योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 146: Difference between revisions
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<p><b> अन्वय </b>:- य: मूढ: पुण्य-पापयो: विशेषं न अवबुध्यते; स: चारित्रभ्रष्ट:; संसारपरिवर्धक: (च भवति) । </p> | <p><b> अन्वय </b>:- य: मूढ: पुण्य-पापयो: विशेषं न अवबुध्यते; स: चारित्रभ्रष्ट:; संसारपरिवर्धक: (च भवति) । </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- जो मूढ मिथ्यादृष्टि पुण्य-पाप में अविशेष नहीं जानता है अर्थात् भेद जानता है, वह चारित्र से भ्रष्ट और संसार को बढ़ानेवाला है । </p> | <p><b> सरलार्थ </b>:- जो मूढ मिथ्यादृष्टि पुण्य-पाप में अविशेष नहीं जानता है अर्थात् भेद जानता है, वह चारित्र से भ्रष्ट और संसार को बढ़ानेवाला है । </p> | ||
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Revision as of 09:05, 19 January 2009
पुण्य-पाप में भेद माननेवाला चारित्रभ्रष्ट -
य: पुण्यपापर्योूढ़ोsविशेषं नावबुध्यते ।
स चारित्रपरिभ्रष्ट: संसार-परिवर्धक: ।।१४६।।
अन्वय :- य: मूढ: पुण्य-पापयो: विशेषं न अवबुध्यते; स: चारित्रभ्रष्ट:; संसारपरिवर्धक: (च भवति) ।
सरलार्थ :- जो मूढ मिथ्यादृष्टि पुण्य-पाप में अविशेष नहीं जानता है अर्थात् भेद जानता है, वह चारित्र से भ्रष्ट और संसार को बढ़ानेवाला है ।