वशिष्ठ: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p> कंस के पूर्वभव का जीव - गंगा और गंधावती नदियों के संगम पर स्थित जठरकौशिक तापस-बस्ती का प्रमुख तापस । पंचाग्नि तप तपते देखकर गुणभद्र और वीरभद्र चारण ऋद्धिधारी मुनियों ने इसे उसका तप अज्ञान तप बताया था । मुनियों से ऐसा सुनकर यह पहले तो कुपित हुआ किंतु मुनियों द्वारा जटाओं में उत्पन्न लीख, जुआ, मृत मछलियाँ तथा जलती हुई अग्नि में छटपटाने वाले कीड़े दिखाये जाने पर यह शांत हो गया था और इसने उनसे दीक्षा ले ली थी । व्यंतर देव इसके तप के प्रभाव से प्रसन्न हो गये थे । यहाँ से विहार कर के यह मथुरा आया था । यहां इसने एक मास के उपवास का नियम लेकर आतापनयोग धारण किया था । मथुरा के राजा उग्रसेन ने इसके दर्शन किये थे । इनसे प्रभावित होकर उसने नगर में घोषणा कराई थी कि थे मुनिराज महल में ही आहार करेंगे अन्यत्र नहीं । पारणा के दिन ये नगर में आये किंतु नगर में आग लग जाने से इन्हें निराहार ही लौट जाना पड़ा था । एक मास बाद पुन: पारणा के लिए आने पर इन्हें हाथी के क्षुब्ध हो जाने से पुन: निराहार लौट जाना पड़ा । तीसरी बार आहार के लिए आने पर राजा उग्रसेन व्याकुलित चित्त होने से ध्यान न दे सके । यह इस घटना से कुपित हुआ । इसने उग्रसेन का पुत्र होकर राज्य छीनने का निदान किया । आयु के अंत में मरकर यह निदान के कारण राजा उग्रसेन का रानी पद्मावती के गर्भ से कंस नाम का पुत्र हुआ । कंस की पर्याय में इसने उग्रसेन को बंदी बनाकर उसे बहुत दुःख दिये थे । <span class="GRef"> महापुराण 70. 322-341, 367-368, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 33.46-84 </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> कंस के पूर्वभव का जीव - गंगा और गंधावती नदियों के संगम पर स्थित जठरकौशिक तापस-बस्ती का प्रमुख तापस । पंचाग्नि तप तपते देखकर गुणभद्र और वीरभद्र चारण ऋद्धिधारी मुनियों ने इसे उसका तप अज्ञान तप बताया था । मुनियों से ऐसा सुनकर यह पहले तो कुपित हुआ किंतु मुनियों द्वारा जटाओं में उत्पन्न लीख, जुआ, मृत मछलियाँ तथा जलती हुई अग्नि में छटपटाने वाले कीड़े दिखाये जाने पर यह शांत हो गया था और इसने उनसे दीक्षा ले ली थी । व्यंतर देव इसके तप के प्रभाव से प्रसन्न हो गये थे । यहाँ से विहार कर के यह मथुरा आया था । यहां इसने एक मास के उपवास का नियम लेकर आतापनयोग धारण किया था । मथुरा के राजा उग्रसेन ने इसके दर्शन किये थे । इनसे प्रभावित होकर उसने नगर में घोषणा कराई थी कि थे मुनिराज महल में ही आहार करेंगे अन्यत्र नहीं । पारणा के दिन ये नगर में आये किंतु नगर में आग लग जाने से इन्हें निराहार ही लौट जाना पड़ा था । एक मास बाद पुन: पारणा के लिए आने पर इन्हें हाथी के क्षुब्ध हो जाने से पुन: निराहार लौट जाना पड़ा । तीसरी बार आहार के लिए आने पर राजा उग्रसेन व्याकुलित चित्त होने से ध्यान न दे सके । यह इस घटना से कुपित हुआ । इसने उग्रसेन का पुत्र होकर राज्य छीनने का निदान किया । आयु के अंत में मरकर यह निदान के कारण राजा उग्रसेन का रानी पद्मावती के गर्भ से कंस नाम का पुत्र हुआ । कंस की पर्याय में इसने उग्रसेन को बंदी बनाकर उसे बहुत दुःख दिये थे । <span class="GRef"> महापुराण 70. 322-341, 367-368, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_33#46|हरिवंशपुराण - 33.46-84]] </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:21, 27 November 2023
कंस के पूर्वभव का जीव - गंगा और गंधावती नदियों के संगम पर स्थित जठरकौशिक तापस-बस्ती का प्रमुख तापस । पंचाग्नि तप तपते देखकर गुणभद्र और वीरभद्र चारण ऋद्धिधारी मुनियों ने इसे उसका तप अज्ञान तप बताया था । मुनियों से ऐसा सुनकर यह पहले तो कुपित हुआ किंतु मुनियों द्वारा जटाओं में उत्पन्न लीख, जुआ, मृत मछलियाँ तथा जलती हुई अग्नि में छटपटाने वाले कीड़े दिखाये जाने पर यह शांत हो गया था और इसने उनसे दीक्षा ले ली थी । व्यंतर देव इसके तप के प्रभाव से प्रसन्न हो गये थे । यहाँ से विहार कर के यह मथुरा आया था । यहां इसने एक मास के उपवास का नियम लेकर आतापनयोग धारण किया था । मथुरा के राजा उग्रसेन ने इसके दर्शन किये थे । इनसे प्रभावित होकर उसने नगर में घोषणा कराई थी कि थे मुनिराज महल में ही आहार करेंगे अन्यत्र नहीं । पारणा के दिन ये नगर में आये किंतु नगर में आग लग जाने से इन्हें निराहार ही लौट जाना पड़ा था । एक मास बाद पुन: पारणा के लिए आने पर इन्हें हाथी के क्षुब्ध हो जाने से पुन: निराहार लौट जाना पड़ा । तीसरी बार आहार के लिए आने पर राजा उग्रसेन व्याकुलित चित्त होने से ध्यान न दे सके । यह इस घटना से कुपित हुआ । इसने उग्रसेन का पुत्र होकर राज्य छीनने का निदान किया । आयु के अंत में मरकर यह निदान के कारण राजा उग्रसेन का रानी पद्मावती के गर्भ से कंस नाम का पुत्र हुआ । कंस की पर्याय में इसने उग्रसेन को बंदी बनाकर उसे बहुत दुःख दिये थे । महापुराण 70. 322-341, 367-368, हरिवंशपुराण - 33.46-84