ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 110
From जैनकोष
एक सौ दसवां पर्व
अथानंतर कांचनस्थान नामक नगर के राजा कांचनरथ की दो पुत्रियाँ थीं जो सौंदर्य के गर्व से गर्वित थीं तथा जिनकी माता का नाम शतहृदा था ॥1॥ उन दोनों कन्याओं के स्वयंवर के लिए उनके पिता ने महावेगशाली पत्रवाहक दूत भेजकर समस्त भूमिगोचरी और विद्याधर राजाओं को बुलवाया ॥2॥ एक पत्र इस आशय का अयोध्या के राजा के पास भी भेजा गया कि मेरी पुत्री का स्वयंवर है अतः विचारकर कुमारों को भेजिए ॥3॥ तदनंतर जिन्हें कुतूहल उत्पन्न हुआ था ऐसे राम और लक्ष्मण ने परम संपदा से युक्त अपने सब कुमार वहाँ भेजे ॥4॥ तत्पश्चात् परस्पर प्रेम से भरे हुए, वे सब कुमार, लवण और अंकुश को आगे कर कांचनस्थान की ओर चले ॥5।। सैकड़ों विमानों में बैठे, विद्याधरों के समूह से आवृत एवं लक्ष्मी से देवकुमारों के समान दिखने वाले वे सब कुमार आकाश-मार्ग से जा रहे थे ।।6।। जिनकी सेना उत्तरोत्तर बढ़ रही थी तथा जो दूर छूटी पृथिवी को देखते जाते थे ऐसे सब कुमार काश्चनरथ के उत्तम नगर में पहुँचे ॥7।। वहाँ देव-सभा के समान सुशोभित सभा में नाना अलंकारों से भूषित यथायोग्य स्थापित विद्याधरों और भूमिगोचरियों की दोनों श्रेणियाँ सुशोभित हो रही थीं ।।8।। समस्त वैभवों से सहित राजा नाना प्रकार की चेष्टाएँ करते हुए उन श्रेणियों में उस तरह सुशोभित हो रहे थे जिस तरह कि नंदन वन में देव सुशोभित होते हैं ।।9।।
वहाँ दूसरे दिन जिनका मंगलाचार किया गया था तथा जो उत्तम गुणों को धारण करने वाली थी ऐसी दोनों कन्याएँ ह्री और लक्ष्मी के समान अपने निवास स्थान से बाहर निकली ॥10॥ स्वयंवर-सभा में जो राजा आये थे कंचुकी ने उन सबका देश, कुल, धन, चेष्टा तथा नाम की अपेक्षा दोनों कन्याओं के लिए वर्णन किया ॥11॥ ये सब वानर, सिंह, शार्दूल, वृषभ तथा नाग आदि की पताकाओं से सहित विद्याधर बैठे हैं। हे उत्तम कन्याओ ! इन्हें तुम क्रम क्रम से देखो ।।12।। उन कन्याओं को देखकर जो लज्जा को प्राप्त हो रहे थे तथा जिनकी कांति फीकी पड़ गई थी ऐसे राजकुमार उन कन्याओं के द्वारा देखे जाकर संशय की तराजू पर आरूढ़ हो रहे थे ।।13।। जो राजकुमार उन कन्याओं के द्वारा देखे जाते थे वे अपने आभूषणों को सजाते हुए करने योग्य क्रियाओं को भूल जाते थे तथा हम कहाँ बैठे हैं यह भूल चंचल हो उठते थे ॥14॥ सौंदर्यरूपी गर्व के ज्वर से आकुल यह कन्या हम लोगों में से किसे वरेगी इस चिंता को प्राप्त हुए राजकुमार चंचल चित्त हो रहे थे ।।15।। वे उन कन्याओं को देखकर विचार करने लगते थे कि क्या देव और दानवों के दोनों जगत् को जीतकर कामदेव के द्वारा ग्रहण की हुई, लोगों के उन्माद की कारणभूत ये दो पताकाएँ ही हैं ॥16॥
अथानंतर वे दोनों कुमारियाँ लवणांकुश को देख कामबाण से विद्ध हो निश्चल खड़ी हो गयीं ॥17।। उन दोनों कन्याओं में मंदाकिनी नाम की जो बड़ी कन्या थी उसने अनुरागपूर्ण महादृष्टि से अनंगलवण को ग्रहण किया ॥18॥ और चंद्रमुखी तथा सुंदर भाग्य से युक्त चंद्रभाग्या नाम की दूसरी उत्तम कन्या ने अपने योग्य मदनांकुश को ग्रहण किया ॥19॥ तदनंतर उस सेना में जयध्वनि से उत्कृष्ट सिंहनाद से सहित हलहल का तीव्र शब्द उठा ॥20॥ ऐसा जान पड़ता था कि तीव्र लज्जा से भरे हुए लोगों के जो मन सब ओर उड़े जा रहे थे उनसे मानों आकाश अथवा दिशाएँ ही फटी जा रही थीं ॥21॥ उस कोलाहल के बीच समझदार मनुष्य कह रहे थे कि अहो ! हम लोगों ने यह योग्य उत्कृष्ट संबंध देख लिया जो इन कन्याओं ने राम के इन पुत्रों को ग्रहण किया है ॥22॥ मंदाकिनी अर्थात् गंगानदी, गंभीर तथा संसार प्रसिद्ध, लवणसमुद्र के पास गयी है सो इस लवण अर्थात् अनंगलवण के पास जाती हुई इस मंदाकिनी नामा कन्या ने भी कुछ अपूर्ण अयोग्य काम नहीं किया है ।।23॥ और सर्व जगत् की कांति को जीतने के लिए उद्यत इस चंद्रभाग्या ने जो मदनांकुश को ग्रहण किया है सो अत्यंत योग्य कार्य किया है ॥24॥ इस प्रकार उस सभा में सज्जनों की उत्तम वाणी सर्वत्र फैल रही थी सो ठीक ही है क्योंकि उत्तम संबंध से सज्जनों का चित्त आनंद को प्राप्त होता ही है ॥25॥ लक्ष्मण की विशल्या आदि आठ महादेवियों के जो आठ वीर कुमार, सुंदर चित्त के धारक, आठ वसुओं के समान सर्वत्र प्रसिद्ध थे वे प्रीति से भरे हुए अपने अढ़ाई सौ भाइयों से इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे मानो तारागणों के मध्य में स्थित ग्रह ही हो ॥26-27॥
वहाँ उन आठ के सिवाय बलवान तथा उत्कट चेष्टा के धारक जो लक्ष्मण के अन्य पुत्र थे वे क्रोधवश लवण और अंकुश की ओर झपटने के लिए तत्पर हो गये परंतु उन सुंदर कन्याओं को लक्ष्यकर उद्धत चेष्टा दिखाने वाली भाइयों की उस सेना को पूर्वोक्त आठ प्रमुख वीरों ने उस प्रकार शांत कर दिया जिस प्रकारकी मंत्र चंचल सर्पों के समूह को शांत कर देते हैं ॥28-29॥ उन आठ भाइयों ने अन्य भाइयों को समझाते हुए कहा कि 'भाइयो ! तुम सब उन दोनों भाइयों के साथ शांति को प्राप्त होओ। हे भद्र जनो! अब इन दोनों कन्याओं से क्या कार्य किया जाना है ? स्त्रियाँ स्वभाव से ही कुटिल हैं फिर जिनका चित्त दूसरे पुरुष में लग रहा है उनका तो कहना ही क्या है ? इसलिए ऐसा कौन उत्तम हृदय का धारक है जो उनके लिए विकार को प्राप्त हो। भले ही इन कन्याओं ने देवियों को जीत लिया हो फिर भी इनसे हम लोगों को क्या प्रयोजन है ? इसलिए यदि अपना कल्याण करना चाहते हो तो इनकी ओर से मन को लौटाओ' ॥30-32॥ इस तरह उन आठ कुमारों के वचनों से भाइयों का वह समूह उस प्रकार वशीभूत हो गया जिस प्रकार कि लगामों से घोड़ों का समूह वशीभूत हो जाता है ॥33॥
जिस स्थान में उन उत्तम कन्याओं के द्वारा सीता के पुत्र वरे गये थे वहाँ बाजों का तुमुल शब्द होने लगा ॥34॥ बहुत दूर तक दिग-दिगंत को व्याप्त करने वाले, बाँसुरी, काहला, शंख, भंभा, भेरी तथा झर्झर आदि बाजे मन और कानों को हरण करने वाले मनोहर शब्द करने लगे ॥35॥ जिस प्रकार इंद्र की विभूति देख क्षुद्र ऋद्धि के धारक देव शोक को प्राप्त हो जाते हैं उसी प्रकार स्वयंवर को विभूति देख लक्ष्मण के पुत्र क्षोभ को प्राप्त हो गये ॥36॥ वे सोचने लगे कि हम नारायण के पुत्र हैं, दीप्ति और कांति से युक्त हैं, नवयौवन से संपन्न हैं, उत्तम सहायकों से युक्त हैं तथा बल से प्रचंड हैं ।।37।। हम लोग किस गुण में हीन हैं कि जिससे हम लोगों में से किसी एक को भी इन कन्याओं ने नहीं वरा किंतु उसके विपरीत हम सबको छोड़ जानकी के पुत्रों को वरा ॥38॥ अथवा इसमें आश्चर्य ही क्या है ? जगत् की ऐसी ही विचित्र चेष्टा है, कर्मों की विचित्रता के योग से यह चराचर विश्व विचित्र ही जान पड़ता है ॥39॥ जिसे जहाँ जिस प्रकार जिस कारण से जो वस्तु पहले ही प्राप्त करने योग्य होती है उसे वहाँ उसी प्रकार उसी कारण से वही वस्तु अवश्य प्राप्त होती है ॥40॥ इस प्रकार जब लक्ष्मण के पुत्र शोक करने लगे तब जिसका आश्चर्य नष्ट हो गया था ऐसे रूपवती के पुत्र ने हँसकर कहा कि अरे भले पुरुषो ! स्त्री मात्र के लिए इस तरह क्यों शोक कर रहे हो ? तुम लोगों की इस चेष्टा से परम हास्य उत्पन्न होता है-अधिक हँसी आ रही है ॥41-42॥ हमें इन कन्याओं से क्या प्रयोजन है ? हमें तो मुक्ति की दूती स्वरूप जिनेंद्र भगवान् की कांति की प्राप्ति हो चुकी है अर्थात् हमारे मन में जिनेंद्र मुद्रा का स्वरूप झूल रहा है। फिर क्यों मूर्खों के समान तुम व्यर्थ ही बार-बार इसी का शोक कर रहे हो ? ॥43॥ केले के स्तंभ के समान निःसार तथा आत्मा को नष्ट करने वाले कामों के वशीभूत हो तुम लोग शोक और हास्य करने के योग्य नहीं हो ॥44॥ सब प्राणी कर्म के वश में पड़े हुए हैं इसलिए वह काम क्यों नहीं करते कि जिससे वह कर्म नष्ट हो जाता है ॥45॥ इस संसार रूपी सघन वन में भूले हुए प्राणी ऐसे दुःखों को प्राप्त हो रहे हैं इसलिए उस संसार वन को नष्ट करो ॥46॥ हे भाइयो ! यह कर्मभूमि है परंतु पिता के प्रसाद से मोहाक्रांत बुद्धि होकर हम लोग इसे स्वर्ग जैसा समझ रहे हैं ॥47॥ पहले बाल्यावस्था में पिता की गोद में स्थित रहने वाले मैंने किसी के द्वारा पुस्तक में बाँची गई एक बहुत ही सुंदर वस्तु सुनी थी कि सब भवों में मनुष्यभव दुर्लभ भव है उसे पाकर जो अपना हित नहीं करता है वह वंचित रहता है― ठगाया जाता है ॥48-49।। यह जीव पात्रदान से ऐश्वर्य को, तप से स्वर्ग को, ज्ञान से मोक्ष को, और पाप से दुःखदायी गति को प्राप्त होता है ।।50।। 'पुनर्जन्म अवश्य होता है। यह जानकर भी यदि हम तप नहीं करते हैं तो फिर से दुःखों से भरी हुई दुर्गति प्राप्त करनी होगी ॥51॥
इस प्रकार संसार-सागर के मध्य दुःखानुभवरूपी भँवर से भयभीत रहने वाले वे वीरकुमार प्रतिबोध को प्राप्त हो गये।।52।। और शीघ्र ही पिता के पास जाकर तथा प्रणाम कर विनय से खड़े हो हाथ जोड़ अत्यंत मधुर स्वर में कहने लगे कि हे पिताजी ! हमारी प्रार्थना सुनिए । आप विघ्न करने के योग्य नहीं हैं। हम लोग दीक्षा ग्रहण करना चाहते हैं सो इसमें अनुकूलता को प्राप्त हूजिए ॥53-54॥ इस संसार को बिजली के समान क्षणभंगुर तथा साररहित देखकर हम लोगों को अत्यंत तीव्र भय उत्पन्न हो रहा है ॥55॥ हम लोग इस समय किसी तरह उस उत्तम बोधि को प्राप्त हुए हैं कि नौका स्वरूप जिस बोधि के द्वारा संसार-सागर के उस पार पहुंचेंगे ॥56।। जो आशीविष-सर्प के फन के समान भयंकर हैं, शंका अर्थात् भय जिनके प्राण हैं तथा जो परम दुःख के कारण हैं ऐसे भोगों को हम दूर से ही छोड़ना चाहते हैं ॥57॥ इस कर्माधीन जीव की रक्षा करने के लिए न माता सहायक है, न पिता सहायक है, न भाई सहायक है, न कुटुंबीजन सहायक हैं और न मित्र लोग सहायक हैं ।।58॥ हे तात ! हम लोगों पर आपका तथा माताओं का जो उपमारहित परम वात्सल्य है उसे हम जानते हैं और यह भी जानते हैं कि संसारी प्राणियों के लिए यही बड़ा बंधन है परंतु आपके स्नेह से होने वाला सुख क्या चिरकाल तक रह सकता है ? भोगने के बाद भी उसका विरह अवश्य प्राप्त करना होता है और ऐसा विरह कि जो करोत के समान भयंकर होता है ।।59-60॥ यह जीव भोगों में तृप्त हुए बिना ही कुमित्र की तरह इस शरीर को छोड़ देगा तब क्या प्राप्त हुआ कहलाया ? ॥61॥
तदनंतर परमस्नेह से विह्वल लक्ष्मण उन पुत्रों को मस्तक पर सूंघकर तथा पुनः पुनः उनकी ओर देखकर बोले कि ये महल जो कि कैलास के शिखर के समान हैं, सुवर्ण तथा रत्नों से निर्मित हैं, सुवर्ण के हजारों खंभों से सुशोभित हैं, जिनके फर्शों की भूमियाँ नाना प्रकार की हैं, जो सुंदर-सुंदर छज्जों से सहित हैं, अच्छी तरह सेवन करने योग्य हैं, निर्मल हैं, सुंदर हैं, सब प्रकार के उपकरणों से सहित हैं, मलयाचल जैसी सुगंधित वायु से जिनमें भ्रमर आकृष्ट होते रहते हैं, जहाँ स्नानादि कार्यों के योग्य जुदी-जुदी उज्ज्वल भूमियाँ हैं, जो शरद्ऋतु के चंद्रमा के समान आभा वाले हैं, शुभ्रवर्ण हैं, जिनमें देवांगनाओं के समान स्त्रियों का आवास है, जो सब प्रकार के गुणों से सहित हैं, स्वर्ग के भवनों के समान हैं, वीणा, वेणु, मृदंग आदि के संगीत से मनोहर हैं और जिनेंद्र भगवान् के चरित संबंधी कथाओं से अत्यंत पवित्र हैं, सामने खड़े हैं सो हे बालको! इन महलों में सुख से रहकर अब तुम लोग दीक्षा धारणकर वन और पहाड़ों के बीच कैसे रहोगे ? ॥62-68।। हे पुत्रो ! स्नेहाधीन मुझे तथा शोकसंतप्त माता को छोड़कर जाना योग्य नहीं है इसलिए ऐश्वर्य का सेवन करो ॥69।।
तदनंतर स्नेह के दूर करने में जिनके चित्त लग रहे थे, जो संसार से भयभीत थे, इंद्रियों से प्राप्त होने योग्य सुखों से एकांतरूप से विमुख थे, उदार वीरता के द्वारा दिये हुए आलंबन से जो सुशोभित थे तथा तत्त्व विचार करने में जिनके चित्त लग रहे थे ऐसे वे सब कुमार बुद्धि द्वारा क्षणभर विचार कर बोले कि इस संसार में माता-पिता तथा अन्य लोग अनंतों बार प्राप्त होकर चले गये हैं। यथार्थ में स्नेहरूपी बंधन को प्राप्त हुए मनुष्यों के लिए यह घर एक बंदी गृह के समान है ।।70-72।। जिसमें पाप का परम आरंभ होता है तथा जो नाना दुःखों को बढ़ाने वाला है ऐसे गृहरूपी पिंजड़े की मूर्ख मनुष्य ही सेवा करते हैं बुद्धिमान् नहीं ॥73॥ जिस तरह शारीरिक और मानसिक दुःख हमें पुनः प्राप्त न हों उस तरह ही दृढ़ निश्चय कर हम कार्य करना चाहते हैं। क्या हम अपने आपके वैरी हैं ॥74।। गृहस्थ यद्यपि यह सोचता है कि मैं निर्दोष हूँ, मेरे पाप नहीं हैं, फिर भी वह रखे हुए शुक्ल वस्त्र के समान मलिनता को प्राप्त हो ही जाता है ।।75।। यतश्च गृहस्थाश्रम में निवास करने वाले मनुष्यों को उठ-उठकर पाप में प्रीति होती है इसीलिए महात्मा पुरुषों ने गृहस्थाश्रम का त्याग किया है ।।76।। आपने जो कहा है कि अच्छी तरह ऐश्वर्य का उपभोग करो सो आप हमें ज्ञानवान् होकर भी अंधकूप में फेंक रहे हैं ॥77॥ जिस प्रकार प्यास से पानी पीते हुए हरिण को शिकारी मार देता है उसी प्रकार भोगों से अतृप्त मनुष्य को मृत्यु मार देती है ॥78॥ विषयों की प्राप्ति में आसक्त, परतंत्र, अज्ञानी तथा औषध से रहित यह संसार कामरूपी सांपों के साथ क्रीड़ा कर रहा है।
भावार्थ― जिस प्रकार साँपों के साथ खेलने वाले अज्ञानी एवं औषध रहित मनुष्य मरण को प्राप्त होता है उसी प्रकार आस्रवबंध और संवर निर्जरा के ज्ञान से रहित यह जीव इंद्रिय भोगों के साथ क्रीड़ा करता हुआ मृत्यु को प्राप्त होता है ॥79।। घररूपी जलाशय में मग्न तथा विषयरूपी मांस में आसक्त ये मनुष्यरूपी मच्छ रोगरूपी वंशी के योग से मृत्यु को प्राप्त होते हैं ॥80। इसीलिए मनुष्यलोक के स्वामी, लोकत्रय के द्वारा वंदित भगवान् जिनेंद्र ने जगत् को अपने कर्म के आधीन कहा है । भावार्थ― भगवान् जिनेंद्र ने बताया है कि संसार के सब प्राणी स्वीकृत कर्मों के आधीन हैं।।81।।इसलिए हे तात ! जिनका परिणाम अच्छा नहीं है, प्रियजनों का समागम जिनका प्रलोभन है, जो विद्वत्जनों के द्वेषपात्र हैं तथा जो बिजली के समान चंचल हैं ऐसे इन भोगों से पूरा पड़े अर्थात् इनकी आवश्यकता नहीं है ।।82।। जब कि बंधुजनों के साथ विरह अवश्यंभावी है तब इस अटपटे संसार में क्या प्रीति करना है ? ॥83।। 'यह मेरा प्यारा है। ऐसी आस्था केवल व्यामोह के कारण उत्पन्न होती है क्योंकि यह जीव अकेला ही गमनागमन के दुःख को प्राप्त होता है ॥84।। मिथ्याशास्त्र ही जिसमें खोटे द्वीप हैं, मोहरूपी कीचड़ से जो युक्त है, जो शोक संतापरूपी फेन से सहित है, जन्मरूपी भँवरों के समूह से व्याप्त है, व्याधि तथा मृत्युरूपी तरंगों से युक्त है, मोहरूपी गहरे गर्तों से सहित है, क्रोधादि कषाय रूपी कर मकर और नाकों के समूह से लहरा रहा है, मिथ्या तर्कशास्त्र से उत्पन्न शब्दों से अत्यंत भयंकर है, मिथ्यात्व रूपी वायु के द्वारा कंपित है, दुर्गतिरूपी खारे पानी से सहित है और अत्यंत दुःसह तथा उत्कट वियोग रूपी बड़वानल से युक्त है ऐसे भयंकर संसार-सागर में हे तात ! हम लोग बहुत समय से खेद-खिन्न हो रहे हैं ॥85-88।। नाना योनियों में परिभ्रमण करने के बाद हम बड़ी कठिनाई से मनुष्य पर्याय को प्राप्त हुए हैं इसलिए अब वह काम करना चाहते हैं कि जिससे पुनः इस संसार सागर में न डूबे ॥89॥
तदनंतर परिजन के लोगों से घिरे हुए माता-पिता से पूछकर वे आठों वीर कुमार क्रम-क्रम से घर रूपी कारागार से बाहर निकले ॥90॥ संसार-स्वरूप को जानने वाले, घर से निकलते हुए उन वीरों की उस प्रकार के विशाल साम्राज्य में ठीक उस तरह की अनादर बुद्धि हो रही थी जिस प्रकार कि जीर्ण-तृण में होती है ॥91॥ तदनंतर उन्होंने महेंद्रोदय नामा उद्यान में जाकर संवेगपूर्वक महाबल मुनि के समीप निर्ग्रंथ दीक्षा धारण कर ली ॥92॥ जो सब प्रकार के आरंभ से रहित थे, दिगंबर थे, क्षमा युक्त थे, दमन शील थे, सब झंझटों से मुक्त थे, निरपेक्ष थे और ध्यान में तत्पर थे ऐसे वे परम योगी निरंतर विहार करते रहते थे ॥93॥ समीचीन तप के द्वारा पाप को नष्ट कर, और अध्यात्मयोग के द्वारा पुण्य को रोककर जिन्होंने संसार का समस्त प्रपंच नष्ट कर दिया था ऐसे वे आठों मुनि अनंत सुख से युक्त निर्वाण पद को प्राप्त हुए ।।94।। गौतम स्वामी कहते हैं कि जो मनुष्य विनीत हो भक्तिपूर्वक इन आठ कुमारों के मंगलमय चरित को पढ़ता अथवा सुनता है सूर्य के समान कांति को धारण करने वाले उस मनुष्य का सब पाप नष्ट हो जाता है तथा उत्तम चंद्रमा का उदय होता है ।।95।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, श्री रविषेणाचार्य द्वारा प्रणीत पद्मपुराण में आठ कुमारों की दीक्षा का वर्णन करने वाला एक सौ दसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥110।।