जरासंध: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p> राजगृह नगर के राजा वृहद्रथ और श्रीमती का पुत्र, नवाँँ प्रतिनारायण । इसकी एक पुत्री का नाम केतुमती था जो जितशत्रु को विवाही गयी थी । केतुमती को किसी मंत्रवादी परिव्राजक ने अपने वश में कर लिया था किंतु वसुदेव ने महामंत्रों के प्रभाव से उसके पिशाच का निग्रह किया था । इसके घातक के संबंध में भविष्यवाणी थी कि जो इस राजपुत्री के पिशाच को दूर करेगा उसका पुत्र इसका घातक होगा । इस भविष्यवाणी से इसके सैनिकों ने वसुदेव को पकड़ लिया था किंतु उसी समय कोई विद्याधर उसे वहाँ से उठाकर ले गया था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_20#242|पद्मपुराण - 20.242-244]], </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 18.114-115 </span>समुद्रविजय आदि राजाओं के साथ रोहिणी-स्वयंवर मे न केवल यह आया था अपितु इसके पुत्र भी आये थे । समुद्रविजय को वसुदेव से युद्ध करने के लिए इसी ने कहा था और युद्ध के परिणाम स्वरूप सौ वर्ष से बिछुड़े हुए भाई वसुदेव से समुद्रविजय की भेंट हुई थी । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 31. 18,21-23, 50. 45-51, 99-128 </span>सुरम्य देश के मध्य में स्थित पोदनपुर का राजा सिहर इसका शत्रु था । इसने इस शत्रु को बाँधकर लाने वाले को आधा देश तथा अपनी रानी कलिंदसेना से उत्पन्न जीवद्यशा पुत्री देने की घोषणा की थी । वसुदेव ने सिंहरथ को जीतकर तथा केस से बँधवाकर इसे सौंप दिया था । घोषणा के अनुसार इसने</p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> राजगृह नगर के राजा वृहद्रथ और श्रीमती का पुत्र, नवाँँ प्रतिनारायण । इसकी एक पुत्री का नाम केतुमती था जो जितशत्रु को विवाही गयी थी । केतुमती को किसी मंत्रवादी परिव्राजक ने अपने वश में कर लिया था किंतु वसुदेव ने महामंत्रों के प्रभाव से उसके पिशाच का निग्रह किया था । इसके घातक के संबंध में भविष्यवाणी थी कि जो इस राजपुत्री के पिशाच को दूर करेगा उसका पुत्र इसका घातक होगा । इस भविष्यवाणी से इसके सैनिकों ने वसुदेव को पकड़ लिया था किंतु उसी समय कोई विद्याधर उसे वहाँ से उठाकर ले गया था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_20#242|पद्मपुराण - 20.242-244]], </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 18.114-115 </span>समुद्रविजय आदि राजाओं के साथ रोहिणी-स्वयंवर मे न केवल यह आया था अपितु इसके पुत्र भी आये थे । समुद्रविजय को वसुदेव से युद्ध करने के लिए इसी ने कहा था और युद्ध के परिणाम स्वरूप सौ वर्ष से बिछुड़े हुए भाई वसुदेव से समुद्रविजय की भेंट हुई थी । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_31#18|हरिवंशपुराण - 31.18]],21-23, 50. 45-51, 99-128 </span>सुरम्य देश के मध्य में स्थित पोदनपुर का राजा सिहर इसका शत्रु था । इसने इस शत्रु को बाँधकर लाने वाले को आधा देश तथा अपनी रानी कलिंदसेना से उत्पन्न जीवद्यशा पुत्री देने की घोषणा की थी । वसुदेव ने सिंहरथ को जीतकर तथा केस से बँधवाकर इसे सौंप दिया था । घोषणा के अनुसार इसने</p> | ||
<p>जीवंद्यशा को वसुदेव को देना चाहा किंतु उसे सुलक्षणा न जानकर वसुदेव ने यह कहकर टाल दिया था कि सिंहरथ को उसने नहीं बाँधा । कंस ने बाँधा है । इसने कंस को राजा उग्रसेन और पद्मावती का पुत्र जानकर उसे पुत्री और आधा राज्य दे दिया । कंस को अपना भानजा जानकर यह प्रसन्न हुआ था । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 33.24 </span>यही कंस कृष्ण के द्वारा मारा गया । कंस के मरने से व्याकुलित पुत्री जीवंद्यशा ने इसे क्षुभित किया । परिणामस्वरूप इसके कालयवन नामक पुत्र ने यादवों के साथ सत्रह बार भयंकर युद्ध किया और अंत में युद्ध में मारे जाने पर इसके भाई अपराजित ने युद्ध किया । तीन सौ छियालीस बार युद्ध करने पर भी अंत में यह भी कृष्ण के बाणों से निष्प्राण हुआ । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 36.45, 65-73 </span>इसने यादवों से संधि कर ली थी । किंतु कृष्ण का नाम सुनकर यह संधि से विमुख हो गया था । समुद्रविजय ने इसे समझाने और संधि न तोड़ने के लिए अपने दूत लोहजंघ को भेजा । लोहजंघ ने कुशलता से इसे समझा दिया । इसने छ: मास तक संधि को बनाये रखा । पर एक वर्ष पूर्ण होते ही यह कुरुक्षेत्र के मैदान में ससैन्य आ पहुँचा । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 50.9,71-65 </span>कालयवन आदि संन्यासी पुत्र भी युद्ध में सम्मिलित हुए । कृष्ण के अर्धचंद्र बाणों से ये सब मारे गये थे । कालयवन को सारन नामक योद्धा ने मार गिराया था । इसने कृष्ण को मारने के लिए चक्र चलाया था । यही चक्र कृष्ण ने फेंककर इसे प्राण रहित कर दिया था । इसी युद्ध में कौरव पांडवों से मारे गये थे । <span class="GRef"> महापुराण 70.352-366,71.76-77, 115,72.218-222, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 52.30-83, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 7.147-949, 19 </span>वां पर्व, 20. 266, 296, 348-350</p> | <p>जीवंद्यशा को वसुदेव को देना चाहा किंतु उसे सुलक्षणा न जानकर वसुदेव ने यह कहकर टाल दिया था कि सिंहरथ को उसने नहीं बाँधा । कंस ने बाँधा है । इसने कंस को राजा उग्रसेन और पद्मावती का पुत्र जानकर उसे पुत्री और आधा राज्य दे दिया । कंस को अपना भानजा जानकर यह प्रसन्न हुआ था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_33#24|हरिवंशपुराण - 33.24]] </span>यही कंस कृष्ण के द्वारा मारा गया । कंस के मरने से व्याकुलित पुत्री जीवंद्यशा ने इसे क्षुभित किया । परिणामस्वरूप इसके कालयवन नामक पुत्र ने यादवों के साथ सत्रह बार भयंकर युद्ध किया और अंत में युद्ध में मारे जाने पर इसके भाई अपराजित ने युद्ध किया । तीन सौ छियालीस बार युद्ध करने पर भी अंत में यह भी कृष्ण के बाणों से निष्प्राण हुआ । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_36#45|हरिवंशपुराण - 36.45]],[[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_36#65|हरिवंशपुराण - 36.65]]-73 </span>इसने यादवों से संधि कर ली थी । किंतु कृष्ण का नाम सुनकर यह संधि से विमुख हो गया था । समुद्रविजय ने इसे समझाने और संधि न तोड़ने के लिए अपने दूत लोहजंघ को भेजा । लोहजंघ ने कुशलता से इसे समझा दिया । इसने छ: मास तक संधि को बनाये रखा । पर एक वर्ष पूर्ण होते ही यह कुरुक्षेत्र के मैदान में ससैन्य आ पहुँचा । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_50#9|हरिवंशपुराण - 50.9]],71-65 </span>कालयवन आदि संन्यासी पुत्र भी युद्ध में सम्मिलित हुए । कृष्ण के अर्धचंद्र बाणों से ये सब मारे गये थे । कालयवन को सारन नामक योद्धा ने मार गिराया था । इसने कृष्ण को मारने के लिए चक्र चलाया था । यही चक्र कृष्ण ने फेंककर इसे प्राण रहित कर दिया था । इसी युद्ध में कौरव पांडवों से मारे गये थे । <span class="GRef"> महापुराण 70.352-366,71.76-77, 115,72.218-222, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_52#30|हरिवंशपुराण - 52.30-83]], </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 7.147-949, 19 </span>वां पर्व, 20. 266, 296, 348-350</p> | ||
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Revision as of 15:10, 27 November 2023
राजगृह नगर के राजा वृहद्रथ और श्रीमती का पुत्र, नवाँँ प्रतिनारायण । इसकी एक पुत्री का नाम केतुमती था जो जितशत्रु को विवाही गयी थी । केतुमती को किसी मंत्रवादी परिव्राजक ने अपने वश में कर लिया था किंतु वसुदेव ने महामंत्रों के प्रभाव से उसके पिशाच का निग्रह किया था । इसके घातक के संबंध में भविष्यवाणी थी कि जो इस राजपुत्री के पिशाच को दूर करेगा उसका पुत्र इसका घातक होगा । इस भविष्यवाणी से इसके सैनिकों ने वसुदेव को पकड़ लिया था किंतु उसी समय कोई विद्याधर उसे वहाँ से उठाकर ले गया था । पद्मपुराण - 20.242-244, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.114-115 समुद्रविजय आदि राजाओं के साथ रोहिणी-स्वयंवर मे न केवल यह आया था अपितु इसके पुत्र भी आये थे । समुद्रविजय को वसुदेव से युद्ध करने के लिए इसी ने कहा था और युद्ध के परिणाम स्वरूप सौ वर्ष से बिछुड़े हुए भाई वसुदेव से समुद्रविजय की भेंट हुई थी । हरिवंशपुराण - 31.18,21-23, 50. 45-51, 99-128 सुरम्य देश के मध्य में स्थित पोदनपुर का राजा सिहर इसका शत्रु था । इसने इस शत्रु को बाँधकर लाने वाले को आधा देश तथा अपनी रानी कलिंदसेना से उत्पन्न जीवद्यशा पुत्री देने की घोषणा की थी । वसुदेव ने सिंहरथ को जीतकर तथा केस से बँधवाकर इसे सौंप दिया था । घोषणा के अनुसार इसने
जीवंद्यशा को वसुदेव को देना चाहा किंतु उसे सुलक्षणा न जानकर वसुदेव ने यह कहकर टाल दिया था कि सिंहरथ को उसने नहीं बाँधा । कंस ने बाँधा है । इसने कंस को राजा उग्रसेन और पद्मावती का पुत्र जानकर उसे पुत्री और आधा राज्य दे दिया । कंस को अपना भानजा जानकर यह प्रसन्न हुआ था । हरिवंशपुराण - 33.24 यही कंस कृष्ण के द्वारा मारा गया । कंस के मरने से व्याकुलित पुत्री जीवंद्यशा ने इसे क्षुभित किया । परिणामस्वरूप इसके कालयवन नामक पुत्र ने यादवों के साथ सत्रह बार भयंकर युद्ध किया और अंत में युद्ध में मारे जाने पर इसके भाई अपराजित ने युद्ध किया । तीन सौ छियालीस बार युद्ध करने पर भी अंत में यह भी कृष्ण के बाणों से निष्प्राण हुआ । हरिवंशपुराण - 36.45,हरिवंशपुराण - 36.65-73 इसने यादवों से संधि कर ली थी । किंतु कृष्ण का नाम सुनकर यह संधि से विमुख हो गया था । समुद्रविजय ने इसे समझाने और संधि न तोड़ने के लिए अपने दूत लोहजंघ को भेजा । लोहजंघ ने कुशलता से इसे समझा दिया । इसने छ: मास तक संधि को बनाये रखा । पर एक वर्ष पूर्ण होते ही यह कुरुक्षेत्र के मैदान में ससैन्य आ पहुँचा । हरिवंशपुराण - 50.9,71-65 कालयवन आदि संन्यासी पुत्र भी युद्ध में सम्मिलित हुए । कृष्ण के अर्धचंद्र बाणों से ये सब मारे गये थे । कालयवन को सारन नामक योद्धा ने मार गिराया था । इसने कृष्ण को मारने के लिए चक्र चलाया था । यही चक्र कृष्ण ने फेंककर इसे प्राण रहित कर दिया था । इसी युद्ध में कौरव पांडवों से मारे गये थे । महापुराण 70.352-366,71.76-77, 115,72.218-222, हरिवंशपुराण - 52.30-83, पांडवपुराण 7.147-949, 19 वां पर्व, 20. 266, 296, 348-350