कृतिकर्म: Difference between revisions
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<span class="GRef">मूलाचार/602</span> <span class="SanskritText">दुविहठाण पुनरुत्तं।</span>=<span class="HindiText">दो प्रकार के आसनों में से किसी एक से कृतिकर्म करना चाहिए।</span><br /> | <span class="GRef">मूलाचार/602</span> <span class="SanskritText">दुविहठाण पुनरुत्तं।</span>=<span class="HindiText">दो प्रकार के आसनों में से किसी एक से कृतिकर्म करना चाहिए।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/2089/1803 </span><span class="PrakritText"> बंधेत्तु पलिअंकं।</span>=<span class="HindiText">पल्यंकासन बांधकर किया जाता है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/9/44/1/634/20 )</span>;<span class="GRef">( महापुराण/21/60 )</span></span><br /> | <span class="GRef"> भगवती आराधना/2089/1803 </span><span class="PrakritText"> बंधेत्तु पलिअंकं।</span>=<span class="HindiText">पल्यंकासन बांधकर किया जाता है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/9/44/1/634/20 )</span>;<span class="GRef">( महापुराण/21/60 )</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/21/69-72 </span><span class="SanskritGatha">पल्यंक इव दिध्यासो: कायोत्सर्गोऽपि संमत:। संप्रयुक्त सर्वांगो द्वात्रिंशद्दोषवर्जित:।61। विसंस्थुलासनस्थस्य ध्रुवं गात्रस्य निग्रह:। तंत्रिग्रहांमन:पीडा ततश्च विमनस्कता।70। वैमनस्ये च किं ध्यायेत् तस्यादिष्टं सुखासनम्। कायोत्सर्गश्च पर्यंक: ततोऽन्यद्विषमासनम्।71। तदवस्थाद्वयस्यैव प्राधान्यं ध्यायतो यते:। प्रायस्तत्रापि पल्यंकम् आममंति सुखासनम्।72।</span>=<span class="HindiText">ध्यान करने की इच्छा करने वाले मुनि को पर्यंक आसन के समान कायोत्सर्ग आसन करने की भी आज्ञा है। परंतु उसमें शरीर के समस्त अंग सम व 32 दोषों से रहित रहने चाहिए (देखें [[ व्युत्सर्ग#1.10 | व्युत्सर्ग - 1.10]]) विषम आसन से बैठने वाले के अवश्य ही शरीर में पीड़ा होने लगती है। उसके कारण मन में पीड़ा होती है और उससे व्याकुलता उत्पन्न हो जाती है।70। आकुलता उत्पन्न होने पर क्या ध्यान दिया जा सकता है ? इसलिए ध्यान के समय सुखासन लगाना ही अच्छा है। कायोत्सर्ग और पर्यंक ये दो सुखासन हैं। इनके सिवाय बाकी के सब आसन विषम अर्थात् दुःख | <span class="GRef"> महापुराण/21/69-72 </span><span class="SanskritGatha">पल्यंक इव दिध्यासो: कायोत्सर्गोऽपि संमत:। संप्रयुक्त सर्वांगो द्वात्रिंशद्दोषवर्जित:।61। विसंस्थुलासनस्थस्य ध्रुवं गात्रस्य निग्रह:। तंत्रिग्रहांमन:पीडा ततश्च विमनस्कता।70। वैमनस्ये च किं ध्यायेत् तस्यादिष्टं सुखासनम्। कायोत्सर्गश्च पर्यंक: ततोऽन्यद्विषमासनम्।71। तदवस्थाद्वयस्यैव प्राधान्यं ध्यायतो यते:। प्रायस्तत्रापि पल्यंकम् आममंति सुखासनम्।72।</span>=<span class="HindiText">ध्यान करने की इच्छा करने वाले मुनि को पर्यंक आसन के समान कायोत्सर्ग आसन करने की भी आज्ञा है। परंतु उसमें शरीर के समस्त अंग सम व 32 दोषों से रहित रहने चाहिए (देखें [[ व्युत्सर्ग#1.10 | व्युत्सर्ग - 1.10]]) विषम आसन से बैठने वाले के अवश्य ही शरीर में पीड़ा होने लगती है। उसके कारण मन में पीड़ा होती है और उससे व्याकुलता उत्पन्न हो जाती है।70। आकुलता उत्पन्न होने पर क्या ध्यान दिया जा सकता है ? इसलिए ध्यान के समय सुखासन लगाना ही अच्छा है। कायोत्सर्ग और पर्यंक ये दो सुखासन हैं। इनके सिवाय बाकी के सब आसन विषम अर्थात् दुःख देने वाले हैं।71। ध्यान करने वाले को इन्हीं दो आसनों की प्रधानता रहती है। और उन दोनों में भी पर्यंकासन अधिक सुखकर माना जाता है।72। <span class="GRef">( धवला 13/5,4,26/66/2 )</span>;<span class="GRef">(ज्ञानार्णव 28/12-13,31-32)</span> <span class="GRef">( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/355 )</span>;<span class="GRef">( अनगारधर्मामृत/8/84 )</span>2. समर्थ जनों के लिए आसन का कोई नियम नहीं: </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 13/5,4,26/14/66 </span><span class="PrakritText">जच्चिय देहावत्था जया ण झाणावरोहिणी होइ। झाएज्जो तदवत्थो ट्ठियो णिसण्णो णिवण्णो वा</span>=<span class="HindiText">जैसी भी देह की अवस्था जिस समय ध्यान में बाधक नहीं होती उस अवस्था में रहते हुए खड़ा होकर या बैठकर (या महापुराण के अनुसार लेट कर भी) कायोत्सर्ग पूर्वक ध्यान करे। <span class="GRef">( महापुराण/21/75 )</span>;<span class="GRef">( ज्ञानार्णव /28/11)</span></span><br /> | <span class="GRef"> धवला 13/5,4,26/14/66 </span><span class="PrakritText">जच्चिय देहावत्था जया ण झाणावरोहिणी होइ। झाएज्जो तदवत्थो ट्ठियो णिसण्णो णिवण्णो वा</span>=<span class="HindiText">जैसी भी देह की अवस्था जिस समय ध्यान में बाधक नहीं होती उस अवस्था में रहते हुए खड़ा होकर या बैठकर (या महापुराण के अनुसार लेट कर भी) कायोत्सर्ग पूर्वक ध्यान करे। <span class="GRef">( महापुराण/21/75 )</span>;<span class="GRef">( ज्ञानार्णव /28/11)</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/2090/1804 </span><span class="PrakritText"> वीरासणमादीयं आसणसमपादमादियं ठाणं। सम्मं अधिदिट्ठी अध वसेज्जमुत्ताणसयणादि।2090।</span>=<span class="HindiText">वीरासन आदि आसनों से बैठकर अथवा समपाद आदि से खड़े होकर अर्थात् कायोत्सर्ग आसन से किंवा उत्तान शयनादिक से अर्थात् लेटकर भी धर्मध्यान करते हैं।2090।</span><br /> | <span class="GRef"> भगवती आराधना/2090/1804 </span><span class="PrakritText"> वीरासणमादीयं आसणसमपादमादियं ठाणं। सम्मं अधिदिट्ठी अध वसेज्जमुत्ताणसयणादि।2090।</span>=<span class="HindiText">वीरासन आदि आसनों से बैठकर अथवा समपाद आदि से खड़े होकर अर्थात् कायोत्सर्ग आसन से किंवा उत्तान शयनादिक से अर्थात् लेटकर भी धर्मध्यान करते हैं।2090।</span><br /> | ||
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<span class="GRef"> धवला 13/5,4,26/15,20/66 </span><span class="PrakritText">सव्वासु वट्टमाणा जं देसकालचेट्ठासु। वरकेवलादिलाहं पत्ता हु सो खवियपावा।15। तो देसकालचेट्ठाणियमो ज्झाणस्स णत्थि समयम्मि। जोगाण समाहाणं जह होइ तहा पयइयव्वं।20।</span>=<span class="HindiText">सब देश, सब काल और सब अवस्थाओं (आसनों) में विद्यमान मुनि अनेक विध पापों का क्षय करके उत्तम केवलज्ञानादि को प्राप्त हुए।15। ध्यान के शास्त्र में देश, काल और चेष्टा (आसन) का भी कोई नियम नहीं है। तत्त्वत: जिस तरह योगों का समाधान हो उसी तरह प्रवृत्ति करनी चाहिए।20। <span class="GRef">( महापुराण/21/82-83 )</span>; <span class="GRef">( ज्ञानार्णव 28/21 )</span></span><br /> | <span class="GRef"> धवला 13/5,4,26/15,20/66 </span><span class="PrakritText">सव्वासु वट्टमाणा जं देसकालचेट्ठासु। वरकेवलादिलाहं पत्ता हु सो खवियपावा।15। तो देसकालचेट्ठाणियमो ज्झाणस्स णत्थि समयम्मि। जोगाण समाहाणं जह होइ तहा पयइयव्वं।20।</span>=<span class="HindiText">सब देश, सब काल और सब अवस्थाओं (आसनों) में विद्यमान मुनि अनेक विध पापों का क्षय करके उत्तम केवलज्ञानादि को प्राप्त हुए।15। ध्यान के शास्त्र में देश, काल और चेष्टा (आसन) का भी कोई नियम नहीं है। तत्त्वत: जिस तरह योगों का समाधान हो उसी तरह प्रवृत्ति करनी चाहिए।20। <span class="GRef">( महापुराण/21/82-83 )</span>; <span class="GRef">( ज्ञानार्णव 28/21 )</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/21/76 </span><span class="SanskritText"> देशादिनियमोऽप्येवं प्रायोवृत्तिव्यपाश्रय:। कृतात्मनां तु सर्वोऽपि देशादिर्ध्यानसिद्धये।76।</span>=<span class="HindiText">देश आदि का जो नियम कहा गया है वह प्रायोवृत्ति को लिए हुए है, अर्थात् हीन शक्ति के धारक ध्यान करने वालों के लिए ही देश आदि का नियम है, पूर्ण शक्ति के धारण करने वालों के लिए तो सभी देश और सभी काल आदि ध्यान के साधन हैं।<br /> | <span class="GRef"> महापुराण/21/76 </span><span class="SanskritText"> देशादिनियमोऽप्येवं प्रायोवृत्तिव्यपाश्रय:। कृतात्मनां तु सर्वोऽपि देशादिर्ध्यानसिद्धये।76।</span>=<span class="HindiText">देश आदि का जो नियम कहा गया है वह प्रायोवृत्ति को लिए हुए है, अर्थात् हीन शक्ति के धारक ध्यान करने वालों के लिए ही देश आदि का नियम है, पूर्ण शक्ति के धारण करने वालों के लिए तो सभी देश और सभी काल आदि ध्यान के साधन हैं।<br /> | ||
और भी देखें [[ कृतिकर्म#3.2 | कृतिकर्म - 3.2]],4 (समर्थ जनों के लिए | और भी देखें [[ कृतिकर्म#3.2 | कृतिकर्म - 3.2]], [[3.4]](समर्थ जनों के लिए आसन व क्षेत्र का कोई नियम नहीं)<br /> | ||
देखें [[ | देखें [[सामायिक#4.2 | सामायिक - 4.2]], [[वंदना#6 | वंदना - 6]], [[ध्यान#3.2 | ध्यान - 3.2]] – काल संबंधी भी कोई अटल नियम नहीं है। अधिक बार या अन्य–अन्य कालों में भी सामायिक, वंदना, ध्यान आदि किये जाते हैं। </span></li> | ||
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<li class="HindiText"><strong id="4.1"> साधु का दैनिक कार्यक्रम</strong> </span><br /> | <li class="HindiText"><strong id="4.1"> साधु का दैनिक कार्यक्रम</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef">मूलाचार/602</span> <span class="PrakritText">चत्तारि पडिक्कमणे किदियम्मा तिण्णि होंति सज्झाए। पुव्वण्हे अवरण्हे किदियम्मा चोद्दस्सा होंति।600।</span>=<span class="HindiText">प्रतिक्रमण | <span class="GRef">मूलाचार/602</span> <span class="PrakritText">चत्तारि पडिक्कमणे किदियम्मा तिण्णि होंति सज्झाए। पुव्वण्हे अवरण्हे किदियम्मा चोद्दस्सा होंति।600।</span>=<span class="HindiText">प्रतिक्रमण काल में चार क्रियाकर्म होते हैं और स्वाध्याय काल में तीन क्रियाकर्म होते हैं। इस तरह सात सवेरे और सात साँझ को सब 14 क्रियाकर्म होते हैं।<br /> | ||
<span class="GRef">( अनगारधर्मामृत 9/1-13/34-35 )</span></span></li> | <span class="GRef">( अनगारधर्मामृत 9/1-13/34-35 )</span></span></li> | ||
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Revision as of 21:25, 8 December 2024
सिद्धांतकोष से
- द्रव्यश्रुत के 14 पूर्वों में से बारहवें पूर्व का छहों प्रकीर्णक–देखें श्रुतज्ञान - III.1।
- दैनिकादि क्रियाओं में साधुओं को किस प्रकार के आसन, मुद्रा आदि का ग्रहण करना चाहिए तथा किस अवसर पर कौन भक्ति व पाठादि का उच्चारण करना चाहिए, अथवा प्रत्येक भक्ति आदि के साथ किस प्रकार आवर्त, नति व नमस्कार आदि करना चाहिए, इस सब विधि विधान को कृतिकर्म कहते हैं। इसी विषय का विशेष परिचय इस अधिकार में दिया गया है।
- भेद व लक्षण
- कृतिकर्म निर्देश
- कृतिकर्म के नौ अधिकार।
- कृतिकर्म के प्रमुख अंग।
- कृतिकर्म कौन करे (स्वामित्व)।
- कृतिकर्म किसका करे।
- किस-किस अवसर पर करे।
- नित्य करने की प्रेरणा।
- कृतिकर्म की प्रवृत्ति आदि व अंतिम तीर्थों में ही कही गयी हैं।
- आवर्तादि करने की विधि।
- * प्रत्येक कृतिकर्म में आवर्त नमस्कारादि का प्रमाण–देखें कृतिकर्म - 2.8।
- * कृतिकर्म के अतिचार–देखें व्युत्सर्ग - 1.10।
- कृतिकर्म के नौ अधिकार।
- कृतिकर्म व ध्यान योग्य द्रव्य क्षेत्रादि
- योग्य मुद्रा व उसका प्रयोजन।
- योग्य आसन व उसका प्रयोजन।
- योग्य पाठ।
- योग्य क्षेत्र तथा उसका प्रयोजन।
- योग्य दिशा।
- * योग्य काल–(देखें वह वह विषय )।
- योग्य मुद्रा व उसका प्रयोजन।
- कृतिकर्म विधि
- अन्य संबंधित विषय
- भेद व लक्षण
- कृतिकर्म का लक्षण
षट्खंडागम/13/5,4/ सूत्र 28/88 तमादाहीणं पदाहिणं तिक्खुत्तं तियोणदं चदुसिरं बारसावत्तं तं सव्वं किरियाकम्मं णाम/28/।=आत्माधीन होना, प्रदक्षिणा करना, तीन बार करना (त्रि:कृत्वा) तीन बार अवनति (नमस्कार), चार बार सिर नवाना (चतु:शिर) और 12 आवर्त ये सब क्रियाकर्म कहलाते हैं। ( अनगारधर्मामृत/9/14 )।
कषायपाहुड़/1/1,1/1/118/2 जिणसिद्धाइरियं बहुसुदेसु वदिज्जमाणेसु। जं कीरइ कम्मं तं किदियम्मं णाम।=जिनदेव, सिद्ध, आचार्य और उपाध्याय की (नव देवता की) वंदना करते समय जो क्रिया की जाती है, उसे कृतिकर्म कहते हैं। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/367/790/5 )
मूल आचार/भाषा/576 जिसमें आठ प्रकार के कर्मों का छेदन हो वह कृतिकर्म है। - कृतिकर्म स्थितिकल्प का लक्षण
भगवती आराधना/ टीका/421/614/10 चरणस्थेनापि विनयो गुरूणां महत्तराणां शुश्रूषा च कर्तव्येति पंचम: कृतिकर्मसंज्ञित: स्थितिकल्प:।=चारित्र संपन्न मुनि का, अपने गुरु का और अपने से बड़े मुनियों का विनय करना शुश्रूषा करना यह कर्तव्य है। इसको कृतिकर्म स्थिति कल्प कहते हैं।
- कृतिकर्म का लक्षण
- कृतिकर्म निर्देश
- कृतिकर्म के नौ अधिकार
मूलाचार/575-576 किदियम्मं चिदियम्मं पूयाकम्मं च विणयकम्मं च। कादव्वं केण कस्स कथं व कहिं व कदि खुत्तो।576। कदि ओणदं कदि सिरं कदिए आवत्तगेहिं परिसुद्धं। कदि दोसविप्पमुक्कं किदियम्मं होदि कादव्वं।577।=जिससे आठ प्रकार के कर्मों का छेदन हो वह कृतिकर्म है, जिससे पुण्यकर्म का संचय हो वह चितकर्म है, जिससे पूजा करना वह माला चंदन आदि पूजाकर्म है, शुश्रूषा का करना विनयकर्म है।- वह क्रिया कर्म कौन करे
- किसका करना
- किस विधि से करना
- किस अवस्था में करना
- कितनी बार करना (कृतिकर्म विधान)
- कितनी अवनतियों से करना
- कितनी बार मस्तक में हाथ रखकर करना
- कितने आवर्तों से शुद्ध होता है
- कितने दोष रहित कृतिकर्म करना (अतिचार)—इस प्रकार नौ प्रश्न करने चाहिए (जिनको यहाँ चार अधिकारों में गर्भित कर दिया गया है।)
- कृतिकर्म के प्रमुख अंग
षट्खंडागम/13/5,4/ सूत्र 28/88 तमादाहीणं पदाहीणं तिक्खुत्तं तियोणदं चदुसिरं बारसावत्तं तं सव्वं किरियाकम्मं णाम।=आत्माधीन होना, प्रदक्षिणा करना, तीन बार करना (त्रि:कृत्वा), तीन बार अवनति (या नमस्कार), चार बार सिर नवाना (चतु:शिर), और बारह आवर्त ये सब क्रियाकर्म हैं। (समवायांग सूत्र 2)
( कषायपाहुड़/1/1,1/91/118/2 ) ( चारित्रसार/157/1 ) ( गोम्मटसार जीवकांड1/जीवतत्व प्रदीपिका/367/710/5 )
मूलाचार/601,686 दोणदं तु जधाजादं बारसावत्तमेव य। चदुस्सिरं तिमुद्धं च किदियम्मं पउंजदे।601। तियरणसव्वविसुद्धो दव्वं खेत्ते जधुत्तकालम्हि। मोणेणव्वाखित्तो कुज्जा आवासया णिच्चं।=ऐसे क्रियाकर्म को करे कि जिसमें दो अवनति (भूमि को छूकर नमस्कार) हैं, बारह आवर्त हैं, मन वचन काया की शुद्धता से चार शिरोनति हैं इस प्रकार उत्पन्न हुए बालक के समान करना चाहिए।601। मन, वचन काय करके शुद्ध, द्रव्य क्षेत्र यथोक्त काल में नित्य ही मौनकर निराकुल हुआ साधु आवश्यकों को करें।684। ( भगवती आराधना/116/275/11 पर उद्धृत ) ( चारित्रसार/257/6 पर उद्धृत )
अनगारधर्मामृत/8/78 योग्यकालासनस्थानमुद्रावर्तशिरोनति। विनयेन यथाजात: कृतिकर्मामलं भजेत् ।78।=योग्य काल, आसन, स्थान (शरीर की स्थिति बैठे हुए या खड़े हुए), मुद्रा, आवर्त, और शिरोनति रूप कृतिकर्म विनयपूर्वक यथाजात रूप में निर्दोष करना चाहिए।
- कृतिकर्म कौन करे (स्वामित्व)
मूलाचार/590 पंचमहव्वदगुत्तो संविग्गोऽणालसो अमाणो य। किदियम्म णिज्जरट्ठी कुणइ सदा ऊणरादिणिओ।590।=पंच महाव्रतों के आचरण में लीन, धर्म में उत्साह वाला, उद्यमी, मानकषाय रहित, निर्जरा को चाहने वाला, दीक्षा से लघु ऐसा संयमी कृतिकर्म को करता है। नोट–मूलाचार ग्रंथ मुनियों के आचार का ग्रंथ है, इसलिए यहाँ मुनियों के लिए ही कृतिकर्म करना बताया गया है। परंतु श्रावक व अविरत सम्यग्दृष्टियों को भी यथाशक्ति कृतिकर्म अवश्य करना चाहिए।
धवला/5,4,31/94/4 किरियाकम्मदव्वट्ठदा असंखेज्जा। कुदो। पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्त सम्माइट्ठीसु चेव किरियाकम्मुवलंभादो।=क्रियाकर्म की द्रव्यार्थता (द्रव्य प्रमाण) असंख्यात है, क्योंकि पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र सम्यग्दृष्टियों में ही क्रिया कर्म पाया जाता है।
चारित्रसार/158/6 सम्यग्दृष्टीनां क्रियार्हा भवंति।
चारित्रसार/166/4 एवमुक्ता: क्रिया यथायोग्यं जघन्यमध्यमोत्तमश्रावकै: संयतैश्च करणीया:।=सम्यग्दृष्टियों के ये क्रिया करने योग्य होती हैं।... इस प्रकार उपरोक्त क्रियाएँ अपनी-अपनी योग्यतानुसार उत्तम, मध्यम जघन्य श्रावकों को तथा मुनियों को करनी चाहिए।
अनगार धर्मामृत/8/126/837 पर उद्धृत— सव्याधेरिव कल्पत्वे विदृष्टेरिव लोचने। जायते यस्य संतोषो जिनवक्त्रविलोकने। परिषहसह: शांतो जिनसूत्रविशारद:। सम्यग्दृष्टिरनाविष्टो गुरुभक्त: प्रियंवद:।। आवश्यकमिदं धीर: सर्वकर्मनिषूदनम्। सम्यक् कर्तुमसौ योग्यो नापरस्यास्ति योग्यता।=- रोगी की निरोगता की प्राप्ति से; तथा अंधे को नेत्रों की प्राप्ति से जिस प्रकार हर्ष व संतोष होता है, उसी प्रकार जिनमुख विलोकन से जिसको संतोष होता हो
- परीषहों को जीतने में जो समर्थ हो
- शांत परिणामी अर्थात् मंदकषायी हो
- जिन सूत्र विशारद हो
- सम्यग्दर्शन से युक्त हो
- आवेश रहित हो
- गुरुजनों का भक्त हो
- प्रिय वचन बोलने वाला हो| ऐसा वही धीरे-धीरे संपूर्ण कर्मों को नष्ट करने वाले इस आवश्यक कर्म को करने का अधिकारी हो सकता है। और किसी में इसकी योग्यता नहीं रह सकती।
- कृतिकर्म किस का करे
मूलाचार/591 आइरियउवज्झायाणं पवत्तयत्थेरगणधरादीणं। एदेसिं किदियम्मं कादव्वं णिज्जरट्ठाए।591।=आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणधर आदि का कृतिकर्म निर्जरा के लिए करना चाहिए, मंत्र के लिए नहीं। ( कषायपाहुड़/1/1,1/91/118/2 )
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/367/790/2 तच्च अर्हत्सिद्धाचार्यबहुश्रुतसाध्वादिनवदेवतावंदनानिमित्त .... क्रियां विधानं च वर्णयति।=इस (कृतिकर्म प्रकीर्णक में) अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु आदि नवदेवता (पाँच परमेष्ठी, शास्त्र, चैत्य, चैत्यालय तथा जिनधर्म) की वंदना के निमित्त क्रिया विधान निरूपित है। - किस किस अवसर पर करे
मूलाचार/599 आलोयणायकरणे पडिपुच्छा पूजणे य सज्झाए अवराधे य गुरूणं वंदणमेदेसु ठाणेसु।599।=आलोचना के समय, पूजा के समय, स्वाध्याय के समय, क्रोधादिक अपराध के समय–इतने स्थानों में आचार्य उपाध्याय आदि को वंदना करनी चाहिए।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/278/22अतिचारनिवृत्तये कायोत्सर्गा बहुप्रकारा भवंति। रात्रिदिनपक्षमासचतुष्टयसंवत्सरादिकालगोचरातिचारभेदापेक्षया।=अतिचार निवृत्ति के लिए कायोत्सर्ग बहुत प्रकार का है। रात्रि कायोत्सर्ग, पक्ष, मास, चतुर्मास और संवत्सर ऐसे कायोत्सर्ग के बहुत भेद हैं। रात्रि, दिवस, पक्ष, मास, चतुर्मास, वर्ष इत्यादि में जो व्रत में अतिचार लगते हैं उनको दूर करने के लिए ये कायोत्सर्ग किये जाते हैं।
- नित्य करने की प्रेरणा
अनगारधर्मामृत/8/77 नित्येनेत्थमथेतरेण दुरितं निर्मूलयन् कर्मणा,.../...शुभगं कैवल्यमस्तिघ्नुते।77। नित्य नैमित्तिक क्रियाओं के द्वारा पाप कर्मों का निर्मूलन करते हुए...कैवल्य ज्ञान को प्राप्त कर लेता है।
- कृतिकर्म की प्रवृत्ति आदि व अंतिम तीर्थों में ही कही गयी है
मूलाचार/629-630 मज्झिमया दिढ़बुद्धी एयग्गमणा अमोहलक्खा य। तह्माहु जमाचरंति तं गरहंता वि सुज्झंति।629। पुरिमचरिमादु जहमा चलचित्ता चेव मोहलक्खा य। तो सव्वपडिक्कमणं अंघलघोडय दिट्ठंतो।630।=मध्यम तीर्थंकरों के शिष्य स्मरण शक्ति वाले हैं, स्थिर चित्त वाले हैं, परीक्षा पूर्वक कार्य करने वाले हैं, इस कारण जिस दोष को प्रगट आचरण करते हैं, उस दोष से अपनी निंदा करते हुए शुद्ध चारित्र के धारण करने वाले होते हैं।629। आदि-अंत के तीर्थंकरों के शिष्य चलायमान चित्त वाले होते हैं, मूढ़बुद्धि होते हैं, इसलिए उनके सब प्रतिक्रमण दंडक का उच्चारण है। इसमें अंधे घोड़े का दृष्टांत है। कि—एक वैद्यजी गाँव चले गये। पीछे एक सेठ अपने घोड़े को लेकर इलाज कराने के लिए वैद्यजी के घर पधारे। वैद्यपुत्र को ठीक औषधि का ज्ञान तो था नहीं। उसने आलमारी में रखी सारी ही औषधियों का लेप घोड़े की आँख पर कर दिया। इससे उस घोड़े की आँखें खुल गई। इसी प्रकार दोष व प्रायश्चित्त का ठीक-ठीक ज्ञान न होने के कारण आगमोक्त आवश्यकादि को ठीक-ठीक पालन करते रहने से जीवन के दोष स्वत: शांत हो जाते हैं। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/421/616/5 )
- आवर्तादि करने की विधि
अनगारधर्मामृत/8/89 त्रि: संपुटीकृतौ हस्तौ भ्रमयित्वा पठेत् पुन:। साम्यं पठित्वा भ्रमयेत्तौ स्तवेऽप्येतदाचरेत्।=आवश्यकों का पालन करने वाले तपस्वियों को सामायिक पाठ का उच्चारण करने के पहले दोनों हाथों को मुकुलित बनाकर तीन बार घुमाना चाहिए। घुमाकर सामायिक के ‘णमो अरहंताणं’ इत्यादि पाठ का उच्चारण करना चाहिए। पाठ पूर्ण होने पर फिर उसी तरह मुकुलित हाथों को तीन बार घुमाना चाहिए। यही विधि स्तव दंडक के विषय में भी समझना चाहिए।
- अधिक बार भी आवर्त आदि करने का निषेध नहीं
धवला 13/5,4,28/89/14 एवमेगं किरियाकम्मं चदुसिरं होदि। ण अण्णत्थ णवणपडिसेहो ऐदेण कदो, अण्णत्थणवणियमस्स पडिसेहाकरणादो।=इस प्रकार एक क्रियाकर्म चतु:सिर होता है। इससे अतिरिक्त नमन का प्रतिषेध नहीं किया गया है, क्योंकि शास्त्र में अन्यत्र नमन करने के नियम का कोई प्रतिषेध नहीं है। ( चारित्रसार/157 .5/);( अनगारधर्मामृत/8/91 )
- कृतिकर्म के नौ अधिकार
- कृतिकर्म व ध्यान योग्य द्रव्य क्षेत्रादि रूप सामग्री
- योग्यमुद्रा व उसका प्रयोजन
- शरीर निश्चल सीधा नासाग्रदृष्टि सहित होना चाहिए
भगवती आराधना/2089/1803 उज्जुअआयददेहो अचलं बंधेत्त पलिअंकं।=शरीर व कमर को सीधी करके तथा निश्चल करके और पर्यंकासन बाँधकर ध्यान किया जाता है।
राजवार्तिक/9/44/1/634/20 यथासुखमुपविष्टो बद्धपल्यंकासन: समृजं प्रणिधाय शरीरयष्टिमस्तब्धां स्वांके वामपाणितलस्योपरि दक्षिणपाणितलमुत्तलं समुपादाय(नेते)नात्युन्मीलन्नातिनिमीलन् दंतैर्दंताग्राणि संदधान: ईषदुन्नतमुख: प्रगुणमध्योऽस्तब्धमूर्ति: प्रणिधानगंभीरशिरोधर: प्रसन्नवक्त्रवर्ण: अनिमिषस्थिरसौम्यदृष्टि: विनिहितनिद्रालस्यकामरागरत्यरतिशोकहास्यभयद्वेषविचिकित्स: मंदमंदप्राणापानप्रचार इत्येवमादिकृतपरिकर्मा साधु: ....।=सुखपूर्वक पल्यंकासन से बैठना चाहिए। उस समय शरीर को सम ऋजु और निश्चल रखना चाहिए। अपनी गोद में बायें हाथ के ऊपर दाहिना हाथ रखे। नेत्र न अधिक खुले न अधिक बंद। नीचे के दाँतों पर ऊपर के दाँतों को मिलाकर रखे। मुँह को कुछ ऊपर की ओर किये हुए तथा सीधी कमर और गंभीर गर्दन किये हुए, प्रसन्न मुख और अनिमिष स्थिर सौम्य दृष्टि होकर (नासाग्र दृष्टि होकर ( ज्ञानार्णव/28/35, ); निद्रा, आलस्य, काम, राग, रति, अरति, शोक, हास्य, भय, द्वेष, विचिकित्सा आदि को छोड़कर मंदमंद श्वासोच्छ्वास लेनेवाला साधु ध्यान की तैयारी करता है। ( महापुराण/21/60-68 );( चारित्रसार/171/6 );( ज्ञानार्णव/28/34-37 );( तत्त्वानुशासन/92-93 )
महापुराण/21/66 अपि व्युत्सृष्टकायस्य समाधिप्रतिपत्तये। मंदोच्छ्वासनिमेषादिवृत्तेर्नास्ति निषेधनम् ।66।=(प्राणायाम द्वारा श्वास निरोध नहीं करना चाहिए देखें प्राणायाम ), परंतु शरीर से ममत्व छोड़ने वाले मुनि के ध्यान की सिद्धि के लिए मंद-मंद उच्छ्वास लेने का और पलकों की मंद मंद टिमकार का निषेध नहीं किया है।
- निश्चल मुद्रा का प्रयोजन
महापुराण/21/67-68 समावस्थितकायस्य स्यात् समाधानमंगिन:। दु:स्थितांगस्य तद्भंगाद् भवेदाकुलता धिय:।67। ततो तथोक्तपल्यंकलक्षणासनमास्थित:। ध्यानाभ्यासं प्रकुर्वीत योगी व्याक्षेपसुत्सृजन्।68।=ध्यान के समय जिसका शरीर समरूप से स्थित होता है अर्थात् ऊँचा नीचा नहीं होता है, उसके चित्त की स्थिरता रहती है, और जिसका शरीर विषमरूप से स्थित है उसके चित्त की स्थिरता भंग हो जाती है, जिससे बुद्धि में आकुलता उत्पन्न होती है, इसलिए मुनियों को ऊपर कहे हुए पर्यंकासन से बैठकर और चित्त की चंचलता छोड़कर ध्यान का अभ्यास करना चाहिए।
- अवसर के अनुसार मुद्रा का प्रयोग
अनगारधर्मामृत/8/87 स्वमुद्रा वंदने मुक्ताशुक्ति: सामायिकस्तवे। योगमुद्रास्यया स्थित्या जिनमुद्रा तनूज्झने।87।=(कृतिकर्म रूप) आवश्यकों का पालन करने वालों को वंदना के समय वंदना मुद्रा और ‘सामायिक दंडक’ पढ़ते समय तथा ‘थोस्सामि दंडक’ पढ़ते समय मुक्ताशुक्ति मुद्रा का प्रयोग करना चाहिए। यदि बैठकर कायोत्सर्ग किया जाये तो जिनमुद्रा धारण करनी चाहिए। (मुद्राओं के भेद व लक्षण–देखें मुद्रा )
- शरीर निश्चल सीधा नासाग्रदृष्टि सहित होना चाहिए
- योग्य आसन व उसका प्रयोजन
1. पर्यंक व कायोत्सर्ग की प्रधानता व उसका कारण
मूलाचार/602 दुविहठाण पुनरुत्तं।=दो प्रकार के आसनों में से किसी एक से कृतिकर्म करना चाहिए।
भगवती आराधना/2089/1803 बंधेत्तु पलिअंकं।=पल्यंकासन बांधकर किया जाता है। ( राजवार्तिक/9/44/1/634/20 );( महापुराण/21/60 )
महापुराण/21/69-72 पल्यंक इव दिध्यासो: कायोत्सर्गोऽपि संमत:। संप्रयुक्त सर्वांगो द्वात्रिंशद्दोषवर्जित:।61। विसंस्थुलासनस्थस्य ध्रुवं गात्रस्य निग्रह:। तंत्रिग्रहांमन:पीडा ततश्च विमनस्कता।70। वैमनस्ये च किं ध्यायेत् तस्यादिष्टं सुखासनम्। कायोत्सर्गश्च पर्यंक: ततोऽन्यद्विषमासनम्।71। तदवस्थाद्वयस्यैव प्राधान्यं ध्यायतो यते:। प्रायस्तत्रापि पल्यंकम् आममंति सुखासनम्।72।=ध्यान करने की इच्छा करने वाले मुनि को पर्यंक आसन के समान कायोत्सर्ग आसन करने की भी आज्ञा है। परंतु उसमें शरीर के समस्त अंग सम व 32 दोषों से रहित रहने चाहिए (देखें व्युत्सर्ग - 1.10) विषम आसन से बैठने वाले के अवश्य ही शरीर में पीड़ा होने लगती है। उसके कारण मन में पीड़ा होती है और उससे व्याकुलता उत्पन्न हो जाती है।70। आकुलता उत्पन्न होने पर क्या ध्यान दिया जा सकता है ? इसलिए ध्यान के समय सुखासन लगाना ही अच्छा है। कायोत्सर्ग और पर्यंक ये दो सुखासन हैं। इनके सिवाय बाकी के सब आसन विषम अर्थात् दुःख देने वाले हैं।71। ध्यान करने वाले को इन्हीं दो आसनों की प्रधानता रहती है। और उन दोनों में भी पर्यंकासन अधिक सुखकर माना जाता है।72। ( धवला 13/5,4,26/66/2 );(ज्ञानार्णव 28/12-13,31-32) ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/355 );( अनगारधर्मामृत/8/84 )2. समर्थ जनों के लिए आसन का कोई नियम नहीं:
धवला 13/5,4,26/14/66 जच्चिय देहावत्था जया ण झाणावरोहिणी होइ। झाएज्जो तदवत्थो ट्ठियो णिसण्णो णिवण्णो वा=जैसी भी देह की अवस्था जिस समय ध्यान में बाधक नहीं होती उस अवस्था में रहते हुए खड़ा होकर या बैठकर (या महापुराण के अनुसार लेट कर भी) कायोत्सर्ग पूर्वक ध्यान करे। ( महापुराण/21/75 );( ज्ञानार्णव /28/11)
भगवती आराधना/2090/1804 वीरासणमादीयं आसणसमपादमादियं ठाणं। सम्मं अधिदिट्ठी अध वसेज्जमुत्ताणसयणादि।2090।=वीरासन आदि आसनों से बैठकर अथवा समपाद आदि से खड़े होकर अर्थात् कायोत्सर्ग आसन से किंवा उत्तान शयनादिक से अर्थात् लेटकर भी धर्मध्यान करते हैं।2090।
महापुराण/21/73-74 वज्रकाया महासत्त्वा: सर्वावस्थांतरस्थिता:। श्रूयंते ध्यानयोगेन संप्राप्ता: पदमव्ययम्।73। बाहुल्यापेक्षया तस्माद् अवस्थाद्वयसंगर:। सक्तानां तूपसर्गाद्यै: तद्वैचित्र्यं न दुष्यति।74।=आगम में ऐसा भी सुना जाता है कि जिनका शरीर वज्रमयी है, और जो महाशक्तिशाली है; ऐसे पुरुष सभी आसनों से (आसन के वीरासन, कुक्कुटासन आदि अनेकों भेद-देखें आसन ) विराजमान होकर ध्यान के बल से अविनाशी पद को प्राप्त हुए हैं।73। इसलिए कायोत्सर्ग और पर्यंक ऐसे दो आसनों का निरूपण असमर्थ जीवों की अधिकता से किया गया है। जो उपसर्ग आदि के सहन करने में अतिशय समर्थ हैं; ऐसे मुनियों के लिए अनेक प्रकार के आसनों के लगाने में दोष नहीं है।74। (ज्ञानार्णव/2813-17)
अनगारधर्मामृत/8/83 त्रिविधं पद्यपर्यंकवीरासनस्वभावकम्। आसनं यत्नत: कार्य विदधानेन वंदनाम्।=वंदना करने वालों को पद्मासन पर्यंकासन और वीरासन इन तीन प्रकार के आसनों में से कोई भी आसन करना चाहिए।
- योग्य पीठ
राजवार्तिक/9/44/1/634/19 समंतात् बाह्यांत:करणविक्षेपकारणविरहिते भूमितले शुचावनुकूलस्पर्शे यथासुखमुपविष्टो।=सब तरफ से बाह्य और आभ्यंतर बाधाओं से शून्य, अनुकूल स्पर्श वाली पवित्र भूमि पर सुख पूर्वक बैठना चाहिए। ( महापुराण/21/60 )
ज्ञानार्णव/28/9 दारुपट्टे शिलापट्टे भूमौ वा सिकतास्थले। समाधिसिद्धये धीरो विदध्यात्सुस्थिरासनम् ।9।=धीर वीर पुरुष समाधि की सिद्धि के लिए काष्ठ के तख्ते पर, तथा शिला पर अथवा भूमि पर वा बालू रेत के स्थान में भले प्रकार स्थिर आसन करै। ( तत्त्वानुशासन/92 )
अनगारधर्मामृत/8/82 विजंत्वशब्दमच्छिद्रं सुखस्पर्शमकीलकम्। स्थेयस्तार्णाद्यधिष्ठेयं पीठं विनयवर्धनम्।=विनय की वृद्धि के लिए, साधुओं को तृणमय, शिलामय या काष्ठमय ऐसे आसन पर बैठना चाहिए, जिसमें क्षुद्र जीव न हों, जिसमें चरचर शब्द न होता हो, जिसमें छिद्र न हों, जिसका स्पर्श सुखकर हो, जो कील या कांटे रहित हो तथा निश्चल हो, हिलता न हो। - योग्य क्षेत्र तथा उसका प्रयोजन
- गिरि, गुफा आदि शून्य व निर्जंतु स्थान:
रत्नकरंड श्रावकाचार/99 एकांते सामायिकं निर्व्याक्षेपे वनेषुवास्तुषु च। चैत्यालयेषु वापि च परिचेत्यं प्रसन्नधिया।=क्षुद्र जीवों के उपद्रव रहित एकांत में तथा वनों में अथवा घर तथा धर्मशालाओं में और चैत्यालयों में या पर्वत की गुफा आदि में प्रसन्न चित्त से सामायिक करना चाहिए। ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/653 ) ( चारित्रसार/19/2 )
राजवार्तिक/9/44/1/634/17 पर्वतगुहाकंदरदरीद्रुमकोटरनदीपुलिनपितृवनजीर्णोद्यानशूंयागारादीनामंयतमस्मिंनवकाशे ...।=पर्वत, गुहा, वृक्ष की कोटर, नदी का तट, नदी का पुल, श्मशान, जीर्णोद्यान और शून्यागार आदि किसी स्थान में भी ध्यान करता है। ( धवला 13/5,4,26/66/1 ) ,( महापुराण/21/57 ), ( चारित्रसार/171/3 ),( तत्त्वानुशासन/90 )
ज्ञानार्णव/28/1-7 सिद्धक्षेत्रे महातीर्थे पुराणपुरुषाश्रिते। कल्याणकलिते पुण्ये ध्यानसिद्धि: प्रजायते।1। सागरांते वनांते वा शैलशृंगांतरेऽथवा। पुलिने पद्मखंडांते प्राकारे शालसंकटे।2। सरिता संगमे द्वीपे प्रशस्ते तरुकोटरे। जीर्णोद्याने श्मशाने वा गुहागर्भे विजंतुके।3। सिद्धकूटे जिनागारे कृत्रिमेऽकृत्रिमेऽपि वा। महर्द्धिकमहाधीरयोगिसंसिद्धवांछिते।4।=सिद्धक्षेत्र, पुराण पुरुषों द्वारा सेवित, महातीर्थक्षेत्र, कल्याणकस्थान।1। सागर के किनारे पर वन, पर्वत का शिखर, नदी के किनारे, कमल वन, प्राकार (कोट), शालवृक्षों का समूह, नदियों का संगम, जल के मध्य स्थित द्वीप, वृक्ष के कोटर, पुराने वन, श्मशान, पर्वत की गुफा, जीव रहित स्थान, सिद्धकूट, कृत्रिम व अकृत्रिम चैत्यालय–ऐसे स्थानों में ही सिद्धि की इच्छा करने वाले मुनि ध्यान की सिद्धि करते हैं। ( अनगारधर्मामृत/8/81 ) (देखें वसतिका - 4) - निर्बाध व अनुकूल
भगवती आराधना/2089/1803 सुचिए समे विचित्ते देसे णिज्जंतुए अणुणाए।2089।=पवित्र, सम, निर्जंतुक तथा देवता आदि से जिसके लिए अनुमति ले ली गयी है, ऐसे स्थान पर मुनि ध्यान करते हैं। ( ज्ञानार्णव/27/32 )
धवला/13/5,4,26/16-17/66 तो जत्थ समाहाणं होज्ज मणोवयणकायजोगाणं। भूदोवघायरहिओ सो देसो ज्झायमाणस्स।16। णिच्चं वियजुवइपसूणवुंसयकुसीलवज्जियं जइणो। ट्ठाणं वियणं भणियं विसेसदो ज्झाणकालम्मि।17। =मन, वचन व काय का जहाँ समाधान हो और जो प्राणियों के उपघात से रहित हो वही देश ध्यान करने वालों के लिए उचित है।16। जो स्थान श्वापद, स्त्री, पशु, नपुंसक और कुशील जनों से रहित हो और जो निर्जन हो, यति जनों को विशेष रूप से ध्यान के समय ऐसा ही स्थान उचित है।17। (देखें वसतिका - 3 व वसतिका - 4 )
राजवार्तिक/9/44/1/634/18 व्यालमृगपशुपक्षिमनुष्याणामगोचरे तत्रत्यैरागंतुभिश्च जंतुभि: परिवर्जिते नात्युष्णे नातिशीते नातिवाते वर्षातापवर्जिते समंतात् बाह्यांत:करणविक्षेपकारणविरहिते भूमितले।=व्याघ्र, सिंह, मृग, पशु, पक्षी, मनुष्य आदि के अगोचर, निर्जंतु, न अति उष्ण और न अति शीत, न अधिक वायुवाला, वर्षा-आतप आदि से रहित, तात्पर्य यह कि सब तरफ से बाह्य और आभ्यंतर बाधाओं से शून्य ऐसे भूमितल पर स्थित होकर ध्यान करे। ( महापुराण/21/58-59,77 ); ( चारित्रसार/171/4 ); ( ज्ञानार्णव/27/33 ); ( तत्त्वानुशासन/90-91 ); ( अनगारधर्मामृत/8/81 ) - पापी जनों से संसक्त स्थान का निषेध
ज्ञानार्णव/27/23-30 म्लेच्छाधमजनैर्जुष्टं दुष्टभूपालपालितम्। पाषंडिमंडलाक्रांतं महामिथ्यात्ववासितम्।23। कौलिकापालिकावासं रुद्रक्षुद्रादिमंदिरम्। उद्भ्रांतभूतवेतालं चंडिकाभवनाजिरम्।24। पण्यस्त्रीकृतसंकेतं मंदचारित्रमंदिरम्। क्रूरकर्माभिचाराढ्य कुशास्त्राभ्यासवंचितम्।25। क्षेत्रजातिकुलोत्पन्नशक्तिस्वीकारदर्पितम्। मिलितानेकदु:शीलकल्पिताचिंत्यसाहसम्।26। द्यूतकारसुरापानविटवंदिव्रजांवितम्। पापिसत्त्वसमाक्रांतं नास्तिकासारसेवितम्।27। क्रव्यादकामुकाकोणं व्याधविध्वस्तश्वापदम्। शिल्पिकारुकविक्षिप्तमग्निजीवजनाश्चितम्।28। प्रतिपक्षशिर:शूले प्रत्यनीकावलंबितं। आत्रेयीखंडितव्यंगसंसृतं च परित्यजेत्।29। विद्रवंति जना: पापा: संचरंत्यभिसारिका:। क्षोभयंतोंगिताकारैर्यत्र नार्योपशंकिता:।30। =ध्यान करने वाले मुनि ऐसे स्थानों को छोड़े–म्लेच्छ व अधम जनों से सेवित, दुष्ट राजा से रक्षित, पाखंडियों से आक्रांत, महा मिथ्यात्व से वासित।23। कुलदेवता या कापालिक (रुद्र) आदि का वास व मंदिर जहाँ कि भूत वेताल आदि नाचते हों अथवा वंडिका देवी के भवन का आँगन।24। व्यभिचारिणी स्त्रियों के द्वारा संकेतित स्थान, कुचारित्रियों का स्थान, क्रूरकर्म करने वालों से संचारित, कुशास्त्रों का अभ्यास या पाठ आदि जहाँ होता हो।25। जमींदारी अथवा जाति व कुल के गर्व से गर्वित पुरुष जिस स्थान में प्रवेश करने से मना करें, जिसमें अनेक दु:शील व्यक्तियों ने कोई साहसिक कार्य किया हो।26। जुआरी, मद्यपायी, व्यभिचारी, बंदीजन आदि के समूह से युक्त स्थान पापी जीवों से आक्रांत, नास्तिकों द्वारा सेवित।27। राक्षसों व कामी पुरुषों से व्याप्त, शिकारियों ने जहाँ जीव वध किया हो, शिल्पी, मोची आदिकों से छोड़ा गया स्थान, अग्निजीवी (लुहार, ठठेरे आदि) से युक्त स्थान।28। शत्रु की सेना का पड़ाव, राजस्वला, भ्रष्टाचारी, नपुंसक व अंगहीनों का आवास।29। जहाँ पापी जन उपद्रव करें, अभिसारिकाएँ जहाँ विचरती हों, स्त्रियाँ नि:शंकित होकर जहाँ कटाक्ष आदि करती हों।30। ( वसतिका - 3 ) - समर्थ जनों के लिए क्षेत्र का कोई नियम नहीं
धवला 13/5,4/26/18/67 थिरकयजोगाणं पुण मुणीण झाणेसु णिच्चलमणाणं। गामम्मि जणाइण्णे सण्णे रण्णे य ण विसेसो।18।=परंतु जिन्होंने अपने योगों को स्थिर कर लिया है और जिनका मन ध्यान में निश्चल है, ऐसे मुनियों के लिए मनुष्यों से व्याप्त ग्राम में और शून्य जंगल में कोई अंतर नहीं है। ( महापुराण/21/80 ); ( ज्ञानार्णव/28/22 )
- क्षेत्र संबंधी नियम का कारण व प्रयोजन
महापुराण/21/78-79 वसतोऽस्य जनाकीर्णे विषयानभिपश्यत:। बाहुल्यादिंद्रियार्थानां जातु व्यग्रीभवेन्मन:।78। ततो विविक्तशायित्वं वने वासश्च योगिनाम्। इति साधारणो मार्गो जिनस्थविरकल्पयो:।79।=जो मुनि मनुष्यों से भरे हुए शहर आदि में निवास करते हैं और निरंतर विषयों को देखा करते हैं, ऐसे मुनियों का चित्त इंद्रियों के विषयों की अधिकता होने से कदाचित् व्याकुल हो सकता है।78। इसलिए मुनियों को एकांत स्थान में ही शयन करना चाहिए और वन में ही रहना चाहिए यह जिनकल्पी और स्थिविरकल्पी दोनों प्रकार के मुनियों का साधारण मार्ग है।79। ( ज्ञानार्णव/27/22 )
- गिरि, गुफा आदि शून्य व निर्जंतु स्थान:
- योग्य दिशा
ज्ञानार्णव/28/23-24 पूर्वदिशाभिमुख: साक्षादुत्तराभिमुखोऽपि वा। प्रसन्नवदनो ध्याता ध्यानकाले प्रशस्यते।23। =ध्यानी मुनि जो ध्यान के समय प्रसन्न मुख साक्षात् पूर्व दिशा में मुख करके अथवा उत्तर दिशा में मुख करके ध्यान करे सो प्रशंसनीय कहते हैं।23। (परंतु समर्थजनों के लिए दिशा का कोई नियम नहीं।24।
नोट–(दोनों दिशाओं के नियम का कारण–देखें दिशा )
- योग्य भाव आत्माधीनता
धवला 13/5,4,28/88/10 किरियाकम्मे कीरिमाणे अप्पायत्तं अपरवसत्तं आदाहीणं णाम। पराहीणभावेण किरियाकम्मं किण्ण कोरदे। ण, तहा किरियाकम्मं कुणमाणस्स कम्मक्खयाभावादो जिणिंदादि अच्चासणदुवारेण कम्मबंधसंभवादो च।=क्रियाकर्म करते समय आत्माधीन होना अर्थात् परवश न होना आत्माधीनता है। प्रश्न—पराधीन भाव से क्रियाकर्म क्यों नहीं किया जाता ? उत्तर–नहीं, क्योंकि उस प्रकार क्रियाकर्म करने वाले के कर्मों का क्षय नहीं होगा और जिनेंद्रदेव की आसादना होने से कर्मों का बंध होगा।
अनगारधर्मामृत/8/96 कालुष्यं येन जातं तं क्षमयित्वैव सर्वत:। संगांच चिंतां व्यावर्त्य क्रिया कार्या फलार्थिना।96। =मोक्ष के इच्छुक साधुओं को संपूर्ण परिग्रहों की तरफ से चिंता को हटाकर और जिसके साथ किसी तरह का कभी कोई कालुष्य उत्पन्न हो गया हो, उसके क्षमा कराकर ही आवश्यक क्रिया करनी चाहिए।
- योग्य शुद्धियाँ
द्रव्य–क्षेत्र–काल व भाव शुद्धि; मन-वचन व काय शुद्धि; ईर्यापथ शुद्धि, विनय शुद्धि, कायोत्सर्ग-अवनति-आवर्त व शिरोनति आदि की शुद्धि–इस प्रकार कृतिकर्म में इन सब प्रकार की शुद्धियों का ठीक प्रकार विवेक रखना चाहिए। (विशेष–देखें शुद्धि )। - आसन, क्षेत्र, काल आदि के नियम अपवाद मार्ग है, उत्सर्ग नहीं
धवला 13/5,4,26/15,20/66 सव्वासु वट्टमाणा जं देसकालचेट्ठासु। वरकेवलादिलाहं पत्ता हु सो खवियपावा।15। तो देसकालचेट्ठाणियमो ज्झाणस्स णत्थि समयम्मि। जोगाण समाहाणं जह होइ तहा पयइयव्वं।20।=सब देश, सब काल और सब अवस्थाओं (आसनों) में विद्यमान मुनि अनेक विध पापों का क्षय करके उत्तम केवलज्ञानादि को प्राप्त हुए।15। ध्यान के शास्त्र में देश, काल और चेष्टा (आसन) का भी कोई नियम नहीं है। तत्त्वत: जिस तरह योगों का समाधान हो उसी तरह प्रवृत्ति करनी चाहिए।20। ( महापुराण/21/82-83 ); ( ज्ञानार्णव 28/21 )
महापुराण/21/76 देशादिनियमोऽप्येवं प्रायोवृत्तिव्यपाश्रय:। कृतात्मनां तु सर्वोऽपि देशादिर्ध्यानसिद्धये।76।=देश आदि का जो नियम कहा गया है वह प्रायोवृत्ति को लिए हुए है, अर्थात् हीन शक्ति के धारक ध्यान करने वालों के लिए ही देश आदि का नियम है, पूर्ण शक्ति के धारण करने वालों के लिए तो सभी देश और सभी काल आदि ध्यान के साधन हैं।
और भी देखें कृतिकर्म - 3.2, 3.4(समर्थ जनों के लिए आसन व क्षेत्र का कोई नियम नहीं)
देखें सामायिक - 4.2, वंदना - 6, ध्यान - 3.2 – काल संबंधी भी कोई अटल नियम नहीं है। अधिक बार या अन्य–अन्य कालों में भी सामायिक, वंदना, ध्यान आदि किये जाते हैं।
- योग्यमुद्रा व उसका प्रयोजन
- कृतिकर्म-विधि
- साधु का दैनिक कार्यक्रम
मूलाचार/602 चत्तारि पडिक्कमणे किदियम्मा तिण्णि होंति सज्झाए। पुव्वण्हे अवरण्हे किदियम्मा चोद्दस्सा होंति।600।=प्रतिक्रमण काल में चार क्रियाकर्म होते हैं और स्वाध्याय काल में तीन क्रियाकर्म होते हैं। इस तरह सात सवेरे और सात साँझ को सब 14 क्रियाकर्म होते हैं।
( अनगारधर्मामृत 9/1-13/34-35 )
- साधु का दैनिक कार्यक्रम
नं॰ |
समय |
क्रिया |
1 |
सूर्योदय से लेकर 2 घड़ी तक |
देववंदन, आचार्य वंदना व मनन |
2 |
सूर्योदय के 2 घड़ी पश्चात् से मध्याह्न के 2 घड़ी पहले तक |
पूर्वाह्निक स्वाध्याय |
3 |
मध्याह्न के 2 घड़ी पूर्व से 2 घड़ी पश्चात् तक |
आहारचर्या (यदि उपवास युक्त है तो क्रम से आचार्य व देववंदना तथा मनन) |
4 |
आहार से लौटने पर |
मंगलगोचर प्रत्याख्यान |
5 |
मध्याह्न के 2 घड़ी पश्चात् से सूर्यास्त के 2 घड़ी पूर्व तक |
अपराह्निक स्वाध्याय |
6 |
सूर्यास्त के 2 घड़ी पूर्व से सूर्यास्त तक |
दैवसिक प्रतिक्रमण व रात्रियोग धारण |
7. |
सूर्यास्त से लेकर उसके 2 घड़ी पश्चात् तक |
आचार्य व देववंदना तथा मनन |
8. |
सूर्यास्त के 2 घड़ी पश्चात् से अर्धरात्रि के 2 घड़ी पूर्व तक |
पूर्व रात्रिक स्वाध्याय |
9. |
अर्धरात्रि के 2 घड़ी पूर्व से उसके 2 घड़ी पश्चात तक |
चार घड़ी निद्रा |
10 |
अर्धरात्रि के 2 घड़ी पश्चात् से सूर्योदय के 2 घड़ी पूर्व तक |
वैरात्रिक स्वाध्याय |
11 |
सूर्योदय के 2 घड़ी पूर्व से सूर्योदय तक |
रात्रिक प्रतिक्रमण |
नोट—रात्रि क्रियाओं के विषय में दैवसिक क्रियाओं की तरह समय का नियम नहीं है। अर्थात् हीनाधिक भी कर सकते हैं।44।
|
- कृतिकर्मानुपूर्वी विधि
कोषकार—साधु के दैनिक कार्यक्रम पर से पता चलता है कि केवल चार घड़ी सोने के अतिरिक्त शेष सर्व समय में वह आवश्यक क्रियाओं में ही उपयुक्त रहता है। वे उसकी आवश्यक क्रियाएँ छह कही गयी है—सामायिक, वंदना, स्तुति, स्वाध्याय, प्रत्याख्यान व कायोत्सर्ग। कहीं-कहीं स्वाध्याय के स्थान पर प्रतिक्रमण भी कहते हैं। यद्यपि ये छहों क्रियाएँ अंतरंग व बाह्य दो प्रकार की होती हैं। परंतु अंतरंग क्रियाएँ तो एक वीतरागता या समता के पेट में समा जाती हैं। सामायिक व छेदोपस्थापना चारित्र के अंतर्गत 24 घंटों ही होती रहती हैं। यहाँ इन छहों का निर्देश वाचसिक व कायिकरूप बाह्य क्रियाओं की अपेक्षा किया गया है अर्थात् इनके अंतर्गत मुख से कुछ पाठादि का उच्चारण और शरीर से कुछ नमस्कार आदि का करना होता है। इस क्रिया कांड का ही इस कृतिकर्म अधिकार में निर्देश किया गया है। सामायिक का अर्थ यहाँ ‘सामायिक दंडक’ नाम का एक पाठ विशेष है और उस स्तव का अर्थ ‘थोस्सामि दंडक’ नाम का पाठ जिसमें कि 24 तीर्थंकरों का संक्षेप में स्तवन किया गया है। कायोत्सर्ग का अर्थ निश्चल सीधे खड़े होकर 9 बार णमोकार मंत्र का 27 श्वासों में जाप्य करना है। वंदना, स्वाध्याय, प्रत्याख्यान, व प्रतिक्रमण का अर्थ भी कुछ भक्तियों के पाठों का विशेष क्रम से उच्चारण करना है, जिनका निर्देश पृथक् शीर्षक में दिया गया है। इस प्रकार के 13 भक्ति पाठ उपलब्ध होते हैं--- सिद्ध भक्ति,
- श्रुत भक्ति,
- चारित्र भक्ति,
- योग भक्ति,
- आचार्य भक्ति,
- निर्वाण भक्ति,
- नंदीश्वर भक्ति,
- वीर भक्ति,
- चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति,
- शांति भक्ति,
- चैत्य भक्ति,
- पंचमहागुरु भक्ति व
- समाधि भक्ति। इनके अतिरिक्त ईर्यापथ शुद्धि, सामायिक दंडक व थोस्सामि दंडक ये तीन पाठ और भी हैं। दैनिक अथवा नैमित्तिक सर्व क्रियाओं में इन्हीं भक्तियों का उलट-पलट कर पाठ किया जाता है, किन्हीं क्रियाओं में किन्हीं का और किन्हीं में किन्हीं का। इन छहों क्रियाओं में तीन ही वास्तव में मूल हैं—देव या आचार्य वंदना, प्रत्याख्यान, स्वाध्याय या प्रतिक्रमण। शेष तीन का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। उपरोक्त तीन मूल क्रियाओं के क्रियाकांड में ही उनका प्रयोग किया जाता है। यही कृतिकर्म का विधि विधान है जिसका परिचय देना यहाँ अभीष्ट है। प्रत्येक भक्ति के पाठ के साथ मुख से सामायिक दंडक व थोस्सामि दंडक (स्तव) का उच्चारण; तथा काय से दो नमस्कार, 4 नति व 12 आवर्त करने होते हैं। इनका क्रम निम्न प्रकार है–( चारित्रसार/157/1 का भावार्थ)।
- पूर्व या उत्तराभिमुख खड़े होकर या योग्य आसन से बैठकर ‘‘विवक्षित भक्ति का प्रतिष्ठापन या निष्ठापन क्रियायां अमुक भक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहम्’’ ऐसे वाक्य का उच्चारण।
- पंचांग नमस्कार;
- पूर्व प्रकार खड़े होकर या बैठकर तीन आवर्त व एक नति;
- ‘सामायिक दंडक’ का उच्चारण;
- तीन आवर्त व एक नति;
- कायोत्सर्ग;
- पंचांग नमस्कार;
- 3 आवर्त व एक नति;
- थोस्सामि दंडक का उच्चारण;
- 3 आवर्त व एक नति;
- विवक्षित भक्ति के पाठ का उच्चारण;
- उस भक्ति पाठ की अंचलिका जो उस पाठ के साथ ही दी गयी है। इसी को दूसरे प्रकार से यों भी समझ सकते हैं कि प्रत्येक भक्ति पाठ से पहिले प्रतिज्ञापन करने के पश्चात् सामायिक व थोस्सामि दंडक पढ़ने आवश्यक हैं। प्रत्येक सामायिक व थोस्सामि दंडक से पूर्व व अंत में एक एक शिरोनति की जाती है। इस प्रकार चार नति होती हैं। प्रत्येक नति तीन-तीन आवर्त पूर्वक ही होने से 12 आवर्त होते हैं। प्रतिज्ञापन के पश्चात् एक नमस्कार होता है और इसी प्रकार दोनों दंडकों की संधि में भी। इस प्रकार 2 नमस्कार होते हैं। कहीं कहीं तीन नमस्कारों का निर्देश मिलता है। तहाँ एक नमस्कार वह भी जोड़ लिया गया समझना जो कि प्रतिज्ञापन आदि से भी पहिले बिना कोई पाठ बोले देव या आचार्य के समक्ष जाते ही किया जाता है। (देखें आवर्त व नमस्कार ) किस क्रिया के साथ कौन कौन-सी भक्तियाँ की जाती हैं, उसका निर्देश आगे किया जाता है। (देखें नमस्कार - 5)
- प्रत्येक क्रिया के साथ भक्ति पाठों का निर्देश
(चारित्र सार/160-166/66;क्रिया कलाप/4 अध्याय) ( अनगारधर्मामृत/9/45-74;82-85 )
संकेत—ल=लघु; जहाँ कोई चिह्न नहीं दिया वहाँ वह बृहत् भक्ति समझना।
- नित्य व नैमित्तिक क्रिया की अपेक्षा
- अनेक अपूर्व चैत्य दर्शन क्रिया–अनेक अपूर्व जिन प्रतिमाओं को देखकर एक अभिरुचित जिनप्रतिमा में अनेक अपूर्व जिन चैत्य वंदना करे। छठें महीने उन प्रतिमाओं में अपूर्वता सुनी जाती है। कोई नयी प्रतिमा हो या छह महीने पीछे पुन: दृष्टिगत हुई प्रतिमा हो उसे अपूर्व चैत्य कहते हैं। ऐसी अनेक प्रतिमाएँ होने पर स्वरुचि के अनुसार किसी एक प्रतिमा के प्रति यह क्रिया करे। (केवल क्रिया कलाप)
- अपूर्व चैत्य क्रिया—सिद्ध भक्ति, श्रुत भक्ति, सालोचना चारित्र भक्ति, चैत्य भक्ति, पंचगुरु भक्ति। अष्टमी आदि क्रियाओं में या पाक्षिक प्रतिक्रमण में दर्शन पूजा अर्थात् अपूर्व चैत्य क्रिया का योग हो तो सिद्ध भक्ति, चारित्र भक्ति, चैत्य भक्ति, पंचगुरु भक्ति करे। अंत में शांति भक्ति करे। (केवल क्रिया कलाप)
- अभिषेक वंदना क्रिया—सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति, शांति भक्ति।
- अष्टमी क्रिया—सिद्ध-भक्ति, श्रुतभक्ति, सालोचना चारित्रभक्ति, शांति भक्ति। (विधि नं॰ 1), सिद्ध भक्ति, श्रुतभक्ति, चारित्रभक्ति, चैत्य भक्ति, पंचगुरु भक्ति, शांतिभक्ति। (विधि नं॰ 2)
- अष्टाह्निक क्रिया—सिद्धभक्ति, नंदीश्वर चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति, शांति भक्ति।
- आचार्यपद प्रतिष्ठान क्रिया—सिद्धभक्ति, आचार्यभक्ति, शांति भक्ति।
- आचार्य वंदना—लघु सिद्ध, श्रुत व आचार्य भक्ति। (विशेष देखें वंदना ) केशलोंच क्रिया–ल॰सिद्ध–ल॰योगि भक्ति। अंत में योगिभक्ति।
- चतुर्दशी क्रिया—सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, श्रुतभक्ति, पंचगुरु भक्ति, शांतिभक्ति, (विधि नं॰ 1)। अथवा चैत्य भक्ति, श्रुतभक्ति, पंचगुरु भक्ति, शांतिभक्ति (विधि नं॰2)
- तीर्थंकर जन्म क्रिया—देखें आगेपाक्षिकी क्रिया ।
- दीक्षा विधि (सामान्य)
- सिद्धभक्ति, योगि भक्ति, लोंचकरण (केशलुंचण), नामकरण, नाग्न्य प्रदान, पिच्छिका प्रदान, सिद्धभक्ति।
- उसी दिन या कुछ दिन पश्चात् व्रतदान प्रतिक्रमण।
- दीक्षा विधि (क्षुल्लक), सिद्ध भक्ति, योगि भक्ति, शांति भक्ति, समाधि भक्ति, ‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं नम:’ इस मंत्र का 21 बार या 108 बार जाप्य। विशेष देखें [[ ]](क्रिया कलाप/पृष्ठ 337)
- दीक्षा विधि (बृहत्)—शिष्य–
- बृहत्प्रत्याख्यान क्रिया में सिद्ध भक्ति, योगि भक्ति, गुरु के समक्ष सोपवास प्रत्याख्यान ग्रहण। आचार्य भक्ति, शांति भक्ति, गुरु को नमस्कार।
- गणधर वलय पूजा।
- श्वेत वस्त्र पर पूर्वाभिमुख बैठना।
- केशलोंच क्रिया में सिद्ध भक्ति, योगि भक्ति। आचार्य—मंत्र विशेषों के उच्चारण पूर्वक मस्तक पर गंधोदक व भस्म क्षेपण व केशोत्पाटन।
शिष्य—केशलोंच निष्ठापन क्रिया में सिद्धभक्ति, दीक्षा याचना।
आचार्य—विशेष मंत्र विधान पूर्वक सिर पर ‘श्री’ लिखे व अंजली में तंदुलादि भरकर उस पर नारियल रखे। फिर व्रत दान क्रिया में सिद्ध भक्ति, चारित्र भक्ति, योगि भक्ति, व्रत दान, 16 संस्कारारोपण, नामकरण, उपकरण प्रदान, समाधि भक्ति।
शिष्य—सर्व मुनियों को वंदना।
आचार्य—व्रतारोपण क्रिया में रत्नत्रय पूजा, पाक्षिक प्रतिक्रमण।
शिष्य—मुख शुद्धि मुक्त करण पाठ क्रिया में सिद्ध भक्ति, समाधि भक्ति। विशेष देखें [[ ]](क्रिया कलाप/पृ॰333)
देव वंदना—ईर्यापथ विशुद्धि पाठ, चैत्य भक्ति, पंचगुरु भक्ति, शांति भक्ति। (विशेष देखें [[ ]]वंदना)
पाक्षिकी क्रिया—सिद्धभक्ति, चारित्र भक्ति, और शांति भक्ति। यदि धर्म व्यासंग से चतुर्दशी के रोज क्रिया न कर सके तो पूर्णिमा और अमावस को अष्टमी क्रिया करनी चाहिए। (विधि नं॰1)।
सालोचना चारित्र भक्ति, चैत्य पंचगुरु भक्ति, शांति भक्ति (विधि नं॰2)
- पूर्व जिन चैत्य क्रिया—विहार करते करते छ: महीने पहले उसी प्रतिमा के पुन: दर्शन हों तो उसे पूर्व जिन चैत्य कहते हैं। उस पूर्व जिन चैत्य का दर्शन करते समय पाक्षिकी क्रिया करनी चाहिए।
(केवल क्रिया कलाप)।
- प्रतिमा योगी मुनिक्रिया—सिद्धभक्ति योगी भक्ति, शांति भक्ति।
- मंगल गोचार मध्याह्न वंदना क्रिया—सिद्धभक्ति, चैत्य भक्ति, पंचगुरु भक्ति, शांति भक्ति।
- योगनिद्रा धारण क्रिया—योगि भक्ति। (विधि नं॰1)।
- वर्षा योग निष्ठापन व प्रतिष्ठापन क्रिया—
- सिद्धभक्ति, योग भक्ति, ‘यावंति जिनचैत्यायतनानि’, और स्वयंभूस्तोत्र से प्रथम दो तीर्थंकरों की स्तुति, चैत्य भक्ति।
- ये सर्व पाठ पूर्वादि चारों दिशाओं की ओर सुख करके पढ़ें, विशेषता इतनी कि प्रत्येक दिशा में अगले अगले दो दो तीर्थंकरों की स्तुति पढ़ें।
- पंचगुरु भक्ति व शांति भक्ति।
नोट—आषाढ शुक्ला 14 की रात्रि के प्रथम पहर में प्रतिष्ठापन और कार्तिक कृष्णा 14 की रात्रि के चौथे पहर में निष्ठापन करना। विशेष देखें [[ ]]पाद्य स्थिति कल्प।
वीर निर्वाण क्रिया—सिद्ध भक्ति, निर्वाण भक्ति, पंचगुरु भक्ति, शांति भक्ति।
श्रुत पंचमी क्रिया—सिद्ध भक्ति, श्रुत भक्ति पूर्वक वाचना नाम का स्वाध्याय ग्रहण करना चाहिए। फिर स्वाध्याय ग्रहण कर श्रुतभक्ति और आचार्य भक्ति करके स्वाध्याय ग्रहण कर श्रुत भक्ति कर स्वाध्याय पूर्ण करे। समाप्ति के समय शांति भक्ति करे।
- सिद्ध भक्ति, श्रुत भक्ति, कर वाचना ग्रहण,
- श्रुत भक्ति, आचार्य भक्ति कर स्वाध्याय ग्रहण कर श्रुतभक्ति में स्वाध्याय पूर्ण करे।
- वाचना के समय यही क्रिया कर अंत में शांति भक्ति करे।
- संन्यास में स्थित होकर-बृहत् श्रुत भक्ति बृहत् आचार्य भक्ति कर स्वाध्याय ग्रहण, बृहत् श्रुत भक्ति में स्वाध्याय करे। (विधि नं॰ 1)। संन्यास प्रारंभ कर सिद्ध व श्रुत भक्ति, अंत में सिद्ध श्रुत व शांति भक्ति। अन्य दिनों में बृहत् श्रुतभक्ति, बृहत् आचार्य भक्ति पूर्वक प्रतिष्ठापना तथा बृहत् श्रुतभक्ति पूर्वक निष्ठापना। सिद्ध प्रतिमा क्रिया–सिद्धभक्ति।
- अनेक अपूर्व चैत्य दर्शन क्रिया–अनेक अपूर्व जिन प्रतिमाओं को देखकर एक अभिरुचित जिनप्रतिमा में अनेक अपूर्व जिन चैत्य वंदना करे। छठें महीने उन प्रतिमाओं में अपूर्वता सुनी जाती है। कोई नयी प्रतिमा हो या छह महीने पीछे पुन: दृष्टिगत हुई प्रतिमा हो उसे अपूर्व चैत्य कहते हैं। ऐसी अनेक प्रतिमाएँ होने पर स्वरुचि के अनुसार किसी एक प्रतिमा के प्रति यह क्रिया करे। (केवल क्रिया कलाप)
- पंचकल्याणक वंदना की अपेक्षा
- गर्भकल्याणक–सिद्धभक्ति, चारित्र भक्ति, शांति भक्ति।
- जन्म कल्याणक वंदना–सिद्ध भक्ति, चारित्र भक्ति व शांति भक्ति।
- तप कल्याणक वंदना–सिद्ध-चारित्र-योगि व शांति भक्ति।
- ज्ञान कल्याणक वंदना–सिद्ध-श्रुत-चारित्र-योगि व शांति भक्ति।
- निर्वाण कल्याणक वंदना–सिद्ध-श्रुत-चारित्र-योगि निर्वाण व शांति भक्ति।
- अचल जिनबिंब प्रतिष्ठा–सिद्ध व शांति भक्ति।...(चतुर्थ दिन अभिषेक वंदना में–सिद्ध-चारित्र चैत्य-पंचगुरु व शांति भक्ति (विधि नं॰1)। अथवा सिद्ध, चारित्र, चारित्रालोचना व शांति भक्ति।
- चल जिनबिंब प्रतिष्ठा–सिद्ध व शांति भक्ति।....(चतुर्थ दिन अभिषेक वंदना में)–सिद्ध-चैत्य–शांति भक्ति।
- गर्भकल्याणक–सिद्धभक्ति, चारित्र भक्ति, शांति भक्ति।
- साधु के मृत शरीर व उसकी निषद्यका की वंदना की अपेक्षा
- सामान्य मुनि संबंधी–सिद्ध-योगी व शांति भक्ति।
- उत्तर व्रती मुनि संबंधी–सिद्ध-चारित्र-योगि व शांति भक्ति।
- सिद्धांत वेत्ता मुनि संबंधी–सिद्ध-श्रुत-योगि व शांति भक्ति।
- उत्तरव्रती व सिद्धांतवेत्ता उभयगुणी साधु–सिद्ध-श्रुत-चारित्र-योगि व शांति भक्ति।
- आचार्य संबंधी–सिद्ध-योगि-आचार्य-शांति भक्ति।
- कायक्लेशमृत आचार्य—सिद्ध-योगि-आचार्य व शांति भक्ति।(विधि नं॰1) सिद्ध-योगि-आचार्य-चारित्र व शांति भक्ति।
- सिद्धांत वेत्ता आचार्य—सिद्ध-श्रुत-योगि-आचार्य शांति भक्ति।
- शरीरक्लेशी व सिद्धांत उभय आचार्य—सिद्ध-श्रुत-चारित्र-योगि-आचार्य व शांति भक्ति।
- सामान्य मुनि संबंधी–सिद्ध-योगी व शांति भक्ति।
- स्वाध्याय की अपेक्षा
सिद्धांताचार वाचन क्रिया—(सामान्य) सिद्ध-श्रुत भक्ति करनी चाहिए, फिर श्रुत भक्ति व आचार्य भक्ति करके स्वाध्याय करें, तथा अंत में श्रुत व शांति भक्ति करें। तथा एक कायोत्सर्ग करें। (केवल चारित्र सार)
विशेष—प्रारंभ में सिद्ध-श्रुत भक्ति तथा आचार्य भक्ति करनी चाहिए तथा अंत में ये ही क्रियाएँ तथा छह छह कायोत्सर्ग करने चाहिए।
पूर्वाह्न स्वाध्याय—श्रुतभक्ति, आचार्य भक्ति
अपराह्न स्वाध्याय—श्रुतभक्ति, आचार्य भक्ति
पूर्वरात्रिक स्वाध्याय—श्रुतभक्ति, आचार्य भक्ति
वैरात्रिक स्वाध्याय—श्रुतभक्ति, आचार्य भक्ति - प्रत्याख्यान धारण की अपेक्षा
भोजन संबंधी—लघु सिद्ध भक्ति।
उपवास संबंधी=यदि स्वयं करे तो–लघु सिद्ध भक्ति।
यदि आचार्य के समक्ष करे तो–सिद्ध व योगि भक्ति
मंगल गोचर बृहत् प्रत्याख्यान क्रिया:—सिद्ध व योगि भक्ति...(प्रत्याख्यान ग्रहण)—आचार्य व शांति भक्ति। - प्रतिक्रमण की अपेक्षा
दैवसिक व रात्रिक प्रतिक्रमण–सिद्ध व प्रतिक्रमण-निष्ठित चारित्र व चतुर्विंशति जिन स्तुति पढ़े। (विधि नं॰ 1)। सिद्ध-प्रतिक्रमण भक्ति अंत में वीर भक्ति तथा चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति (विधि नं॰ 2)। यति का पाक्षिक, चातुर्मासिक व सांवत्सारिक प्रतिक्रमण-सिद्ध-प्रतिक्रमण तथा चारित्र प्रतिक्रमण के साथ साथ चारित्र-चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति, चारित्र आलोचना गुरु भक्ति, बड़ी आलोचना गुरु भक्ति, फिर छोटी आचार्य भक्ति करनी चाहिए (विधि नं॰ 1)- केवल शिष्यजन–लघु श्रुत भक्ति, लघु आचार्य भक्ति द्वारा आचार्य वंदना करें।
- आचार्य सहित समस्त संघ–बृहद सिद्ध भक्ति, आलोचना सहित बृहद चारित्र भक्ति।
- केवल आचार्य–लघु सिद्ध भक्ति, लघु योग भक्ति, ‘इच्छामि भंते चरित्तायारो तेरह विहो’ इत्यादि देव के समक्ष अपने दोषों की आलोचना व प्रायश्चित्त ग्रहण। ‘तीन बार पंच महाव्रत’ इत्यादि देव के प्रति गुरु भक्ति।
- आचार्य सहित समस्त संघ–लघु सिद्ध भक्ति, लघु योगि भक्ति तथा प्रायश्चित्त ग्रहण।
- केवल शिष्य—लघु आचार्य भक्ति द्वारा आचार्य वंदना।
- गणधर वलय, प्रतिक्रमण दंडक, वीरभक्ति, शांति जिनकीर्तन सहित चतुर्विंशति जिनस्तव, लघु चारित्रालोचना युक्त बृहद आचार्य भक्ति, बृहद आलोचना युक्त मध्याचार्य भक्ति, लघु आलोचना सहित लघु आचार्य भक्ति, समाधि भक्ति।
पुराणकोष से
अंगबाह्य श्रुत के चौदह प्रकीर्णकों में छठा प्रकीर्णक-सामायिक के समय चार शिरोनति, मन-वचन-काय से दो दंडवत् नमस्कार और बारह आवर्त करना । हरिवंशपुराण - 2.103-10. 133