मणिकांचन: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p> वैताड्य पर्वत की एक गुहा । तापस सुमित्र और उसकी पत्नी सोमयशा के पुत्र को जृंभक देव हरकर इसी गुहा में लाया था तथा कल्पवृक्ष से उत्पन्न दिव्य आहार से उसने उसका पालन किया था । इसी ने उसका नाम नारद रखा था । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 42.14-18 </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> वैताड्य पर्वत की एक गुहा । तापस सुमित्र और उसकी पत्नी सोमयशा के पुत्र को जृंभक देव हरकर इसी गुहा में लाया था तथा कल्पवृक्ष से उत्पन्न दिव्य आहार से उसने उसका पालन किया था । इसी ने उसका नाम नारद रखा था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_42#14|हरिवंशपुराण - 42.14-18]] </span></p> | ||
<p id="2">(2) विजयार्ध की उत्तरश्रेणी का छत्तीसवाँ नगर । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 22.89 </span></p> | <p id="2" class="HindiText">(2) विजयार्ध की उत्तरश्रेणी का छत्तीसवाँ नगर । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_22#89|हरिवंशपुराण - 22.89]] </span></p> | ||
<p id="3">(3) कुलाचल शिखरी का ग्यारहवाँ कूट । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5.107 </span></p> | <p id="3" class="HindiText">(3) कुलाचल शिखरी का ग्यारहवाँ कूट । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_5#107|हरिवंशपुराण - 5.107]] </span></p> | ||
<p id="4">(4) कुलाचल रुक्मी का आठवाँँ कूट । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5.104 </span></p> | <p id="4" class="HindiText">(4) कुलाचल रुक्मी का आठवाँँ कूट । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_5#104|हरिवंशपुराण - 5.104]] </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:20, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
विजयार्धकी उत्तरश्रेणी का एक नगर–देखें विद्याधर - 4। point -36
शिखरी व रुक्मि पर्वत का एक एक कूट व उसके रक्षक देव–देखें लोक - 5.4।
पुराणकोष से
वैताड्य पर्वत की एक गुहा । तापस सुमित्र और उसकी पत्नी सोमयशा के पुत्र को जृंभक देव हरकर इसी गुहा में लाया था तथा कल्पवृक्ष से उत्पन्न दिव्य आहार से उसने उसका पालन किया था । इसी ने उसका नाम नारद रखा था । हरिवंशपुराण - 42.14-18
(2) विजयार्ध की उत्तरश्रेणी का छत्तीसवाँ नगर । हरिवंशपुराण - 22.89
(3) कुलाचल शिखरी का ग्यारहवाँ कूट । हरिवंशपुराण - 5.107
(4) कुलाचल रुक्मी का आठवाँँ कूट । हरिवंशपुराण - 5.104