क्षीणकषाय: Difference between revisions
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1" id="1"> क्षीण कषाय गुणस्थान का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/25-26 </span></strong> <span class="PrakritGatha">णिस्सेसखीणमोहो फलिहामलभायणुदयसमचित्तो। खीणकसाओ भण्णइ णिग्गंथो वीयराएहिं।25। जह सुद्धफलिहभायणखित्तं णीरं खु णिम्मलं सुद्धं। तह णिम्मलपरिणामो खीणकसाओ मुणेयव्वो।26।</span>=<span class="HindiText">मोह कर्म के नि:शेष क्षीण हो जाने से जिसका चित्त स्फटिक के निर्मल भाजन में रक्खे हुए सलिल के समान स्वच्छ हो गया है, ऐसे निर्ग्रंथ साधु को वीतरागियों ने क्षीणकषाय संयत कहा है। जिस प्रकार निर्मली आदि से स्वच्छ किया हुआ जल शुद्ध-स्वच्छ स्फटिकमणि के भाजन में नितरा लेने पर सर्वथा निर्मल एवं शुद्ध होता है, उसी प्रकार क्षीणकषाय संयत को भी निर्मल, स्वच्छ एवं शुद्ध परिणाम वाला जानना चाहिए।25-26। <span class="GRef">( धवला 1/1,1,21/123/190 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/62 )</span>; (पं.सं.सं./1/48)। </span><br /> | <strong><span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/25-26 </span></strong> <span class="PrakritGatha">णिस्सेसखीणमोहो फलिहामलभायणुदयसमचित्तो। खीणकसाओ भण्णइ णिग्गंथो वीयराएहिं।25। जह सुद्धफलिहभायणखित्तं णीरं खु णिम्मलं सुद्धं। तह णिम्मलपरिणामो खीणकसाओ मुणेयव्वो।26।</span>=<span class="HindiText">मोह कर्म के नि:शेष क्षीण हो जाने से जिसका चित्त स्फटिक के निर्मल भाजन में रक्खे हुए सलिल के समान स्वच्छ हो गया है, ऐसे निर्ग्रंथ साधु को वीतरागियों ने क्षीणकषाय संयत कहा है। जिस प्रकार निर्मली आदि से स्वच्छ किया हुआ जल शुद्ध-स्वच्छ स्फटिकमणि के भाजन में नितरा लेने पर सर्वथा निर्मल एवं शुद्ध होता है, उसी प्रकार क्षीणकषाय संयत को भी निर्मल, स्वच्छ एवं शुद्ध परिणाम वाला जानना चाहिए।25-26। <span class="GRef">( धवला 1/1,1,21/123/190 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/62 )</span>; (पं.सं.सं./1/48)। </span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> राजवार्तिक/9/1/22/590 </span></strong> <span class="SanskritText">सर्वस्य...क्षपणाच्च...क्षीणकषाय:।</span>=<span class="HindiText">समस्त मोह का क्षय करने वाला क्षीणकषाय होता है।</span><br /> | <strong><span class="GRef"> राजवार्तिक/9/1/22/590 </span></strong> <span class="SanskritText">सर्वस्य...क्षपणाच्च...क्षीणकषाय:।</span>=<span class="HindiText">समस्त मोह का क्षय करने वाला क्षीणकषाय होता है।</span><br /> | ||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<span class="HindiText"> बारहवां गुणस्थान । इसमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अमराय कर्म का क्षय हो जाता है । <span class="GRef"> महापुराण 20.262, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 3.83 </span> | <span class="HindiText"> बारहवां गुणस्थान । इसमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अमराय कर्म का क्षय हो जाता है । <span class="GRef"> महापुराण 20.262, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_3#83|हरिवंशपुराण - 3.83]] </span> | ||
Latest revision as of 14:41, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
- क्षीण कषाय गुणस्थान का लक्षण
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/25-26 णिस्सेसखीणमोहो फलिहामलभायणुदयसमचित्तो। खीणकसाओ भण्णइ णिग्गंथो वीयराएहिं।25। जह सुद्धफलिहभायणखित्तं णीरं खु णिम्मलं सुद्धं। तह णिम्मलपरिणामो खीणकसाओ मुणेयव्वो।26।=मोह कर्म के नि:शेष क्षीण हो जाने से जिसका चित्त स्फटिक के निर्मल भाजन में रक्खे हुए सलिल के समान स्वच्छ हो गया है, ऐसे निर्ग्रंथ साधु को वीतरागियों ने क्षीणकषाय संयत कहा है। जिस प्रकार निर्मली आदि से स्वच्छ किया हुआ जल शुद्ध-स्वच्छ स्फटिकमणि के भाजन में नितरा लेने पर सर्वथा निर्मल एवं शुद्ध होता है, उसी प्रकार क्षीणकषाय संयत को भी निर्मल, स्वच्छ एवं शुद्ध परिणाम वाला जानना चाहिए।25-26। ( धवला 1/1,1,21/123/190 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/62 ); (पं.सं.सं./1/48)।
राजवार्तिक/9/1/22/590 सर्वस्य...क्षपणाच्च...क्षीणकषाय:।=समस्त मोह का क्षय करने वाला क्षीणकषाय होता है।
धवला 1/1,1,20/189/8 क्षीण: कषायो येषां ते क्षीणकषाया:। क्षीणकषायाश्च ते वीतरागाश्च क्षीणकषायवीतरागा:। छद्मनि आवरणे तिष्ठंतीति छद्मस्था:। क्षीणकषायवीतरागाश्च ते छद्मस्थाश्च क्षीणकषायवीतरागछद्मस्था:।=जिनकी कषाय क्षीण हो गयी है उन्हें क्षीणकषाय कहते हैं। जो क्षीणकषाय होते हुए वीतराग होते हैं उन्हें क्षीणकषाय-वीतराग कहते हैं। जो छद्म अर्थात् ज्ञानावरण और दर्शनावरण में रहते हैं उन्हें छद्मस्थ कहते हैं। जो क्षीणकषाय वीतराग होते हुए छद्मस्थ होते हैं उन्हें क्षीणकषाय-वीतराग छद्मस्थ कहते हैं।
द्रव्यसंग्रह टीका/13/35/9 उपशमश्रेणिविलक्षणेन क्षपकश्रेणिमार्गेण निष्कषायशुद्धात्मभावनाबलेन क्षीणकषाया द्वादशगुणस्थानवर्तिनो भवंति।=उपशम श्रेणी से भिन्न क्षपक श्रेणी के मार्ग से कषाय रहित शुद्धात्मा की भावना के बल से जिनके समस्त कषाय नष्ट हो गये हैं वे बारहवें गुणस्थानवर्ती होते हैं।
- सम्यक्त्व व चारित्र दोनों की अपेक्षा इसमें क्षायिक भाव है
धवला/1/1,1,20/190/4 पंचसु गुणेषु कस्मादस्य प्रादुर्भाव इति चेद् द्रव्यभावद्वैविध्यादुभयात्मकमोहनीयस्य निरन्वयविनाशात्क्षायिक गुणनिबंधन:। =प्रश्न—पाँच प्रकार के भावों में से किस भाव से इस गुणस्थान की उत्पत्ति होती है? उत्तर—मोहनीयकर्म के दो भेद हैं—द्रव्यमोहनीय और भावमोहनीय। इस गुणस्थान के पहले दोनों प्रकार के मोहनीयकर्म का निरन्वय (सर्वथा) नाश हो जाता है, अतएव इस गुणस्थान की उत्पत्ति क्षायिक गुण से है।
- शुभ प्रकृतियों का अनुभाग घात नहीं होता
धवला 12/4,2,7,14/18/2 खीणकसाय-सजोगीसु ट्ठिदि-अणुभागघादेसु संतेसु वि सुहाणं पयडीणं अणुभागघादो णत्थि त्ति सिद्धे।=क्षीणकषाय और सयोगी गुणस्थानों में स्थिति घात व अनुभाग घात होने पर भी शुभ प्रकृतियों के अनुभाग का घात वहाँ नहीं होता।
- क्षीणकषाय गुणस्थानों में जीवों का शरीर निगोद राशि से शून्य हो जाता है
षट्खंडागम/14/5-6/362/487 सव्वुक्कस्सियाए गुणसेडीए मरणेण मदाण सत्वचिरेण कालेण णिल्लेविज्जमाणाणं तेसिं चरिमसमए मदावसिट्ठाणं आवलियाए अखंखेज्जदिभागमेत्तो णिगोदाणं।632।
धवला 14/5,6,93/85/1 खीणकसायस्स पढमसमए अणंता बादरनिगोदजीवा मरंति।...विदियसमए विसेसाहिया जीवा मरंति...एवं तदियसमयादिसु विसेसाहिया विसेसाहिया मरंति जाव खीणकसायद्धाएपढमसमयप्पहुडिं आवलियपुधत्तं गदं त्ति। तेण परं संखेज्जदि भागव्भहिया संखेज्जदि भागव्भहिया मरंति जाव खीणकसायद्धाए आवलियाए असंखेज्जदि भागो सेसो त्ति। तदो उवरिमाणंतरसमए असंखेज्जगुणा मरंति एवं असंखेज्जगुणा असंखेज्जगुणा मरंति जाव खीणकसायचरिमसमओ त्ति।...एवमुवरिं पि जाणिदूण वत्तव्वं जाव खीणकसायचरिमसमओ त्ति।=1. सर्वोत्कृष्ट गुणश्रेणि द्वारा मरण से मरे हुए तथा सबसे दीर्घकाल के द्वारा निर्लेप्य होने वाले उन जीवों के अंतिम समय में मृत होने से बचे हुए निगोदों का प्रमाण आवलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण है।362। 2. क्षीणकषाय हुए जीव के प्रथम समय में अनंत बादर निगोद जीव मरते हैं। दूसरे समय में विशेष अधिक जीव मरते हैं।...इसी प्रकार तीसरे आदि समयों विशेष अधिक विशेष अधिक जीव मरते हैं। यह क्रम क्षीणकषाय के प्रथम समय से लेकर आवलि पृथक्त्व काल तक चालू रहता है। इसके आगे संख्यात भाग अधिक संख्यात भाग अधिक जीव मरते हैं। और यह क्रम क्षीणकषाय के काल में आवलि का संख्यातवाँ भाग काल शेष रहने तक चालू रहता है। इसके आगे के लगे हुए समय में असंख्यात गुणे जीव मरते हैं। इस प्रकार क्षीण कषाय के अंतिम समय तक असंख्यातगुणे जीव मरते हैं।...इसी प्रकार आगे भी क्षीणकषाय के अंतिम समय तक जानकर कथन करना चाहिए। ( धवला 14/5,6/632/482/10 )।
धवला 14/5,6,93/91/1 संपहि खीणकसायपढमसमयप्पहुडि ताव बादरणिगोदजीवा उप्पज्जंति जाव तेसिं चेव जहण्णाउवकालो सेसो त्ति। तेण परं ण उप्पज्जंति। कुदो। उप्पण्णाणं जीवणीयकालाभावादो। तेण कारणेण बादरणिगोदजीवा एतो प्पहुडि जाव खीणकसायचरिमसमओ ति ताव सुद्धा मरंति चेव।
धवला 14/5,6,116/138/3 खीणकसायपाओग्गबादरणिगोदवग्गणाणं सव्वकालमवट्ठाणाभावादो। भावे वा ण कस्स वि विव्वुई होज्ज; खीणकसायम्मि बादरणिगोदवग्गणाए संतीए केवलणाणुप्पत्तिविरोहादो।=1. क्षीणकषाय के प्रथम समय से लेकर बादर निगोद जीव तब तक उत्पन्न होते हैं जब तक क्षीणकषाय के काल में उनका जघन्य आयु का काल शेष रहता है। इसके बाद नहीं उत्पन्न होते; क्योंकि उत्पन्न होने पर उनके जीवित रहने का काल नहीं रहता, इसलिए बादरनिगोदजीव यहाँ से लेकर क्षीणकषाय के अंतिम समय तक केवल मरते ही हैं। 2. क्षीणकषाय प्रायोग्य बादरनिगोदवर्गणाओं का सर्वदा अवस्थान नहीं पाया जाता। यदि उनका अवस्थान होता है तो किसी भी जीव को मोक्ष नहीं हो सकता है, क्योंकि क्षीण कषाय में बादर निगोदवर्गणा के रहते हुए केवलज्ञान की उत्पत्ति होने में विरोध है।
- हिंसा होते हुए भी महाव्रती कैसे हो सकते हैं
धवला 14/5,6,92/89/9 किमट्ठमेदे एत्थ मरंति ? ज्झाणेण णिगोदजीवुप्पत्तिट्ठिदिकारणणिरोहादो। ज्झाणेण अणंताणंतजीवरासिणिहंताणं कथंणिव्वुई। अप्पमादादो...तं करेंताणं कथमहिंसालक्खणपंचमहव्वयसंभवो। ण, बहिरंगहिंसाए आसवत्ताभावादो।=प्रश्न—ये निगोद जीव यहाँ क्यों मरण को प्राप्त होते हैं? उत्तर—क्योंकि ध्यान से निगोदजीवों की उत्पत्ति और उनकी स्थिति के कारण का निरोध हो जाता है। प्रश्न—ध्यान के द्वारा अनंतानंत जीवराशि का हनन करने वाले जीवों को निर्वृत्ति कैसे मिल सकती है। उत्तर—अप्रमाद होने से। प्रश्न—हिंसा करने वाले जीवों के अहिंसा लक्षण पाँच महाव्रत (आदिरूप अप्रमाद) कैसे हो सकता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि बहिरंग हिंसा से, आस्रव नहीं होता।
- अन्य संबंधित विषय
- क्षपक श्रेणी–देखें श्रेणी - 2।
- इस गुणस्थान में योग की संभावना व तत्संबंधी शंका-समाधान—देखें योग - 4।
- इस गुणस्थान के स्वामित्व संबंधी जीवसमास, मार्गणास्थानादि 20 प्ररूपणाएँ—देखें सत् ।
- इस गुणस्थान संबंधी सत् (अस्तित्व) संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ—देखें वह वह नाम ।
- इस गुणस्थान में प्रकृतियों का बंध, उदय व सत्त्व।–देखें वह वह नाम ।
- सभी मार्गणास्थानों में आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम—देखें मार्गणा ।
पुराणकोष से
बारहवां गुणस्थान । इसमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अमराय कर्म का क्षय हो जाता है । महापुराण 20.262, हरिवंशपुराण - 3.83