्रकार के तिर्यंच अनंतर भव में मनुष्यपर्याय प्राप्त करके मुक्त हो सकते हैं, पर शलाकापुरुष नहीं बन सकते)।
धवला/10/4,2,4,56/276/4 सुहुमणिगोदेहिंतो अण्णत्थ अणुप्पज्जिय मणुस्सेसु उप्पण्णस्स संजमासंजम-समत्ताणं चेव गाहणपाओग्गत्तुवलंभादो...ण सुहुमणिगोदहिंतो णिग्गयस्स सव्व लहुएण कालेण, संजमासंजमग्गहणाभावादो।=सूक्ष्म निगोद जीवों में से अन्यत्र न उत्पन्न होकर मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीव के संयमासंयम और सम्यक्त्व के ही ग्रहण की योग्यता पायी जाती है। सूक्ष्म निगोदों में से निकले हुए जीव के सर्वलघु काल द्वारा संयमासंयम का ग्रहण नहीं पाया जाता।
- कौन सी कषाय में मरा हुआ जीव कहाँ जन्मता है
धवला/4/1,5,250/445/5 कोहेण मदो णिरयगदीए ण उप्पादे दव्वो, तत्थुप्पण्णजीवाणं पढमं कोधोदयस्सुवलंभा। माणेण मदो मणुसगदीए ण उप्पादे दव्वो, तत्थुप्पणाणं पढमसमए माणोदय णियमोवदेसा। मायाए मदो तिरिक्खगदीए ण उप्पादेदव्वो, तत्थुप्पणाणं पढमसमए मायोदय णियमोवदेसा। लोभेण मदो देवगदीये ण उप्पादेदव्वो, तत्थुप्पणाणं पढमं चेय लोहादओ होदि त्ति आइरियपरंपरागदुवदेसा। =क्रोध कषाय के साथ मरा हुआ जीव नरक गति में नहीं (?) उत्पन्न कराना चाहिए, क्योंकि नरकों में उत्पन्न होने वाले जीवों के सर्व प्रथम क्रोध कषाय का उदय पाया जाता है। मान कषाय से मरा हुआ जीव मनुष्य गति में नहीं (?) उत्पन्न कराना चाहिए, क्योंकि मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीवों के प्रथम समय में मान कषाय के उदय का उपदेश देखा जाता है। माया कषाय से मरा हुआ जीव तिर्यग्गति में नहीं (?) उत्पन्न कराना चाहिए, क्योंकि तिर्यंचों के उत्पन्न होने के प्रथम समय में माया कषाय के उदय का नियम देखा जाता है। लोभ कषाय से मरा हुआ जीव देवगति में नहीं (?) उत्पन्न कराना चाहिए, क्योंकि उनमें उत्पन्न होने वाले जीवों के सर्वप्रथम लोभ कषाय का उदय होता है; ऐसा आचार्य परंपरागत उपदेश हैं।
देखो जन्म/6/11 (सभी प्रकार के सूक्ष्म या बादर तिर्यंच अनंतर भव से मुक्ति के योग्य हैं।)
देखो कषाय/2/9 उपरोक्त कषायों के उदय का नियम कषायप्राभृत सिद्धांत के अनुसार है, भूतबलि के अनुसार नहीं।
नोट–(उपरोक्त कथन में विरोध प्रतीत होता है। सर्वत्र ही ‘नहीं’ शब्द नहीं होना चाहिए ऐसा लगता है। शेष विचारज्ञ स्वयं विचार लें।)
- लेश्याओं में जन्म संबंधी सामान्य नियम
गोम्मटसार जीवकांड/ भाषा/528/326/10 जिस गति संबंधी पूर्वै आयु बांधा होइ तिस ही गति विषै जो मरण होतै लेश्या होइ ताके अनुसारि उपजै है, जैसे मनुष्य के पूर्वै देवायु का बंध भया, बहुरि मरण होते कृष्णादि अशुभ लेश्या होइ तौ भवनत्रिक विषै ही उपजै है, ऐसे ही अन्यत्र जानना।
देखें सल्लेखना - 2.5 [जिस लेश्या सहित जीव का मरण होता है, उसी लेश्या सहित उसका जन्म होता है।]
- चरम शरीरियों का व रुद्र आदिकों का उपपाद चौथे काल में ही होता है
- गति-अगति चूलिका।
- तालिकाओं में प्रयुक्त संकेत
प.= |
पर्याप्त |
अप.= |
अपर्याप्त |
बा.= |
बादर |
सू.= |
सूक्ष्म |
सं.= |
संज्ञी |
असं.= |
असंज्ञी |
एके.= |
एकेंद्रिय |
द्वी.= |
द्वींद्रिय |
त्री.= |
त्रींद्रिय |
चतु.= |
चतुरिंद्रिय |
पं.= |
पंचेंद्रिय |
पृ.= |
पृथिवी |
जल= |
अप् |
ते.= |
तेज |
वायु= |
वायु |
वन.= |
वनस्पति |
प्र.= |
प्रत्येक |
ति.= |
तिर्यंच |
मनु.= |
मनुष्य |
वि.= |
विकलेंद्रिय |
ग.= |
गर्भज |
संख्य= |
संख्यातवर्षायुष्क अर्थात् कर्मभूमिज। |
असंख्य= |
असंख्यातवर्षायुष्क अर्थात् भोगभूमिज। |
सौ.= |
सौधर्म |
सौ.द्वि.= |
सौधर्म, ईशान स्वर्ग। |
- गुणस्थान से गति सामान्य
अर्थात्–किस गुणस्थान से मरकर किस गति में उत्पन्न हो सकता है और किसमें नहीं।
गुणस्थान |
*नरकगति |
तिर्यंच गति |
मनुष्यगति |
देव गति |
देखो |
||||
संख्या |
असंख्या |
संख्या |
असंख्या |
सामान्य |
विशेष |
||||
मिथ्या |
हाँ |
हाँ |
हाँ |
हाँ |
हाँ |
हाँ |
|
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 127/338 |
|
सासादन |
|
|
|||||||
दृष्टि.1 |
× |
× |
एके.,पृ.,अप.,प्र.वन, वि.सं.असं.पंचे. |
हाँ |
हाँ |
हाँ |
विशेष देखो आगे जन्म 6/3 |
||
दृष्टि.2 |
× |
× |
सं.पंचे. |
हाँ |
हाँ |
× |
|||
मिश्र |
|
|
मरण का अभाव |
|
|
|
|||
अविरत |
प्रथम नरक |
हाँ |
× |
हाँ |
हाँ |
हाँ |
|||
देशविरत |
× |
× |
× |
× |
× |
हाँ |
|||
प्रमत्त |
× |
× |
× |
× |
× |
हाँ |
|
||
7-12 |
|
|
मरण का अभाव |
|
|
|
|
- नरकगति की विशेष प्ररूपणा के लिए देखो आगे जन्म - 6.4
- मनुष्य व तिर्यंचगति से चयकर देवगति में उत्पत्ति की विशेष प्ररूपणा
अर्थात्–किस भूमिका वाला मनुष्य या तिर्यंच किस प्रकार के देवों में उत्पन्न होता है।
गुणस्थान |
किस प्रकार का जीव |
मू.आ./1169-1177 |
तिलोयपण्णत्ति/8/556-564 |
राजवार्तिक/4/21/10/ 537/5 |
हरिवंशपुराण/6/103-107 |
त्रिलोकसार/545-547 |
1 |
संज्ञी-सामान्य |
भ.,व्यंतर |
भवनत्रिक (3/200) |
सहस्रार तक |
― |
― |
|
सं.प.ति. |
― |
सहस्रार तक |
सहस्रार तक |
― |
― |
|
असंख्या |
भवनत्रिक |
― |
भवनत्रिक |
― |
भवनत्रिक |
|
असंज्ञी |
भ.,व्यंतर |
भवनत्रिक |
भ.,व्यंतर |
― |
― |
|
निर्ग्रंथ |
उपरि.ग्रैवे. |
उपरि.ग्रैवे. |
उपरि.ग्रैवे. |
उपरि.ग्रैवे. |
ग्रैवेयक |
|
दूषित चरित्री |
― |
अल्पऋद्धिक |
― |
― |
― |
|
क्रूरउन्मार्गी |
― |
अल्पऋद्धिक |
― |
― |
― |
|
सनिदान |
― |
अल्पऋद्धिक |
― |
― |
― |
|
मंदकषायी |
― |
अल्पऋद्धिक |
― |
― |
― |
|
मधुरकषायी |
― |
अल्पऋद्धिक |
― |
― |
― |
|
चरक |
― |
भवन से ब्रह्म तक |
― |
― |
ब्रह्मोत्तर तक |
|
परिवाजक संन्यासी |
ब्रह्म तक |
भवन से ब्रह्म तक |
ब्रह्म तक |
ब्रह्म तक |
ब्रह्मोत्तर तक |
|
आजीवक |
सहस्रार तक |
भवन से अच्युत |
सहस्रार तक |
सहस्रार तक |
अच्युत तक |
|
तापस |
भवनत्रिक |
― |
भवनत्रिक |
ज्योतिषी तक |
भवनत्रिक |
2 |
ति.संख्य. |
जन्म/6/6 |
|
सहस्रार तक |
||
|
ति.असंख्य |
जन्म/6/6 |
भवनत्रिक |
भवनत्रिक |
||
|
मनु.संख्य |
जन्म/6/6 |
भवनत्रिक |
ग्रैवेयक तक |
||
|
मनु.असंख्य |
जन्म/6/6 |
भवनत्रिक |
भवनत्रिक |
||
3 |
सं.पं.ति. संख्य. |
जन्म/6/6 |
|
सौधर्म से अच्युत |
― |
अच्युत तक |
|
असंख्य ति |
देव जन्म/6/6 |
― |
सौधर्म-ईशान |
― |
सौधर्म-द्विक |
4 |
मनु. संख्य. |
देव जन्म/6/6 |
― |
― |
सर्वार्थसिद्धि तक |
|
|
मनु.असंख्य |
देव जन्म/6/6 |
― |
― |
सौधर्मद्विक तक |
|
5 |
पुरुष (श्रावक) |
अच्युत तक |
सौधर्म से अच्युत |
सौधर्म से अच्युत |
सौधर्म से अच्युत |
अच्युत कल्प |
|
स्त्री |
अच्युत तक |
अच्युत तक |
― |
― |
― |
6 |
सामान्य |
उ.ग्रै.से. सर्वार्थ सि. |
उ.ग्रै.से. सर्वार्थ सि. |
उ.ग्रै.से. सर्वार्थ सि. |
उ.ग्रै.से. सर्वार्थ सि. |
उ.ग्रै.से. सर्वार्थ सि. |
|
दशपूर्वधर |
― |
सौधर्म से सर्वार्थ |
सर्वार्थ सि. |
सर्वार्थ सि. |
सर्वार्थ सि. |
|
चतुर्दश पूर्वधर |
― |
लांतव से सर्वार्थ |
― |
― |
― |
7 |
पुलाकवकुश आदि |
देखें साधु - 5 |
- नरकगति में उत्पत्ति की विशेष प्ररूपणा
(मू.आ./1153-1154); ( तिलोयपण्णत्ति/2/284-286 ); ( राजवार्तिक/3/6/7/168/15 ); ( हरिवंशपुराण/4/373-377 ); ( त्रिलोकसार/205 )।
अर्थात्–किस प्रकार का मनुष्य या तिर्यंच किस नरक में उपजै और उत्कृष्ट कितनी बार उपजै।
कौन जीव |
नरक |
उत्कृष्ट बार |
कौन जीव |
नरक |
उत्कृष्ट बार |
असं.पं.ति. |
1 |
8 |
भुजंगादि |
1-4 |
5 |
सरीसृप. |
1-2 |
7 |
सिंहादि |
1-5 |
4 |
(गोह, केर्कटा आदि) |
|
|
स्त्री |
1-6 |
3 |
पक्षी (भेरुंड आदि) |
1-3 |
6 |
मनुष्य व मत्स्य |
1-7 |
2 |
- गतियों में प्रवेश व निर्गमन संबंधी गुणस्थान
अर्थात् –किस गति में कौन गुणस्थान सहित प्रवेश संभव है, तथा किस विवक्षित गुणस्थान सहित प्रवेश करने वाला जीव वहाँ से किस गुणस्थान सहित निकल सकता है। ( षट्खंडागम 6/1,9-9/ सू.44-75/437-446); ( राजवार्तिक/3/6/7/168/18 )।
सूत्र नं. |
गति विशेष |
सूत्र नं. |
प्रवेशकालीन गुण. |
निर्गमनकालीन गुण. |
|
नरक गति― |
|||
48 |
प्रथम |
44-46 |
1 |
1,2,4 |
|
|
47 |
4 |
4 |
49 |
1-6 |
49-51 |
1 |
1,2,4 |
52 |
7 |
49,52 |
1 |
1 |
|
तिर्यंच गति― |
|||
60 |
पं.ति. |
53-55 |
1 |
1,2,4 |
60 |
पं. तिलोयपण्णत्ति |
56-57 |
2 |
1,2,4 |
60 |
पं.ति.अप. |
57 |
4 |
4 |
61 |
पं.ति.योनिमति |
61-64 |
1 |
1,2,4 |
― |
पं.ति.योनिमति अप. |
पृ.444 |
1 |
1 |
|
मनुष्य गति― |
|||
66 |
मनुष्य सा. |
66-68 |
1 |
1,2,4 |
|
मनु.प. |
69-71 |
2 |
1,2,4 |
|
मनु.अप. |
72-74 |
4 |
1,2,4 |
61 |
मनुष्यणी |
61-63 |
1 |
1,2,4 |
64 |
2 |
1,4 |
||
|
देवगति― |
|||
61 |
भवनत्रिक |
61-63 |
1 |
1,2,4 |
|
देव देवियाँ सौधर्म की देवियाँ |
64 |
2 |
1,4 |
66 |
सौधर्म से ग्रैवेयक |
66-68 |
1 |
1,2,4 |
|
|
69-71 |
2 |
1,2,4 |
|
|
72-74 |
4 |
1,2,4 |
75 |
अनुदिश से सर्वार्थ. |
75 |
4 |
4 |
- गतिमार्गणा की अपेक्षा गति प्राप्ति
अर्थात्–कौन जीव किस गति से किस गुणस्थान सहित निकलकर किस गति में उत्पन्न होता है। ( षट्खंडागम 6/1,9-9/ सूत्र76-202/437-484);
सूत्र नं. |
निर्गमन गति विशेष |
गुणस्थान |
प्राप्तव्य गति विशेष |
||||
सूत्र नं. |
नरक गति |
तिर्यंच गति |
मनुष्य गति |
देव गति |
|||
|
नरकगति―( राजवार्तिक/3/6/7/168/23 ); ( हरिवंशपुराण/4/378 ); ( त्रिलोकसार/203 ) |
||||||
92 |
1-6 |
1 |
76-85 |
× |
पं.सं.ग.पं.संख्या. |
ग.प.संख्या. |
× |
|
|
2 |
76-85 |
× |
पं.सं.ग.पं.संख्या. |
ग.प.संख्या. |
× |
|
|
3 |
मरण भाव (देखें मरण - 3) |
ग.प.संख्या. |
× |
||
|
|
4 |
88-91 |
× |
|
ग.प.संख्या. |
× |
93 |
7 |
1 |
94-99 |
× |
पं.सं.ग.पं.संख्या. |
× |
× |
(मू.आ./1156)–श्वापद, भुजंग, व्याघ्र, सिंह, सूकर, गीध आदि होते हैं, तथा–( हरिवंशपुराण/4/378 )–पुन: तीसरे भव में नरक जाता है। |
|||||||
|
तिर्यंच गति― |
||||||
101 |
सं.पं.प.संख्य. |
1 |
102-106 |
सर्व |
सर्व |
सर्व |
भवन से सहस्रार |
107 |
असं.पं.प. |
1 |
108-111 |
प्रथ. |
सर्व संख्य. |
सर्व संख्य. |
भवन से व्यंतर |
112 |
पं.सं.असं.प.व अप. |
1 |
113-114 |
× |
सर्व संख्य. |
सर्व संख्य. |
× |
112 |
पृ.जल वन निगोद बा.सू.प.व अप. |
1 |
113-114 |
× |
सर्व संख्य. |
सर्व संख्य. |
× |
112 |
वन.बा.प्र.प.व अप. |
1 |
113-114 |
× |
सर्व संख्य. |
सर्व संख्य. |
× |
112 |
विकलत्रय |
1 |
113-114 |
× |
सर्व संख्य. |
सर्व संख्य. |
× |
115 |
तेज,वायु,बा.सू.प.व अप. |
1 |
116-117 |
× |
सर्व संख्य. |
× |
× |
118 |
सं.पं.प.संख्य. |
2 |
119-129 |
|
एके (पृ.जल,वन.प्र.बा.सू.) पं.सं.ग.प.संख्य. |
ग.प.संख्य. असंख्य. |
भवन से सहस्रार |
130 |
संख्य. |
3 |
137 |
|
मरणाभाव |
(देखें मरण - 3) |
|
137 |
असंख्य. |
3 |
137 |
|
मरणाभाव |
|
|
131 |
संख्य. |
4-5 |
132-133 |
× |
× |
× |
सौ-अच्युत |
134 |
असंख्या. |
1 |
135-136 |
× |
× |
× |
भवनत्रिक |
134 |
असंख्या. |
2 |
135-136 |
× |
× |
× |
भवनत्रिक |
138 |
असंख्या. |
4 |
139-140 |
× |
× |
× |
सौ.द्वि. |
|
मनुष्यगति― |
|
|
|
|
|
|
141 |
संख्या. |
1 |
142-146 |
सर्व |
सर्व |
सर्व |
ग्रैवेयक तक |
|
संख्या.प. |
1 |
142-146 |
सर्व |
सर्व |
सर्व |
ग्रैवेयक तक |
147 |
संख्य.अप. |
2 |
151-160 |
|
(एके (बा.पृ.जल,वन.प्र.प.) पं.स.ग.प. संख्य.व असंख्य. |
ग.प.संख्य. असंख्य. |
भवन से नव ग्रैवेयक तक |
161 |
संख्य. |
3 |
162 |
― |
मरणाभाव |
(देखें मरण - 3)― |
|
163 |
संख्य. |
4,6 |
164-165 |
× |
× |
× |
सौ.से सर्वार्थ. |
166 |
असंख्य. |
1 |
167-168 |
× |
× |
× |
भवनत्रिक |
166 |
असंख्य. |
2 |
167-168 |
× |
× |
× |
भवनत्रिक |
169 |
असंख्य. |
3 |
169 |
― |
मरणाभाव |
(देखें मरण - 3)― |
|
170 |
असंख्य. |
4 |
172-172 |
× |
× |
× |
सौ.द्वि. |
― |
कुमानुष |
― |
तिलोयपण्णत्ति/4/2514-25-15 –उपरोक्त असंख्यातवत्– |
||||
|
देवगति― |
||||||
190 |
भवनत्रिक |
|
178-183 |
× |
(एके (बा.पृ.जल,वन.) स.पं.ग.प. |
ग.प.संख्य. |
× |
173 |
सौ.द्वि. |
1 |
178-183 |
× |
(एके (बा.पृ.जल,वन.) स.पं.ग.प. |
ग.प.संख्य. |
× |
173 |
सौ.द्वि. |
2 |
178-183 |
× |
(एके (बा.पृ.जल,वन.) स.पं.ग.प. |
ग.प.संख्य. |
× |
184 |
सौ.द्वि. |
3 |
184 |
― |
मरणाभाव |
(देखें मरण - 3) |
|
185 |
सौ.द्वि. |
4 |
186-189 |
× |
× |
ग.प.संख्य. |
× |
191 |
सनत्कुमार से सहस्रार |
1 |
191 |
× |
पं.स.ग.प. संख्य. |
ग.प.संख्य. |
× |
191 |
सनत्कुमार से सहस्रार |
2 |
191 |
× |
पं.स.ग.प. संख्य. |
ग.प.संख्य. |
× |
191 |
सनत्कुमार से सहस्रार |
3 |
|
|
मरणाभाव |
(देखें मरण - 3)– |
|
191 |
सनत्कुमार से सहस्रार |
4 |
191 |
× |
पं.स.ग.प. संख्य. |
ग.प.संख्य. |
× |
192 |
आनत से नव ग्रैवेयक |
1 |
193-196 |
× |
× |
ग.प.संख्य. |
× |
|
आनत से नव ग्रैवेयक |
2 |
193-196 |
× |
× |
ग.प.संख्य. |
× |
197 |
आनत से नव ग्रैवेयक |
3 |
197 |
― |
मरणाभाव |
(देखें मरण - 3)– |
|
192 |
आनत से नव ग्रैवेयक |
4 |
193-196 |
× |
× |
ग.प.संख्य. |
× |
198 |
अनुदिश से सर्वार्थ सि. |
4 |
199-202 |
× |
× |
ग.प.संख्य. |
× |
- लेश्या की अपेक्षा गति प्राप्ति
अर्थात्–किस लेश्या से मरकर किस गति में उत्पन्न हो। (राजवार्तिक/4/22/10/200/6); (गोम्मटसार जीवकांड/519-528/920-926)
निर्गमन लेश्यांश |
देवगति |
निर्गमन लेश्यांश |
नरकगति |
देव व तिर्यंच |
|
शुक्ल लेश्या– |
|
कृष्णलेश्या– |
|
उत्कृष्ट |
सर्वार्थसिद्धि |
उत्कृष्ट |
सातवीं पृथ्वी के अप्रतिष्ठान इंद्रक में |
|
मध्यम |
आनत से अपराजित |
|
|
|
जघन्य |
शुक्र से सहस्रार तक |
मध्यम |
छठी पृथ्वी के प्रथम पटल से सातवीं पृथ्वी के श्रेणी बद्ध तक |
भवनत्रिक यथायोग्य पाँचों स्थावर |
|
पद्मलेश्या— |
|
|
|
उत्कृष्ट |
सहस्रार तक |
जघन्य |
पाँचवीं पृथ्वी के चरम पटल तक |
|
मध्यम |
ब्रह्म से शतार तक |
|
नीललेश्या– |
|
जघन्य |
सानत्कुमार माहेंद्र तक |
उत्कृष्ट |
पाँचवीं पृथ्वी के द्विचरम पटल तक |
|
|
पीतलेश्या– |
मध्यम |
पाँचवीं पृथ्वी के तीसरे पटल से तीसरी पृथ्वी के दूसरे पटल तक |
यथायोग्य पाँचों स्थावर |
उत्कृष्ट |
सानत्कुमार माहेंद्र के चरम पटल तक |
जघन्य |
तीसरी पृथ्वी के पहले पटल तक |
|
मध्यम |
सानत्कुमार माहेंद्र के द्विचरम पटल तक तथा भवनत्रिक व यथायोग्य पाँचों स्थावरों में |
|
कापोतलेश्या– |
|
उत्कृष्ट |
तीसरी पृथ्वी के चरम पटल में |
|
||
जघन्य |
सौधर्मद्विक के पहले पटल तक |
मध्यम |
तीसरी पृथ्वी के द्विचरम पटल से पहली पृथ्वी के तीसरे पटल तक |
भवनत्रिक यथायोग्य पाँचों स्थावर |
|
|
जघन्य |
पहली पृथ्वी के पहले पटल तक |
|
- संहनन की अपेक्षा गति प्राप्ति
अर्थात्–किस संहनन से मरकर किस गति तक उत्पन्न होना संभव है। (गोम्मटसार कर्मकांड/29-31/24); (गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/549/725/14)
संकेत–- वज्रऋषभनाराच;
- वज्रनाराच;
- नाराच;
- अर्धनाराच;
- कीलित;
- सृपाटिका।
संहनन |
प्राप्तव्य स्वर्ग |
संहनन |
विशेष |
प्राप्तव्य नरक पृथ्वी |
1 |
पंच अनुत्तर तक |
1 |
मनुष्य व मत्स्य |
सातवीं (7) पृथ्वी तक |
1,2 |
नव अनुदिश तक |
1-4 |
स्त्री+उपरोक्त |
छठी (6) पृथ्वी तक |
1,2,3 |
नव ग्रैवेयक तक |
1-5 |
सिंह+उपरोक्त सर्व |
पाँचवीं (5) पृथ्वी तक |
1,2,3,4 |
अच्युत तक |
1-5 |
भुजंग+उपरोक्त सर्व |
चौथीं (4) पृथ्वी तक |
1-5 |
सहस्रार तक |
1-6 |
पक्षी+उपरोक्त सभी |
तीसरी (3) पृथ्वी तक |
1-6 |
सौधर्म से कापिष्ठ |
1-6 |
सरीसृप+उपरोक्त सभी |
दूसरी (2) पृथ्वी तक |
1-6 |
असंज्ञी+उपरोक्त सभी |
पहली (1) पृथ्वी तक |
- शलाका पुरुषों की अपेक्षा गति प्राप्ति
अर्थात्–शलाका पुरुष कौन गति नियम से प्राप्त करते हैं–( तिलोयपण्णत्ति/4/गा.नं. )।
1423―प्रतिनारायण |
=नरकगति। |
1436―नारायण |
=नरकगति। |
1436―बलदेव |
=स्वर्ग व मोक्ष। |
1442―रुद्र |
=नरकगति। |
1470―नारद |
=नरकगति। |
- नरकगति में पुन: पुनर्भव धारण की सीमा
धवला/7/2,2,27/127/11 देव णेरइयाणं भोगभूमितिरिक्खमणुस्साणं च मुदाणं पुणो तत्थे वाणंतरमुप्पत्तीए अभावादो। =देव, नारकी, भोगभूमिज तिर्यंच और भोगभूमिज मनुष्य, इनके मरने पर पुन: उसी पर्याय में उत्पत्ति नहीं पायी जाती, क्योंकि, इसका अत्यंत अभाव है। नोट–परंतु बीच में एक-एक अन्य भव धारण करके पुन: उसी पर्याय में उत्पन्न होना संभव है। वह उत्कृष्ट कितनी बार होना संभव है, वही बात निम्न तालिका में बतायी जाती है।
प्रमाण– तिलोयपण्णत्ति/2/286-287; राजवार्तिक/3/6/7/168/12 (इसमें केवल अंतर है, निरंतर भव नहीं); हरिवंशपुराण/4/371,375-377; त्रिलोकसार/205-206 ―
नरक |
कितनी बार |
उत्कृष्ट अंतर |
प्रथम पृथ्वी/p> |
8 बार |
24 मुहूर्त |
द्वितीय पृथ्वी |
7 बार |
7 दिन |
तृतीय पृथ्वी |
6 बार |
1 पक्ष |
चतुर्थ पृथ्वी |
5 बार |
1 मास |
पंचम पृथ्वी |
4 बार |
2 मास |
षष्ठ पृथ्वी |
3 बार |
4 मास |
सप्तम पृथ्वी |
2 बार |
6 मास |
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