योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 147
From जैनकोष
व्यवहार चारित्र से मुक्ति नहीं -
पापारम्भं परित्यज्य शस्तं वृत्तं चरन्नपि ।
वर्तमान: कषायेन कल्मषेभ्यो न मुच्यते ।।१४७।।
अन्वय :- पापारम्भं परित्यज्य शस्तं वृत्तं चरन् अपि कषायेन (सह) वर्तमान: (आत्मा) कल्मषेभ्य: न मुच्यते ।
सरलार्थ :- हिंसादि पाँच पाप और पापजनक आरम्भ को छोड़कर (२८ मूलगुणरूप) पुण्यमय आचरण करता हुआ भी (मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनि) यदि (पुण्य-पाप को उपादेय माननेरूप) कषाय (मिथ्यात्व) के साथ वर्त रहा है तो वह मिथ्यात्वरूप पाप से नहीं छूटता ।