विभीषण: Difference between revisions
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<p id="2">(2) पुष्करद्वीप के विदेहक्षेत्र में स्थित मंगलावती देश में रत्नसंचय नगर के राजा श्रीषेण का पुत्र । यह श्रीवर्मा का भाई था । यह नारायण था और इसका बड़ा भाई श्रीवर्मा बलभद्र था । <span class="GRef"> <span class="GRef"> <span class="GRef"> महापुराण </span> </span> </span>7. 13-15</p> | <p id="2">(2) पुष्करद्वीप के विदेहक्षेत्र में स्थित मंगलावती देश में रत्नसंचय नगर के राजा श्रीषेण का पुत्र । यह श्रीवर्मा का भाई था । यह नारायण था और इसका बड़ा भाई श्रीवर्मा बलभद्र था । <span class="GRef"> <span class="GRef"> <span class="GRef"> महापुराण </span> </span> </span>7. 13-15</p> | ||
<p id="3">(3) एक राजा । इसकी रानी प्रियदत्ता तथा पुत्र वरदत्त था । <span class="GRef"> <span class="GRef"> <span class="GRef"> महापुराण </span> </span> </span>10. 149</p> | <p id="3">(3) एक राजा । इसकी रानी प्रियदत्ता तथा पुत्र वरदत्त था । <span class="GRef"> <span class="GRef"> <span class="GRef"> महापुराण </span> </span> </span>10. 149</p> | ||
<p id="4">(4) अलंकारपुर के राजा रत्नश्रवा और रानी केकसी का पुत्र । इसके दशानन और भानुकर्ण ये दो बड़े भाई तथा चंद्रनखा बड़ी बहिन थी । इसने और इसके दोनों भाइयों ने एक लाख जपकर सर्वकामान्नदा नाम की आठ अक्षरों वाली विद्या आधे ही दिनों में सिद्ध कर ली थी । इसे सिद्धार्थी, शत्रुदमनी, निर्व्याघाता और आकाशगामिनी चार विद्याएं सहज ही प्राप्त हुई थी । इसका विवाह दक्षिणश्रेणी में ज्योति:प्रभ नगर के राजा विशुद्धकमल और रानी नंदनमाला की पुत्री राजीवसरसी के साथ हुआ था । इंद्र विद्याधर को जीतने में इसने रावण का सहयोग किया था । केवली अनंतबल से हनुमान् के साथ इसने भी गृहस्थों के व्रत ग्रहण किये थे । सागरबुद्धि निमित्तज्ञानी से राजा दशरथ को रावण की मृत्यु का करण जानकर इसने राजा दशरथ और जनक को मारने का निश्चय किया था । यह रहस्य नारद से विदित होते ही दशरथ और जनक की कृत्रिम आकृतियाँ निर्मित कराई गयीं थी । उनसे सिर काटकर प्रथम तो इसे हर्ष हुआ किंतु वे कृत्रिम आकृतियाँ थी यह विदित होने पर आश्चर्य करते हुए शांति के लिए इसने बड़े उत्सव के साथ दानपूजादि कर्म किये थे । सीता-हरण करने पर इसने रावण की परस्त्री अभिलाषा को अनुचित तथा नरक का कारण बताया था । इसने सीता को लौटाने का उससे निवेदन भी किया था । इससे कुपित होकर रावण ने इसे असि-प्रहार से मारना चाहा और इसने भी अपने बचाव के लिए वज्रमय खंभा उखाड़ किया था । अंत में यह लंका से निकलकर राम से जा मिला । इसने रावण से युद्ध भी किया । रावण के मरने पर शोक-वश इसने आत्मघात भी करना चाहा किंतु राम ने समझाकर ऐसा नहीं करने दिया । राम ने इसे लंका का राज्य दिया । यह शासक बना और लंका में रहा । अंत में यह राम के साथ दीक्षित हो गया । <span class="GRef"> <span class="GRef"> <span class="GRef"> महापुराण </span> </span> </span>में इसे जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी के मेघकूट नगर के राजा पुलस्त्य और रानी मेघश्री का पुत्र बताया है । अणुमान् को रावण के पास राम का संदेश कहने के लिए यही ले गया था । विद्याधरों के दुर्वचन कहने पर इसने उन्हें रोका था । रावण के राम को तृण तुल्य समझने पर इसने उसकी यह अज्ञानता बताई थी । इसने रावण को उसके लिए हुए व्रत का स्मरण भी कराया था तथा सीता किसकी पुत्री है इस ओर भी ध्यान दिलाया था । इसने राम को सीता लौटा देने का बार-बार निवेदन किया था । इस पर रावण ने इसे अपने देश से निकाल दिया । अपना हित राम से जा मिलने में समझकर यह राम के समीप जा पहुँचा । रावण की विद्या सिद्धि का रहस्य इसी ने राम को बताया था । सीता का सिर कटा हुआ दिखाये जाने पर इसने राम को समझाकर इसे रावण की माया बताई थी । रावण के मारे जाने के पश्चात् राम और लक्ष्मण ने इसे ही लंका का राजा बनाया था और इससे राम को सीता से मिलाया था । अंत में यह राम के साथ दीक्षित हुआ और देह त्याग करके अनुदिश विमान में देव हुआ । <span class="GRef"> <span class="GRef"> <span class="GRef"> महापुराण </span> </span> </span>68.11-12, 406-407, 433-434, 473-501, 516-520, 613-616, 633-638, 711, 721, <span class="GRef"> पद्मपुराण 7.133, 164-165, 225, 264, 334, 8.150-151, 10. 49, 15.1, 23, 25-27, 52-58, 46.123-126, 55.11-13, 31-38, 71-73, 62.30-32, 77. 1-3, 80. 32-33, 60, 88.38, 117. 45, 119. 39 </span></p> | <p id="4">(4) अलंकारपुर के राजा रत्नश्रवा और रानी केकसी का पुत्र । इसके दशानन और भानुकर्ण ये दो बड़े भाई तथा चंद्रनखा बड़ी बहिन थी । इसने और इसके दोनों भाइयों ने एक लाख जपकर सर्वकामान्नदा नाम की आठ अक्षरों वाली विद्या आधे ही दिनों में सिद्ध कर ली थी । इसे सिद्धार्थी, शत्रुदमनी, निर्व्याघाता और आकाशगामिनी चार विद्याएं सहज ही प्राप्त हुई थी । इसका विवाह दक्षिणश्रेणी में ज्योति:प्रभ नगर के राजा विशुद्धकमल और रानी नंदनमाला की पुत्री राजीवसरसी के साथ हुआ था । इंद्र विद्याधर को जीतने में इसने रावण का सहयोग किया था । केवली अनंतबल से हनुमान् के साथ इसने भी गृहस्थों के व्रत ग्रहण किये थे । सागरबुद्धि निमित्तज्ञानी से राजा दशरथ को रावण की मृत्यु का करण जानकर इसने राजा दशरथ और जनक को मारने का निश्चय किया था । यह रहस्य नारद से विदित होते ही दशरथ और जनक की कृत्रिम आकृतियाँ निर्मित कराई गयीं थी । उनसे सिर काटकर प्रथम तो इसे हर्ष हुआ किंतु वे कृत्रिम आकृतियाँ थी यह विदित होने पर आश्चर्य करते हुए शांति के लिए इसने बड़े उत्सव के साथ दानपूजादि कर्म किये थे । सीता-हरण करने पर इसने रावण की परस्त्री अभिलाषा को अनुचित तथा नरक का कारण बताया था । इसने सीता को लौटाने का उससे निवेदन भी किया था । इससे कुपित होकर रावण ने इसे असि-प्रहार से मारना चाहा और इसने भी अपने बचाव के लिए वज्रमय खंभा उखाड़ किया था । अंत में यह लंका से निकलकर राम से जा मिला । इसने रावण से युद्ध भी किया । रावण के मरने पर शोक-वश इसने आत्मघात भी करना चाहा किंतु राम ने समझाकर ऐसा नहीं करने दिया । राम ने इसे लंका का राज्य दिया । यह शासक बना और लंका में रहा । अंत में यह राम के साथ दीक्षित हो गया । <span class="GRef"> <span class="GRef"> <span class="GRef"> महापुराण </span> </span> </span>में इसे जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी के मेघकूट नगर के राजा पुलस्त्य और रानी मेघश्री का पुत्र बताया है । अणुमान् को रावण के पास राम का संदेश कहने के लिए यही ले गया था । विद्याधरों के दुर्वचन कहने पर इसने उन्हें रोका था । रावण के राम को तृण तुल्य समझने पर इसने उसकी यह अज्ञानता बताई थी । इसने रावण को उसके लिए हुए व्रत का स्मरण भी कराया था तथा सीता किसकी पुत्री है इस ओर भी ध्यान दिलाया था । इसने राम को सीता लौटा देने का बार-बार निवेदन किया था । इस पर रावण ने इसे अपने देश से निकाल दिया । अपना हित राम से जा मिलने में समझकर यह राम के समीप जा पहुँचा । रावण की विद्या सिद्धि का रहस्य इसी ने राम को बताया था । सीता का सिर कटा हुआ दिखाये जाने पर इसने राम को समझाकर इसे रावण की माया बताई थी । रावण के मारे जाने के पश्चात् राम और लक्ष्मण ने इसे ही लंका का राजा बनाया था और इससे राम को सीता से मिलाया था । अंत में यह राम के साथ दीक्षित हुआ और देह त्याग करके अनुदिश विमान में देव हुआ । <span class="GRef"> <span class="GRef"> <span class="GRef"> महापुराण </span> </span> </span>68.11-12, 406-407, 433-434, 473-501, 516-520, 613-616, 633-638, 711, 721, <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_7#133|पद्मपुराण - 7.133]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_7#164|पद्मपुराण - 7.164]]-165, 225, 264, 334, 8.150-151, 10. 49, 15.1, 23, 25-27, 52-58, 46.123-126, 55.11-13, 31-38, 71-73, 62.30-32, 77. 1-3, 80. 32-33, 60, 88.38, 117. 45, 119. 39 </span></p> | ||
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Revision as of 22:35, 17 November 2023
सिद्धांतकोष से
पद्मपुराण/सर्ग/श्लोक
पुराणकोष से
(1) पूर्व धातकीखंड द्वीप के पूर्व मेरु संबंधी पश्चिम विदेह में स्थित गंधिला देश की अयोध्या नगरी के राजा अर्हद्दास और रानी जिनदत्ता का पुत्र । यह नारायण था । बलभद्र वीतभय इसके बड़े भाई थे । आयु का अंत होने पर यह रत्नप्रभा पहली पृथिवी में, महापुराण के अनुसार दूसरी पृथिवी में उत्पन्न हुआ और वीतभय लांतवेंद्र हुआ । नरक में जाकर लांतवेंद्र ने इसे समझा या था । नरक से निकलकर यह जंबूद्वीप के विदेहक्षेत्र में विजयार्ध पर्वत पर श्रीधर्म राजा और श्रीदत्ता रानी का श्रीदाम पुत्र, महापुराण के अनुसार जंबूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र की अयोध्या नगरी के राजा श्रीवर्मा और रानी सुसीमा के श्रीधर्मा नामक पुत्र होगा । महापुराण 59. 277-283, हरिवंशपुराण 27.111-116
(2) पुष्करद्वीप के विदेहक्षेत्र में स्थित मंगलावती देश में रत्नसंचय नगर के राजा श्रीषेण का पुत्र । यह श्रीवर्मा का भाई था । यह नारायण था और इसका बड़ा भाई श्रीवर्मा बलभद्र था । महापुराण 7. 13-15
(3) एक राजा । इसकी रानी प्रियदत्ता तथा पुत्र वरदत्त था । महापुराण 10. 149
(4) अलंकारपुर के राजा रत्नश्रवा और रानी केकसी का पुत्र । इसके दशानन और भानुकर्ण ये दो बड़े भाई तथा चंद्रनखा बड़ी बहिन थी । इसने और इसके दोनों भाइयों ने एक लाख जपकर सर्वकामान्नदा नाम की आठ अक्षरों वाली विद्या आधे ही दिनों में सिद्ध कर ली थी । इसे सिद्धार्थी, शत्रुदमनी, निर्व्याघाता और आकाशगामिनी चार विद्याएं सहज ही प्राप्त हुई थी । इसका विवाह दक्षिणश्रेणी में ज्योति:प्रभ नगर के राजा विशुद्धकमल और रानी नंदनमाला की पुत्री राजीवसरसी के साथ हुआ था । इंद्र विद्याधर को जीतने में इसने रावण का सहयोग किया था । केवली अनंतबल से हनुमान् के साथ इसने भी गृहस्थों के व्रत ग्रहण किये थे । सागरबुद्धि निमित्तज्ञानी से राजा दशरथ को रावण की मृत्यु का करण जानकर इसने राजा दशरथ और जनक को मारने का निश्चय किया था । यह रहस्य नारद से विदित होते ही दशरथ और जनक की कृत्रिम आकृतियाँ निर्मित कराई गयीं थी । उनसे सिर काटकर प्रथम तो इसे हर्ष हुआ किंतु वे कृत्रिम आकृतियाँ थी यह विदित होने पर आश्चर्य करते हुए शांति के लिए इसने बड़े उत्सव के साथ दानपूजादि कर्म किये थे । सीता-हरण करने पर इसने रावण की परस्त्री अभिलाषा को अनुचित तथा नरक का कारण बताया था । इसने सीता को लौटाने का उससे निवेदन भी किया था । इससे कुपित होकर रावण ने इसे असि-प्रहार से मारना चाहा और इसने भी अपने बचाव के लिए वज्रमय खंभा उखाड़ किया था । अंत में यह लंका से निकलकर राम से जा मिला । इसने रावण से युद्ध भी किया । रावण के मरने पर शोक-वश इसने आत्मघात भी करना चाहा किंतु राम ने समझाकर ऐसा नहीं करने दिया । राम ने इसे लंका का राज्य दिया । यह शासक बना और लंका में रहा । अंत में यह राम के साथ दीक्षित हो गया । महापुराण में इसे जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी के मेघकूट नगर के राजा पुलस्त्य और रानी मेघश्री का पुत्र बताया है । अणुमान् को रावण के पास राम का संदेश कहने के लिए यही ले गया था । विद्याधरों के दुर्वचन कहने पर इसने उन्हें रोका था । रावण के राम को तृण तुल्य समझने पर इसने उसकी यह अज्ञानता बताई थी । इसने रावण को उसके लिए हुए व्रत का स्मरण भी कराया था तथा सीता किसकी पुत्री है इस ओर भी ध्यान दिलाया था । इसने राम को सीता लौटा देने का बार-बार निवेदन किया था । इस पर रावण ने इसे अपने देश से निकाल दिया । अपना हित राम से जा मिलने में समझकर यह राम के समीप जा पहुँचा । रावण की विद्या सिद्धि का रहस्य इसी ने राम को बताया था । सीता का सिर कटा हुआ दिखाये जाने पर इसने राम को समझाकर इसे रावण की माया बताई थी । रावण के मारे जाने के पश्चात् राम और लक्ष्मण ने इसे ही लंका का राजा बनाया था और इससे राम को सीता से मिलाया था । अंत में यह राम के साथ दीक्षित हुआ और देह त्याग करके अनुदिश विमान में देव हुआ । महापुराण 68.11-12, 406-407, 433-434, 473-501, 516-520, 613-616, 633-638, 711, 721, पद्मपुराण - 7.133,पद्मपुराण - 7.164-165, 225, 264, 334, 8.150-151, 10. 49, 15.1, 23, 25-27, 52-58, 46.123-126, 55.11-13, 31-38, 71-73, 62.30-32, 77. 1-3, 80. 32-33, 60, 88.38, 117. 45, 119. 39