मरीचि: Difference between revisions
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<span class="HindiText"> (1) तीर्थंकर आदिनाथ का पौत्र और चक्रवर्ती भरत का उनकी अनंतमती रानी से उत्पन्न पुत्र । इसने तीर्थंकर वृषभदेव के साथ संयम धारण किया था । भूख-प्यास की अतीव वेदना से व्याकुलित होकर यह संयम से भ्रष्ट हुआ तथा स्वेच्छाचारी होकर जंगल के फलों और जल का सेवन करने लगा था । वन-देवता ने इसकी संयम-विरोधी प्रवृत्तियाँ देखकर इसे समझाया था कि—‘गृहस्थवेष में किया पाप तो संयमी होने से छूट जाता है किंतु संयम अवस्था में किया गया पाप वज्रलेप हो जाता है । वनदेवता की इस बात का इस पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा । योग और सांख्यदर्शन के सिद्धांत आरंभ में इसी ने बनाये थे । यह परिव्राजक बन गया । संयम से भ्रष्ट हुए इसके साथी संबोधि प्राप्त कर पुन: दीक्षित हो गये थे किंतु यह पथभ्रष्ट ही रहा । आयु के अंत में शारीरिक कष्ट सहता हुआ यह मरकर अज्ञानतप के प्रभाव से ब्रह्म कल्प में देव हुआ । वहाँ से चयकर साकेत नगरी में यह कपिल ब्राह्मण और उसकी काली ब्राह्मणी का जटिल नामक पुत्र हुआ । दीक्षा लेकर जटिल तप के प्रभाव से देव हुआ और स्वर्ग से चयकर स्थूणागार नगर में पुष्यमित्र ब्राह्मण हुआ । यह मंद कषायों के साथ मरने से सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ । वहाँ से चयकर श्वेतिका नगरी में अग्निसह विप्र हुआ और इसके पश्चात् सनत्कुमार स्वर्ग में देव । स्वर्ग से चयकर रमणीकमंदिर नगर में अग्निमित्र ब्राह्मण हुआ इसके पश्चात् माहेंद्र स्वर्ग गया और वहाँ से चयकर पुरातनमंदिर नगर में सालंकायन का भारद्वाज पुत्र हुआ । त्रिदंडी दीक्षा पूर्वक मरण होने से यह पुन: माहेंद्र स्वर्ग गया और वहाँ से चयकर त्रस, स्थावर, योनियों में भटकता रहा । पश्चात् यह राजगृही में स्थावर नाम से उत्पन्न हुआ तथा मरकर स्वर्ग गया और वहाँ से चयकर पुन: इसी नगर में विश्वनंदी नाम से उत्पन्न हुआ और इसके बाद स्वर्ग गया तथा वहाँ से चयकर पोदनपुर में त्रिपृष्ठ राजपुत्र हुआ । इस पर्याय से मरकर नरक पहुँचा और वहाँ से निकल कर सिंह हुआ । पुन: नरक (रत्नप्रभा) गया और पुन: सिंह हुआ । सिंह पर्याय में इसने श्रावक के यत ग्रहण किये और मरकर व्रतों के प्रभाव से सौधर्म स्वर्ग में सिंहकेतु देव हुआ । पश्चात् क्रमश: कनकपुंख विद्याधर का कनकोज्ज्वल पुत्र, स्वर्ग में देव, अयोध्या में हरिषेण नृप का पुत्र, पुन: देव, पश्चात् पुंडरीकिणी नगरी में राजा सुमित्र का प्रियमित्र पुत्र, सहस्रार स्वर्ग में देव । छत्रपुर में नंद राजपुत्र हुआ । इस पर्याय से यह स्वर्ग गया और वहाँ से चयकर अंतिम तीर्थंकर महावीर हुआ । <span class="GRef"> महापुराण 18. 61-62, 24.182-62. 88-89, 74.49-56, 62-68, 219, 222, 229-246, 276, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_3#289|पद्मपुराण - 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Latest revision as of 15:20, 27 November 2023
== सिद्धांतकोष से ==
- यह भगवान् महावीर स्वामी का दूरवर्ती पूर्व भव है (देखें महावीर ) पूर्वभव नं. 2 में पुरुरवा नामक भील था। पूर्वभव नं. 1 में सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ। वर्तमान भव में भरत की अनंतसेना नामक स्त्री से मरीचि नामक पुत्र हुआ। इसने परिव्राजक बन 363 मिथ्या मतों की प्रवृत्ति की। चिरकाल भ्रमण करके त्रिपृष्ठ नामक बलभद्र और फिर अंतिम तीर्थंकर हुआ। ( पद्मपुराण/3/293 ); ( महापुराण/62/88-92 तथा 74/14,20,51,56,199,204 )।
- एक क्रियावादी थे –
राजवार्तिक/ भूमिका/6/1/22 अपर आहु:–क्रियात एव मोक्ष इति नित्यकर्महेतुकं निर्वाणमिति वचनात् ।=कोई क्रिया से ही मोक्ष मानते हैं। क्रियावादियों का कथन है कि नित्य कर्म करने से ही निर्वाण को प्राप्त होता है।
अधिक जानकारी के लिए देखें (क्रियावाद )।
पुराणकोष से
(1) तीर्थंकर आदिनाथ का पौत्र और चक्रवर्ती भरत का उनकी अनंतमती रानी से उत्पन्न पुत्र । इसने तीर्थंकर वृषभदेव के साथ संयम धारण किया था । भूख-प्यास की अतीव वेदना से व्याकुलित होकर यह संयम से भ्रष्ट हुआ तथा स्वेच्छाचारी होकर जंगल के फलों और जल का सेवन करने लगा था । वन-देवता ने इसकी संयम-विरोधी प्रवृत्तियाँ देखकर इसे समझाया था कि—‘गृहस्थवेष में किया पाप तो संयमी होने से छूट जाता है किंतु संयम अवस्था में किया गया पाप वज्रलेप हो जाता है । वनदेवता की इस बात का इस पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा । योग और सांख्यदर्शन के सिद्धांत आरंभ में इसी ने बनाये थे । यह परिव्राजक बन गया । संयम से भ्रष्ट हुए इसके साथी संबोधि प्राप्त कर पुन: दीक्षित हो गये थे किंतु यह पथभ्रष्ट ही रहा । आयु के अंत में शारीरिक कष्ट सहता हुआ यह मरकर अज्ञानतप के प्रभाव से ब्रह्म कल्प में देव हुआ । वहाँ से चयकर साकेत नगरी में यह कपिल ब्राह्मण और उसकी काली ब्राह्मणी का जटिल नामक पुत्र हुआ । दीक्षा लेकर जटिल तप के प्रभाव से देव हुआ और स्वर्ग से चयकर स्थूणागार नगर में पुष्यमित्र ब्राह्मण हुआ । यह मंद कषायों के साथ मरने से सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ । वहाँ से चयकर श्वेतिका नगरी में अग्निसह विप्र हुआ और इसके पश्चात् सनत्कुमार स्वर्ग में देव । स्वर्ग से चयकर रमणीकमंदिर नगर में अग्निमित्र ब्राह्मण हुआ इसके पश्चात् माहेंद्र स्वर्ग गया और वहाँ से चयकर पुरातनमंदिर नगर में सालंकायन का भारद्वाज पुत्र हुआ । त्रिदंडी दीक्षा पूर्वक मरण होने से यह पुन: माहेंद्र स्वर्ग गया और वहाँ से चयकर त्रस, स्थावर, योनियों में भटकता रहा । पश्चात् यह राजगृही में स्थावर नाम से उत्पन्न हुआ तथा मरकर स्वर्ग गया और वहाँ से चयकर पुन: इसी नगर में विश्वनंदी नाम से उत्पन्न हुआ और इसके बाद स्वर्ग गया तथा वहाँ से चयकर पोदनपुर में त्रिपृष्ठ राजपुत्र हुआ । इस पर्याय से मरकर नरक पहुँचा और वहाँ से निकल कर सिंह हुआ । पुन: नरक (रत्नप्रभा) गया और पुन: सिंह हुआ । सिंह पर्याय में इसने श्रावक के यत ग्रहण किये और मरकर व्रतों के प्रभाव से सौधर्म स्वर्ग में सिंहकेतु देव हुआ । पश्चात् क्रमश: कनकपुंख विद्याधर का कनकोज्ज्वल पुत्र, स्वर्ग में देव, अयोध्या में हरिषेण नृप का पुत्र, पुन: देव, पश्चात् पुंडरीकिणी नगरी में राजा सुमित्र का प्रियमित्र पुत्र, सहस्रार स्वर्ग में देव । छत्रपुर में नंद राजपुत्र हुआ । इस पर्याय से यह स्वर्ग गया और वहाँ से चयकर अंतिम तीर्थंकर महावीर हुआ । महापुराण 18. 61-62, 24.182-62. 88-89, 74.49-56, 62-68, 219, 222, 229-246, 276, पद्मपुराण - 3.289-293, 85.44, हरिवंशपुराण - 9.125-127, वीरवर्द्धमान चरित्र 2. 74-90, 107-131, 3. 1-7, 56, 61-63, 4.2-59, 72-76, 5.134-135, 6.2-104, 7.110-111(2) रथनूपुर के राजा विद्याधर अमिततेज का दूत । अमिततेज ने अशनिघोष के पास इसे ही भेजा था । महापुराण 62. 269 (3) भद्रिलपुर नगर का एक ब्राह्मण । कपिला इसकी पत्नी और मुंडशलायन पुत्र था । हरिवंशपुराण - 60.11