करण: Difference between revisions
From जैनकोष
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<ol> | == सिद्धांतकोष से == | ||
<li><span class="HindiText"> अंतरकरण व उपशमकरण | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"> अंतरकरण व उपशमकरण आदि–देखें [[ वह वह नाम ]]। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> अवधिज्ञान के करण | <li><span class="HindiText"> अवधिज्ञान के करण चिह्न–देखें [[ अवधिज्ञान#5 | अवधिज्ञान - 5]]। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> कारण के अर्थ में | <li><span class="HindiText"> कारण के अर्थ में करण–देखें [[ निमित्त#1 | निमित्त - 1]]। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> प्रमाके करण को प्रमाण कहने | <li><span class="HindiText"> प्रमाके करण को प्रमाण कहने सम्बन्धी–देखें [[ प्रमाण ]]। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> मिथ्यात्व का त्रिधा करण–देखें [[ उपशम#2 | उपशम - 2]]। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> अध:करण आदि त्रिकरण व दशकरण–देखें | <li><span class="HindiText"> अध:करण आदि त्रिकरण व दशकरण–देखें [[ आगे करण ]]<br /> | ||
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<p><span class="HindiText"> जीव के शुभ-अशुभ आदि परिणामों को करण संज्ञा है। | <p><span class="HindiText"> जीव के शुभ-अशुभ आदि परिणामों को करण संज्ञा है। सम्यक्त्व व चारित्र की प्राप्ति में सर्वत्र उत्तरोत्तर तरतमता लिये तीन प्रकार के परिणाम दर्शाये गये हैं–अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण। इन तीनों में उत्तरोत्तर विशुद्धि की वृद्धि के कारण कर्मों के बन्ध में हानि तथा पूर्व सत्ता में स्थित कर्मों की निर्जरा आदि में भी विशेषता होनी स्वाभाविक है। इनके अतिरिक्त कर्म सिद्धान्त में बन्ध उदय सत्त्व आदि जो दस मूल अधिकार हैं उनको भी दशकरण कहते हैं।</span></p> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong>करण | <li><span class="HindiText"><strong>करण सामान्य निर्देश</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText">दशकरणों के नाम निर्देश।<br /> | <li><span class="HindiText">दशकरणों के नाम निर्देश।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText">कर्म प्रकृतियों में | <li><span class="HindiText">कर्म प्रकृतियों में यथासम्भव 10 करण अधिकार निर्देश।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText">गुणस्थानों में 10 करण सामान्य व विशेष का अधिकार निर्देश</span></li> | ||
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</li> | </li> | ||
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<li><span class="HindiText">त्रिकरण नाम निर्देश।<br /> | <li><span class="HindiText">त्रिकरण नाम निर्देश।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText">सम्यक्त्व व चारित्र प्राप्ति विधि में तीनों करण अवश्य होते हैं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText">मोहनीय के उपशम क्षय व क्षयोपशम विधि में त्रिकरणों का | <li><span class="HindiText">मोहनीय के उपशम क्षय व क्षयोपशम विधि में त्रिकरणों का स्थान–देखें [[ वह वह नाम ]]<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText">अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना में त्रिकरणों का स्थान–देखें [[ विसंयोजना ]]<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText">त्रिकरण का | <li><span class="HindiText">त्रिकरण का माहात्म्य ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText">तीनों करणों के काल में | <li><span class="HindiText">तीनों करणों के काल में परस्पर तरतमता।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText">तीनों करणों की | <li><span class="HindiText">तीनों करणों की परिणामविशुद्धियों में तरतमता।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText">तीनों करणों का कार्य | <li><span class="HindiText">तीनों करणों का कार्य भिन्न-भिन्न कैसे है ?</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText">अध:प्रवृत्तकरण का काल।<br /> | <li><span class="HindiText">अध:प्रवृत्तकरण का काल।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText">प्रति समय | <li><span class="HindiText">प्रति समय सम्भव परिणामों की संख्या संदृष्टि व यंत्र।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText">परिणाम | <li><span class="HindiText">परिणाम संख्या में अंकुश व लांगल रचना।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText">परिणामों की विशुद्धता के अविभाग | <li><span class="HindiText">परिणामों की विशुद्धता के अविभाग प्रतिच्छेद, संदृष्टि व यंत्र।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText">परिणामों की विशुद्धता का | <li><span class="HindiText">परिणामों की विशुद्धता का अल्पबहुत्व व उसकी सर्पवत् चाल<br /> | ||
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<li><span class="HindiText">अध:प्रवृत्तकरण के चार | <li><span class="HindiText">अध:प्रवृत्तकरण के चार आवश्यक।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText">सम्यक्त्व प्राप्ति से पहले भी सभी जीवों के परिणाम अध:करण रूप ही होते हैं।</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText">अपूर्वकरण का काल <br /> | <li><span class="HindiText">अपूर्वकरण का काल <br /> | ||
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<li><span class="HindiText">प्रतिसमय | <li><span class="HindiText">प्रतिसमय सम्भव परिणामों की संख्या।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText">परिणामों की विशुद्धता में वृद्धिक्रम <br /> | <li><span class="HindiText">परिणामों की विशुद्धता में वृद्धिक्रम <br /> | ||
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<li><span class="HindiText">अपूर्वकरण के परिणामों की संदृष्टि व यंत्र।<br /> | <li><span class="HindiText">अपूर्वकरण के परिणामों की संदृष्टि व यंत्र।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText">अपूर्वकरण के चार | <li><span class="HindiText">अपूर्वकरण के चार आवश्यक।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText">अपूर्वकरण व अध:प्रवृत्तकरण में कथंचित् समानता व असमानता।</span></li> | <li><span class="HindiText">अपूर्वकरण व अध:प्रवृत्तकरण में कथंचित् समानता व असमानता।</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText">अनिवृत्तिकरण का काल।<br /> | <li><span class="HindiText">अनिवृत्तिकरण का काल।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText">अनिवृत्तिकरण में प्रतिसमय एक ही परिणाम | <li><span class="HindiText">अनिवृत्तिकरण में प्रतिसमय एक ही परिणाम सम्भव है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText">परिणामों की विशुद्धता में वृद्धिक्रम।<br /> | <li><span class="HindiText">परिणामों की विशुद्धता में वृद्धिक्रम।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText">नाना जीवों में योगों की सदृशता का नियम नहीं है।<br /> | <li><span class="HindiText">नाना जीवों में योगों की सदृशता का नियम नहीं है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText">नाना जीवों में | <li><span class="HindiText">नाना जीवों में काण्डक घात आदि तो समान होते हैं, पर प्रदेशबन्ध असमान।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText">अनिवृत्तिकरण के चार | <li><span class="HindiText">अनिवृत्तिकरण के चार आवश्यक।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText">अनिवृत्तिकरण व अपूर्वकरण में | <li><span class="HindiText">अनिवृत्तिकरण व अपूर्वकरण में अन्तर।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText">परिणामों की समानता का नियम समान समयवर्ती जीवों में ही है। यह कैसे जाना ? <br /> | <li><span class="HindiText">परिणामों की समानता का नियम समान समयवर्ती जीवों में ही है। यह कैसे जाना ? <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText">गुणश्रेणी आदि अनेक कार्यों का कारण होते हुए भी परिणामों में अनेकता | <li><span class="HindiText">गुणश्रेणी आदि अनेक कार्यों का कारण होते हुए भी परिणामों में अनेकता क्यों नहीं ?</span></li> | ||
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<p> </p> | <p> </p> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> करणसामान्य निर्देश</strong> <br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> करण का लक्षण परिणाम व इन्द्रिय</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> करण का लक्षण परिणाम व इन्द्रिय</strong></span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./6/13/1/523/26 <span class="SanskritText">करणं चक्षुरादि।</span>= <span class="HindiText">चक्षु आदि इन्द्रियों को करण कहते हैं।</span><br /> | ||
ध. | ध. 1/1,1,16/180/1 <span class="SanskritText">करणा: परिणामा:।</span>= <span class="HindiText">करण शब्द का अर्थ परिणाम है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> इन्द्रियों व परिणामों को करण संज्ञा देने में हेतु</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> इन्द्रियों व परिणामों को करण संज्ञा देने में हेतु</strong></span><br /> | ||
ध. | ध.6/1,9-8/4/217/5 <span class="PrakritText">कधं परिणामाणं करणं सण्णा। ण एस दोसो, असि-वासीणं व सहायतमभावविवक्खाए परिणामाणं करणत्तुवलंभादो।</span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–परिणामों की ‘करण’ यह संज्ञा कैसे हुई ? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि, असि (तलवार) और वासि (वसूला) के समान साधकतम भाव की विवक्षा में परिणामों के करणपना पाया जाता है।</span><br /> | ||
भ.आ./वि./ | भ.आ./वि./20/71/4<span class="SanskritText"> क्रियन्ते रूपादिगोचरा विज्ञप्तय एभिरिति करणानि इन्द्रियाण्युच्यन्तेक्वचित्करणशब्देन। </span>= <span class="HindiText">क्योंकि इनके द्वारा रूपादि पदार्थों को ग्रहण करनेवाले ज्ञान किये जाते हैं इसलिए इन्द्रियों को करण कहते हैं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
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</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong> दशकरण निर्देश</strong> <br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> दशकरणों के नाम निर्देश</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> दशकरणों के नाम निर्देश</strong></span><br /> | ||
गो.क./मू./ | गो.क./मू./437/591 <span class="PrakritGatha">बंधुक्कट्टणकरणं संकममोकटटुदीरणा सत्तं। उदयुवसामणिधत्ती णिकाचणा होदि पडिपयडी।437।</span>=<span class="HindiText">बन्ध, उत्कर्षण, संक्रमण, अपकर्षण, उदीरणा, सत्त्व, उदय, उपशम, निधत्ति और नि:काचना ये दश करण प्रकृति प्रकृति प्रति संभवे हैं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> कर्मप्रकृतियों में | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> कर्मप्रकृतियों में यथासम्भव दश करण अधिकार निर्देश</strong></span><br /> | ||
गो.क./मू./ | गो.क./मू./441,444/593-595 <span class="PrakritGatha">संकमणाकरणूणा णवकरणा होंति सव्व आऊणं। सेसाणं दसकरणा अपुव्वकरणोत्ति दसकरणा।441। बंधुक्कट्टणकरणं सगसगबंधोत्ति होदि णियमेण। संकमणं करणं पुण सगसगजादीणं बंधोत्ति।444।</span>=<span class="HindiText">च्यार आयु तिनिकैं संक्रमण करण बिना नव करण पाइए हैं जातैं चारयौ आयु परस्पर परिणमें नाही। अवशेष सर्व प्रकृतिनिकैं दश करण पाइये हैं।441। बन्ध करण अर उत्कर्षण करण ये तौं दोऊ जिस जिस प्रकृतिनि की जहाँ बन्ध व्युच्छित्ति भई तिस तिस प्रकृति का तहाँ ही पर्यन्त जानने नियमकरि। बहुरि जिस जिस प्रकृति के जे जे स्वजाति हैं जैसे ज्ञानावरण की पाँचों प्रकृति स्वजाति हैं ऐसे स्वजाति प्रकृतिनि की बन्ध की व्युच्छित्ति जहाँ भई तहाँ पर्यन्त तिनि प्रकृतिनि के संक्रमणकरण जानना।444। (विशेष देखो उस-उस करण का नाम)</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> गुणस्थानों में 10 करण सामान्य व विशेष का अधिकार निर्देश</strong><br /> | ||
(गो.क./ | (गो.क./441-450/593-599)<br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.3.1" id="2.3.1"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="2.3.1" id="2.3.1"></a>सामान्य प्ररूपणा</strong> </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
Line 149: | Line 150: | ||
<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="601"> | <table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="601"> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="97" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong> | <td width="97" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान</strong></span></p></td> | ||
<td width="246" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>करण | <td width="246" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>करण व्युच्छित्ति </strong> </span></p></td> | ||
<td width="258" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong> | <td width="258" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>सम्भव करण</strong> </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="97" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="97" valign="top"><p><span class="HindiText">1-7 <br /> | ||
8<br /> | |||
9<br /> | |||
10<br /> | |||
11<br /> | |||
12 <br /> | |||
13 </span></p> | |||
<p><span class="HindiText"> | <p><span class="HindiText">14 </span></p></td> | ||
<td width="246" valign="top"><p><span class="HindiText"> × <br /> | <td width="246" valign="top"><p><span class="HindiText"> × <br /> | ||
उपशम, निधत्त, नि:कांचित<br /> | उपशम, निधत्त, नि:कांचित<br /> | ||
Line 168: | Line 169: | ||
× <br /> | × <br /> | ||
× <br /> | × <br /> | ||
बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण <br /> | |||
उदीरणा<br /> | उदीरणा<br /> | ||
× </span></p> | × </span></p> | ||
Line 174: | Line 175: | ||
<td width="258" valign="top"><p><span class="HindiText">दशों करण<br /> | <td width="258" valign="top"><p><span class="HindiText">दशों करण<br /> | ||
दशों करण<br /> | दशों करण<br /> | ||
शेष | शेष 7<br /> | ||
शेष | शेष 7<br /> | ||
संक्रमणरहित | संक्रमणरहित 6+मिथ्यात्व व मिश्र प्रकृति का संक्रमण भी= 7<br /> | ||
संक्रमण रहित - | संक्रमण रहित -6<br /> | ||
संक्रमण रहित- | संक्रमण रहित-6</span></p> | ||
<p><span class="HindiText">उदय व सत्त्व = | <p><span class="HindiText">उदय व सत्त्व = 2</span></p> | ||
<p> </p></td> | <p> </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
Line 193: | Line 194: | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="97" valign="top"><span class="HindiText"><br /> | <td width="97" valign="top"><span class="HindiText"><br /> | ||
<strong> | <strong>गुणस्थान</strong></span></td> | ||
<td width="246" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>कर्म प्रकृति </strong></span></p></td> | <td width="246" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>कर्म प्रकृति </strong></span></p></td> | ||
<td width="258" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong> | <td width="258" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>सम्भव करण</strong> </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="97" valign="top"><p><span class="HindiText">सातिशय मि. <br /> | <td width="97" valign="top"><p><span class="HindiText">सातिशय मि. <br /> | ||
1-4<br /> | |||
1-5 <br /> | |||
4-6</span></p> | |||
<p><span class="HindiText"> | <p><span class="HindiText">10<br /> | ||
1-11<br /> | |||
( | (सामान्य) <br /> | ||
1-11<br /> | |||
उपशामक </span></p></td> | उपशामक </span></p></td> | ||
<td width="246" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="246" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">मिथ्यात्व<br /> | ||
नरकायु <br /> | नरकायु <br /> | ||
तिर्यंचायु<br /> | तिर्यंचायु<br /> | ||
अनन्तानुबन्धी चतुष्क </span></p> | |||
<p><span class="HindiText"> | <p><span class="HindiText">सूक्ष्मलोभ <br /> | ||
देवायु</span></p> | देवायु</span></p> | ||
<p><span class="HindiText">नरक द्वि. तिर्य. द्वि.; | <p><span class="HindiText">नरक द्वि. तिर्य. द्वि.; 4 जाति; <br /> | ||
स्त्यान त्रिक; आतप, उद्योत, सूक्ष्म, साधारण, स्थावर, दर्शनमोहत्रिक=19 अप्रत्या. व प्रत्या. चतु.; संज्व. क्रोध, मान, माया; नोकषाय =20<br /> | |||
उपरोक्त | उपरोक्त 19 <br /> | ||
उपरोक्त | उपरोक्त 20</span></p> | ||
<p><span class="HindiText">स. | <p><span class="HindiText">स. मिथ्यात्व व मिश्रमोह</span></p> | ||
<p><span class="HindiText">उपरोक्त | <p><span class="HindiText">उपरोक्त 2 के बिना शेष 146 <br /> | ||
5 ज्ञाना., 5 अन्तराय, 4 दर्शना.निद्रा व प्रचला = 16<br /> | |||
अयोगी की सत्त्ववाली | अयोगी की सत्त्ववाली 85<br /> | ||
जिस प्रकृति की जहाँ | जिस प्रकृति की जहाँ व्युच्छित्ति वहाँ पर्यन्त <br /> | ||
स्व जाति प्रकृति की बन्ध व्यु. पर्यन्त </span></p></td> | |||
<td width="258" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">एक समयाधिक आवली तक उदीरणा।<br /> | <td width="258" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">एक समयाधिक आवली तक उदीरणा।<br /> | ||
सत्त्व, उदय, उदीरणा = | सत्त्व, उदय, उदीरणा =3<br /> | ||
सत्त्व, उदय, उदीरणा = | सत्त्व, उदय, उदीरणा =3<br /> | ||
स्व स्व विसंयोजना तक उत्कर्षण </span></p> | |||
<p><span class="HindiText">उदीरणा<br /> | <p><span class="HindiText">उदीरणा<br /> | ||
अपकर्षण</span></p> | अपकर्षण</span></p> | ||
<p> </p> | <p> </p> | ||
<p><span class="HindiText">अपकर्षण<br /> | <p><span class="HindiText">अपकर्षण<br /> | ||
स्व स्व उपशम पर्यन्त अपकर्षण</span></p> | |||
<p><span class="HindiText">क्षयदेश | <p><span class="HindiText">क्षयदेश पर्यन्त अपकर्षण<br /> | ||
स्व स्व क्षयदेश पर्यन्त अपकर्षण</span></p> | |||
<p><span class="HindiText">उपशम, निधत्ति व नि:कांचित बिना | <p><span class="HindiText">उपशम, निधत्ति व नि:कांचित बिना 7</span></p> | ||
<p><span class="HindiText">संक्रमण रहित उपरोक्त = | <p><span class="HindiText">संक्रमण रहित उपरोक्त =6<br /> | ||
स्व स्व क्षयदेश पर्यन्त अपकर्षण </span></p> | |||
<p><span class="HindiText">अपकर्षण<br /> | <p><span class="HindiText">अपकर्षण<br /> | ||
बन्ध और उत्कर्षण </span></p> | |||
<p><span class="HindiText">संक्रमण </span></p> | <p><span class="HindiText">संक्रमण </span></p> | ||
<p> </p></td> | <p> </p></td> | ||
Line 244: | Line 245: | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="97" valign="top"><p> </p> | <td width="97" valign="top"><p> </p> | ||
<p><span class="HindiText"> | <p><span class="HindiText">1-11<br /> | ||
क्षपक</span></p> | क्षपक</span></p> | ||
<p><span class="HindiText"> | <p><span class="HindiText">11 उपशम स.<br /> | ||
11 क्षा.स.<br /> | |||
12</span></p> | |||
<p><span class="HindiText"> | <p><span class="HindiText">1-13<br /> | ||
1-13</span></p> | |||
<p><span class="HindiText"> | <p><span class="HindiText">1-13</span></p> | ||
<p> </p> | <p> </p> | ||
<p> </p></td> | <p> </p></td> | ||
Line 262: | Line 263: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> त्रिकरण नाम निर्देश</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> त्रिकरण नाम निर्देश</strong></span><br /> | ||
ध. | ध.6/1,9-8,4/214/5 <span class="PrakritText">एत्थ पढमसम्मतं पडिवज्जंतस्स अधापवत्तकरण-अपुव्वकरण-अणियट्टीकरणभेदेन तिविहाओ विसोहीओ होंति। </span>= <span class="HindiText">यहाँ पर प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होनेवाले जीव के अध:प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के भेद से तीन प्रकार की विशुद्धियाँ होती हैं। (ल. सा./मू./33/69), (गो.जी./मू./47/99) (गो.क./मू./896/1076)।</span><br /> | ||
गो.क./जी.प्र./ | गो.क./जी.प्र./8/897/1076/4 <span class="SanskritText">करणानि त्रीण्यध:प्रवृत्तापूर्वानिवृत्तिकरणानि।</span>= <span class="HindiText">करण तीन हैं–अध:प्रवृत्त, अपूर्व और अनिवृत्तिकरण।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> सम्यक्त्व व चारित्र प्राप्ति विधि में तीनों करण अवश्य होते हैं</strong> </span><br /> | ||
गो.जी./जी.प./ | गो.जी./जी.प./651/1100/9<span class="SanskritText"> करणलब्धिस्तु भव्य एव स्यात् तथापि सम्यक्त्वग्रहणे चारित्रग्रहणे च।</span> = <span class="HindiText">करणलब्धि भव्यकै ही हो है। सो भी सम्यक्त्व और चारित्र का ग्रहण विषै ही हो है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> त्रिकरण का | <li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> त्रिकरण का माहात्म्य</strong></span><br /> | ||
ल.सा./जी.प्र./ | ल.सा./जी.प्र./33/69 <span class="SanskritText">क्रमेणाध:प्रवृत्तकरणमपूर्वकरणमनिवृत्तिकरणं च विशिष्टनिर्जरासाधनं विशुद्धपरिणामं। </span>= <span class="HindiText">क्रमश: अध:प्रवृत्तकरण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये तीनों विशिष्ट निर्जरा के साधनभूत विशुद्ध परिणाम हैं (तिन्हें करता है)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> तीनों करणों के काल में | <li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> तीनों करणों के काल में परस्पर तरतमता</strong> </span><br /> | ||
ल.सा./मू. व जी.प्र./ | ल.सा./मू. व जी.प्र./34/70 <span class="SanskritText">अंतोमुहुत्तकाला तिण्णिवि करणा हवंति पत्तेयं। उवरीदो गुणियकमा कमेण संखेज्जरूवेण।34। एते त्रयोऽपि करणपरिणामा: प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तकाला भवन्ति। तथापि उपरित: अनिवृत्तिकरणकालात्क्रमेणापूर्वकरणाध:करणकालौ संख्येयरूपेण गुणितक्रमौ भवति। तत्र सर्वत: स्तोकान्तर्मुहूर्त: अनिवृत्तिकरणकाल:, तत: संख्येयगुण: अपूर्वकरणकाल:, तत: संख्येयगुण: अध:प्रवृत्तकरणकाल:।</span> = <span class="HindiText">तीनों ही करण प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त कालमात्रस्थितियुक्त हैं तथापि ऊपर ऊपरतै संख्यातगुणा क्रम लिये हैं। अनिवृत्तिकरण का काल स्तोक है। तातैं अपूर्वकरण का संख्यात गुणा है। तातैं अध:प्रवृत्तकरण का संख्यातगुणा है। (तीनों का मिलकर भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5"> तीनों करणों की परिणाम विशुद्धियों में तरतमता</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5"> तीनों करणों की परिणाम विशुद्धियों में तरतमता</strong></span><br /> | ||
ध. | ध.6/1,9-8,5/223।4 <span class="PrakritText">अधापवत्तकरणपढमसमयट्ठिदिबंधादो चरिमसमयट्ठिदिबंधो संखेज्जगुणहीनो। एत्थेव पढमसम्मत्तसंजमासंजमाभिमुहस्स ट्ठिदिबंधो संखेज्जगुणहीणो, पढमसम्मत्तसंजमाभिमुहस्स अधापवत्तकरणचरिमसमयट्ठिदिबंधो संखेज्जगुणहीणो। ... एवमधापवत्तकरणस्स कज्जपरूपणं कदं।</span><br /> | ||
ध. | ध.6/1,9-8,14/269/5 <span class="PrakritText">तत्थतण अणियट्टीकरणट्ठिदिघादादो वि एत्थतण अपुव्वकरणट्ठिदिघादस्स बहुवयरत्तादो वा। ण चेदमपुव्वकरणं पढमसम्मत्ताभिमुहमिच्छाइट्ठिअपुव्वकरणेण तुल्लं, सम्मत्त–संजम-संजमासंजमफलाणं तुल्लत्तविरोहा। ण चापुव्वकरणाणि सव्वअणियट्टी करणेहिंतो अणंतगुणहीणाणि त्ति न वोत्तुं जुत्तं, तदुप्पायणसुत्ताभावा।</span> = | ||
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<li class="HindiText"> अध:प्रवृत्तिकरण के प्रथम समय | <li class="HindiText"> अध:प्रवृत्तिकरण के प्रथम समय सम्बन्धीस्थितिबन्ध से उसी का अन्तिम समय सम्बन्धी स्थितिबन्ध संख्यात गुणाहीन होता है। यहाँ पर ही अर्थात् अध:प्रवृत्तकरण के चरम समय में ही प्रथमसम्यक्त्व के अभिमुख जीव के जो स्थितिबन्ध होता है, उससे प्रथम सम्यक्त्व सहित संयमासंयम के अभिमुख जीव का स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन होता है।इससे प्रथम सम्यक्त्व सहित सकलसंयम के अभिमुख जीव का अध:प्रवृत्तकरण के अन्तिम समय सम्बन्धी स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन होता है। ... इस प्रकार अध:प्रवृत्तकरण के कार्यों का निरूपण किया।</li> | ||
<li class="HindiText"> वहाँ के अर्थात् प्रथमोपशम | <li class="HindiText"> वहाँ के अर्थात् प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि के, अनिवृत्तिकरण से होनेवाले स्थितिघात की अपेक्षा यहाँ के अर्थात् संयमासंयम के अभिमुख मिथ्यादृष्टि के, अपूर्वकरण से होनेवाला स्थितिघात बहुत अधिक होता है। तथा, यह अपूर्वकरण, प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि के अपूर्वकरण के साथ समान नहीं है; क्योंकि सम्यक्त्व संयम और संयमासंयमरूप फलवाले विभिन्न परिणामों के समानता होने का विरोध है।तथा, सर्व अपूर्वकरण परिणाम सभी अनिवृत्तिकरण परिणामों से अनन्त गुणहीन होते हैं, ऐसा कहना भी युक्त नहीं है; क्योंकि, इस बात का प्रतिपादन करनेवाले सूत्र का अभाव है। भावार्थ–(यद्यपि सम्यक्त्व, संयम या संयमासंयम आदि रूप किसी एक ही स्थान में प्राप्त तीनों परिणामों की विशुद्धि उत्तरोत्तर अनन्तगुणा अधिक होती है, परन्तु विभिन्न स्थानों में प्राप्त परिणामों में यह नियम नहीं है। वहाँ तो निचले स्थान के अनिवृत्तिकरण की अपेक्षा भी ऊपरले स्थान का अध:प्रवृत्तकरण अनन्तगुणा अधिक होता है।)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6"> तीनों करणों का कार्य | <li><span class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6"> तीनों करणों का कार्य भिन्न कैसे है</strong></span><br /> | ||
ध. | ध. 6/1,9-8,14/289/2<span class="SanskritText"> कथं ताणि चेव तिण्णि करणाणि पुध-पुध कज्जुप्पायणाणि। ण एस दोसो, लक्खणसमाणत्तेण एयत्तमावण्णाणं भिण्णकम्मविरोहित्तणेण भेदमुवगयाणं जीवपरिणामाणं पुध पुध कज्जुवपायणे विरोहाभावा। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–वे ही तीन करण पृथक्-पृथक् कार्यों के (सम्यक्त्व, संयम, संयमासंयम आदिके) उत्पादक कैसे हो सकते हैं ? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, लक्षण की समानता से एकत्व को प्राप्त, परन्तु भिन्न कर्मों के विरोधी होने से भेद को भी प्राप्त हुए जीव परिणामों के पृथक्-पृथक् कार्य के उत्पादन में कोई विरोध नहीं है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> अध:प्रवृत्तकरण का लक्षण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> अध:प्रवृत्तकरण का लक्षण</strong></span><br /> | ||
ल. सा./मू. व जी. प्र./ | ल. सा./मू. व जी. प्र./35/70 <span class="SanskritText">जह्मा हेट्ठिमभावा उवरिमभावेहिं सरिसगा होंति। तह्मा पढमं करणं अधापत्तोत्ति णिद्दिट्ठं।35। संख्यया विशुद्ध्या च सदृशा भवन्ति तस्मात्कारणात्प्रथम: करणपरिणाम: अध:प्रवृत्त इत्यन्वर्थतो निर्दिष्ट:। </span>= <span class="HindiText">करणनि का नाम नाना जीव अपेक्षा है। सो अध:करण मांडै कोई जीव को स्तोक काल भया, कोई जीव को बहुत काल भया। तिनिके परिणाम इस करणविषै संख्या व विशुद्धताकरि (अर्थात् दोनों ही प्रकारसे) समान भी होहै ऐसा जानना। क्योंकि इहाँ निचले समयवर्ती कोई जीव के परिणाम ऊपरले समयवर्ती कोई जीव के परिणाम के सदृश हो हैं तातैं याका नाम अध:प्रवृत्तकरण है। ( यद्यपि वहाँ परिणाम असमान भी होते हैं, परन्तु ‘अध:प्रवृत्तकरण’ इस संज्ञा में करण नीचले व ऊपरले परिणामों की समानता ही है असमानता नहीं)। ( गो. जी./मू./48।100), (गो.क./मू./898/1076)। और भी देखें [[ अध:प्रवृत्तिकरण ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> अध:प्रवृत्तकरण का काल</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> अध:प्रवृत्तकरण का काल</strong></span><br /> | ||
गो.जी./मू./ | गो.जी./मू./49/102 <span class="PrakritText">अंतोमुहुत्तमेत्तो तक्कालो होदि तत्थ परिणामा।</span><br /> | ||
गो.जी./जी.प्र./ | गो.जी./जी.प्र./49।102/5 <span class="SanskritText">स्तोकान्तर्मुहूर्तमात्रात् अनिवृत्तिकरणकालात् संख्यातगुण: अपूर्वकरणकाल:; अत: संख्यातगुण: अध:प्रवृत्तकरणकाल: सोऽप्यन्तर्मुहूर्तमात्र एव। </span>=<span class="HindiText">तीनों करणनिविषै स्तोक अन्तर्मूहूर्त प्रमाण अनिवृत्तिकरण का काल है। यातैं संख्यातगुणा अपूर्वकरण का काल है। यातैं संख्यातगुणा इस अध:प्रवृत्तकरण का काल है। सो भी अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है। जातै अन्तर्मूहूर्त के भेद बहुत हैं। (गो. क./मू./899/1076)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> प्रति समय | <li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> प्रति समय सम्भव परिणामों की संख्या संदृष्टि व यन्त्र</strong></span><br /> | ||
गो.जी./जी. प्र./ | गो.जी./जी. प्र./49/102-106/6 <span class="SanskritText">तस्मिन्नध:प्रवृत्तकरणकाले त्रिकालगोचरनानाजीवसंबन्धिनो विशुद्धपरिणामा: सर्वेऽपि असंख्यातलोकमात्रा: सन्ति।2। तेषु प्रथमसमयसंबन्धिनो यावन्त: सन्ति द्वितीयादिसमयेषु उपर्युपरि चरमसमयपर्यन्तं सदृशवृद्धया वर्धिता: सन्ति ते च तावदङ्कसंदृष्ट्या प्रदर्श्यते – तत्र परिणामा: द्वासप्तत्युत्तरत्रिसहस्री।3072। अध:प्रवृत्तकरणकाल: षोडशसमया:।16। प्रतिसमयपरिणामवृद्धिप्रमाणं चत्वार:।4।..एकस्मिन् प्रचये 4 वर्धिते सति द्वितीयतृतीयादिसमयवर्तिपरिणामानां संख्या भवति। ता: इमा: - 166, 170, 174, 178, 182, 186, 190, 194, 198, 202, 206, 210, 214, 218, 222। एतान्युक्तधनानि अध:प्रवृत्तकरणप्रथमसमयाच्चरमसमयपर्यन्तमुपर्युपरि स्थापयितव्यानि। अथानुकृष्टिरचनोच्यते–तत्र अनुकृष्टिर्नाम अधस्तनसमयपरिणामखण्डानां उपरितनसमयपरिणामखण्डै: सादृश्यं भवति(102।6) अब सर्वजघन्यखण्डपरिणामानां 39 सर्वोत्कृष्टखण्डपरिणामानां 57 च कैरपि सादृश्यं नास्ति शेषाणामेवोपर्यधस्तनसमयवर्तिपरिणामपुञ्जानां यथासंभवं तथासंभवात्। ...अथ अर्थसंदृष्ट्याविन्यासो दृश्यते <strong>-</strong> तद्यथा<strong>-</strong>त्रिकालगोचरनानाजीवसंबन्धिन: अध:प्रवृत्तकरणकालसमस्तसमयसंभविन: सर्वपरिणामा असंख्यातलोकमात्रा: सन्ति।2। अध:प्रवृत्तकरणकालो गच्छ: (103/4)। अथाध:-प्रवृत्तकरणकालस्य प्रथमादिसमयपरिणामानां मध्ये त्रिकालगोचरनानाजीवसंबन्धिप्रथमसमयजघन्यमध्यमोत्कृष्टपरिणामसमूहस्याध:प्रवृत्तकरणकालसंख्यातैकभागमात्रनिर्वर्गणकाण्डकसमयसमानानि222 खण्डानि क्रियन्तेतानि चयाधिकानि भवन्ति। ऊर्ध्वरचनाचये अनुकृष्टिपदेन भक्ते लब्धमनुकृष्टि चयप्रमाणं भवति। (104/13)। पुन: द्वितीयसमयपरिणामप्रथमखण्डप्रथमसमयप्रथमखण्डाद्विशेषाधिकम्। (105/14)। द्वितीयसमयप्रथमखंडप्रथमसमयद्वितीयखण्डं च द्वे सदृशे तथा द्वितीयसमयद्वितीयादिखण्डानि प्रथमसमयतृतीयादिखण्डै: सह सदृशानि किंतु द्वितीयसमयचरमखण्डप्रथमसमयखण्डेषु केनापि सह सदृशं नास्ति। अतोऽग्रे ...अध:प्रवृत्तकरणकालचरमसमयपर्यन्तं नेतव्यानि(106/11)। </span>= <span class="HindiText">‘‘तोहिं अध:प्रवृत्तकरण के कालविषैं अत़ीत अनागत वर्तमान त्रिकालवर्ती नाना जीव सम्बन्धी विशुद्धतारूप इस करण के सर्व परिणाम असंख्यात लोक प्रमाण हैं। ...बहुरि तिनि परिणामनिविषैं तिस अध:प्रवृत्तकरणकाल का प्रथमसमयसम्बन्धी जेते परिणाम हैं तिनितैं लगाय द्वितीयादि समयनिविषै ऊपर-ऊपर अन्त समय पर्यन्त समान वृद्धि (चय) कर वर्द्धमान है (पृ.120)। अंक संदृष्टिकरि कल्पना रूप परिणाम लीएं दृष्टान्त मात्र कथन करिए है। सर्व अध:करण परिणामनि की संख्यारूप सर्वधन 3072। बहुरि अध:करण के काल के समयनि का प्रमाणरूप गच्छ16।बहुरि समय-समय परिणामनि की वृद्धि का प्रमाणरूप चय 4। (पृ.122)। तहाँ (16 समयनिविषैं) क्रमतैं एक-एक चय बधती परिणामनि की संख्याहो है – 162, 166, 170, 174, 178, 182, 186, 190, 194, 198, 202, 206, 210, 214, 218, 222 (सब का जोड़=3072)। ये उक्तराशियें अध:प्रवृत्तकरण के प्रथम समय से लगाकर उसके चरम समय पर्यन्त ऊपर-ऊपर स्थापन करने चाहिए। (पृ. 124)।। आगे अनुकृष्टि कहिये हैं। तहाँ नीचे के समय सम्बन्धी परिणामनि के जे खण्ड ते परस्पर समान जैसे होइ तैसे एक समय के परिणामनिविषै खण्डकरना तिसका नाम अनुकृष्टि जानना। ए खण्ड एक समयविषै युगपत् (अर्थात् एक समयवर्ती त्रिकालगोचर) अनेक जीवनि के पाइये तातै इनिको बरोबर स्थापन किए हैं (देखो आगे संदृष्टि का यन्त्र)। (प्रथम समय के कुल परिणामों की संख्या 162 कह आये हैं। उसके चार खण्ड करने पर अनुकृष्टि रचना में क्रम से 39, 40, 41, 42 हो है: इनका जोड़ 162 हो है। इतने-इतने अंक बरोबर स्थापन किये। इसी प्रकार द्वितीय समय के चार खण्ड 40, 41, 42, 43 हो है। इनका जोड़ 166 हो है। और इसी प्रकार आगे भी खण्ड करते-करते सोलवें समय के 54, 55, 56, 57 खण्ड जानने) इहाँ सर्व जघन्य खण्ड जो प्रथम समय का प्रथम खण्ड 39 ताकै परिणामनिकै अर सर्वोत्कृष्ट अन्त समय का अन्त खण्ड ‘57’ ताके परिणामनिकै किसी ही खण्ड के परिणामनिकरि सदृश समानता नाहीं है, जातै अवशेष समस्त ऊपर के व निचले समयसम्बन्धी खण्डनि का परिणाम पंजनिकै यथा सम्भव समानता सम्भवै है। (पृ. 125-126)।<br /> | ||
अब यथार्थ कथन करिये है... त्रिकालवर्ती नाना जीव | अब यथार्थ कथन करिये है... त्रिकालवर्ती नाना जीव सम्बन्धी समस्त अध:प्रवृत्तकरण के परिणाम असंख्यात लोकमात्र है, सो सर्वधन जानना ( सहनानी 3072)। बहुरि अध:प्रवृत्तकरण का काल अन्तर्मुहूर्त मात्र। ताके जेते समय होइ सो यहाँ गच्छ जानना (सहनानी 16)। श्रेणी गणित द्वारा चय व प्रथमादि समयों के परिणामों की संख्या तथा अनुकृष्टिगत परिणाम पुंज निकाले जा सकते हैं। (दे0‘गणित’/II/5)। (पृ.127) </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
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<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="661"> | <table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="661"> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">16 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">15 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">14 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">13 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">12 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">11 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">10 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">9 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">8 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">7 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">6 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">5 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">4 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">3 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">2 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">1 </span></p></td> | ||
<td width="60" valign="top"><p><span class="HindiText">समय </span></p></td> | <td width="60" valign="top"><p><span class="HindiText">समय </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">54 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">53 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">52 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">51 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">50 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">49 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">48 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">47 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">46 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">45 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">44 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">43 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">42 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">41 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">40 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">39 </span></p></td> | ||
<td width="60" valign="top"><p><span class="HindiText">प्र. | <td width="60" valign="top"><p><span class="HindiText">प्र. खण्ड </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">55 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">54 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">53 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">52 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">51 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">50 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">49 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">48 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">47 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">46 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">45 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">44 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">43 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">42 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">41 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">40 </span></p></td> | ||
<td width="60" valign="top"><p><span class="HindiText">द्वि. | <td width="60" valign="top"><p><span class="HindiText">द्वि.खण्ड </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">56 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">55 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">54 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">53 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">52 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">51 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">50 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">49 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">48 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">47 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">46 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">45 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">44 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">43 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">42 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">41 </span></p></td> | ||
<td width="60" valign="top"><p><span class="HindiText">तृ. | <td width="60" valign="top"><p><span class="HindiText">तृ.खण्ड </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">57 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">56 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">55 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">54 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">53 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">52 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">51 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">50 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">49 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">48 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">47 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">46 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">45 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">44 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">43 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">42 </span></p></td> | ||
<td width="60" valign="top"><p><span class="HindiText">च. | <td width="60" valign="top"><p><span class="HindiText">च.खण्ड </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">222 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">218 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">214 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">210 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">206 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">202 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">198 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">194 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">190 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">186 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">182 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">178 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">174 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">170 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">166 </span></p></td> | ||
<td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="37" valign="top"><p><span class="HindiText">162 </span></p></td> | ||
<td width="60" valign="top"><p><span class="HindiText">सर्वधन </span></p></td> | <td width="60" valign="top"><p><span class="HindiText">सर्वधन </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
Line 428: | Line 429: | ||
</table> | </table> | ||
<span class="HindiText"> | <span class="HindiText"> | ||
विशुद्ध परिणामनि की | विशुद्ध परिणामनि की संख्या त्रिकालवर्ती नाना जीवनिकै असंख्यात लोकमात्र है। तिनिविषै अध:प्रवृत्तकरण मांडै पहिला समय है ऐसे त्रिकाल सम्बन्धी अनेक जीवनिकै जे परिणाम सम्भवै तिनिके समूहकौ प्रथम समय परिणामपुंज कहिये है। बहुरि जिनि जीवनिकौ अध:करणमांडै दूसरा समय भया ऐसे त्रिकाल सम्बन्धी अनेक जीवनिकै जे परिणाम सम्भवै तिनिके समूह को द्वितीय समयपरिणामपुंज कहिये। ऐसे क्रमतै अंतसमय पर्यंत जानना।<br /> | ||
तहाँ प्रथमादि समय | तहाँ प्रथमादि समय सम्बन्धी परिणाम पुंज का प्रमाण श्रेढी गणित व्यवहार का विधान करि पहिले जुदा जुदा कह्या है। सो सर्व सम्बन्धी पुंजनि को जोड़ै असंख्यात लोकमात्र (3072) प्रमाण होई है। बहुरि इस अध:प्रवृत्तकरणकाल का प्रथमादि समय सम्बन्धी परिणामनि के विषै त्रिकालवर्ती नाना जीव सम्बन्धी प्रथम समय के जघन्य मध्यम उत्कृष्ट भेद लिये जो परिणाम पुंज कह्या (39, 40, ....57 तक), ताके अध:प्रवृत्तकरणकाल के जेते समय तिनिको संख्यात का भाग दिये जेता प्रमाण आवे तितना खण्ड करिये। ते खण्ड निर्वर्गणा काण्डक के जेते समय तितने हो है (4)। वर्गणा कहिये समयनि की समानता तीहिं करि रहित जे ऊपरि-ऊपरि समयवर्ती परिणाम खण्ड तिनिका जो काण्डक कहिए सर्वप्रमाण सो <strong>निर्वर्गणा काण्डक</strong> है। (चित्र में चार समयों के 16 परिणाम खण्डों का एक निर्वर्गणा काण्डक है)। तिनि निर्वर्गणा काण्डक के समयनि का जो प्रमाण सो अध:प्रवृत्तकरणरूप जो ऊर्ध्व गच्छ (अन्तर्मुहूर्त अथवा 16) ताके संख्यातवें भाग मात्र है (16/4 =4)। सो यहू प्रमाण अनुकृष्टि गच्छ का (39 से 42 तक=4) जानना। इस अनुकृष्टि गच्छ प्रमाण एक एकसमय सम्बन्धी परिणामनि विषै खण्ड हो है (चित्र में प्रदर्शित प्रत्येक समय सम्बन्धी परिणाम पुंज जो 4 है सो यथार्थ में संख्यात आवली प्रमाण है, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त ÷ संख्यात=संख्यात आवली) ते क्रमतै जानना। पृ. 128<br /> | ||
बहुरि इहां द्वितीय समय के प्रथम | बहुरि इहां द्वितीय समय के प्रथम खण्ड अर प्रथम समय का द्वितीयखण्ड (40) ये दोऊ समान हो है। तैसे ही द्वितीय समय का द्वितीयादि खण्ड अर प्रथम समय का तृतीयादि खण्ड दोऊ समान हो हैं। इतना विशेष है कि द्वितीय समय का अन्त खण्ड सो प्रथम समय का खण्डनिविषै किसी ही करि समान नाहीं।...ऐसे अध:प्रवृत्तकरणकाल का अन्तसमय पर्यंत जानने। (पृ.129)...<br /> | ||
ऐसे | ऐसे तिर्यग्रचना जो बरोबर (अनुकृष्टि) रचना तीहि विषै एक-एक समय सम्बन्धी खण्डनि के परिणामनि का प्रमाण कह्या। =पूर्वै अध:करण का एक-एक समय विषै सम्भवतै नाना जीवनि के परिणामनि का प्रमाण कह्या था। अत: तिस विषै जुदे-जुदे सम्भवते ऐसे एक-एक समय सम्बन्धी खण्डनि विषै परिणामनि का प्रमाण इहां कह्या है। जो ऊपरि के और नीचे के समय सम्बन्धी खण्डनि विषै परस्पर समानता पाइये हैं; तातै अनुकृष्टि ऐसा नाम इहां सम्भवै है। जितनी संख्या लीए ऊपरि के समय विषै कोई परिणाम खण्ड हो है तितनी संख्या लीए निचले समय विषै भी परिणाम खण्ड हो हैं। ऐसै निचले समयसम्बन्धी परिणाम खण्डतैं ऊपरि के समय सम्बन्धी परिणाम खण्ड विषै समानता जानि इसका नाम अध:प्रवृत्तकरण कहा है।(पृ.130)। (ध.6/1,9-8,4/214-217)<br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<ol start="4"> | <ol start="4"> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> परिणाम | <li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> परिणाम संख्या में अंकुश व लांगल रचना</strong></span><br /> | ||
गो.जी./जी.प्र./ | गो.जी./जी.प्र./49/108/9<span class="SanskritText"> प्रथमसमयानुकृष्टिप्रथमसर्वजघन्यखण्डस्य 39 चरिमसमयपरिणामानां चरमानुकृष्टिसर्वोत्कृष्टखण्डस्य 57 च कुत्रापिसादृश्यं नास्ति शेषोपरितनसमयवर्तिखण्डानामधस्तनसमयवर्तिखण्डै:, अथवा अधस्तनसमयवर्तिखण्डानां उपरितनसमयवर्तिखण्डै: सह यथासंभवं सादृश्यमस्ति। द्वितीयसमया 40 द्विचरमसमयपर्यन्तं 53 प्रथमप्रथमखण्डानि चरमसमयप्रथमखण्डाद् द्विचरमसमयपर्यंतखण्डानि च 54/55/56। स्वस्वोपरितनसमयपरिणामै: सह सादृश्याभावात् असदृशानि। इयमङ्कुशरचनेत्युच्यते। तथा द्वितीयसमया 43 द्विचरमसमय 56 पर्यंतं चरमचरमखण्डानि प्रथमसमयप्रथमखण्डं 39 वर्जितशेषखण्डानि च स्वस्वाधस्तनसमयपरिणामे: सह सादृश्याभावाद् विसदृशानि इयं लाङ्गलरचनेत्युच्यते। </span>=<span class="HindiText">बहुरि इहां विशेष है सो कहिये है- प्रथम समय सम्बन्धी प्रथम खण्ड(39) सो सर्व से जघन्य खण्ड है। बहुरि अन्त समय सम्बन्धी अन्त का अनुकृष्टि खण्ड (57) सो सर्वोत्कृष्ट है। सो इन दोऊनिकै कहीं अन्य खण्डकरि समानता नाहीं है। बहुरि अवशेष ऊपरि समय सम्बन्धीखण्डनिकै नीचले समय सम्बन्धी खण्डनि सहित अथवा नीचले समय सम्बन्धी खण्डनिकै ऊपरि समय सम्बन्धी खण्डनि सहित यथा सम्भव समानता है। तहां द्वितीय समयतै लगाय द्विचरम समय पर्यंत जे समय(2 से 15 तक के समय) तिनिका पहिला पहिला खण्ड (40-53); अर अंत (नं.16) समय के प्रथम खण्डतै लगाय द्विचरम खण्ड पर्यंत (54-56) अपने-अपने उपरि के समय सम्बन्धी खण्डनिकरि समान नाहीं है, तातै असदृश हैं। सो द्वितीयादि चरम समय पर्यंत सम्बन्धी खण्डनि की ऊर्ध्व रचना कीएं उपरि अन्त समय के प्रथमादि द्विचरम पर्यंत खण्डनि की तिर्यक् रचना कीएं अंकुश के आकार की रचना हो है। तातै याकूं <strong>अंकुश रचना</strong> कहिये। बहुरि द्वितीय समयतै लगाई द्विचरम समय पर्यंत सम्बन्धी अंत-अंत के खण्ड अर प्रथम समय सम्बन्धी प्रथम खण्ड(39) बिना अन्य सर्व खण्ड ते अपने-अपने नीचले समय सम्बन्धी किसी ही खण्डनिकरि समान नाहीं तातै असदृश है। सो इहां द्वितीयादि द्विचरम पर्यन्त समय सम्बन्धी अंत-अंत खण्डनिकौ ऊर्ध्व रचना कीएं अर नीचे प्रथम समय के द्वितीयादि अंत पर्यंत खण्डनि की तिर्यक् रचना कीए, हल के आकार रचना हो है। तातै याकूं <strong>लांगल चित्र</strong> कहिये।</span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 442: | Line 443: | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="46" rowspan="4" valign="top"><p><span class="HindiText">समय<br /> | <td width="46" rowspan="4" valign="top"><p><span class="HindiText">समय<br /> | ||
16<br /> | |||
15<br /> | |||
14<br /> | |||
13<br /> | |||
12<br /> | |||
11<br /> | |||
10<br /> | |||
9<br /> | |||
8<br /> | |||
7<br /> | |||
6<br /> | |||
5<br /> | |||
4<br /> | |||
3<br /> | |||
2<br /> | |||
1 </span></p></td> | |||
<td width="207" colspan="3" valign="top"><p> </p></td> | <td width="207" colspan="3" valign="top"><p> </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="171" colspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="171" colspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">5455 56 </span></p></td> | ||
<td width="36" valign="top"><p> </p></td> | <td width="36" valign="top"><p> </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="33" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="33" valign="top"><p><span class="HindiText">53<br /> | ||
52<br /> | |||
51<br /> | |||
50<br /> | |||
49<br /> | |||
48<br /> | |||
47<br /> | |||
46<br /> | |||
45<br /> | |||
44<br /> | |||
43<br /> | |||
42<br /> | |||
41<br /> | |||
40 </span></p></td> | |||
<td width="138" valign="top"><p align="center"><span class="HindiText">अंकुश रचना </span></p> | <td width="138" valign="top"><p align="center"><span class="HindiText">अंकुश रचना </span></p> | ||
<p align="center"> </p> | <p align="center"> </p> | ||
<p align="center"> </p> | <p align="center"> </p> | ||
<p align="center"><span class="HindiText">लांगल रचना </span></p></td> | <p align="center"><span class="HindiText">लांगल रचना </span></p></td> | ||
<td width="36" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="36" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">56<br /> | ||
55<br /> | |||
54<br /> | |||
53<br /> | |||
52<br /> | |||
51<br /> | |||
50<br /> | |||
49<br /> | |||
48<br /> | |||
47<br /> | |||
46<br /> | |||
45<br /> | |||
44<br /> | |||
43</span></p> | |||
<p><span class="HindiText"> | <p><span class="HindiText">42 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="33" valign="top"><p> </p></td> | <td width="33" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="138" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="138" valign="top"><p><span class="HindiText">40 41 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
</table> | </table> | ||
<p><span class="HindiText"> | <p><span class="HindiText">बहुरि जघन्य उत्कृष्ट खण्ड अर उपरि नीचै समय सम्बन्धी खण्डनि की अपेक्षा कहे असदृश खण्ड तिनि खण्डनि बिना अवशेष सर्वखण्ड अपने ऊपरिकै और नीचले समयसम्बन्धी खण्डनिकरि यथा सम्भव समान है। (पृ.130-131)। (अंकुश रचना के सर्व परिणाम यद्यपि अपने से नीचेवाले समयों के किन्हीं परिणाम खण्डों से अवश्य मिलते हैं, परन्तु अपने से ऊपरवाले समयों के किसी भी परिणाम खण्ड के साथ नहीं मिलते। इसी प्रकार लांगल रचना के सर्व परिणाम यद्यपि अपने से ऊपरवाले समयों के किन्हीं परिणाम खण्डों से अवश्य मिलते हैं, परन्तु अपने से नीचेवाले समयों के किसी भी परिणाम खण्ड के साथ नहीं मिलते। इनके अतिरिक्त बीच के सर्व परिणाम खण्ड अपने ऊपर अथवा नीचे दोनों ही समयों के परिणाम खण्डों के साथ बराबर मिलते ही हैं। (ध.6/1,9-8,4/217/1)। </span></p> | ||
<ol> | <ol> | ||
<ol start="5"> | <ol start="5"> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> परिणामों की विशुद्धता के अविभाग | <li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> परिणामों की विशुद्धता के अविभाग प्रतिच्छेद, अंक संदृष्टि व यंत्र</strong></span><br /> | ||
गो.जी./जी.प्र./ | गो.जी./जी.प्र./49/109/1 <span class="SanskritText">तत्राध:प्रवृत्तकरणपरिणामेषु प्रथमसमयपरिणामखण्डानां मध्ये प्रथमखण्डपरिणामा असंख्यातलोकमात्रा:.... अपवर्तितास्तदा संख्यातप्रतरावलिभक्तासंख्यातलोकमात्रा भवन्ति। अमी च जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नानां...। द्वितीयसमयप्रथमखण्डपरिणामाश्चयाधिका जघन्यमध्यमोत्कृष्टविकल्पा: प्राग्वदसंख्यातलोकषट्स्थानवृद्धिवर्द्धिता: प्रथमखण्डपरिणामा: सन्ति। एवं तृतीयसमयादिचरमसमयपर्यन्त चयाधिका: प्रथमखण्डपरिणामा: सन्ति तथा प्रथमादिसमयेषु द्वितीयादिखण्डपरिणामा: अपि चयाधिका: सन्ति। </span>= <span class="HindiText">अब विशुद्धता के अविभाग प्रतिच्छेदनि की अपेक्षा वर्णन करिए है। तिनिकी अपेक्षा गणना करि पूर्वोक्त अध:करणनि के खण्डनि विषै अल्पबहुत्व वर्णन करै है – तहाँ अध:प्रवृत्तकरण के परिणामनिविषै प्रथम समय सम्बन्धी परिणाम, तिनि के खण्डनिविषै जे प्रथम खण्ड के परिणाम तै सामान्यपनै असंख्यातलोकमात्र (39) है। तथापि पूर्वोक्त विधान के अनुसार...संख्यात प्रतरावली को जाका भाग दीजिए ऐसा असंख्यातलोक मात्र हैं (अर्थात् असं/सं. प्रतरावली-लोक के प्रदेश)। ते ए परिणाम अविभाग प्रतिच्छेदनि की अपेक्षा जघन्य मध्यम उत्कृष्ट भेद लिये हैं। ...क्रमतै प्रथम परिणामतै लगाइ इतने परिणाम (देखो एक षट्स्थान पतित हानि-वृद्धि का रूप) भए पीछे एक बार षट्स्थान वृद्धि पूर्ण होतै (अर्थात् पूर्ण होती है)। (ऐसी-ऐसी) असंख्यात लोकमात्र बार षट् स्थान पतित वृद्धि भए तिस प्रथम खण्ड के सब परिणामनि की संख्या (39) पूर्ण होई हैं। (जैसे संदृष्टि = सर्व जघन्य विशुद्धि = 8; एक षट्स्थान पतित वृद्धि = 6; असंख्यात लोक = 10। तो प्रथम खण्ड के कुल परिणाम 8×6×10 = 480। इनमें प्रत्येक परिणाम षट्स्थान पतित वृद्धि में बताये अनुसार उत्तरोत्तर एक-एक वृद्धिंगत स्थान रूप है) यातै असंख्यात लोकमात्र षट्स्थान पतित वृद्धि करि वर्द्धमान प्रथम खण्ड के परिणाम हैं।पृ.132।<br /> | ||
तैसे ही द्वितीय समय के प्रथम | तैसे ही द्वितीय समय के प्रथम खण्ड का परिणाम (40) अनुकृष्टि चयकरि अधिक है। तै जघन्य मध्यम उत्कृष्ट भेद लिये हैं। सो ये भी पूर्वोक्त प्रकार असंख्यात लोकमात्र षट्स्थान पतित वृद्धिकरि वर्द्धमान है।...(एक अनुकृष्टि चय में जितनी षट्स्थानपतित वृद्धि सम्भवे है) तितनी बार अधिक षट्स्थानपतित वृद्धि प्रथम समय के प्रथम खण्डतै द्वितीय समय के प्रथम खण्ड में सम्भवै है। (अर्थात् यदि प्रथम विकल्प में 6 बार वृद्धि ग्रहण की थी तो यहाँ 7 बार ग्रहण करना)। ऐसे ही तृतीय आदि अन्तपर्यन्त समयनिकै प्रथम खण्ड के परिणाम एक अनुकृष्टि चयकरि अधिक है। बहुरि तैसे ही प्रथमादि समयनिकै अपने-अपने प्रथम खण्डतै द्वितीय आदि खण्डनि के परिणाम भी क्रमतै एक-एक चय अधिक है। तहाँ यथासम्भव षट्स्थान पतित वृद्धि जेती बार होइ तितना प्रमाण (प्रत्येक खण्ड के प्रति) जानना। (पृ. 133)।<br /> | ||
<strong> | <strong>स्व कृत संदृष्टि व यन्त्र –</strong> उपरोक्त कथन के तात्पर्यपर से निम्नप्रकार संदृष्टि की जा सकती है। -सर्व जघन्य परिणाम की विशुद्धि = 8 अविभाग प्रतिच्छेद; तथा प्रत्येक अनन्तगुणवृद्धि = 1 की वृद्धि। यन्त्र में प्रत्येक खण्ड के जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त के सर्व परिणाम दर्शाने के लिए जघन्य व उत्कृष्टवाले दो ही अंक दर्शाये जायेंगे। तहाँ बीच के परिणामों की विशुद्धता क्रम से एक-एक वृद्धि सहित योग्य प्रमाण में जान लेना।</span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</ol> | </ol> | ||
<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0"> | <table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0"> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="40" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">निर्वर्गणा | <td width="40" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">निर्वर्गणा काण्डक </span></p></td> | ||
<td width="40" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">समय </span></p></td> | <td width="40" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">समय </span></p></td> | ||
<td width="40" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">कुल परिणाम </span></p></td> | <td width="40" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">कुल परिणाम </span></p></td> | ||
<td width="117" colspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">प्रथम | <td width="117" colspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">प्रथम खण्ड </span></p></td> | ||
<td width="126" colspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">द्वितीय | <td width="126" colspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">द्वितीय खण्ड </span></p></td> | ||
<td width="140" colspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">तृतीय | <td width="140" colspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">तृतीय खण्ड </span></p></td> | ||
<td width="113" colspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">चतुर्थ | <td width="113" colspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">चतुर्थ खण्ड </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">परिणाम </span></p></td> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">परिणाम </span></p></td> | ||
<td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText">ज0 से उ0विशुद्धता </span></p></td> | ||
<td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText">परिणाम </span></p></td> | <td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText">परिणाम </span></p></td> | ||
<td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText">ज0 से उ0विशुद्धता </span></p></td> | ||
<td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText">परिणाम </span></p></td> | <td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText">परिणाम </span></p></td> | ||
<td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText">ज0 से उ0विशुद्धता </span></p></td> | ||
<td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText">परिणाम </span></p></td> | <td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText">परिणाम </span></p></td> | ||
<td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText">ज0 से उ0विशुद्धता </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="40" rowspan="4" valign="top"><p><span class="HindiText">चतुर्थ </span></p></td> | <td width="40" rowspan="4" valign="top"><p><span class="HindiText">चतुर्थ </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">16 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">222 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">54 </span></p></td> | ||
<td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText">698-751 </span></p></td> | ||
<td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText">55 </span></p></td> | ||
<td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText">752-806 </span></p></td> | ||
<td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText">56 </span></p></td> | ||
<td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText">807-862 </span></p></td> | ||
<td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText">57 </span></p></td> | ||
<td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText">863-919 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">15 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">218 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">53 </span></p></td> | ||
<td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText">645-697 </span></p></td> | ||
<td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText">54 </span></p></td> | ||
<td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText">698-751 </span></p></td> | ||
<td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText">55 </span></p></td> | ||
<td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText">752-806 </span></p></td> | ||
<td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText">56 </span></p></td> | ||
<td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText">807-862 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">14 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">214 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">52 </span></p></td> | ||
<td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText">593-644 </span></p></td> | ||
<td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText">53 </span></p></td> | ||
<td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText">645-697 </span></p></td> | ||
<td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText">54 </span></p></td> | ||
<td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText">698-751 </span></p></td> | ||
<td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText">55 </span></p></td> | ||
<td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText">752-806 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">13 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">210 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">51 </span></p></td> | ||
<td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText">542-592 </span></p></td> | ||
<td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText">52 </span></p></td> | ||
<td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText">593-644 </span></p></td> | ||
<td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText">53 </span></p></td> | ||
<td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText">645-697 </span></p></td> | ||
<td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText">54 </span></p></td> | ||
<td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText">698-751 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="40" rowspan="4" valign="top"><p><span class="HindiText">तृतीय </span></p></td> | <td width="40" rowspan="4" valign="top"><p><span class="HindiText">तृतीय </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">12 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">206 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">50 </span></p></td> | ||
<td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText">492-541 </span></p></td> | ||
<td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText">51 </span></p></td> | ||
<td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText">542-592 </span></p></td> | ||
<td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText">52 </span></p></td> | ||
<td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText">593-644 </span></p></td> | ||
<td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText">53 </span></p></td> | ||
<td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText">645-697 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">11 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">202 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">49 </span></p></td> | ||
<td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText">443-491 </span></p></td> | ||
<td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText">50 </span></p></td> | ||
<td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText">492-541 </span></p></td> | ||
<td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText">51 </span></p></td> | ||
<td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText">542-592 </span></p></td> | ||
<td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText">52 </span></p></td> | ||
<td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText">593-644 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">10 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">198 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">48 </span></p></td> | ||
<td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText">395-442 </span></p></td> | ||
<td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText">49 </span></p></td> | ||
<td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText">443-491 </span></p></td> | ||
<td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText">50 </span></p></td> | ||
<td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText">492-541 </span></p></td> | ||
<td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText">51 </span></p></td> | ||
<td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText">542-592 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">9 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">194 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">47 </span></p></td> | ||
<td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText">348-394 </span></p></td> | ||
<td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText">48 </span></p></td> | ||
<td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText">395-442 </span></p></td> | ||
<td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText">49 </span></p></td> | ||
<td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText">443-491 </span></p></td> | ||
<td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText">50 </span></p></td> | ||
<td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText">492-541 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="40" rowspan="4" valign="top"><p><span class="HindiText">द्वितीय </span></p></td> | <td width="40" rowspan="4" valign="top"><p><span class="HindiText">द्वितीय </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">8 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">190 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">46 </span></p></td> | ||
<td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText">302-347 </span></p></td> | ||
<td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText">47 </span></p></td> | ||
<td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText">348-394 </span></p></td> | ||
<td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText">48 </span></p></td> | ||
<td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText">395-442 </span></p></td> | ||
<td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText">49 </span></p></td> | ||
<td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText">443-491 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">7 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">186 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">45 </span></p></td> | ||
<td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText">257-301 </span></p></td> | ||
<td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText">46 </span></p></td> | ||
<td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText">302-347 </span></p></td> | ||
<td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText">47 </span></p></td> | ||
<td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText">348-394 </span></p></td> | ||
<td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText">48 </span></p></td> | ||
<td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText">395-442 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">6 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">182 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">44 </span></p></td> | ||
<td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText">213-256 </span></p></td> | ||
<td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText">45 </span></p></td> | ||
<td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText">257-301 </span></p></td> | ||
<td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText">46 </span></p></td> | ||
<td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText">302-347 </span></p></td> | ||
<td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText">47 </span></p></td> | ||
<td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText">348-394 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">5 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">178 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">43 </span></p></td> | ||
<td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText">170-212 </span></p></td> | ||
<td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText">44 </span></p></td> | ||
<td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText">213-256 </span></p></td> | ||
<td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText">45 </span></p></td> | ||
<td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText">257-301 </span></p></td> | ||
<td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText">46 </span></p></td> | ||
<td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText">302-347 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="40" rowspan="4" valign="top"><p><span class="HindiText">प्रथम </span></p></td> | <td width="40" rowspan="4" valign="top"><p><span class="HindiText">प्रथम </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">4 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">174 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">42 </span></p></td> | ||
<td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText">128-169 </span></p></td> | ||
<td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText">43 </span></p></td> | ||
<td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText">170-212 </span></p></td> | ||
<td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText">44 </span></p></td> | ||
<td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText">213-256 </span></p></td> | ||
<td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText">45 </span></p></td> | ||
<td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText">257-301 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">3 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">170 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">41 </span></p></td> | ||
<td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText">87-127 </span></p></td> | ||
<td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText">42 </span></p></td> | ||
<td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText">128-169 </span></p></td> | ||
<td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText">43 </span></p></td> | ||
<td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText">170-212 </span></p></td> | ||
<td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText">44 </span></p></td> | ||
<td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText">213-256 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">2 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">166 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">40 </span></p></td> | ||
<td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText">47-86 </span></p></td> | ||
<td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText">41 </span></p></td> | ||
<td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText">87-127 </span></p></td> | ||
<td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText">42 </span></p></td> | ||
<td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText">128-169 </span></p></td> | ||
<td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText">43 </span></p></td> | ||
<td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText">170-212 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">1 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">162 </span></p></td> | ||
<td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="40" valign="top"><p><span class="HindiText">39 </span></p></td> | ||
<td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="77" valign="top"><p><span class="HindiText">8-46 </span></p></td> | ||
<td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="46" valign="top"><p><span class="HindiText">40 </span></p></td> | ||
<td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="80" valign="top"><p><span class="HindiText">47-86 </span></p></td> | ||
<td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="51" valign="top"><p><span class="HindiText">41 </span></p></td> | ||
<td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="89" valign="top"><p><span class="HindiText">87-127 </span></p></td> | ||
<td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="38" valign="top"><p><span class="HindiText">42 </span></p></td> | ||
<td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="75" valign="top"><p><span class="HindiText">128-169 </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 733: | Line 734: | ||
</tr> | </tr> | ||
</table> | </table> | ||
<p><span class="HindiText">यहाँ | <p><span class="HindiText">यहाँ स्पष्ट रीति से ऊपर और नीचे के समयों के परिणामों की विशुद्धता में यथायोग्य समानता देखी जा सकती है। जैसे 6ठे समय के द्वितीय खण्ड के 45 परिणामों में से नं.1 वाला परिणाम 257 अविभाग प्रतिच्छेदवाला है। यदि एक की वृद्धि के हिसाब से देखें तो इस ही का नं. 25वाँ [257+(25-1)]= 281 है। इसी प्रकार चौथे समय के चौथे खण्ड का 25वाँ परिणाम भी 281 अविभाग प्रतिच्छेदवाला है। इसलिए समान है।<br /> | ||
</span></p> | </span></p> | ||
<ol> | <ol> | ||
<ol start="6"> | <ol start="6"> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> परिणामों की विशुद्धता का | <li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> परिणामों की विशुद्धता का अल्प-बहुत्व तथा उसकी सर्पवत् चाल</strong></span><br /> | ||
गो.जी./जी.प्र./ | गो.जी./जी.प्र./49/110/1 <span class="SanskritText">तेषां विशुद्ध्यल्पबहुत्वमुच्यते तद्यथा <strong>-</strong> प्रथमसमयप्रथमखण्डजघन्यपरिणामविशुद्धि: सर्वत: स्तोकापि जीवराशितोऽनन्तगुणा अविभागप्रतिच्छेदसमूहात्मिका भवति 16 ख। अतस्तदुत्कृष्टपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा। ततो द्वितीयखण्डजघन्यपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा। ततस्त- दुत्कृष्टपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा। एवं तृतीयादिखण्डेष्वपि जघन्योत्कृष्टपरिणामविशुद्धयोऽनन्तगुणानन्तगुणाञ्चरमखण्डोत्कृष्टपरिणामविशुद्धिपर्यंतं वर्तन्ते। पुन: प्रथमसमयप्रथमखण्डोत्कृष्टपरिणामविशुद्धितो द्वितीयसमयप्रथमखण्डजघन्यपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा। ततस्तदुत्कृष्टपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा। ततो द्वितीयखण्डजघन्यपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा ततस्तदुत्कृष्टपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा। एवं तृतीयादिखण्डेष्वपि जघन्योत्कृष्टपरिणामविशुद्धयोऽनन्तगुणितक्रमेण द्वितीयसमयचरमखण्डोत्कृष्टपरिणामविशुद्धिपर्यन्तं गच्छन्ति। अनेन मार्गेण तृतीयादिसमयेष्वपि निर्वर्गणकाण्डकद्विचरमसमयपर्यन्तं जघन्योत्कृष्टपरिणामविशुद्धयोऽनन्तगुणितक्रमेण नेतव्या:। प्रथमनिर्वर्गणकाण्डकचरमसमयप्रथमखण्डजघन्यपरिणामविशुद्धित: प्रथमसमयचरमखण्डोत्कृष्टपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा। ततो द्वितीयनिर्वर्गणकाण्डकप्रथमसमयप्रथमखण्डजघन्यपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा। ततस्तत्प्रथमनिर्वर्गणकाण्डकद्वितीयसमय- चरमखण्डोत्कृष्टपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा। ततो द्वितीयनिर्वर्गणकाण्डकद्वितीयसमयप्रथमखण्डजघन्य-परिणामविशुद्धिरनन्तगुणा। तत: प्रथमनिर्वर्गणकाण्डकतृतीयसमयचरमखण्डोत्कृष्टपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा एवमहिगत्या जघन्यादुत्कृष्टं उत्कृष्टाज्जघन्यमित्यनन्तगुणितक्रमेण परिणामविशुद्धिर्नीत्वा चरम- निर्वर्गणकाण्डकचरमसमयप्रथमखण्डजघन्यपरिणामविशुद्धिरनन्तानन्तगुणा। कुत:। पूर्वपूर्वविशुद्धितोऽनन्तानन्तगुणासिद्धत्वात्। ततश्चरमनिर्वर्गणकाण्डकप्रथमसमयचरमखण्डोत्कृष्टपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा। ततस्तदुपरि चरमनिर्वर्गणकाण्डकचरमसमयचरमखण्डोत्कृष्टपरिणामविशुद्धिपर्यन्ता उत्कृष्टखण्डोत्कृष्ट- परिणामविशुद्धयोऽनन्तगुणितक्रमेण गच्छन्ति। तन्मध्ये या जघन्योत्कृष्टपरिणामविशुद्धयोऽनन्तानन्तगुणिता: सन्ति ता न विवक्षिता इति ज्ञातव्यम्।</span> = <span class="HindiText">अब तिनि खण्डनिकै विशुद्धता का अविभाग प्रतिच्छेदनि की अपेक्षा अल्पबहुत्व कहिए है – प्रथम समय सम्बन्धी प्रथम खण्ड का जघन्य परिणाम की विशुद्धता अन्य सर्व तै स्तोक है। तथापि जीव राशि का जो प्रमाण तातै अनन्तगुणा अविभाग प्रतिच्छेदनिकै समूह को धारै है। बहुरि यातै तिसही प्रथम समय का प्रथम खण्ड का उत्कृष्ट परिणाम की विशुद्धता अनन्तगुणी है। तातै द्वितीय खण्ड की जघन्य परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी है। तातै तिस ही का उत्कृष्ट परिणाम की विशुद्धता अनन्तगुणी है। ऐसे ही क्रमतै तृतीयादि खण्डनिविषै भी जघन्य उत्कृष्ट परिणामनि की विशुद्धता अनन्तगुणी अनन्तगुणी अन्त का खण्ड की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धि पर्यंत प्रवर्तै है। (पृ.133)। बहुरि प्रथम समयसम्बन्धी प्रथम खण्ड की उत्कृष्ट-परिणाम-विशुद्धतातै द्वितीय समय के प्रथम खण्ड की जघन्य परिणाम विशुद्धता (प्रथम समय के द्वितीय खण्डवत्) अनन्तगुणी है। तातै तिस ही की उत्कृष्ट विशुद्धता अनन्तगुणी है तातै तिस ही के द्वितीय खण्ड की जघन्य परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी है। तातै तिस ही की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी है। ऐसे तृतीयादि खण्डनिविषै भी जघन्य उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी अनुक्रमकरि; द्वितीय समय का अन्त खण्ड की उत्कृष्ट विशुद्धता पर्यन्त प्राप्त हो है। (पृ.133) । बहुरि इस ही मार्गकरि तृतीयादि समयखण्डनिविषै भी पूर्वोक्त लक्षणयुक्त जो निर्वर्गणा काण्डक ताका द्विचरम समय पर्यन्त जघन्य उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनन्त गुणानुक्रमकरि ल्यावनी। बहुरि प्रथम निर्वर्गणा काण्डक का अन्त समय सम्बन्धी प्रथमखण्ड की जघन्य विशुद्धतातै प्रथम समय का अन्त खण्ड की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी है। तातै दूसरे निर्वर्गणा काण्डक का प्रथम समय सम्बन्धी प्रथम खण्ड की जघन्य परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी है । तातै तिस प्रथम निर्वर्गणा काण्डक का द्वितीय समय सम्बन्धी अन्त खण्ड की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी है। तातै द्वितीय निर्वर्गणा काण्डक का द्वितीय समय सम्बन्धी प्रथम खण्ड की जघन्य परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी है। तातै प्रथम निर्वर्गणा काण्डक का तृतीय समय सम्बन्धी अन्त खण्ड की उत्कृष्ट विशुद्धता अनन्तगुणी है। या प्रकार जैसे सर्प की चाल इधरतै उधर और उधरतै इधर पलटनि रूप हो है तैसे जघन्यतै उत्कृष्ट और उत्कृष्टतै जघन्य ऐसे पलटनि विषै अनन्तगुणी अनुक्रमकरि विशुद्धता प्राप्त करिए।</span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 744: | Line 745: | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="35" valign="top"><p><span class="HindiText">उ.</span></p> | <td width="35" valign="top"><p><span class="HindiText">उ.</span></p> | ||
<p><span class="HindiText"> | <p><span class="HindiText">43</span></p></td> | ||
<td width="32" rowspan="2" valign="top"><p> </p></td> | <td width="32" rowspan="2" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="32" rowspan="2" valign="top"><p> </p></td> | <td width="32" rowspan="2" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="32" valign="top"><p><span class="HindiText">उ. </span></p> | <td width="32" valign="top"><p><span class="HindiText">उ. </span></p> | ||
<p><span class="HindiText"> | <p><span class="HindiText">42 </span></p></td> | ||
<td width="32" rowspan="2" valign="top"><p> </p></td> | <td width="32" rowspan="2" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="32" rowspan="2" valign="top"><p> </p></td> | <td width="32" rowspan="2" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="32" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">उ. </span></p> | <td width="32" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">उ. </span></p> | ||
<p><span class="HindiText"> | <p><span class="HindiText">41 </span></p></td> | ||
<td width="32" valign="top"><p> </p></td> | <td width="32" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="32" rowspan="2" valign="top"><p> </p></td> | <td width="32" rowspan="2" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="32" rowspan="2" valign="top"><p> </p></td> | <td width="32" rowspan="2" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="32" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">उ. </span></p> | <td width="32" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">उ. </span></p> | ||
<p><span class="HindiText"> | <p><span class="HindiText">40 </span></p></td> | ||
<td width="32" valign="top"><p> </p></td> | <td width="32" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="32" rowspan="2" valign="top"><p> </p></td> | <td width="32" rowspan="2" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="32" rowspan="2" valign="top"><p> </p></td> | <td width="32" rowspan="2" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="35" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">उ. </span></p> | <td width="35" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">उ. </span></p> | ||
<p><span class="HindiText"> | <p><span class="HindiText">39</span></p> | ||
<p> </p></td> | <p> </p></td> | ||
<td width="32" valign="top"><p> </p></td> | <td width="32" valign="top"><p> </p></td> | ||
Line 776: | Line 777: | ||
</table> | </table> | ||
<p><span class="HindiText">ज. ज. ज. ज. ज. <br /> | <p><span class="HindiText">ज. ज. ज. ज. ज. <br /> | ||
पीछे | पीछे अन्त का निर्वर्गणा काण्डक का अन्त समय सम्बन्धी प्रथम खण्ड की जघन्य परिणाम विशुद्धता अनन्तानन्तगुणी है। काहै तै ? यातै पूर्व पूर्व विशुद्धतातै अनन्तानन्तगुणापनौ सिद्ध है। बहुरि तातै अन्त का निर्वर्गणा काण्डक का प्रथम समय सम्बन्धी अन्त खण्ड की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी है। ताकै ऊपरि अन्त का निर्वर्गणा काण्डक का अन्त समय सम्बन्धी अन्तखण्ड की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता पर्यन्त अनन्तगुणा अनुक्रमकरि प्राप्त हो है। तिनि विषै जे (ऊपरिकै) जघन्यतै (नीचेके) उत्कृष्ट परिणामनि की विशुद्धता अनन्तानन्तगुणी है ते इहाँ विवक्षा रूप नाहीं है, ऐसे जानना। (ध.6/1,9-8,4/218-219)।<br /> | ||
(ऊपर-ऊपर के समयों के प्रथम | (ऊपर-ऊपर के समयों के प्रथम खण्डों की जघन्य परिणाम विशुद्धि से एक निर्वर्गणा काण्डक नीचे के अन्तिम समयसम्बन्धी अन्तिम खण्ड की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धि अनन्तगुणी कही गयी है।) उसकी संदृष्टि – (ध. 6/1,9-8,4/219) (गो.जी./जी.प्र व भाषा/49/120)। </span></p> | ||
<p><span class="HindiText">यहाँ एक चित्र आना है वह बाद में भेजूँगा। </span></p> | <p><span class="HindiText">यहाँ एक चित्र आना है वह बाद में भेजूँगा। </span></p> | ||
<ol> | <ol> | ||
<ol start="7"> | <ol start="7"> | ||
<li><span class="HindiText" name="4.7" id="4.7"><strong>अध:प्रवृत्तकरण के चार | <li><span class="HindiText" name="4.7" id="4.7"><strong>अध:प्रवृत्तकरण के चार आवश्यक</strong> </span><br /> | ||
6/1-9-8,5/222/9 <span class="PrakritText">अधापवत्तकरणे ताव ट्ठिदिखंडगो वा अणुभागखंडगो वा गुणसेडी वा गुणसंकमो वा णत्थि। कुदो। एदेसिं परिणामाणं पुव्वुत्तचउव्विहकज्जुप्पायणसत्तीए अभावादो। केवलमणंतगुणाए विसोहीए पडिसमयं विसुज्झंतो अप्पसत्थाणं कम्माणं वेट्ठाणियमणुभागं समयं पडि अणंतगुणहीणं बंधदि, पसत्थाणं कम्माणमणुभागं चदुट्ठाणियं समयं पडि अणंतगुणं बंधदि। एत्थट्ठिदिबंधकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो। पुण्णे पुण्णे ट्ठिदिबंधे पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेणूणियमण्णं ट्ठिदिं बंधदि। एवं संखेज्जसहस्सवारं ट्ठिदिबंधोसरणेसु कदेसु अधापवत्तकरणद्धा समप्पदि। अधापवत्तकरणपढमसमयट्ठिदिबंधादो चरिमसमयट्ठिदिबंधो संखेज्जगुणहीणे। एत्थेव पढमसम्मत्तसंजमासंजमाभिमुहस्स ट्ठिदिबंधोसंखेज्जगुणहीणो, पढमसम्मत्तसंजमाभिमुहस्स अधापवत्तकरणचरिमसमयट्ठिदिबंधो संखेज्जगुणहीणो।</span>=<span class="HindiText">अध:प्रवृत्तकरण में स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात, गुणश्रेणी, और गुण संक्रमण नहीं होता है; क्योंकि इन अध:प्रवृत्तपरिणामों के पूर्वोक्त चतुर्विध कार्यों के उत्पादन करने की शक्ति का अभाव है।– </span> | |||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"> केवल | <li class="HindiText"> केवल अनन्तगुणी विशुद्धि के द्वारा प्रतिसमय विशुद्धि को प्राप्त होता हुआ यह जीव – </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> अप्रशस्त कर्मों के द्विस्थानीय अर्थात् निंब और कांजीररूप अनुभाग को समय समय के प्रति अनन्तगुणित हीन बान्धता है; </li> | ||
<li class="HindiText"> और | <li class="HindiText"> और प्रशस्त कर्मों के गुड़ खाण्ड आदि चतु:स्थानीय अनुभाग को प्रतिसमय अनन्तगुणित बान्धता है। </li> | ||
<li><span class="HindiText"> यहाँ अर्थात् अध:प्रवृत्तकरण काल में, | <li><span class="HindiText"> यहाँ अर्थात् अध:प्रवृत्तकरण काल में, स्थितिबन्ध का काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है। एक-एक स्थिति बन्धकाल के पूर्ण होनेपर पल्योपम के संख्यातवें भाग से हीन अन्य स्थिति को बान्धता है (देखें [[ अपकर्षण#3 | अपकर्षण - 3]])। इस प्रकार संख्यात सहस्र बार स्थिति बन्धापसरणों के करने पर अध:प्रवृत्तकरण का काल समाप्त होता है। <br /> | ||
अध:प्रवृत्तकरण के प्रथमसमय | अध:प्रवृत्तकरण के प्रथमसमय सम्बन्धी स्थितिबन्ध से उसी का अन्तिम समय सम्बन्धी स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन होता है। यहाँ पर ही अर्थात् अध:प्रवृत्तकरण के चरम समयमें, प्रथमसम्यक्त्व के अभिमुख जीवके जो स्थितिबन्ध होता है, उससे प्रथम सम्यक्त्व सहित संयमासंयम के अभिमुख जीव का स्थितिबंध संख्यातगुणा हीन होता है। इससे प्रथम सम्यक्त्व सहित सकलसंयम के अभिमुख जीव का अध:प्रवृत्तकरण के अन्तिम समय सम्बन्धी स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन होता है। ( इसप्रकार इसकरण में चार आवश्यक जानने – | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"> प्रतिसमय | <li class="HindiText"> प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि; </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> अप्रशस्त प्रकृतियों का केवल द्विस्थानीय बन्ध और उसमें भी अनन्तगुणी हानि; </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> प्रशस्त प्रकृतियों के चतु:स्थानीय अनुभागबन्ध में प्रतिसमय अनन्तगुणी वृद्धि; </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> स्थितिबन्धापसरण) (ल. सा./मू./37-39/72)/(क्ष.सा./मू./393/485)/(गो.जी./जी.प्र./49/110/14)/(गो.क./जी.प्र./550/743/6)। </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
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</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText" name="4.8" id="4.8"><strong> | <li><span class="HindiText" name="4.8" id="4.8"><strong>सम्यक्त्व प्राप्ति से पहले भी सर्व जीवों के परिणाम अध:करण रूप ही होते हैं।</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध. 6/1,9-8,4/217/7 <span class="PrakritText">मिच्छादिट्ठीआदीणं टि्ठदिबंधादिपरिणामा वि हेटि्ठमा उवरिमेसु, उवरिमा हेट्ठिमेसु अणुहरंति, तेसिं अध:पवत्तसण्णा किण्ण कदा। ण, इट्ठत्तादो। कधं एवं णव्वदे। अंतदीवय-अधापवत्तणामादो।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–मिथ्यादृष्टि आदि जीवों के अधस्तनस्थितिबन्धादि परिणाम उपरिम परिणामों में और उपरिम स्थितिबन्धादि परिणाम अधस्तन परिणामों में अनुकरण करते हैं, अर्थात् परस्पर समानता को प्राप्त होते हैं; इसलिए उनके परिणामों की ‘अध:प्रवृत्त’ यह संज्ञा क्यों नहीं की ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि यह बात इष्ट है। <strong>प्रश्न</strong>–यह कैसे जाना जाता है ? <strong>उत्तर</strong>–क्योंकि ‘अध:प्रवृत्त’ यह नाम अन्तदीपक है। इसलिए प्रथमोपशमसम्यक्त्व होने से पूर्व तक मिथ्यादृष्टि आदि के पूर्वोत्तर समयवर्ती परिणामों में जो सदृशता पायी जाती है, उसकी अध:प्रवृत्त संज्ञा का सूचक है। </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
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<li><span class="HindiText" name="5.1" id="5.1"><strong>अपूर्वकरण का लक्षण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5.1" id="5.1"><strong>अपूर्वकरण का लक्षण</strong></span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,17/गा.116-117/183, <span class="PrakritGatha">भिण्ण-समय-ट्ठिएहि दु जीवेहि ण होई सव्वदा सिरसो। करणेहि एक्कसमयट्ठिएहि सरिसो विसरिसो य।116। एदम्हि गुणट्ठाणे विसरिस-समय-ट्ठिएहि जीवेहि। पुव्वमपत्ता जम्हा होंति अपुव्वा हु परिणामा।117। </span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,16/180/1 <span class="SanskritText">करणा: परिणामा: न पूर्वा: अपूर्वा:। नानाजीवापेक्षया प्रतिसमयमादित:क्रमप्रवृद्धासंख्येयलोकपरिणामस्यास्य गुणस्यान्तर्विवक्षितसमयवर्तिप्राणिनो व्यतिरिच्यान्यसमयवर्तिप्राणिभिरप्राप्या अपूर्वा अत्रतनपरिणामैरसमाना इति यावत्। अपूर्वाश्च ते करणाश्चापूर्वकरणा:। </span>= | ||
<ol> | <ol> | ||
<li> <span class="HindiText">अपूर्वकरण | <li> <span class="HindiText">अपूर्वकरण गुणस्थान में भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणामों की अपेक्षा कभी भी सदृशता नहीं पायी जाती है, किन्तु एक समयवर्ती जीवों के परिणामों की असपेक्षा सदृशता और विसदृशता दोनों ही पायी जाती है।116। (गो.जी./मू./52/140) इस गुणस्थान में विसदृश अर्थात् भिन्न–भिन्न समय में रहनेवाले जीव, जो पूर्व में कभी भी प्राप्त नहीं हुए थे, ऐसे अपूर्व परिणामों को ही धारण करते हैं। इसलिए इस गुणस्थान का नाम अपूर्वकरण है।117। (गो.जी./मू. 51/139)। </span></li> | ||
<li class="HindiText"> करण | <li class="HindiText"> करण शब्द का अर्थ परिणाम है, और जो पूर्व अर्थात् पहिले नहीं हुए उन्हें अपूर्व कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि नाना जीवों की अपेक्षा आदि से लेकर प्रत्येक समय में क्रम से बढ़ते हुए संख्यातलोक प्रमाण परिणामवाले इस गुणस्थान के अन्तर्गत विवक्षित समयवर्ती जीवों को छोड़कर अन्य समयवर्ती जीवों के द्वारा अप्राप्य परिणाम अपूर्व कहलाते हैं। अर्थात् विवक्षित समयवर्ती जीवों के परिणामों से भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम असमान अर्थात् विलक्षण होते हैं। इस तरह प्रत्येक समय में होनेवाले अपूर्व परिणामों को अपूर्वकरण कहते हैं। (यद्यपि यहाँ अपूर्वकरण नामक गुणस्थान की अपेक्षा कथन किया गया है, परन्तु सर्वत्र ही अपूर्वकरण का ऐसा लक्षण जानना) (रा.वा./9/1/12।589/4) (ल.सा.मू./51/83)। </li> | ||
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</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText" name="5.2" id="5.2"><strong>अपूर्वकरण का काल</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5.2" id="5.2"><strong>अपूर्वकरण का काल</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.6/1,9-8,4/220/1<span class="SanskritText"> अपुव्वकरणद्धा अंतोमुहुत्तमेत्ता होदि त्ति।</span> = <span class="HindiText">अपूर्वकरण का काल अन्तर्मुहूर्तमात्र होता है। (गो.जी./मू./53/141) (गो.क./मू./910/1094)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="5.3" id="5.3"><strong>अपूर्वकरण में प्रतिसमय | <li><span class="HindiText" name="5.3" id="5.3"><strong>अपूर्वकरण में प्रतिसमय सम्भव परिणामों की संख्या</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.6/1,9-8,4/220/1 <span class="PrakritText">अपुव्वकरणा अंतोमुहुत्तमेत्ता होदि त्ति अंतोमुहुत्तमेत्तसमयाणं पढमं रचणा कायव्वा। तत्थ पढमसमयपाओग्गविस हीणं पमाणमसंखेज्जा लोगा। विदियसमयपाओग्गविसोहीणं पमाणमसंखेज्जा लोगा। एवं णेयव्वं जाव चरिमसमओ त्ति। </span>=<span class="HindiText">अपूर्वकरण का काल अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है, इसलिए अन्तर्मुहूर्तप्रमाण समयों की पहले रचना करना चाहिए। उसमें प्रथम समय के योग्य विशुद्धियों का प्रमाण असंख्यात लोक है, दूसरे समय के योग्य विशुद्धियों का प्रमाण असंख्यात लोक है। इस प्रकार यह क्रम अपूर्वकरण के अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। (यहाँ अनुकृष्टि रचना नहीं है)। </span><br /> | ||
गो.जी./मू./ | गो.जी./मू./53/141 <span class="PrakritGatha">अंतोमुहुत्तमेत्ते पडियसमयमसंखलोगपरिणामा। कमउड्ढा पुव्वगुणे अणुकट्ठीणत्थि णियमेण।53। </span>= <span class="HindiText">अन्तर्मुहूर्तमात्र जो अपूर्वकरण का काल तीहिंविषै समय-समय प्रति क्रमतै एक-एक चय बंधता असंख्यात लोकमात्र परिणाम है। तहाँ नियमकरि पूर्वापर समय सम्बन्धी परिणामनि की समानता का अभावतै अनुकृष्टि विधान नाहीं है। - इहाँ भी अंक संदृष्टि करि दृष्टांत मात्र प्रमाण कल्पनाकरि रचना का अनुक्रम दिखाइये है – (अपूर्वकरण के परिणाम 4096; अपूर्वकरण का काल 8 समय; संख्यात का प्रमाण 4; चय 16.। इस प्रकार प्रथम समय से अन्तिम आठवें समय तक क्रम से एक-एक चय (16) बढ़ते – 456, 472, 488, 504, 520, 536, 552 और 568 परिणाम हो है। सर्व का जोड़ = 4096 (गो.क./मू./990/1094)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="5.4" id="5.4"><strong>परिणामों की विशुद्धता में वृद्धिक्रम</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5.4" id="5.4"><strong>परिणामों की विशुद्धता में वृद्धिक्रम</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.6/1,9-8,4/220/4 <span class="PrakritText">पढमसमयविसोहीहिंतो विदियसमयविसोहीओ विसेसोहियाओ। एवं णेदव्वं जाव चरिमसमओत्ति। विसेसो पुण अंतोमुहुत्तपडिभागिओ। एदेसिं करणाणं तिव्व-मंददाए अप्पाबहुगं उच्चदे। तं जधा-अपुव्वकरणस्य पढमसमयजहण्णविसोही थोवा। तत्थेव उक्कस्सिया विसोही अणंतगुणा।विदियसमयजहण्णिया विसोही अणंतगुणा। तत्थेव उक्कस्सिया विसोही अणंतगुणा। तदियसमयजहिण्णया विसोही अणंतगुणा। तत्थेव उकस्सिया विसोही अणंतगुणा। एवं णेयव्वं जाव अपुव्वकरणचरिमसमओ त्ति। </span>= <span class="HindiText">प्रथम समय की विशुद्धियों से दूसरे समय की विशुद्धियाँ विशेष अधिक होती हैं। इस प्रकार यह क्रम अपूर्वकरण के अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। यहाँ पर विशेष अन्तर्मुहूर्त का प्रतिभागी है। इन करणोंकी, अर्थात् अपूर्वकरणकाल के विभिन्न समयवर्ती परिणामों की तीव्र-मन्दता का अल्पबहुत्व कहते हैं। वह इस प्रकार है – अपूर्वकरण की प्रथम समयसम्बन्धी जघन्य विशुद्धि सबसे कम है। वहाँ पर ही उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणित है। प्रथम समय की उत्कृष्ट विशुद्धि से द्वितीय समय की जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणित है। वहाँ पर ही उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणित है।...इसप्रकार यह क्रम अपूर्वकरण के अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। (ल.सा./मू.।52/84), (गो.जी./मू.वजी.प्र./53/142), (गो.क./मू.वजी.प्र./910/1094),(रा.वा./9/1/12/589/2)। </span></li> | ||
<li class="HindiText" name="5.5" id="5.5"><strong>अपूर्वकरण के परिणामों की संदृष्टि व | <li class="HindiText" name="5.5" id="5.5"><strong>अपूर्वकरण के परिणामों की संदृष्टि व यन्त्र</strong> <br /> | ||
कोशकार – अपूर्वकरण के परिणामों की | कोशकार – अपूर्वकरण के परिणामों की संख्या व विशुद्धियों को दर्शाने के लिए निम्नप्रकार संदृष्टि की जा सकती है –कुल परिणाम = 4096, अनन्तगुणी वृद्धि = 1 चय, सर्वजघन्य परिणाम = अध:करण के उत्कृष्ट परिणाम 919से आगे अनन्तगुणा = 921 । <br /> | ||
यहाँ एक ही समयवर्ती जीवों के परिणामों में यद्यपि समानता भी पायी जाती है, | यहाँ एक ही समयवर्ती जीवों के परिणामों में यद्यपि समानता भी पायी जाती है, क्योंकि एक ही प्रकार की विशुद्धिवाले अनेक जीव होने सम्भव हैं। और विसदृशता भी पायी जाती है, क्योंकि एक समयवर्ती परिणाम विशुद्धियों की संख्या असंख्यात लोक प्रमाण है। परन्तु भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणामों में तो सर्वथा असमानता ही है, समानता नहीं; क्योंकि, यहाँ अध:करणवत् अनुकृष्टि रचना का अभाव है। </li> | ||
<li><span class="HindiText" name="5.6" id="5.6"><strong>अपूर्वकरण के चार | <li><span class="HindiText" name="5.6" id="5.6"><strong>अपूर्वकरण के चार आवश्यक</strong> </span><br /> | ||
ल, सा./मू./ | ल, सा./मू./53-54/84 <span class="PrakritGatha">गुणसेढीगुणसंकमठिदिरसखंडा अपुव्वकरणादो। गुणसंकमेण सम्मा मिस्साणं पूरणोत्ति हवे।53। ठिदि बंधोत्सरणं पुण अधापवत्तादुपूरणोत्ति हवे। ठिदिबंधट्ठिदिखंडुक्कीरणकाला समा होति।54।</span> = <span class="HindiText">अपूर्वकरण के प्रथम समयतैं लगाय यावत् सम्यक्त्वमोहनी मिश्रमोहनीय का पूरणकाल, जो जिस कालविषै गुणसंक्रमणकरि मिथ्यात्वकौं सम्यक्त्वमोहनी मिश्रमोहनी रूप परिणमावै है, तिस काल का अन्त समय पर्यन्त </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"> गुणश्रेणी, </li> | <li class="HindiText"> गुणश्रेणी, </li> | ||
<li class="HindiText"> गुणसंक्रमण, </li> | <li class="HindiText"> गुणसंक्रमण, </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> स्थितिखण्डन और </li> | ||
<li class="HindiText"> अनुभाग | <li class="HindiText"> अनुभाग खण्डन ए च्यार आवश्यक हो हैं।53। बहुरि स्थिति बंधापसरण है सो अध:प्रवृत्त करण का प्रथम समयतैं लगाय तिस गुणसंक्रमण पूरण होने का काल पर्यंत हो है। यद्यपि प्रायोग्यलब्धितैं ही स्थितिबंधापसरण हो है, तथापि प्रायोग्य लब्धिकै सम्यक्त्व होने का अनवस्थितपना है। नियम नाहीं है। तातैं ग्रहण न कीया। बहुरि स्थिति बंधापसरण काल अर स्थितिकांडकोत्करणकाल ए दोऊ समान अन्तर्मुहूर्त मात्र है। (विशेष देखो अपकर्षण /3,4) (यद्यपि प्रथमसम्यक्त्व का आश्रय करके कथन किया गया है पर सर्वत्र ये चार आवश्यक यथासम्भव जानना।) (ध.6/1, 9-8 5/224/1 तथा 227/7) (क्ष.सा./मू./397/487), (गो.जी./जी.प्र./54/147/8)।</li> | ||
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<li><span class="HindiText" name="5.7" id="5.7"><strong>अपूर्वकरण व अध:प्रवृत्तकरण में | <li><span class="HindiText" name="5.7" id="5.7"><strong>अपूर्वकरण व अध:प्रवृत्तकरण में कथंचित् समानता असमानता </strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,17/180/4 <span class="SanskritText">एतेनापूर्वविशेषेण अध:प्रवृत्तपरिणामव्युदास: कृत: इति द्रष्टव्य:, तत्रतनपरिणामानामपूर्वत्वाभावात्।</span> =<span class="HindiText">इसमें दिये गये अपूर्व विशेषण से अध:प्रवृत्त परिणामों का निराकरण किया गया है; ऐसा समझना चाहिए; क्योंकि, जहाँ पर उपरितनसमयवर्ती जीवों के परिणाम अधस्तनसमयवर्ती जीवों के परिणामों के साथ सदृश भी होते हैं और विसदृश भी होते हैं ऐसे अध:प्रवृत्त में होनेवाले परिणामों में अपूर्वता नहीं पायी जाती। (ऊपर-ऊपर के समयों में नियम से अनन्तगुण विशुद्ध विसदृश ही परिणाम अपूर्व कहला सकते हैं)। </span><br /> | ||
ल.सा./मू./ | ल.सा./मू./52।84 <span class="PrakritGatha">विदियकरणादिसमयादंतिमसमओत्ति अवरवरसुद्धी। अहिगदिणा खलु सव्वे होंति अणंतेण गुणियकमा।52। </span>= <span class="HindiText">दूसरे करण का प्रथम समयतै लगाय अन्त समयपर्यन्त अपने जघन्यतै अपना उत्कृष्ट अर पूर्व समय के उत्कृष्टतै उत्तर समय का जघन्य परिणाम क्रमतैं अनन्तगुणी विशुद्धता लीएं सर्प की चालवत् जानने। <br /> | ||
(विशेष देखो करण। | (विशेष देखो करण। 5/4 तथा करण। 4/6)। </span></li> | ||
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<li><span class="HindiText" name="6.1" id="6.1"> <strong>अनिवृत्तिकरण का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="6.1" id="6.1"> <strong>अनिवृत्तिकरण का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,17/119-120/186<span class="PrakritGatha"> एक्कम्मिकालसमए संठाणादीहि जह णिवट्टंति। ण णिवट्टंति तह च्चिय परिणामेहिं मिहो जे हु।119। होंति अणियट्टिणोते पडिसमयं जेस्सिमेक्कपरिणामा। विमलयर-झाण-हुयवह-सिहाहि णिद्दद्व-कम्म-वणा।120। </span>=<span class="HindiText"> अन्तर्मुहूर्तमात्र अनिवृत्तिकरण के कालमें- से किसी एक समय में रहने वाले अनेक जीव जिस प्रकार शरीर के आकार, वर्ण आदि बाह्यरूप से और ज्ञानोपयोगादि अन्तरंग रूप से परस्पर भेद को प्राप्त होते हैं, उस प्रकार जिन परिणामों के द्वारा उनमें भेद नहीं पाया जाता है उनको अनिवृत्तिकरण परिणामवाले कहते हैं। और उनके प्रत्येक समय में उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धि से बढ़ते हुए एक से ही (समान विशुद्धि को लिये हुए ही) परिणाम पाये जाते हैं। तथा वे अत्यन्त निर्मल ध्यानरूप अग्नि की शिखाओं से कर्मवन को भस्म करनेवाले होते हैं। 119-120। (गो.जी./मू./56-57/149), (गो.क./मू./911-912/1098), (ल.सा./जी.प्र./36/71)। </span><br /> | ||
ध. | ध. 1/1,1,17/183।11 <span class="SanskritText">समानसमायावस्थितजीवपरिणामानां निर्भेदेन वृत्ति: निवृत्ति:। अथवा निवृत्तिर्व्यावृत्ति:, न विद्यते निवृत्तिर्येषां तेऽनिवृत्तय:। </span>= <span class="HindiText">समान समयवर्ती जीवों के परिणामों की भेद रहित वृत्ति को निवृत्ति कहते हैं। अथवा निवृत्ति शब्द का अर्थ व्यावृत्ति भी है। अतएव जिन परिणामों की निवृत्ति अर्थात् व्यावृत्ति नहीं होती (अर्थात् जो छूटते नहीं) उन्हें ही अनिवृत्ति कहते हैं।–और भी देखें [[ अनिवृत्तिकरण ]]<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="6.2" id="6.2"><strong>अनिवृत्तिकरण का काल</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="6.2" id="6.2"><strong>अनिवृत्तिकरण का काल</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.6/1,9-8,4/221/8 <span class="PrakritText">अणियट्ठीकरणद्धा अंतोमुहुत्तमेत्ता होदि त्ति तिस्से अद्राए समया रचेदव्वा।</span> = <span class="HindiText">अनिवृत्तिकरण का काल अन्तर्मुहूर्तमात्र होता है। इसलिए उसके काल के समयों की रचना करना चाहिए। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="6.3" id="6.3"><strong>अनिवृत्तिकरण में प्रति समय एक ही परिणाम | <li><span class="HindiText" name="6.3" id="6.3"><strong>अनिवृत्तिकरण में प्रति समय एक ही परिणाम सम्भव है</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.6/1,9-8,4/221/9 <span class="PrakritText">एत्थ समयं पडि एक्केक्को चेव परिणामो होदि एक्कम्हिसमए जहण्णुक्कस्सपरिणामभेदाभावा। </span>= <span class="HindiText">यहाँ पर अर्थात् अनिवृत्तिकरणमें, एक-एक समय के प्रति एक-एक ही परिणाम होता है; क्योंकि, यहाँ एक समय में जघन्य और उत्कृष्ट परिणामों के भेद का अभाव है। (ल.सा./मू./83।118 तथा जी.प्र./36/71)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="6.4" id="6.4"><strong> अनिवृत्तिकरण के परिणामों की विशुद्धता में वृद्धिक्रम</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="6.4" id="6.4"><strong> अनिवृत्तिकरण के परिणामों की विशुद्धता में वृद्धिक्रम</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.6/1,9-8,4/221/11 <span class="PrakritText">एदासिं (अणियट्टीकरणस्स) विसोहीणं तिव्व-मंददाए अप्पाबहुगं उच्चदे – पढमसमयविसोही थोवा। विदियसमयविसोही अणंतगुणा। तत्तो तदियसमयविसोही अजहण्णुक्कस्सा अणंतगुणा। एवं णेयव्वं जाव अणियट्टीकरणद्धाए चरिमसमओ त्ति। </span>= <span class="HindiText">अब अनिवृत्तिकरण सम्बन्धी विशुद्धियों की तीव्रता मन्दता का अल्बहुत्व कहते हैं – प्रथम समय सम्बन्धी विशुद्धि सबसे कम है। उससे द्वितीय समय की विशुद्धि अनन्तगुणित है। उससे तृतीय समय की विशुद्धि अजघन्योत्कृष्ट अनन्तगुणित है। इस प्रकार यह क्रम अनिवृत्तिकरणकाल के अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="6.5" id="6.5"><strong>नाना जीवों में योगों की सदृशता का नियम नहीं है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="6.5" id="6.5"><strong>नाना जीवों में योगों की सदृशता का नियम नहीं है</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,27/220/5 <span class="PrakritText">ण च तेसिं सव्वेसिं जोगस्स सरिसत्तणे णियमो अत्थ्िा लोगपूरणम्हिट्ठियकेवलीणं व तहा पडिवायय-सुत्ताभावादो। </span>= <span class="HindiText">अनिवृत्तिकरण के एक समयवर्ती सम्पूर्ण जीवों के योग की सदृशता का कोई नियम नहीं पाया जाता। जिस प्रकार लोकपूरण समुद्घात में स्थित केवलियों के योग की समानता का प्रतिपादक परमागम है उस प्रकार अनिवृत्तिकरण में योग की समानता का प्रतिपादक परमागम का अभाव है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="6.6" id="6.6"><strong>नाना जीवों में | <li><span class="HindiText" name="6.6" id="6.6"><strong>नाना जीवों में काण्डकघात आदि की समानता और प्रदेश बन्ध की असमानता</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,27/220/5<span class="PrakritText"> ण च अणियट्ठिम्हि पदेसबंधो एयं समयम्हि वट्टमाणसव्वजीवाणं सरिसो तस्स जोगकारणत्तादो। - तदो सरिसपरिणामत्तादो सव्वेसिमणियट्ठीणं समाणसमयसंट्ठियाणं ट्ठिदिअणुभागघादत्त-बंधोसरण-गुणसेढि-णिज्जरासंकमणं सरिसत्तणं सिद्धं। </span>=<span class="HindiText"> परन्तु इस कथन से अनिवृत्तिकरण के एक समय में स्थित सम्पूर्ण जीवों के प्रदेशबन्ध सदृश होता है, ऐसा नहीं समझ लेना चाहिए; क्योंकि, प्रदेशबन्ध योग के निमित्त से होता है और तहाँ योगों के सदृश होने का नियम नहीं है (देखो पहले नं.5 वाला शीर्षक)।...इसलिए समान समय में स्थित सम्पूर्ण अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवाले जीवों के सदृश परिणाम होने के कारण स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात, बन्धापसरण, गुणश्रेणी निर्जरा और संक्रमण में भी समानता सिद्ध हो जाती है। </span><br /> | ||
क्ष.सा./मू./ | क्ष.सा./मू./412-413/496 <span class="PrakritGatha">बाहरपढमे पढमं ठिदिखंडविसरिसं तु विदियादि। ठिदिखंडयं समाणं सव्वस्स समाणकालम्हि ।412। पल्लस्स संखभागं अवरं तु वरं तु संखभागहियं। घादादिमढिदिखंडो सेसो सव्वस्स सरिसा हु।413। =</span> <span class="HindiText">अनिवृत्तिकरण का प्रथम समयविषै पहिला स्थिति खण्ड है सो तो विसदृश है, नाना जीवनिकैं समान नाहीं है। बहुरि द्वितीयादि स्थितिखण्ड हैं ते समानकाल विषैं सर्वजीवनिकैं समान हैं। अनिवृत्तिकरण माढ़ै जिनकौं समान काल भया तिनकैं परस्पर द्वितीयादि स्थितिकाण्डक आयाम का समान प्रमाण जानना।412। सो प्रथत स्थिति खण्ड जघन्य तो पल्य का असंख्यातवाँ भाग मात्र है। उत्कृष्ट ताका संख्यातवाँ भाग करि अधिक है। बहुरि अवशेष द्वितीयादिखण्ड सर्व जीवनि के समान हो हैं। अपूर्वकरण का प्रथम समयतै लगाय अनिवृत्तिकरणविषै यावत् प्रथम खण्ड का घात न होइ तावत् ऐसे ही संभवै (अर्थात् किसी के स्थिति खण्ड जघन्य होइ और किसी के उत्कृष्ट) बहुरि तिस प्रथमकाण्ड का घात भए पीछे समान समयनिविषै प्राप्त सर्वर जीवनिकैं स्थिति सत्त्व की समानता हो है, तातै द्वितायादि काण्डक आयाम की भी समानता जाननी।413। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="6.7" id="6.7"><strong>अनिवृत्तिकरण के चार | <li><span class="HindiText" name="6.7" id="6.7"><strong>अनिवृत्तिकरण के चार आवश्यक</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.6/1,9-8,5/229/8 <span class="PrakritText">ताधे चेव अण्णो ट्ठिदिखंडओ अण्णो अणुभागखंडओ, अण्णो ट्ठिदिबंधो च आढत्तो। पुव्वोकड्डिदपदेसग्गादो असंखेज्जगुणं पदेसमोकड्डिदूण अपुव्वकरणो व्व गलिदसेसं गुणसेढिं करेदि। ...एवं ट्ठिदिबंध-ट्ठिदिखंडय-अणुभागखंडयसहस्सेसु गदेसु अणियट्टीअद्धाए चरिमसमयं पावदि। </span>=<span class="HindiText"> उसी (अनिवृत्तिकरण को प्रारम्भ करनेके) समय में ही </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> अन्य स्थितिखण्ड, </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> अन्य अनुभाग खण्ड और </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> अन्य स्थिति बन्ध(अपसरण)को आरम्भ करता है। पूर्व में अपकर्षित प्रदेशाग्र से असंख्यात गुणित प्रदेश का अपकर्षण कर अपूर्वकरण के समान गलितावशेष गुणश्रेणी को करता है। ...इस प्रकार सहस्रों स्थितिबन्ध, स्थितिकाण्डकघात, और अनुभागकाण्डकघातों के व्यतीत होनेपर अनिवृत्तिकरण के काल का अन्तिम समय प्राप्त होता है। (ल. सा./मू./83-84/118), (क्ष.सा./मू./411-437/495)। </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText" name="6.8" id="6.8"><strong>अनिवृत्तिकरण व अपूर्वकरण में | <li><span class="HindiText" name="6.8" id="6.8"><strong>अनिवृत्तिकरण व अपूर्वकरण में अन्तर</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,17/184/1 <span class="SanskritText">अपूर्वकरणाश्च तादृक्षा: केचित्सन्तीति तेषामप्ययं व्यपदेश: प्राप्नोतीति चेन्न, तेषां नियमाभावात्।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> – अपूर्वकरण गुणस्थान में भी कितने ही परिणाम इस प्रकार के होते हैं (अर्थात् समान समयवर्ती जीवों के समान होते हैं और असमान समयवर्ती के भी परस्पर समान नहीं होते) अतएव उन परिणामों को भी अनिवृत्ति संज्ञा प्राप्त होनी चाहिए। <strong>उत्तर</strong>- नहीं, क्योंकि, उनके निवृत्ति रहित (अर्थात् समान) होने का कोई नियम नहीं है। </span><br /> | ||
ल.सा./जी.प्र./ | ल.सा./जी.प्र./36/71/16 <span class="SanskritText">अनिवृत्तिकरणोऽपि तथैव पूर्वोत्तरसमयेषु संख्याविशुद्धिसादृश्याभावाद् भिन्नपरिणाम एव। अयं तु विशेष: - प्रतिसमयमेकपरिणाम: जघन्यमध्यमोत्कृष्टपरिणामभेदाभावात्। यथाध:प्रवृत्तापूर्वकरणपरिणामा: प्रतिसमयं जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदादसंख्यातलोकमात्रविकल्पा: षट्स्थानवृद्ध्या वर्द्धमाना: सन्ति न तथानिवृत्तिकरणपरिणामा: तेषामेकस्मिन् समये कालत्रयेऽपि विशुद्धिसादृश्यादैक्यमुपचर्यते। </span>= <span class="HindiText">यद्यपि अपूर्वकरण की भाँति अनिवृत्तिकरण में भी पूर्वोत्तर समयों में होनेवाले परिणामों की संख्या व विशुद्धि सदृश न होने के कारण भिन्न परिणाम होते हैं, परन्तु यहाँ यह विशेष है कि प्रतिसमय एक ही परिणाम होता है, क्योंकि यहाँ जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट परिणामरूप भेद का अभाव है। अर्थात् जिस प्रकार अध:प्रवृत्तकरण और अपूर्वकरण के परिणाम प्रतिसमय जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से असंख्यात लोकमात्र विकल्पसहित षट्स्थान वृद्धि से वर्द्धमान होते हैं, उस प्रकार अनिवृत्तिकरण के परिणाम नहीं होते; क्योंकि, तीनों कालों में एक समयवर्ती उन परिणामों में विशुद्धि की सदृशता होने के कारण एकता कही गयी है। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="6.9" id="6.9"><strong>यहाँ जीवों के परिणामों की समानता का नियम समान समयवालों के लिए ही है, यह कैसे कहते हो</strong>?</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="6.9" id="6.9"><strong>यहाँ जीवों के परिणामों की समानता का नियम समान समयवालों के लिए ही है, यह कैसे कहते हो</strong>?</span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,17/184/2 <span class="SanskritText">समानसमयस्थितजीवपरिणामानामिति कथमधिगम्यत इति चेन्न, ‘अपूर्वकरण’ इत्यनुवर्तनादेव द्वितीयादिसमयवर्तिजीवै: सह परिणामापेक्षया भेदसिद्धे:। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> – इस गुणस्थान में जो जीवों के परिणामों की भेदरहित वृत्ति बतलायी है, वह समान समयवर्ती जीवों के परिणामों की ही विवक्षित है यह कैसे जाना ? <strong>उत्तर</strong> –‘अपूर्वकरण’ पद की अनुवृत्ति से ही यह सिद्ध होता है कि इस गुणस्थान में प्रथमादि समयवर्ती जीवों का द्वितीयादि समयवर्ती जीवों के साथ परिणामों की अपेक्षा भेद है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="6.10" id="6.10"><strong>गुणश्रेणी आदि अनेक कार्यों का कारण होते हुए भी इसके परिणामों में अनेकता | <li><span class="HindiText" name="6.10" id="6.10"><strong>गुणश्रेणी आदि अनेक कार्यों का कारण होते हुए भी इसके परिणामों में अनेकता क्यों नहीं कहते </strong>?</span><br /> | ||
ध. | ध. 1/1,1,27/219/2 <span class="PrakritText">कज्ज-णाणत्तादो कारणणाणत्तमणुमाणिज्जदि इदि एदमवि ण घडदे, एयादो मोग्गरादो बहुकोडिकवालोवलंभा। तत्थ वि होदु णाम मोग्गरो एओ, ण तस्स सत्तीणमेयत्तं, तदो एयक्खप्प-रुप्पत्ति-प्पसंगादो इदि चे तो क्खहि एत्थ वि भवदु णाम ट्ठिदिकंडयघाद-अणुभागकंडयघाद-ट्ठिदिबंधोसरण-गुणसंकम-गुणसेढी- ट्ठिदिअणुभागबंध-परिणामाणं णाणत्तं तो वि एग-समयसंठियणाणाजीवाणं सरिसा चेव, अण्णहा अणियट्टिविसेसणाणुववत्तीदो। जह एवं, तो सव्वेसिमणियट्टी-णमेय-समयम्हि वट्टमाणाणां ट्ठिदि-अणुभागघादाणं सरिसत्तं पावेदि त्ति चे ण दोसो, इट्ठत्तादो। पढम-ट्ठिदि-अणुभाग-खंडदाणं-सरिसत्त णियमो णत्थि, तदो णेदं घडदि त्ति चे ण दोसो, हद सेस-ट्ठिदि अणुभागाणं एय-पमाण-णियम-दंसणादो।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> – अनेक प्रकार का कार्य होने से उनके साधनभूत अनेक प्रकार के कारणों का अनुमान किया जाता है ? अर्थात् अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रतिसमय असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा, स्थितिकाण्डकघात आदि अनेक कार्य देखे जाते हैं, इसलिए उनके साधनभूत परिणाम भी अनेक प्रकार के होने चाहिए ? <strong>उत्तर</strong>–यह कहना भी नहीं बनता है, क्योंकि, एक मुद्गर से अनेक प्रकार के कपालरूप कार्य की उपलब्धि होती है । <strong>प्रश्न</strong>–वहाँ पर मुद्गर एक भले ही रहा आवे, परन्तु उसकी शक्तियों में एकपना नहीं बन सकता है। यदि मुद्गर की शक्तियों में भी एकपना मान लिया जावे तो उससे एक कपालरूप कार्य की ही उत्पत्ति होगी ? <strong>उत्तर</strong>–यदि ऐसा है तो यहाँ पर भी स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात, स्थितिबन्धापसरण, गुणसंक्रमण, गुणश्रेणीनिर्जरा, शुभ प्रकृतियों के स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध के कारणभूत परिणामों में नानापना रहा आवे, तो भी एक समय में स्थित नाना जीवों के परिणाम सदृश ही होते हैं, अन्यथा उन परिणामों के ‘अनिवृत्ति’ यह विशेषण नहीं बन सकता है। <strong>प्रश्न</strong>–यदि ऐसा है तो एक समय में स्थित सम्पूर्ण अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवालों के स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात की समानता प्राप्ति हो जायेगी ? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह बात तो हमें इष्ट ही है–देखें [[ करण#6.6 | करण - 6.6]]। <strong>प्रश्न</strong>–प्रथत स्थितिकाण्डक और प्रथम अनुभागकाण्डक की समानता का नियम तो नहीं पाया जाता है, इसलिए उक्त कथन घटित नहीं होता है ? <strong>उत्तर</strong>–यह भी कोई दोष नहीं है, क्योंकि, प्रथम स्थिति के अवशिष्ट रहे हुए खण्ड का और उसके अनुभाग खण्ड का अनिवृत्तिकरण गणुस्थानवाले प्रथम समय में ही घात कर देते हैं, अतएव उनके द्वितीययादि समयों में स्थितिकाण्डकों का और अनुभाग काण्डाकों का एक प्रमाण नियम देखा जाता है। </span></li> | ||
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== पुराणकोष से == | |||
<p id="1">(1) जीव के शुभाशुभ परिणाम । ये तीन प्रकार के होते हैं—अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण । आसन्न भवयात्मा इनसे मिथ्यात्व प्रकृति को नष्ट करके सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है । <span class="GRef"> महापुराण 9.120 </span></p> | |||
<p id="2">(2) इन्द्रियां । <span class="GRef"> महापुराण 2.91 </span></p> | |||
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Revision as of 21:39, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- अंतरकरण व उपशमकरण आदि–देखें वह वह नाम ।
- अवधिज्ञान के करण चिह्न–देखें अवधिज्ञान - 5।
- कारण के अर्थ में करण–देखें निमित्त - 1।
- प्रमाके करण को प्रमाण कहने सम्बन्धी–देखें प्रमाण ।
- मिथ्यात्व का त्रिधा करण–देखें उपशम - 2।
- अध:करण आदि त्रिकरण व दशकरण–देखें आगे करण
जीव के शुभ-अशुभ आदि परिणामों को करण संज्ञा है। सम्यक्त्व व चारित्र की प्राप्ति में सर्वत्र उत्तरोत्तर तरतमता लिये तीन प्रकार के परिणाम दर्शाये गये हैं–अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण। इन तीनों में उत्तरोत्तर विशुद्धि की वृद्धि के कारण कर्मों के बन्ध में हानि तथा पूर्व सत्ता में स्थित कर्मों की निर्जरा आदि में भी विशेषता होनी स्वाभाविक है। इनके अतिरिक्त कर्म सिद्धान्त में बन्ध उदय सत्त्व आदि जो दस मूल अधिकार हैं उनको भी दशकरण कहते हैं।
- करण सामान्य निर्देश
- करण का अर्थ इन्द्रिय व परिणाम।
- इन्द्रिय व परिणामों को करण कहने में हेतु।
- करण का अर्थ इन्द्रिय व परिणाम।
- दशकरण निर्देश
- दशकरणों के नाम निर्देश।
- कर्म प्रकृतियों में यथासम्भव 10 करण अधिकार निर्देश।
- गुणस्थानों में 10 करण सामान्य व विशेष का अधिकार निर्देश
- दशकरणों के नाम निर्देश।
- त्रिकरण निर्देश
- त्रिकरण नाम निर्देश।
- सम्यक्त्व व चारित्र प्राप्ति विधि में तीनों करण अवश्य होते हैं।
- मोहनीय के उपशम क्षय व क्षयोपशम विधि में त्रिकरणों का स्थान–देखें वह वह नाम
- अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना में त्रिकरणों का स्थान–देखें विसंयोजना
- त्रिकरण का माहात्म्य ।
- तीनों करणों के काल में परस्पर तरतमता।
- तीनों करणों की परिणामविशुद्धियों में तरतमता।
- तीनों करणों का कार्य भिन्न-भिन्न कैसे है ?
- त्रिकरण नाम निर्देश।
- अध:प्रवृत्तकरण निर्देश
- अध:प्रवृत्तकरण का लक्षण।
- अध:प्रवृत्तकरण का काल।
- प्रति समय सम्भव परिणामों की संख्या संदृष्टि व यंत्र।
- परिणाम संख्या में अंकुश व लांगल रचना।
- परिणामों की विशुद्धता के अविभाग प्रतिच्छेद, संदृष्टि व यंत्र।
- परिणामों की विशुद्धता का अल्पबहुत्व व उसकी सर्पवत् चाल
- अध:प्रवृत्तकरण के चार आवश्यक।
- सम्यक्त्व प्राप्ति से पहले भी सभी जीवों के परिणाम अध:करण रूप ही होते हैं।
- अध:प्रवृत्तकरण का लक्षण।
- अपूर्वकरण निर्देश
- अपूर्वकरण का लक्षण।
- अपूर्वकरण का काल
- प्रतिसमय सम्भव परिणामों की संख्या।
- परिणामों की विशुद्धता में वृद्धिक्रम
- अपूर्वकरण के परिणामों की संदृष्टि व यंत्र।
- अपूर्वकरण के चार आवश्यक।
- अपूर्वकरण व अध:प्रवृत्तकरण में कथंचित् समानता व असमानता।
- अपूर्वकरण का लक्षण।
- अनिवृत्तिकरण निर्देश
- अनिवृत्तिकरण का लक्षण।
- अनिवृत्तिकरण का काल।
- अनिवृत्तिकरण में प्रतिसमय एक ही परिणाम सम्भव है।
- परिणामों की विशुद्धता में वृद्धिक्रम।
- नाना जीवों में योगों की सदृशता का नियम नहीं है।
- नाना जीवों में काण्डक घात आदि तो समान होते हैं, पर प्रदेशबन्ध असमान।
- अनिवृत्तिकरण के चार आवश्यक।
- अनिवृत्तिकरण व अपूर्वकरण में अन्तर।
- परिणामों की समानता का नियम समान समयवर्ती जीवों में ही है। यह कैसे जाना ?
- गुणश्रेणी आदि अनेक कार्यों का कारण होते हुए भी परिणामों में अनेकता क्यों नहीं ?
- अनिवृत्तिकरण का लक्षण।
- करणसामान्य निर्देश
- करण का लक्षण परिणाम व इन्द्रिय
रा.वा./6/13/1/523/26 करणं चक्षुरादि।= चक्षु आदि इन्द्रियों को करण कहते हैं।
ध. 1/1,1,16/180/1 करणा: परिणामा:।= करण शब्द का अर्थ परिणाम है।
- इन्द्रियों व परिणामों को करण संज्ञा देने में हेतु
ध.6/1,9-8/4/217/5 कधं परिणामाणं करणं सण्णा। ण एस दोसो, असि-वासीणं व सहायतमभावविवक्खाए परिणामाणं करणत्तुवलंभादो।= प्रश्न–परिणामों की ‘करण’ यह संज्ञा कैसे हुई ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि, असि (तलवार) और वासि (वसूला) के समान साधकतम भाव की विवक्षा में परिणामों के करणपना पाया जाता है।
भ.आ./वि./20/71/4 क्रियन्ते रूपादिगोचरा विज्ञप्तय एभिरिति करणानि इन्द्रियाण्युच्यन्तेक्वचित्करणशब्देन। = क्योंकि इनके द्वारा रूपादि पदार्थों को ग्रहण करनेवाले ज्ञान किये जाते हैं इसलिए इन्द्रियों को करण कहते हैं।
- करण का लक्षण परिणाम व इन्द्रिय
- दशकरण निर्देश
- दशकरणों के नाम निर्देश
गो.क./मू./437/591 बंधुक्कट्टणकरणं संकममोकटटुदीरणा सत्तं। उदयुवसामणिधत्ती णिकाचणा होदि पडिपयडी।437।=बन्ध, उत्कर्षण, संक्रमण, अपकर्षण, उदीरणा, सत्त्व, उदय, उपशम, निधत्ति और नि:काचना ये दश करण प्रकृति प्रकृति प्रति संभवे हैं।
- कर्मप्रकृतियों में यथासम्भव दश करण अधिकार निर्देश
गो.क./मू./441,444/593-595 संकमणाकरणूणा णवकरणा होंति सव्व आऊणं। सेसाणं दसकरणा अपुव्वकरणोत्ति दसकरणा।441। बंधुक्कट्टणकरणं सगसगबंधोत्ति होदि णियमेण। संकमणं करणं पुण सगसगजादीणं बंधोत्ति।444।=च्यार आयु तिनिकैं संक्रमण करण बिना नव करण पाइए हैं जातैं चारयौ आयु परस्पर परिणमें नाही। अवशेष सर्व प्रकृतिनिकैं दश करण पाइये हैं।441। बन्ध करण अर उत्कर्षण करण ये तौं दोऊ जिस जिस प्रकृतिनि की जहाँ बन्ध व्युच्छित्ति भई तिस तिस प्रकृति का तहाँ ही पर्यन्त जानने नियमकरि। बहुरि जिस जिस प्रकृति के जे जे स्वजाति हैं जैसे ज्ञानावरण की पाँचों प्रकृति स्वजाति हैं ऐसे स्वजाति प्रकृतिनि की बन्ध की व्युच्छित्ति जहाँ भई तहाँ पर्यन्त तिनि प्रकृतिनि के संक्रमणकरण जानना।444। (विशेष देखो उस-उस करण का नाम) - गुणस्थानों में 10 करण सामान्य व विशेष का अधिकार निर्देश
(गो.क./441-450/593-599)
- <a name="2.3.1" id="2.3.1"></a>सामान्य प्ररूपणा
- दशकरणों के नाम निर्देश
गुणस्थान |
करण व्युच्छित्ति |
सम्भव करण |
1-7 813 14 |
× उपशम, निधत्त, नि:कांचित×
|
दशों करण दशों करणसंक्रमण रहित-6 उदय व सत्त्व = 2
|
- विशेष प्ररूपणा
गुणस्थान |
कर्म प्रकृति |
सम्भव करण |
सातिशय मि. 1-44-6 10 |
मिथ्यात्व नरकायुअनन्तानुबन्धी चतुष्क सूक्ष्मलोभ नरक द्वि. तिर्य. द्वि.; 4 जाति; स. मिथ्यात्व व मिश्रमोह उपरोक्त 2 के बिना शेष 146 |
एक समयाधिक आवली तक उदीरणा। सत्त्व, उदय, उदीरणा =3स्व स्व विसंयोजना तक उत्कर्षण उदीरणा
अपकर्षण क्षयदेश पर्यन्त अपकर्षण उपशम, निधत्ति व नि:कांचित बिना 7 संक्रमण रहित उपरोक्त =6 अपकर्षण संक्रमण
|
1-11 11 उपशम स. 1-13 1-13
|
- त्रिकरण निर्देश
- त्रिकरण नाम निर्देश
ध.6/1,9-8,4/214/5 एत्थ पढमसम्मतं पडिवज्जंतस्स अधापवत्तकरण-अपुव्वकरण-अणियट्टीकरणभेदेन तिविहाओ विसोहीओ होंति। = यहाँ पर प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होनेवाले जीव के अध:प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के भेद से तीन प्रकार की विशुद्धियाँ होती हैं। (ल. सा./मू./33/69), (गो.जी./मू./47/99) (गो.क./मू./896/1076)।
गो.क./जी.प्र./8/897/1076/4 करणानि त्रीण्यध:प्रवृत्तापूर्वानिवृत्तिकरणानि।= करण तीन हैं–अध:प्रवृत्त, अपूर्व और अनिवृत्तिकरण।
- सम्यक्त्व व चारित्र प्राप्ति विधि में तीनों करण अवश्य होते हैं
गो.जी./जी.प./651/1100/9 करणलब्धिस्तु भव्य एव स्यात् तथापि सम्यक्त्वग्रहणे चारित्रग्रहणे च। = करणलब्धि भव्यकै ही हो है। सो भी सम्यक्त्व और चारित्र का ग्रहण विषै ही हो है।
- त्रिकरण का माहात्म्य
ल.सा./जी.प्र./33/69 क्रमेणाध:प्रवृत्तकरणमपूर्वकरणमनिवृत्तिकरणं च विशिष्टनिर्जरासाधनं विशुद्धपरिणामं। = क्रमश: अध:प्रवृत्तकरण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये तीनों विशिष्ट निर्जरा के साधनभूत विशुद्ध परिणाम हैं (तिन्हें करता है)।
- तीनों करणों के काल में परस्पर तरतमता
ल.सा./मू. व जी.प्र./34/70 अंतोमुहुत्तकाला तिण्णिवि करणा हवंति पत्तेयं। उवरीदो गुणियकमा कमेण संखेज्जरूवेण।34। एते त्रयोऽपि करणपरिणामा: प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तकाला भवन्ति। तथापि उपरित: अनिवृत्तिकरणकालात्क्रमेणापूर्वकरणाध:करणकालौ संख्येयरूपेण गुणितक्रमौ भवति। तत्र सर्वत: स्तोकान्तर्मुहूर्त: अनिवृत्तिकरणकाल:, तत: संख्येयगुण: अपूर्वकरणकाल:, तत: संख्येयगुण: अध:प्रवृत्तकरणकाल:। = तीनों ही करण प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त कालमात्रस्थितियुक्त हैं तथापि ऊपर ऊपरतै संख्यातगुणा क्रम लिये हैं। अनिवृत्तिकरण का काल स्तोक है। तातैं अपूर्वकरण का संख्यात गुणा है। तातैं अध:प्रवृत्तकरण का संख्यातगुणा है। (तीनों का मिलकर भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है)।
- तीनों करणों की परिणाम विशुद्धियों में तरतमता
ध.6/1,9-8,5/223।4 अधापवत्तकरणपढमसमयट्ठिदिबंधादो चरिमसमयट्ठिदिबंधो संखेज्जगुणहीनो। एत्थेव पढमसम्मत्तसंजमासंजमाभिमुहस्स ट्ठिदिबंधो संखेज्जगुणहीणो, पढमसम्मत्तसंजमाभिमुहस्स अधापवत्तकरणचरिमसमयट्ठिदिबंधो संखेज्जगुणहीणो। ... एवमधापवत्तकरणस्स कज्जपरूपणं कदं।
ध.6/1,9-8,14/269/5 तत्थतण अणियट्टीकरणट्ठिदिघादादो वि एत्थतण अपुव्वकरणट्ठिदिघादस्स बहुवयरत्तादो वा। ण चेदमपुव्वकरणं पढमसम्मत्ताभिमुहमिच्छाइट्ठिअपुव्वकरणेण तुल्लं, सम्मत्त–संजम-संजमासंजमफलाणं तुल्लत्तविरोहा। ण चापुव्वकरणाणि सव्वअणियट्टी करणेहिंतो अणंतगुणहीणाणि त्ति न वोत्तुं जुत्तं, तदुप्पायणसुत्ताभावा। =- अध:प्रवृत्तिकरण के प्रथम समय सम्बन्धीस्थितिबन्ध से उसी का अन्तिम समय सम्बन्धी स्थितिबन्ध संख्यात गुणाहीन होता है। यहाँ पर ही अर्थात् अध:प्रवृत्तकरण के चरम समय में ही प्रथमसम्यक्त्व के अभिमुख जीव के जो स्थितिबन्ध होता है, उससे प्रथम सम्यक्त्व सहित संयमासंयम के अभिमुख जीव का स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन होता है।इससे प्रथम सम्यक्त्व सहित सकलसंयम के अभिमुख जीव का अध:प्रवृत्तकरण के अन्तिम समय सम्बन्धी स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन होता है। ... इस प्रकार अध:प्रवृत्तकरण के कार्यों का निरूपण किया।
- वहाँ के अर्थात् प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि के, अनिवृत्तिकरण से होनेवाले स्थितिघात की अपेक्षा यहाँ के अर्थात् संयमासंयम के अभिमुख मिथ्यादृष्टि के, अपूर्वकरण से होनेवाला स्थितिघात बहुत अधिक होता है। तथा, यह अपूर्वकरण, प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि के अपूर्वकरण के साथ समान नहीं है; क्योंकि सम्यक्त्व संयम और संयमासंयमरूप फलवाले विभिन्न परिणामों के समानता होने का विरोध है।तथा, सर्व अपूर्वकरण परिणाम सभी अनिवृत्तिकरण परिणामों से अनन्त गुणहीन होते हैं, ऐसा कहना भी युक्त नहीं है; क्योंकि, इस बात का प्रतिपादन करनेवाले सूत्र का अभाव है। भावार्थ–(यद्यपि सम्यक्त्व, संयम या संयमासंयम आदि रूप किसी एक ही स्थान में प्राप्त तीनों परिणामों की विशुद्धि उत्तरोत्तर अनन्तगुणा अधिक होती है, परन्तु विभिन्न स्थानों में प्राप्त परिणामों में यह नियम नहीं है। वहाँ तो निचले स्थान के अनिवृत्तिकरण की अपेक्षा भी ऊपरले स्थान का अध:प्रवृत्तकरण अनन्तगुणा अधिक होता है।)
- तीनों करणों का कार्य भिन्न कैसे है
ध. 6/1,9-8,14/289/2 कथं ताणि चेव तिण्णि करणाणि पुध-पुध कज्जुप्पायणाणि। ण एस दोसो, लक्खणसमाणत्तेण एयत्तमावण्णाणं भिण्णकम्मविरोहित्तणेण भेदमुवगयाणं जीवपरिणामाणं पुध पुध कज्जुवपायणे विरोहाभावा। = प्रश्न–वे ही तीन करण पृथक्-पृथक् कार्यों के (सम्यक्त्व, संयम, संयमासंयम आदिके) उत्पादक कैसे हो सकते हैं ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, लक्षण की समानता से एकत्व को प्राप्त, परन्तु भिन्न कर्मों के विरोधी होने से भेद को भी प्राप्त हुए जीव परिणामों के पृथक्-पृथक् कार्य के उत्पादन में कोई विरोध नहीं है।
- त्रिकरण नाम निर्देश
- अध:प्रवृत्तकरण निर्देश
- अध:प्रवृत्तकरण का लक्षण
ल. सा./मू. व जी. प्र./35/70 जह्मा हेट्ठिमभावा उवरिमभावेहिं सरिसगा होंति। तह्मा पढमं करणं अधापत्तोत्ति णिद्दिट्ठं।35। संख्यया विशुद्ध्या च सदृशा भवन्ति तस्मात्कारणात्प्रथम: करणपरिणाम: अध:प्रवृत्त इत्यन्वर्थतो निर्दिष्ट:। = करणनि का नाम नाना जीव अपेक्षा है। सो अध:करण मांडै कोई जीव को स्तोक काल भया, कोई जीव को बहुत काल भया। तिनिके परिणाम इस करणविषै संख्या व विशुद्धताकरि (अर्थात् दोनों ही प्रकारसे) समान भी होहै ऐसा जानना। क्योंकि इहाँ निचले समयवर्ती कोई जीव के परिणाम ऊपरले समयवर्ती कोई जीव के परिणाम के सदृश हो हैं तातैं याका नाम अध:प्रवृत्तकरण है। ( यद्यपि वहाँ परिणाम असमान भी होते हैं, परन्तु ‘अध:प्रवृत्तकरण’ इस संज्ञा में करण नीचले व ऊपरले परिणामों की समानता ही है असमानता नहीं)। ( गो. जी./मू./48।100), (गो.क./मू./898/1076)। और भी देखें अध:प्रवृत्तिकरण ।
- अध:प्रवृत्तकरण का काल
गो.जी./मू./49/102 अंतोमुहुत्तमेत्तो तक्कालो होदि तत्थ परिणामा।
गो.जी./जी.प्र./49।102/5 स्तोकान्तर्मुहूर्तमात्रात् अनिवृत्तिकरणकालात् संख्यातगुण: अपूर्वकरणकाल:; अत: संख्यातगुण: अध:प्रवृत्तकरणकाल: सोऽप्यन्तर्मुहूर्तमात्र एव। =तीनों करणनिविषै स्तोक अन्तर्मूहूर्त प्रमाण अनिवृत्तिकरण का काल है। यातैं संख्यातगुणा अपूर्वकरण का काल है। यातैं संख्यातगुणा इस अध:प्रवृत्तकरण का काल है। सो भी अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है। जातै अन्तर्मूहूर्त के भेद बहुत हैं। (गो. क./मू./899/1076)।
- प्रति समय सम्भव परिणामों की संख्या संदृष्टि व यन्त्र
गो.जी./जी. प्र./49/102-106/6 तस्मिन्नध:प्रवृत्तकरणकाले त्रिकालगोचरनानाजीवसंबन्धिनो विशुद्धपरिणामा: सर्वेऽपि असंख्यातलोकमात्रा: सन्ति।2। तेषु प्रथमसमयसंबन्धिनो यावन्त: सन्ति द्वितीयादिसमयेषु उपर्युपरि चरमसमयपर्यन्तं सदृशवृद्धया वर्धिता: सन्ति ते च तावदङ्कसंदृष्ट्या प्रदर्श्यते – तत्र परिणामा: द्वासप्तत्युत्तरत्रिसहस्री।3072। अध:प्रवृत्तकरणकाल: षोडशसमया:।16। प्रतिसमयपरिणामवृद्धिप्रमाणं चत्वार:।4।..एकस्मिन् प्रचये 4 वर्धिते सति द्वितीयतृतीयादिसमयवर्तिपरिणामानां संख्या भवति। ता: इमा: - 166, 170, 174, 178, 182, 186, 190, 194, 198, 202, 206, 210, 214, 218, 222। एतान्युक्तधनानि अध:प्रवृत्तकरणप्रथमसमयाच्चरमसमयपर्यन्तमुपर्युपरि स्थापयितव्यानि। अथानुकृष्टिरचनोच्यते–तत्र अनुकृष्टिर्नाम अधस्तनसमयपरिणामखण्डानां उपरितनसमयपरिणामखण्डै: सादृश्यं भवति(102।6) अब सर्वजघन्यखण्डपरिणामानां 39 सर्वोत्कृष्टखण्डपरिणामानां 57 च कैरपि सादृश्यं नास्ति शेषाणामेवोपर्यधस्तनसमयवर्तिपरिणामपुञ्जानां यथासंभवं तथासंभवात्। ...अथ अर्थसंदृष्ट्याविन्यासो दृश्यते - तद्यथा-त्रिकालगोचरनानाजीवसंबन्धिन: अध:प्रवृत्तकरणकालसमस्तसमयसंभविन: सर्वपरिणामा असंख्यातलोकमात्रा: सन्ति।2। अध:प्रवृत्तकरणकालो गच्छ: (103/4)। अथाध:-प्रवृत्तकरणकालस्य प्रथमादिसमयपरिणामानां मध्ये त्रिकालगोचरनानाजीवसंबन्धिप्रथमसमयजघन्यमध्यमोत्कृष्टपरिणामसमूहस्याध:प्रवृत्तकरणकालसंख्यातैकभागमात्रनिर्वर्गणकाण्डकसमयसमानानि222 खण्डानि क्रियन्तेतानि चयाधिकानि भवन्ति। ऊर्ध्वरचनाचये अनुकृष्टिपदेन भक्ते लब्धमनुकृष्टि चयप्रमाणं भवति। (104/13)। पुन: द्वितीयसमयपरिणामप्रथमखण्डप्रथमसमयप्रथमखण्डाद्विशेषाधिकम्। (105/14)। द्वितीयसमयप्रथमखंडप्रथमसमयद्वितीयखण्डं च द्वे सदृशे तथा द्वितीयसमयद्वितीयादिखण्डानि प्रथमसमयतृतीयादिखण्डै: सह सदृशानि किंतु द्वितीयसमयचरमखण्डप्रथमसमयखण्डेषु केनापि सह सदृशं नास्ति। अतोऽग्रे ...अध:प्रवृत्तकरणकालचरमसमयपर्यन्तं नेतव्यानि(106/11)। = ‘‘तोहिं अध:प्रवृत्तकरण के कालविषैं अत़ीत अनागत वर्तमान त्रिकालवर्ती नाना जीव सम्बन्धी विशुद्धतारूप इस करण के सर्व परिणाम असंख्यात लोक प्रमाण हैं। ...बहुरि तिनि परिणामनिविषैं तिस अध:प्रवृत्तकरणकाल का प्रथमसमयसम्बन्धी जेते परिणाम हैं तिनितैं लगाय द्वितीयादि समयनिविषै ऊपर-ऊपर अन्त समय पर्यन्त समान वृद्धि (चय) कर वर्द्धमान है (पृ.120)। अंक संदृष्टिकरि कल्पना रूप परिणाम लीएं दृष्टान्त मात्र कथन करिए है। सर्व अध:करण परिणामनि की संख्यारूप सर्वधन 3072। बहुरि अध:करण के काल के समयनि का प्रमाणरूप गच्छ16।बहुरि समय-समय परिणामनि की वृद्धि का प्रमाणरूप चय 4। (पृ.122)। तहाँ (16 समयनिविषैं) क्रमतैं एक-एक चय बधती परिणामनि की संख्याहो है – 162, 166, 170, 174, 178, 182, 186, 190, 194, 198, 202, 206, 210, 214, 218, 222 (सब का जोड़=3072)। ये उक्तराशियें अध:प्रवृत्तकरण के प्रथम समय से लगाकर उसके चरम समय पर्यन्त ऊपर-ऊपर स्थापन करने चाहिए। (पृ. 124)।। आगे अनुकृष्टि कहिये हैं। तहाँ नीचे के समय सम्बन्धी परिणामनि के जे खण्ड ते परस्पर समान जैसे होइ तैसे एक समय के परिणामनिविषै खण्डकरना तिसका नाम अनुकृष्टि जानना। ए खण्ड एक समयविषै युगपत् (अर्थात् एक समयवर्ती त्रिकालगोचर) अनेक जीवनि के पाइये तातै इनिको बरोबर स्थापन किए हैं (देखो आगे संदृष्टि का यन्त्र)। (प्रथम समय के कुल परिणामों की संख्या 162 कह आये हैं। उसके चार खण्ड करने पर अनुकृष्टि रचना में क्रम से 39, 40, 41, 42 हो है: इनका जोड़ 162 हो है। इतने-इतने अंक बरोबर स्थापन किये। इसी प्रकार द्वितीय समय के चार खण्ड 40, 41, 42, 43 हो है। इनका जोड़ 166 हो है। और इसी प्रकार आगे भी खण्ड करते-करते सोलवें समय के 54, 55, 56, 57 खण्ड जानने) इहाँ सर्व जघन्य खण्ड जो प्रथम समय का प्रथम खण्ड 39 ताकै परिणामनिकै अर सर्वोत्कृष्ट अन्त समय का अन्त खण्ड ‘57’ ताके परिणामनिकै किसी ही खण्ड के परिणामनिकरि सदृश समानता नाहीं है, जातै अवशेष समस्त ऊपर के व निचले समयसम्बन्धी खण्डनि का परिणाम पंजनिकै यथा सम्भव समानता सम्भवै है। (पृ. 125-126)।
अब यथार्थ कथन करिये है... त्रिकालवर्ती नाना जीव सम्बन्धी समस्त अध:प्रवृत्तकरण के परिणाम असंख्यात लोकमात्र है, सो सर्वधन जानना ( सहनानी 3072)। बहुरि अध:प्रवृत्तकरण का काल अन्तर्मुहूर्त मात्र। ताके जेते समय होइ सो यहाँ गच्छ जानना (सहनानी 16)। श्रेणी गणित द्वारा चय व प्रथमादि समयों के परिणामों की संख्या तथा अनुकृष्टिगत परिणाम पुंज निकाले जा सकते हैं। (दे0‘गणित’/II/5)। (पृ.127)
- अध:प्रवृत्तकरण का लक्षण
16 |
15 |
14 |
13 |
12 |
11 |
10 |
9 |
8 |
7 |
6 |
5 |
4 |
3 |
2 |
1 |
समय |
54 |
53 |
52 |
51 |
50 |
49 |
48 |
47 |
46 |
45 |
44 |
43 |
42 |
41 |
40 |
39 |
प्र. खण्ड |
55 |
54 |
53 |
52 |
51 |
50 |
49 |
48 |
47 |
46 |
45 |
44 |
43 |
42 |
41 |
40 |
द्वि.खण्ड |
56 |
55 |
54 |
53 |
52 |
51 |
50 |
49 |
48 |
47 |
46 |
45 |
44 |
43 |
42 |
41 |
तृ.खण्ड |
57 |
56 |
55 |
54 |
53 |
52 |
51 |
50 |
49 |
48 |
47 |
46 |
45 |
44 |
43 |
42 |
च.खण्ड |
222 |
218 |
214 |
210 |
206 |
202 |
198 |
194 |
190 |
186 |
182 |
178 |
174 |
170 |
166 |
162 |
सर्वधन |
चतुर्थ |
तृतीय |
द्वितीय |
प्रथम |
निर्वर्गणा काण्डक |
विशुद्ध परिणामनि की संख्या त्रिकालवर्ती नाना जीवनिकै असंख्यात लोकमात्र है। तिनिविषै अध:प्रवृत्तकरण मांडै पहिला समय है ऐसे त्रिकाल सम्बन्धी अनेक जीवनिकै जे परिणाम सम्भवै तिनिके समूहकौ प्रथम समय परिणामपुंज कहिये है। बहुरि जिनि जीवनिकौ अध:करणमांडै दूसरा समय भया ऐसे त्रिकाल सम्बन्धी अनेक जीवनिकै जे परिणाम सम्भवै तिनिके समूह को द्वितीय समयपरिणामपुंज कहिये। ऐसे क्रमतै अंतसमय पर्यंत जानना।
तहाँ प्रथमादि समय सम्बन्धी परिणाम पुंज का प्रमाण श्रेढी गणित व्यवहार का विधान करि पहिले जुदा जुदा कह्या है। सो सर्व सम्बन्धी पुंजनि को जोड़ै असंख्यात लोकमात्र (3072) प्रमाण होई है। बहुरि इस अध:प्रवृत्तकरणकाल का प्रथमादि समय सम्बन्धी परिणामनि के विषै त्रिकालवर्ती नाना जीव सम्बन्धी प्रथम समय के जघन्य मध्यम उत्कृष्ट भेद लिये जो परिणाम पुंज कह्या (39, 40, ....57 तक), ताके अध:प्रवृत्तकरणकाल के जेते समय तिनिको संख्यात का भाग दिये जेता प्रमाण आवे तितना खण्ड करिये। ते खण्ड निर्वर्गणा काण्डक के जेते समय तितने हो है (4)। वर्गणा कहिये समयनि की समानता तीहिं करि रहित जे ऊपरि-ऊपरि समयवर्ती परिणाम खण्ड तिनिका जो काण्डक कहिए सर्वप्रमाण सो निर्वर्गणा काण्डक है। (चित्र में चार समयों के 16 परिणाम खण्डों का एक निर्वर्गणा काण्डक है)। तिनि निर्वर्गणा काण्डक के समयनि का जो प्रमाण सो अध:प्रवृत्तकरणरूप जो ऊर्ध्व गच्छ (अन्तर्मुहूर्त अथवा 16) ताके संख्यातवें भाग मात्र है (16/4 =4)। सो यहू प्रमाण अनुकृष्टि गच्छ का (39 से 42 तक=4) जानना। इस अनुकृष्टि गच्छ प्रमाण एक एकसमय सम्बन्धी परिणामनि विषै खण्ड हो है (चित्र में प्रदर्शित प्रत्येक समय सम्बन्धी परिणाम पुंज जो 4 है सो यथार्थ में संख्यात आवली प्रमाण है, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त ÷ संख्यात=संख्यात आवली) ते क्रमतै जानना। पृ. 128
बहुरि इहां द्वितीय समय के प्रथम खण्ड अर प्रथम समय का द्वितीयखण्ड (40) ये दोऊ समान हो है। तैसे ही द्वितीय समय का द्वितीयादि खण्ड अर प्रथम समय का तृतीयादि खण्ड दोऊ समान हो हैं। इतना विशेष है कि द्वितीय समय का अन्त खण्ड सो प्रथम समय का खण्डनिविषै किसी ही करि समान नाहीं।...ऐसे अध:प्रवृत्तकरणकाल का अन्तसमय पर्यंत जानने। (पृ.129)...
ऐसे तिर्यग्रचना जो बरोबर (अनुकृष्टि) रचना तीहि विषै एक-एक समय सम्बन्धी खण्डनि के परिणामनि का प्रमाण कह्या। =पूर्वै अध:करण का एक-एक समय विषै सम्भवतै नाना जीवनि के परिणामनि का प्रमाण कह्या था। अत: तिस विषै जुदे-जुदे सम्भवते ऐसे एक-एक समय सम्बन्धी खण्डनि विषै परिणामनि का प्रमाण इहां कह्या है। जो ऊपरि के और नीचे के समय सम्बन्धी खण्डनि विषै परस्पर समानता पाइये हैं; तातै अनुकृष्टि ऐसा नाम इहां सम्भवै है। जितनी संख्या लीए ऊपरि के समय विषै कोई परिणाम खण्ड हो है तितनी संख्या लीए निचले समय विषै भी परिणाम खण्ड हो हैं। ऐसै निचले समयसम्बन्धी परिणाम खण्डतैं ऊपरि के समय सम्बन्धी परिणाम खण्ड विषै समानता जानि इसका नाम अध:प्रवृत्तकरण कहा है।(पृ.130)। (ध.6/1,9-8,4/214-217)
- परिणाम संख्या में अंकुश व लांगल रचना
गो.जी./जी.प्र./49/108/9 प्रथमसमयानुकृष्टिप्रथमसर्वजघन्यखण्डस्य 39 चरिमसमयपरिणामानां चरमानुकृष्टिसर्वोत्कृष्टखण्डस्य 57 च कुत्रापिसादृश्यं नास्ति शेषोपरितनसमयवर्तिखण्डानामधस्तनसमयवर्तिखण्डै:, अथवा अधस्तनसमयवर्तिखण्डानां उपरितनसमयवर्तिखण्डै: सह यथासंभवं सादृश्यमस्ति। द्वितीयसमया 40 द्विचरमसमयपर्यन्तं 53 प्रथमप्रथमखण्डानि चरमसमयप्रथमखण्डाद् द्विचरमसमयपर्यंतखण्डानि च 54/55/56। स्वस्वोपरितनसमयपरिणामै: सह सादृश्याभावात् असदृशानि। इयमङ्कुशरचनेत्युच्यते। तथा द्वितीयसमया 43 द्विचरमसमय 56 पर्यंतं चरमचरमखण्डानि प्रथमसमयप्रथमखण्डं 39 वर्जितशेषखण्डानि च स्वस्वाधस्तनसमयपरिणामे: सह सादृश्याभावाद् विसदृशानि इयं लाङ्गलरचनेत्युच्यते। =बहुरि इहां विशेष है सो कहिये है- प्रथम समय सम्बन्धी प्रथम खण्ड(39) सो सर्व से जघन्य खण्ड है। बहुरि अन्त समय सम्बन्धी अन्त का अनुकृष्टि खण्ड (57) सो सर्वोत्कृष्ट है। सो इन दोऊनिकै कहीं अन्य खण्डकरि समानता नाहीं है। बहुरि अवशेष ऊपरि समय सम्बन्धीखण्डनिकै नीचले समय सम्बन्धी खण्डनि सहित अथवा नीचले समय सम्बन्धी खण्डनिकै ऊपरि समय सम्बन्धी खण्डनि सहित यथा सम्भव समानता है। तहां द्वितीय समयतै लगाय द्विचरम समय पर्यंत जे समय(2 से 15 तक के समय) तिनिका पहिला पहिला खण्ड (40-53); अर अंत (नं.16) समय के प्रथम खण्डतै लगाय द्विचरम खण्ड पर्यंत (54-56) अपने-अपने उपरि के समय सम्बन्धी खण्डनिकरि समान नाहीं है, तातै असदृश हैं। सो द्वितीयादि चरम समय पर्यंत सम्बन्धी खण्डनि की ऊर्ध्व रचना कीएं उपरि अन्त समय के प्रथमादि द्विचरम पर्यंत खण्डनि की तिर्यक् रचना कीएं अंकुश के आकार की रचना हो है। तातै याकूं अंकुश रचना कहिये। बहुरि द्वितीय समयतै लगाई द्विचरम समय पर्यंत सम्बन्धी अंत-अंत के खण्ड अर प्रथम समय सम्बन्धी प्रथम खण्ड(39) बिना अन्य सर्व खण्ड ते अपने-अपने नीचले समय सम्बन्धी किसी ही खण्डनिकरि समान नाहीं तातै असदृश है। सो इहां द्वितीयादि द्विचरम पर्यन्त समय सम्बन्धी अंत-अंत खण्डनिकौ ऊर्ध्व रचना कीएं अर नीचे प्रथम समय के द्वितीयादि अंत पर्यंत खण्डनि की तिर्यक् रचना कीए, हल के आकार रचना हो है। तातै याकूं लांगल चित्र कहिये।
समय 161 |
|
||
5455 56 |
|
||
53 5240 |
अंकुश रचना
लांगल रचना |
56 5543 42 |
|
|
40 41 |
बहुरि जघन्य उत्कृष्ट खण्ड अर उपरि नीचै समय सम्बन्धी खण्डनि की अपेक्षा कहे असदृश खण्ड तिनि खण्डनि बिना अवशेष सर्वखण्ड अपने ऊपरिकै और नीचले समयसम्बन्धी खण्डनिकरि यथा सम्भव समान है। (पृ.130-131)। (अंकुश रचना के सर्व परिणाम यद्यपि अपने से नीचेवाले समयों के किन्हीं परिणाम खण्डों से अवश्य मिलते हैं, परन्तु अपने से ऊपरवाले समयों के किसी भी परिणाम खण्ड के साथ नहीं मिलते। इसी प्रकार लांगल रचना के सर्व परिणाम यद्यपि अपने से ऊपरवाले समयों के किन्हीं परिणाम खण्डों से अवश्य मिलते हैं, परन्तु अपने से नीचेवाले समयों के किसी भी परिणाम खण्ड के साथ नहीं मिलते। इनके अतिरिक्त बीच के सर्व परिणाम खण्ड अपने ऊपर अथवा नीचे दोनों ही समयों के परिणाम खण्डों के साथ बराबर मिलते ही हैं। (ध.6/1,9-8,4/217/1)।
- परिणामों की विशुद्धता के अविभाग प्रतिच्छेद, अंक संदृष्टि व यंत्र
गो.जी./जी.प्र./49/109/1 तत्राध:प्रवृत्तकरणपरिणामेषु प्रथमसमयपरिणामखण्डानां मध्ये प्रथमखण्डपरिणामा असंख्यातलोकमात्रा:.... अपवर्तितास्तदा संख्यातप्रतरावलिभक्तासंख्यातलोकमात्रा भवन्ति। अमी च जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नानां...। द्वितीयसमयप्रथमखण्डपरिणामाश्चयाधिका जघन्यमध्यमोत्कृष्टविकल्पा: प्राग्वदसंख्यातलोकषट्स्थानवृद्धिवर्द्धिता: प्रथमखण्डपरिणामा: सन्ति। एवं तृतीयसमयादिचरमसमयपर्यन्त चयाधिका: प्रथमखण्डपरिणामा: सन्ति तथा प्रथमादिसमयेषु द्वितीयादिखण्डपरिणामा: अपि चयाधिका: सन्ति। = अब विशुद्धता के अविभाग प्रतिच्छेदनि की अपेक्षा वर्णन करिए है। तिनिकी अपेक्षा गणना करि पूर्वोक्त अध:करणनि के खण्डनि विषै अल्पबहुत्व वर्णन करै है – तहाँ अध:प्रवृत्तकरण के परिणामनिविषै प्रथम समय सम्बन्धी परिणाम, तिनि के खण्डनिविषै जे प्रथम खण्ड के परिणाम तै सामान्यपनै असंख्यातलोकमात्र (39) है। तथापि पूर्वोक्त विधान के अनुसार...संख्यात प्रतरावली को जाका भाग दीजिए ऐसा असंख्यातलोक मात्र हैं (अर्थात् असं/सं. प्रतरावली-लोक के प्रदेश)। ते ए परिणाम अविभाग प्रतिच्छेदनि की अपेक्षा जघन्य मध्यम उत्कृष्ट भेद लिये हैं। ...क्रमतै प्रथम परिणामतै लगाइ इतने परिणाम (देखो एक षट्स्थान पतित हानि-वृद्धि का रूप) भए पीछे एक बार षट्स्थान वृद्धि पूर्ण होतै (अर्थात् पूर्ण होती है)। (ऐसी-ऐसी) असंख्यात लोकमात्र बार षट् स्थान पतित वृद्धि भए तिस प्रथम खण्ड के सब परिणामनि की संख्या (39) पूर्ण होई हैं। (जैसे संदृष्टि = सर्व जघन्य विशुद्धि = 8; एक षट्स्थान पतित वृद्धि = 6; असंख्यात लोक = 10। तो प्रथम खण्ड के कुल परिणाम 8×6×10 = 480। इनमें प्रत्येक परिणाम षट्स्थान पतित वृद्धि में बताये अनुसार उत्तरोत्तर एक-एक वृद्धिंगत स्थान रूप है) यातै असंख्यात लोकमात्र षट्स्थान पतित वृद्धि करि वर्द्धमान प्रथम खण्ड के परिणाम हैं।पृ.132।
तैसे ही द्वितीय समय के प्रथम खण्ड का परिणाम (40) अनुकृष्टि चयकरि अधिक है। तै जघन्य मध्यम उत्कृष्ट भेद लिये हैं। सो ये भी पूर्वोक्त प्रकार असंख्यात लोकमात्र षट्स्थान पतित वृद्धिकरि वर्द्धमान है।...(एक अनुकृष्टि चय में जितनी षट्स्थानपतित वृद्धि सम्भवे है) तितनी बार अधिक षट्स्थानपतित वृद्धि प्रथम समय के प्रथम खण्डतै द्वितीय समय के प्रथम खण्ड में सम्भवै है। (अर्थात् यदि प्रथम विकल्प में 6 बार वृद्धि ग्रहण की थी तो यहाँ 7 बार ग्रहण करना)। ऐसे ही तृतीय आदि अन्तपर्यन्त समयनिकै प्रथम खण्ड के परिणाम एक अनुकृष्टि चयकरि अधिक है। बहुरि तैसे ही प्रथमादि समयनिकै अपने-अपने प्रथम खण्डतै द्वितीय आदि खण्डनि के परिणाम भी क्रमतै एक-एक चय अधिक है। तहाँ यथासम्भव षट्स्थान पतित वृद्धि जेती बार होइ तितना प्रमाण (प्रत्येक खण्ड के प्रति) जानना। (पृ. 133)।
स्व कृत संदृष्टि व यन्त्र – उपरोक्त कथन के तात्पर्यपर से निम्नप्रकार संदृष्टि की जा सकती है। -सर्व जघन्य परिणाम की विशुद्धि = 8 अविभाग प्रतिच्छेद; तथा प्रत्येक अनन्तगुणवृद्धि = 1 की वृद्धि। यन्त्र में प्रत्येक खण्ड के जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त के सर्व परिणाम दर्शाने के लिए जघन्य व उत्कृष्टवाले दो ही अंक दर्शाये जायेंगे। तहाँ बीच के परिणामों की विशुद्धता क्रम से एक-एक वृद्धि सहित योग्य प्रमाण में जान लेना।
निर्वर्गणा काण्डक |
समय |
कुल परिणाम |
प्रथम खण्ड |
द्वितीय खण्ड |
तृतीय खण्ड |
चतुर्थ खण्ड |
||||
परिणाम |
ज0 से उ0विशुद्धता |
परिणाम |
ज0 से उ0विशुद्धता |
परिणाम |
ज0 से उ0विशुद्धता |
परिणाम |
ज0 से उ0विशुद्धता |
|||
चतुर्थ |
16 |
222 |
54 |
698-751 |
55 |
752-806 |
56 |
807-862 |
57 |
863-919 |
15 |
218 |
53 |
645-697 |
54 |
698-751 |
55 |
752-806 |
56 |
807-862 |
|
14 |
214 |
52 |
593-644 |
53 |
645-697 |
54 |
698-751 |
55 |
752-806 |
|
13 |
210 |
51 |
542-592 |
52 |
593-644 |
53 |
645-697 |
54 |
698-751 |
|
तृतीय |
12 |
206 |
50 |
492-541 |
51 |
542-592 |
52 |
593-644 |
53 |
645-697 |
11 |
202 |
49 |
443-491 |
50 |
492-541 |
51 |
542-592 |
52 |
593-644 |
|
10 |
198 |
48 |
395-442 |
49 |
443-491 |
50 |
492-541 |
51 |
542-592 |
|
9 |
194 |
47 |
348-394 |
48 |
395-442 |
49 |
443-491 |
50 |
492-541 |
|
द्वितीय |
8 |
190 |
46 |
302-347 |
47 |
348-394 |
48 |
395-442 |
49 |
443-491 |
7 |
186 |
45 |
257-301 |
46 |
302-347 |
47 |
348-394 |
48 |
395-442 |
|
6 |
182 |
44 |
213-256 |
45 |
257-301 |
46 |
302-347 |
47 |
348-394 |
|
5 |
178 |
43 |
170-212 |
44 |
213-256 |
45 |
257-301 |
46 |
302-347 |
|
प्रथम |
4 |
174 |
42 |
128-169 |
43 |
170-212 |
44 |
213-256 |
45 |
257-301 |
3 |
170 |
41 |
87-127 |
42 |
128-169 |
43 |
170-212 |
44 |
213-256 |
|
2 |
166 |
40 |
47-86 |
41 |
87-127 |
42 |
128-169 |
43 |
170-212 |
|
1 |
162 |
39 |
8-46 |
40 |
47-86 |
41 |
87-127 |
42 |
128-169 |
|
|
यहाँ स्पष्ट रीति से ऊपर और नीचे के समयों के परिणामों की विशुद्धता में यथायोग्य समानता देखी जा सकती है। जैसे 6ठे समय के द्वितीय खण्ड के 45 परिणामों में से नं.1 वाला परिणाम 257 अविभाग प्रतिच्छेदवाला है। यदि एक की वृद्धि के हिसाब से देखें तो इस ही का नं. 25वाँ [257+(25-1)]= 281 है। इसी प्रकार चौथे समय के चौथे खण्ड का 25वाँ परिणाम भी 281 अविभाग प्रतिच्छेदवाला है। इसलिए समान है।
- परिणामों की विशुद्धता का अल्प-बहुत्व तथा उसकी सर्पवत् चाल
गो.जी./जी.प्र./49/110/1 तेषां विशुद्ध्यल्पबहुत्वमुच्यते तद्यथा - प्रथमसमयप्रथमखण्डजघन्यपरिणामविशुद्धि: सर्वत: स्तोकापि जीवराशितोऽनन्तगुणा अविभागप्रतिच्छेदसमूहात्मिका भवति 16 ख। अतस्तदुत्कृष्टपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा। ततो द्वितीयखण्डजघन्यपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा। ततस्त- दुत्कृष्टपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा। एवं तृतीयादिखण्डेष्वपि जघन्योत्कृष्टपरिणामविशुद्धयोऽनन्तगुणानन्तगुणाञ्चरमखण्डोत्कृष्टपरिणामविशुद्धिपर्यंतं वर्तन्ते। पुन: प्रथमसमयप्रथमखण्डोत्कृष्टपरिणामविशुद्धितो द्वितीयसमयप्रथमखण्डजघन्यपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा। ततस्तदुत्कृष्टपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा। ततो द्वितीयखण्डजघन्यपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा ततस्तदुत्कृष्टपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा। एवं तृतीयादिखण्डेष्वपि जघन्योत्कृष्टपरिणामविशुद्धयोऽनन्तगुणितक्रमेण द्वितीयसमयचरमखण्डोत्कृष्टपरिणामविशुद्धिपर्यन्तं गच्छन्ति। अनेन मार्गेण तृतीयादिसमयेष्वपि निर्वर्गणकाण्डकद्विचरमसमयपर्यन्तं जघन्योत्कृष्टपरिणामविशुद्धयोऽनन्तगुणितक्रमेण नेतव्या:। प्रथमनिर्वर्गणकाण्डकचरमसमयप्रथमखण्डजघन्यपरिणामविशुद्धित: प्रथमसमयचरमखण्डोत्कृष्टपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा। ततो द्वितीयनिर्वर्गणकाण्डकप्रथमसमयप्रथमखण्डजघन्यपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा। ततस्तत्प्रथमनिर्वर्गणकाण्डकद्वितीयसमय- चरमखण्डोत्कृष्टपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा। ततो द्वितीयनिर्वर्गणकाण्डकद्वितीयसमयप्रथमखण्डजघन्य-परिणामविशुद्धिरनन्तगुणा। तत: प्रथमनिर्वर्गणकाण्डकतृतीयसमयचरमखण्डोत्कृष्टपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा एवमहिगत्या जघन्यादुत्कृष्टं उत्कृष्टाज्जघन्यमित्यनन्तगुणितक्रमेण परिणामविशुद्धिर्नीत्वा चरम- निर्वर्गणकाण्डकचरमसमयप्रथमखण्डजघन्यपरिणामविशुद्धिरनन्तानन्तगुणा। कुत:। पूर्वपूर्वविशुद्धितोऽनन्तानन्तगुणासिद्धत्वात्। ततश्चरमनिर्वर्गणकाण्डकप्रथमसमयचरमखण्डोत्कृष्टपरिणामविशुद्धिरनन्तगुणा। ततस्तदुपरि चरमनिर्वर्गणकाण्डकचरमसमयचरमखण्डोत्कृष्टपरिणामविशुद्धिपर्यन्ता उत्कृष्टखण्डोत्कृष्ट- परिणामविशुद्धयोऽनन्तगुणितक्रमेण गच्छन्ति। तन्मध्ये या जघन्योत्कृष्टपरिणामविशुद्धयोऽनन्तानन्तगुणिता: सन्ति ता न विवक्षिता इति ज्ञातव्यम्। = अब तिनि खण्डनिकै विशुद्धता का अविभाग प्रतिच्छेदनि की अपेक्षा अल्पबहुत्व कहिए है – प्रथम समय सम्बन्धी प्रथम खण्ड का जघन्य परिणाम की विशुद्धता अन्य सर्व तै स्तोक है। तथापि जीव राशि का जो प्रमाण तातै अनन्तगुणा अविभाग प्रतिच्छेदनिकै समूह को धारै है। बहुरि यातै तिसही प्रथम समय का प्रथम खण्ड का उत्कृष्ट परिणाम की विशुद्धता अनन्तगुणी है। तातै द्वितीय खण्ड की जघन्य परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी है। तातै तिस ही का उत्कृष्ट परिणाम की विशुद्धता अनन्तगुणी है। ऐसे ही क्रमतै तृतीयादि खण्डनिविषै भी जघन्य उत्कृष्ट परिणामनि की विशुद्धता अनन्तगुणी अनन्तगुणी अन्त का खण्ड की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धि पर्यंत प्रवर्तै है। (पृ.133)। बहुरि प्रथम समयसम्बन्धी प्रथम खण्ड की उत्कृष्ट-परिणाम-विशुद्धतातै द्वितीय समय के प्रथम खण्ड की जघन्य परिणाम विशुद्धता (प्रथम समय के द्वितीय खण्डवत्) अनन्तगुणी है। तातै तिस ही की उत्कृष्ट विशुद्धता अनन्तगुणी है तातै तिस ही के द्वितीय खण्ड की जघन्य परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी है। तातै तिस ही की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी है। ऐसे तृतीयादि खण्डनिविषै भी जघन्य उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी अनुक्रमकरि; द्वितीय समय का अन्त खण्ड की उत्कृष्ट विशुद्धता पर्यन्त प्राप्त हो है। (पृ.133) । बहुरि इस ही मार्गकरि तृतीयादि समयखण्डनिविषै भी पूर्वोक्त लक्षणयुक्त जो निर्वर्गणा काण्डक ताका द्विचरम समय पर्यन्त जघन्य उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनन्त गुणानुक्रमकरि ल्यावनी। बहुरि प्रथम निर्वर्गणा काण्डक का अन्त समय सम्बन्धी प्रथमखण्ड की जघन्य विशुद्धतातै प्रथम समय का अन्त खण्ड की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी है। तातै दूसरे निर्वर्गणा काण्डक का प्रथम समय सम्बन्धी प्रथम खण्ड की जघन्य परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी है । तातै तिस प्रथम निर्वर्गणा काण्डक का द्वितीय समय सम्बन्धी अन्त खण्ड की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी है। तातै द्वितीय निर्वर्गणा काण्डक का द्वितीय समय सम्बन्धी प्रथम खण्ड की जघन्य परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी है। तातै प्रथम निर्वर्गणा काण्डक का तृतीय समय सम्बन्धी अन्त खण्ड की उत्कृष्ट विशुद्धता अनन्तगुणी है। या प्रकार जैसे सर्प की चाल इधरतै उधर और उधरतै इधर पलटनि रूप हो है तैसे जघन्यतै उत्कृष्ट और उत्कृष्टतै जघन्य ऐसे पलटनि विषै अनन्तगुणी अनुक्रमकरि विशुद्धता प्राप्त करिए।
उ. 43 |
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उ. 42 |
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उ. 41 |
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उ. 39
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ज. ज. ज. ज. ज.
पीछे अन्त का निर्वर्गणा काण्डक का अन्त समय सम्बन्धी प्रथम खण्ड की जघन्य परिणाम विशुद्धता अनन्तानन्तगुणी है। काहै तै ? यातै पूर्व पूर्व विशुद्धतातै अनन्तानन्तगुणापनौ सिद्ध है। बहुरि तातै अन्त का निर्वर्गणा काण्डक का प्रथम समय सम्बन्धी अन्त खण्ड की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी है। ताकै ऊपरि अन्त का निर्वर्गणा काण्डक का अन्त समय सम्बन्धी अन्तखण्ड की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता पर्यन्त अनन्तगुणा अनुक्रमकरि प्राप्त हो है। तिनि विषै जे (ऊपरिकै) जघन्यतै (नीचेके) उत्कृष्ट परिणामनि की विशुद्धता अनन्तानन्तगुणी है ते इहाँ विवक्षा रूप नाहीं है, ऐसे जानना। (ध.6/1,9-8,4/218-219)।
(ऊपर-ऊपर के समयों के प्रथम खण्डों की जघन्य परिणाम विशुद्धि से एक निर्वर्गणा काण्डक नीचे के अन्तिम समयसम्बन्धी अन्तिम खण्ड की उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धि अनन्तगुणी कही गयी है।) उसकी संदृष्टि – (ध. 6/1,9-8,4/219) (गो.जी./जी.प्र व भाषा/49/120)।
यहाँ एक चित्र आना है वह बाद में भेजूँगा।
- अध:प्रवृत्तकरण के चार आवश्यक
6/1-9-8,5/222/9 अधापवत्तकरणे ताव ट्ठिदिखंडगो वा अणुभागखंडगो वा गुणसेडी वा गुणसंकमो वा णत्थि। कुदो। एदेसिं परिणामाणं पुव्वुत्तचउव्विहकज्जुप्पायणसत्तीए अभावादो। केवलमणंतगुणाए विसोहीए पडिसमयं विसुज्झंतो अप्पसत्थाणं कम्माणं वेट्ठाणियमणुभागं समयं पडि अणंतगुणहीणं बंधदि, पसत्थाणं कम्माणमणुभागं चदुट्ठाणियं समयं पडि अणंतगुणं बंधदि। एत्थट्ठिदिबंधकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो। पुण्णे पुण्णे ट्ठिदिबंधे पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेणूणियमण्णं ट्ठिदिं बंधदि। एवं संखेज्जसहस्सवारं ट्ठिदिबंधोसरणेसु कदेसु अधापवत्तकरणद्धा समप्पदि। अधापवत्तकरणपढमसमयट्ठिदिबंधादो चरिमसमयट्ठिदिबंधो संखेज्जगुणहीणे। एत्थेव पढमसम्मत्तसंजमासंजमाभिमुहस्स ट्ठिदिबंधोसंखेज्जगुणहीणो, पढमसम्मत्तसंजमाभिमुहस्स अधापवत्तकरणचरिमसमयट्ठिदिबंधो संखेज्जगुणहीणो।=अध:प्रवृत्तकरण में स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात, गुणश्रेणी, और गुण संक्रमण नहीं होता है; क्योंकि इन अध:प्रवृत्तपरिणामों के पूर्वोक्त चतुर्विध कार्यों के उत्पादन करने की शक्ति का अभाव है।–- केवल अनन्तगुणी विशुद्धि के द्वारा प्रतिसमय विशुद्धि को प्राप्त होता हुआ यह जीव –
- अप्रशस्त कर्मों के द्विस्थानीय अर्थात् निंब और कांजीररूप अनुभाग को समय समय के प्रति अनन्तगुणित हीन बान्धता है;
- और प्रशस्त कर्मों के गुड़ खाण्ड आदि चतु:स्थानीय अनुभाग को प्रतिसमय अनन्तगुणित बान्धता है।
- यहाँ अर्थात् अध:प्रवृत्तकरण काल में, स्थितिबन्ध का काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है। एक-एक स्थिति बन्धकाल के पूर्ण होनेपर पल्योपम के संख्यातवें भाग से हीन अन्य स्थिति को बान्धता है (देखें अपकर्षण - 3)। इस प्रकार संख्यात सहस्र बार स्थिति बन्धापसरणों के करने पर अध:प्रवृत्तकरण का काल समाप्त होता है।
अध:प्रवृत्तकरण के प्रथमसमय सम्बन्धी स्थितिबन्ध से उसी का अन्तिम समय सम्बन्धी स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन होता है। यहाँ पर ही अर्थात् अध:प्रवृत्तकरण के चरम समयमें, प्रथमसम्यक्त्व के अभिमुख जीवके जो स्थितिबन्ध होता है, उससे प्रथम सम्यक्त्व सहित संयमासंयम के अभिमुख जीव का स्थितिबंध संख्यातगुणा हीन होता है। इससे प्रथम सम्यक्त्व सहित सकलसंयम के अभिमुख जीव का अध:प्रवृत्तकरण के अन्तिम समय सम्बन्धी स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन होता है। ( इसप्रकार इसकरण में चार आवश्यक जानने –- प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि;
- अप्रशस्त प्रकृतियों का केवल द्विस्थानीय बन्ध और उसमें भी अनन्तगुणी हानि;
- प्रशस्त प्रकृतियों के चतु:स्थानीय अनुभागबन्ध में प्रतिसमय अनन्तगुणी वृद्धि;
- स्थितिबन्धापसरण) (ल. सा./मू./37-39/72)/(क्ष.सा./मू./393/485)/(गो.जी./जी.प्र./49/110/14)/(गो.क./जी.प्र./550/743/6)।
- सम्यक्त्व प्राप्ति से पहले भी सर्व जीवों के परिणाम अध:करण रूप ही होते हैं।
ध. 6/1,9-8,4/217/7 मिच्छादिट्ठीआदीणं टि्ठदिबंधादिपरिणामा वि हेटि्ठमा उवरिमेसु, उवरिमा हेट्ठिमेसु अणुहरंति, तेसिं अध:पवत्तसण्णा किण्ण कदा। ण, इट्ठत्तादो। कधं एवं णव्वदे। अंतदीवय-अधापवत्तणामादो। = प्रश्न–मिथ्यादृष्टि आदि जीवों के अधस्तनस्थितिबन्धादि परिणाम उपरिम परिणामों में और उपरिम स्थितिबन्धादि परिणाम अधस्तन परिणामों में अनुकरण करते हैं, अर्थात् परस्पर समानता को प्राप्त होते हैं; इसलिए उनके परिणामों की ‘अध:प्रवृत्त’ यह संज्ञा क्यों नहीं की ? उत्तर–नहीं, क्योंकि यह बात इष्ट है। प्रश्न–यह कैसे जाना जाता है ? उत्तर–क्योंकि ‘अध:प्रवृत्त’ यह नाम अन्तदीपक है। इसलिए प्रथमोपशमसम्यक्त्व होने से पूर्व तक मिथ्यादृष्टि आदि के पूर्वोत्तर समयवर्ती परिणामों में जो सदृशता पायी जाती है, उसकी अध:प्रवृत्त संज्ञा का सूचक है।
- अपूर्वकरण निर्देश
- अपूर्वकरण का लक्षण
ध.1/1,1,17/गा.116-117/183, भिण्ण-समय-ट्ठिएहि दु जीवेहि ण होई सव्वदा सिरसो। करणेहि एक्कसमयट्ठिएहि सरिसो विसरिसो य।116। एदम्हि गुणट्ठाणे विसरिस-समय-ट्ठिएहि जीवेहि। पुव्वमपत्ता जम्हा होंति अपुव्वा हु परिणामा।117।
ध.1/1,1,16/180/1 करणा: परिणामा: न पूर्वा: अपूर्वा:। नानाजीवापेक्षया प्रतिसमयमादित:क्रमप्रवृद्धासंख्येयलोकपरिणामस्यास्य गुणस्यान्तर्विवक्षितसमयवर्तिप्राणिनो व्यतिरिच्यान्यसमयवर्तिप्राणिभिरप्राप्या अपूर्वा अत्रतनपरिणामैरसमाना इति यावत्। अपूर्वाश्च ते करणाश्चापूर्वकरणा:। =- अपूर्वकरण गुणस्थान में भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणामों की अपेक्षा कभी भी सदृशता नहीं पायी जाती है, किन्तु एक समयवर्ती जीवों के परिणामों की असपेक्षा सदृशता और विसदृशता दोनों ही पायी जाती है।116। (गो.जी./मू./52/140) इस गुणस्थान में विसदृश अर्थात् भिन्न–भिन्न समय में रहनेवाले जीव, जो पूर्व में कभी भी प्राप्त नहीं हुए थे, ऐसे अपूर्व परिणामों को ही धारण करते हैं। इसलिए इस गुणस्थान का नाम अपूर्वकरण है।117। (गो.जी./मू. 51/139)।
- करण शब्द का अर्थ परिणाम है, और जो पूर्व अर्थात् पहिले नहीं हुए उन्हें अपूर्व कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि नाना जीवों की अपेक्षा आदि से लेकर प्रत्येक समय में क्रम से बढ़ते हुए संख्यातलोक प्रमाण परिणामवाले इस गुणस्थान के अन्तर्गत विवक्षित समयवर्ती जीवों को छोड़कर अन्य समयवर्ती जीवों के द्वारा अप्राप्य परिणाम अपूर्व कहलाते हैं। अर्थात् विवक्षित समयवर्ती जीवों के परिणामों से भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम असमान अर्थात् विलक्षण होते हैं। इस तरह प्रत्येक समय में होनेवाले अपूर्व परिणामों को अपूर्वकरण कहते हैं। (यद्यपि यहाँ अपूर्वकरण नामक गुणस्थान की अपेक्षा कथन किया गया है, परन्तु सर्वत्र ही अपूर्वकरण का ऐसा लक्षण जानना) (रा.वा./9/1/12।589/4) (ल.सा.मू./51/83)।
- अपूर्वकरण का काल
ध.6/1,9-8,4/220/1 अपुव्वकरणद्धा अंतोमुहुत्तमेत्ता होदि त्ति। = अपूर्वकरण का काल अन्तर्मुहूर्तमात्र होता है। (गो.जी./मू./53/141) (गो.क./मू./910/1094)। - अपूर्वकरण में प्रतिसमय सम्भव परिणामों की संख्या
ध.6/1,9-8,4/220/1 अपुव्वकरणा अंतोमुहुत्तमेत्ता होदि त्ति अंतोमुहुत्तमेत्तसमयाणं पढमं रचणा कायव्वा। तत्थ पढमसमयपाओग्गविस हीणं पमाणमसंखेज्जा लोगा। विदियसमयपाओग्गविसोहीणं पमाणमसंखेज्जा लोगा। एवं णेयव्वं जाव चरिमसमओ त्ति। =अपूर्वकरण का काल अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है, इसलिए अन्तर्मुहूर्तप्रमाण समयों की पहले रचना करना चाहिए। उसमें प्रथम समय के योग्य विशुद्धियों का प्रमाण असंख्यात लोक है, दूसरे समय के योग्य विशुद्धियों का प्रमाण असंख्यात लोक है। इस प्रकार यह क्रम अपूर्वकरण के अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। (यहाँ अनुकृष्टि रचना नहीं है)।
गो.जी./मू./53/141 अंतोमुहुत्तमेत्ते पडियसमयमसंखलोगपरिणामा। कमउड्ढा पुव्वगुणे अणुकट्ठीणत्थि णियमेण।53। = अन्तर्मुहूर्तमात्र जो अपूर्वकरण का काल तीहिंविषै समय-समय प्रति क्रमतै एक-एक चय बंधता असंख्यात लोकमात्र परिणाम है। तहाँ नियमकरि पूर्वापर समय सम्बन्धी परिणामनि की समानता का अभावतै अनुकृष्टि विधान नाहीं है। - इहाँ भी अंक संदृष्टि करि दृष्टांत मात्र प्रमाण कल्पनाकरि रचना का अनुक्रम दिखाइये है – (अपूर्वकरण के परिणाम 4096; अपूर्वकरण का काल 8 समय; संख्यात का प्रमाण 4; चय 16.। इस प्रकार प्रथम समय से अन्तिम आठवें समय तक क्रम से एक-एक चय (16) बढ़ते – 456, 472, 488, 504, 520, 536, 552 और 568 परिणाम हो है। सर्व का जोड़ = 4096 (गो.क./मू./990/1094)। - परिणामों की विशुद्धता में वृद्धिक्रम
ध.6/1,9-8,4/220/4 पढमसमयविसोहीहिंतो विदियसमयविसोहीओ विसेसोहियाओ। एवं णेदव्वं जाव चरिमसमओत्ति। विसेसो पुण अंतोमुहुत्तपडिभागिओ। एदेसिं करणाणं तिव्व-मंददाए अप्पाबहुगं उच्चदे। तं जधा-अपुव्वकरणस्य पढमसमयजहण्णविसोही थोवा। तत्थेव उक्कस्सिया विसोही अणंतगुणा।विदियसमयजहण्णिया विसोही अणंतगुणा। तत्थेव उक्कस्सिया विसोही अणंतगुणा। तदियसमयजहिण्णया विसोही अणंतगुणा। तत्थेव उकस्सिया विसोही अणंतगुणा। एवं णेयव्वं जाव अपुव्वकरणचरिमसमओ त्ति। = प्रथम समय की विशुद्धियों से दूसरे समय की विशुद्धियाँ विशेष अधिक होती हैं। इस प्रकार यह क्रम अपूर्वकरण के अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। यहाँ पर विशेष अन्तर्मुहूर्त का प्रतिभागी है। इन करणोंकी, अर्थात् अपूर्वकरणकाल के विभिन्न समयवर्ती परिणामों की तीव्र-मन्दता का अल्पबहुत्व कहते हैं। वह इस प्रकार है – अपूर्वकरण की प्रथम समयसम्बन्धी जघन्य विशुद्धि सबसे कम है। वहाँ पर ही उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणित है। प्रथम समय की उत्कृष्ट विशुद्धि से द्वितीय समय की जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणित है। वहाँ पर ही उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणित है।...इसप्रकार यह क्रम अपूर्वकरण के अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। (ल.सा./मू.।52/84), (गो.जी./मू.वजी.प्र./53/142), (गो.क./मू.वजी.प्र./910/1094),(रा.वा./9/1/12/589/2)। - अपूर्वकरण के परिणामों की संदृष्टि व यन्त्र
कोशकार – अपूर्वकरण के परिणामों की संख्या व विशुद्धियों को दर्शाने के लिए निम्नप्रकार संदृष्टि की जा सकती है –कुल परिणाम = 4096, अनन्तगुणी वृद्धि = 1 चय, सर्वजघन्य परिणाम = अध:करण के उत्कृष्ट परिणाम 919से आगे अनन्तगुणा = 921 ।
यहाँ एक ही समयवर्ती जीवों के परिणामों में यद्यपि समानता भी पायी जाती है, क्योंकि एक ही प्रकार की विशुद्धिवाले अनेक जीव होने सम्भव हैं। और विसदृशता भी पायी जाती है, क्योंकि एक समयवर्ती परिणाम विशुद्धियों की संख्या असंख्यात लोक प्रमाण है। परन्तु भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणामों में तो सर्वथा असमानता ही है, समानता नहीं; क्योंकि, यहाँ अध:करणवत् अनुकृष्टि रचना का अभाव है। - अपूर्वकरण के चार आवश्यक
ल, सा./मू./53-54/84 गुणसेढीगुणसंकमठिदिरसखंडा अपुव्वकरणादो। गुणसंकमेण सम्मा मिस्साणं पूरणोत्ति हवे।53। ठिदि बंधोत्सरणं पुण अधापवत्तादुपूरणोत्ति हवे। ठिदिबंधट्ठिदिखंडुक्कीरणकाला समा होति।54। = अपूर्वकरण के प्रथम समयतैं लगाय यावत् सम्यक्त्वमोहनी मिश्रमोहनीय का पूरणकाल, जो जिस कालविषै गुणसंक्रमणकरि मिथ्यात्वकौं सम्यक्त्वमोहनी मिश्रमोहनी रूप परिणमावै है, तिस काल का अन्त समय पर्यन्त- गुणश्रेणी,
- गुणसंक्रमण,
- स्थितिखण्डन और
- अनुभाग खण्डन ए च्यार आवश्यक हो हैं।53। बहुरि स्थिति बंधापसरण है सो अध:प्रवृत्त करण का प्रथम समयतैं लगाय तिस गुणसंक्रमण पूरण होने का काल पर्यंत हो है। यद्यपि प्रायोग्यलब्धितैं ही स्थितिबंधापसरण हो है, तथापि प्रायोग्य लब्धिकै सम्यक्त्व होने का अनवस्थितपना है। नियम नाहीं है। तातैं ग्रहण न कीया। बहुरि स्थिति बंधापसरण काल अर स्थितिकांडकोत्करणकाल ए दोऊ समान अन्तर्मुहूर्त मात्र है। (विशेष देखो अपकर्षण /3,4) (यद्यपि प्रथमसम्यक्त्व का आश्रय करके कथन किया गया है पर सर्वत्र ये चार आवश्यक यथासम्भव जानना।) (ध.6/1, 9-8 5/224/1 तथा 227/7) (क्ष.सा./मू./397/487), (गो.जी./जी.प्र./54/147/8)।
- अपूर्वकरण व अध:प्रवृत्तकरण में कथंचित् समानता असमानता
ध.1/1,1,17/180/4 एतेनापूर्वविशेषेण अध:प्रवृत्तपरिणामव्युदास: कृत: इति द्रष्टव्य:, तत्रतनपरिणामानामपूर्वत्वाभावात्। =इसमें दिये गये अपूर्व विशेषण से अध:प्रवृत्त परिणामों का निराकरण किया गया है; ऐसा समझना चाहिए; क्योंकि, जहाँ पर उपरितनसमयवर्ती जीवों के परिणाम अधस्तनसमयवर्ती जीवों के परिणामों के साथ सदृश भी होते हैं और विसदृश भी होते हैं ऐसे अध:प्रवृत्त में होनेवाले परिणामों में अपूर्वता नहीं पायी जाती। (ऊपर-ऊपर के समयों में नियम से अनन्तगुण विशुद्ध विसदृश ही परिणाम अपूर्व कहला सकते हैं)।
ल.सा./मू./52।84 विदियकरणादिसमयादंतिमसमओत्ति अवरवरसुद्धी। अहिगदिणा खलु सव्वे होंति अणंतेण गुणियकमा।52। = दूसरे करण का प्रथम समयतै लगाय अन्त समयपर्यन्त अपने जघन्यतै अपना उत्कृष्ट अर पूर्व समय के उत्कृष्टतै उत्तर समय का जघन्य परिणाम क्रमतैं अनन्तगुणी विशुद्धता लीएं सर्प की चालवत् जानने।
(विशेष देखो करण। 5/4 तथा करण। 4/6)।
- अपूर्वकरण का लक्षण
- अनिवृत्तिकरण निर्देश
- अनिवृत्तिकरण का लक्षण
ध.1/1,1,17/119-120/186 एक्कम्मिकालसमए संठाणादीहि जह णिवट्टंति। ण णिवट्टंति तह च्चिय परिणामेहिं मिहो जे हु।119। होंति अणियट्टिणोते पडिसमयं जेस्सिमेक्कपरिणामा। विमलयर-झाण-हुयवह-सिहाहि णिद्दद्व-कम्म-वणा।120। = अन्तर्मुहूर्तमात्र अनिवृत्तिकरण के कालमें- से किसी एक समय में रहने वाले अनेक जीव जिस प्रकार शरीर के आकार, वर्ण आदि बाह्यरूप से और ज्ञानोपयोगादि अन्तरंग रूप से परस्पर भेद को प्राप्त होते हैं, उस प्रकार जिन परिणामों के द्वारा उनमें भेद नहीं पाया जाता है उनको अनिवृत्तिकरण परिणामवाले कहते हैं। और उनके प्रत्येक समय में उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धि से बढ़ते हुए एक से ही (समान विशुद्धि को लिये हुए ही) परिणाम पाये जाते हैं। तथा वे अत्यन्त निर्मल ध्यानरूप अग्नि की शिखाओं से कर्मवन को भस्म करनेवाले होते हैं। 119-120। (गो.जी./मू./56-57/149), (गो.क./मू./911-912/1098), (ल.सा./जी.प्र./36/71)।
ध. 1/1,1,17/183।11 समानसमायावस्थितजीवपरिणामानां निर्भेदेन वृत्ति: निवृत्ति:। अथवा निवृत्तिर्व्यावृत्ति:, न विद्यते निवृत्तिर्येषां तेऽनिवृत्तय:। = समान समयवर्ती जीवों के परिणामों की भेद रहित वृत्ति को निवृत्ति कहते हैं। अथवा निवृत्ति शब्द का अर्थ व्यावृत्ति भी है। अतएव जिन परिणामों की निवृत्ति अर्थात् व्यावृत्ति नहीं होती (अर्थात् जो छूटते नहीं) उन्हें ही अनिवृत्ति कहते हैं।–और भी देखें अनिवृत्तिकरण
- अनिवृत्तिकरण का काल
ध.6/1,9-8,4/221/8 अणियट्ठीकरणद्धा अंतोमुहुत्तमेत्ता होदि त्ति तिस्से अद्राए समया रचेदव्वा। = अनिवृत्तिकरण का काल अन्तर्मुहूर्तमात्र होता है। इसलिए उसके काल के समयों की रचना करना चाहिए। - अनिवृत्तिकरण में प्रति समय एक ही परिणाम सम्भव है
ध.6/1,9-8,4/221/9 एत्थ समयं पडि एक्केक्को चेव परिणामो होदि एक्कम्हिसमए जहण्णुक्कस्सपरिणामभेदाभावा। = यहाँ पर अर्थात् अनिवृत्तिकरणमें, एक-एक समय के प्रति एक-एक ही परिणाम होता है; क्योंकि, यहाँ एक समय में जघन्य और उत्कृष्ट परिणामों के भेद का अभाव है। (ल.सा./मू./83।118 तथा जी.प्र./36/71)। - अनिवृत्तिकरण के परिणामों की विशुद्धता में वृद्धिक्रम
ध.6/1,9-8,4/221/11 एदासिं (अणियट्टीकरणस्स) विसोहीणं तिव्व-मंददाए अप्पाबहुगं उच्चदे – पढमसमयविसोही थोवा। विदियसमयविसोही अणंतगुणा। तत्तो तदियसमयविसोही अजहण्णुक्कस्सा अणंतगुणा। एवं णेयव्वं जाव अणियट्टीकरणद्धाए चरिमसमओ त्ति। = अब अनिवृत्तिकरण सम्बन्धी विशुद्धियों की तीव्रता मन्दता का अल्बहुत्व कहते हैं – प्रथम समय सम्बन्धी विशुद्धि सबसे कम है। उससे द्वितीय समय की विशुद्धि अनन्तगुणित है। उससे तृतीय समय की विशुद्धि अजघन्योत्कृष्ट अनन्तगुणित है। इस प्रकार यह क्रम अनिवृत्तिकरणकाल के अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। - नाना जीवों में योगों की सदृशता का नियम नहीं है
ध.1/1,1,27/220/5 ण च तेसिं सव्वेसिं जोगस्स सरिसत्तणे णियमो अत्थ्िा लोगपूरणम्हिट्ठियकेवलीणं व तहा पडिवायय-सुत्ताभावादो। = अनिवृत्तिकरण के एक समयवर्ती सम्पूर्ण जीवों के योग की सदृशता का कोई नियम नहीं पाया जाता। जिस प्रकार लोकपूरण समुद्घात में स्थित केवलियों के योग की समानता का प्रतिपादक परमागम है उस प्रकार अनिवृत्तिकरण में योग की समानता का प्रतिपादक परमागम का अभाव है। - नाना जीवों में काण्डकघात आदि की समानता और प्रदेश बन्ध की असमानता
ध.1/1,1,27/220/5 ण च अणियट्ठिम्हि पदेसबंधो एयं समयम्हि वट्टमाणसव्वजीवाणं सरिसो तस्स जोगकारणत्तादो। - तदो सरिसपरिणामत्तादो सव्वेसिमणियट्ठीणं समाणसमयसंट्ठियाणं ट्ठिदिअणुभागघादत्त-बंधोसरण-गुणसेढि-णिज्जरासंकमणं सरिसत्तणं सिद्धं। = परन्तु इस कथन से अनिवृत्तिकरण के एक समय में स्थित सम्पूर्ण जीवों के प्रदेशबन्ध सदृश होता है, ऐसा नहीं समझ लेना चाहिए; क्योंकि, प्रदेशबन्ध योग के निमित्त से होता है और तहाँ योगों के सदृश होने का नियम नहीं है (देखो पहले नं.5 वाला शीर्षक)।...इसलिए समान समय में स्थित सम्पूर्ण अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवाले जीवों के सदृश परिणाम होने के कारण स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात, बन्धापसरण, गुणश्रेणी निर्जरा और संक्रमण में भी समानता सिद्ध हो जाती है।
क्ष.सा./मू./412-413/496 बाहरपढमे पढमं ठिदिखंडविसरिसं तु विदियादि। ठिदिखंडयं समाणं सव्वस्स समाणकालम्हि ।412। पल्लस्स संखभागं अवरं तु वरं तु संखभागहियं। घादादिमढिदिखंडो सेसो सव्वस्स सरिसा हु।413। = अनिवृत्तिकरण का प्रथम समयविषै पहिला स्थिति खण्ड है सो तो विसदृश है, नाना जीवनिकैं समान नाहीं है। बहुरि द्वितीयादि स्थितिखण्ड हैं ते समानकाल विषैं सर्वजीवनिकैं समान हैं। अनिवृत्तिकरण माढ़ै जिनकौं समान काल भया तिनकैं परस्पर द्वितीयादि स्थितिकाण्डक आयाम का समान प्रमाण जानना।412। सो प्रथत स्थिति खण्ड जघन्य तो पल्य का असंख्यातवाँ भाग मात्र है। उत्कृष्ट ताका संख्यातवाँ भाग करि अधिक है। बहुरि अवशेष द्वितीयादिखण्ड सर्व जीवनि के समान हो हैं। अपूर्वकरण का प्रथम समयतै लगाय अनिवृत्तिकरणविषै यावत् प्रथम खण्ड का घात न होइ तावत् ऐसे ही संभवै (अर्थात् किसी के स्थिति खण्ड जघन्य होइ और किसी के उत्कृष्ट) बहुरि तिस प्रथमकाण्ड का घात भए पीछे समान समयनिविषै प्राप्त सर्वर जीवनिकैं स्थिति सत्त्व की समानता हो है, तातै द्वितायादि काण्डक आयाम की भी समानता जाननी।413। - अनिवृत्तिकरण के चार आवश्यक
ध.6/1,9-8,5/229/8 ताधे चेव अण्णो ट्ठिदिखंडओ अण्णो अणुभागखंडओ, अण्णो ट्ठिदिबंधो च आढत्तो। पुव्वोकड्डिदपदेसग्गादो असंखेज्जगुणं पदेसमोकड्डिदूण अपुव्वकरणो व्व गलिदसेसं गुणसेढिं करेदि। ...एवं ट्ठिदिबंध-ट्ठिदिखंडय-अणुभागखंडयसहस्सेसु गदेसु अणियट्टीअद्धाए चरिमसमयं पावदि। = उसी (अनिवृत्तिकरण को प्रारम्भ करनेके) समय में ही- अन्य स्थितिखण्ड,
- अन्य अनुभाग खण्ड और
- अन्य स्थिति बन्ध(अपसरण)को आरम्भ करता है। पूर्व में अपकर्षित प्रदेशाग्र से असंख्यात गुणित प्रदेश का अपकर्षण कर अपूर्वकरण के समान गलितावशेष गुणश्रेणी को करता है। ...इस प्रकार सहस्रों स्थितिबन्ध, स्थितिकाण्डकघात, और अनुभागकाण्डकघातों के व्यतीत होनेपर अनिवृत्तिकरण के काल का अन्तिम समय प्राप्त होता है। (ल. सा./मू./83-84/118), (क्ष.सा./मू./411-437/495)।
- अनिवृत्तिकरण व अपूर्वकरण में अन्तर
ध.1/1,1,17/184/1 अपूर्वकरणाश्च तादृक्षा: केचित्सन्तीति तेषामप्ययं व्यपदेश: प्राप्नोतीति चेन्न, तेषां नियमाभावात्। = प्रश्न – अपूर्वकरण गुणस्थान में भी कितने ही परिणाम इस प्रकार के होते हैं (अर्थात् समान समयवर्ती जीवों के समान होते हैं और असमान समयवर्ती के भी परस्पर समान नहीं होते) अतएव उन परिणामों को भी अनिवृत्ति संज्ञा प्राप्त होनी चाहिए। उत्तर- नहीं, क्योंकि, उनके निवृत्ति रहित (अर्थात् समान) होने का कोई नियम नहीं है।
ल.सा./जी.प्र./36/71/16 अनिवृत्तिकरणोऽपि तथैव पूर्वोत्तरसमयेषु संख्याविशुद्धिसादृश्याभावाद् भिन्नपरिणाम एव। अयं तु विशेष: - प्रतिसमयमेकपरिणाम: जघन्यमध्यमोत्कृष्टपरिणामभेदाभावात्। यथाध:प्रवृत्तापूर्वकरणपरिणामा: प्रतिसमयं जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदादसंख्यातलोकमात्रविकल्पा: षट्स्थानवृद्ध्या वर्द्धमाना: सन्ति न तथानिवृत्तिकरणपरिणामा: तेषामेकस्मिन् समये कालत्रयेऽपि विशुद्धिसादृश्यादैक्यमुपचर्यते। = यद्यपि अपूर्वकरण की भाँति अनिवृत्तिकरण में भी पूर्वोत्तर समयों में होनेवाले परिणामों की संख्या व विशुद्धि सदृश न होने के कारण भिन्न परिणाम होते हैं, परन्तु यहाँ यह विशेष है कि प्रतिसमय एक ही परिणाम होता है, क्योंकि यहाँ जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट परिणामरूप भेद का अभाव है। अर्थात् जिस प्रकार अध:प्रवृत्तकरण और अपूर्वकरण के परिणाम प्रतिसमय जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से असंख्यात लोकमात्र विकल्पसहित षट्स्थान वृद्धि से वर्द्धमान होते हैं, उस प्रकार अनिवृत्तिकरण के परिणाम नहीं होते; क्योंकि, तीनों कालों में एक समयवर्ती उन परिणामों में विशुद्धि की सदृशता होने के कारण एकता कही गयी है।
- यहाँ जीवों के परिणामों की समानता का नियम समान समयवालों के लिए ही है, यह कैसे कहते हो?
ध.1/1,1,17/184/2 समानसमयस्थितजीवपरिणामानामिति कथमधिगम्यत इति चेन्न, ‘अपूर्वकरण’ इत्यनुवर्तनादेव द्वितीयादिसमयवर्तिजीवै: सह परिणामापेक्षया भेदसिद्धे:। = प्रश्न – इस गुणस्थान में जो जीवों के परिणामों की भेदरहित वृत्ति बतलायी है, वह समान समयवर्ती जीवों के परिणामों की ही विवक्षित है यह कैसे जाना ? उत्तर –‘अपूर्वकरण’ पद की अनुवृत्ति से ही यह सिद्ध होता है कि इस गुणस्थान में प्रथमादि समयवर्ती जीवों का द्वितीयादि समयवर्ती जीवों के साथ परिणामों की अपेक्षा भेद है। - गुणश्रेणी आदि अनेक कार्यों का कारण होते हुए भी इसके परिणामों में अनेकता क्यों नहीं कहते ?
ध. 1/1,1,27/219/2 कज्ज-णाणत्तादो कारणणाणत्तमणुमाणिज्जदि इदि एदमवि ण घडदे, एयादो मोग्गरादो बहुकोडिकवालोवलंभा। तत्थ वि होदु णाम मोग्गरो एओ, ण तस्स सत्तीणमेयत्तं, तदो एयक्खप्प-रुप्पत्ति-प्पसंगादो इदि चे तो क्खहि एत्थ वि भवदु णाम ट्ठिदिकंडयघाद-अणुभागकंडयघाद-ट्ठिदिबंधोसरण-गुणसंकम-गुणसेढी- ट्ठिदिअणुभागबंध-परिणामाणं णाणत्तं तो वि एग-समयसंठियणाणाजीवाणं सरिसा चेव, अण्णहा अणियट्टिविसेसणाणुववत्तीदो। जह एवं, तो सव्वेसिमणियट्टी-णमेय-समयम्हि वट्टमाणाणां ट्ठिदि-अणुभागघादाणं सरिसत्तं पावेदि त्ति चे ण दोसो, इट्ठत्तादो। पढम-ट्ठिदि-अणुभाग-खंडदाणं-सरिसत्त णियमो णत्थि, तदो णेदं घडदि त्ति चे ण दोसो, हद सेस-ट्ठिदि अणुभागाणं एय-पमाण-णियम-दंसणादो। = प्रश्न – अनेक प्रकार का कार्य होने से उनके साधनभूत अनेक प्रकार के कारणों का अनुमान किया जाता है ? अर्थात् अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रतिसमय असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा, स्थितिकाण्डकघात आदि अनेक कार्य देखे जाते हैं, इसलिए उनके साधनभूत परिणाम भी अनेक प्रकार के होने चाहिए ? उत्तर–यह कहना भी नहीं बनता है, क्योंकि, एक मुद्गर से अनेक प्रकार के कपालरूप कार्य की उपलब्धि होती है । प्रश्न–वहाँ पर मुद्गर एक भले ही रहा आवे, परन्तु उसकी शक्तियों में एकपना नहीं बन सकता है। यदि मुद्गर की शक्तियों में भी एकपना मान लिया जावे तो उससे एक कपालरूप कार्य की ही उत्पत्ति होगी ? उत्तर–यदि ऐसा है तो यहाँ पर भी स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात, स्थितिबन्धापसरण, गुणसंक्रमण, गुणश्रेणीनिर्जरा, शुभ प्रकृतियों के स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध के कारणभूत परिणामों में नानापना रहा आवे, तो भी एक समय में स्थित नाना जीवों के परिणाम सदृश ही होते हैं, अन्यथा उन परिणामों के ‘अनिवृत्ति’ यह विशेषण नहीं बन सकता है। प्रश्न–यदि ऐसा है तो एक समय में स्थित सम्पूर्ण अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवालों के स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात की समानता प्राप्ति हो जायेगी ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह बात तो हमें इष्ट ही है–देखें करण - 6.6। प्रश्न–प्रथत स्थितिकाण्डक और प्रथम अनुभागकाण्डक की समानता का नियम तो नहीं पाया जाता है, इसलिए उक्त कथन घटित नहीं होता है ? उत्तर–यह भी कोई दोष नहीं है, क्योंकि, प्रथम स्थिति के अवशिष्ट रहे हुए खण्ड का और उसके अनुभाग खण्ड का अनिवृत्तिकरण गणुस्थानवाले प्रथम समय में ही घात कर देते हैं, अतएव उनके द्वितीययादि समयों में स्थितिकाण्डकों का और अनुभाग काण्डाकों का एक प्रमाण नियम देखा जाता है।
- अनिवृत्तिकरण का लक्षण
पुराणकोष से
(1) जीव के शुभाशुभ परिणाम । ये तीन प्रकार के होते हैं—अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण । आसन्न भवयात्मा इनसे मिथ्यात्व प्रकृति को नष्ट करके सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है । महापुराण 9.120
(2) इन्द्रियां । महापुराण 2.91