ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 42
From जैनकोष
अथानंतर किसी समय आकाश में गमन करने वाले नारदमुनि आकाश से उतरकर सभासदों से भरी हुई यादवों की सभा में आये ॥1॥ उन नारदजी की जटाएं, दाढ़ी और मूछ कुछ-कुछ पीले रंग की थीं तथा वे स्वयं चंद्रमा के समान शुक्ल कांति के धारक थे इसलिए बिजलियों के समूह से सुशोभित शरदऋतु के मेघ के समान जान पड़ते थे ॥2॥ वे रंग-बिरंगे एक विस्तृत योग पट्ट से विभूषित थे इसलिए परिवेश (मंडल) से युक्त चंद्रमा की शोभा धारण कर रहे थे ॥3॥ उनका कोपीन और चद्दर हवा से मंद-मंद हिल रहा था इसलिए वे उनसे ऐसे जान पड़ते थे मानो जगत् का उपकार करने की इच्छा से आकाश से कल्पवृक्ष ही नीचे आ गिरा हो ॥4॥ वे अपने शरीर पर स्थित तीन लर के उस शुद्ध यज्ञोपवीत सूत्र से अत्यंत उज्ज्वल थे जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक̖चारित्र इन तीन गुणों के समान जान पड़ता था ॥5॥ वे जिस प्रकार असाधारण पांडित्य से सुशोभित थे उसी प्रकार गौरव की उत्पत्ति के असाधारण कारणरूप नैष्ठिक ब्रह्मचर्य से सुशोभित थे ॥6॥ वे राजाओं के उत्कृष्ट राज्योदय के समान समस्त राजाओं के पूजनीय थे क्योंकि जिस प्रकार राज्योदय शुद्ध प्रकृति अर्थात् भ्रष्टाचार-रहित मंत्री आदि प्रकृति से सहित होता है उसी प्रकार नारद भी शुद्ध प्रकृति अर्थात् निर्दोष स्वभाव के धारक थे और राज्योदय जिस प्रकार शत्रुओं के षड̖वर्ग से रहित होता है उसी प्रकार नारद भी काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य इन छह अंतरंग शत्रुओं से रहित थे ॥7॥ द्वारिका का वैभव देख, आश्चर्य से जिनका सिर तथा शरीर कंपित हो रहा था ऐसे नारदजी को आकाश से नीचे उतरते देख सब राजा लोग सहसा उठकर खड़े हो गये ॥8॥ सम्मान मात्र से संतुष्ट हो जाने वाले नारदजी को सबने नमस्कार तथा आसन-दान आदि उपचारों से क्रमपूर्वक सम्मान किया ॥9॥ श्रीनेमिजिनेंद्र, कृष्णनारायण और बलभद्र के दर्शन तथा संभाषण का पानकर के भी जिनके नेत्र तृप्त नहीं हुए थे ऐसे नारदमुनि सभारूप सागर के मध्य में अधिष्ठित हुए― विराजमान हुए ॥9-10॥ तत्पश्चात् नारद ने पूर्व-पश्चिम विदेह क्षेत्र में उत्पन्न तीर्थंकरों की कथारूप अमृत से तथा मेरु पर्वत की वंदना के समाचारों से उन सबके मन को संतुष्ट किया ॥11॥
इसी अवसर में राजा श्रेणिक ने गौतम गणधर से पूछा कि हे नाथ ! यह नारद कौन है ? और इसकी उत्पत्ति किससे हुई है ? इसके उत्तर में पूज्य गणधर देव कहने लगे कि हे श्रेणिक ! चरमशरीरी नारद की उत्पत्ति तथा स्थिति कहता हूँ सो श्रवण कर ॥12-13॥
शौर्यपूर के पास दक्षिणदिशा में एक तापसों का आश्रम था उसमें फल-मूल आदि का भोजन करने वाले अनेक तापस रहते थे ॥14॥ वहाँ उंछ वृत्ति से आजीविका करने वाले एक सुमित्र नामक तापस ने अपनी सोमयशा नामक स्त्री से चंद्रमा के समान कांति वाला एक पुत्र उत्पन्न किया ॥15॥
भूख और प्यास से पीड़ित सुमित्र और सोमयशा, दोनों दंपती चित्त सोने वाले उस बच्चे को एक वक्ष के नीचे रखकर उंछ वृत्ति के लिए जब तक नगर में आये तब तक एकांत क्रीड़ा करते हुए उस बालक को देखकर ज़ृंभक नामक देव पूर्वभव के स्नेह से उठाकर वैताड̖यपर्वत पर ले गये । वहाँ उन्होंने मणिकांचन नामक गुहा में उस बालक को रखकर कल्प वृक्षों से उत्पन्न दिव्य आहार से उसका पालन-पोषण किया ॥16-18॥ वह बालक देवों को बहुत ही इष्ट था इसलिए जब वह आठ वर्ष का हुआ तब उन्होंने संतुष्ट होकर उसे रहस्यसहित जिनागम और आकाशगामिनी विद्या प्रदान की ॥19॥ वही नारद के नाम से प्रसिद्ध हुआ । नारद अनेक विद्याओं का ज्ञाता तथा नाना शास्त्रों में निपुण था । वह साधु के वेष में रहता था तथा साधुओं की सेवा से उसने संयमासंयम― देशवत प्राप्त किया था । वह काम को जीतने वाला होकर भी काम के समान विभ्रम को धारण करता था, कामी मनुष्यों को प्रिय था, हास्यरूप स्वभाव से युक्त था, लोभ से रहित था, चरमशरीरी था, यद्यपि स्वभाव से ही निष्कषाय था तथापि पृथ्वी में युद्ध देखना उसे बहुत प्रिय था, अधिकतर वह अधिक बोलने वालों में शिरोमणि था और जिनेंद्र भगवान् के जन्माभिषेक आदि महान् अतिशयों के देखने का कुतूहली होने से विभ्रमपूर्वक लोक में परिभ्रमण करता रहता था ॥20-23꠰꠰
हे राजन् ! यह वही नारद, यादवों से पूछकर श्रीकृष्ण का अंतःपुर देखने के लिए अंतःपुर के महल में प्रविष्ट हुआ ॥24॥ उस समय कृष्ण की महादेवी सत्यभामा, जो उन्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय थी, आभूषणादि धारण कर हाथ में स्थित मणिमय दर्पण में अपना रूप देख रही थी । नारद ने उस साध्वी को दूर से ही देखा । वह उनकी दृष्टि के सामने साक्षात् रति के समान जान पड़ती थी । अपना रूप देखने में जिसका चित्त उलझा हुआ था ऐसी सत्यभामा नारद को न देख सकी इसलिए वह सहसा रुष्ट हो वहाँ से शीघ्र ही बाहर निकल आये ॥25-27॥ बाहर आकर वह विचार करने लगे कि इस संसार में समस्त विद्याधर और भूमिगोचरी राजा तथा उनके अंतःपुरों की स्त्रियां उठकर मुझे नमस्कार करती हैं परंतु यह विद्याधर की लड़की सत्यभामा इतनी ढीठ है कि इसने सौंदर्य के मद से गर्वित चित्त हो मेरी ओर देखा भी नहीं अतः इसे धिक्कार है ॥ 28-29 ॥ अब मैं सपत्नीरूपी वज्रपात के द्वारा इसके सौंदर्य, सौभाग्य और गर्वरूपी पर्वत को अभी हाल चूर-चूर करता हूँ ॥30॥ रूप और सौभाग्य में सत्यभामा को अतिक्रांत करने वाली अन्य कन्या को श्रीकृष्ण शीघ्र ही प्राप्त कर सकते हैं क्योंकि यह पृथ्वी अनेक रत्नों से युक्त है । सपत्नी के आने पर मैं सत्यभामा के मुख को श्वासोच्छ̖वास से मलिन देखूंगा । मुझ नारद के कुपित होनेपर इसका अनर्थ से छुटकारा कैसे हो सकता है ? ॥31-32॥ इस प्रकार विचार करते हुए नारद आकाश में उड़कर उस कुंडिनपुर में जा पहुंचे, जहाँ शत्रुओं के लिए भयंकर महाकुलीन राजा भीष्म रहते थे ॥33॥ उनके नीति और पौरुष को पुष्ट करने वाला रुक्मी नाम का पुत्र था तथा कला और गुणों में निपुण रुक्मिणी नाम की एक शुभ कन्या थी ॥34॥ निर्मल अंतःकरण के धारक नारद ने, राजा भीष्म के अंतःपुर में, अनुराग― प्रेम को धारण करने वाली फुआ से युक्त उस रुक्मिणी नामक कन्या को देखा जो अनुराग-लालिमा को धारण करने वाली संध्या से युक्त सूर्य को उदयकालीन लक्ष्मी के समान जान पड़ती थी ॥35॥ वह कन्या ऐसी जान पड़ती थी मानो तीनों जगत् के उत्तम लक्षण, उत्तम रूप और उत्तम भाग्य को लेकर नारायण-कृष्ण के उत्कृष्ट पुण्य के द्वारा ही रची गयी हो ॥36॥ वह कन्या अपने हाथ, पैर, मुखकमल, जंघा और स्थूल नितंब की शोभा से, रोमराजि, भुजा, नाभि, स्तन, उदर तथा शरीर की कांति से, भौंह, कान, नेत्र, सिर, कंठ, नाक और अधरोष्ठ की आभा से संसार की समस्त उपमाओं को अभिभूत-तिरस्कृत कर उत्कृष्ट-रूप से स्थित थी ॥37-38 ॥ अनेक उत्तमोत्तम स्त्रियों को देखने वाले नारद उस कन्या को देखकर आश्चर्य में पड़ गये तथा इस प्रकार विचार करने लगे कि अहो ! यह कन्या तो पृथिवी पर रूप की चरम सीमा में विद्यमान है-सब से अधिक रूपवती है ॥ 39॥ जो अपनो सानी नहीं रखती ऐसी इस कन्या को कृष्ण के साथ मिलाकर मैं सत्यभामा के रूप तथा सौभाग्य-संबंधी दुष्ट अहंकार को अभी हाल खंडित किये देता हूँ ॥40॥
इस प्रकार विचार करते हुए नारद को आये देख, शब्दायमान भूषणों से युक्त तथा स्वाभाविक विनय की भूमि रुक्मिणी उठकर खड़ी हो गयी ॥41॥ उसने हाथ जोड़कर बड़े आदर से सम्मुख जाकर नारद को प्रणाम किया तथा नारद ने भी द्वारिका के स्वामी तुम्हारे पति हों इस आशीर्वाद से उस नम्रीभूत कन्या को प्रसन्न किया ॥ 42॥ उसके पूछने पर जब नारद ने द्वारिका का वर्णन किया तब वह कृष्ण में अत्यंत अनुरक्त हो गयी ॥43॥ अंत में नारदरूपी चित्रकार, रुक्मिणी के हृदय की दीवाल पर वर्ण, रूप तथा अवस्था से युक्त कृष्ण का चित्र खींचकर बाहर चले गये ॥44॥
बाहर आकर नारद ने रुक्मिणी का आश्चर्यकारी रूप स्पष्ट रूप से चित्र पर लिखा और चित्त में विभ्रम उत्पन्न करने वाला वह रूप उन्होंने जाकर श्रीकृष्ण के लिए दिखाया ॥45॥ नवयौवनवती तथा स्त्रियों के लक्षणों से युक्त उस चित्रगत कन्या को देखकर कृष्ण ने दुगुने आदर से युक्त हो नारद से इस प्रकार पूछा कि हे भगवन् ! यह किसकी विचित्र कन्या आपने चित्रपट पर अंकित की है ? यह तो मानुषी का तिरस्कार करने वाली कोई विचित्र देव-कन्या जान पड़ती है ॥ 46-47॥ कृष्ण के इस प्रकार पूछने पर छल-रहित नारद ने सब समाचार ज्यों का त्यों सुना दिया तथा उसे सुनकर कृष्ण उसके साथ विवाह करने की चिंता करने लगे ॥48॥
उधर सब समाचार को जानने वाली फुआ ने हित की इच्छा से एकांत में ले जाकर योग्य समय में रुक्मिणी से इस प्रकार कहा कि हे बाले ! तू मेरे वचन सुन । किसी समय अवधि-ज्ञान के धारक अतिमुक्तक मुनि यहाँ आये थे । उन्होंने तुझे देखकर कहा था कि यह कन्या स्त्रियों के उत्तम लक्षणों से युक्त है अतः लक्ष्मी के समान होनहार नारायण श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल का आलिंगन प्राप्त करेगी । कृष्ण के अंतःपुर में स्त्रियों के योग्य गुणों से युक्त सोलह हजार रानियां होंगी, उन सबमें यह प्रभुत्व को प्राप्त होगी― उन सबमें प्रधान बनेगी । इस प्रकार कहकर अमोघवादी मुनिराज उस समय चले गये और कुछ समय तक कृष्ण की चर्चा अंतर्हित रही आयी । परंतु आज नारद ने पुनर्जन्म की कथा के समान यह कथा पुनः उठायी है । यदि यह सब सत्य है तो मैं समझती हूँ कि मुनिराज के उक्त वचन सत्य ही निकलेंगे । परंतु हे बाले ! विचारणीय बात यह है कि तेरा भाई रुक्मी जो अत्यधिक प्रभाव को धारण करने वाला है वह तुझे बंधपने धारण करने वाले शिशुपाल के लिए दे रहा है । तेरे विवाह का समय भी निकट है और आज-कल में तेरे लिए शिशुपाल यहाँ आने वाला है ॥ 49-56॥
फुआ के ऐसे वचन सुन रुक्मिणी ने कहा कि मुनिराज के वचन पृथिवी पर अन्यथा कैसे हो सकते हैं ॥ 57॥ इसलिए आप मेरे अभिप्राय को किसी तरह शीघ्र ही प्रयत्न कर द्वारिकापति के पास भेज दीजिए । वही मेरे पति होंगे ॥58॥ कन्या के यह वचन सुनकर तथा उसका अभिप्राय जानकर फुआ ने शीघ्र ही एक विश्वासपात्र आदमी के द्वारा गुप्त रूप से यह लेख श्रीकृष्ण के पास भेज दिया ॥59॥ लेख में लिखा था कि हे कृष्ण ! रुक्मिणी आप में अनुरक्त है तथा आपके नाम ग्रहणरूपी आहार से संतुष्ट हो प्राण धारण कर रही है । यह आपके द्वारा अपना हरण चाहती है । हे माधव ! यदि माघ शुक्ला अष्टमी के दिन आप आकर शीघ्र ही रुक्मिणी का हरण कर ले जाते हैं तो निःसंदेह यह आपकी होगी । अन्यथा पिता और बांधवजनों के द्वारा यह शिशुपाल के लिए दे दी जायेगी और उस दशा में आपकी प्राप्ति न होने से मरना ही इसे शरण रह जायेगा अर्थात् यह आत्म-घात कर मर जायेगी । यह नागदेव की पूजा के बहाने आपको नगर के बाह्य उद्यान में स्थित मिलेगी सो आप दयालु हो अवश्य ही आकर इसे स्वीकृत करें॥60-63॥ इस प्रकार लेख के यथार्थ भाव को ज्ञात कर कृष्ण, रुक्मिणी का हरण करने के लिए सावधान चित्त हो गये ॥64॥
इधर कन्यादान की तैयारी करने वाले विदर्भेश्वर― राजा भीष्म के कहे अनुसार शिशुपाल आदर के साथ कुंडिनपुर जा पहुंचा ॥65॥ उस समय उसकी राग से युक्त बहुत भारी चतुरंगिणी सेना से कुंडिनपुर के दिगदिगंत सुशोभित हो उठे ॥66॥ इधर अवसर को जानने वाले नारद ने शीघ्र ही आकर एकांत में कृष्ण को प्रेरित किया सो वे भी बड़े भाई बलदेव के साथ गुप्तरूप से कुंडिनपुर आ पहुँचे ॥67॥ रुक्मिणी नागदेव की पूजा कर फुआ आदि के साथ नगर के बाह्य उद्यान में पहले से ही खड़ी थी सो कृष्ण ने उसे अच्छी तरह देखा ॥68॥ उन दोनों की जो अनुरागरूपी अग्नि एक दूसरे के श्रवणमात्र ईंधन से युक्त थी वह उस समय एक दूसरे को देखनेरूप वायु से अत्यंत वृद्धि को प्राप्त हो गयी ॥69॥ कृष्ण ने यथायोग्य चर्चा करने के बाद वहाँ रुक्मिणी से कहा कि हे भद्रे ! मैं तुम्हारे लिए ही आया हूँ और जो तुम्हारे हृदय में स्थित है वही मैं हूँ ॥70॥ यदि सचमुच ही तूने मुझ में अपना अनुपम प्रेम लगा रखा है तो हे मेरे मनोरथों को पूर्ण करने वाली प्रिये ! आओ रथ पर सवार होओ ॥71॥ फुआ ने भी रुक्मिणी से कहा कि हे कल्याणि ! अतिमुक्तक मुनि ने जो तुम्हारा पति कहा था वही यह तुम्हारे पुण्य के द्वारा खींचकर यहाँ लाया गया है ॥ 72 ॥ हे भद्रे ! जहाँ माता-पिता पुत्रों के देने वाले माने गये हैं वहाँ वे कर्मों के अनुसार ही देने वाले माने गये हैं इसलिए सबसे बड़ा गुरु कर्म ही है ॥ 73 ॥
तदनंतर जिनके नेत्र कुछ-कुछ निमीलित हो रहे थे ऐसे श्रीकृष्ण ने अनुराग और लज्जा से युक्त रुक्मिणी को अपनी दोनों भुजाओं से उठाकर रथ पर बैठा दिया ॥ 74॥ काम की व्यथा से पीड़ित उन दोनों का जो सर्व-प्रथम सर्वांगीण शरीर का स्पर्श हुआ था वह उन दोनों के लिए परस्पर सुख का देने वाला हुआ था ॥ 75॥ उन दोनों के मुख से जो सुगंधित श्वास निकल रहा था वह परस्पर मिलकर एक दूसरे को सुगंधित कर रहा था तथा एक दूसरे को वश में करने के लिए वशीकरण मंत्रपने को प्राप्त हो रहा था ॥ 76 ॥ रुक्मिणी का वह कल्याण, शिशुपाल को विमुख और कृष्ण को सम्मुख करने वाले एक विधि-पुराकृत कर्म के द्वारा ही किया गया था । भावार्थ रुक्मिणी का जो कृष्ण के साथ संयोग हुआ था उसमें उसका पूर्वकृत कर्म ही प्रबल कारण था क्योंकि उसने पूर्वनिश्चित योजना के साथ आये हुए शिशुपाल को विमुख कर दिया था और अनायास आये हुए श्रीकृष्ण को सम्मुख कर दिया था ॥77॥
तदनंतर श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी के भाई रुक्मी, शिशुपाल और भीष्म को रुक्मिणी के हरण का समाचार देकर अपना रथ आगे बढ़ा दिया ॥ 78 ॥ उसी समय श्रीकृष्ण ने दिशाओं को मुखरित करने वाला अपना पाँच जन्य और बलदेव ने अपना सुघोष नाम का शंख फूंका जिससे शत्रु की सेना क्षोभ युक्त हो गयी ॥79॥ समाचार मिलते ही रुक्मी और शिशुपाल दोनों धीर-वीर, बड़ी शीघ्रता से रथों पर सवार हो, धीर-वीर एवं रथों पर सवार होकर जाने वाले कृष्ण और बलदेव का सामना करने के लिए पहुंचे ॥80॥ साठ हजार रथों, दस हजार हाथियों, वायु के समान वेगशाली तीन लाख घोड़ों और खड̖ग, चक्र, धनुष, हाथ में लिये कई लाख पैदल सिपाहियों के द्वारा शेष दिशाओं को ग्रस्त करते हुए वे दोनों वीर निकटता को प्राप्त हुए ॥ 81-82 ॥ इधर अर्धासन पर बैठी रुक्मिणी को सांत्वना देते एवं ग्राम, खानें, सरोवर तथा नदियों को दिखाते हुए श्रीकृष्ण धीरे-धीरे जा रहे थे ॥ 83 ॥
तदनंतर भयंकर सेना को आयी देख मृगनयनी रुक्मिणी अनिष्ट की आशंका करती हुई स्वामी से बोली कि हे नाथ ! क्रोध से युक्त यह मेरा भाई महारथी रुक्मी और शिशुपाल अभी हाल आ रहे हैं इसलिए मैं अपना भला नहीं समझती ॥84-85॥ विशाल सेना से युक्त इन दोनों के साथ एकांकी आप दोनों का महायुद्ध होने पर विजय में संदेह है । अहो ! मैं बड़ी मंद भाग्यवती हूँ ॥86-87॥ इस प्रकार कहती हुई रुक्मिणी से श्रीकृष्ण ने कहा कि हे कोमलहृदये ! भयभीत न हो, मुझ पराक्रमी के रहते हुए दूसरों की संख्या बहुत होने पर भी क्या हो सकता है ? इस प्रकार कहकर असाधारण अस्त्र के जानने वाले श्रीकृष्ण ने अपने बाण से सामने खड़े हुए ताल वृक्ष को अनायास ही काट डाला ॥88॥ और अंगूठी में जड़े हुए हीरा को हाथ से चूर्ण कर उसके संदेह को जड़-मूल से नष्ट कर दिया ॥ 89॥
तदनंतर इन कार्यों से पति को शक्ति को जानने वाली रुक्मिणी ने हाथ जोड़कर कहा कि हे नाथ ! आपके द्वारा युद्ध में मेरा भाई यत्नपूर्वक रक्षणीय है अर्थात् उसकी आप अवश्य रक्षा कीजिए ॥90॥ ऐसा ही होगा इस प्रकार भयभीत प्रिया को सांत्वना देकर श्रीकृष्ण तथा बलभद्र ने बड़े वेग से शत्रु को ओर अपने रथ घुमा दिये ॥91॥ तदनंतर रोष से भरे हुए इन दोनों के बाणों के समूह से मुठभेड़ को प्राप्त हुई शत्रु की सेना चारों ओर भागकर नष्ट हो गयी तथा उसका सब अहंकार नष्ट-भ्रष्ट हो गया ॥92॥ भयंकर युद्ध में सिंह के समान शूर-वीर कृष्ण ने शिशुपाल को और बलदेव ने भयंकर आकार को धारण करने वाले भीष्म पुत्र राजा रुक्मी को सामने किया ॥93॥ द्वंद्व-युद्ध में श्रीकृष्ण ने अपने बाण के द्वारा यश के साथ-साथ शिशुपाल का ऊंचा मस्तक दूर जा गिराया ॥94॥ और बलदेव ने रथ के साथ-साथ रुक्मी को इतना जर्जर किया कि उसके प्राण ही शेष रह गये । तदनंतर कुशल बलदेव कृष्ण के साथ वहाँ से चल दिये ॥95॥ रैवतक (गिरनार) पर्वतपर श्रीकृष्ण ने विधि-पूर्वक रुक्मिणी के साथ विवाह किया और उसके पश्चात् उत्कृष्ट विभूति से संतुष्ट हो भाई-बलदेव के साथ द्वारिकापुरी में प्रवेश किया ॥96॥ रेवती के देखने के लिए उत्सुक बलदेव ने अपने महल में प्रवेश किया और प्रीति से युक्त कृष्ण ने भी नववधू के साथ अपने महल में प्रवेश किया ॥97॥
तदनंतर सूर्य अस्त होने के सम्मुख हुआ सो ऐसा जान पड़ता था मानो युद्ध में अनेक रथों के चक्र को चूर्ण करने वाला, विजिगीषु राजाओं के तेज को हरने वाला एवं शिशुपाल का घात करने वाला कृष्ण का चरित देखकर वह अपने आपके पकड़े जाने की आशंका से भयभीत हो गया था इसीलिए तो हजार किरणों से तीक्ष्ण होनेपर भी वह अपने शरीर को संकुचित कर अस्ताचल की गुफा में चला गया था ॥98॥ प्रातःकाल के समय राग (प्रेम-पक्ष में ललाई) से युक्त जिस संध्या को सूर्य ने महान् उदय (उदय-पक्ष में वैभव) के धारक होनेपर भी तीव्र राग (प्रेम-पक्ष में ललाई) से युक्त हो अपने बदले के प्रेम से अच्छी तरह अनुवर्तित किया था अर्थात् संध्या को रागयुक्त देख अपने आपको भी रागयुक्त किया था उस संध्या ने अब सायंकाल के समय कुसुंभ के फूल के समान लाल वर्ण हो किरणरूप संपत्ति के नष्ट हो जाने पर भी सूर्य के प्रति अपनी अनु रक्तता दिखलायी थी । भावार्थ-―सूर्य ने महान् अभ्युदय से युक्त होनेपर भी मेरे प्रति राग धारण किया था इसलिए इस विपत्ति के समय मुझे भी इसके प्रति राग धारण करना चाहिए यह विचारकर ही मानो संध्या ने सूर्यास्त के समय लालिमा धारण कर ली ॥99॥ तदनंतर अंजन की महारज के समान काले, मोह उत्पन्न करने वाले, प्रचंड पवन के समान भयंकर, उद्धत, सब ओर फैलने वाले, उन्मुख एवं अंतर-रहित अंधकार के समूहरूपी पापों से जगत् शीघ्र ही ऐसा आच्छादित हो गया मानो दुर्जनों से ही व्याप्त हुआ हो ॥100॥ तत्पश्चात् जो अपनी किरणों से गाढ़ अंधकार को दूर हटा रहा था, मनुष्यों के नेत्र तृषा से पीड़ित होकर ही मानो जिसका शीघ्र पान कर रहे थे, जो जगत् के जीवों को काम की उत्तेजना करने वाला था और जो सूर्य से उत्पन्न हुए संताप को नष्ट कर रहा था ऐसा चंद्रमा सुखी मनुष्यों के सुख को और भी अधिक बढ़ाने के लिए उदय को प्राप्त हुआ ॥101 ॥ उस समय जगत् में समस्त जीवों के साथ-साथ, चंद्रमा की किरणों के स्पर्श से कुमुदिनी विकास को प्राप्त हुई और अपनी प्रिया से वियुक्त विरह से देदीप्यमान चक्रवाकों के साथ-साथ कमलिनी विकास को प्राप्त नहीं हुई सो ठीक ही है क्योंकि दुःखी मनुष्यों को हर्ष के कारण सुख नहीं पहुंचा सकते ॥102॥ तदनंतर मानवती स्त्रियों के मान को हरने वाले एवं दंपतियों को हर्षरूपी संपत्ति के प्राप्त कराने वाले प्रदोष काल के प्रवृत्त होने पर वे यादव अपनी सुंदर स्त्रियों के साथ चूना के समान उज्ज्वल चांदनी से शुभ्र महलों में क्रीड़ा करने लगे ॥103॥ जो रुक्मिणी के शरीररूपी लता पर भ्रमर के समान जान पड़ते थे ऐसे सुंदर शरीर के धारक कृष्ण भी रात्रि के समय चिरकाल तक रमण की हुई रुक्मिणी के साथ क्रीड़ा करते रहे और क्रीड़ा के अनंतर कोमल शय्या पर उसके गाढ़ आलिंगित स्थूल स्तन, भुजा और मुख के स्पर्श से निद्रा सुख को प्राप्त कर सो रहे ॥104॥ तदनंतर रात्रि के समस्त भेदों को जानने वाले, उत्तम पंखों की फड़फड़ाहट से सुंदर, रात्रि के अंत की सूचना देने वाले और नाना प्रकार को कलंगियों से युक्त मुर्गे पहले नीची और बाद में ऊंची ध्वनि से सुंदर बाग देने लगे सो उससे ऐसा जान पड़ता था मानो मद में सोयी हुई यदु स्त्रियाँ जाग न जायें इस भय से ही वे एक साथ न चिल्लाकर क्रम-क्रम से चिल्लाते थे ॥105 ॥ प्रातःकाल में प्रातः संध्या के समान रुक्मिणी पहले जाग गयी और अपने उत्तम करकमलों से कृष्ण का शरीर दबाने लगी । उसके कोमल हाथों का स्पर्श पा श्रीकृष्ण भी जाग गये और जागकर उन्होंने रतिक्रीड़ा के कारण जिसके शरीर से सुगंधि निकल रही थी तथा जो लज्जा से नम्रीभूत थी ऐसी रुक्मिणी को पास में बैठी लक्ष्मी के समान देखा ॥106॥ उस समय द्वारिकापुरी प्रातःकाल के नगाड़ों के जोरदार शब्दों, शंखों, मधुर संगीतों और मेघों की उत्कृष्ट गर्जना के समान समुद्र को गंभीर गर्जना के शब्दों से गूंज उठी । इधर-उधर घर-घर राजा और प्रजा के लोग जाग उठे तथा यथायोग्य अपने-अपने कार्यों में सब प्रजा लग गयी ॥107॥ तदनंतर जो शीघ्र ही आकर दूसरों के द्वारा संयोजित पदार्थ को यहाँ से दूर हटा रहा था तथा दूसरों के द्वारा वियोजित पदार्थ को मिला रहा था, अत्यंत चतुर था, समर्थ था, जगत् का उज्ज्वल एवं जागृत रहने वाला उत्कृष्ट नेत्र था, जो जिनेंद्र भगवान् के वचन मार्ग के समान था अथवा विधाता के समान था ऐसा सूर्य उदय को प्राप्त हुआ । भावार्थ-रात्रि के समय चंद्रमा ग्रह, नक्षत्र आदि कांतिमां पदार्थ अपने साथ अंधकार को भी थोड़ा-बहुत स्थान दे देते हैं पर सूर्य आते ही साथ उस अंधकार को पृथिवीतल से दूर हटा देता है । इसी प्रकार रात्रि के समय चकवा-चकवी परस्पर वियुक्त हो जाते हैं परंतु सूर्य उदय होते ही उन्हें मिला देता है ॥108॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में रुक्मिणी हरण का वर्णन करने वाला बयालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥42॥