घनोदधि वात: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p> लोक को सब ओर से घेरकर स्थित वायु के वलय को वातवलय कहते हैं। ये तीन होते हैं― घनोदधि, घनवात और तनुवात । इनमें घनोदधि गोमूत्र के वर्ण समान, घनवात मूंगवर्ण के समान और तनुवात परस्पर मिले हुए अनेक वर्णों वाला है । ये तीनों दंडाकार लंबे, घनीभूत, ऊपर नीचे तथा चारों ओर लोक में स्थित हैं । <br> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> लोक को सब ओर से घेरकर स्थित वायु के वलय को वातवलय कहते हैं। ये तीन होते हैं― घनोदधि, घनवात और तनुवात । इनमें घनोदधि गोमूत्र के वर्ण समान, घनवात मूंगवर्ण के समान और तनुवात परस्पर मिले हुए अनेक वर्णों वाला है । ये तीनों दंडाकार लंबे, घनीभूत, ऊपर नीचे तथा चारों ओर लोक में स्थित हैं । <br> | ||
अधोलोक में ये बीस-बीस हजार योजन और ऊर्ध्वलोक में कुछ कम एक योजन विस्तार वाले हैं । ऊर्ध्वलोक में जब ये दंडाकार नहीं रह जाते तब क्रमश: सात, पाँच और चार योजन विस्तार वाले रह जाते हैं । मध्यलोक के पास इनका विस्तार पाँच, चार और तीन योजन रह जाता है और पांचवें स्वर्ग के अंत में ये क्रमश: सात, पाँच और चार योजन विस्तृत हो जाते हे । मोक्षस्थल के समीप तो ये क्रमश: पांच, चार और तीन योजन विस्तृत रह जाते हैं । लोक के ऊपर <b>घनोदधि वातवलय</b> इससे आधा (एक कोस) और तनुवातवलय इससे कुछ कम पंद्रह से पचहत्तर धनुष प्रमाण विस्तृत है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 4. 33-41 </span></p> | अधोलोक में ये बीस-बीस हजार योजन और ऊर्ध्वलोक में कुछ कम एक योजन विस्तार वाले हैं । ऊर्ध्वलोक में जब ये दंडाकार नहीं रह जाते तब क्रमश: सात, पाँच और चार योजन विस्तार वाले रह जाते हैं । मध्यलोक के पास इनका विस्तार पाँच, चार और तीन योजन रह जाता है और पांचवें स्वर्ग के अंत में ये क्रमश: सात, पाँच और चार योजन विस्तृत हो जाते हे । मोक्षस्थल के समीप तो ये क्रमश: पांच, चार और तीन योजन विस्तृत रह जाते हैं । लोक के ऊपर <b>घनोदधि वातवलय</b> इससे आधा (एक कोस) और तनुवातवलय इससे कुछ कम पंद्रह से पचहत्तर धनुष प्रमाण विस्तृत है । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_4#33|हरिवंशपुराण - 4.33-41]] </span></p> | ||
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Latest revision as of 14:41, 27 November 2023
लोक को सब ओर से घेरकर स्थित वायु के वलय को वातवलय कहते हैं। ये तीन होते हैं― घनोदधि, घनवात और तनुवात । इनमें घनोदधि गोमूत्र के वर्ण समान, घनवात मूंगवर्ण के समान और तनुवात परस्पर मिले हुए अनेक वर्णों वाला है । ये तीनों दंडाकार लंबे, घनीभूत, ऊपर नीचे तथा चारों ओर लोक में स्थित हैं ।
अधोलोक में ये बीस-बीस हजार योजन और ऊर्ध्वलोक में कुछ कम एक योजन विस्तार वाले हैं । ऊर्ध्वलोक में जब ये दंडाकार नहीं रह जाते तब क्रमश: सात, पाँच और चार योजन विस्तार वाले रह जाते हैं । मध्यलोक के पास इनका विस्तार पाँच, चार और तीन योजन रह जाता है और पांचवें स्वर्ग के अंत में ये क्रमश: सात, पाँच और चार योजन विस्तृत हो जाते हे । मोक्षस्थल के समीप तो ये क्रमश: पांच, चार और तीन योजन विस्तृत रह जाते हैं । लोक के ऊपर घनोदधि वातवलय इससे आधा (एक कोस) और तनुवातवलय इससे कुछ कम पंद्रह से पचहत्तर धनुष प्रमाण विस्तृत है । हरिवंशपुराण - 4.33-41
देखें वातवलय ।