अनुभव: Difference between revisions
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<p class="HindiText" id="4.1"><b>1. स्वसंवेदन द्वारा आत्मा प्रत्यक्ष होता है</b></p> | <p class="HindiText" id="4.1"><b>1. स्वसंवेदन द्वारा आत्मा प्रत्यक्ष होता है</b></p> | ||
<span class="GRef">नयचक्रवृहद् गाथा 266</span> <p class="PrakritText">पच्चक्खो अणुहवो जम्हा ॥266॥ </p> | <span class="GRef">नयचक्रवृहद् गाथा 266</span> <p class="PrakritText">पच्चक्खो अणुहवो जम्हा ॥266॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= आराधना | <p class="HindiText">= आराधना काल में युक्ति आदि का आलंबन करना योग्य नहीं; क्योंकि अनुभव प्रत्यक्ष होता है।</p> | ||
<span class="GRef">तत्त्वानुशासन श्लोक 168</span> <p class="SanskritText">वपुषोऽप्रतिभासेऽपि स्वातंत्र्येण चकासती। चेतना ज्ञानरूपेयं स्वयं दृश्यत एव हि ॥168॥ </p> | <span class="GRef">तत्त्वानुशासन श्लोक 168</span> <p class="SanskritText">वपुषोऽप्रतिभासेऽपि स्वातंत्र्येण चकासती। चेतना ज्ञानरूपेयं स्वयं दृश्यत एव हि ॥168॥ </p> | ||
<p class="HindiText">= स्वतंत्रता से चमकती हुई यह ज्ञानरूपी चेतना शरीर रूप से प्रतिभासित न होने पर भी स्वयं ही दिखाई पड़ती है।</p><br> | <p class="HindiText">= स्वतंत्रता से चमकती हुई यह ज्ञानरूपी चेतना शरीर रूप से प्रतिभासित न होने पर भी स्वयं ही दिखाई पड़ती है।</p><br> |
Revision as of 23:13, 16 February 2024
लौकिक अथवा पारमार्थिक सुख-दुःख के वेदन को अनुभव कहते हैं। पारमार्थिक आनंद का अनुभव ही शुद्धात्मा का अनुभव है, जो कि मोक्ष-मार्ग में सर्वप्रधान है। साधक की जघन्य स्थिति से लेकर उसकी उत्कृष्ट स्थिति पर्यंत यह अनुभव बराबर तारतम्य भाव से बढ़ता जाता है और एक दिन उसे कृत-कृत्य कर देता है। इसी विषय का कथन इस अधिकार में किया गया है।
- भेद व लक्षण
- अनुभव का अर्थ अनुभाग
- अनुभव का अर्थ उपभोग
- अनुभव का अर्थ प्रत्यक्षवेदन
- अनुभूति का अर्थ प्रत्यक्षवेदन
- स्वसंवेदन ज्ञान का अर्थ अंतःसुख का वेदन
- संवित्ति का अर्थ सुख संवेदन
- अनुभव निर्देश
- स्वसंवेदन मानस अचक्षुदर्शन का विषय है।
- आत्मा का अनुभव स्वसंवेदन-द्वारा ही संभव है।
- अन्य ज्ञेयों से शून्य होता हुआ भी सर्वथा शून्य नहीं है।
- आत्मानुभव करने की विधि।
- मोक्षमार्ग में आत्मानुभव का स्थान
- आत्मा को जानने में अनुभव ही प्रधान है।
- पदार्थ की सिद्धि आगमयुक्ति व अनुभव से होती है।
- तत्त्वार्थश्रद्धान में आत्मानुभव ही प्रधान है।
- आत्मानुभव के बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता।
- स्वसंवेदनज्ञान की प्रत्यक्षता
- स्वसंवेदन द्वारा आत्मा प्रत्यक्ष होता है।
- स्वसंवेदन में केवलज्ञानवत् आत्मप्रत्यक्ष होता है।
- सम्यग्दृष्टि को स्वात्मदर्शन के विषय में किसी से पूछने की आवश्यकता नहीं।
- मति-श्रुतज्ञान की प्रत्यक्षता व परोक्षता का समन्वय।
- मति-श्रुतज्ञान की प्रत्यक्षता का प्रयोजन।
- अल्प भूमिकाओं में आत्मानुभव विषयक चर्चा
- सम्यग्दृष्टि को स्वानुभूत्यावरण कर्म का क्षयोपशम अवश्य होता है।
- सम्यग्दृष्टि को कथंचित् आत्मानुभव अवश्य होता है।
- धर्मध्यान में कथंचित् आत्मानुभव अवश्य होता है।
- धर्मध्यान अल्पभूमिकाओं में भी यथायोग्य होता है।
- निश्चय धर्मध्यान मुनि को होता है, गृहस्थ को नहीं।
- गृहस्थ को निश्चय ध्यान कहना अज्ञान है।
- साधु व गृहस्थ के निश्चय ध्यान में अंतर
- अल्पभूमिका में आत्मानुभव के सद्भाव असद्भाव का समन्वय।
- शुद्धात्मा के अनुभव विषयक शंका समाधान
- अशुद्ध ज्ञान से शुद्धात्मा का अनुभव कैसे करें।
- अशुद्धता के सद्भाव में भी उसकी उपेक्षा कैसे करें।
- देहसहित भी उसका देहरहित अनुभव कैसे करें।
- परोक्ष आत्मा का प्रत्यक्ष कैसे करें।
* आत्मानुभव व शुक्लध्यान की एकार्थता - देखें पद्धति ।
* आत्मानुभवजन्य सुख। - देखें सुख ।
* परमुखानुभव। - देखें राग ।
• शुद्धात्मानुभव का महत्त्व व फल। - देखें उपयोग - II.2।
• जो एक को जानता है वही सर्व को जान सकता है। - देखें श्रुतकेवली - 2.6।
• स्वसंवेदन ज्ञान में विकल्प का कथंचित् सद्भाव व असद्भाव। - देखें विकल्प ।
• मति-श्रुतज्ञान की पारमार्थिक परोक्षता। - देखें परोक्ष ।
• स्वसंवेदन ज्ञान के अनेकों नाम हैं। - देखें मोक्षमार्ग - 2.5।
• लौकिक कार्य करते भी सम्यग्दृष्टि को ज्ञानचेतना रहती है। - देखें सम्यग्दृष्टि - 2।
• सम्यग्दृष्टि को ज्ञान चेतना अवश्य होती है। - देखें चेतना - 2।
• पंचमकालमें शुद्धानुभव संभव है। - देखें धर्मध्यान - 5।
• शुभोपयोग मुनि को गौण होता है और गृहस्थ को मुख्य। - देखें धर्म - 6।
• 1-3 गुणस्थान तक अशुभ और 4-6 गुणस्थान तक शुभ उपयोग प्रधान है। - देखें उपयोग - II.4।
• शुद्धात्मानुभूति के अनेकों नाम। - देखें मोक्षमार्ग - 2.5।
मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टि के अनुभव में अंतर। - देखें मिथ्यादृष्टि - 4।
1. भेद व लक्षण
1. अनुभव का अर्थ अनुभाग
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 8/21विपाकोऽनुभवः।
= विपाक अर्थात् विविध प्रकार के फल देने की शक्ति का (कर्मों में) पड़ना ही अनुभव है।
देखो विपाक-द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि के निमित्त से उत्पन्न पाक ही अनुभव है।
2. अनुभव का अर्थ उपभोग
राजवार्तिक अध्याय 3/273, 191अनुभवः उपभोगपरिभोगसंपत्।
= अनुभव उपभोग परिभोग रूप होता है।
( सर्वार्थसिद्धि अध्याय /3/27/222)।
3. अनुभव का अर्थ प्रत्यक्षवेदन
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 42/184
स्वसंवेदनगम्य आत्म सुख का वेदन ही स्वानुभव है
- देखें आगे स्वसंवेदन ।
न्यायदीपिका अधिकार 3/8/56इदंतोल्लेखिज्ञानमनुभवः।
= `यह है' ऐसे उल्लेख से चिह्नित ज्ञान अनुभव है।
4. अनुभूति का अर्थ प्रत्यक्षवेदन
समयसार / आत्मख्याति गाथा 14/कलश 13आत्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिका या ज्ञानानुभूतिरियमेव किलेति बद्ध्वा। आत्मानमात्मनि निवेश्य सुनिष्प्रकंपमेकोऽस्ति नित्यमवबोधधनः समंतात् ॥13॥
= शुद्धनयस्वरूप आत्मा की अनुभूति ही ज्ञान की अनुभूति है। अतः आत्मा में आत्मा को निश्चल स्थापित करके सदा सर्व और एक ज्ञानधन आत्मा है इस प्रकार देखो।
पंचास्तिकाय/ समयव्याख्या/39/79
चेतनानुभूत्युपलब्धिवेदनानामेकार्थत्वात्।
= चेतना, अनुभव, उपलब्धि और वेदना ये एकार्थक हैं।
पंचाध्यायी पूर्वार्ध/651-652
स्वात्माध्यानाविष्टस्तथेह कश्चिन्नरोऽपिकिल यावत्। अयमहमात्मा स्वयमिति स्यामनुभविताहमस्य नयपक्षः ॥651॥ चिरमचिरं वा देवात् स एव यदि निर्विकल्पकश्च स्यात्। स्वयमात्मेत्यनुभवनात् स्यादियमात्मानुभूतिरिह तावत् ॥652॥
= स्वात्मध्यान से युक्त कोई मनुष्य भी जहाँ तक 'मैं ही यह आत्मा हूँ और मैं स्वयं ही उसका अनुभव करने वाला हूँ' इस प्रकार के विकल्प से युक्त रहता है, तब तक वह नयपक्ष वाला कहा जाता है ॥651॥ किंतु यदि वही दैववश से अधिक या थोड़े काल में निर्विकल्प हो जाता है, तो `मैं स्वयं आत्मा हूँ' इस प्रकार का अनुभव करने से यहाँ पर उसी समय आत्मानभूति कही जाती है।
5. स्वसंवेदनज्ञान का अर्थ अंतःसुख का वेदन
तत्त्वानुशासन श्लोक 161वेद्यत्वं वेदकत्वं च यत् स्वस्य स्वेन योगिनः। तत्स्वसंवेदनं प्राहुरात्मनोऽनुभवं दृशम् ॥161॥
= `स्वसंवेदन' आत्मा के उस साक्षात् दर्शनरूप अनुभव का नाम है जिसमें योगी आत्मा स्वयं ही ज्ञेय तथा ज्ञायक भाव को प्राप्त होता है।
परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 12अंतरात्मलक्षणवीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानेन...यं परमात्मस्वभावम्...ज्ञातः।
= अंतरात्म लक्षण वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा जो यह परमात्मस्वभाव जाना गया है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 41/176रागादिविकल्पोपाधिरहितपरमस्वास्थ्यसंवित्तिसंजातसदानंदैकलक्षणसुखामृतरसास्वादं...।
= रागादि विकल्पों की उपाधि से रहित परम स्वास्थ्य लक्षण संवित्ति या स्वसंवेदन से उत्पन्न सदानंद रूप एक लक्षण अमृत रस का आस्वाद...
(द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 40/163; 42/184)
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 41/177
शुद्धोपयोगलक्षणस्वसंवेदनज्ञानेन।
= शुद्धोपयोग लक्षण स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा...।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 52/21तस्यैव शुद्धात्मनो निरुपाधिस्वसंवेदनलक्षणभेदज्ञानेन मिथ्यात्वरागादिपरभावेभ्यः पृथक् परिच्छेदनं सम्यग्ज्ञानम्।
= उसी शुद्धात्मा के उपाधिरहित स्वसंवेदरूप भेदज्ञान-द्वारा मिथ्यात्व रागादि परभावों से भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान है।
6. संवित्ति का अर्थ सुख संवेदन
नयचक्रवृहद् गाथा 350लक्खणदो णियलक्खे अणुहवयाणस्स जं हवे सोक्खं। सा संवित्ती भणिया सयलवियप्पाण णिद्दहणा ॥350॥
= निजात्मा के लक्ष्य से सकल विकल्पों को दग्ध करने पर जो सौख्य होता है उसे संवित्ति कहते हैं।
2. अनुभव निर्देश
1. स्वसंवेदन मानस अचक्षुदर्शन का विषय है
परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 2/34/155अत्र चतुष्टयमध्ये मानसमचक्षुर्दर्शनमात्मग्राहक भवति।
= चारों दर्शनों में-से मानस अचक्षुदर्शन आत्मग्राहक है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 711-712तदभिज्ञानं हि यथा शुद्धस्वात्मानुभूतिसमयेऽस्मिन्। स्पर्शनरसनघ्राणं चक्षुः श्रोतं च नोपयोगि मतम् ॥711॥ केवलमुपयोगि मनस्तत्र च भवतीह तन्मनी द्वेधा। द्रव्यमनो भावमनो नोइंद्रियनाम किल स्वार्थात् ॥712॥
= शुद्ध स्वात्मानुभूति के समय में स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इंद्रियाँ उपयोगी नहीं मानी जातीं ॥711॥ तहाँ केवल एक मन ही उपयोगी है और वह मन दो प्रकार का है - द्रव्यमन व भावमन।
2. आत्मा का अनुभव स्वसंवेदन द्वारा ही संभव है
तत्त्वानुशासन श्लोक 166-167मोहींद्रियाधिया दृश्यं रूपादिरहितत्वतः। विसर्कास्तत्र पक्ष्यंति ते ह्यविस्पष्टतर्कणाः ॥166॥ उभयस्मिन्निरुद्धे तु स्याद्विस्पष्टमतींद्रियम्। स्वसंवेद्यं हि तद्रूपं स्वसंवित्त्यैव दृश्यताम् ॥167॥
= रूपादि से रहित होने के कारण वह आत्मरूप इंद्रियज्ञान से दिखाई देने वाला नहीं है। तर्क करने वाले उसे देख नहीं पाते। वे अपनी तर्कणा में भी विशेष रूप से स्पष्ट नहीं हो पाते ॥166॥ इंद्रिय और मन दोनों के निरुद्ध होने पर अतींद्रिय ज्ञान विशेष रूप से स्पष्ट होता है। अपना वह जो स्वसंवेदन के गोचर है, उसे स्वसंवेदन के द्वारा ही देखना चाहिए ॥167॥
3. अन्य ज्ञेयों से शून्य होता हुआ भी सर्वथा शून्य नहीं है
तत्त्वानुशासन श्लोक 160, 172चिंताभावी न जैनानां तुच्छो मिथ्यादृशामिव। दृग्बोधसामान्यरूपस्य स्वस्य संवेदनं हि सः ॥160॥ तदा च परमैकाग्र्याद्बहिरर्थेषु सत्स्वपि। अन्यत्र किंचनाभाति स्वमेवात्मनि पश्यतः ॥172॥
= चिंता का अभाव जैनियों के मत में अन्य मिथ्यादृष्टियों के समान तुच्छाभाव नहीं है, क्योंकि वह वस्तुतः दर्शन, ज्ञान और समतारूप आत्मा के संवेदन रूप है ॥160॥ उस समाधि काल में स्वात्मा में देखने वाले योगी की परम एकाग्रता के कारण बाह्य पदार्थों के विद्यमान होते हुए भी आत्मा के (सामान्य प्रतिभास के) अतिरिक्त और कुछ भी प्रतिभासित नहीं होता ॥172॥
देखें ध्यान - 4.6 (आलेख्याकारवत् अन्य ज्ञेय प्रतिभासित होते हैं) - इन दोनों का समन्वय देखें दर्शन - 2।
4. आत्मानुभव करने की विधि
समयसार / आत्मख्याति गाथा 144
यतः प्रथमतः श्रुतज्ञानावष्टंभेन ज्ञानस्वभावात्मानं निश्चित्य ततः खल्वात्मख्यातये परख्यातिहेतूनखिला एवेंद्रियानिंद्रियबुद्धीरवधार्य आत्माभिमुखीकृतमतिज्ञानतत्त्वतः, तथा नानाविधनयपक्षालंबनेनानेकविकल्पैराफुयंतीः श्रुतज्ञानबुद्धिरप्यवधार्य श्रुतज्ञानतत्त्वमप्यात्माभिमुखीकुर्वंनत्यंतमविकल्पो भूत्वा झगित्येव स्वरसत एव व्यक्तीभवंतमादिमध्यांतविमुक्तमनाकुलमेकं केवलमखिलस्यापि विश्वस्योपरितरंतमिबाखंडप्रतिभासमयमनंतं विज्ञान घनं परमात्मानं समयसारं विंदंनैवात्मा सम्यग्दृश्यते ज्ञायते च।
= प्रथम श्रुतज्ञान के अवलंबन से ज्ञानस्वभाव आत्मा का निश्चय करके, और फिर आत्मा की प्रसिद्धि के लिए, पर पदार्थ की प्रसिद्धि के कारणभूत इंद्रियों और मन के द्वारा प्रवर्तमान बुद्धियों को मर्यादा में लेकर जिसने मतिज्ञान तत्त्व को आत्मसम्मुख किया है; तथा जो नाना प्रकार के नयपक्षों के आलंबन से होने वाले अनेक विकल्पों के द्वारा आकुलता उत्पन्न करने वाली श्रुतज्ञान की बुद्धियों को भी मर्यादा में लाकर श्रुतज्ञान तत्त्व को भी आत्मसम्मुख करता हुआ, अत्यंत विकल्प रहित होकर, तत्काल निजरस से ही प्रकट होता हुआ, आदि, मध्य और अंत से रहित, अनाकुल, केवल, एक, संपूर्ण ही विश्व पर मानो तैरता हो ऐसे अखंड प्रतिभासमय, अनंत, विज्ञानघन, परमात्मारूप समयसार का जब आत्मा अनुभव करता है, तब उसी समय आत्मा सम्यक्तया दिखाई देता है, और ज्ञात होता है।
समयसार / आत्मख्याति गाथा 381/कलश 223
रागद्वेषविभावमुक्तमहसो नित्यं स्वभावस्पृशः, पूर्वागामिसमस्तकर्म बिकला भिन्नास्तदात्वादयात्। दूरारूढचरित्रवैभवबलाच्चंचच्चिदर्चिर्मयीं, विंदंति स्वरसाभिषिक्तभुवनां ज्ञानस्य संचेतनाम् ॥223॥
= जिनका तेज राग-द्वेष रूपी विभाव से रहित है, जो सदा स्वभाव को स्पर्श करने वाले हैं, जो भूतकाल के तथा भविष्यत्काल के समस्त कर्मों से रहित हैं, और जो वर्तमानकाल के कर्मोदय से भिन्न हैं; वे ज्ञानी अतिप्रबल चारित्र के वैभव के बल से ज्ञानकी संचेतना का अनुभव करते हैं - जो ज्ञान चेतना चमकती हुई चैतन्य ज्योतिमय है और जिसने अपने रस से समस्त लोक को सींचा है।
3. मोक्षमार्ग में आत्मानुभव का स्थान
1. आत्मा को जानने में अनुभव ही प्रधान है
समयसार / मूल या टीका गाथा 5तं एयत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण। जदि दाएज्ज पमाणं चुक्किज्ज छलं ण घेतव्वं ॥5॥
= उस एकत्व विभक्त आत्मा को मैं निजात्मा के वैभव से दिखाता हूँ। यदि मैं दिखाऊँ तो प्रमाण करना और यदि कहीं चूक जाऊँ तो छल ग्रहण न करना।
(समयसार / मूल या टीका गाथा 3), (पद्मनन्दि पंचविंशतिका /1/110), (पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 963) (पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 71)
समयसार / आत्मख्याति/5
यदि दर्शेयं तदा स्वयमेव स्वानुभवप्रत्यक्षेण परीक्ष्य प्रमाणीकर्त्तव्यम्।
= मैं जो यह दिखाऊँ उसे स्वयमेव अपने अनुभव प्रत्यक्ष से परीक्षा करके प्रमाण करना।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / परिशिष्ट/प्रारंभ
-ननु कोऽयमात्मा कथं चावाप्यत इति चेत्। आत्मा हि तावच्चैतंयसामांयव्याप्तानंतधर्माधिष्ठात्रेकं द्रव्यमनंतधर्मव्यापकानंतनयव्याप्येकश्रुतक्षानलक्षणपूर्वकस्वानुभवप्रमीयमाणत्वात्।
= प्रश्न - यह आत्मा कौन है और कैसे प्राप्त किया जाता है?
उत्तर - आत्मा वास्तव में चैतन्यसामान्य से व्याप्त अनंत धर्मों का अधिष्ठाता एक द्रव्य है, क्योंकि अनंत धर्मों में व्याप्त होने वाला जो एक श्रुतज्ञानस्वरूप प्रमाण है, उस प्रमाणपूर्वक स्वानुभव से प्रमेय होता है।
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 20/44
तदित्थं भूतमात्मागमानुमानस्वसंवेदनप्रत्यक्षज्ञानात् शुद्धो भवति।
= वह इस प्रकार का यह आत्मा आगम, अनुमान और स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से शुद्ध होता है।
2. पदार्थ की सिद्धि आगम, युक्ति व अनुभव से होती है
सा.सा./आ./44न खल्वागमयुक्तिस्वानुभवैर्बाधितपक्षत्वात् तदात्मवादिनः परमार्थवादिनः।
= जो इन अध्यवसानादिक को जीव कहते हैं, वे वास्तव में परमार्थवादी नहीं हैं, क्योंकि आगम, युक्ति और स्वानुभव से उनका पक्ष बाधित है। (और भी देखें पक्षाभास व अकिंचित्करहेत्वाभास ) ।
3. तत्त्वार्थश्रद्धान में आत्मानुभव ही प्रधान है
समयसार / आत्मख्याति गाथा 17-18परैः सममेकत्वाध्यवसायेन विमूढस्यायमहमनुभूतिरित्यात्मज्ञानं नोत्प्लवते तदभावादज्ञातखरशृंगश्रद्धानसमानत्वाच्छ्रद्धानमपि नोत्प्लवते।
= पर के साथ एकत्व के निश्चय से मूढ़ अज्ञानी जन को `जो यह अनुभूति है वही मैं हूँ' ऐसा आत्मज्ञान उदित नहीं होता और उसके अभाव से, अज्ञात का श्रद्धान गधे के सींग के समान है, इसलिए श्रद्धान भी उदित नहीं होता।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 415-20
स्वानुभूतिसनाथश्चेत् संति श्रद्धादयो गुणाः। स्वानुभूतिं विनाभासा नार्थाच्छ्रद्धादयो गुणाः ॥415॥ नैवं यतः समव्याप्तिः श्रद्धा स्वानुभवद्वयोः। नूनं नानुपलब्धेऽर्थे श्रद्धा खरविषाणवत् ॥420॥
= यदि श्रद्धा आदि स्वानुभव सहित हों तो वे सम्यग्दृष्टि के गुण लक्षण कहलाते हैं और वास्तव में स्वानुभव के बिना उक्त श्रद्धा आदि सम्यग्दर्शन के लक्षण नहीं कहलाते किंतु लक्षणाभास कहलाते हैं ॥415॥ श्रद्धा और स्वानुभव इन दोनों में समव्याप्ति है, कारण कि निश्चय से सम्यग्ज्ञान के द्वारा अगृहीत पदार्थ में सम्यक्श्रद्धा खरविषाण के समान हो ही नहीं सकती ॥420॥
(लांटी संहिता अधिकार 3/60,66)
4. आत्मानुभव के बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता
रयणसार गाथा 90णियतच्चुवलद्धि विणा सम्मत्तुवलद्धि णत्थि णियमेण। सम्मत्तुवलद्धि विणा णिव्वाणं णत्थि जिणुद्दिट्ठं ॥90॥
= निज तत्त्वोपलब्धि के बिना सम्यक्त्व की उपलब्धि नहीं होती और सम्यक्त्व की उपलब्धि के बिना निर्वाण नहीं होता ॥90॥
समयसार / आत्मख्याति गाथा 12/कलश 6
एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः, पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यांतरेभ्यः पृथक्। सम्यग्दर्शनमेतदेव नियतमात्मा चतावानयं, तन्मुक्त्वानवतत्त्वसंततिमिमात्मायमेकोऽस्तु नः ॥6॥
= इस आत्मा को अन्य द्रव्यों से पृथक् देखना ही नियम से सम्यग्दर्शन है। यह आत्मा अपने गुण पर्यायों में व्याप्त रहने वाला है और शुद्ध नय से एक तत्त्व में निश्चित किया गया है तथा पूर्ण ज्ञानघन है। एवं जितना सम्यग्दर्शन है उतना ही आत्मा है, इसलिए इस नव तत्त्व की संतति को छोड़कर यह आत्मा एक ही हमें प्राप्त हो।
4. स्वसंवेदनज्ञान की प्रत्यक्षता
1. स्वसंवेदन द्वारा आत्मा प्रत्यक्ष होता है
नयचक्रवृहद् गाथा 266पच्चक्खो अणुहवो जम्हा ॥266॥
= आराधना काल में युक्ति आदि का आलंबन करना योग्य नहीं; क्योंकि अनुभव प्रत्यक्ष होता है।
तत्त्वानुशासन श्लोक 168वपुषोऽप्रतिभासेऽपि स्वातंत्र्येण चकासती। चेतना ज्ञानरूपेयं स्वयं दृश्यत एव हि ॥168॥
= स्वतंत्रता से चमकती हुई यह ज्ञानरूपी चेतना शरीर रूप से प्रतिभासित न होने पर भी स्वयं ही दिखाई पड़ती है।
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 127/190
यद्यप्यनुमानेन लक्षणेन परोक्षज्ञानेन व्यवहारनयेन धूमादग्निवदशुद्धात्मा ज्ञायते तथापि स्वसंवेदनज्ञानसमुत्पन्न...सुखामृतजलेन....भरितावस्थानां परमयोगितां यथा शुद्धात्मा प्रत्यक्षो भवति तथेतराणां न भवति।
= यद्यपि अनुमान लक्षण परोक्षज्ञान के द्वारा व्यवहारनय से धूम से अग्नि की भाँति अशुद्धात्मा जानी जाती है, परंतु स्वसंवेदन ज्ञान से उत्पन्न सुखामृत जल से परिपूर्ण परमयोगियों को जैसा शुद्धात्मा प्रत्यक्ष होता है, वैसा अन्य को नहीं होता।
(प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा)
2. स्वसंवेदन में केवलज्ञानवत् आत्मप्रत्यक्ष होता है
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 190 प्रक्षेपक गाथा-को विदिदच्छो साहू संपडिकाले भणिज्जरूवमिणं। पच्चक्खमेव दिट्ठं परोक्खणाणे पवंट्ठं तं।
= वर्तमान में ही परोक्ष ज्ञान में प्रवर्तमान स्वरूप भी साधु को प्रत्यक्ष होता है।
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1/$31/44केवलणाणस्स ससंवेयणपच्छक्खेण णिव्वाहेणुवलंभादो।
= स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के द्वारा केवलज्ञान के अंशरूप ज्ञान की निर्बाधरूपसे उपलब्धि होती है।
समयसार / आत्मख्याति गाथा 143
यथा खलु भगवान्केवली.....विश्वसाक्षितया केवलं स्वरूपमेव जानाति, न तु.....नयपक्षं परिगृह्णाति, तथा किल यः.....श्रुतज्ञानात्मकविकल्पप्रत्युद्गमनेऽपि परपरिग्रहप्रतिनिवृत्तौत्सुक्यतया स्वरूपमेव केवलं जानाति, न तु....स्वयमेव विज्ञानघनभूतत्वात्.....नयपक्षं परिगृह्णाति, स खलु निखिलविकल्पेभ्यः परतरः परमात्मा ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योतिरात्मख्यातिरूपोऽनुभूतिमात्रः समयसारः।
= जैसे केवली भगवान् विश्व के साक्षीपने के कारण, स्वरूप को ही मात्र जानते हैं, परंतु किसी भी नयपक्ष को ग्रहण नहीं करते; इसी प्रकार श्रुतज्ञानात्मक विकल्प उत्पन्न होने पर भी पर का ग्रहण करने के प्रति उत्साह निवृत्त हुआ होने से स्वरूप को ही केवल जानते हैं परंतु स्वयं ही विज्ञानघन होने से नय पक्ष को ग्रहण नहीं करता, वह वास्तव में समस्त विकल्पों से पर परमात्मा ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योति, आत्मख्याति रूप अनुभूतिमात्र समयसार है। (और भी देखें नय - I.3.5-6)।
समयसार / आत्मख्याति गाथा 14/12
भूतं भांतमभूतमेव रभसान्निर्भिद्य बंधं सुधीर्यद्यंतः किल कोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात्। आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते ध्रुवं, नित्यं कर्मकलंकपंकविकलो देव स्वयं शाश्वतः ॥12॥
= यदि कोई सुबुद्धि जीव भूत, वर्तमान व भविष्यत् कर्मों के बंध को अपने आत्मा से तत्काल भिन्न करके तथा उस कर्मोदय के बल से होने वाले मिथ्यात्व को अपने बल से रोककर अंतरंग में अभ्यास करे, तो यह आत्मा अपने अनुभव से ही जानने योग्य जिसको प्रगट महिमा है, ऐसा व्यक्त, निश्चल, शाश्वत, नित्य कर्मकलंक से रहित स्वयं स्तुति करने योग्य देव बिराजमान है।
(समयसार / आत्मख्याति गाथा 203/कलश 240)
ज्ञानार्णव अधिकार 32/44
सुसंवृत्तेंद्रियग्रामे प्रसन्ने चांतरात्मनि। क्षणं स्फुरति यत्तत्त्वं तद्रूपं परमेष्ठिनः ॥44॥
= इंद्रियों का संवर करके अंतरंग में अंतरात्मा के प्रसन्न होने पर जो उस समय तत्त्व स्फुरण होता है, वही परमेष्ठी का रूप है।
(समाधिशतक / मूल या टीका गाथा 30)
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 110इदमात्मस्वरूपं प्रत्यक्षमेव मया दृष्टं चतुर्थकाले केवलज्ञानिवत्।
= यह आत्म-स्वरूप मेरे द्वारा चतुर्थ काल में केवलज्ञानियों की भाँति प्रत्यक्ष देखा गया।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 33
यथा कोऽपि देवदत्त आदित्योदयेन दिवसे पश्यति रात्रौ किमपि प्रदीपेनेति। तथादित्योदयस्थानीयेन केवलज्ञानेन दिवसस्थानीयमाक्षपर्याये भगवानात्मानं पश्यति। संसारी विवेकिजनः पुनर्निशास्थानीयसंसारपर्याये प्रदीपस्थानीयेन रागादिविकल्परहितपरमसमाधिना निजात्मानं पश्यतीति।
= जैसे कोई देवदत्त सूर्योदय के द्वारा दिन में देखता है और दीपक के द्वारा रात्रि को कुछ देखता है। उसी प्रकार मोक्ष पर्याय में भगवान् आत्मा को केवलज्ञान के द्वारा देखते हैं। संसारी विवेकी जन संसारी पर्याय में रागादिविकल्प रहित समाधि के द्वारा निजात्मा को देखते हैं।
नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 146/कलश 253
सर्वज्ञवीतरागस्य स्ववशस्यास्य योगिनः। न कामपि भिदां क्वापि तां विद्मो हा जडाः वयम् ॥253॥
= सर्वज्ञ वीतराग में और इस स्ववश योगी में कहीं कुछ भी भेद नहीं है; तथापि अरेरे! हम जड़ हैं कि उनमें भेद मानते हैं ॥253॥
नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 178/कलश 297भावाः पंच भवंति येषु सततं भावः परः पंचम। स्थायी संसृतिनाशकारणमयं सम्यग्दृशां गोचरः ॥297॥
= भाव पाँच हैं, जिनमें यह परम पंचम भाव(पारिणामिक भाव) निरंतर स्थायी है। संसार के नाश का कारण है और सम्यग्दृष्टियों के गोचर है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 210,489
नातिव्याप्तिरभिज्ञाने ज्ञाने वा सर्ववेदिनः। तयोः संवेदनाभावात् केवलं ज्ञानमात्रतः ॥210॥ अस्ति चात्मपरिच्छेदिज्ञानं सम्यग्दृगात्मनः। स्वसंवेदनप्रत्यक्षं शुद्धं सिद्धास्पदोपमम् ॥489॥
= स्वानुभूति रूप मति-श्रुतज्ञान में अथवा सर्वज्ञ के ज्ञान में अशुद्धोपलब्धि की व्याप्ति नहीं है, क्योंकि उन दोनों ज्ञानों में सुख दुःख का संवेदन नहीं होता है। वे मात्र ज्ञान रूप होते हैं ॥210॥ सम्यग्दृष्टि जीव का अपनी आत्मा को जानने वाला स्वसंवेदन प्रत्यक्षज्ञान शुद्ध और सिद्धों के समान होता है ॥489॥
समयसार / 143 पं. जयचंद
"जब नयपक्ष को छोड़ वस्तु स्वरूप को केवल जानता ही हो, तब उस काल में श्रुतज्ञानी भी केवली की तरह वीतराग के समान ही होता है।
3. सम्यग्दृष्टि को स्वात्मदर्शन के विषय में किसी से पूछने की आवश्यकता नहीं
समयसार / आत्मख्याति गाथा 206आत्मतृप्तस्य च वाचामगोचरं सौख्यं भविष्यति। तत्तु तत्क्षण एव त्वमेव स्वयमेव द्रक्ष्यसि मा अन्यान् प्राक्षीः।
= आत्म से तृप्त ऐसे तुझ को वचन अगोचर सुख प्राप्त होगा और उस सुख को उसी क्षण तू ही स्वयं देखेगा, दूसरों से मत पूछ।
4. मति-श्रुतज्ञान की प्रत्यक्षता व परोक्षता का समन्वय
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 190यद्यपि केवलज्ञानापेक्षया रागादिविकल्परहितंस्वसंवेदनरूपं भावश्रुतज्ञानं शुद्धनिश्चयनयेन परोक्षं भण्यते, तथापि इंद्रियमनोजनितसविकल्पज्ञानापेक्षया प्रत्यक्षम्। तेन कारणेन आत्मा स्वसंवेदनज्ञानापेक्षया प्रत्यक्षोऽपि भवति, केवलज्ञानापेक्षया पुनः परोक्षोऽपि भवति। सर्वथा परोक्ष एवेति वक्तुं नायाति। किंतु चतुर्थकालेऽपि केवलिनः, किमात्मानं हस्ते गृहीत्वा दर्शयंति। तेऽपि दिव्यध्वनिना भणित्वा गच्छंति। तथापि श्रवणकाले श्रोतृणां परोक्ष एव पश्चात्परमसमाधिकाले प्रत्यक्षो भवति। तथा इदानीं कालेऽपीति भावार्थः।
= यद्यपि केवलज्ञान की अपेक्षा रागादि विकल्परहित स्वसंवेदनरूप भाव श्रुतज्ञान शुद्ध निश्चय से परोक्ष कहा जाता है, तथापि इंद्रिय मनोजनित सविकल्प ज्ञान की अपेक्षा प्रत्यक्ष है। इस प्रकार आत्मा स्वसंवेदनज्ञान की अपेक्षा प्रत्यक्ष होता हुआ भी केवलज्ञान की अपेक्षा परोक्ष भी है। `सर्वथा परोक्ष ही है' ऐसा कहना नहीं बनता। चतुर्थकाल में क्या केवली भगवान् आत्मा को हाथ में लेकर दिखाते हैं। वे भी तो दिव्यध्वनि के द्वारा कहकर चले ही जाते हैं। फिर भी सुनने के समय जो श्रोता के लिए परोक्ष है, वही पीछे परम समाधिकालमें प्रत्यक्ष होता है। इसी प्रकार वर्तमान काल में भी समझना।
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 99/159
स्वसंवेदनज्ञानरूपेण यदात्मग्राहकं भावश्रुतं तत्प्रत्यक्षं यत्पुनर्द्वादशांगचतुर्दशपूर्वरूपपरमागमज्ञं तच्च मूर्तामूर्तोभयपरिच्छित्तिविषये व्याप्तिज्ञानरूपेण परोक्षमपि केवलज्ञानसदृशमित्यभिप्रायः।
= स्वसंवेदन ज्ञानरूप से आत्मग्राहक भाव श्रुतज्ञान है वह प्रत्यक्ष है और जो बारह अंग चौदह पूर्व रूप परमागम नामवाला ज्ञान है, वह मूर्त, अमूर्त व उभय रूप अर्थों के जानने के विषय में अनुमान ज्ञान के रूप में परोक्ष होता हुआ भी केवलज्ञान सदृश है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 5/16/1
शब्दात्मकं श्रुतज्ञानं परोक्षमेव तावत्; स्वर्गापवर्गादिबहिर्विषयपरिच्छित्तिपरिज्ञानं विकल्परूपं तदपि परोक्षम् यत्पुनरभ्यंतरे सुखदुःखविकल्परूपोऽहमनंतज्ञानादिरूपोऽहमिति वा तदीषत्परोक्षम्। यच्च निश्चयभावश्रुतज्ञानं तच्च शुद्धात्माभिमुखसुखसंवित्तिस्वरूपं स्वसंवित्त्याकारेण सविकल्पमपींद्रियमनोजनितरागादिविकल्पजालरहितत्वेन निर्विकल्पम्। अभेदनयेन तदेवात्मशब्दवाच्यं वीतरागसम्यक्चारित्राविनाभूतं केवलज्ञानापेक्षया परोक्षमपि संसारिणां क्षायिकज्ञानाभावात् क्षायोपशमिकमपि प्रत्यक्षमभिधीयते। अत्राह शिष्यः-आद्ये परोक्षमिति तत्त्वार्थसूत्रे मतिश्रुतद्वयं परोक्षं भणितं तिष्ठति, कथं प्रत्यक्षं भवतीति परिहारमाह-तदुत्सर्गव्याख्यानम्, इदं पुनरपवादव्याख्यानम्, यदि तदुत्सर्गव्याख्यानं न भवति तर्हि मतिज्ञानं कथं तत्त्वार्थे परोक्षं भणितं तिष्ठति। तर्कशास्त्रेसांव्यवहारिकं प्रत्यक्षं कथं जातम्। यथा अपवादव्याख्यानेन मतिज्ञानं परोक्षमपि प्रत्यक्षज्ञानं तथा स्वात्माभिमुखं भावश्रुतज्ञानमपि परोक्षं सत्प्रत्यक्षं भण्यते। यदि पुनरेकांतेन परोक्षं भवति तर्हि सुखदुःखादिसंवेदनमपि परोक्षं प्राप्नोति, न च तथा।
= श्रुतज्ञान के भेदों में शब्दात्मश्रुतज्ञान तो परोक्ष ही है और स्वर्ग, मोक्ष आदि बाह्य विषयों की परिच्छित्ति रूप विकल्पात्मक ज्ञान भी परोक्ष ही है। यह जो अभ्यंतर में सुख दुःख के विकल्प रूप या अनंत ज्ञानादि रूप मैं हूँ ऐसा ज्ञान होता है वह ईषत्परोक्ष है। परंतु जो निश्चय भाव श्रुतज्ञान है, वह शुद्धात्माभिमुख स्वसंवित्ति स्वरूप है। यह यद्यपि संवित्ति के आकार रूप से सविकल्प है, परंतु इंद्रिय मनोजनित रागादि विकल्प जाल से रहित होने के कारण निर्विकल्प है। अभेदनय से वही ज्ञान आत्मा शब्द से कहा जाता है तथा वह वीतराग सम्यक् चारित्र के बिना नहीं होता। वह ज्ञान यद्यपि केवलज्ञान की अपेक्षा परोक्ष है तथापि संसारियों को क्षायिक ज्ञान की प्राप्ति न होने से क्षायोपशमिक होने पर भी `प्रत्यक्ष' कहलाता है।
प्रश्न - `आद्ये परोक्षम्' इस तत्त्वार्थसूत्र में मति और श्रुत इन दोनों ज्ञानों को परोक्ष कहा है, फिर श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है?
उत्तर - तत्त्वार्थसूत्र में उत्सर्ग व्याख्यान की अपेक्षा कहा है और यहाँ अपवाद व्याख्यान की अपेक्षा है। यवि तत्त्वार्थसूत्र में उत्सर्ग का कथन न होता तो तत्त्वार्थसूत्र में मतिज्ञान परोक्ष कैसे कहा गया है? और यदि सूत्र के अनुसार वह सर्वथा परोक्ष ही होता तो तर्कशास्त्र में सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कैसे हुआ? इसलिए जैसे अपवाद व्याख्यान से परोक्षरूप भी मतिज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा गया है वैसे ही स्वात्मसन्मुख ज्ञान को भी प्रत्यक्ष कहा जाता है। यदि एकांत से मति, श्रुत दोनों परोक्ष ही हों तो सुख दुःख आदि का जो संवेदन होता है वह भी परोक्ष ही होगा। किंतु वह स्वसंवेदन परोक्ष नहीं है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 706-707
अपि किंचाभिनिबोधिकबोधद्वैतं तदादिम यावत्। स्वात्मानुभूतिसमये प्रत्यक्षं तत्समक्षमिव नान्यत् ॥706॥ तदिह द्वैतमिदं चित्स्पर्शादींद्रियविषयपरिग्रहणे। व्योमाद्यवगमकाले भवति परोक्षं न समक्षमिह नियमात् ॥707॥
= स्वात्मानुभूति के समय में मति व श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष की भाँति होने के कारण प्रत्यक्ष है, परोक्ष नहीं ॥706॥ स्पर्शादि इंद्रिय के विषयों को ग्रहण करते समय और आकाशादि पदार्थों को विषय करते समय ये दोनों ही परोक्ष हैं प्रत्यक्ष नहीं।
(पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 460-462)।
रहस्यपूर्ण चिठ्ठी पं. टोडरमल-"अनुभव में आत्मा तो परोक्ष ही है। - परंतु स्वरूप में परिणाम मग्न होते जो स्वानुभव हुआ वह स्वानुभवप्रत्यक्ष है....स्वयं ही इस अनुभव का रसास्वाद वेदे है।
5. मति-श्रुतज्ञान की प्रत्यक्षता का प्रयोजन
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 43/86निर्विकारशुद्धात्मानुभूत्यभिमुखं यंमतिज्ञानंतदेवोपादेयभूतानंतसुखसाधकत्वांनिश्चयेनोपादेयं तत्साधकं बहिरंगं पुनर्व्यवहारेणेति तात्पर्यम्।....अभेदरत्नत्रयात्मकं यद्भावश्रुतं तदेवोपादेयभूतपरमात्मतत्त्वसाधकत्वान्निश्चयेनोपादेयं, तत्साधकं बहिरंगं तु व्यवहारेणेति तात्पर्यम्।
= निर्विकार शुद्धात्मानुभूति के अभिमुख जो मतिज्ञान है वही उपादेयभूत अनंत सुख का साधक होने से निश्चय से उपादेय है और उसका साधक बहिरंग मतिज्ञान व्यवहार से उपादेय है। इसी प्रकार अभेद रत्नत्र्यात्मक जो भाव श्रुतज्ञान है वही उपादेयभूत परमात्मतत्त्व का साधक होने से निश्चय से उपादेय है और उसका साधक बहिरंग श्रुतज्ञान व्यवहार से उपादेय है, ऐसा तात्पर्य है।
5. अल्प भूमिकाओं में आत्मानुभव विषयक चर्चा
1. सम्यग्दृष्टि को स्वानुभूत्यावरण कर्म का क्षयोपशम अवश्य होता है
पंचाध्यायी/उत्तरार्ध/407,856हेतुस्तत्रापि सम्यक्त्वोत्पत्तिकालेऽस्त्यवश्यतः। तज्ज्ञानावरणस्योच्चैरस्त्यवस्थांतरं स्वतः ॥407॥ अवश्यं सति सम्यक्त्वे तल्लब्ध्यावरणक्षति... ॥856॥
= सम्यक्त्व के होने पर नियमपूर्वक लब्धि रूप स्वानुभूति के रहने में कारण यह है कि सम्यक्त्व की उत्पत्ति के समय अवश्य ही स्वयं स्वानुभूत्यावरण कर्म का भी यथायोग्य क्षयोपशम होता है ॥407॥ सम्यक्त्व होते ही स्वानुभूत्यावरण कर्म का नाश अवश्य होता है ॥856॥
2. सम्यग्दृष्टि को कथंचित् आत्मानुभव अवश्य होता है
समयसार / मूल या टीका गाथा 14
जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्टं अणण्णयं णियदं। अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं बियाणीहि ॥14॥
= जो नय आत्मा बंध रहित, पर के स्पर्श रहित, अन्यत्व रहित, चलाचलता रहित, विशेष रहित, अन्य के संयोग से रहित ऐसे पाँच भाव रूप से देखता है उसे हे शिष्य! तू शुद्ध नय जान ॥14॥ इस नय के आश्रय से ही सम्यग्दर्शन होता है ॥11॥
(पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 233)
धवला पुस्तक 1/1,1,1/38/4
सम्यग्दृष्टीनामवगताप्तस्वरूपाणां...ज्ञानदर्शनानामावरणविविक्तानंतज्ञानदर्शनशक्तिखचितात्मस्मर्तृणां वा पापक्षयकारित्वतस्तयोस्तदुपपत्तेः।
= आप्त के स्वरूप को जानने वाले और आवरणरहित अनंतज्ञान और अनंतदर्शनरूप शक्ति से युक्त आत्मा का स्मरण करने वाले सम्यग्दृष्टियों के ज्ञान में पाप का क्षयकारीपना पाया जाता है।
समयसार / आत्मख्याति गाथा 14/कलश 13आत्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिकाया, ज्ञानानुभूतिरियमेष किलेति बुद्ध्वा....॥13॥
= जो पूर्वकथित शुद्धनयस्वरूप आत्मा की अनुभूति है, वही वास्तव में ज्ञान की अनुभूति है
(समयसार / आत्मख्याति गाथा 17-18)
पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 166/239
अर्हदादिभक्तिसंपन्नः कथंचिच्छुद्धसंप्रयोगोऽपि सन् जीवो जीवद्रागलवत्वाच्छुभोपयोगतामजहत बहुशः पुण्यं बध्नाति, न खलु सकलकर्मक्षयमारभते।
= अर्हंतादि के प्रति भक्ति संपन्न जीव कथंचित् शुद्ध संप्रयोग वाला होने पर भी राग लव जीवित होने से शुभोपयोग को न छोड़ता हुआ बहुत पुण्य बाँधता है, परंतु वास्तव में सकल कर्मों का क्षय नहीं करता।
ज्ञानार्णव अधिकार 32/43
स्याद्यद्यत्प्रीतयेऽज्ञस्य तत्तदेवापदास्पदम्। विभेत्ययं पुनर्यस्मिंस्तदेवानंदमंदिरम् ॥43॥
= अज्ञानी पुरुष जिस-जिस विषय में प्रीति करता है, वे सब ज्ञानी के लिए आपदा के स्थान हैं तथा अज्ञानी जिस-जिस तपश्चरणादि से भय करता है वही ज्ञानी के आनंद का निवास है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 248श्रावकाणामपि सामायिकादिकाले शुद्धभावना दृश्यते।
= श्रावकों के भी सामायिकादि काल में शुद्ध भावना दिखाई देती है।
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 170
चतुर्थगुणस्थानयोग्यमात्मभावनामपरित्यजन् सन् देवलोके कालं गमयति, ततोऽपि स्वर्गादागत्य मनुष्य भवे चक्रवर्त्यादिविभूतिं लब्ध्वापि पूर्वभवभावितशुद्धात्मभावनाबलेन मोह न करोति।
= चतुर्थ गुणस्थान के योग्य आत्मभावना को नहीं छोड़ता हुआ वह देवलोक में काल गँवाता है। पीछे स्वर्ग से आकर मनुष्य भव में चक्रवर्ती आदि की विभूति को प्राप्त करके भी, पूर्वभव में भावित शुद्धात्मभावना के बल से मोह नहीं करता है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 710
इह सम्यग्दृष्टेः किल मिथ्यात्वोदयविनाशजा शक्तिः। काचिंदनिर्वचनीया स्वात्मप्रत्यक्षमेतदस्ति यथा॥
= सम्यग्दृष्टि जीव के निश्चय हो मिथ्यात्वकर्म के अभाव से कोई अनिर्वचनीय शक्ति होती है जिससे यह आत्मप्रत्यक्ष होता है।
मोक्षमार्गप्रकाशक अधिकार 7/376/6नीचली दशाविषै केई जीवनिकै शुभोपयोग और शुद्धोपयोग का युक्तपना पाइये है।
सा.सं./भाषा/4/266/193चौथे गुणस्थान में सम्यग्दर्शन के साथ ही स्वरूपाचरण चारित्र भी आत्मा में प्रगट हो जाता है।
युक्त्यनुशासन/51 पं. जुगल किशोर
"स्वाभाविकत्वाच्च समं मनस्ते ॥51॥
= असंयत सम्यग्दृष्टि के भी स्वानुरूप मनःसाम्य की अपेक्षा मन का सम होना बनता है; क्योंकि उसकें संयम का सर्वथा अभाव नहीं है।
3. धर्मध्यान में किंचित् आत्मानुभव अवश्य होता है
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 47/199निश्चयमोक्षमार्ग तथैव....व्यवहारमोक्षमार्गं च तद्द्विविधमपि निर्विकारस्वसंवित्त्यात्मकपरमध्यानेन मुनिः प्राप्नोति....।
= निश्चय मोक्षमार्ग तथा व्यवहार मोक्षमार्ग इन दोनों को मुनि निर्विकार स्वसंवेदन रूप परमध्यान के द्वारा प्राप्त करता है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 56/225तस्मिंध्याने स्थितानां यद्वीतरागपरमानंदसुखं प्रतिभाति तदेव निश्चयमोक्षमार्गस्वरूपम्। तच्च पर्यायनामांतरेण किं किं भण्यते तदभिधीयते। तदेव शुद्धात्मस्वरूपं, तदेव परमात्मस्वरूपं तदेवैकदेशव्यक्तिरूप.....परमहंसस्वरूपम्। .....तदेव शुद्धचारित्रं....स एव शुद्धोपयोगः, .....षडावश्यकस्वरूपं, ....सामायिकं, ...चतुर्विधाराधना, ....धर्मध्यानं, .....शुक्लध्यानं, ....शून्यध्यानं, ....परमसाम्यं, ...भेदज्ञानं, ....परमसमाधि, .....परमस्वाध्याय इत्यादि 66 बोल।
= उस ध्यान में स्थित जीवों को जो वीतराग परमानंद सुख प्रतिभासता है, वह निश्चय मोक्षमार्ग का स्वरूप है। वही पर्यायांतर से क्या-क्या कहा जाता है, सो कहते हैं। वही शुद्धात्मस्वरूप है, वही परमात्मस्वरूप तथा एकदेश परमहंसस्वरूप है। वही शुद्धचारित्र, शुद्धोपयोग, षडावश्यकस्वरूपसामायिक, चतुर्विराधना, धर्मध्यान, शुक्लध्यान, शून्यध्यान, परमसाम्य, भेदज्ञान, परम समाधि, परमस्वाध्याय आदि हैं।
4. धर्मध्यान अल्प भूमिकाओं में भी यथायोग्य होता है
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 194ध्यायति यः कर्ता। कम्। निजात्मानम्। किं कृत्वा। स्वसंवेदनज्ञानेन ज्ञात्वा।.....कथंभूतः।....यतिः गृहस्थः। य एवं गुणविशिष्टः क्षपयति स मोहदुर्ग्रंथिम्।
= जो यति या गृहस्थ स्वसंवेदनज्ञान से जानकर निजात्मा को ध्याता है उसकी मोहग्रंथि नष्ट हो जाती है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 48/201-205
तावदागमभाषया (201).....तारतम्यवृद्धिक्रमेणासंयतसम्यग्दृष्टिदेशविरतप्रमत्तसंयताप्रमत्ताभिधानचतुर्गुणस्थानवर्त्तिजावसंभवं, मुख्यवृत्त्या पुण्यबंधकारणमपि परंपरया मुक्तिकारणं चेति धर्मध्यानं कथ्यते ॥202॥.....अध्यात्मभाषया पुनः सहजशुद्धपरमचैतन्यशालिनि निर्भरानंदमालिनी भगवति निजात्मन्युपादेयबुद्धिं कृत्वा पश्चादनंतज्ञानोऽहमनंतसुखोऽहमित्यादिभावनारूपमभ्यंतरधर्मध्यानमुच्यते। पंचपरमेष्ठिभक्त्यादि तदनुकूलशुभानुष्ठानं पुनर्बहिरंगधर्मध्यानंभ वति (204)।
= आगम भाषा के अनुसार तारतम्य रूप से असंयत सम्यग्दृष्टि, देशसंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत इन चार गुणस्थानवर्ती जीवों में संभव, मुख्यरूप से पुण्यबंध का कारण होते हुए भी परंपरा से मुक्ति का कारण धर्मध्यान कहा गया है। अध्यात्म भाषा के अनुसार सहज शुद्ध परम चैतन्य शालिनी निर्भरानंद मालिनी भगवती निजात्मा में उपादेय बुद्धि करके पीछे `मैं अनंत ज्ञानरूप हूँ, मैं अनंत सुख रूप हूँ' ऐसी भावना रूप अभ्यंतर धर्मध्यान कहा जाता है। पंचपरमेष्ठी की भक्ति आदि तथा तदनुकूल शुभानुष्ठान बहिरंग धर्मध्यान होता है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 688,915
दृङ्मोहेऽस्तंगते पुंसः शुद्धस्यानुभवो भवेत्। न भवेद्विघ्नकरः कश्चिच्चारित्रावरणोदयः ॥688॥ प्रमत्तानां विकल्पत्वान्नस्यात्मा शुद्धचेतना। अस्तोति वासनोन्मेषः केषांश्चित्स न सन्निह ॥915॥
= आत्मा के दर्शनमोह कर्म का अभाव होने पर शुद्धात्मा का अनुभव होता है। उसमें किसी भी चारित्रावरण कर्म का उदय बाधक नहीं होता ॥688॥ `प्रमत्त गुणस्थान तक विकल्प का सद्भाव होने से वहाँ शुद्ध चेतना संभव नहीं ऐसा जो किन्हीं के वासना का उदय है, सो ठीक नहीं है ॥915॥
5. निश्चय धर्मध्यान मुनि को होता है गृहस्थ को नहीं
ज्ञानार्णव अधिकार 4/17खपुष्पमथवा शृंगं खरस्यापि प्रतीयते। न पुनर्देशकालेऽपि ध्यानसिद्धिर्गृहाश्रमें ॥17॥
= आकाशपुष्प अथवा खरविषाण का होना कदाचित संभव है, परंतु किसी भी देशकाल में गृहस्थाश्रम में ध्यान की सिद्धि होनी संभव नहीं ॥17॥
तत्त्वानुशासन श्लोक 47मुख्योपचारभेदेन धर्मध्यानमिह द्विधा। अप्रमत्तेषुं तन्मुख्यमितरेष्वौपचारिकम् ॥47॥
= धर्मध्यान मुख्य और उपचार के भेद से दो प्रकार का है। अप्रमत्त गुणस्थानों में मुख्य तथा अन्य प्रमत्त गुणस्थानों में औपचारिक धर्मध्यान होता है।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 96
ननु वीतरागस्वसंवेदनज्ञानविचारकाले वीतरागविशेषणं किमिति क्रियते प्रचुरेण भवद्भिः, किं सरागमपि स्वसंवेदनज्ञानंमस्तीति। अत्रोत्तरं विषयसुखानुभवानंदरूपं स्वसंवेदनज्ञानं सर्वजनप्रसिद्धं सरागमप्यस्ति। शुद्धात्मसुखानुभूतिरूपं स्वसंवेदनज्ञानं वीतरागमिति। इदं व्याख्यानं स्वसंवेदनव्याख्यानकाले सर्वत्र ज्ञातव्यमिति भावार्थः।
= प्रश्न - वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान का विचार करते हुए आप सर्वत्र `वीतराग' विशेषण किसलिए लगाते हैं। क्या सराग को भी स्वसंवेदन ज्ञान होता है?
उत्तर - विषय सुखानुभव के आनंद रूपसंवेदन ज्ञान सर्वजन प्रसिद्ध है। वह सराग को भी होता है। परंतु शुद्धात्म सुखानुभूति रूप स्वसंवेदनज्ञान वीतराग को ही होता है। स्वसंवेदन ज्ञान के प्रकरण में सर्वत्र यह व्याख्यान जानना चाहिए।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 254/347
विषयकषायनिमित्तोत्पन्नेनार्त्तरौद्रध्यानद्वयेन परिणतानां गृहस्थानामात्माश्रितनिश्चयधर्मस्यावकाशो नास्ति।
= विषय कषाय के निमित्त से उत्पन्न आर्त-रौद्र ध्यानों में परिणत गृहस्थजनों को आत्माश्रित धर्म का अवकाश नहीं है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 34/96
असंयतसम्यग्दृष्टिश्रावकप्रमत्तसंयतेषु पारंपर्येण शुद्धोपयोगसाधक उपर्युपरि तारतम्येन शुभोपयोगो वर्तते, तदनंतरमप्रमत्तादिक्षीणकषायपर्यंतं जघन्यमध्यभोत्कृष्टभेदेन विवक्षितै कदेशशुद्धनयरूपशुद्धोपयोगो वर्तते।
= असंयत सम्यग्दृष्टि से प्रमत्तसंयत तक के तीन गुणस्थानों में परंपरा रूप से शुद्धोपयोग का साधक तथा ऊपर-ऊपर अधिक-अधिक विशुद्ध शुभोपयोग वर्तता है और उसके अनंतर अप्रमत्तादि क्षीणकषाय पर्यंत के गुणस्थानों में जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद को लिये विवक्षित एकदेश शुद्धनयरूप शुद्धोपयोग वर्तता है।
मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 2/305/9
मुनीनामेव परमात्मध्यानं घटते। तप्तलोहगोलकसमानगृहिणां परमात्मध्यानं न संगच्छते।
= मुनियों के ही परमात्मध्यान घटित होता है। तप्तलोह के गोले के समान गृहस्थों को परमात्मध्यान प्राप्त नहीं होता।
(देवसेन सूरिकृत भावसंग्रह 371-397, 605)
भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 81/232/24
क्षोभः परीषहोपसर्गनिपाते चित्तस्य चलन ताभ्यां विहीनो रहितः मोहक्षोभविहीनः। एवं गुणविशिष्ट आत्मनः शुद्धबुद्धैकस्वभावस्य चिच्चमत्कारलक्षणश्चिदानंदरूपः परिणामो धर्म इत्युच्यते। स परिणामो गृहस्थानां न भवति। पंचसूनासहितत्वात्।
= परिषह व उपसर्ग के आने पर चित्त का चलना क्षोभ है। उससे रहित मोह-क्षोभ विहीन है। ऐसे गुणों से विशिष्ट शुद्ध-बुद्ध एकस्वभावी आत्मा का चिच्चमत्कार लक्षण चिदानंद परिणाम धर्म कहलाता है। पंचसून दोष सहित होने के कारण वह परिणाम गृहस्थों को नहीं होता।
6. गृहस्थ को निश्चयध्यान कहना अज्ञान है
मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 2/305ये गृहस्था अपि संतो मनागात्मभावनामासाद्य वयं ध्यानिन इति ब्रूवते ते जिनधर्मविराध का मिथ्यादृष्टयो ज्ञातव्याः।
= जो गृहस्थ होते हुए भी मनाक् आत्मभावना को प्राप्त करके `हम ध्यानी हैं' ऐसा कहते हैं, वे जिनधर्म विराधक मिथ्यादृष्टि जानने चाहिए।
भावसंग्रह/385(गृहस्थों को निरालंब ध्यान माननेवाला मूर्ख है)।
7. साधु व गृहस्थ के निश्चय ध्यानमें अंतर
मोक्षपाहुड़ /मूल/83-86णिच्छयणयस्स एवं अप्पम्मि अप्पणे सुरदो। सी होदि हु सुचरित्तो जोई सो लहइ णिव्वाणं ॥83॥ एवं जिणेहिं कहि सवणाणं सावयाण पुण सुणसु। संसारविणासयरं सिद्धियरं कारणं परमं ॥85॥ गहिऊण य सम्मत्तं सुणिम्मलं सुरगिरीव णिक्कंपं। तं जाणे ज्झाइज्जइ सावय! दुक्खक्खयट्ठाए ॥86॥
= निश्चय नय का ऐसा अभिप्राय है कि जो आत्मा ही विषैं आपही के अर्थि भले प्रकार रत होय सो योगी ध्यानी मुनि सम्यग्चारित्रवान् भया संता निर्वाणकू पावै है ॥83॥ इस प्रकार का उपदेश श्रमणों के लिए किया गया है। बहुरि अब श्रावकनिकूं कहिये हैं, सो सुनो। कैसा कहिये है-संसार का तो विनाश करने वाला और सिद्धि जो मोक्ष ताका करने वाला उत्कृष्ट कारण है ॥85॥ प्रथम तौ श्रावककूं भलै प्रकार निर्मल और मेरुवत् अचल अर चल, मलिन, अगाढ दूषण रहित अत्यंत निश्चल ऐसा सम्यक्त्कूं ग्रहणकरि, तिसकूं ध्यानविषैं ध्यावना, कौन अर्थिदुःख का क्षय के अर्थि ध्यावना ॥86॥ जो जीव सम्यक्त्वकूं ध्यावै है, सो जीव सम्यग्दृष्टि है, बहुरि सम्यक्त्वरूप परिणया संता दुष्ट जे आठ कर्म तिनिका क्षय करै है ॥87॥
8. अल्पभूमिका में आत्मानुभव के सद्भाव-असद्भाव का समन्वय
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 10यो भावश्रुतरूपेण स्वसंवेदनज्ञानबलेन शुद्धात्मानं जानातिस निश्चयश्रुतकेवली भवति। यस्तु स्वशुद्धात्मानं न संवेदयति न भावयति, बहिर्विषयं द्रव्यश्रुतार्थं जानाति स व्यवहारश्रुतकेवली भवतीति। ननु तर्हि-स्वसंवेदनज्ञानबलेनास्मिन् कालेऽपि श्रुतकेवली भवति। तत्र यादृशं पूर्वपुरुषाणां शुक्लध्यानरूप स्वसंवेदनज्ञानं तादृशमिदानीं नास्ति किंतु धर्मध्यानयोग्यमस्तीत्यर्थः।
= जो भावश्रुतरूप स्वसंवेदनज्ञान के बल से शुद्धात्मा को जानता है, वह निश्चय श्रुतकेवली होता है। जो शुद्धात्मा का संवेदन तो नहीं करता परंतु बहिर्विषयरूप द्रव्य श्रुत को जानता है वह व्यवहारश्रुतकेवली होता है।
प्रश्न - तब तो स्वसंवेदन ज्ञान के बल से इस काल में श्रुतकेवली हो सकता है?
उत्तर - नहीं, क्योंकि जिस प्रकार का शुक्लध्यानरूप स्वसंवेदन ज्ञान पूर्वपुरुषों को होता था वैसा इस काल में नहीं है, किंतु धर्मध्यान के योग्य है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 248
ननु शुभोपयोगिनामपि क्वापि काले शुद्धोपयोगभावना दृश्यते, शुद्धोपयोगिनामपि क्वापि काले शुभोपयोगभावना दृश्यते। श्रावकाणामपि सामायिकादिकाले शुद्धभावना दृश्यते; तेषां कथं विशेषो भेदो ज्ञायत इति। परिहारमाह-युक्तमुक्तं भवता परं किंतु ये प्रचुरेण शुभोपयोगेन वर्त्तंते, यद्यपि क्वापि काले शुद्धोपयोगभावनां कुर्वंति तथापि शुभोपयोगिन एव भण्यंते। येऽपि शुद्धोपयोगिनस्ते यद्यपि क्वापि काले शुभोपयोगेन वर्त्तंते तथापि शुद्धोपयोगिन एव। कस्मात्। बहुपदस्य प्रधानत्वादांरवननिंबवनवदिति।
= प्रश्न - शुभोपयोगियों के भी किसी काल शुद्धोपयोग की भावना देखी जाती है और शुद्धोपयोगियों के भी किसी काल शुभोपयोग की भावना देखी जाती है। श्रावकों के भी सामायिकादि काल में शुद्धभावना दिखाई देती है। इनमें किस प्रकार विशेष या भेद जाना जाये?
उत्तर - जो प्रचुर रूप से शुभोपयोग में वर्तते हैं वे यद्यपि किसी काल शुद्धोपयोग की भावना भी करते हैं तथापि शुभोपयोगी ही कहलाते हैं और इसी प्रकार शुद्धोपयोगी भी यद्यपि किसी काल शुभोपयोग रूपसे वर्तते हैं तथापि शुद्धोपयोगी ही कहे जाते हैं। कारण कि आम्रवन व निंबवन की भाँति बहुपद की प्रधानता होती है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 34/97/1
तत्राशुद्धनिश्चये शुद्धोपयोगो कथं घटते इति चेत्तत्रोत्तरम्-शुद्धोपयोगे शुद्धबुद्धैकस्वभावो निजात्माध्येयस्तिष्ठति तेन कारणेन शुद्धध्येयत्वाच्छुद्धावलंबनत्वाच्छुद्धात्मस्वरूपसाधकत्वाच्च शुद्धोपयोगो घटते। स च संवरशब्दवाच्यः शुद्धोपयोगः संसारकारणभूतमिथ्यात्वरागाद्यशुद्धपर्यायवदशुद्धो न भवति फलभूतकेवलज्ञानपर्यायवत् शुद्धोऽपि न भवति किंतु ताभ्यामशुद्धशुद्धपर्यायाभ्यां विलक्षणं एकदेशनिरावरणं च तृतीयमवस्थांतरं भण्यते।
प्रश्न - अशुद्ध निश्चय में शुद्धोपयोग कैसे घटित होता है?
उत्तर - शुद्धोपयोग में शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव आत्मा ध्येयरूप से रहती है। इस कारण से शुद्ध ध्येय होने से, शुद्ध अवलंबन होने से और शुद्धात्मस्वरूप का साधक होने से शुद्धोपयोग घटित होता है। संवर शब्द का वाच्य वह शुद्धोपयोग न तो मिथ्यात्वरागादि अशुद्ध पर्यायवत् अशुद्ध होता है और न ही केवलज्ञानपर्यायवत् शुद्ध ही होता है। किंतु अशुद्ध व शुद्ध दोनों पर्यायों से विलक्षण एकदेश निवारण तृतीय अवस्थांतर कही जाती है।
(प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 181/245/11)
6. शुद्धात्मा के अनुभव विषयक शंका-समाधान
1. अशुद्ध ज्ञानसे शुद्धात्मा का अनुभव कैसे करें
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 414/508/23केवलज्ञानं शुद्धं छद्मस्थज्ञानं पुनरशुद्ध शुद्धस्य केवलज्ञानस्य कारणं न भवति। ....नैवं छद्मस्थज्ञानस्य कथंचिच्छुद्धाशुद्धत्वम्। तद्यथा-यद्यपि केवलज्ञानापेक्षया शुद्धं न भवति तथापि मिथ्यात्वरागादिरहितत्वेन वीतरागसम्यक्चारित्रसहितत्वेन च शुद्धम्। अभेदनयेन छद्मस्थानां संबंधिभेदत्रानमात्मस्वरूपमेव ततः कारणात्तेनैकदेशव्यक्तिरूपेणापि सकलव्यक्तिरूपं केवलज्ञानं जायते नास्ति दोषः। ...क्षायोपशमिकमपि भावश्रुतज्ञानं मोक्षकारणं भवति। शुद्धपारिणामिकभावः एकदेशव्यक्तिलक्षणायां कथंचिद्भेदाभेदरूपस्यद्रव्यपर्यायात्मकस्य जीवपदार्थस्य शुद्धभावनावस्थायां ध्येयभूतद्रव्यरूपेण तिष्ठति न च ध्यानपर्यायरूपेण।
= प्रश्न - केवलज्ञान शुद्ध होता है और छद्मस्थ का ज्ञान अशुद्ध। वह शुद्ध केवलज्ञान का कारण नहीं हो सकता?
उत्तर - ऐसा नहीं है, क्योंकि छद्मस्थज्ञान में भी कथंचित् शुद्धाशुद्धत्व होता है। वह ऐसे कि यद्यपि केवलज्ञान की अपेक्षा तो वह शुद्ध नहीं होता, तथापि मिथ्यात्व रागादि से रहित होने के कारण तथा वीतराग सम्यक्चारित्र से सहित होने के कारण वह शुद्ध भी है। अभेद नय से छद्मस्थों संबंधी भेदज्ञान भी आत्मस्वरूप ही है। इस कारण एक देश व्यक्तिरूप उस ज्ञान से सकल व्यक्तिरूप केवलज्ञान हो जाता है, इसमें कोई दोष नहीं है। क्षायोपशमिक भावश्रुतज्ञान भी (भले सावरण हो पर) मोक्ष का कारण हो सकता है। शुद्ध पारिणामिकभाव एकदेश व्यक्ति लक्षणरूप से कथंचित् भेदाभेद द्रव्यपर्यात्मक जीवपदार्थ की शुद्धभावना की अवस्था में ध्येयभूत द्रव्यरूप से रहता है, ध्यान की पर्यायरूप से नहीं। (और भी देखो पीछे अनुभव - 5.7)।
2. अशुद्धता के सद्भाव में भी उसकी उपेक्षा कैसे करें
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 159,162न चाशंक्यं सतस्तस्यस्यादुपेक्षा कथं जवात् ॥159॥ यदा तद्वर्णमालायां दृश्यते हेम केवलम्। न दृश्यते परोपाधिः स्वेष्टं दृष्टेन हेम तत् ॥162॥
= उस सत्स्वरूप पर संयुक्त द्रव्य की सहसा उपेक्षा कैसे हो जायेगी-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए ॥159॥ क्योंकि जिस समय अशुद्ध स्वर्ण के रूपों में केवल शुद्ध स्वर्ण दृष्टिगोचर किया जाता है, उस समय परद्रव्य की उपाधि दृष्टिगोचर नहीं होती, किंतु प्रत्यक्ष प्रमाण से अपना अभीष्ट वह केवल शुद्धस्वर्ण ही दृष्टिगोचर होता है।
3. देह सहित भी उसका देह रहित अनुभव कैसे करें
ज्ञानार्णव अधिकार 32/9-11कथं तर्हि पृथक् कृत्वा देहाद्यर्थकदंबकात्। आत्मानमभ्य सेद्योगी निर्विकल्पमतींद्रियम् ॥9॥ अपास्य बहिरात्मानं सुस्थिरेणांतरात्मना। ध्यायेद्विशुद्धमत्यंतं परमात्मानमव्ययम् ॥10॥ संयोजयति देहेन चिदात्मानं विमूढधीः। बहिरात्मा ततो ज्ञानी पृथक् पश्यति देहिनाम् ॥11॥
= प्रश्न - यदि आत्मा ऐसा है तो इसे देहादि पदार्थों के समूह से पृथक् करके निर्विकल्प व अतींद्रिय, ऐसा कैसे ध्यान करैं ॥9॥ उत्तर - योगी बहिरात्मा को छोड़कर भले प्रकार स्थिर अंतरात्मा होकर अत्यंत विशुद्ध अविनाशी परमात्मा का ध्यान करै ॥10॥ जो बहिरात्मा है, सो चैतन्यरूप आत्मा की देह के साथ संयोजन करता है और ज्ञानी देह को देही से पृथक् ही देखता है ॥11॥
4. परोक्ष आत्मा का प्रत्यक्ष कैसे करें
ज्ञानार्णव अधिकार 33/4अलक्ष्य लक्ष्यसंबंधात् स्थूलात्सूक्ष्मं विचिंतयेत्। सालंबाच्च निरालंब तत्त्ववित्तत्त्वमंजसा ॥4॥
= तत्त्वज्ञानी इस प्रकार तत्त्व को प्रगटतया चिंतवन करे कि लक्ष्य के संबंध से तो अलक्ष्य को और स्थूल से सूक्ष्म को और सालंब ध्यान से निरालंब वस्तु स्वरूप को चिंतवन करता हुआ उससे तन्मय हो जाये।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 190परोक्षस्यात्मनः कथं ध्यानं भवतीति। उपदेशेन परोक्षरूपं यथा द्रष्टा जानाति भण्यते तथैव ध्रियते जीवो दृष्टश्च ज्ञातश्च ॥1॥ आत्मा स्वसंवेदनापेक्षया प्रत्यक्षो भवति केवलज्ञानापेक्षया परोक्षोऽपि भवति। सर्वथा परोक्षमिति वक्तुं नायाति।
= प्रश्न - परोक्ष आत्मा का ध्यान कैसे होता है?
उत्तर - उपदेश के द्वारा परोक्षरूप से भी जैसे द्रष्टा जानता है, उसे उसी प्रकार कहता है और धारण करता है। अतः जीव द्रष्टा भी है और ज्ञाता भी है ॥1॥ आत्मा स्वसंवेदन की अपेक्षा प्रत्यक्ष होता है और केवलज्ञान की अपेक्षा परोक्ष भी होता है सर्वथा परोक्ष कहना नहीं बनता।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 296
कथं स गृह्यते आत्मा `दृष्टिविषयो न भवत्यमूर्त्तत्वात्' इति प्रश्नः। प्रज्ञाभेदज्ञानेन गृह्यते इत्युत्तरम्।
= प्रश्न - वह आत्मा कैसे ग्रहण की जाती है, क्योंकि अमूर्त होने के कारण वह दृष्टि का विषय नहीं है?
उत्तर - प्रज्ञारूप भेदज्ञान के द्वारा ग्रहण किया जाता है।