हरिवंश पुराण - सर्ग 50: Difference between revisions
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<span id="2" /><div class="G_HindiText"> <p> इधर कोई एक वणिक अपना खरीदा हुआ माल बेचने के लिए बहुत से अमूल्य मणि लेकर राजा जरासंध से मिला ꠰꠰1॥ उन मणियों को देखकर राणा जरासंध ने उससे पूछा कि ये मणि तुम कहाँ से लाये हो ? इसके उत्तर में वणिक् ने कहा कि हे स्वामिन् ! ये मणि उस द्वारिकापुरी से आये हैं जहाँ अत्यंत पराक्रमी राजा कृष्ण रहते हैं ॥2॥<span id="3" /> यादवों के स्वामी समुद्रविजय और उनकी रानी शिवादेवी के जब नेमिनाथ तीर्थंकर उत्पन्न हुए थे तब पंद्रह मास तक देवों ने रत्नवृष्टि की थी ॥3॥<span id="4" /> उन्हीं रत्नों में से ये रत्न लाया हूँ । वणिक् तथा मंत्रियों से इस प्रकार यादवों का माहात्म्य सुनकर जरासंध क्रोध से लाल<strong>-</strong>लाल नेत्रों का धारक हो गया ॥4॥<span id="8" /> इस प्रकार यादवों की वृद्धि सुनकर राजा श्रेणिक ने श्रुतज्ञानरूपी नेत्र के धारक गौतम गणधर को नमस्कार कर पूछा कि हे भगवन् ! महागुण रूपी किरणों से सुशोभित<strong>, </strong>समुद्र में मणियों की राशि के समान समस्त लोक में प्रख्यात अत्यधिक यादवों में जब जरासंध ने अनेक युद्धों में जिनका | <span id="2" /><div class="G_HindiText"> <p> इधर कोई एक वणिक अपना खरीदा हुआ माल बेचने के लिए बहुत से अमूल्य मणि लेकर राजा जरासंध से मिला ꠰꠰1॥ उन मणियों को देखकर राणा जरासंध ने उससे पूछा कि ये मणि तुम कहाँ से लाये हो ? इसके उत्तर में वणिक् ने कहा कि हे स्वामिन् ! ये मणि उस द्वारिकापुरी से आये हैं जहाँ अत्यंत पराक्रमी राजा कृष्ण रहते हैं ॥2॥<span id="3" /> यादवों के स्वामी समुद्रविजय और उनकी रानी शिवादेवी के जब नेमिनाथ तीर्थंकर उत्पन्न हुए थे तब पंद्रह मास तक देवों ने रत्नवृष्टि की थी ॥3॥<span id="4" /> उन्हीं रत्नों में से ये रत्न लाया हूँ । वणिक् तथा मंत्रियों से इस प्रकार यादवों का माहात्म्य सुनकर जरासंध क्रोध से लाल<strong>-</strong>लाल नेत्रों का धारक हो गया ॥4॥<span id="8" /> इस प्रकार यादवों की वृद्धि सुनकर राजा श्रेणिक ने श्रुतज्ञानरूपी नेत्र के धारक गौतम गणधर को नमस्कार कर पूछा कि हे भगवन् ! महागुण रूपी किरणों से सुशोभित<strong>, </strong>समुद्र में मणियों की राशि के समान समस्त लोक में प्रख्यात अत्यधिक यादवों में जब जरासंध ने अनेक युद्धों में जिनका दृढ़पराक्रम परिपूर्णता को प्राप्त हो चुका था ऐसे कृष्ण का नाम सुना तब उसकी क्या चेष्टा हुई ? सो कृपा कर कहिए ॥5<strong>-</strong>7॥ तदनंतर गौतम गणधर<strong>, </strong>श्रवण करने के लिए उत्सुक राजा श्रेणिक के लिए दोनों नर-श्रेष्ठ― जरासंध और कृष्ण का चरित इस प्रकार कहने लगे― ॥8॥</p> | ||
<p> <span id="9" />यादवों का समाचार जानकर जरासंध संधि से विमुख हो गया और मुख्य मंत्रियों के साथ मंत्र करने लगा ॥9॥<span id="10" /> उसने पूछा कि हे मंत्रियो बताओ तो सही समुद्र में बढ़ती हुई तरंगों के समान भंगुर शत्रु आज तक उपेक्षित कैसे रहे आये ? ॥10॥<span id="11" /> गुप्तचर रूपी नेत्रों से युक्त राजा के मंत्री ही निर्मल चक्षु हैं फिर वे सामने खड़े रहकर स्वामी को तथा अपने<strong>-</strong>आपको क्यों धोखा देते हैं ? ॥11॥<span id="12" /> यदि महान् ऐश्वर्य से मत्त रहने वाले मैंने उन शत्रुओं को नहीं देखा तो आप लोगों से अदृष्ट कैसे रह गये ?आप लोगों ने उन्हें क्यों नहीं देखा ? ॥12॥<span id="13" /> यदि शत्रु उत्पन्न होते ही महान् प्रयत्नपूर्वक नष्ट नहीं किये जाते हैं तो वे कोप को प्राप्त हुई बीमारियों के समान दुःख देते हैं और उनका अंत अच्छा नहीं होता ॥13॥<span id="14" /> ये दुष्ट यादव मेरे जमाई कंस और भाई अपराजित को मारकर समुद्र की शरण में प्रविष्ट हुए हैं ॥14॥<span id="15" /> यद्यपि वे प्रवेश करने के अयोग्य समुद्र के मध्यभाग में स्थित हैं तथापि उपाय रूपी जल से खींचकर मछलियों के समान मेरे वध्य हैं ॥ 15 ॥<span id="16" /> द्वारिका में रहते हुए वे निर्भय क्यों हैं ? अथवा वे तभी तक निर्भय रह सकते हैं जब तक कि मेरी क्रोधाग्नि प्रज्वलित नहीं हुई है ॥16॥<span id="17" /> इतने समय तक मुझे उनका पता नहीं था इसलिए अपने कुटुंबीजनों के साथ वे सुख से रहे आये पर अब मुझे पता चल गया है इसलिए उनका सुखपूर्वक रहना कैसे हो सकता है <strong>? </strong>॥17॥<span id="18" /> तीव्र अपराध करने वाले वे साम और दाम के स्थान नहीं हैं इसलिए आप लोग एकांतरूप से उन्हें भेद और दंड के ही पक्ष में रखिए । ॥18॥</p> | |||
<p> <span id="19" /><span id="20" />तदनंतर प्रधानरूप से दंड को ही उपाय समझने वाले स्वामी जरासंध को शांत कर प्रसाद के मार्ग में स्थित मंत्रियों ने नम्रीभूत हो कहा कि हे नाथ ! हम लोग शत्रुओं की द्वारिका में होने वाली महावृद्धि को जानते हुए भी समय व्यतीत करते रहे इसका कारण सुनिए ॥19<strong>-</strong>20॥ <span id="21" />यादवों के वंश में उत्पन्न हुए श्री नेमिनाथ तीर्थंकर श्रीकृष्ण और बलदेव ये तीन महानुभाव इतने बलवान् है कि मनुष्यों की तो बात ही क्या देवों के लिए भी उनका जीतना कठिन है ॥21॥<span id="22" /><span id="23" /> स्वर्गावतार के समय जो रत्नों की वृष्टि से पूजित हुआ था<strong>, </strong>जन्म के समय इंद्रों ने सुमेरु पर्वत पर जिसका अभिषेक किया था और देव जिसकी सदा रक्षा करते हैं वह नेमिजिनेंद्र युद्ध में आपके द्वारा कैसे जीता जा सकता है अथवा पृथिवीतल के समस्त राजा भी इकट्ठे होकर उसे कैसे जीत सकते हैं<strong>? </strong>॥22<strong>-</strong>23॥<span id="24" /><span id="25" /> शिशुपाल के वध को आदि लेकर जो अनेक युद्ध हुए उनमें क्या आपने बलदेव और कृष्ण की उस लोकोत्तर सामर्थ्य को नहीं सुना <strong>? </strong>॥24॥<span id="25" /> प्रताप से कीर्ति को उपार्जित करने वाले महातेजस्वी पांडव तथा विवाह संबंध से अनुकूलता दिखलाने वाले अनेक विद्याधर इस समय जिनके पक्ष में हैं ॥25॥<span id="26" /> और जिनके साढ़े तीन करोड़ कुमार रण विद्या में कुशल हैं वे यादव कैसे जीते जा सकते हैं ? ॥26॥<span id="27" /> नयमार्ग के जानकार यदु किसी समय किसी अपेक्षा समुद्र के मध्य जाकर रहे थे । वे हम से भयभीत हैं ऐसा मत समझिए ॥27॥<span id="28" /><span id="29" /> इसलिए हे देव ! जो देव और काल के बल से सहित हैं<strong>, </strong>देव जिनकी रक्षा करते हैं और जो सोते हुए सिंह के समान हैं ऐसे यादव उधर द्वारिका में सुख से रहें और इधर हम लोग भी समय व्यतीत करते हुए सुख से रहें क्योंकि हे उत्तम आज्ञा के धारक ! प्रभो ! जिसमें अपना और पर का समय सुख से व्यतीत हो वही अवस्था प्रशंसनीय कही जाती है ॥28<strong>-</strong>29॥ <span id="30" />आपके इस अवस्था से रहने पर भी यदि वे क्रोध करते हैं तो उनका प्रतिकार करने के लिए पुरुषार्थ को स्वीकृत करो ॥30॥<span id="31" /> इसे आदि लेकर मंत्रियों ने यद्यपि हितकारी एवं सत्य निवेदन किया तथापि जरासंध ने उसे कुछ भी ग्रहण नहीं किया सो ठीक ही है क्योंकि विनाश के समय हठी मनुष्य अपना हठ नहीं छोड़ता ॥31॥<span id="32" /></p> | |||
<p> राजा जरासंध ने मंत्रियों को अनसुना कर शत्रुओं को शीघ्र ही कुपित करने के लिए अजितसेन नामक दूत को द्वारिकापुरी भेजा ॥32॥<span id=" | <p> राजा जरासंध ने मंत्रियों को अनसुना कर शत्रुओं को शीघ्र ही कुपित करने के लिए अजितसेन नामक दूत को द्वारिकापुरी भेजा ॥32॥<span id="33" /><span id="34" /> पराक्रमी राजा जरासंध ने चतुरंग सेनाओं के स्वामी, एवं आज्ञा का उल्लंघन न करने वाले पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर दिशाओं, पर्वतों एवं मध्यदेश के निवासी राजाओं को आप लोग जल्दी आइए यह कहकर दूत भेजे ॥33<strong>-</strong>34॥<span id="35" /> दूत को देखते ही सत्यप्रतिज्ञ एवं हित को चाहने वाले कर्ण, दुर्योधन आदि राजा जरासंध के पास आ पहुंचे ॥35॥<span id="36" /> उक्त राजा तथा महाबलवान् पुत्र आदि कुटुंबीजन जिसके पीछे<strong>-</strong>पीछे चल रहे थे ऐसा जरासंध<strong>, </strong>खोटे निमित्तों से रोके जाने पर भी शत्रुओं को जीतने की इच्छा से चल पडा ॥36॥<span id="37" /></p> | ||
<p> उधर जिस प्रकार पुण्य कार्य करने वाला कुशल मनुष्य स्वर्ग जा पहुंचता है उसी प्रकार स्वामी के कार्य में लगा हुआ अजितसेन दूत भी उत्तमोत्तम द्वारों से युक्त द्वारिका नगरी में जा पहुंचा ॥37॥<span id="38" /> अनेक आश्चर्यकारी रचनाओं से व्याप्त सुंदर द्वारिकापुरी में प्रवेश कर नगरवासी जनों के द्वारा देखा गया वह दूत क्रम<strong>-</strong>क्रम से राजमहल में पहुंचा ॥38॥<span id="39" /> द्वारपाल के द्वारा सूचना देने पर उसने समस्त यादवों से व्याप्त एवं भोज और पांडवों से युक्त श्रीकृष्ण को सभा में प्रवेश किया ॥39॥<span id="40" /> प्रणाम करने के बाद आगे दिलाये हुए आसन पर बैठकर उसने स्वामी के बल की प्राप्ति से उत्पन्न घमंड से इस प्रकार बोलना शुरू किया ॥40॥<span id="41" /></p> | <p> उधर जिस प्रकार पुण्य कार्य करने वाला कुशल मनुष्य स्वर्ग जा पहुंचता है उसी प्रकार स्वामी के कार्य में लगा हुआ अजितसेन दूत भी उत्तमोत्तम द्वारों से युक्त द्वारिका नगरी में जा पहुंचा ॥37॥<span id="38" /> अनेक आश्चर्यकारी रचनाओं से व्याप्त सुंदर द्वारिकापुरी में प्रवेश कर नगरवासी जनों के द्वारा देखा गया वह दूत क्रम<strong>-</strong>क्रम से राजमहल में पहुंचा ॥38॥<span id="39" /> द्वारपाल के द्वारा सूचना देने पर उसने समस्त यादवों से व्याप्त एवं भोज और पांडवों से युक्त श्रीकृष्ण को सभा में प्रवेश किया ॥39॥<span id="40" /> प्रणाम करने के बाद आगे दिलाये हुए आसन पर बैठकर उसने स्वामी के बल की प्राप्ति से उत्पन्न घमंड से इस प्रकार बोलना शुरू किया ॥40॥<span id="41" /></p> | ||
<p> वह बोला कि राजाधिराज महाराज जरासंध जो आज्ञा देते हैं उसे समस्त यादव मन स्थिर कर सुनें ॥41॥<span id="42" /> उनका कहना है कि आप ही लोग स्पष्ट बताओ कि मैंने आपका क्या अनिष्ट किया है ? जिससे कि भयभीत हो आप लोग समुद्र के मध्य में जा बसे हो ॥42॥<span id="43" /> यद्यपि अपराधी होने के कारण भयभीत हो तुम लोगों ने दुर्ग का आश्रय लिया है तथापि मुझसे तुम्हें भय नहीं है | <p> वह बोला कि राजाधिराज महाराज जरासंध जो आज्ञा देते हैं उसे समस्त यादव मन स्थिर कर सुनें ॥41॥<span id="42" /> उनका कहना है कि आप ही लोग स्पष्ट बताओ कि मैंने आपका क्या अनिष्ट किया है ? जिससे कि भयभीत हो आप लोग समुद्र के मध्य में जा बसे हो ॥42॥<span id="43" /> यद्यपि अपराधी होने के कारण भयभीत हो तुम लोगों ने दुर्ग का आश्रय लिया है तथापि मुझसे तुम्हें भय नहीं है, तुम लोग आकर मुझे नमस्कार करो ॥43॥<span id="44" /> यदि दुर्ग का बल पा तुम लोग बिना नमस्कार किये यहाँ रहोगे तो यह में समुद्र को पीकर सेनाओं के द्वारा तुम्हारी अभी हाल दुर्दशा कर दूंगा ॥44॥<span id="45" /> जब तक तुम्हारे यहाँ रहने का पता नहीं था तभी तक तुम्हें काल और देश का बल, बल था पर आज पता चल जाने पर काल और देश का बल कैसे रह सकता है ? ॥45॥<span id="46" /><span id="47" /></p> | ||
<p> दूत के उक्त वचन सुनकर कृष्ण आदि समस्त राजा कुपित हो उठे और भौंहों से मुख को कुटिल करते हुए कहने लगे कि जिसको मृत्यु निकट आ पहुँची है ऐसा तुम्हारा राजा समस्त सेनाओं के साथ आ रहा है सो युद्ध के द्वारा हम उसका सत्कार करेंगे । हम लोग संग्राम के लिए उत्कंठित हैं ॥46-47॥<span id="48" /> इस प्रकार कहकर यादवों ने दूत को विदा किया । वह उनके रूक्ष वचनरूपी वज्र से ताड़ित होता हुआ द्वारिका से चलकर अपने स्वामी के पास गया और सब समाचार कहकर कृतकृत्यता को प्राप्त हुआ ॥48॥<span id="49" /> तदनंतर दूत के चले जाने पर मंत्र करने में निपुण विमल<strong>, </strong>अमल और शार्दूल नामक मंत्रियों ने सलाह कर राजा समुद्रविजय से इस प्रकार निवेदन किया ॥49॥<span id=" | <p> दूत के उक्त वचन सुनकर कृष्ण आदि समस्त राजा कुपित हो उठे और भौंहों से मुख को कुटिल करते हुए कहने लगे कि जिसको मृत्यु निकट आ पहुँची है ऐसा तुम्हारा राजा समस्त सेनाओं के साथ आ रहा है सो युद्ध के द्वारा हम उसका सत्कार करेंगे । हम लोग संग्राम के लिए उत्कंठित हैं ॥46-47॥<span id="48" /> इस प्रकार कहकर यादवों ने दूत को विदा किया । वह उनके रूक्ष वचनरूपी वज्र से ताड़ित होता हुआ द्वारिका से चलकर अपने स्वामी के पास गया और सब समाचार कहकर कृतकृत्यता को प्राप्त हुआ ॥48॥<span id="49" /> तदनंतर दूत के चले जाने पर मंत्र करने में निपुण विमल<strong>, </strong>अमल और शार्दूल नामक मंत्रियों ने सलाह कर राजा समुद्रविजय से इस प्रकार निवेदन किया ॥49॥</p> | ||
<p> <span id="50" /><span id="51" />हे राजन् ! क्योंकि साम<strong>, </strong>स्वपक्ष और परपक्ष के लोगों को शांति का कारण होगा इसलिए हम लोग जरासंध के साथ साम का ही प्रयोग करें । यह जो कुमारों का समूह आदि है वह सब स्वजनों का समूह है । अपायबहुल युद्ध में इन सबकी कुशलता के प्रति संदेह है ॥ 50-51 ॥<span id="52" /> जिस प्रकार हमारी सेना में अमोघ बाणों की वर्षा करने वाले योद्धा हैं उसी प्रकार जरासंध की सेना भी पृथिवी में प्रसिद्ध है ॥52॥<span id="53" /> युद्ध के अग्रभाग में यदि एक भी स्वजन की मृत्यु हो जायेगी तो वह जिस प्रकार शत्रु के लिए दुःख का कारण होगी उसी प्रकार हमारे लिए भी दुःख का कारण हो सकती है ॥53॥<span id="54" /> इसलिए सबकी भलाई के लिए साम हो प्रशंसनीय उपाय है । अतः अहंकार को छोड़कर साम<strong>-</strong>शांति के लिए जरासंध के पास दूत भेजा जाये ॥54॥<span id="55" /> हाँ, साम के द्वारा शांत करने पर भी यदि जरासंध शांत नहीं होता है तो हम लोग फिर उसके अनुरूप कार्य करेंगे । इस प्रकार साम उपाय के अवलंबन करने में क्या दोष है ? ॥55॥<span id="56" /></p> | |||
<p> इस प्रकार मंत्र कर मंत्रियों ने जब राजा समुद्रविजय से कहा तो उन्होंने उत्तर दिया कि क्या दोष है ? दूत भेजा जाये । इस प्रकार सलाह कर उन्होंने लोहजंघ कुमार को भिजवा दिया ॥56॥<span id="57" /> कुमार लोहजंघ बहुत ही चतुर | <p> इस प्रकार मंत्र कर मंत्रियों ने जब राजा समुद्रविजय से कहा तो उन्होंने उत्तर दिया कि क्या दोष है ? दूत भेजा जाये । इस प्रकार सलाह कर उन्होंने लोहजंघ कुमार को भिजवा दिया ॥56॥<span id="57" /> कुमार लोहजंघ बहुत ही चतुर, शूर-वीर और नीतिरूपी नेत्र का धारक था । वह अपनी सेना ले जरासंध के साथ संधि करने के लिए चला ॥57॥<span id="58" /><span id="59" /> पूर्व मालव देश में पहुंचकर उसने वहाँ के वन में अपनी सेना का पड़ाव डाला<strong>, </strong>वहाँ साथ-साथ विचरने वाले तिलकानंद और नंदन नामक दो मुनिराज आये । वे दोनों मुनि मासोपवासी थे और वन में आहार मिलेगा तो लेंगे अन्यथा नहीं यह नियम ले वन में विहार कर रहे थे । उन्हें देख कुमार लोहजंघ ने उन्हें पड़गाह कर आहार दिया और उसके फलस्वरूप पंचाश्चर्य प्राप्त किये ॥ 58-59॥<span id="60" /> उसी समय से वह स्थान पृथिवीतल पर देवावतार नामक तीर्थ बन गया और हजारों प्राणियों के पाप शांत होने का कारण हो गया ॥60॥<span id="61" /></p> | ||
<p> जरासंध यद्यपि संधि करने के पक्ष में नहीं था तथापि समझाने में चतुर दूत लोहजंघ ने जाकर उसे एकांत में समझाया ॥61॥<span id="62" /> लोहजंघ के वचनों से जरासंध बहुत प्रसन्न हुआ और उसने छह माह तक के लिए संधि स्वीकृत कर ली ॥62॥<span id="63" /> तदनंतर राजा जरासंध से सम्मान प्राप्त कर लोहजंघ द्वारिका वापस लौट आया और समुद्रविजय आदि के लिए सब समाचार सुनाकर कृतकृत्य हो सुख से रहने लगा ॥63॥<span id=" | <p> जरासंध यद्यपि संधि करने के पक्ष में नहीं था तथापि समझाने में चतुर दूत लोहजंघ ने जाकर उसे एकांत में समझाया ॥61॥<span id="62" /> लोहजंघ के वचनों से जरासंध बहुत प्रसन्न हुआ और उसने छह माह तक के लिए संधि स्वीकृत कर ली ॥62॥<span id="63" /> तदनंतर राजा जरासंध से सम्मान प्राप्त कर लोहजंघ द्वारिका वापस लौट आया और समुद्रविजय आदि के लिए सब समाचार सुनाकर कृतकृत्य हो सुख से रहने लगा ॥63॥</p> | ||
<p> <span id="64" /><span id="65" />तदनंतर युद्ध की तैयारी का ध्यान रख यादवों ने एक वर्ष शांति से व्यतीत किया । इस प्रकार एक वर्ष पूर्ण हो जाने पर महाप्रतिज्ञा को पूर्ण करने वाला जरासंध बड़े-बड़े सामंतों के समूह से युक्त तथा सेनारूपी सागर से दिशाओं को व्याप्त करता हुआ बड़े-बड़े राजाओं के युद्ध के योग्य कुरुक्षेत्र के मैदान में आ पहुँचा ॥64-65॥ अपनी सेनारूपी नदियों के समूह से भरे हुए कृष्णरूपी दूसरे सागर भी पहले ही आकर वहाँ आ जमे थे ॥66॥<span id="67" /> उस समय कृष्ण के संबंधी कितने ही दक्षिण-उत्तर और पश्चिम के राजा अपनी-अपनी समस्त सेनाओं के साथ आकर कृष्ण से आ मिले ॥67॥<span id="68" /> दशाह, सांत्वना देने वाले भोज और पांडव आदि बंधुजन तथा अन्य अनेक उत्तमोत्तम प्रसिद्ध राजा श्रीकृष्ण के हित की इच्छा करते हुए आ मिले ॥68॥<span id="69" /><span id="70" /> वहाँ राजा समुद्रविजय एक अक्षौहिणी के स्वामी थे, पुरुषों में अग्रसर राजा उग्रसेन भी एक अक्षौहिणी का स्वामी था और इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न राजा मेरु भी एक अक्षौहिणी का अधिपति था । राष्ट्रवर्धन देश का राजा आधी अक्षौहिणी का स्वामी था ॥ 69-70॥<span id="71" /> सिंहल देश का राजा आधी अक्षौहिणी का प्रभु था और बलवान् राजा पद्मरथ भी उसी के समान अर्ध अक्षौहिणी प्रमाण सेना से युक्त था ॥71॥<span id="72" /> शकुनि का भाई वीर पराक्रमी चारुदत्त जो कि कृष्ण के हित में सदा तत्पर रहता था, एक चौथाई अक्षौहिणी का स्वामी था ॥72॥<span id="73" /> वर्वर, यमन, आभीर, कांबोज और द्रविड़ आदि के अन्य शूर-वीर राजा कृष्ण के पक्ष में आ मिले ॥73॥<span id="74" /></p> | |||
<p> उस ओर चक्ररत्न के प्रभाव से भरतक्षेत्र को वश करने वाले राजा जरासंध को भी अनेक अक्षौहिणी सेनाएँ प्राप्त थीं ॥74॥<span id="75" /> घोड़े<strong>, </strong>हाथी<strong>, </strong>पैदल सैनिक तथा रथों की गणना से युक्त अक्षौहिणी सेना का प्रमाण इस प्रकार कहा गया है ॥75॥<span id="76" /> जिसमें नौ हजार हाथी<strong>, </strong>नौ लाख रथ<strong>, </strong>नौ करोड़ घोड़े और नौ-सौ करोड़ पैदल सैनिक हों उसे एक अक्षौहिणी कहते हैं ॥76॥<span id="77" /> यादवों में कुमार नेमि<strong>, </strong>बलदेव और कृष्ण ये तीनों अतिरथ थे । ये तीनों भारतवर्ष में जितने अतिरथ थे उन सबको अतिक्रांत कर उन सबमें श्रेष्ठ थे ॥77॥<span id="78" /><span id="79" /><span id="80" /> राजा समुद्रविजय<strong>, </strong>वसुदेव<strong>, </strong>युधिष्ठिर<strong>, </strong>भीम<strong>, </strong>कर्ण<strong>, </strong>अर्जुन<strong>, </strong>रुक्मी<strong>, </strong>प्रद्युम्न<strong>, </strong>सत्यक<strong>, </strong>धृष्टद्युम्न<strong>, </strong>अनावृष्टि<strong>, </strong>शल्य<strong>, </strong>भूरिश्रवस्<strong>, </strong>राजा हिरण्यनाभ<strong>, </strong>सहदेव और सारण<strong>, </strong>ये सब राजा महारथ थे । ये सभी शस्त्र और शास्त्रार्थ में निपुण<strong>, </strong>पराङ्मुख<strong>, </strong>जीवों पर दया करने में तत्पर<strong>, </strong>महाशक्तिमान् और महाधैर्यशाली थे ॥78-80॥<span id="81" /><span id="82" /> समुद्रविजय से छोटे और वसुदेव से बड़े अक्षोभ्य आदि आठ भाई<strong>, </strong>शंब<strong>, </strong>भोज<strong>, </strong>विदूरथ<strong>, </strong>द्रुपद<strong>, </strong>सिंहराज<strong>, </strong>शल्य<strong>, </strong>वज्र<strong>, </strong>सुयोधन<strong>, </strong>पौंड्र<strong>, </strong>पद्मरथ<strong>, </strong>कपिल<strong>, </strong>भगदत्त और क्षेमधूर्त ये सब समरथ थे तथा युद्ध में समान शक्ति के धारक थे ॥81-82॥<span id="83" /><span id="84" /><span id="85" /> महानेमि<strong>, </strong>धर<strong>, </strong>अक्रूर<strong>, </strong>निषध<strong>, </strong>उल्मक<strong>, </strong>दुर्मुख<strong>, </strong>कृतवर्मा<strong>, </strong>वराट<strong>, </strong>चारुकृष्ण<strong>, </strong>शकुनि<strong>, </strong>यवन<strong>, </strong>भानु<strong>, </strong>दुश्शासन<strong>, </strong>शिखंडी<strong>, </strong>वाह्लीक<strong>, </strong>सोमदत्त<strong>, </strong>देवशर्मा<strong>, </strong>वक<strong>, </strong>वेणुदारी और विक्रांत ये राजा अर्धरथ थे । ये सभी राजा आश्चर्यकारक युद्ध करने वाले एवं धीर-वीर थे तथा युद्ध से कभी पराङ्मुख नहीं होते थे ॥83-85॥<span id="86" /> इनके सिवाय कुल<strong>, </strong>मान और यशरूपी धन को धारण करने वाले समस्त राजा रथी नाम से प्रसिद्ध थे । ये राजा यथायोग्य दोनों ही सेनाओं में थे ॥86॥<span id="87" /><span id="88" /><span id="89" /><span id="90" /></p> | <p> उस ओर चक्ररत्न के प्रभाव से भरतक्षेत्र को वश करने वाले राजा जरासंध को भी अनेक अक्षौहिणी सेनाएँ प्राप्त थीं ॥74॥<span id="75" /> घोड़े<strong>, </strong>हाथी<strong>, </strong>पैदल सैनिक तथा रथों की गणना से युक्त अक्षौहिणी सेना का प्रमाण इस प्रकार कहा गया है ॥75॥<span id="76" /> जिसमें नौ हजार हाथी<strong>, </strong>नौ लाख रथ<strong>, </strong>नौ करोड़ घोड़े और नौ-सौ करोड़ पैदल सैनिक हों उसे एक अक्षौहिणी कहते हैं ॥76॥<span id="77" /> यादवों में कुमार नेमि<strong>, </strong>बलदेव और कृष्ण ये तीनों अतिरथ थे । ये तीनों भारतवर्ष में जितने अतिरथ थे उन सबको अतिक्रांत कर उन सबमें श्रेष्ठ थे ॥77॥<span id="78" /><span id="79" /><span id="80" /> राजा समुद्रविजय<strong>, </strong>वसुदेव<strong>, </strong>युधिष्ठिर<strong>, </strong>भीम<strong>, </strong>कर्ण<strong>, </strong>अर्जुन<strong>, </strong>रुक्मी<strong>, </strong>प्रद्युम्न<strong>, </strong>सत्यक<strong>, </strong>धृष्टद्युम्न<strong>, </strong>अनावृष्टि<strong>, </strong>शल्य<strong>, </strong>भूरिश्रवस्<strong>, </strong>राजा हिरण्यनाभ<strong>, </strong>सहदेव और सारण<strong>, </strong>ये सब राजा महारथ थे । ये सभी शस्त्र और शास्त्रार्थ में निपुण<strong>, </strong>पराङ्मुख<strong>, </strong>जीवों पर दया करने में तत्पर<strong>, </strong>महाशक्तिमान् और महाधैर्यशाली थे ॥78-80॥<span id="81" /><span id="82" /> समुद्रविजय से छोटे और वसुदेव से बड़े अक्षोभ्य आदि आठ भाई<strong>, </strong>शंब<strong>, </strong>भोज<strong>, </strong>विदूरथ<strong>, </strong>द्रुपद<strong>, </strong>सिंहराज<strong>, </strong>शल्य<strong>, </strong>वज्र<strong>, </strong>सुयोधन<strong>, </strong>पौंड्र<strong>, </strong>पद्मरथ<strong>, </strong>कपिल<strong>, </strong>भगदत्त और क्षेमधूर्त ये सब समरथ थे तथा युद्ध में समान शक्ति के धारक थे ॥81-82॥<span id="83" /><span id="84" /><span id="85" /> महानेमि<strong>, </strong>धर<strong>, </strong>अक्रूर<strong>, </strong>निषध<strong>, </strong>उल्मक<strong>, </strong>दुर्मुख<strong>, </strong>कृतवर्मा<strong>, </strong>वराट<strong>, </strong>चारुकृष्ण<strong>, </strong>शकुनि<strong>, </strong>यवन<strong>, </strong>भानु<strong>, </strong>दुश्शासन<strong>, </strong>शिखंडी<strong>, </strong>वाह्लीक<strong>, </strong>सोमदत्त<strong>, </strong>देवशर्मा<strong>, </strong>वक<strong>, </strong>वेणुदारी और विक्रांत ये राजा अर्धरथ थे । ये सभी राजा आश्चर्यकारक युद्ध करने वाले एवं धीर-वीर थे तथा युद्ध से कभी पराङ्मुख नहीं होते थे ॥83-85॥<span id="86" /> इनके सिवाय कुल<strong>, </strong>मान और यशरूपी धन को धारण करने वाले समस्त राजा रथी नाम से प्रसिद्ध थे । ये राजा यथायोग्य दोनों ही सेनाओं में थे ॥86॥<span id="87" /><span id="88" /><span id="89" /><span id="90" /></p> | ||
<p> समुद्रों के समान दोनों पक्ष की सेनाएं जब पास-पास आ गयीं तब कुंती बहुत घबड़ायी । वह शीघ्र ही कर्ण के पास गयी । वहाँ जाने में उसे युधिष्ठिर आदि पुत्रों ने अनुमति दे दी थी । उस समय कन्या अवस्था के पुत्र कर्ण के ऊपर जो उसका अपार स्नेह था उससे उसका शरीर विवश हो रहा था । उसने कर्ण के कंठ से लगकर रोते-रोते आदि<strong>, </strong>मध्य और अंत में जैसा कुछ हुआ वह सब अपना माता और पुत्र का संबंध बतलाया । उसने यह भी बतलाया कि मैंने तुझे उत्पन्न होते ही लोकलाज के भय से कंबल में लपेटकर छोड़ दिया था । कर्ण कंबल के वृत्तांत को जानता था और यह भी जानता था कि कुरुवंश में मेरा जन्म हुआ है । अब कुंती के कहने से उसने निश्चय कर लिया कि मैं कुंती और पांडु का पुत्र हूँ ॥87-90॥<span id="91" /><span id="92" /> अपने बंधुजनों का निर्णय कर कर्ण ने अपनी समस्त स्त्रियों के साथ कुंती की पूजा की । तदनंतर आदर दिखाती हुई कुंती ने अपने प्रथम पुत्र कर्ण से कहा कि हे पुत्र ! उठ<strong>, </strong>वहाँ चलें जहाँ तेरे सब भाई तथा श्रीकृष्ण आदि अपने अन्य आत्मीय जन तेरे लिए उत्कंठित हो रहे हैं ॥91-92॥<span id="93" /> हे पुत्र ! इस समय पृथिवी पर कुरुओं का स्वामी तू ही है और कृष्ण तथा बलदेव के लिए प्राणों के समान प्रिय है ॥93॥<span id="94" /><span id="95" /> तू राजा है<strong>, </strong>तेरा छोटा भाई युधिष्ठिर तेरे ऊपर छत्र लगावेगा<strong>, </strong>भीम चंवर ढोरेगा<strong>, </strong>धनंजय मंत्री होगा<strong>, </strong>सहदेव और नकुल तेरे द्वारपाल होंगे और नीतिपूर्वक निरंतर हित करने में उद्यत मैं तेरी माता हूँ ॥94-95॥<span id="99" /> </p> | <p> समुद्रों के समान दोनों पक्ष की सेनाएं जब पास-पास आ गयीं तब कुंती बहुत घबड़ायी । वह शीघ्र ही कर्ण के पास गयी । वहाँ जाने में उसे युधिष्ठिर आदि पुत्रों ने अनुमति दे दी थी । उस समय कन्या अवस्था के पुत्र कर्ण के ऊपर जो उसका अपार स्नेह था उससे उसका शरीर विवश हो रहा था । उसने कर्ण के कंठ से लगकर रोते-रोते आदि<strong>, </strong>मध्य और अंत में जैसा कुछ हुआ वह सब अपना माता और पुत्र का संबंध बतलाया । उसने यह भी बतलाया कि मैंने तुझे उत्पन्न होते ही लोकलाज के भय से कंबल में लपेटकर छोड़ दिया था । कर्ण कंबल के वृत्तांत को जानता था और यह भी जानता था कि कुरुवंश में मेरा जन्म हुआ है । अब कुंती के कहने से उसने निश्चय कर लिया कि मैं कुंती और पांडु का पुत्र हूँ ॥87-90॥<span id="91" /><span id="92" /> अपने बंधुजनों का निर्णय कर कर्ण ने अपनी समस्त स्त्रियों के साथ कुंती की पूजा की । तदनंतर आदर दिखाती हुई कुंती ने अपने प्रथम पुत्र कर्ण से कहा कि हे पुत्र ! उठ<strong>, </strong>वहाँ चलें जहाँ तेरे सब भाई तथा श्रीकृष्ण आदि अपने अन्य आत्मीय जन तेरे लिए उत्कंठित हो रहे हैं ॥91-92॥<span id="93" /> हे पुत्र ! इस समय पृथिवी पर कुरुओं का स्वामी तू ही है और कृष्ण तथा बलदेव के लिए प्राणों के समान प्रिय है ॥93॥<span id="94" /><span id="95" /> तू राजा है<strong>, </strong>तेरा छोटा भाई युधिष्ठिर तेरे ऊपर छत्र लगावेगा<strong>, </strong>भीम चंवर ढोरेगा<strong>, </strong>धनंजय मंत्री होगा<strong>, </strong>सहदेव और नकुल तेरे द्वारपाल होंगे और नीतिपूर्वक निरंतर हित करने में उद्यत मैं तेरी माता हूँ ॥94-95॥<span id="99" /> </p> | ||
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<p>बाहर भी अनेक राजा नाना प्रकार के व्यूह बनाकर स्थित थे ॥110॥<span id="111" /> इस प्रकार चतुर राजाओं के द्वारा रचित, अपनी सेना के मन को संतुष्ट करने वाला और शत्रु की सेना के मन में भय उत्पन्न करने वाला वह चक्रव्यूह उस समय अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ॥111॥<span id="112" /></p> | <p>बाहर भी अनेक राजा नाना प्रकार के व्यूह बनाकर स्थित थे ॥110॥<span id="111" /> इस प्रकार चतुर राजाओं के द्वारा रचित, अपनी सेना के मन को संतुष्ट करने वाला और शत्रु की सेना के मन में भय उत्पन्न करने वाला वह चक्रव्यूह उस समय अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ॥111॥<span id="112" /></p> | ||
<p> इधर रचना करने में निपुण वसुदेव को जब पता चला कि जरासंध की सेना में चक्रव्यूह को रचना की गयी है तब उसने भी चक्रव्यूह को भेदन के लिए गरुड़-व्यूह की रचना कर डाली ॥112॥<span id="113" /> उदात्तचित्त, रण में शूर-वीर तथा नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को धारण करने वाले पचास लाख यादव कुमार उस गरुड़ के मुख पर खड़े किये गये ॥113॥<span id="114" /> धीर-वीर एवं स्थिरता से पर्वत को जीतने वाले अतिरथ, पराक्रमी बलदेव और श्रीकृष्ण उसके मस्तक पर स्थित हुए ॥114॥<span id="115" /><span id="116" /><span id="117" /> अक्रूर, कुमुद, वीर, सारण, विजय, जय, पद्म, जरत्कुमार, सुमुख, दुर्मुख, मदनवेगा पुत्र महारथ | <p> इधर रचना करने में निपुण वसुदेव को जब पता चला कि जरासंध की सेना में चक्रव्यूह को रचना की गयी है तब उसने भी चक्रव्यूह को भेदन के लिए गरुड़-व्यूह की रचना कर डाली ॥112॥<span id="113" /> उदात्तचित्त, रण में शूर-वीर तथा नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को धारण करने वाले पचास लाख यादव कुमार उस गरुड़ के मुख पर खड़े किये गये ॥113॥<span id="114" /> धीर-वीर एवं स्थिरता से पर्वत को जीतने वाले अतिरथ, पराक्रमी बलदेव और श्रीकृष्ण उसके मस्तक पर स्थित हुए ॥114॥<span id="115" /><span id="116" /><span id="117" /> अक्रूर, कुमुद, वीर, सारण, विजय, जय, पद्म, जरत्कुमार, सुमुख, दुर्मुख, मदनवेगा पुत्र महारथ दृढ़मुष्टि, विदूरथ और अनावृष्टि ये जो वसुदेव के पुत्र थे वे बलदेव और कृष्ण के रथ की रक्षा करने के लिए उनके पृष्ठरक्षक बनाये गये । एक करोड़ रथों से सहित भोज, गरुड़ के पृष्ठ भाग पर स्थित हुआ ॥115-117॥<span id="118" /> राजा भोज की पृष्ठ-रक्षा के लिए धारण तथा सागर आदि अन्य अनेक रणवीर राजा नियुक्त हुए ॥118॥<span id="119" /> अपने महारथी पुत्रों तथा बहुत बड़ी सेना से युक्त राजा समुद्रविजय उस गरुड़ के दाहिने पंख पर स्थित हुए ॥119 ॥<span id="120" /><span id="121" /><span id="122" /> और उनकी आजू-बाजू की रक्षा करने के लिए चतुर, शत्रुओं को मारने वाले सत्यनेमि, महानेमि, दृढ़नेमि, सुनेमि, महारथी नमि, जयसेन, महीजय, तेजसेन, जय, सेन, नय, मेघ, महाद्युति आदि दशार्ह (यादव) तथा सैकड़ों अन्य प्रसिद्ध राजा पच्चीस लाख रथों के साथ स्थित हुए ॥120-122॥<span id="123" /> बलदेव के पुत्र और युद्ध कार्य में निपुण महामना पांडव गरुड़ के बायें पक्ष का आश्रय ले खड़े हुए ॥123 ॥<span id="124" /><span id="125" /><span id="126" /><span id="127" /> इन्हीं के समीप उल्मक, निषध, प्रकृतिद्युति, सत्यक, शत्रुदमन, श्रीध्वज, ध्रुव, राजा दशरथ, देवानंद, शंतनु, आनंद, महानंद, चंद्रानंद, महाबल, पृथु, शतधनु, विपृथु, यशोधन, दृढ़बंध और सब प्रकार के शस्त्रों से आकाश को भर देने वाले अनुवीय स्थिति थे । ये सभी कुमार अनेक लाख रथों से युक्त थे, शस्त्र और अस्त्रों में परिश्रम करने वाले थे, तथा युद्ध में कौरवों के वध का निश्चय किये हुए थे ॥124-127॥<span id="128" /><span id="129" /> इनके पीछे राजा चंद्रयश, सिंहल, वर्वर, कंबोज, केरल, कुशल (कोसल) और द्रमिल देशों के राजा तथा शांतन साठ-साठ हजार रथ लेकर स्थित थे । इस प्रकार ये बलशाली राजा उस गरुड़ की रक्षा करते हुए स्थित थे ॥128-129॥<span id="130" /><span id="131" /><span id="132" /> इनके सिवाय अशित, भानु, युद्ध का प्रेमी तोमर, संजय, अकल्पित, भानु, विष्णु, बृहद̖ध्वज, शत्रुजय, महासेन, गंभीर, गौतम, वसुधर्मादि, कृतवर्मा, प्रसेनजित्, दृढवर्मा, विक्रांत और चंद्रवर्मा आदि राजा अपनी-अपनी सेनाओं से युक्त हो श्रीकृष्ण के कुल की रक्षा करते थे ॥130-132 ॥<span id="133" /> जिसके भीतर स्थित महारथी राजा उत्साह प्रकट कर रहे थे, ऐसा यह वसुदेव के द्वारा निर्मित गरुड़व्यूह, जरासंध के चक्रव्यूह को भेदने की इच्छा कर रहा था ॥133 ॥<span id="134" /> गौतम स्वामी कहते हैं कि दोनों पक्ष के चतुर मनुष्यों ने उस ओर यद्यपि दुःख से प्रवेश करने के योग्य चक्रव्यूह और इधर गरुड़-व्यूह की रचना की थी तथापि जिनेंद्र प्रदर्शित मार्ग में चलकर संचित किये हुए धर्म के प्रभाव से युद्ध में कोई एक नायक ही विजयी होगा ऐसा मैं समझता हूँ ॥134॥<span id="50" /> </p> | ||
<p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में चक्रव्यूह और गरुडव्यूह का वर्णन करने वाला पचासवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥50॥</strong></p> | <p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में चक्रव्यूह और गरुडव्यूह का वर्णन करने वाला पचासवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥50॥</strong></p> | ||
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Latest revision as of 21:21, 22 November 2023
इधर कोई एक वणिक अपना खरीदा हुआ माल बेचने के लिए बहुत से अमूल्य मणि लेकर राजा जरासंध से मिला ꠰꠰1॥ उन मणियों को देखकर राणा जरासंध ने उससे पूछा कि ये मणि तुम कहाँ से लाये हो ? इसके उत्तर में वणिक् ने कहा कि हे स्वामिन् ! ये मणि उस द्वारिकापुरी से आये हैं जहाँ अत्यंत पराक्रमी राजा कृष्ण रहते हैं ॥2॥ यादवों के स्वामी समुद्रविजय और उनकी रानी शिवादेवी के जब नेमिनाथ तीर्थंकर उत्पन्न हुए थे तब पंद्रह मास तक देवों ने रत्नवृष्टि की थी ॥3॥ उन्हीं रत्नों में से ये रत्न लाया हूँ । वणिक् तथा मंत्रियों से इस प्रकार यादवों का माहात्म्य सुनकर जरासंध क्रोध से लाल-लाल नेत्रों का धारक हो गया ॥4॥ इस प्रकार यादवों की वृद्धि सुनकर राजा श्रेणिक ने श्रुतज्ञानरूपी नेत्र के धारक गौतम गणधर को नमस्कार कर पूछा कि हे भगवन् ! महागुण रूपी किरणों से सुशोभित, समुद्र में मणियों की राशि के समान समस्त लोक में प्रख्यात अत्यधिक यादवों में जब जरासंध ने अनेक युद्धों में जिनका दृढ़पराक्रम परिपूर्णता को प्राप्त हो चुका था ऐसे कृष्ण का नाम सुना तब उसकी क्या चेष्टा हुई ? सो कृपा कर कहिए ॥5-7॥ तदनंतर गौतम गणधर, श्रवण करने के लिए उत्सुक राजा श्रेणिक के लिए दोनों नर-श्रेष्ठ― जरासंध और कृष्ण का चरित इस प्रकार कहने लगे― ॥8॥
यादवों का समाचार जानकर जरासंध संधि से विमुख हो गया और मुख्य मंत्रियों के साथ मंत्र करने लगा ॥9॥ उसने पूछा कि हे मंत्रियो बताओ तो सही समुद्र में बढ़ती हुई तरंगों के समान भंगुर शत्रु आज तक उपेक्षित कैसे रहे आये ? ॥10॥ गुप्तचर रूपी नेत्रों से युक्त राजा के मंत्री ही निर्मल चक्षु हैं फिर वे सामने खड़े रहकर स्वामी को तथा अपने-आपको क्यों धोखा देते हैं ? ॥11॥ यदि महान् ऐश्वर्य से मत्त रहने वाले मैंने उन शत्रुओं को नहीं देखा तो आप लोगों से अदृष्ट कैसे रह गये ?आप लोगों ने उन्हें क्यों नहीं देखा ? ॥12॥ यदि शत्रु उत्पन्न होते ही महान् प्रयत्नपूर्वक नष्ट नहीं किये जाते हैं तो वे कोप को प्राप्त हुई बीमारियों के समान दुःख देते हैं और उनका अंत अच्छा नहीं होता ॥13॥ ये दुष्ट यादव मेरे जमाई कंस और भाई अपराजित को मारकर समुद्र की शरण में प्रविष्ट हुए हैं ॥14॥ यद्यपि वे प्रवेश करने के अयोग्य समुद्र के मध्यभाग में स्थित हैं तथापि उपाय रूपी जल से खींचकर मछलियों के समान मेरे वध्य हैं ॥ 15 ॥ द्वारिका में रहते हुए वे निर्भय क्यों हैं ? अथवा वे तभी तक निर्भय रह सकते हैं जब तक कि मेरी क्रोधाग्नि प्रज्वलित नहीं हुई है ॥16॥ इतने समय तक मुझे उनका पता नहीं था इसलिए अपने कुटुंबीजनों के साथ वे सुख से रहे आये पर अब मुझे पता चल गया है इसलिए उनका सुखपूर्वक रहना कैसे हो सकता है ? ॥17॥ तीव्र अपराध करने वाले वे साम और दाम के स्थान नहीं हैं इसलिए आप लोग एकांतरूप से उन्हें भेद और दंड के ही पक्ष में रखिए । ॥18॥
तदनंतर प्रधानरूप से दंड को ही उपाय समझने वाले स्वामी जरासंध को शांत कर प्रसाद के मार्ग में स्थित मंत्रियों ने नम्रीभूत हो कहा कि हे नाथ ! हम लोग शत्रुओं की द्वारिका में होने वाली महावृद्धि को जानते हुए भी समय व्यतीत करते रहे इसका कारण सुनिए ॥19-20॥ यादवों के वंश में उत्पन्न हुए श्री नेमिनाथ तीर्थंकर श्रीकृष्ण और बलदेव ये तीन महानुभाव इतने बलवान् है कि मनुष्यों की तो बात ही क्या देवों के लिए भी उनका जीतना कठिन है ॥21॥ स्वर्गावतार के समय जो रत्नों की वृष्टि से पूजित हुआ था, जन्म के समय इंद्रों ने सुमेरु पर्वत पर जिसका अभिषेक किया था और देव जिसकी सदा रक्षा करते हैं वह नेमिजिनेंद्र युद्ध में आपके द्वारा कैसे जीता जा सकता है अथवा पृथिवीतल के समस्त राजा भी इकट्ठे होकर उसे कैसे जीत सकते हैं? ॥22-23॥ शिशुपाल के वध को आदि लेकर जो अनेक युद्ध हुए उनमें क्या आपने बलदेव और कृष्ण की उस लोकोत्तर सामर्थ्य को नहीं सुना ? ॥24॥ प्रताप से कीर्ति को उपार्जित करने वाले महातेजस्वी पांडव तथा विवाह संबंध से अनुकूलता दिखलाने वाले अनेक विद्याधर इस समय जिनके पक्ष में हैं ॥25॥ और जिनके साढ़े तीन करोड़ कुमार रण विद्या में कुशल हैं वे यादव कैसे जीते जा सकते हैं ? ॥26॥ नयमार्ग के जानकार यदु किसी समय किसी अपेक्षा समुद्र के मध्य जाकर रहे थे । वे हम से भयभीत हैं ऐसा मत समझिए ॥27॥ इसलिए हे देव ! जो देव और काल के बल से सहित हैं, देव जिनकी रक्षा करते हैं और जो सोते हुए सिंह के समान हैं ऐसे यादव उधर द्वारिका में सुख से रहें और इधर हम लोग भी समय व्यतीत करते हुए सुख से रहें क्योंकि हे उत्तम आज्ञा के धारक ! प्रभो ! जिसमें अपना और पर का समय सुख से व्यतीत हो वही अवस्था प्रशंसनीय कही जाती है ॥28-29॥ आपके इस अवस्था से रहने पर भी यदि वे क्रोध करते हैं तो उनका प्रतिकार करने के लिए पुरुषार्थ को स्वीकृत करो ॥30॥ इसे आदि लेकर मंत्रियों ने यद्यपि हितकारी एवं सत्य निवेदन किया तथापि जरासंध ने उसे कुछ भी ग्रहण नहीं किया सो ठीक ही है क्योंकि विनाश के समय हठी मनुष्य अपना हठ नहीं छोड़ता ॥31॥
राजा जरासंध ने मंत्रियों को अनसुना कर शत्रुओं को शीघ्र ही कुपित करने के लिए अजितसेन नामक दूत को द्वारिकापुरी भेजा ॥32॥ पराक्रमी राजा जरासंध ने चतुरंग सेनाओं के स्वामी, एवं आज्ञा का उल्लंघन न करने वाले पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर दिशाओं, पर्वतों एवं मध्यदेश के निवासी राजाओं को आप लोग जल्दी आइए यह कहकर दूत भेजे ॥33-34॥ दूत को देखते ही सत्यप्रतिज्ञ एवं हित को चाहने वाले कर्ण, दुर्योधन आदि राजा जरासंध के पास आ पहुंचे ॥35॥ उक्त राजा तथा महाबलवान् पुत्र आदि कुटुंबीजन जिसके पीछे-पीछे चल रहे थे ऐसा जरासंध, खोटे निमित्तों से रोके जाने पर भी शत्रुओं को जीतने की इच्छा से चल पडा ॥36॥
उधर जिस प्रकार पुण्य कार्य करने वाला कुशल मनुष्य स्वर्ग जा पहुंचता है उसी प्रकार स्वामी के कार्य में लगा हुआ अजितसेन दूत भी उत्तमोत्तम द्वारों से युक्त द्वारिका नगरी में जा पहुंचा ॥37॥ अनेक आश्चर्यकारी रचनाओं से व्याप्त सुंदर द्वारिकापुरी में प्रवेश कर नगरवासी जनों के द्वारा देखा गया वह दूत क्रम-क्रम से राजमहल में पहुंचा ॥38॥ द्वारपाल के द्वारा सूचना देने पर उसने समस्त यादवों से व्याप्त एवं भोज और पांडवों से युक्त श्रीकृष्ण को सभा में प्रवेश किया ॥39॥ प्रणाम करने के बाद आगे दिलाये हुए आसन पर बैठकर उसने स्वामी के बल की प्राप्ति से उत्पन्न घमंड से इस प्रकार बोलना शुरू किया ॥40॥
वह बोला कि राजाधिराज महाराज जरासंध जो आज्ञा देते हैं उसे समस्त यादव मन स्थिर कर सुनें ॥41॥ उनका कहना है कि आप ही लोग स्पष्ट बताओ कि मैंने आपका क्या अनिष्ट किया है ? जिससे कि भयभीत हो आप लोग समुद्र के मध्य में जा बसे हो ॥42॥ यद्यपि अपराधी होने के कारण भयभीत हो तुम लोगों ने दुर्ग का आश्रय लिया है तथापि मुझसे तुम्हें भय नहीं है, तुम लोग आकर मुझे नमस्कार करो ॥43॥ यदि दुर्ग का बल पा तुम लोग बिना नमस्कार किये यहाँ रहोगे तो यह में समुद्र को पीकर सेनाओं के द्वारा तुम्हारी अभी हाल दुर्दशा कर दूंगा ॥44॥ जब तक तुम्हारे यहाँ रहने का पता नहीं था तभी तक तुम्हें काल और देश का बल, बल था पर आज पता चल जाने पर काल और देश का बल कैसे रह सकता है ? ॥45॥
दूत के उक्त वचन सुनकर कृष्ण आदि समस्त राजा कुपित हो उठे और भौंहों से मुख को कुटिल करते हुए कहने लगे कि जिसको मृत्यु निकट आ पहुँची है ऐसा तुम्हारा राजा समस्त सेनाओं के साथ आ रहा है सो युद्ध के द्वारा हम उसका सत्कार करेंगे । हम लोग संग्राम के लिए उत्कंठित हैं ॥46-47॥ इस प्रकार कहकर यादवों ने दूत को विदा किया । वह उनके रूक्ष वचनरूपी वज्र से ताड़ित होता हुआ द्वारिका से चलकर अपने स्वामी के पास गया और सब समाचार कहकर कृतकृत्यता को प्राप्त हुआ ॥48॥ तदनंतर दूत के चले जाने पर मंत्र करने में निपुण विमल, अमल और शार्दूल नामक मंत्रियों ने सलाह कर राजा समुद्रविजय से इस प्रकार निवेदन किया ॥49॥
हे राजन् ! क्योंकि साम, स्वपक्ष और परपक्ष के लोगों को शांति का कारण होगा इसलिए हम लोग जरासंध के साथ साम का ही प्रयोग करें । यह जो कुमारों का समूह आदि है वह सब स्वजनों का समूह है । अपायबहुल युद्ध में इन सबकी कुशलता के प्रति संदेह है ॥ 50-51 ॥ जिस प्रकार हमारी सेना में अमोघ बाणों की वर्षा करने वाले योद्धा हैं उसी प्रकार जरासंध की सेना भी पृथिवी में प्रसिद्ध है ॥52॥ युद्ध के अग्रभाग में यदि एक भी स्वजन की मृत्यु हो जायेगी तो वह जिस प्रकार शत्रु के लिए दुःख का कारण होगी उसी प्रकार हमारे लिए भी दुःख का कारण हो सकती है ॥53॥ इसलिए सबकी भलाई के लिए साम हो प्रशंसनीय उपाय है । अतः अहंकार को छोड़कर साम-शांति के लिए जरासंध के पास दूत भेजा जाये ॥54॥ हाँ, साम के द्वारा शांत करने पर भी यदि जरासंध शांत नहीं होता है तो हम लोग फिर उसके अनुरूप कार्य करेंगे । इस प्रकार साम उपाय के अवलंबन करने में क्या दोष है ? ॥55॥
इस प्रकार मंत्र कर मंत्रियों ने जब राजा समुद्रविजय से कहा तो उन्होंने उत्तर दिया कि क्या दोष है ? दूत भेजा जाये । इस प्रकार सलाह कर उन्होंने लोहजंघ कुमार को भिजवा दिया ॥56॥ कुमार लोहजंघ बहुत ही चतुर, शूर-वीर और नीतिरूपी नेत्र का धारक था । वह अपनी सेना ले जरासंध के साथ संधि करने के लिए चला ॥57॥ पूर्व मालव देश में पहुंचकर उसने वहाँ के वन में अपनी सेना का पड़ाव डाला, वहाँ साथ-साथ विचरने वाले तिलकानंद और नंदन नामक दो मुनिराज आये । वे दोनों मुनि मासोपवासी थे और वन में आहार मिलेगा तो लेंगे अन्यथा नहीं यह नियम ले वन में विहार कर रहे थे । उन्हें देख कुमार लोहजंघ ने उन्हें पड़गाह कर आहार दिया और उसके फलस्वरूप पंचाश्चर्य प्राप्त किये ॥ 58-59॥ उसी समय से वह स्थान पृथिवीतल पर देवावतार नामक तीर्थ बन गया और हजारों प्राणियों के पाप शांत होने का कारण हो गया ॥60॥
जरासंध यद्यपि संधि करने के पक्ष में नहीं था तथापि समझाने में चतुर दूत लोहजंघ ने जाकर उसे एकांत में समझाया ॥61॥ लोहजंघ के वचनों से जरासंध बहुत प्रसन्न हुआ और उसने छह माह तक के लिए संधि स्वीकृत कर ली ॥62॥ तदनंतर राजा जरासंध से सम्मान प्राप्त कर लोहजंघ द्वारिका वापस लौट आया और समुद्रविजय आदि के लिए सब समाचार सुनाकर कृतकृत्य हो सुख से रहने लगा ॥63॥
तदनंतर युद्ध की तैयारी का ध्यान रख यादवों ने एक वर्ष शांति से व्यतीत किया । इस प्रकार एक वर्ष पूर्ण हो जाने पर महाप्रतिज्ञा को पूर्ण करने वाला जरासंध बड़े-बड़े सामंतों के समूह से युक्त तथा सेनारूपी सागर से दिशाओं को व्याप्त करता हुआ बड़े-बड़े राजाओं के युद्ध के योग्य कुरुक्षेत्र के मैदान में आ पहुँचा ॥64-65॥ अपनी सेनारूपी नदियों के समूह से भरे हुए कृष्णरूपी दूसरे सागर भी पहले ही आकर वहाँ आ जमे थे ॥66॥ उस समय कृष्ण के संबंधी कितने ही दक्षिण-उत्तर और पश्चिम के राजा अपनी-अपनी समस्त सेनाओं के साथ आकर कृष्ण से आ मिले ॥67॥ दशाह, सांत्वना देने वाले भोज और पांडव आदि बंधुजन तथा अन्य अनेक उत्तमोत्तम प्रसिद्ध राजा श्रीकृष्ण के हित की इच्छा करते हुए आ मिले ॥68॥ वहाँ राजा समुद्रविजय एक अक्षौहिणी के स्वामी थे, पुरुषों में अग्रसर राजा उग्रसेन भी एक अक्षौहिणी का स्वामी था और इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न राजा मेरु भी एक अक्षौहिणी का अधिपति था । राष्ट्रवर्धन देश का राजा आधी अक्षौहिणी का स्वामी था ॥ 69-70॥ सिंहल देश का राजा आधी अक्षौहिणी का प्रभु था और बलवान् राजा पद्मरथ भी उसी के समान अर्ध अक्षौहिणी प्रमाण सेना से युक्त था ॥71॥ शकुनि का भाई वीर पराक्रमी चारुदत्त जो कि कृष्ण के हित में सदा तत्पर रहता था, एक चौथाई अक्षौहिणी का स्वामी था ॥72॥ वर्वर, यमन, आभीर, कांबोज और द्रविड़ आदि के अन्य शूर-वीर राजा कृष्ण के पक्ष में आ मिले ॥73॥
उस ओर चक्ररत्न के प्रभाव से भरतक्षेत्र को वश करने वाले राजा जरासंध को भी अनेक अक्षौहिणी सेनाएँ प्राप्त थीं ॥74॥ घोड़े, हाथी, पैदल सैनिक तथा रथों की गणना से युक्त अक्षौहिणी सेना का प्रमाण इस प्रकार कहा गया है ॥75॥ जिसमें नौ हजार हाथी, नौ लाख रथ, नौ करोड़ घोड़े और नौ-सौ करोड़ पैदल सैनिक हों उसे एक अक्षौहिणी कहते हैं ॥76॥ यादवों में कुमार नेमि, बलदेव और कृष्ण ये तीनों अतिरथ थे । ये तीनों भारतवर्ष में जितने अतिरथ थे उन सबको अतिक्रांत कर उन सबमें श्रेष्ठ थे ॥77॥ राजा समुद्रविजय, वसुदेव, युधिष्ठिर, भीम, कर्ण, अर्जुन, रुक्मी, प्रद्युम्न, सत्यक, धृष्टद्युम्न, अनावृष्टि, शल्य, भूरिश्रवस्, राजा हिरण्यनाभ, सहदेव और सारण, ये सब राजा महारथ थे । ये सभी शस्त्र और शास्त्रार्थ में निपुण, पराङ्मुख, जीवों पर दया करने में तत्पर, महाशक्तिमान् और महाधैर्यशाली थे ॥78-80॥ समुद्रविजय से छोटे और वसुदेव से बड़े अक्षोभ्य आदि आठ भाई, शंब, भोज, विदूरथ, द्रुपद, सिंहराज, शल्य, वज्र, सुयोधन, पौंड्र, पद्मरथ, कपिल, भगदत्त और क्षेमधूर्त ये सब समरथ थे तथा युद्ध में समान शक्ति के धारक थे ॥81-82॥ महानेमि, धर, अक्रूर, निषध, उल्मक, दुर्मुख, कृतवर्मा, वराट, चारुकृष्ण, शकुनि, यवन, भानु, दुश्शासन, शिखंडी, वाह्लीक, सोमदत्त, देवशर्मा, वक, वेणुदारी और विक्रांत ये राजा अर्धरथ थे । ये सभी राजा आश्चर्यकारक युद्ध करने वाले एवं धीर-वीर थे तथा युद्ध से कभी पराङ्मुख नहीं होते थे ॥83-85॥ इनके सिवाय कुल, मान और यशरूपी धन को धारण करने वाले समस्त राजा रथी नाम से प्रसिद्ध थे । ये राजा यथायोग्य दोनों ही सेनाओं में थे ॥86॥
समुद्रों के समान दोनों पक्ष की सेनाएं जब पास-पास आ गयीं तब कुंती बहुत घबड़ायी । वह शीघ्र ही कर्ण के पास गयी । वहाँ जाने में उसे युधिष्ठिर आदि पुत्रों ने अनुमति दे दी थी । उस समय कन्या अवस्था के पुत्र कर्ण के ऊपर जो उसका अपार स्नेह था उससे उसका शरीर विवश हो रहा था । उसने कर्ण के कंठ से लगकर रोते-रोते आदि, मध्य और अंत में जैसा कुछ हुआ वह सब अपना माता और पुत्र का संबंध बतलाया । उसने यह भी बतलाया कि मैंने तुझे उत्पन्न होते ही लोकलाज के भय से कंबल में लपेटकर छोड़ दिया था । कर्ण कंबल के वृत्तांत को जानता था और यह भी जानता था कि कुरुवंश में मेरा जन्म हुआ है । अब कुंती के कहने से उसने निश्चय कर लिया कि मैं कुंती और पांडु का पुत्र हूँ ॥87-90॥ अपने बंधुजनों का निर्णय कर कर्ण ने अपनी समस्त स्त्रियों के साथ कुंती की पूजा की । तदनंतर आदर दिखाती हुई कुंती ने अपने प्रथम पुत्र कर्ण से कहा कि हे पुत्र ! उठ, वहाँ चलें जहाँ तेरे सब भाई तथा श्रीकृष्ण आदि अपने अन्य आत्मीय जन तेरे लिए उत्कंठित हो रहे हैं ॥91-92॥ हे पुत्र ! इस समय पृथिवी पर कुरुओं का स्वामी तू ही है और कृष्ण तथा बलदेव के लिए प्राणों के समान प्रिय है ॥93॥ तू राजा है, तेरा छोटा भाई युधिष्ठिर तेरे ऊपर छत्र लगावेगा, भीम चंवर ढोरेगा, धनंजय मंत्री होगा, सहदेव और नकुल तेरे द्वारपाल होंगे और नीतिपूर्वक निरंतर हित करने में उद्यत मैं तेरी माता हूँ ॥94-95॥
इस प्रकार माता के वचन सुनकर यद्यपि कर्ण भाइयों के स्नेह से विवश हो गया परंतु जरासंध ने उसके प्रति जो उपकार किये थे उनसे स्वामी के कार्य का विचार करता हुआ बोला कि लोक में माता-पिता, और भाई-बांधव अत्यंत दुर्लभ हैं यह बात यद्यपि ऐसी ही है, परंतु इस अवसर के उपस्थित होने पर स्वामी का कार्य छोड़ भाइयों का कार्य करना अनुचित है, अप्रशस्त है और इस समय जबकि युद्ध सामने है हास्य का कारण भी है ॥96-98॥ इस समय तो स्वामी का कार्य करता हुआ मैं इतना ही कर सकता हूँ कि युद्ध में भाइयों को छोड़कर अन्य योद्धाओं के साथ युद्ध करूं ॥99॥ युद्ध समाप्त होने पर यदि भाग्यवश हम लोग जीवित रहेंगे तो हे मां ! हमारा भाइयों के साथ समागम अवश्य ही होगा । तू जा और भाई-बांधवों को इतनी खबर दे दे । इस प्रकार कहकर कर्ण ने माता कुंती को पूजा की और कुंती ने जाकर उसके कहे अनुसार सब कार्य किया ॥100-101॥ उधर समान भूभाग में वर्तमान राजा जरासंध की सेना में कुशल राजाओं ने शत्रुओं को जीतने के लिए चक्रव्यूह की रचना की ॥102॥ उस चक्रव्यूह में जो चक्राकार रचना की गयी थी उसके एक हजार आरे थे, एक-एक आरे में एक-एक राजा स्थित था एक-एक राजा के सो-सो हाथी थे, दो-दो हजार रथ थे, पांच-पाँच हजार घोड़े थे और सोलह-सोलह हजार पैदल सैनिक थे ॥103-104॥ चक्र की धारा के पास छह हजार राजा स्थित थे और उन राजाओं के हाथी, घोड़ा आदि का परिमाण पूर्वोक्त परिमाण से चौथाई भाग प्रमाण था ॥105॥ कर्ण आदि पाँच हजार राजाओं से सुशोभित राजा जरासंध स्वयं उस चक्र के मध्य भाग में जाकर स्थित था ॥106॥ गांधार और सिंध देश की सेना, दुर्योधन से सहित सौ कौरव और मध्य देश के राजा भी उसी चक्र के मध्य भाग में स्थित थे ॥107-108॥ कुल के मान को धारण करने वाले धीर, वीर, पराक्रमी पचास राजा अपनी-अपनी सेना के साथ चक्रधारा को संधियों पर अवस्थित थे ॥109॥ आरों के बीच-बीच के स्थान अपनी-अपनी विशिष्ट सेनाओं से युक्त राजाओं से सहित थे । इनके सिवाय व्यूह के
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बाहर भी अनेक राजा नाना प्रकार के व्यूह बनाकर स्थित थे ॥110॥ इस प्रकार चतुर राजाओं के द्वारा रचित, अपनी सेना के मन को संतुष्ट करने वाला और शत्रु की सेना के मन में भय उत्पन्न करने वाला वह चक्रव्यूह उस समय अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ॥111॥
इधर रचना करने में निपुण वसुदेव को जब पता चला कि जरासंध की सेना में चक्रव्यूह को रचना की गयी है तब उसने भी चक्रव्यूह को भेदन के लिए गरुड़-व्यूह की रचना कर डाली ॥112॥ उदात्तचित्त, रण में शूर-वीर तथा नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को धारण करने वाले पचास लाख यादव कुमार उस गरुड़ के मुख पर खड़े किये गये ॥113॥ धीर-वीर एवं स्थिरता से पर्वत को जीतने वाले अतिरथ, पराक्रमी बलदेव और श्रीकृष्ण उसके मस्तक पर स्थित हुए ॥114॥ अक्रूर, कुमुद, वीर, सारण, विजय, जय, पद्म, जरत्कुमार, सुमुख, दुर्मुख, मदनवेगा पुत्र महारथ दृढ़मुष्टि, विदूरथ और अनावृष्टि ये जो वसुदेव के पुत्र थे वे बलदेव और कृष्ण के रथ की रक्षा करने के लिए उनके पृष्ठरक्षक बनाये गये । एक करोड़ रथों से सहित भोज, गरुड़ के पृष्ठ भाग पर स्थित हुआ ॥115-117॥ राजा भोज की पृष्ठ-रक्षा के लिए धारण तथा सागर आदि अन्य अनेक रणवीर राजा नियुक्त हुए ॥118॥ अपने महारथी पुत्रों तथा बहुत बड़ी सेना से युक्त राजा समुद्रविजय उस गरुड़ के दाहिने पंख पर स्थित हुए ॥119 ॥ और उनकी आजू-बाजू की रक्षा करने के लिए चतुर, शत्रुओं को मारने वाले सत्यनेमि, महानेमि, दृढ़नेमि, सुनेमि, महारथी नमि, जयसेन, महीजय, तेजसेन, जय, सेन, नय, मेघ, महाद्युति आदि दशार्ह (यादव) तथा सैकड़ों अन्य प्रसिद्ध राजा पच्चीस लाख रथों के साथ स्थित हुए ॥120-122॥ बलदेव के पुत्र और युद्ध कार्य में निपुण महामना पांडव गरुड़ के बायें पक्ष का आश्रय ले खड़े हुए ॥123 ॥ इन्हीं के समीप उल्मक, निषध, प्रकृतिद्युति, सत्यक, शत्रुदमन, श्रीध्वज, ध्रुव, राजा दशरथ, देवानंद, शंतनु, आनंद, महानंद, चंद्रानंद, महाबल, पृथु, शतधनु, विपृथु, यशोधन, दृढ़बंध और सब प्रकार के शस्त्रों से आकाश को भर देने वाले अनुवीय स्थिति थे । ये सभी कुमार अनेक लाख रथों से युक्त थे, शस्त्र और अस्त्रों में परिश्रम करने वाले थे, तथा युद्ध में कौरवों के वध का निश्चय किये हुए थे ॥124-127॥ इनके पीछे राजा चंद्रयश, सिंहल, वर्वर, कंबोज, केरल, कुशल (कोसल) और द्रमिल देशों के राजा तथा शांतन साठ-साठ हजार रथ लेकर स्थित थे । इस प्रकार ये बलशाली राजा उस गरुड़ की रक्षा करते हुए स्थित थे ॥128-129॥ इनके सिवाय अशित, भानु, युद्ध का प्रेमी तोमर, संजय, अकल्पित, भानु, विष्णु, बृहद̖ध्वज, शत्रुजय, महासेन, गंभीर, गौतम, वसुधर्मादि, कृतवर्मा, प्रसेनजित्, दृढवर्मा, विक्रांत और चंद्रवर्मा आदि राजा अपनी-अपनी सेनाओं से युक्त हो श्रीकृष्ण के कुल की रक्षा करते थे ॥130-132 ॥ जिसके भीतर स्थित महारथी राजा उत्साह प्रकट कर रहे थे, ऐसा यह वसुदेव के द्वारा निर्मित गरुड़व्यूह, जरासंध के चक्रव्यूह को भेदने की इच्छा कर रहा था ॥133 ॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि दोनों पक्ष के चतुर मनुष्यों ने उस ओर यद्यपि दुःख से प्रवेश करने के योग्य चक्रव्यूह और इधर गरुड़-व्यूह की रचना की थी तथापि जिनेंद्र प्रदर्शित मार्ग में चलकर संचित किये हुए धर्म के प्रभाव से युद्ध में कोई एक नायक ही विजयी होगा ऐसा मैं समझता हूँ ॥134॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में चक्रव्यूह और गरुडव्यूह का वर्णन करने वाला पचासवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥50॥