योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 116: Difference between revisions
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<p><b> सरलार्थ </b>:- जब तक अज्ञानी अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीव, चेतन अथवा अचेतन किसी भी परद्रव्य में अपनेपन की बुद्धि से प्रवृत्ति करता है अर्थात् पर में अपनत्व की मान्यता रखता है तबतक अष्ट कर्मो के आस्रव को रोका नहीं जा सकता । </p> | <p><b> सरलार्थ </b>:- जब तक अज्ञानी अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीव, चेतन अथवा अचेतन किसी भी परद्रव्य में अपनेपन की बुद्धि से प्रवृत्ति करता है अर्थात् पर में अपनत्व की मान्यता रखता है तबतक अष्ट कर्मो के आस्रव को रोका नहीं जा सकता । </p> | ||
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Revision as of 08:54, 19 January 2009
मिथ्यात्व ही आस्रव का प्रमुख कारण -
चेतने s चेतने द्रव्ये यावदन्यत्र वर्तते ।
स्वकीयबुद्धितस्तावत्कर्मागच्छन् न वार्यते ।।११६।।
अन्वय :- यावत् (अज्ञानी जीव:) चेतने अचेतने द्रव्ये स्वकीयबुद्धित: वर्तते तावत् कर्म- आगच्छन् न वार्यते ।
सरलार्थ :- जब तक अज्ञानी अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीव, चेतन अथवा अचेतन किसी भी परद्रव्य में अपनेपन की बुद्धि से प्रवृत्ति करता है अर्थात् पर में अपनत्व की मान्यता रखता है तबतक अष्ट कर्मो के आस्रव को रोका नहीं जा सकता ।