गति आदि की अपेक्षा वेद मार्गणा का स्वामित्व: Difference between revisions
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ष.खं./१/१, १/सू.१०५/३४५ <span class="PrakritText">णेरइया चदुसु ट्ठाणेसु सुद्धा णवुंसयवेदा ।१०५।</span> = <span class="HindiText">नारकी जीव चारों ही गुणस्थानों में शुद्ध (केवल) नपुंसकवेदी होते हैं–(और भी | ष.खं./१/१, १/सू.१०५/३४५ <span class="PrakritText">णेरइया चदुसु ट्ठाणेसु सुद्धा णवुंसयवेदा ।१०५।</span> = <span class="HindiText">नारकी जीव चारों ही गुणस्थानों में शुद्ध (केवल) नपुंसकवेदी होते हैं–(और भी देखें - [[ वेद#5.3 | वेद / ५ / ३ ]]) । </span><br /> | ||
पं.ध./उ./१०८९ <span class="SanskritGatha">नारकाणां च सर्वेषां वेदकश्चैको नपुंसकः । द्रव्यतो भावतश्चापि न स्त्रीवेदो न वा पुमान् ।१०८९।</span> = <span class="HindiText">सम्पूर्ण नारकियों के द्रव्य व भाव दोनों प्रकार से एक नपुंसक ही वेद होता है उनके न स्त्री वदे होता है और न पुरुष वेद ।१०८९। <br /> | पं.ध./उ./१०८९ <span class="SanskritGatha">नारकाणां च सर्वेषां वेदकश्चैको नपुंसकः । द्रव्यतो भावतश्चापि न स्त्रीवेदो न वा पुमान् ।१०८९।</span> = <span class="HindiText">सम्पूर्ण नारकियों के द्रव्य व भाव दोनों प्रकार से एक नपुंसक ही वेद होता है उनके न स्त्री वदे होता है और न पुरुष वेद ।१०८९। <br /> | ||
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Revision as of 14:25, 6 October 2014
- गति आदि की अपेक्षा वेद मार्गणा का स्वामित्व
- नरक में केवल नपुंसक वेद होता है
ष.खं./१/१, १/सू.१०५/३४५ णेरइया चदुसु ट्ठाणेसु सुद्धा णवुंसयवेदा ।१०५। = नारकी जीव चारों ही गुणस्थानों में शुद्ध (केवल) नपुंसकवेदी होते हैं–(और भी देखें - वेद / ५ / ३ ) ।
पं.ध./उ./१०८९ नारकाणां च सर्वेषां वेदकश्चैको नपुंसकः । द्रव्यतो भावतश्चापि न स्त्रीवेदो न वा पुमान् ।१०८९। = सम्पूर्ण नारकियों के द्रव्य व भाव दोनों प्रकार से एक नपुंसक ही वेद होता है उनके न स्त्री वदे होता है और न पुरुष वेद ।१०८९।
- भोगभूमिज तिर्यंच मनुष्यों में तथा सभी देवों में दो ही वेद होते हैं
ष.खं./१/१, १/सूत्र ११०/३४७ देवा चदुसु ट्ठाणेसु दुवेदा, इत्थिवेदा पुरिसवेदा ।११०। = देव चार गुणस्थानों मे स्त्री और पुरुष इस प्रकार दो वेद वाले होते हैं ।
मू.आ./११२९ देवा य भोगभूमा असंखवासाउगा मणुवतिरिया । ते होंति दोसु वेदेसु णत्थि तेसिं तदियवेदो ।११२९। = चारों प्रकार के देव तथा असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य और तिर्यंच, इनके दो (स्त्री व पुरुष) ही वेद होते हैं, तीसरा (नपुंसकवेद) नहीं । (ध.१/१, १, ११०/३४७/१२) ।
त.सू.व.स.सि./२/५१/१९९ न देवाः ।५१। .....न तेषु नपुंसकानि सन्ति । = देवों में नपुंसकवेदी नहीं होते । (रा.वा./२/५१/१५६/२७); (त.सा./२/८०) ।
गो.जी./भू./९३/२१४.... । सुरभोगभूमा पुरिसिच्छीवेदगा चेव ।९३। = देव तथा भोगभूमिज मनुष्य व तिर्यंच केवल पुरुष व स्त्री वेदी ही होते हैं ।
पं.ध./उ./१०८७-१०८८ यथा दिविजनारीणां नारीवेदोऽस्ति नेतरः । देवानां चापि सर्वेषां पाकः पंवेद एव हि ।१०८७। भोगभूमौ च नारीणां नारीवेदी न चेतरः । पूंवेदः केवलः पुंसां नान्यो वान्योन्यसंभवः ।१०८८। = जैसे सम्पूर्ण देवांगनाओं के केवल स्त्री वेद का उदय रहता है अन्य वेद का नहीं, वैसे ही सभी देवों के एक पुरुषवेद का ही उदय है अन्य का नहीं ।१०८७। भोगभूमि में स्त्रियों के स्त्री वेद तथा पुरुषवेद ही होता है, अन्य नहीं । स्त्रीवेदी के पुरुषवेद और पुरुषवेदी के स्त्रीवेद नहीं होता है ।१०८८। और भी दे./वेद/४/३) ।
- कर्मभूमिज विकलेन्द्रिय व सम्मूर्च्छिम तिर्यंच व मनुष्य केवल नपुंसक वेदी होते हैं
ष.खं./१/१, १/सूत्र १०६/३४५ तिरिक्खा सुद्धा णवुंसगवेदा एइंदिय-प्पहुडि जाव चउरिंदिया त्ति ।१०६। तिर्यंच एकेन्द्रिय जीवों से लेकर चतुरिन्द्रिय तक शुद्ध (केवल) नपुंसकवेदी होते हैं ।१०६।
मू.आ./११२८ एइंदिय विगलिंदिय णारय सम्मुच्छिमा य खलु सव्वे । वेदो णवुंसगा ते णादव्वा होंति णियमादु ।११२८। = एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, नारकी, सम्मूर्च्छिम असंज्ञी व संज्ञी तिर्यंच तथा सम्मूर्च्छिम मनुष्य नियम से नपुंसक लिंगी होते हैं । (त्रि.सा./३३१) ।
त.सू./२/५० नारक संमूर्च्छिनो नपुंसकानि ।५०। = नारक और सम्मूर्च्छिम नपुंसक होते हैं । (त.सा./२/८०); (गो.जी./मू./९३/२१४) ।
घ.१/१, १, ११०/३४७/११ तिर्यङ्मनुष्यलब्ध्यपर्याप्ताः संमूर्च्छिमपञ्चेद्रियाश्च नपुंसका एव । = लब्ध्यपर्याप्त तिर्यंच और मनुष्य तथा सम्मूर्च्छन पञ्चेन्द्रिय जीव नपुंसक ही होते हैं ।
पं.ध./उ./१०९०-१०९१ तिर्यग्जातौ च सर्वेषां एकाक्षाणां नपुंसकःवेदो विकलत्रयाणां क्लीबः स्यात् केवलः किल ।१०९०। पञ्चाक्षासंज्ञिनां चापि तिरश्चां स्यान्नपुंसकः । द्रव्यतो भावतश्चापि वेदो नान्यः कदाचन ।१०९१। = तिर्यंचजातियों में भी निश्चय करके द्रव्य और भाव दोनों की अपेक्षा से सम्पूर्ण एकेन्द्रियों के, विकलेन्द्रियों के और (सम्मूर्च्छिम) असंज्ञी पञ्चेन्द्रियों के केवल एक नपुंसक वेद होता है, अन्य वेद कभी नहीं होता ।१०९०-१०९१ ।
- कर्मभूमिज संज्ञी असंज्ञी तिर्यंच व मनुष्य तीनों वेद वाले होते हैं
ष.खं./१/१, १/सूत्र १०७-१०९/३४६ तिरक्खा तिवेदा असण्णिपंचिंदियप्पहुडि जाव संजदासंजदा त्ति ।१०७। मणुस्सा तिवेदा मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति ।१०८। तेण परमवगदवेदा चेदि ।१०९। = तिर्यंच असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक तीनों वेदों से युक्त होते हैं ।१०७। मनुष्य मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक तीनों वेद वाले होते हैं ।१०८। नवमें गुणस्थान के सवेदभाग के आगे सभी गुणस्थान वाले जीव वेद रहित होते हैं ।१०९।
मू.आ./११३० पंचिदिया दु सेसा सण्णि असण्णि य तिरिय मणुसा य । ते होंति इत्थिपुरिसा णपुंसगा चावि देवेहिं ।११३०। = उपरोक्ता सर्व विकल्पों से शेष जो संज्ञी असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य स्त्री, पुरुष व नपुंसक तीनों वेदों वाले होते हैं ।११३०।
त.सू./२/५२ शेषास्त्रिवेदाः ।५२। = शेष के सब जीव तीन वेद वाले होते हैं । (त.सा./२/८०) ।
गो.जी./भू./९३/२१४ णर तिरिये तिण्णि होंति । = नर और तिर्यंचों में तीनों वेद होते हैं ।
त्रि.सा./१३१ तिवेदा गव्भणरतिरिया । = गर्भज मनुष्य व तिर्यंच तीनों वेद वाले होते हैं ।
पं.ध./उ./१०९२ कर्मभूमौ मनुष्याणां मानुषीणां तथैव च । तिरश्चां वा तिरश्चीनां त्रयो वेदास्तथोदयात् ।१०९२। = कर्मभूमि में मनुष्यों के और मनुष्यनियों के तथा तिर्यंचों के और तिर्यंचिनियों के अपने-अपने उदय के अनुसार तीनों वेद होते हैं ।१०९२। अर्थात् द्रव्य वेद की अपेक्षा पुरुष व स्त्री वेदी होते हुए भी उनके भाववेद की अपेक्षा तीनों में से अन्यतम वेद पाया जाता है ।१०९३-१०९५ ।
- एकेन्द्रियों में वेदभाव की सिद्धि
ध.१/१, १, १०३/३४३/८ एकेन्द्रियाणं न द्रव्यवेद उपलभ्यते, तदनुपलब्धौ कथं तस्य तत्र सत्त्वमिति चेन्माभूत्तत्र द्रव्यवेदः, तस्यात्र प्राधान्याभावात् । अथवा नानुपलब्ध्या तदभावः सिद्धयेत्, सकलप्रमेयव्याप्युपलम्भबलेन तत्सिद्धिः । न स छद्मस्थेष्वस्ति । एकेन्द्रियाणामप्रतिपन्नस्त्रीपुरुषाणां कथं स्त्रीपुरुषविषयाभिलाषे घटत इति चेन्न, अप्रतिपन्नस्त्रीवेदेन भूमिगृहान्तर्वृद्धिमुपगतेन यूना पुरुषेण व्यभिचारात् । = प्रश्न–एकेन्द्रिय जीवों के द्रव्यवेद नहीं पाया जाता है, इसलिए द्रव्यवेद की उपलब्धि नहीं होने पर एकेन्द्रिय जीवों में नपुंसक वेद का अस्तित्व कैसे बतलाया? उत्तर–एकेन्द्रियों में द्रव्यवेद मत होओ, क्योंकि उसकी यहाँ पर प्रधानता नहीं है । अथवा द्रव्यवेद की एकेन्द्रियों में उपलब्धि नहीं होती है, इसलिए उसका अभाव सिद्ध नहीं होता है । किन्तु सम्पूर्ण प्रमेयों में व्याप्त होकर रहने वाले उपलम्भप्रमाण (केवलज्ञान से) उसकी सिद्धि हो जाती है । परन्तु वह उपशम्भ (केवलज्ञान) छद्मस्थों में नहीं पाया जाता है । प्रश्न–जो स्त्रीभाव और पुरुषभाव से सर्वथा अनभिज्ञ हैं ऐसे एकेन्द्रियों को स्त्री और पुरुष विषयक अभिलाषा कैसे बन सकती है? उत्तर–नहीं, क्योंकि जो पुरुष स्त्रीवेद से सर्वथा अज्ञात है और भूगृह के भीतर वृद्धि को प्राप्त हुआ है, ऐसे पुरुष के साथ उक्त कथन का व्यभिचार देखा जाता है ।
- चींटी आदि नपुंसक वेदी ही कैसे
ध.१/१, १, १०६/३४६/२ पिपीलिकानामण्डदर्शनान्न ते नपुंसक इति चेन्न, अण्डानां गर्भे एवोत्पत्तिरिति नियमाभावात् । = प्रश्न–चींटियों के अण्डे देखे जाते हैं, इसलिए वे नपुंसकवेदी नहीं हो सकते हैं? उत्तर-अण्डों की उत्पत्ति गर्भ में ही होती है । ऐसा कोई नियम नहीं ।
- विग्रह गति में भी अव्यक्तवेद होता है
ध.१/१, १, १०६/३४६/३ विग्रहगतौ न वेदाभावस्तत्राप्यव्यक्तवेदस्य सत्त्वात् । = विग्रहगति में भी वेद का अभाव नहीं है, क्योंकि वहाँ भी अव्यक्त वेद पाया जाता है ।
- नरक में केवल नपुंसक वेद होता है