पद्मपुराण - पर्व 111: Difference between revisions
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Revision as of 13:29, 13 July 2024
एक सौ ग्यारहवां पर्व
अथानंतर वीर जिनेंद्र के प्रथम गणधर सज्जनोत्तम श्री गौतमस्वामी मन में आये हुए भामंडल का चरित्र कहने लगे ॥1।। विद्याधरों की अत्यंत सुंदर स्त्री रूपी लताओं से उत्पन्न सुख रूपी फूलों के आस्रव में आसक्त भामंडल रूपी भ्रमर इस प्रकार विचार करता रहता था कि यदि मैं दिगंबर मुनियों की दीक्षा धारण करता हूँ तो यह स्त्रीरूपी कमलों का समूह निःसंदेह कमल के समान आचरण करता है अर्थात् कमल के ही समान कोमल है ॥2-3।। जिनका चित्त मुझमें लग रहा है ऐसी ये स्त्रियाँ मेरे विरह में अपने प्राणों का सुख से पालन नहीं कर सकेंगी अतः उनका वियोग अवश्य हो जायगा ॥4॥ अतएव जिनका छोड़ना तथा पाना दोनों ही कठिन हैं ऐसे इन काम संबंधी सुखों को पहले अच्छी तरह भोग लूं; बाद में कल्याणकारी कार्य करूँ ॥5॥ यद्यपि भोगों के द्वारा उपार्जित किया हुआ पाप अत्यंत पुष्कल होगा तथापि उसे सुध्यान रूपी अग्नि के द्वारा एक क्षण में जला डालूंगा ॥6॥ यहाँ सेना ठहराकर विमानों से क्रीड़ा करूँ और सब ओर शत्रुओं के नगर उजाड़ कर दूं ॥7॥ दोनों श्रेणियों में शत्रु रूपी गेंडा हाथियों के मान रूपी शिखर की जो उन्नति हो रही है उसका भंग करूँ तथा उन्हें आज्ञा के द्वारा किये हुए अपने वश में स्थापित करूँ ।।8॥ और मेरु पर्वत के मरकत आदि मणियों के निर्मल एवं मनोहर शिलातलों पर स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करूँ ॥9॥ इत्यादि वस्तुओं का विचार करते हुए उस भामंडल के सैकड़ों वर्ष एक मुहूर्त के समान व्यतीत हो गये ॥10॥ 'यह कर चुका, यह करता हूँ और यह करूंगा' वह यही विचार करता रहता था, पर अपनी आयु का अंतिम अवसर आ चुका है यह नहीं विचारता था ॥11॥
एक दिन वह महल के सातवें खंड में बैठा था कि उसके मस्तक पर वज्र गिरा जिससे वह मृत्यु को प्राप्त हो गया ॥12।। यद्यपि वह अपने जंमांतर की समस्त चेष्टा को जानता था तथापि इतना दीर्घसूत्री था कि आत्म-कल्याण में स्थित नहीं हुआ ॥13॥ तृष्णा और विषाद को करने वाले मनुष्यों को क्षणभर के लिए भी शांति नहीं होती क्योंकि उनके मस्तक के समीप पैर रखने वाला मृत्यु सदा अवसर की प्रतीक्षा किया करता है ॥14॥ क्षणभर में नष्ट हो जाने वाले इस अधम शरीर के लिए, विषयों का दास हुआ यह नीच प्राणी क्या क्या नहीं करता है ? ॥15॥ जो मनुष्य-जीवन को भंगुर जान समस्त परिग्रह का त्यागकर आत्महित में प्रवृत्ति नहीं करता है वह अकृतकृत्य दशा में ही नष्ट हो जाता है ।।16।। उन हजार शास्त्रों से भी क्या प्रयोजन है जिससे आत्मा शांत नहीं होती और वह एक पद भी बहुत है जिससे आत्मा शांति को प्राप्त हो जाता है ।17।। जिस प्रकार कटे पक्ष का काक आकाश में उड़ना तो चाहता पर वैसा श्रम नहीं करता उसी प्रकार यह जीव सद्धर्म करना तो चाहता है पर यह जैसा चाहिए वैसा श्रम नहीं करता ॥18॥ यदि उद्योग से रहित मनुष्य इच्छानुकूल पदार्थ को पाने लगें तो फिर संसार में कोई भी विरही अथवा दरिद्र नहीं होना चाहिए ॥19।। जो मनुष्य द्वार पर आये हुए अतिथि साधु को आहार आदि दान देता है तथा गुरुओं के वचन सुन तदनुकूल शीघ्र आचरण करता है वह कभी दुःखी नहीं होता ।।20॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि नाना प्रकार के सैकड़ों व्यापारों से जिसका हृदय आकुल हो रहा है तथा इसके कारण जो प्रतिदिन दुःख का अनुभव करता रहता है ऐसे प्राणी की आयु हथेली पर रखे रत्न के समान नष्ट हो जाती है ॥21॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, श्री रविषेणाचार्य विरचित पद्मपुराण में भामंडल के परलोकगमन का वर्णन करने वाला एक सौ ग्यारहवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥11॥