मन
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
मन एक अभ्यंतर इंद्रिय है। ये दो प्रकार की है–द्रव्य व भाव। हृदय स्थान में अष्टपांखुड़ी के कमल के आकाररूप पुद्गलों की रचना विशेष द्रव्यमन है। चक्षु आदि इंद्रियोंवत् अपने विषय में निमित्त होने पर भी अप्रत्यक्ष व अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण इसे इंद्रिय न कहकर अनिंद्रिय या ईषत् इंद्रिय कहा जाता है। संकल्पविकल्पात्मक परिणाम तथा विचार, चिंतवन आदिरूप ज्ञान की अवस्था विशेष भावमन है।
- मन-सामान्य का लक्षण
- मन के भेद
- द्रव्यमन का लक्षण
- भावमन का लक्षण
- भावमन का विषय
- द्रव्यमन भावमन को निमित्त है
- मन को इंद्रिय व्यपदेश न होने में हेतु
- मन को अनिंद्रिय कहने में हेतु
- द्रव्य व भाव मन का कथंचित् अवस्थायी व अनवस्थायीपना
- मन को अंत:करण कहने में हेतु
- भावमन के अस्तित्व की सिद्धि
- वैशेषिक-मान्य स्वतंत्र ‘मन’ का निरास
- बौद्ध व सांख्यमान्य मन का निरास
- मन-सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/1/14/109/3 अनिंद्रियं मन: अंतःकरणमित्यनर्थांतरम्। = अनिंद्रिय, मन और अंत:करण ये एकार्थवाची नाम हैं। ( राजवार्तिक/1/14/2/59/19 ); (न्या.द./भाष्य/1/1/9/16); ( न्यायदीपिका/2/12/33/2 )।
द्रव्यसंग्रह टीका/12/30/1 नानाविकल्पजालरूपं मनो भण्यते। = नानाप्रकार के विकल्पजाल को मन कहते हैं। ( परमात्मप्रकाश टीका/2/163/275/10 ); (तत्त्वबोध/शंकराचार्य)।
देखें संज्ञी - 1.2–(‘संज्ञ’ अर्थात् ठीक प्रकार जानना मन है।)
देखें मन:पर्यय - 3.2 (कारण में कार्य के उपचार से मतिज्ञान को मन कहते हैं।) - मन के भेद
सर्वार्थसिद्धि/2/11/170/3 मनो द्विविधं-द्रव्यमनो भावमनश्चेति। = मन दो प्रकार का है–द्रव्यमन व भावमन। ( सर्वार्थसिद्धि/5/3/269/2;5/19/287/1 ); ( राजवार्तिक/2/11/1/125/19; 5/3/3/442/9; 5/19/20/471/1 ); ( धवला 1/1,1,35/259/6 ); ( चारित्रसार/88/3 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/606/101/1062/6 )। - द्रव्यमन का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/2/11/170/1 पुद्गलविपाकिकर्मोदयापेक्षं द्रव्यमन:। सर्वार्थसिद्धि/5/3/269/4 द्रव्यमनश्च रूपादियोगात् पुद्गलद्रव्यविकार:। = द्रव्यमन पुद्गलविपाकी नामकर्म के उदय से होता है। ( राजवार्तिक/2/11/1/125/20 ); ( धवला 1/1,1,35/259/6 )–रूपादिक युक्त होने से द्रव्यमन पुद्गलद्रव्य की पर्याय है। ( राजवार्तिक/5/3/3/442/10 )। (विशेष देखें मूर्त- 2)।
गोम्मटसार जीवकांड/443/861 हिदि होदि हु दव्वमणं वियसियअट्ठच्छदारविंदं वा। अंगोवंगुदयादो मणवग्गणखंघदो णियमा। = जो हृदयस्थान में आठ पाँखुडी के कमल के आकार वाला है, तथा अंगोपांग नामकर्म के उदय से मनोवर्गणा के स्कंध से उत्पन्न हुआ है उसे द्रव्यमन कहते हैं। (वह अत्यंत सूक्ष्म तथा इंद्रियागोचर है–देखें मन - 8); ( द्रव्यसंग्रह टीका 12/30/6 ); ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/713 )। - भावमन का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/2/11/170/4 वीर्यांतरायनोइंद्रियावरणक्षयोपशमापेक्षया आत्मनो विशुद्धिर्भावमन:। सर्वार्थसिद्धि/5/3/269/3 तत्र भावमनो ज्ञानम्; तस्य जीवगुणत्वादात्मंयंतर्भाव:। सर्वार्थसिद्धि/5/19/287/1 भावमनस्तावल्लब्ध्युपयोगलक्षणम्। =- वीर्यांतराय और नोइंद्रियावरण कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा रखने वाले आत्मा की विशुद्धि को भावमन कहते हैं। ( राजवार्तिक/2/11/1/125/20 ); ( धवला 1/1,1,35/259/6 )।
- भावमन ज्ञानस्वरूप है, और ज्ञान जीव का गुण होने से उसका आत्मा में अंतर्भाव होता है । ( राजवार्तिक/5/3/3/442/9 )।
- लब्धि और उपयोग लक्षण वाला भावमन है। ( राजवार्तिक/5/19/20/471/2 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/606/1062/6 ); ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध 714 )।
- दोनों मन कथंचित् मूर्त व पुद्गल हैं–देखें मूर्त - 7।
- भावमन का विषय
धवला 6/1,1-1,14/15/11 णोइंदिए दिट्ठसुदाणुभूदत्थो णियमिदा। = मन में दृष्ट, श्रुत व अनुभूत पदार्थ नियमित हैं। ( धवला 13/5,5,28/228/15 )।
देखें मन - 1 (संकल्प–विकल्प करना मन का काम है)।
देखें मन - 10-11 (गुण-दोष विचार व स्मरणादि करना)।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/715 मूर्तामूर्तस्य वेदकं च मन:। = मन मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार के पदार्थों को विषय करने वाला है। (विशेष देखें श्रुतज्ञान - I.2)।
- मति आदि ज्ञानों में मन का निमित्त–देखें वह वह नाम।
- अपर्याप्त अवस्था में भाव मन नहीं होता।–देखें प्राण - 1.7-8
- इंद्रियों का व्यापार मन के अधीन है–देखें इंद्रिय ।
- मति आदि ज्ञानों में मन का निमित्त–देखें वह वह नाम।
- द्रव्यमन भावमन को निमित्त है
देखें मूर्त - 2 (भावमनरूप से परिणत आत्मा को गुण-दोष-विचार व स्मरणादि करने में द्रव्यमन अनुग्रहाक है।)
देखें प्राण - 1.7-8 (अपर्याप्तावस्था में द्रव्यमन का अभाव होने के कारण वहाँ मनोबल नामक प्राण (अर्थात् भावमन) भी स्वीकार नहीं किया गया है)।
देखें मन - 8/2 (इंद्रियों का व्यापार मन के अधीन है)। - मन को इंद्रिय व्यपदेश न होने में हेतु
धवला 1/1,1,35/260/5 मनस इंद्रियव्यपदेश: किन्न कृत इति चेन्न, इंद्रस्य लिंगमिंद्रियम्। ... शेषेंद्रियाणामिव बाह्येंद्रियग्राह्यत्वाभावतस्तस्येंद्रलिंगत्वानुपपत्ते:। = प्रश्न–मन को इंद्रिय संज्ञा क्यों नहीं दी गयी ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, इंद्र अर्थात् आत्मा के लिंग को इंद्रिय कहते हैं। जिस प्रकार शेष इंद्रियों का बाह्य इंद्रियों से ग्रहण होता है, उस प्रकार मन का नहीं होता है, इसलिए उसे इंद्र का लिंग नहीं कह सकते। - मन को अनिंद्रिय कहने में हेतु
सर्वार्थसिद्धि/1/14/109/3 कथं पुनरिंद्रियप्रतिषेधेन इंद्रलिंगे एव मनसि अनिंद्रियशब्दस्य वृत्ति:। ईषदर्थस्य ‘नञ:’ प्रयोगात्। ईषदिंद्रियमनिंद्रियमिति। यथा ‘अनुदरा कन्या’ इति। कथमीषदर्थ: ? इमानींद्रियाणि प्रतिनियतदेशविषयाणि कालांतरावस्थायीनि च। न तथा मन: इंद्रस्य लिंगमपि सत्प्रतिनियतदेशविषयं कालांतरावस्थायि च। = प्रश्न–अनिंद्रिय शब्द इंद्रिय का निषेधपरक है अत: इंद्र के लिंग मन में अनिंद्रिय शब्द का व्यापार कैसे हो सकता है ? उत्तर–यहाँ ‘नञ्’ का प्रयोग ‘ईषद्’ अर्थ में किया है, ईषत् इंद्रिय अनिंद्रिय। (जैसे अब्राह्मण कहने से ब्राह्मणत्व रहित किसी अन्य पुरुष का ज्ञान होता है, वैसे अनिंद्रिय कहने से इंद्रिय रहित किसी अन्य पदार्थ का बोध नहीं करना चाहिए, बल्कि– राजवार्तिक ) जैसे ‘अनुदरा कन्या’ यहाँ ‘बिना पेट वाली लड़की’ अर्थ न होकर ‘गर्भधारण आदि के अयोग्य छोटी लड़की’ ऐसा अर्थ होता है, इसी प्रकार यहाँ ‘नञ्’ का अर्थ ईषद् ग्रहण करना चाहिए। प्रश्न–अनिंद्रियों में ‘नञ्’ का ऐसा अर्थ क्यों लिया गया ? उत्तर–ये इंद्रियाँ नियत देश में स्थित पदार्थों को विषय करती हैं और कालांतर में अवस्थित रहती हैं। किंतु मन इंद्र का लिंग होता हुआ भी प्रतिनियत देश में स्थित पदार्थ को विषय नहीं करता और कालांतर में अवस्थित नहीं रहता–(विशेष देखें अगला शीर्षक ); ( राजवार्तिक/1/14/2/59/19; 2/15/3/129/18 )
राजवार्तिक/1/19-3-4/69/7 मनसोऽनिंद्रियव्यपदेशाभाव: स्वविषयग्रहणे करणांतरानपेक्षत्वाच्चक्षुर्वत्।3। न वा, अप्रत्यक्षत्वात्।4। ... सूक्ष्मद्रव्यपरिणामात् तस्मादनिंद्रियमित्युच्यते। राजवार्तिक/2/15/4/129/29 चक्षुरादीनां रूपादिविषयोपयोगपरिणामात् प्राक् मनसो व्यापार:। कथम्। शुक्लादिरूपं दिदृक्षु प्रथमं मनसोपयोगं करोति ‘एवंविधरूपं पश्यामि रसमास्वादयामि’ इति, ततस्तद्बलाधानीकृत्य चक्षुरादीनि विषयेषु व्याप्रियंते। ततश्चास्यानिंद्रियत्वम्। = प्रश्न–मन अपने विचारात्मक कार्य में किसी अन्य इंद्रिय की सहायता की अपेक्षा नहीं करता, अत: उसे चक्षु इंद्रिय की तरह इंद्रिय ही कहना चाहिए अनिंद्रिय नहीं। उत्तर–1. सूक्ष्म द्रव्य की पर्याय होने के कारण वह अन्य इंद्रियों की भाँति प्रत्यक्ष व व्यक्त नहीं है, इसलिए अनिंद्रिय है। ( गोम्मटसार जीवकांड 444/862 )। (देखें मन - 7)। 2. चक्षु आदि इंद्रियों के रूपादि विषयों में उपयोग करने से पहले मन का व्यापार होता है। वह ऐसे कि–‘मैं शुक्लादि रूप को देखूँ’ ऐसे पहले मन का उपयोग करता है। पीछे उसको निमित्त बनाकर ‘मैं इस प्रकार का रूप देखता हूँ या रस का आस्वादन करता हूँ’ इस प्रकार से चक्षु आदि इंद्रियाँ अपने विषयों में व्यापार करती हैं। इसलिए इसको अनिंद्रियपना प्राप्त है।
- द्रव्य व भाव मन का कथंचित् अवस्थायी व अनवस्थायीपना
राजवार्तिक/5/19/6/468/30 स्यान्मतम्–यथा चक्षुरादि व्यपदेशभाज आत्मप्रदेशा अवस्थिता नियतदेशत्वात् न तथा मनोऽवस्थितमस्ति, अतएव तदनिंद्रियमित्युच्यते, ततोऽस्य न पृथग्ग्रहणमिति; तन्न; किं कारणम्। अनवस्थानेऽपि तन्निमित्तत्वात्। यत्र यत्र प्रणिधानं तत्र तत्र आत्मप्रदेशा अंगुलासंख्येभागप्रमिता मनो व्यपदेशभाज:। राजवार्तिक/5/19/22-23/471/11 स्यादेतत्–अस्थायि मन:, न तस्य निवृत्तिरिति; तन्न; किं कारणम्। अनंतरसमयप्रच्युते:। मनस्त्वेन हि परिणता: पुद्गला: गुणदोषविचारस्मरणादिकार्य कृत्वा तदनंतरसमय एव मनस्त्वात् प्रच्यवंते। नायमेकांत:–अवस्थायैव मन: इति। कुत:। ... द्रव्यार्थादेशान्मन: स्यादवस्थायि, पर्यायार्थादेशात् स्यादनवस्थायि। = चक्षु आदि इंद्रियों के आत्मप्रदेश नियत देश में अवस्थित हैं, उस तरह मन के नहीं है, इसलिए उसे अनिंद्रिय भी कहते हैं और इसीलिए उसका पृथक् ग्रहण ही किया गया है। उत्तर–यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, अनवस्थित होने पर भी वह क्षयोपशमनिमित्तक तो है ही । जहाँ-जहाँ उपयोग होता है, वहाँ-वहाँ के अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण आत्मप्रदेश मन के रूप से परिणत हो जाते हैं।
प्रश्न–मन अवस्थायी है, इसलिए उसकी (उपरोक्त प्रकार) निवृत्ति नहीं हो सकती। उत्तर–नहीं, क्योंकि, जो पुद्गल मनरूप से परिणत हुए थे उनकी मनरूपता गुणदोष-विचार और स्मरण आदि कार्य कर लेने पर, अनंतर समय में नष्ट हो जाती है, आगे वे मन नहीं रहते। यहाँ यह एकांत भी नहीं समझना चाहिए कि मन अवस्थायी ही है। द्रव्यार्थिकनय से वह कथंचित् अवस्थायी और पर्यायार्थिक नय से अनवस्थायी। (जन्म से मरण पर्यंत जीव का क्षयोपशमरूप सामान्य भावमन तथा कमलाकार द्रव्यमन वह के वह ही रहते हैं, इसलिए वे अवस्थायी हैं, और प्रत्येक उपयोग के साथ विवक्षित आत्मप्रदेशों में ही भावमन की निर्वृति होती है तथा उस द्रव्यमन को मनपना प्राप्त होता है, जो उपयोग अनंतर समय में ही नष्ट हो जाता है, इसलिए वे दोनों अनवस्थायी हैं)। - मन को अंत:करण कहने में हेतु
सर्वार्थसिद्धि/1/14/109/8 तदंत:करणमिति चोच्यते। गुणदोषविचारस्मरणादिव्यापारे इंद्रियानपेक्षत्वाच्चक्षुरादिवत् वहिरनुपलब्धेश्च अंतर्गतं करणमंत:करणमित्युच्यते। = इसे गुण और दोषों के विचार और स्मरण करने आदि कार्यों में इंद्रियों की अपेक्षा नहीं लेनी पड़ती, तथा, चक्षु आदि इंद्रियों के समान इसकी बाहर में उपलब्धि भी नहीं होती, इसलिए यह अंतर्गत करण होने से अंत:करण कहलाता है। ( राजवार्तिक/1/14/3/59/26; 5/19/31/472/31 )। - भावमन के अस्तित्व की सिद्धि
राजवार्तिक/1/19/5-7/69/12 अज्ञाह कथमवगम्यते अप्रत्यक्षं तद् ‘अस्ति’ इति। अनुमानत्तस्याधिगम:।5।...कोऽसावनुमान:। युगपज्ज्ञानक्रियानुत्पत्तिर्मनसो हेतु:।6। ...अनुस्मरणदर्शनाच्च।7। राजवार्तिक/5/19/31/472/28 पृथगुपकारानुपलंभात् तदभाव इति चेत्; न गुणदोषविचारादिदर्शनात्।31। = प्रश्न–मन यदि अप्रत्यक्ष है तो उसका ग्रहण कैसे हो सकता है ? उत्तर–अनुमान से उसका अधिगम होता है। प्रश्न–यह अनुमान क्या है ? उत्तर–इंद्रियाँ व उनके विषयभूत पदार्थों के होने पर भी जिसके न होने से युगपत् ज्ञान और क्रियाएँ नहीं होतीं, वही मन है। मन जिस-जिस इंद्रिय को सहायता करता है उसी-उसी के द्वारा क्रमश: ज्ञान और क्रिया होती है। ( न्यायदर्शन सूत्र/1/1/16 ) तथा जिसके द्वारा देखे या सुने गये पदार्थों का स्मरण होता है, वह मन है।
प्रश्न–मन का कोई पृथक् कार्य नहीं देखा जाता इसलिए उसका अभाव है। उत्तर–नहीं, क्योंकि, गुण-दोषों का विचार व स्मरण आदि देखे जाते हैं। वे मन के ही कार्य हैं। - वैशेषिक-मान्य स्वतंत्र ‘मन’ का निरास
सर्वार्थसिद्धि/5/11/287/4 कश्चिदाह मनो द्रव्यांतरं रूपादिपरिणामरहितमणुमात्रं तस्य पौद्गलकित्वमयुक्तमिति। तदयुक्तम्। कथम्। उच्यते–तदिंद्रियेणात्मना च संबद्धं वा स्यादसंबद्धं वा। यद्यसंबद्धम्, तथात्मन उपकारकं भवितुमर्हति इंद्रियस्य च साचिव्यं न करोति। अथ संबद्धम्, एकस्मिन्प्रदेशे संबद्धं सत्तदणु इतरेषु प्रदेशेषु उपकारं न कुर्यात्। अदृष्टवशादस्य अलातचक्रवत्परिभ्रमणमिति चेत्। न: तत्सामर्थ्याभावात्। अमूर्त्तस्यात्मनो निष्क्रियस्यादृष्टो गुणः, स निष्क्रिय: सन्नन्यत्र क्रियारंभे न समर्थ:। = प्रश्न–(वैशेषिक मत का कहना है कि) मन एक स्वतंत्र द्रव्य है। वह रूपादिरूप परिणमन से रहित है, और अणुमात्र है, इसलिए उसे पौद्गलिक मानना अयुक्त है। उत्तर–यह कहना अयुक्त है। वह इस प्रकार कि–मन आत्मा और इंद्रियों से संबद्ध है या असंबद्ध। यदि असंबद्ध है तो वह आत्मा का उपकारक नहीं हो सकता और इंद्रियों की सहायता भी नहीं कर सकता। यदि संबद्ध है तो जिस प्रदेश में वह अणुमन संबद्ध है, उस प्रदेश को छोड़कर इतर प्रदेशों का उपकार नहीं कर सकता। प्रश्न–अदृष्ट नामक गुण के वश से यह मन अलातचक्रवत् सर्व प्रदेशों में घूमता रहता है। उत्तर–नहीं, क्योंकि अदृष्ट नाम के गुण में इस प्रकार की सामर्थ्य नहीं पायी जाती। यत: अमूर्त्त और निष्क्रिय आत्मा का अदृष्ट गुण है। अत: यह गुण भी निष्क्रिय है, इसलएि अन्यत्र क्रिया का आरंभ करने में असमर्थ है। ( राजवार्तिक/5/19/24-26/472/1 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/606/1062/7 )।
राजवार्तिक/5/19/24/472/16 स्यादेतत्–एकद्रव्यं मन: प्रत्यात्मं वर्तते इति। ... तन्न; किं कारणम्। .... परमाणुमात्रत्वात्। ... तत्रेदं विचार्यते–तत् आत्मेंद्रियाभ्यां सर्वात्मना वा संबंध्येत्, तदेकदेशेन वा। यदि सर्वात्मना; तयोरात्मेंद्रिययोरर्थांतरभावात् व्यतिरिक्तयोरन्यतरेण सर्वात्मना संबंध: स्यात् अणोर्मनस: नोभयाभ्यां युगपत् विरोधात्। अथान्येन देशेन आत्मना संबध्यते अन्येन देशेनेंद्रियेण; एवं सति प्रदेशवत्त्वं मनस: प्रसक्तम्। ... किंच यद्यात्मा मनसा सर्वात्मना संबध्यते; मनसोऽणुत्वात् आत्मनोऽप्यणुत्वम्, आत्मनो विभुत्वात् मनसो वा विभुत्वं प्रसज्यते। अथैकदेशेनात्मा मनसा संयुज्यते, ननु प्रदेशवत्त्वमात्मन: प्रसक्तम्। ... प्रदेशवृत्तित्वात् आत्मन: कश्चित् प्रदेशो ज्ञानादियुक्त: कश्चित् प्रदेशो ज्ञानादिविरहित इति। ... तथेंद्रियेण मनो यदि सर्वात्मना संयुज्यते; इंद्रियस्याणुमात्रत्वं मनसो वेंद्रियमात्रत्वांनाणुत्वम्। अथैकदेशेन मन इंद्रियेण संयुज्यते, न तर्हि अणु तत्।... अथ संयोगविभागाभ्यां मन: परिणमते; न तर्हि नित्यम्। ... अचेतनत्वाच्च मनस: अनेनैव इंद्रियेणानेनैव चात्मना संयोक्तव्यं नेंद्रियांतरैर्न चात्मांतरैरिति ...। कर्मवदिति चेत्; न; ... कर्मण: स्याच्चैतन्यम् ... स्यादचेतनत्वमिति विषमो दृष्टांत:। = प्रश्न–मन अणुरूप एक स्वतंत्र द्रव्य है, जो प्रत्येक आत्मा से एक-एक संबद्ध है। उत्तर–- नहीं, क्योंकि, अणुरूप होता हुआ वह सर्वात्मना तो इंद्रिय व आत्मा दोनों से युगपत् जुड़ नहीं सकता। भिन्न-भिन्न देशों से उन दोनों के साथ संबंध मानने पर मन को प्रदेशवत्व प्राप्त होता है।–
- आत्मा मन के साथ सर्वात्मना संबद्ध होने पर या तो आत्मा अणुरूप हो जायेगा और या मन विभु बन जायेगा। और एक देशेन संबद्ध होने पर आत्मा को प्रदेशवत्व प्राप्त होता है। और ऐसी अवस्था में वह किन्हीं प्रदेशों में तो ज्ञानसहित रहेगा और किन्हीं प्रदेशों में ज्ञानरहित।
- इसी प्रकार इंद्रियाँ मन के साथ सर्वात्मना संबंध होने पर या तो इंद्रिय अणुमात्र हो जायेगी और या मन इंद्रियप्रमाण हो जायेगा। और एकदेशेन संबद्ध होने पर वह मन अणुमात्र न रह सकेगा।
- संयोग विभाग के द्वारा मन का परिणमन होने से वह नित्य न हो सकेगा।
- अचेतन होने के कारण मन को यह विवेक कैसे हो सकेगा कि अमुक इंद्रिय या आत्मा के साथ ही संयुक्त होता है, अन्य के साथ नहीं। यहाँ जैनियों के कर्म का दृष्टांत देना विषमदृष्टांत है, क्योंकि उनके द्वारा मान्य वह कर्म सर्वथा अचेतन नहीं है, बल्कि कथंचित् चेतन व कथंचित् अचेतन है।
- बौद्ध व सांख्यमान्य मन का निरास
राजवार्तिक/5/11/32-34/472/33 विज्ञानमिति चेत्; न; तत्सामर्थ्याभावात्।32। ... वर्तमानं तावद्विज्ञानं क्षणिकं पूर्वोत्तरविज्ञानसंबंधनिरुत्सुकं कथं गुणदोषविचारस्मरणादिव्यापारे साचिव्यं कुर्यात्। ... एकसंतानमतित्वात् तदुपपत्तिरिति चेत्; न; तदवस्तुत्वात्। ... प्रधानविकार इति चेत्; न; अचेतनत्वात्।33। तदव्यतिरेकात्तदभाव:।34। = प्रश्न–(बौद्ध) विज्ञान ही मन है और इसके अतिरिक्त कोई पौद्गलिक मन नहीं है। उत्तर–नहीं, क्योंकि, वर्तमानमात्र तथा पूर्व व उत्तर विज्ञान के संबंध में निरुत्सुक उस क्षणिक विज्ञान में गुणदोष-विचार व स्मरणादि व्यापार के साचिव्य की सामर्थ्य नहीं है। एक संतान के द्वारा उसकी उपपत्ति मानना भी नहीं बनता क्योंकि संतान अवस्तु है। प्रश्न–(सांख्य) प्रधान का विकार ही मन है, उससे अतिरिक्त कोई पौद्गलिक मन नहीं है। उत्तर–नहीं, क्योंकि, एक तो प्रधान अचेतन है और दूसरे उससे अभिन्न होने के कारण उसका अभाव है।
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पुराणकोष से
एक आभ्यंतर इंद्रिय । यह अपने विषयमार्ग में मदोन्मत्त हाथी के समान भ्रमणशील होती है । ज्ञानी और विरक्त पुरुष ही इसे वश में कर पाते हैं । पद्मपुराण - 39.122