योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 148: Difference between revisions
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<p><b> अन्वय </b>:- यद्यपि वस्तुत: मोह-लोभाद्या: दोषा: जायन्ते, तथापि दोषत: दुरितस्य बन्ध: (जायते), न वस्तुत: । </p> | <p><b> अन्वय </b>:- यद्यपि वस्तुत: मोह-लोभाद्या: दोषा: जायन्ते, तथापि दोषत: दुरितस्य बन्ध: (जायते), न वस्तुत: । </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- यद्यपि वस्तु के अर्थात् बाह्य परपदार्थ के निमित्त से मोह तथा लोभादिक दोष उत्पन्न होते हैं; तथापि कर्म का बन्ध, उत्पन्न हुए दोषों के कारण होता है, न कि वस्तु के कारण अर्थात् परपदार्थ बन्ध का कारण नहीं है । </p> | <p><b> सरलार्थ </b>:- यद्यपि वस्तु के अर्थात् बाह्य परपदार्थ के निमित्त से मोह तथा लोभादिक दोष उत्पन्न होते हैं; तथापि कर्म का बन्ध, उत्पन्न हुए दोषों के कारण होता है, न कि वस्तु के कारण अर्थात् परपदार्थ बन्ध का कारण नहीं है । </p> | ||
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Revision as of 09:06, 19 January 2009
कर्मबंध में बाह्य वस्तु अकिंचित्कर -
जायन्ते मोह-लोभाद्या दोषा यद्यपि वस्तुत: ।
तथापि दोषतो बन्धो दुरितस्य न वस्तुत: ।।१४८।।
अन्वय :- यद्यपि वस्तुत: मोह-लोभाद्या: दोषा: जायन्ते, तथापि दोषत: दुरितस्य बन्ध: (जायते), न वस्तुत: ।
सरलार्थ :- यद्यपि वस्तु के अर्थात् बाह्य परपदार्थ के निमित्त से मोह तथा लोभादिक दोष उत्पन्न होते हैं; तथापि कर्म का बन्ध, उत्पन्न हुए दोषों के कारण होता है, न कि वस्तु के कारण अर्थात् परपदार्थ बन्ध का कारण नहीं है ।