चरम: Difference between revisions
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2">चरमोत्तम देह </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/53/201/4 </span><span class="SanskritText">चरमशब्दोऽंत्यवाचो। उत्तम उत्कृष्ट:। चरमउत्तमो देहो येषां ते चरमोत्तमदेहा:। परीतसंसारास्तज्जन्मनिर्वाणार्हा इत्यर्थ:।</span>=<span class="HindiText">चरम शब्द अंत्यवाची है। उत्तम शब्द का अर्थ उत्कृष्ट है। जिनका शरीर चरम और उत्तम है वे चरमोत्तम देहवाले कहे जाते हैं। जिनका संसार निकट है अर्थात् उसी भव में मोक्ष को प्राप्त होने वाले जीव चरमोत्तम देहवाले कहलाते हैं। <span class="GRef">( राजवार्तिक/2/53/2/157/15 )</span>। <br /> | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/53/201/4 </span><span class="SanskritText">चरमशब्दोऽंत्यवाचो। उत्तम उत्कृष्ट:। चरमउत्तमो देहो येषां ते चरमोत्तमदेहा:। परीतसंसारास्तज्जन्मनिर्वाणार्हा इत्यर्थ:।</span>=<span class="HindiText">चरम शब्द अंत्यवाची है। उत्तम शब्द का अर्थ उत्कृष्ट है। जिनका शरीर चरम और उत्तम है वे चरमोत्तम देहवाले कहे जाते हैं। जिनका संसार निकट है अर्थात् उसी भव में मोक्ष को प्राप्त होने वाले जीव चरमोत्तम देहवाले कहलाते हैं। <span class="GRef">( राजवार्तिक/2/53/2/157/15 )</span>। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2"> द्विचरम देह</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/4/26/2-5/244/20 </span><span class="SanskritText">चरमशब्द उक्तार्थ:। द्वौ चरमौ देहौ येषां ते द्विचरमा:, तेषां भावो द्विचरमत्वम् । एतंमनुष्यदेहद्वयापेक्षमवगंतव्यम् । विजयादिभ्य: च्युता अप्रतिपतितसम्यक्त्वा मनुष्येषूत्पद्यसंयममाराध्य पुनर्विजयादिषूत्पद्य च्युता मनुष्यभवमवाप्य सिद्धयंति इति द्विचरमदेहत्वम् । कुत: पुन: मनुष्यदेहस्य चरमत्वमिति चेत् । उच्चते।2। यतो मनुष्यभवाप्य देवनारकतैर्यग्योना: सिध्यंति न तेभ्य एवेति मनुष्यदेहस्य चरमत्वम् ।3। स्यान्मतम्-एकस्य भवस्य चरमत्वम् अंत्यत्वात्, न द्वयोस्ततो द्विचरमत्वमयुक्तमिति; तन्न; किं कारणम्; औपचारिकत्वात् । येन देहेन साक्षान्मोक्षोऽवाप्यते स मुख्यश्चरम: तस्य प्रत्यासन्नो मनुष्यभव: तत्प्रत्यासत्तेश्चरम इत्युपचर्यते।5। स्यान्मतम्-विजयादिषु द्विचरमत्वमार्षविरोधि। कुत:। त्रिचरमत्वात् ।...सर्वार्थसिद्धा: च्युता मनुष्येषूत्पद्य तेनैव भवेन सिध्यंतीति, न लौकांतिकवदेकभविका एवेति विजयादिषु द्विचरमत्वं नार्षविरोधि, कल्पांतरोत्पत्त्यनपेक्षत्वात्, प्रश्नस्येति।5।</span>=<span class="HindiText">चरम का अर्थ कह दिया गया है अर्थात् अंतिम। दो अंतिम देह हों सो द्विचरम है। दो मनुष्य देहों की अपेक्षा यहाँ द्विचरमत्व समझना चाहिए, विजयादि विमानों से च्युत सम्यक्त्व छूटे बिना मनुष्यों में उत्पन्न हो, संयम धार पुन: विजयादि विमानों में उत्पन्न हो, वहाँ से चयकर पुन: मनुष्यभव प्राप्त कर मुक्त होते हैं, ऐसा द्विचरम देहत्व का अर्थ है। <strong>प्रश्न</strong>–मनुष्य देह के ही चरमपना कैसे है? <strong>उत्तर</strong>–क्योंकि तीनों गति के जीव मनुष्यभव को पाकर ही मुक्त होते हैं, उन उन भवों से नहीं, इसलिए मनुष्यभव के द्विचरमपना है। <strong>प्रश्न</strong>–चरम शब्द अंत्यवाची है इसलिए एक ही भव चरम हो सकता है दो नहीं, इसलिए द्विचरमत्व कहना युक्त नहीं है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, यहाँ उपचार से द्विचरमत्व कहा गया है। चरम के पास में अव्यवहित पूर्व का मनुष्यभव भी उपचार से चरम कहा जा सकता है। <strong>प्रश्न</strong>–विजयादिकों में द्विचरमत्व कहने में आर्ष विरोध आता है। क्योंकि, उसे त्रिचरमत्व प्राप्त है? <strong>उत्तर</strong>–सर्वार्थसिद्धि से च्युत होने वाले मनुष्य पर्याय में आते हैं तथा उसी पर्याय से मोक्ष लाभ करते हैं। विजयादिक देव लौकांतिक की तरह करते हैं। विजयादिक देव लौकांतिक की तरह एकभविक नहीं हैं किंतु द्विभविक हैं। इसके बीच में यदि कल्पांतर में उत्पन्न हुआ है तो उसकी विवक्षा नहीं है। </span></li> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/4/26/2-5/244/20 </span><span class="SanskritText">चरमशब्द उक्तार्थ:। द्वौ चरमौ देहौ येषां ते द्विचरमा:, तेषां भावो द्विचरमत्वम् । एतंमनुष्यदेहद्वयापेक्षमवगंतव्यम् । विजयादिभ्य: च्युता अप्रतिपतितसम्यक्त्वा मनुष्येषूत्पद्यसंयममाराध्य पुनर्विजयादिषूत्पद्य च्युता मनुष्यभवमवाप्य सिद्धयंति इति द्विचरमदेहत्वम् । कुत: पुन: मनुष्यदेहस्य चरमत्वमिति चेत् । उच्चते।2। यतो मनुष्यभवाप्य देवनारकतैर्यग्योना: सिध्यंति न तेभ्य एवेति मनुष्यदेहस्य चरमत्वम् ।3। स्यान्मतम्-एकस्य भवस्य चरमत्वम् अंत्यत्वात्, न द्वयोस्ततो द्विचरमत्वमयुक्तमिति; तन्न; किं कारणम्; औपचारिकत्वात् । येन देहेन साक्षान्मोक्षोऽवाप्यते स मुख्यश्चरम: तस्य प्रत्यासन्नो मनुष्यभव: तत्प्रत्यासत्तेश्चरम इत्युपचर्यते।5। स्यान्मतम्-विजयादिषु द्विचरमत्वमार्षविरोधि। कुत:। त्रिचरमत्वात् ।...सर्वार्थसिद्धा: च्युता मनुष्येषूत्पद्य तेनैव भवेन सिध्यंतीति, न लौकांतिकवदेकभविका एवेति विजयादिषु द्विचरमत्वं नार्षविरोधि, कल्पांतरोत्पत्त्यनपेक्षत्वात्, प्रश्नस्येति।5।</span>=<span class="HindiText">चरम का अर्थ कह दिया गया है अर्थात् अंतिम। दो अंतिम देह हों सो द्विचरम है। दो मनुष्य देहों की अपेक्षा यहाँ द्विचरमत्व समझना चाहिए, विजयादि विमानों से च्युत सम्यक्त्व छूटे बिना मनुष्यों में उत्पन्न हो, संयम धार पुन: विजयादि विमानों में उत्पन्न हो, वहाँ से चयकर पुन: मनुष्यभव प्राप्त कर मुक्त होते हैं, ऐसा द्विचरम देहत्व का अर्थ है। <strong>प्रश्न</strong>–मनुष्य देह के ही चरमपना कैसे है? <strong>उत्तर</strong>–क्योंकि तीनों गति के जीव मनुष्यभव को पाकर ही मुक्त होते हैं, उन उन भवों से नहीं, इसलिए मनुष्यभव के द्विचरमपना है। <strong>प्रश्न</strong>–चरम शब्द अंत्यवाची है इसलिए एक ही भव चरम हो सकता है दो नहीं, इसलिए द्विचरमत्व कहना युक्त नहीं है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, यहाँ उपचार से द्विचरमत्व कहा गया है। चरम के पास में अव्यवहित पूर्व का मनुष्यभव भी उपचार से चरम कहा जा सकता है। <strong>प्रश्न</strong>–विजयादिकों में द्विचरमत्व कहने में आर्ष विरोध आता है। क्योंकि, उसे त्रिचरमत्व प्राप्त है? <strong>उत्तर</strong>–सर्वार्थसिद्धि से च्युत होने वाले मनुष्य पर्याय में आते हैं तथा उसी पर्याय से मोक्ष लाभ करते हैं। विजयादिक देव लौकांतिक की तरह करते हैं। विजयादिक देव लौकांतिक की तरह एकभविक नहीं हैं किंतु द्विभविक हैं। इसके बीच में यदि कल्पांतर में उत्पन्न हुआ है तो उसकी विवक्षा नहीं है। </span></li> | ||
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<div class="HindiText"> <p> हरिवंशी राजा पुलोम का कनिष्ठ पुत्र । यह पौलोम का अनुज था । राजा पुलोम इन्हीं दोनों भाइयों को राज्यलक्ष्मी सौंपकर तप के लिए चला गया था । दोनों भाइयों ने रेवा नदी के तट पर इंद्रपुर बसाया था । इसने जयंती और वनवास्य नगर बसाये थे । इसका पुत्र संजय था जो नीतिवेत्ता था अंत मे इसने मुनि-दीक्षा लेकर कठोर तप किया था । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 17.25-28 </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> हरिवंशी राजा पुलोम का कनिष्ठ पुत्र । यह पौलोम का अनुज था । राजा पुलोम इन्हीं दोनों भाइयों को राज्यलक्ष्मी सौंपकर तप के लिए चला गया था । दोनों भाइयों ने रेवा नदी के तट पर इंद्रपुर बसाया था । इसने जयंती और वनवास्य नगर बसाये थे । इसका पुत्र संजय था जो नीतिवेत्ता था अंत मे इसने मुनि-दीक्षा लेकर कठोर तप किया था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_17#25|हरिवंशपुराण - 17.25-28]] </span></p> | ||
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Revision as of 14:41, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
- चरमोत्तम देह
सर्वार्थसिद्धि/2/53/201/4 चरमशब्दोऽंत्यवाचो। उत्तम उत्कृष्ट:। चरमउत्तमो देहो येषां ते चरमोत्तमदेहा:। परीतसंसारास्तज्जन्मनिर्वाणार्हा इत्यर्थ:।=चरम शब्द अंत्यवाची है। उत्तम शब्द का अर्थ उत्कृष्ट है। जिनका शरीर चरम और उत्तम है वे चरमोत्तम देहवाले कहे जाते हैं। जिनका संसार निकट है अर्थात् उसी भव में मोक्ष को प्राप्त होने वाले जीव चरमोत्तम देहवाले कहलाते हैं। ( राजवार्तिक/2/53/2/157/15 )।
- द्विचरम देह
राजवार्तिक/4/26/2-5/244/20 चरमशब्द उक्तार्थ:। द्वौ चरमौ देहौ येषां ते द्विचरमा:, तेषां भावो द्विचरमत्वम् । एतंमनुष्यदेहद्वयापेक्षमवगंतव्यम् । विजयादिभ्य: च्युता अप्रतिपतितसम्यक्त्वा मनुष्येषूत्पद्यसंयममाराध्य पुनर्विजयादिषूत्पद्य च्युता मनुष्यभवमवाप्य सिद्धयंति इति द्विचरमदेहत्वम् । कुत: पुन: मनुष्यदेहस्य चरमत्वमिति चेत् । उच्चते।2। यतो मनुष्यभवाप्य देवनारकतैर्यग्योना: सिध्यंति न तेभ्य एवेति मनुष्यदेहस्य चरमत्वम् ।3। स्यान्मतम्-एकस्य भवस्य चरमत्वम् अंत्यत्वात्, न द्वयोस्ततो द्विचरमत्वमयुक्तमिति; तन्न; किं कारणम्; औपचारिकत्वात् । येन देहेन साक्षान्मोक्षोऽवाप्यते स मुख्यश्चरम: तस्य प्रत्यासन्नो मनुष्यभव: तत्प्रत्यासत्तेश्चरम इत्युपचर्यते।5। स्यान्मतम्-विजयादिषु द्विचरमत्वमार्षविरोधि। कुत:। त्रिचरमत्वात् ।...सर्वार्थसिद्धा: च्युता मनुष्येषूत्पद्य तेनैव भवेन सिध्यंतीति, न लौकांतिकवदेकभविका एवेति विजयादिषु द्विचरमत्वं नार्षविरोधि, कल्पांतरोत्पत्त्यनपेक्षत्वात्, प्रश्नस्येति।5।=चरम का अर्थ कह दिया गया है अर्थात् अंतिम। दो अंतिम देह हों सो द्विचरम है। दो मनुष्य देहों की अपेक्षा यहाँ द्विचरमत्व समझना चाहिए, विजयादि विमानों से च्युत सम्यक्त्व छूटे बिना मनुष्यों में उत्पन्न हो, संयम धार पुन: विजयादि विमानों में उत्पन्न हो, वहाँ से चयकर पुन: मनुष्यभव प्राप्त कर मुक्त होते हैं, ऐसा द्विचरम देहत्व का अर्थ है। प्रश्न–मनुष्य देह के ही चरमपना कैसे है? उत्तर–क्योंकि तीनों गति के जीव मनुष्यभव को पाकर ही मुक्त होते हैं, उन उन भवों से नहीं, इसलिए मनुष्यभव के द्विचरमपना है। प्रश्न–चरम शब्द अंत्यवाची है इसलिए एक ही भव चरम हो सकता है दो नहीं, इसलिए द्विचरमत्व कहना युक्त नहीं है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, यहाँ उपचार से द्विचरमत्व कहा गया है। चरम के पास में अव्यवहित पूर्व का मनुष्यभव भी उपचार से चरम कहा जा सकता है। प्रश्न–विजयादिकों में द्विचरमत्व कहने में आर्ष विरोध आता है। क्योंकि, उसे त्रिचरमत्व प्राप्त है? उत्तर–सर्वार्थसिद्धि से च्युत होने वाले मनुष्य पर्याय में आते हैं तथा उसी पर्याय से मोक्ष लाभ करते हैं। विजयादिक देव लौकांतिक की तरह करते हैं। विजयादिक देव लौकांतिक की तरह एकभविक नहीं हैं किंतु द्विभविक हैं। इसके बीच में यदि कल्पांतर में उत्पन्न हुआ है तो उसकी विवक्षा नहीं है।
- चरमदेही की उत्पत्ति योग्य काल–देखें मोक्ष - 4.3।
पुराणकोष से
हरिवंशी राजा पुलोम का कनिष्ठ पुत्र । यह पौलोम का अनुज था । राजा पुलोम इन्हीं दोनों भाइयों को राज्यलक्ष्मी सौंपकर तप के लिए चला गया था । दोनों भाइयों ने रेवा नदी के तट पर इंद्रपुर बसाया था । इसने जयंती और वनवास्य नगर बसाये थे । इसका पुत्र संजय था जो नीतिवेत्ता था अंत मे इसने मुनि-दीक्षा लेकर कठोर तप किया था । हरिवंशपुराण - 17.25-28