योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 110: Difference between revisions
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Revision as of 06:16, 19 January 2009
आस्रव का सामान्य कारण -
शुभाशुभोपयोगेन वासिता योग-वृत्तय: ।
सामान्येन प्रजायन्ते दुरितास्रव-हेतव: ।।११०।।
अन्वय :- शुभ-अशुभ-उपयोगेन वासिता: योग-वृत्तय: सामान्येन दुरितास्रव-हेतव: प्रजायन्ते ।
सरलार्थ :- शुभ तथा अशुभ उपयोग से रंजित अर्थात् शुभाशुभभावों में लगे हुए ज्ञान-दर्शन परिणाम से रंजित जो मन-वचन-कायरूप योगों की प्रवृत्तियाँ हैं, वे सामान्य से पापरूप (पुण्य- पाप) कर्मो के आस्रव का कारण होती हैं ।
भावार्थ :- यह योगसार प्राभृत अध्यात्म शास्त्र है । अत: इसमें शुभाशुभ उपयोग से संस्कारित योगों को पाप का कारण कहा है । यहाँ पुण्य और पाप - दोनों को पाप ही कहा है । वास्तव में देखा जाय तो संसार के कारणरूप कर्मो को पुण्यरूप कहा ही नहीं जा सकता । इस कारण समयसार में पुण्य-पाप अधिकार की प्रथम गाथा में भी आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रश्न पूछा कि ``कह तं होदि सुशीलं जं संसारं पवेसेदि ? वह कर्म सुशील कैसे हो सकता है, जो जीव को संसार में प्रवेश कराता है? आचार्य समंतभद्र जो आद्य श्रावकाचार के प्रणेता हैं, उन्होंने भगवान की स्तुति करते समय स्वयम्भूस्तोत्र में भी कहा है - ``दुरितमलकलङ्कष्टकं निरूपम-योगबलेन निर्दहन् । - आपने पापरूप ज्ञानावरणादि आठ कर्मो को अपने अनुपम शुक्लध्यान के बल से नष्ट कर दिया है । आचार्य उमास्वामी ने व्रत के कारण होनेवाले पुण्यास्रव को तत्त्वार्थसूत्र के आस्रव अधिकार में स्थान दिया है । अत: पुण्य को मोक्ष का कारण माननेरूप भ्र का निराकरण प्रत्येक साधक को होना ही चाहिए । मात्र योग से होनेवाले ईर्यापथास्रव को यहाँ गौण किया गया है ।