नियति: Difference between revisions
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<p class="HindiText">जो कार्य या पर्याय जिस निमित्त के द्वारा जिस द्रव्य में जिस क्षेत्र व काल में जिस प्रकार से होना होता है, वह कार्य उसी निमित्त के द्वारा उसी द्रव्य, क्षेत्र व काल में उसी प्रकार से होता है, ऐसी द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावरूप चतुष्टय से समुदित नियत कार्यव्यवस्था को ‘नियति’ कहते हैं। नियत कर्मोदय रूप निमित्त की अपेक्षा इसे ही ‘दैव’, नियत काल की अपेक्षा इसे ही ‘काल लब्धि’ और होने योग्य नियत भाव या कार्य की अपेक्षा इसे ही ‘भवितव्य’ कहते हैं। अपने-अपने समयों में क्रम पूर्वक नम्बरवार पर्यायों के प्रगट होने की अपेक्षा श्री कांजी स्वामी जी ने इसके लिए ‘क्रमबद्ध पर्याय’ शब्द का प्रयोग किया है। यद्यपि करने-धरने के विकल्पोंपूर्ण रागी बुद्धि में सब कुछ अनियत प्रतीत होता है, परन्तु निर्विकल्प समाधि के साक्षीमात्र भाव में विश्व की समस्त कार्य व्यवस्था उपरोक्त प्रकार नियत प्रतीत होती है। अत: वस्तुस्वभाव, निमित्त (दैव), पुरुषार्थ, काललब्धि व भवितव्य इन पाचों समवायों से समवेत तो उपरोक्त व्यवस्था सम्यक् है; और इनसे निरपेक्ष वहीं मिथ्या है। निरुद्यमी पुरुष मिथ्या नियति के आश्रय से पुरुषार्थ का तिरस्कार करते हैं, पर अनेकान्त बुद्धि इस सिद्धान्त को जानकर सर्व बाह्य व्यापार से विरक्त हो एक ज्ञातादृष्टा भाव में स्थिति पाती है।</p> | |||
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Revision as of 17:16, 25 December 2013
जो कार्य या पर्याय जिस निमित्त के द्वारा जिस द्रव्य में जिस क्षेत्र व काल में जिस प्रकार से होना होता है, वह कार्य उसी निमित्त के द्वारा उसी द्रव्य, क्षेत्र व काल में उसी प्रकार से होता है, ऐसी द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावरूप चतुष्टय से समुदित नियत कार्यव्यवस्था को ‘नियति’ कहते हैं। नियत कर्मोदय रूप निमित्त की अपेक्षा इसे ही ‘दैव’, नियत काल की अपेक्षा इसे ही ‘काल लब्धि’ और होने योग्य नियत भाव या कार्य की अपेक्षा इसे ही ‘भवितव्य’ कहते हैं। अपने-अपने समयों में क्रम पूर्वक नम्बरवार पर्यायों के प्रगट होने की अपेक्षा श्री कांजी स्वामी जी ने इसके लिए ‘क्रमबद्ध पर्याय’ शब्द का प्रयोग किया है। यद्यपि करने-धरने के विकल्पोंपूर्ण रागी बुद्धि में सब कुछ अनियत प्रतीत होता है, परन्तु निर्विकल्प समाधि के साक्षीमात्र भाव में विश्व की समस्त कार्य व्यवस्था उपरोक्त प्रकार नियत प्रतीत होती है। अत: वस्तुस्वभाव, निमित्त (दैव), पुरुषार्थ, काललब्धि व भवितव्य इन पाचों समवायों से समवेत तो उपरोक्त व्यवस्था सम्यक् है; और इनसे निरपेक्ष वहीं मिथ्या है। निरुद्यमी पुरुष मिथ्या नियति के आश्रय से पुरुषार्थ का तिरस्कार करते हैं, पर अनेकान्त बुद्धि इस सिद्धान्त को जानकर सर्व बाह्य व्यापार से विरक्त हो एक ज्ञातादृष्टा भाव में स्थिति पाती है।
- नियतिवाद निर्देश
- मिथ्या नियतिवाद निर्देश।
- सम्यक् नियतिवाद निर्देश।
- नियति की सिद्धि।
- काललब्धि निर्देश
- काललब्धि सामान्य व विशेष निर्देश।
- एक काललब्धि में अन्य सर्व लब्धियों का अन्तर्भाव
- काललब्धि की कथंचित् प्रधानता के उदाहरण
- मोक्षप्राप्ति में काललब्धि।
- सम्यक्त्वप्राप्ति में काललब्धि।
- सभी पर्यायों में काललब्धि।
- काकतालीय न्याय से कार्य की उत्पत्ति।
- काललब्धि के बिना कुछ नहीं होता।
- काललब्धि अनिवार्य है।
- * पुरुषार्थ भी कथंचित् काललब्धि के आधीन है।– देखें - नियति / ४ / २ ।
- काललब्धि मिलना दुर्लभ है।
- काललब्धि की कथंचित् गौणता।
- दैव निर्देश
- दैव का लक्षण।
- मिथ्या दैववाद निर्देश।
- सम्यक् दैववाद निर्देश।
- कर्मोदय की प्रधानता के उदाहरण।
- दैव के सामने पुरुषार्थ का तिरस्कार।
- दैव की अनिवार्यता।
- भवितव्य निर्देश
- भवितव्य का लक्षण।
- भवितव्य की कथंचित् प्रधानता।
- भवितव्य अलंघ्य व अनिवार्य है।
- नियति व पुरुषार्थ का समन्वय
- दैव व पुरुषार्थ दोनों के मेल से अर्थ सिद्धि।
- अबुद्धिपूर्वक कार्यों में दैव तथा बुद्धिपूर्वक के कार्यों में पुरुषार्थ प्रधान है।
- अत: रागदशा में पुरुषार्थ करने का ही उपदेश है।
- नियति सिद्धान्तों में स्वेच्छाचार को अवकाश नहीं।
- वास्तव में पाच समवाय समवेत ही कार्यव्यवस्था सिद्ध है।
- नियत व पुरुषार्थादि सहवर्ती हैं।
- काललब्धि होने पर शेष कारण स्वत: प्राप्त होते हैं।
- काललब्धि बहिरंग कारण हैं और पुरुषार्थ अन्तरंग कारण है।
- एक पुरुषार्थ में सर्व कारण समाविष्ट हैं।
- नियति निर्देश का प्रयोजन।
- नियतिवाद निर्देश
- मिथ्या नियतिवाद निर्देश
गो.क./मू./८८२/१०६६ जत्तु जदा जेण जहा जस्स य णियमेण होदि तत्तु तदा। तेण तहा तस्स हवे इदि वादो णियदि वादो दु।८८२। =जो जब जिसके द्वारा जिस प्रकार से जिसका नियम से होना होता है, वह तब ही तिसके द्वारा तिस प्रकार से तिसका होता है, ऐसा मानना मिथ्या नियतिवाद है।
अभिधान राजेन्द्रकोश–ये तु नियतिवादिनस्ते ह्येवमाहु:, नियति नाम तत्त्वान्तरमस्ति यद्वशादेते भावा: सर्वेऽपि नियतेनै व रूपेण प्रादुर्भावमश्नुवते नान्यथा। तथाहि–यद्यदा यतो भवति तत्तदा तत एव नियतेनैव रूपेण भवदुपलभ्यते, अन्यथा कार्यभावव्यवस्था प्रतिनियतव्यवस्था च न भवेत् नियामकाभावात् । तत एवं कार्यनैयंत्यत प्रतीयमानामेनां नियतिं को नाम प्रमाणपञ्चकुशलो बाधितुं क्षमते। मा प्रापदन्यत्रापि प्रमाणपथव्याघातप्रसङ्ग:। =जो नियतिवादी हैं, वे ऐसा कहते हैं कि नियति नाम का एक पृथक् स्वतन्त्र तत्त्व है, जिसके वश से ये सर्व ही भाव नियत ही रूप से प्रादुर्भाव को प्राप्त करते हैं, अन्यथा नहीं। वह इस प्रकार कि–जो जब जो कुछ होता है, वह सब वह ही नियतरूप से होता हुआ उपलब्ध होता है, अन्यथा कार्यभाव व्यवस्था और प्रतिनियत व्यवस्था न बन सकेगी, क्योंकि उसके नियामक का अभाव है। अर्थात् नियति नामक स्वतन्त्र तत्त्व को न मानने पर नियामक का अभाव होने के कारण वस्तु की नियत कार्यव्यवस्था की सिद्धि न हो सकेगी। परन्तु वह तो प्रतीति में आ रही है, इसलिए कौन प्रमाणपथ में कुशल ऐसा व्यक्ति है जो इस नियति तत्त्व को बाधित करने में समर्थ हो। ऐसा मानने से अन्यत्र भी कहीं प्रमाणपथ का व्याघात नहीं होता है।
- सम्यक् नियतिवाद निर्देश
प.पु./११०/४० प्रागेव यदवाप्तव्यं येन यत्र यथा यत:। तत्परिप्राप्यतेऽवश्यं तेन तत्र तथा तत:।४०। =जिसे जहा जिस प्रकार जिस कारण से जो वस्तु पहले ही प्राप्त करने योग्य होती है उसे वहा उसी प्रकार उसी कारण से वही वस्तु अवश्य प्राप्त होती है। (प.पु./२३/६२;२९/८३)।
का.अ./मू./३२१-३२३ जं जस्स जम्मि देसे जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि। णादं जिणेण णियदं जम्मं वा अहव मरणं वा।३२१। तं तस्य तम्मि देसे तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि। को सक्कदि वारेदुं इंदो वा तह जिणंदो वा।३२२। एवं जो णिच्छयदो जाणदि दव्वाणि सव्वपज्जाए। सो सद्दिट्ठी सुद्धो जो संकदि सो हु कुद्दिट्ठी।३२३। =जिस जीव के, जिस देश में, जिस काल में, जिस विधान से, जो जन्म अथवा मरण जिनदेव ने नियत रूप से जाना है; उस जीव के उसी देश में, उसी काल में उसी विधान से वह अवश्य होता है। उसे इन्द्र अथवा जिनेन्द्र कौन टाल सकने में समर्थ है।३२१-३२२। इस प्रकार जो निश्चय से सब द्रव्यों को और सब पर्यायों को जानता है वह सम्यग्दृष्टि है और जो उनके अस्तित्व में शंका करता है वह मिथ्यादृष्टि है।३२३। (यहा अविरत सम्यग्दृष्टि का स्वरूप बतानेका प्रकरण है)। नोट–(नियत व अनियत नय का सम्बन्ध नियतवृत्ति से है, इस नियति सिद्धान्त से नहीं। देखें - नियत वृत्ति। )
- नियति की सिद्धि
देखें - निमित्त / २ (अष्टांग महानिमित्तज्ञान जो कि श्रुतज्ञान का एक भेद है अनुमान के आधार पर कुछ मात्र क्षेत्र व काल की सीमा सहित अशुद्ध अनागत पर्यायों को ठीक-ठीक परोक्ष जानने में समर्थ है।)
देखें - अवधिज्ञान / ८ (अवधिज्ञान क्षेत्र व काल की सीमा को लिये हुए अशुद्ध अनागत पर्यायों को ठीक-ठीक प्रत्यक्ष जानने में समर्थ है।)
देखें - मन :पर्यय ज्ञान/१/३/३ (मन:पर्ययज्ञान भी क्षेत्र व काल की सीमा को लिये हुए अशुद्ध पर्यायरूप जीव के अनागत भावों व विचारों को ठीक-ठीक प्रत्यक्ष जानने में समर्थ है।)
देखें - केवलज्ञान / ३ (केवलज्ञान तो क्षेत्र व काल की सीमा से अतीत शुद्ध व अशुद्ध सभी प्रकार की अनागत पर्यायों को ठीक-ठीक प्रत्यक्ष जानने में समर्थ है।)
और भी : इनके अतिरिक्त सूर्य ग्रहण आदि बहुत से प्राकृतिक कार्य नियत काल पर होते हुए सर्व प्रत्यक्ष हो रहे हैं। सम्यक् ज्योतिष ज्ञान आज भी किसी-किसी ज्योतिषी में पाया जाता है और वह नि:संशय रूप से पूरी दृढ़ता के साथ आगामी घटनाओं को बताने में समर्थ है।)
- मिथ्या नियतिवाद निर्देश
- काललब्धि निर्देश
- काललब्धि सामान्य व विशेष निर्देश
स.सि./२/३/१० अनादिमिथ्यादृष्टेर्भव्यस्य कर्मोदयापादितकालुष्ये सति कुतस्तदुपशम:। काललब्ध्यादिनिमित्तत्वात् । तत्र काललब्धिस्तावत् – कर्माविष्ट आत्मा भव्य: कालेऽर्द्धपुद्गलपरिवर्त्तनाख्येऽवशिष्टे प्रथमसम्यक्त्वग्रहणस्य योग्यो भवतिनाधिके इति। इयमेका काललब्धि:। अपरा कर्मस्थितिका काललब्धि:। उत्कृष्टस्थितिकेषु कर्मसु जघन्यस्थितिकेषु च प्रथमसमयक्त्वलाभो न भवति। क्व तर्हि भवति। अन्त: कोटाकोटीसागरोपमस्थितिकेषुकर्मसु बन्धमापद्यमानेषु विशुद्धपरिणामवशात्सकर्मसु च तत: संख्येयसागरोपमसहस्रोनायामन्त:कोटाकोटीसागरोपमस्थितौ स्थापितेषु प्रथमसम्यक्त्वयोग्यो भवति। अपरा काललब्धिर्भवापेक्षया। भव्य: पञ्चेन्द्रिय: संज्ञी पर्याप्तक: सर्वविशुद्ध: प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयति। =प्रश्न–अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य के कर्मों के उदय से प्राप्त कलुषता के रहते हुए इन (कर्म प्रकृतियों का) उपशम कैसे होता है ? उत्तर–काललब्धि आदि के निमित्त से इनका उपशम होता है। अब यहा काललब्धि को बतलाते हैं–कर्मयुक्त कोई भी भव्य आत्मा अर्धपुद्गलपरिवर्तन नाम के काल के शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व के ग्रहण करने के योग्य होता है, इससे अधिक काल के शेष रहने पर नहीं होता, (संसारस्थिति सम्बन्धी) यह एक काललब्धि है। (का.अ./टी./१८८/१२५/७) दूसरी काललब्धि का सम्बन्ध कर्मस्थिति से है। उत्कृष्ट स्थिति वाले कर्मों के शेष रहने पर या जघन्य स्थितिवाले कर्मों के शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व का लाभ नहीं होता। प्रश्न–तो फिर किस अवस्था में होता है? उत्तर–जब बधने वाले कर्मों की स्थिति अन्त:कोड़ाकोड़ी सागर पड़ती है, और विशुद्ध परिणामों के वश से सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति संख्यात हजार सागर कम अन्त:कोड़ाकोड़ी सागर प्राप्त होती है। तब (अर्थात् प्रायोग्यलब्धि के होने पर) यह जीव प्रथम सम्यक्त्व के योग्य होता है। एक काललब्धि भव की अपेक्षा होती है–जो भव्य है, संज्ञी है, पर्याप्तक है और सर्वविशुद्ध है, वह प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है। (रा.वा./२/३/२/२०४/१९); (और भी देखें - नियति / २ / ३ / २ ) देखें - नय / I / ५ / ४ नय नं.१९ कालनय से आत्म द्रव्य की सिद्धि समय पर आधारित है, जैसे कि गर्मी के दिनों में आम्रफल अपने समय पर स्वयं पक जाता है।
- एक काललब्धि में सर्व लब्धियों का अन्तर्भाव
ष.खं./६/१,९-८/सूत्र ३/२०३ एदेसिं चेव सव्वकम्माणं जावे अंतोकोड़ाकोडिट्ठिदिं बंधदि तावे पढमसम्मत्तं लंभदि।३।
ध.६/१,९-८,३/२०४/२ एदेण खओवसमलद्धी विसोहिलद्धी देसणलद्धी पाओग्गलद्धि त्ति चत्तारि लद्धीओ परूविदाओ।
ध.६/१,९-८,३/२०५/१ सुत्ते काललद्धी चेव परूविदा, तम्हि एदासिं लद्धीणं कधं संभवो। ण, पडिसमयमणंतगुणहीणअणुभागुदीरणाए अणंतगुणकमेण वड्ढमाण विसोहीए आइरियोवदेसोवलंभस्स य तत्थेव संभवादो। =इन ही सर्व कर्मों की जब अन्त:कोड़ाकोड़ी स्थिति को बाधता है, तब यह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। २. इस सूत्र के द्वारा क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि और प्रायोग्यलब्धि ये चारों लब्धिया प्ररूपण की गयी हैं। प्रश्न–सूत्र में केवल एक काललब्धि ही प्ररूपणा की गयी है, उसमें इन शेष लब्धियों का होना कैसे सम्भव है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, प्रति समय अनन्तगुणहीन अनुभाग की उदीरणा का (अर्थात् क्षयोपशमलब्धि का), अनन्तगुणित क्रम द्वारा वर्द्धमान विशुद्धि का (अर्थात् विशुद्धि लब्धि का); और आचार्य के उपदेश की प्राप्ति का (अर्थात् देशनालब्धि का) एक काललब्धि (अर्थात् प्रायोग्यलब्धि) में होना सम्भव है।
- काललब्धि सामान्य व विशेष निर्देश
- <a name="3" id="3">काललब्धि की कथंचित् प्रधानता के उदाहरण
- मोक्ष प्राप्ति में काललब्धि
मो.पा./मू./२४ अइसोहणजोएणं सुद्ध हेमं हवेइ जह तह य। कालाईलद्धीए अप्पा परमप्पओ हवदि।२४। =जिस प्रकार स्वर्णपाषाण शोधने की सामग्री के संयोग से शुद्ध स्वर्ण बन जाता है, उसी प्रकार काल आदि लब्धि की प्राप्ति से आत्मा परमात्मा बन जाता है।
आ.अनु./२४१ मिथ्यात्वोपचितात्स एव समल: कालादिलब्धौ क्वचित् सम्यक्त्वव्रतदक्षताकलुषतायोगै: क्रमान्मुच्यते।२४१। =मिथ्यात्व से पुष्ट तथा कर्ममल सहित आत्मा कभी कालादि लब्धि के प्राप्त होने पर क्रम से सम्यग्दर्शन, व्रतदक्षता, कषायों का विनाश और योगनिरोध के द्वारा मुक्ति प्राप्त कर लेता है।
का.अ./मू./१८८ जीवो हवेइ कत्ता सव्वं कम्माणि कुव्वदे जम्हा। कालाइ-लद्धिजुत्तो संसारं कुणइ मोक्खं च।१८८। =सर्व कर्मों को करने के कारण जीव कर्ता होता है। वह स्वयं ही संसार का कर्ता है और कालादिलब्धि के मिलने पर मोक्ष का कर्ता है।
प्र.सा./ता.वृ./२४४/२०५/१२ अत्रातीतानन्तकाले ये केचन सिद्धसुखभाजनं जाता, भाविकाले...विशिष्टसिद्धसुखस्य भाजनं भविष्यन्ति ते सर्वेऽपि काललब्धिवशेनैव। =अतीत अनन्तकाल में जो कोई भी सिद्धसुख के भाजन हुए हैं, या भावीकाल में होंगे वे सब काललब्धि के वश से ही हुए हैं। (पं.का./ता.वृ./१००/१६०/१२); (द्र.सं.टी./६३/३)।
पं.का./ता.वृ./२०/४२/१८ कालादिलब्धिवशाद्भेदाभेदरत्नत्रयात्मकं व्यवहारनिश्चयमोक्षमार्गं लभते। = काल आदि लब्धि के वश से भेदाभेद रत्नत्रयात्मक व्यवहार व निश्चय मोक्षमार्ग को प्राप्त करते हैं।
पं.का./ता.वृ./२९/६५/६ स एव चेतयितात्मा निश्चयनयेन स्वयमेव कालादिलब्धिवशात्सर्वज्ञो जात: सर्वदर्शी च जात:। =वह चेतयिता आत्मा निश्चयनय से स्वयम् ही कालादि लब्धि के वश से सर्वज्ञ व सर्वदर्शी हुआ है।
दे.नियति/५/६ (काललब्धि माने तदनुसार बुद्धि व निमित्तादि भी स्वत: प्राप्त हो जाते हैं।)
- <a name="3.2" id="3.2">सम्यक्त्व प्राप्ति में काललब्धि–
म.पु./६२/३१४-३१५ अतीतानादिकालेऽत्र कश्चित्कालादिलब्धित:।३१४। कारणत्रयसंशान्तसप्तप्रकृतिसंचय:। प्राप्तविच्छिन्नसंसार: रागसंभूतदर्शन:।३१५। =अनादि काल से चला आया कोई जीव काल आदि लब्धियों का निमित्त पाकर तीनों करणरूप परिणामों के द्वारा मिथ्यादि सात प्रकृतियों का उपशम करता है, तथा संसार की परिपाटी का विच्छेद कर उपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। (स.सा./ता.वृ./३७३/४५९/१५)।
ज्ञा./९/७ में उद्धृत श्लो.नं.१ भव्य: पर्याप्तक: संज्ञी जीव: पञ्चेन्द्रियान्वित:। काललब्ध्यादिना युक्त: सम्यक्त्वं प्रतिपद्यत:।१। =जो भव्य हो, पर्याप्त हो, संज्ञी पंचेन्द्रिय हो और काललब्धि आदि सामग्री सहित हो वही जीव सम्यक्त्व को प्राप्त होता है। (दे.नियति/२/१); (अन.ध./२/४६/१७१); (स.सा./ता.वृ./१७१/२३८/१६)।
स.सा./ता.वृ./३२१/४०८/२० यदा कालादिलब्धिवशेन भव्यत्वशक्तेर्व्यक्तिर्भवति तदायं जीव:...सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणपर्यायेण परिणमति। =जब कालादि लब्धि के वश से भव्यत्व शक्ति की व्यक्ति होती है तब यह जीव सम्यक् श्रद्धान ज्ञान चारित्र रूप पर्याय से परिणमन करता है।
- सभी पर्यायों में काललब्धि
का.अ./मू./२४४ सव्वाण पज्जायाणं अविज्जमाणाण होदि उप्पत्ती। कालाई–लद्धीए अणाइ-णिहणम्मि दव्वम्मि। =अनादिनिधन द्रव्य में काललब्धि आदि के मिलने पर अविद्यमान पर्यायों की ही उत्पत्ति होती है। (और भी देखें - आगे शीर्षक नं .६)।
- <a name="3.4" id="3.4">काकतालीय न्याय से कार्य की उत्पत्ति
ज्ञा.३/२ काकतालीयकन्यायेनोपलब्धं यदि त्वया। तत्तर्हि सफलं कार्यं कृत्वात्मन्यात्मनिश्चयम् ।२। =हे आत्मन् ! यदि तूने काकतालीय न्याय से यह मनुष्यजन्म पाया है, तो तुझे अपने में ही अपने को निश्चय करके अपना कर्त्तव्य करना तथा जन्म सफल करना चाहिए।
प.प्र./टी./१/८५/८१/१६ एकेन्द्रियविकलेन्द्रिय...आत्मोपदेशादीनुत्तरोत्तरदुर्लभक्रमेण दु:प्राप्ता काललब्धि:, कथंचित्काकतालीयकन्यायेन तां लब्ध्वा...यथा यथा मोहो विगलयति तथा तथा...सम्यक्त्वं लभते। =एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय से लेकर आत्मोपदेश आदि जो उत्तरोत्तर दुर्लभ बातें हैं, काकतालीय न्याय से काललब्धि को पाकर वे सब मिलने पर भी जैसे-जैसे मोह गलता जाता है, तैसे-तैसे सम्यक्त्व का लाभ होता है। (द्र.सं./टी./३५/१४३/११)।
- काललब्धि के बिना कुछ नहीं होता
ध.९/४,१,४४/१२०/१० दिव्वज्झुणीए किमट्ठं तत्थापउत्ती। गणिंदाभावादो। सोहम्मिंदेण तक्खणे चेव गणिंदो किण्ण ढोइदो। काललद्धीए विणा असहायस्स देविंदस्स तड्ढोयणसत्तीए अभावादो। =प्रश्न– इन (छयासठ) दिनों में दिव्यध्वनि की प्रवृत्ति किसलिए नहीं हुई ? उत्तर–गणधर का अभाव होने के कारण। प्रश्न–सौधर्म इन्द्र ने उसी समय गणधर को उपस्थित क्यों नहीं किया ? उत्तर–नहीं किया, क्योंकि, काललब्धि के बिना असहाय सौधर्म इन्द्र के उनके उपस्थित करने की शक्ति का उस समय अभाव था। (क.पा.१/१,१/५७/७६/१)।
म.पु./९/११५ तद्गृहाणाद्य सम्यक्त्वं तल्लाभे काल एष ते। काललब्ध्या विना नार्य तदुत्पत्तिरिहाङ्गिनाम् ।११५।
म.पु./४७/३८६ भव्यस्यापि भवोऽभवद् भवगत: कालादिलब्धेर्विना।...।३८६। =- (प्रीतिंकर और प्रीतिदेव नामक दो मुनि वज्रजंघ के पास आकर कहते हैं) हे आर्य ! आज सम्यग्दर्शन ग्रहण कर। उसके ग्रहण करने का यह समय है (ऐसा उन्होंने अवधिज्ञान से जान लिया था), क्योंकि काललब्धि के बिना संसार में इस जीव को सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति नहीं होती। (म.पु./४८/८४)।११५।
- कालादि लब्धियों के बिना भव्य जीवों को भी संसार में रहना पड़ता है।३८६।
का.अ./मू./४०८ इदि एसो जिणधम्मो अलद्धपुव्वो अणाइकाले वि। मिच्छत्तसंजुदाणं जीवाणं लद्धिहीणाणं।४०८। =इस प्रकार यह जिनधर्म कालादि लब्धि से हीन मिथ्यादृष्टि जीवों को अनादिकाल बीत जाने पर भी प्राप्त नहीं हुआ।
- <a name="3.6" id="3.6">काललब्धि अनिवार्य है
का.अ./मू./२१९ कालाइलद्धिजुत्ता णाणासत्तीहि संजुदा अत्था। परिणममाणा हि सयं ण सक्कदे को वि वारेदुं।२१९। =काल आदि लब्धियों से युक्त तथा नाना शक्तियों वाले पदार्थ को स्वयं परिणमन करते हुए कौन रोक सकता है।
- काललब्धि मिलना दुर्लभ है
भ.आ./वि./१५८/३७०/१४ उपशमकालकरणलब्धयो हि दुर्लभा: प्राणिनो सुहृदो विद्वांस इव। =जैसे विद्वान् मित्र की प्राप्ति दुर्लभ है, वैसे ही उपशम, काल व करण इन लब्धियों की प्राप्ति दुर्लभ है।
- काललब्धि की कथंचित् गौणता
रा.वा./१/३/७-९/२३/२० भव्यस्य कालेन नि:श्रेयसोपपत्ते: अधिगमसम्यक्त्वाभाव:।७। न, विवक्षितापरिज्ञानात् ।...यदि सम्यग्दर्शनादेव केवलान्निसर्गजादधिगमजाद्वा ज्ञानचारित्ररहितान्मोक्ष इष्ट: स्यात्, तत् इदं युक्तं स्यात् ‘भव्यस्य कालेन नि:श्रेयसोपपत्ते:’ इति। नायमर्थोऽत्र विवक्षित:।८। यतो न भव्यानां कृत्स्नकर्मनिर्जरापूर्वकमोक्षकालस्य नियमोऽस्ति। केचिद् भव्या: संख्येयेन कालेन सेत्स्यन्ति, केचिदसंख्येयेन, केचिदनन्तेन, अपरे अनन्तानन्तेनापि न सेत्स्यन्ति। ततश्च न युक्तम्–‘भवस्य कालेन नि:श्रेयसोपपत्ते:’ इति। =प्रश्न–भव्य जीव अपने समय के अनुसार ही मोक्ष जायेगा, इसलिए अधिगम सम्यक्त्व का अभाव है, क्योंकि उसके द्वारा समय से पहले सिद्धि असम्भव है?।७। उत्तर–नहीं, तुम विवक्षा को नहीं समझे। यदि ज्ञान व चारित्र से शून्य केवल निसर्गज या अधिगमज सम्यग्दर्शन ही से मोक्ष होना हमें इष्ट होता तो आपका यह कहना युक्त हो जाता कि भव्य जीव को समय के अनुसार मोक्ष होता है, परन्तु यह अर्थ तो यहा विवक्षित नहीं है। (यहा मोक्ष का प्रश्न ही नहीं है। यहा तो केवल सम्यक्त्व की उत्पत्ति दो प्रकार से होती है यह बताना इष्ट है–देखें - अधिगम )।८। दूसरी बात यह भी है कि भव्यों की कर्मनिर्जरा का कोई समय निश्चित नहीं है और न मोक्ष का ही। कोई भव्य संख्यात काल में सिद्ध होंगे, कोई असंख्यात में और कोई अनन्त काल में। कुछ ऐसे भी हैं जो अनन्तानन्त काल में भी सिद्ध नहीं होंगे। अत: भव्य के मोक्ष के कालनियम की बात उचित नहीं है।९। (श्लो.वा.२/१/३/४/७५/८)।
म.पु./७४/३८६-४१३ का भावार्थ–श्रेणिक के पूर्वभव के जीव खदिरसार ने समाधिगुप्त मुनि से कौवे का मांस न खाने का व्रत लिया। बीमार होने पर वैद्यों द्वार कौवों का मांस खाने के लिए आग्रह किये जाने पर भी उसने वह स्वीकार न किया। तब उसके साले शूरवीर ने उसे बताया कि जब वह उसको देखने के लिए अपने गाव से आ रहा था तो मार्ग में एक यक्षिणी रोती हुई मिली। पूछने पर उसने अपने रोने का कारण यह बताया, कि खदिरसा जो कि अब उस व्रत के प्रभाव से मेरा पति होने वाला है, तेरी प्रेरणा से यदि कौवे का मांस खा लेगा तो नरक के दु:ख भोगेगा। यह सुनकर खदिरसार तुरंत श्रावक के व्रत धारणकर लिये और प्राण त्याग दिये। मार्ग में शूरवीर को पुन: वही यक्षिणी मिली। जब उसने उससे पूछा कि क्या वह तेरा पति हुआ तो उसने उत्तर दिया कि अब तो श्रावकव्रत के प्रभाव से वह व्यन्तर होने की बजाय सौधर्म स्वर्ग में देव उत्पन्न हो गया, अत: मेरा पति नहीं हो सकता।
म.पु./७६/१-३० भगवान् महावीर के दर्शनार्थ जाने वाले राजा श्रेणिक ने मार्ग में ध्यान निमग्न परन्तु कुछ विकृत मुख वाले धर्मरुचि की वन्दना की। समवशरण में पहुचकर गणधरदेव से प्रश्न करने पर उन्होंने बताया कि अपने छोटे से पुत्र को ही राज्यभार सौंपकर यह दीक्षित हुए हैं। आज भोजनार्थ नगर में गये तो किन्हीं मनुष्यों की परस्पर बातचीत को सुनकर इन्हें यह भान हुआ कि मन्त्रियों ने उसके पुत्र को बाध रखा है और स्वयं राज्य बाटने की तैयारी कर रहे हैं। वे निराहार ही लौट आये और अब ध्यान में बैठे हुए क्रोध के वशीभूत हो संरक्षणानन्द नामक रौद्रध्यान में स्थित हैं। यदि आगे अन्तर्मुहूर्त तक उनकी यही अवस्था रही तो अवश्य ही नरकायु का बन्ध करेंगे। अत: तू शीघ्र ही जाकर उन्हें सम्बोध। राजा श्रेणिक ने तुरंत जाकर मुनि को सावधान किया और वह चेत होकर रौद्रध्यान छोड़ शुक्लध्यान में प्रविष्ट हुआ। जिसके कारण उसे केवलज्ञान उत्पन्न हो गया।
मो.मा.प्र./९/४५६/३ काललब्धि वा होनहार तौ कछू वस्तु नाहीं। जिस कालविषै कार्य बनैं, सोई काललब्धि और जो कार्य भया सोई होनहार।
दे.नय/I/५/४/नय.नं.२० कृत्रिम गर्मी के द्वारा पकाये गये आम्र फल की भाति अकालनय से आत्मद्रव्य समय पर आधारित नहीं। (और भी दे.उदीरणा/१/१)।
- मोक्ष प्राप्ति में काललब्धि
- <a name="4" id="4">देव निर्देश
- <a name="4.1" id="4.1">दैव का लक्षण
अष्टशती/- योग्यता कर्मपूर्वं वा दैवम् । =योग्यता या पूर्वकर्म दैव कहलाता है।
म.पु./४/३७ विधि: स्रष्टा विधाता च दैवं कर्म पुराकृतम् । ईश्वरश्चेति पर्याया विज्ञेया: कर्मवेधस:।३७। =विधि, स्रष्टा, विधाता, दैव, पुराकृत कर्म और ईश्वर ये सब कर्मरूपी ईश्वर के पर्यायवाचक शब्द हैं, इनके सिवाय और कोई लोक का बनाने वाला ईश्वर नहीं है।
आ.अनु./२६२ यत्प्राग्जन्मनि संचितं तनुभृता कर्माशुभं वा शुभं। तद्दैवं...।२६२। =प्राणी ने पूर्वभव में जिस पाप या पुण्य कर्म का संचय किया है, वह दैव कहा जाता है।
- मिथ्या दैववाद निर्देश
आप्त.मी./८८ दैवादेवार्थसिद्धिश्चेद्दैवं पौरुषत: कथं। दैवतश्चेदनिर्मोक्ष: पौरुषं निष्फलं भवेत् ।८८। =दैव से ही सर्व प्रयोजनों की सिद्धि होती है। वह दैव अर्थात् पाप कर्मस्वरूप व्यापार भी पूर्व के दैव से होता है। ऐसा मानने से मोक्ष का व पुरुषार्थ का अभाव ठहरता है। अत: ऐसा एकान्त दैववाद मिथ्या है।
गो.क./मू./८९१/१०७२ दइवमेव परं मण्णे धिप्पउरुसमणत्थयं। एसो सालसमुत्तंगो कण्णो हण्णइ संगरे।८९१। =दैव ही परमार्थ है। निरर्थक पुरुषार्थ को धिक्कार है। देखो पर्वत सरीखा उत्तंग राजा कर्ण भी संग्राम में मारा गया।
- <a name="4.3" id="4.3">सम्यग्दैववाद निर्देश
सुभाषित रत्नसन्दोह/३५६ यदनीतिमतां लक्ष्मीर्यदपथ्यनिषेविणां च कल्पत्वम् । अनुमीयते विधातु: स्वेच्छाकारित्वमेतेन।३५६। =दैव बड़ा ही स्वेच्छाचारी है, यह मनमानी करता है। नीति तथा पथ्यसेवियों को तो यह निर्धन व रोगी बनाता है और अनीति व अपथ्यसेवियों को धनवान् व नीरोग बनाता है।
दे.नय/I/५/४ नय नं.२२ नींबू के वृक्ष के नीचे से रत्न पाने की भाति, दैव नय से आत्मा अयत्नसाध्य है।
पं.ध./उ./८७४ दैवादस्तंगते तत्र सम्यक्त्वं स्यादनन्तरम् । दैवान्नान्यतरस्यापि योगवाही च नाप्ययम् ।८७४। =दैव से अर्थात् काललब्धि से उस दर्शन मोहनीय के उपशमादि होते ही उसी समय सम्यग्दर्शन होता है, और दैव से यदि उस दर्शन मोहनीय का अभाव न हो तो नहीं होता, इसलिए यह उपयोग न सम्यक्त्व की उत्पत्ति में कारण है और दर्शनमोह के अभाव में। (पं.ध./उ./३७८)।
पं.ध./उ./श्लो.नं.सारार्थ–इसी प्रकार दैवयोग से अपने-अपने कारणों का या कर्मोदयादि का सन्निधान होने पर–पंचेन्द्रिय व मन अंगोपांग नामकर्म के बन्ध की प्राप्ति होती है।२९५। इन्द्रियों आदि की पूर्णता होती है।२९८। सम्यग्दृष्टि को भी कदाचित् आरम्भ आदि क्रियाए होती है।४२९। कदाचित् दरिद्रता की प्राप्ति होती है।५०७। मृत्यु होती है।५४०। कर्मोदय तथा उनके फलभूत तीव्र मन्द संक्लेश विशुद्ध परिणाम होते हैं।६८३। आख में पीड़ा होती है।६९१। ज्ञान व रागादि में हीनता होती है।८८९। नामकर्म के उदयवश उस-उस गति में यथायोग्य शरीर की प्राप्ति होती है।९७७। –ये सब उदाहरण दैवयोग से होने वाले कार्यों की अपेक्षा निर्दिष्ट हैं।
- कर्मोदय की प्रधानता के उदाहरण
स.सा./आ./२५६/क १६८ सर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्मरणजीवितदु:खसौख्यम् । अज्ञानमेतदिह यत्तु पर: परस्य, कुर्यात्पुमान्मरणजीवितदु:खसौख्यम् ।१६८। =इस जगत् में जीवों के मरण, जीवित, दु:ख, सुख–सब सदैव नियम से अपने कर्मोदय से होता है। यह मानना अज्ञान है कि–दूसरा पुरुष दूसरे के मरण, जीवन, दु:ख, सुख को करता है।
पं.वि./३/१८ यैव स्वकर्मकृतकालात्र जन्तुस्तत्रैव याति मरणं न पुरो न पश्चात् । मूढास्तथापि हि मृते स्वजने विधाय शोकं परं प्रचुरदु:खभुजो भवन्ति।१८। =इस संसार में अपने कर्म के द्वारा जो मरण का समय निर्धारित किया गया है, उसी समय में ही प्राणी मरण को प्राप्त होता है, वह उससे न तो पहले मरता है और न पीछे भी। फिर भी मूर्खजन अपने किसी सम्बन्धी को मरण को प्राप्त होने पर अतिशय शोक करके बहुत दु:ख भोगते हैं।१८। (पं.वि./३/१०)।
- <a name="4.5" id="4.5">दैव के सामने पुरुषार्थ तिरस्कार
कुरल काव्य/३८/६,१० यत्नेनापि न तद् रक्ष्यं भाग्यं नैव यदिच्छति। भाग्येन रक्षितं वस्तु प्रक्षिप्तं नापि नश्यति।६। दैवस्य प्रबला शक्तिर्यंतस्तद्ग्रस्तमानव:। यदैव यतते जेतुं तदैवाशु स पात्यते।१०। =भाग्य जिस बात को नहीं चाहता उसे तुम अत्यन्त चेष्टा करने पर भी नहीं रख सकते, और जो वस्तुए भाग्य में बदी हैं उन्हें फेंक देने पर भी वे नष्ट नहीं होतीं।६। (भ.आ./मू./१७३१/१५६२); (पं.विं./१,१८८) दैव से बढ़कर बलवान् और कौन है, क्योंकि जब ही मनुष्य उसके फन्दे से छूटने का यत्न करता है, तब ही वह आगे बढ़कर उसको पछाड़ देता है।१०।
आ.मी./८९ पौरुषदेव सिद्धिश्चेत्पौरुषं दैवत: कथम् । पौरुषाच्चेदमोघं स्यात्सर्वप्राणिषु पौरुषम् ।८९। =यदि पुरुषार्थ से ही अर्थ की सिद्धि मानते हो तो हम पूछते हैं कि दैवसिद्ध जितने भी कार्य हैं, उनकी सिद्धि कैसे करोगे। यदि कहो कि उनकी सिद्धि भी पुरुषार्थ द्वारा ही होती है, तो यह बताइए, कि पुरुषार्थ तो सभी व्यक्ति करते हैं, उनको उसका समान फल क्यों नहीं मिलता ? अर्थात् कोई सुखी व कोई दु:खी क्यों है?
आ.अनु./३२ नेता यत्र वृहस्पति: प्रहरणं व्रजं सुरा: सैनिका:, स्वर्गो दुर्गमनुग्रह: खलु हरेरेरावतो वारण:। इत्याश्चर्यबलान्वितोऽपि बलिभिद्भग्न: परै: संगरे:, तद्व्यक्तं ननु दैवमेव शरणं धिग्धिग्वृथा पौरुषम् ।३२। =जिसका मन्त्री वृहस्पति था, शस्त्र वज्र था, सैनिक देव थे, दुर्ग स्वर्ग था, हाथी ऐरावत था, तथा जिसके ऊपर विष्णु का अनुग्रह था; इस प्रकार अद्भुत बल से संयुक्त भी वह इन्द्र युद्ध में दैत्यों (अथवा रावण आदि) द्वारा पराजित हुआ है। इसीलिए यह स्पष्ट है कि निश्चय से दैव ही प्राणों का रक्षक है, पुरुषार्थ व्यर्थ है, उसके लिए बारंबार धिक्कार हो।
पं.वि./३/४२ राजापि क्षणमात्रतो विधिवशाद्रङ्कायते निश्चितं, सर्वव्याधिविवर्जितोऽपि तरुणोऽप्याशु क्षयं गच्छति। अन्यै: किं किल सारतामुपगते श्रीजीविते द्वे तयो:, संसारे स्थितिरीदृशीति विदुषा कान्यत्र कार्यो मद:।४२। =भाग्यवश राजा भी निश्चय से क्षणभर में रंक के समान हो जाता है, तथा समस्त रोगों से रहित युवा पुरुष भी शीघ्र ही मरण को प्राप्त होता है। इस प्रकार अन्य पदार्थों के विषय में तो क्या कहा जाय, किन्तु जो लक्ष्मी और जीवित दोनों ही संसार में श्रेष्ठ समझे जाते हैं, उनकी भी जब ऐसी (उपयुक्त) स्थिति है तब विद्वान् मनुष्य को अन्य किसके विषय में अभिमान करना चाहिए ?
पं.ध./उ./५७१ पौरुषो न यथाकामं पुंस: कर्मोदितं प्रति। न परं पौरुषापेक्षो दैवापेक्षो हि पौरुष:।५७१। =दैव अर्थात् कर्मोदय के प्रति जीव का इच्छानुकूल पुरुषार्थ कारण नहीं है, क्योंकि, पुरुषार्थ केवल पौरुष की अपेक्षा नहीं रखता है, किन्तु दैव की अपेक्षा रखता है।
और भी दे.पुण्य/४/२ (पुण्य साथ रहने पर बिना प्रयत्न भी समस्त इष्ट सामग्री प्राप्त होती है, और वह साथ न रहने पर अनेक कष्ट उठाते हुए भी वह प्राप्त नहीं होती)।
- दैव की अनिवार्यता
पद्म पु./४९/६-७ सस्पन्दं दक्षिणं चक्षुरवधार्यव्यचिन्तयत् । प्राप्तव्यं विधियोगेन कर्म कर्त्तुं न शक्यते।६। क्षुद्रशक्तिसमासक्ता मानुषास्तावदासताम् । न सुरैरपि कर्माणि शक्यन्ते कर्तुमन्यथा।७। =दक्षिण नेत्र को फड़कते देख उसने विचार किया कि दैवयोग से जो कार्य जैसा होना होता है, उसे अन्यथा नहीं किया जा सकता।६। हीन शक्तिवालों की तो बात ही क्या, देवों के द्वारा भी कर्म अन्यथा किये जा सकते।७।
म.पु./४४/२६६ स प्रताप: प्रभा सास्य सा हि सर्वैकपूज्यता। प्रात: प्रत्यहमर्कस्याप्यतर्क्य: कर्कशो विधि:। =सूर्य का प्रताप व कान्ति असाधारण है और असाधारण रूप से ही सब उसकी पूजा करते हैं, इससे जाना जाता है कि निष्ठुर दैव तर्क का विषय नहीं है।
- <a name="4.1" id="4.1">दैव का लक्षण
- भवितव्य निर्देश
- भवितव्य का लक्षण
मो.मा.प्र./९/४५६/४ जिस काल विषै जो कार्य भया सोई होनहार (भवितव्य) है।
जैन तत्त्व मीमांसा/पृ.६/पं.फूलचन्द–भवितं योग्यं भवितव्यं, तस्य भाव: भवितव्यता। =जो होने योग्य हो उसे भवितव्य कहते हैं। और उसका भाव भवितव्यता कहलाता है।
- भवितव्य की कथंचित् प्रधानता
पं.वि./३/५३ लोकश्चेतसि चिन्तयन्ननुदिनं कल्याणमेवात्मन:, कुर्यात्सा भवितव्यतागतवती तत्तत्र यद्रोचते। =मनुष्य प्रतिदिन अपने कल्याण का ही विचार करते हैं, किन्तु आयी हुई भवितव्यता वही करती है जो कि उसको रुचता है।
का.अ./पं.जयचन्द/३११-३१२ जो भवितव्य है वही होता है
मो.मा.प्र./२/पृष्ठ/पंक्ति–क्रोधकरि (दूसरे का) बुरा चाहने की इच्छा तौ होय, बुरा होना भवितव्याधीन है।५६/८। अपनी महंतता की इच्छा तौ होय, महंतता होनी भवितव्य आधीन है।५६/१८। मायाकरि इष्ट सिद्धि के अर्थि छल तौ करै, अर इष्ट सिद्धि होना भवितव्य आधीन है।५७/३।
मो.मा.प्र./३/८०/११ इनकी सिद्धि होय (अर्थात् कषायों के प्रयोजनों की सिद्धि होय) तौ कषाय उपशमनेतैं दु:ख दूर होय जाय सुखी होय, परन्तु इनकी सिद्धि इनके लिए (किये गये) उपायनि के आधीन नाहीं, भवितव्य के आधीन हैं। जातैं अनेक उपाय करते देखिये हैं अर सिद्धि न हो है। बहुरि उपाय बनना भी अपने आधीन नाहीं, भवितव्य के आधीन है। जातैं अनेक उपाय करना विचारैं और एक भी उपाय न होता देखिये है। बहुरि काकताली न्यायकरि भवितव्य ऐसा ही होय जैसा आपका प्रयोजन होय तैसा ही उपाय होय अर तातैं कार्य की सिद्धि भी होय जाय।
- भवितव्य अलंघ्य व अनिवार्य है
स्व.स्तो/३३ अलघ्यशक्तिर्भवितव्यतेयं, हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिङ्गा। अनीश्वरो जन्तुरहं क्रियार्त्त: संहस्य कार्येष्विति साध्ववादी:।३३। =अन्तरंग और बाह्य दोनों कारणों के अनिवार्य संयोग द्वारा उत्पन्न होने वाला कार्य ही जिसका ज्ञापक है, ऐसी इस भवितव्यता की शक्ति अलंघ्य है। अहंकार से पीड़ित हुआ संसारी प्राणी मात्र-तन्त्रादि अनेक सहकारी कारणों को मिलाकर भी सुखादि कार्यों के सम्पन्न करने में समर्थ नहीं होता है। (पं.वि./३/८)
पं.पु./४१/१०२ पक्षिणं संयतोऽगादीन्मा भैषीरधुना द्विज। मा रोदोर्यद्यथा भाव्यं क: करोति तदन्यथा।१०२। =राम से इतना कहकर मुनिराज ने गृद्ध से कहा कि हे द्विज। अब भयभीत मत होओ, रोओ मत, जो भवितव्य है अर्थात् जो बात जैसी होने वाली है, उसे अन्यथा कौन कर सकता है।
- भवितव्य का लक्षण
- नियति व पुरुषार्थ का समन्वय
- दैव व पुरुषार्थ दोनों के मेल से ही अर्थ सिद्धि होती है
अष्टशती/योग्यता कर्मपूर्वं वा दैवमुभयदृष्टम्, पौरुषं पुनरिह चेष्टितं दृष्टम् । ताभ्यामर्थसिद्धि:, तदन्यतरापायेऽघटनात् । पौरुषमात्रेऽर्थादर्शनात् । दैवमात्रे वा समीहानर्थक्यप्रसंगात् ।=(संसारी जीवों में दैव व पुरुषार्थ सम्बन्धी प्रकरण है।)–पदार्थ की योग्यता अर्थात् भवितव्य और पूर्वकर्म ये दोनों दैव कहलाते हैं। ये दोनों ही अदृष्ट हैं। तथा व्यक्ति की अपनी चेष्टा को पुरुषार्थ कहते हैं जो दृष्ट है। इन दोनों से ही अर्थसिद्धि होती है, क्योंकि, इनमें से किसी एक के अभाव में अर्थसिद्धि घटित नहीं हो सकती। केवल पुरुषार्थ से तो अर्थसिद्धि होती दिखाई नहीं देती ( देखें - नियति / ३ / ५ )। तथा केवल दैव के मानने पर इच्छा करना व्यर्थ हुआ जाता है। ( देखें - नियति / ३ / २ )।
म.पु./४६/२३१ कृत्यं किंचिद्विशदमनसामाप्तवाक्यानपेक्षं, नाप्तेरुक्तं फलति पुरुषस्योज्झितं पौरुषेण। दैवापेतं पुरुषकरणं कारणं नेष्टसङ्गे तस्माद्भव्या: कुरुत यतनं सर्वहेतुप्रसादे।२३१। =हे राजन् ! निर्मल चित्त के धारक मनुष्यों का कोई भी कार्य आप्त वचनों से निरपेक्ष नहीं होता, और आप्त भगवान् ने मनुष्यों के लिए जो कर्म बतलाये हैं वे पुरुषार्थ के बिना सफल नहीं होते। और पुरुषार्थ दैव के बिना इष्ट सिद्धि का कारण नहीं होता। इसलिए हे भव्यजीवो ! जो सबका कारण है उसके (अर्थात् आत्मा के) प्रसन्न करने में यत्न करो।२३१।
- अबुद्धिपूर्वक के कार्यों में दैव तथा बुद्धिपूर्वक के कार्यों में पुरुषार्थ प्रधान है
आप्त.मी./९१ अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदैवत:। बुद्धिपूर्वंविपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात् ।९१। =[केवल दैव ही से यदि अर्थसिद्धि मानते हो तो पुरुषार्थ करना व्यर्थ हो जाता है ( देखें - नियति / ३ / २ में आप्त.मी./८८)। केवल पुरुषार्थ से ही यदि अर्थसिद्धि मानी जाय तो पुरुषार्थ तो सभी करते हैं, फिर सबको समान फल की प्राप्ति होती हुई क्यों नहीं देखी जाती ( देखें - नियति / ३ / ५ में आप्त.मी./८९)। परस्पर विरोधी होने के कारण एकान्त उभयपक्ष भी योग्य नहीं। एकान्त अनुभय मानकर सर्वथा अवक्तव्य कह देने से भी काम नहीं चलता, क्योंकि, सर्वत्र उनकी चर्चा होती सुनी जाती है। (आप्त.मी./९०)। इसलिए अनेकान्त पक्ष को स्वीकार करके दोनों से ही कथंचित् कार्यसिद्धि मानना योग्य है। वह ऐसे कि–कार्य व कारण दो प्रकार के देखे जाते हैं–अबुद्धिपूर्वक स्वत: हो जाने वाले या मिल जाने वाले तथा बुद्धिपूर्वक किये जाने वाले या मिलाये जाने वाले (देखें - इससे अगला सन्दर्भ /मो.मा.प्र.)] तहा अबुद्धिपूर्वक होने वाले व मिलने वाले कार्य व कारण तो अपने दैव से ही होते हैं; और बुद्धिपूर्वक किये जाने वाले व मिलाये जाने वाले इष्टानिष्ट कार्य व कारण अपने पुरुषार्थ से होते हैं। अर्थात् अबुद्धिपूर्वक के कार्य कारणों में दैव प्रधान है और बुद्धिपूर्वक वालों में पुरुषार्थ प्रधान है।
मो.मा.प्र./७/२८९/११ प्रश्न–जो कर्म का निमित्ततैं हो है (अर्थात् रागादि मिटै हैं), तौं कर्म का उदय रहै तावत् विभाव दूर कैसैं होय ? तातैं याका उद्यम करना तौ निरर्थक है ? उत्तर–एक कार्य होने विषै अनेक कारण चाहिए हैं। तिनविषैं जे कारण बुद्धिपूर्वक होय तिनकौं तौ उद्यम करि मिलावै, और अबुद्धिपूर्वक कारण स्वयमेव मिलै तब कार्यसिद्धि होय। जैसे पुत्र होने का कारण बुद्धिपूर्वक तौ विवाहादिक करना है और अबुद्धिपूर्वक भवितव्य है। तहा पुत्र का अर्थी विवाह आदि का तौ उद्यम करै, अर भवितव्य स्वयमेव होय, तब पुत्र होय। तैसे विभाव दूर करने के कारण बुद्धिपूर्वक तौ तत्त्वविचारादि हैं अर अबुद्धिपूर्वक मोह कर्म का उपशमादि हैं। सो ताका अर्थी तत्त्वविचारादि का तौ उद्यम करै, अर मोहकर्म का उपशमादि स्वयमेव होय, तब रागादि दूर होय।
- <a name="6.3" id="6.3">अत: रागदशा में पुरुषार्थ करने का ही उपदेश है
देखें - नय / I / ५ / ४ -नय नं.२१ जिस प्रकार पुरुषार्थ द्वारा ही अर्थात् चलकर उसके निकट जाने से ही पथिक को वृक्ष की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार पुरुषकारनय से आत्मा यत्नसाध्य है।
द्र.सं./टी./२१/६३/३ यद्यपि काललब्धिवशेनानन्तसुखभाजनो भवति जीवस्तथापि ...सम्यक् श्रद्धानज्ञानानुष्ठान...तपश्चरणरूपा या निश्चयचतुर्विधाराधना सैव तत्रोपादानकारणं ज्ञातव्यं न कालस्तेन स हेय इति। =यद्यपि यह जीव काललब्धि के वश से अनन्तसुख का भाजन होता है तो भी सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान, आचरण व तपश्चरणरूप जो चार प्रकार की निश्चय आराधना है, वह ही उसकी प्राप्ति में उपादानकारण जाननी चाहिए, उसमें काल उपादान कारण नहीं है, इसलिए वह कालद्रव्य त्याज्य है।
मो.मा.प्र./७/२९०/१ प्रश्न–जैसे विवाहादिक भी भवितव्य आधीन हैं, तेसे तत्त्वविचारादिक भी कर्म का क्षायोपशमादिक कै आधीन है, तातैं उद्यम करना निरर्थक है? उत्तर–ज्ञानावरण का तौ क्षयोपशम तत्त्वविचारादि करने योग्य तेरै भया है। याहीतैं उपयोग कौं यहा लगावने का उद्यम कराइए हैं। असंज्ञी जीवनिकैं क्षयोपशम नाहीं है, तौ उनकौ काहे कौं उपदेश दीजिए है। (अर्थात् अबुद्धिपूर्वक मिलने वाला दैवाधीन कारण तौ तुझे दैव से मिल ही चुका है, अब बुद्धिपूर्वक किया जाने वाला कार्य करना शेष है) वह तेरे पुरुषार्थ के आधीन है। उसे करना तेरा कर्त्तव्य है।)
मो.मा.प्र./९/४५५/१७ प्रश्न–जो मोक्ष का उपाय काललब्धि आए भवितव्यानुसारि बनैं है कि, मोहादिका उपशमादि भर बनैं हैं, अथवा अपने पुरुषार्थ तैं उद्यम किए बिनैं, सो कहौ। जो पहिले दोय कारण मिले बनै है, तौ हमकौं उपदेश काहेकौं दीजिए है। अर पुरुषार्थतैं बनैं है बनैं है, तो उपदेश सर्व सुनैं, तिनिविषै कोई उपाय कर सकै, कोई न करि सकै, सो कारण कहा ? उत्तर–एक कार्य होने विषैं अनेक कारण मिलै हैं। सो मोक्ष का उपाय बने है तहां तौ पूर्वोक्त तीनौं (काललब्धि, भवितव्य व कर्मों का उपशमादि) ही कारण मिलै हैं। पूर्वोक्त तीन कारण कहे, तिनिविषै काललब्धि वा होनहार (भवितव्य) तौ कछू वस्तु नाहीं। जिस कालविषै कार्य बनैं, सोई काललब्धि और जो कार्य बना सोई होनहार। बहुरि जो कर्म का उपशमादि है; सो पुद्गल की शक्ति है। ताका कर्ता हर्ता आत्मा नाहीं। बहुरि पुरुषार्थतैं उद्यम करिए हैं, सो यह आत्मा का कार्य है, तातै आत्मा को पुरुषार्थ करि उद्यम करने का उपदेाश दीजिये है।
- <a name="6.4" id="6.4">नियति सिद्धान्त में स्वच्छन्दाचार को अवकाश नहीं
मो.मा.प्र./७/२९८ प्रश्न–होनहार होय, तौ तहा (तत्त्वविचारादि के उद्यम में) उपयोग लागे, बिन होनहार कैसे लागे, (अत: उद्यम करना निरर्थक है)? उत्तर–जो ऐसा श्रद्धान है, तौ सर्वत्र कोई ही कार्य का उद्यम मति करै। तू खान-पान-व्यापारादिक का तौ उद्यम करै, और यहा (मोक्षमार्ग में) होनहार बतावै। सो जानिए है, तेरा अनुराग (रुचि) यहा नाहीं। मानादिककरि ऐसी झूठी बातैं बनानै है। या प्रकार जे रागादिक होतै (निश्चयनय का आश्रय लेकर) तिनिकरि रहित आत्म कौ मानैं हैं, ते मिथ्यादृष्टि हैं।
प्र.सा./पं.जयचन्द/२०२ इस विभावपरिणति को पृथक् होती न देखकर वह (सम्यग्दृष्टि) आकुलव्याकुल भी नहीं होता (क्योंकि जानता है कि समय से पहिले अक्रमरूप से इसका अभाव होना सम्भव नहीं है), और वह सकल विभाव परिणति को दूर करने का पुरुषार्थ किये बिना भी नहीं रहता।
देखें - नियति / ५ / ७ (नियतिनिर्देश का प्रयोजन धर्म लाभ करना है।)
- वास्तव में पाच समवाय समवेत ही कार्य व्यवस्था सिद्ध है
प.पु./३१/२१२-२१३ भरतस्य किमाकूतं कृतं दशरथेन किम् । रामलक्ष्मणयोरेषा का मनीषा व्यवस्थिता।२१२। काल: कर्मेश्वरो दैवं स्वभाव: पुरुष: क्रिया। नियतिर्वा करोत्येवं विचित्रं क: समीहितम् ।२१३। =(दशरथ ने राम को वनवास और भरत को राज्य दे दिया। इस अवसर पर जनसमूह में यह बातें चल रही हैं।)–भरत का क्या अभिप्राय था? और राजा दशरथ ने यह क्या कर दिया ? राम लक्ष्मण के भी यह कौनसी बुद्धि उत्पन्न हुई है ?।२१२। यह सब काल, कर्म, ईश्वर, दैव, स्वभाव, पुरुष, क्रिया अथवा नियति ही कर सकती है। ऐसी विचित्र चेष्टा को और दूसरा कौन कर सकता है।२१३। (काल को नियति में, कर्म व ईश्वर को निमित्त में और दैव व क्रिया को भवितव्य में गर्भित कर देने पर पाच बातें रह जाती हैं। स्वभाव, निमित्त, नियति, पुरुषार्थ व भवितव्य इन पाच समवायों से समवेत ही कार्य व्यवस्था की सिद्धि है, ऐसा प्रयोजन है।)
पं.का./ता.वृ./२०/४२/१८ यदा कालादिलब्धिवशाद्भेदाभेदरत्नत्रयात्मकं व्यवहारनिश्चयमोक्षमार्गं लभते तदा तेषां ज्ञानावरणादिभावानां द्रव्यभावकर्मरूपपर्यायाणामभावं विनाशं कृत्वा पर्यायार्थिकनयेनाभूतपूर्वसिद्धो भवति। द्रव्यार्थिकनयेन पूर्वमेव सिद्धरूप इति वार्तिकं। =अब जीव कालादि लब्धि के वश से भेदाभेद रत्नत्रयात्मक व्यवहार व निश्चय मोक्षमार्ग को प्राप्त करता है, तब उन ज्ञानावरणादिक भावों का तथा द्रव्य भावकर्मरूप पर्यायों का अभाव या विनाश करके सिद्धपर्याय को प्रगट करता है। वह सिद्धपर्याय पर्यायार्थिकनय से तो अभूतपूर्व अर्थात् पहले नहीं थी ऐसी है। द्रव्यार्थिकनय से वह जीव पहिले से ही सिद्ध रूप था। (इस वाक्य में आचार्य ने सिद्धपर्यायप्राप्तिरूप कार्य में पाचों समवायों का निर्देश कर दिया है। द्रव्यार्थिकनय से जीव का त्रिकाली सिद्ध सदृश शुद्ध स्वभाव, ज्ञानावरणादि कर्मों का अभावरूप निमित्त, कालादिलब्धि रूप नियति, मोक्षमार्गरूप पुरुषार्थ और सिद्ध पर्यायरूप भवितव्य।)
मो.मा.प्र./३/७३/१७ प्रश्न–काहू कालविषै शरीरको वा पुत्रादिककी इस जीवकै आधीन भी तो क्रिया होती देखिये है, तब तौ सुखी हो है। (अर्थात् सुख दु:ख भवितव्याधीन ही तो नहीं हैं, अपने आधीन भी तो होते ही हैं)। उत्तर–शरीरादिक की, भवितव्य की और जीव की इच्छा की विधि मिलै, कोई एक प्रकार जैसे वह चाहै तैसे परिणमै तातैं काहू कालविषै वाही का विचार होतैं सुख की सी आभासा होय है, परन्तु सर्व ही तौ सर्व प्रकार यह चाहैं तैसे न परिणमै। (यहा भी पाचों समवायों के मिलने से ही कार्य की सिद्धि होना बताया गया है, केवल इच्छा या पुरुषार्थ से नहीं। तहा सुखप्राप्ति रूप कार्य में ‘परिणमन’ द्वारा जीव का स्वभाव, ‘शरीरादि’ द्वारा निमित्त, ‘काहू कालविषै’ द्वारा नियति, ‘इच्छा’ द्वारा पुरुषार्थ और भवितव्य द्वारा भवितव्य का निर्देश किया गया है।)
- दैव व पुरुषार्थ दोनों के मेल से ही अर्थ सिद्धि होती है
- नियति व पुरुषार्थादि सहवर्ती हैं
- काललब्धि होने पर शेष कारण स्वत: प्राप्त होते हैं
प.पु./५३/२४९ प्राप्ते विनाशकालेऽपि बुद्धिर्जन्तोर्विनश्यति। विधिनाप्रेरितस्तेन कर्मपाकं विचेष्टते।२४९। =विनाश का अवसर प्राप्त होने पर जीव की बुद्धि नष्ट हो जाती है। सो ठीक है; क्योंकि, भवितव्यता के द्वारा प्रेरित हुआ यह जीव कर्मोदय के अनुसार चेष्टा करता है। अष्टसहस्री/पृ.२५७ तादृशो जायते बुद्धिर्व्यवसायश्च तादृश:। सहायास्तादृशा: सन्ति यादृशी जायते भवितव्यता। =जिस जीव की जैसी भवितव्यता होती है उसकी वैसी ही बुद्धि हो जाती है। वह प्रयत्न भी उसी प्रकार का करने लगता है और उसे सहायक भी उसी के अनुसार मिल जाते हैं।
म.पु./४७/१७७-१७८ कदाचित् काललब्ध्यादिचोदितोऽभ्यर्ण निवृत्ति:। विलोकयन्नभोभागं अकस्मादन्धकारितम् ।१७७। चन्द्रग्रहणमालोक्यधिगैतस्यापि चेदियम् । अवस्था संसृतौ पापग्रस्तस्यान्यस्य का गति:।१७८। =किसी समय जब उसका मोक्ष होना अत्यन्त निकट रह गया तब गुणपाल काललब्धि आदि से प्रेरित होकर आकाश की ओर देख रहा था कि इतने में उसकी दृष्टि अकस्मात् अन्धकार से भरे हुए चन्द्रग्रहण की ओर पड़ी। उसे देखकर वह संसार के पापग्रस्त जीवों की दशा को धिक्कारने लगा। और इस प्रकार उसे वैराग्य आ गया।१७७-१७८। पं.का./पं.हेमराज/१६१/२३३ प्रश्न–जो आप ही से निश्चय मोक्षमार्ग होय तो व्यवहारसाधन किसलिए कहा ? उत्तर–आत्मा अनादि अविद्या से युक्त है। जब काललब्धि पाने से उसका नाश होय उस समय व्यवहार मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति हो है।...(तभी) सम्यक् रत्नत्रय के ग्रहण करने का विचार होता है, इस विचार के होने पर जो अनादि का ग्रहण था, उसका तो त्याग होता है, और जिसका त्याग था उसका ग्रहण होता है। - कालादि लब्धि बहिरंग कारण हैं और पुरुषार्थ अन्तरंग कारण है—
म.पु./९/११६ देशनाकाललब्घ्यादिबाह्यकारणसंपदि। अन्त:करणसामग्रयां भव्यात्मा स्याद् विशुद्धकृत् (दृक्)।११६। =जब देशनालब्धि और काललब्धि आदि बहिरंग कारण तथा करण लब्धिरूप अन्तरंग कारण सामग्री की प्राप्ति होती है, तभी यह भव्य प्राणी विशुद्ध सम्यग्दर्शन का धारक हो सकता है।
द्र.सं./टी./३६/१५१/४ केन कारणभूतेन गलति ‘जहकालेण’ स्वकालपच्यमानाम्रफलवत्सविपाकनिर्जरापेक्षया, अभ्यन्तरे निजशुद्धात्मसंवित्तिपरिणामस्य बहिरंगसहकारिकारणभूतेन काललब्धिसंज्ञेन यथाकालेन, न केवलं यथाकालेन ‘तवेण’ अकालपच्यमानानामाम्रादिफलवदविपाकनिर्जरापेक्षया...चेति ‘तस्स’ कर्मणो गलनं यच्च सा द्रव्यनिर्जरा। =प्रश्न–कर्म किस कारण गलता है ? उत्तर–‘जहकालेण’ अपने समय पर पकनेवाले आम के फल के समान तो सविपाक निर्जरा की अपेक्षा, और अन्तरंग में निजशुद्धात्मा के अनुभवरूप परिणाम को बहिरंग सहाकारीकारणभूत काललब्धि से यथा समय; और ‘तवेणय’ बिना समय पकते हुए आम आदि फलों के समान अविपाक निर्जरा की अपेक्षा उस कर्म का गलना द्रव्यनिर्जरा है। दे.पद्धति/२/३ (आगम भाषा में जिसे कालादि लब्धि कहते हैं अध्यात्म भाषा में उसे ही शुद्धात्माभिमुख स्वसंवेदन ज्ञान कहते हैं।) - एक पुरुषार्थ में सर्वकारण समाविष्ट हैं
मो.मा.प्र./९/४५६/८ यहु आत्मा जिस कारणतैं कार्यसिद्धि अवश्य होय, तिस कारणरूप उद्यम करै, तहा तो अन्य कारण मिलैं ही मिलैं, अर कार्य की भी सिद्धि होय ही होय। बहुरि जिस कारणतैं कार्यसिद्धि होय, अथवा नाहीं भी होय, तिस कारणरूप उद्यम करै तहा अन्य कारण मिलैं तौ कार्य सिद्धि होय न मिलै तौ सिद्धि न होय। जैसे–...जो जीव पुरुषार्थ करि जिनेश्वर का उपदेश अनुसार मोक्ष का उपाय करै है, ताकै काललब्धि व होनहार भी भया। अर कर्म का उपशमादि भया है, तौ यहु ऐसा उपाय करै है। तातै जो पुरुषार्थ करि मोक्ष का उपाय करै है, ताकै सर्व कारण मिलै हैं, ऐसा निश्चय करना। ...बहुरि जो जीव पुरुषार्थ करि मोक्ष का उपाय न करै, ताकै काललब्धि वा होनहार भी नाहीं। अर कर्म का उपशमादि न भया है, तौ यहु उपाय न करै है। तातै जो पुरुषार्थ करि मोक्ष का उपाय न करै है, ताकै कोई कारण मिलै नाहीं, ऐसा निश्चय करना।
- काललब्धि होने पर शेष कारण स्वत: प्राप्त होते हैं
- <a name="8" id="8">नियति निर्देश का प्रयोजन
पं.वि./३/८,१०,५३ भवन्ति वृक्षेषु पतन्ति नूनं पत्राणि पुष्पाणि फलानि यद्वत् । कुलेषु तद्वत्पुरुषा: किमत्र हर्षेण शोकेन च सन्मतीनाम् ।८। पूर्वोपार्जितकर्मणा विलिखितं यस्यावसानं यदा, तज्जायेत तदैव तस्य भविनो ज्ञात्वा तदेतद्ध्रुवम् । शोकं मुञ्च मृते प्रियेऽपि सुखदं धर्मं कुरुष्वादरात्, सर्वे दूरमुपागते किमिति भोस्तद्घृष्टिराहन्यते।१०। मोहोल्लासवशादतिप्रसरतो हित्वा विकल्पान् बहून्, रागद्वेषविषोज्झितैरिति सदा सद्भि: सुखं स्थीयताम् ।५३। =जिस प्रकार वृक्षों में पत्र, पुष्प एवं फल उत्पन्न होते हैं और वे समयानुसार निश्चय से गिरते भी हैं उसी प्रकार कुटुम्ब में जो पुरुष उत्पन्न होते हैं वे मरते भी हैं। फिर बुद्धिमान् मनुष्यों को उनके उत्पन्न होने पर हर्ष और मरने पर शोक क्यों होना चाहिए।८। पूर्वोपार्जित कर्म के द्वारा जिस प्राणी का अन्त जिस समय लिखा है उसी समय होता है, यह निश्चित जानकर किसी प्रिय मनुष्य का मारण हो जाने पर भी शोक को छोड़ो और विनयपूर्वक धर्म का आराधन करो। ठीक है–सर्प के निकल जाने पर उसकी लकीर को कौन लाठी से पीटता है।१०। (भवितव्यता वही करती है जो कि उसको रुचता है) इसलिए सज्जन पुरुष रागद्वेषरूपी विष से रहित होते हुए मोह के प्रभाव से अतिशय विस्तार को प्राप्त होने वाले बहुत से विकल्पों को छोड़कर सदा सुखपूर्वक स्थित रहें अर्थात् साम्यभाव का आश्रय करें।५३।
मो.पा./पं.जयचन्द/८६ सम्यग्दृष्टिकै ऐसा विचार होय है–जो वस्तु का स्वरूप सर्वज्ञ ने जैसा जान्या है, तैसा निरन्तर परिणमै है, सो होय है। इष्ट-अनिष्ट मान दुखी सुखी होना निष्फल है। ऐसे विचारतै दुख मिटै है, यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है। जातै सम्यक्त्व का ध्यान करना कह्या है।