जंबूद्वीप निर्देश: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> जम्बूद्वीप सामान्य निर्देश</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> जम्बूद्वीप सामान्य निर्देश</strong> </span><br /> | ||
त.सू./ | त.सू./3/9-23 <span class="SanskritGatha">तन्मध्ये मेरुनाभिवृत्तो योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः।9। भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहैरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि।10। तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निषधनीलरुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः।11।हेमार्जुनतपनीयवैडूर्यरजतहेममयाः।12। मणिविचित्रपार्श्वा उपरि मूले च तुल्यविस्ताराः।13। पद्ममहापद्मतिगिंछकेसरिमहापुण्डरीकपुण्डरीका हृदास्तेषामुपरि।14। प्रथमो योजनसहस्रायामस्तदर्द्धविष्कम्भो हृद:।।15।। दशयोजनावगाह:।।16।। तन्मध्ये योजनं पुष्करम्।17। तद्द्विगुणद्विगुणा हृदाः पुष्कराणि च ।18। तन्निवासिन्यो देव्यः श्रीह्नीधृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्यः पल्योपमस्थितयःससामानिकपरिषत्काः ।19। गङ्गासिन्धुरोहिद्रोहितास्याहरिद्धरिकान्तासीतासीतोदानारीनरकान्तासुवर्णरूप्यकूलारक्तारक्तोदाःसरितस्तमन्ध्यगाः।20। द्वयोर्द्वयोः पूर्वाः पूर्वगाः।21। शेषास्त्वपरगाः।22। चतुर्दशनदीसहस्रपरिवृता गङ्गासिन्ध्वादयो नद्यः।23।</span> = | ||
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<li><span class="HindiText"> उन सब (पूर्वोक्त असंख्यात द्वीप समुद्रों, - | <li><span class="HindiText"> उन सब (पूर्वोक्त असंख्यात द्वीप समुद्रों, - देखें [[ लोक#2.11 | लोक - 2.11]]) के बीच में गोल और 100,000 योजन विष्कम्भवाला जम्बूद्वीप है। जिसके मध्य में मेरु पर्वत है।9। (ति.प./4/11 व 5/8); (ह.पु./5/3); (ज.प./1/20)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> उसमें भरतवर्ष, हैमवतवर्ष, हरिवर्ष, विदेहवर्ष, रम्यकवर्ष, हैरण्यवतवर्ष और ऐरावतवर्ष ये सात वर्ष | <li><span class="HindiText"> उसमें भरतवर्ष, हैमवतवर्ष, हरिवर्ष, विदेहवर्ष, रम्यकवर्ष, हैरण्यवतवर्ष और ऐरावतवर्ष ये सात वर्ष अर्थात् क्षेत्र हैं।10। उन क्षेत्रों को विभाजित करने वाले और पूर्व पश्चिम लम्बे ऐसे हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी, और शिखरी ये छह वर्षधर या कुलाचल पर्वत हैं।11। (ति.प./4/90-94); (ह.पु./5/13-15); (ज.प./2/2 व 3/2); (त्रि.सा./564)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> ये छहों पर्वत क्रम से सोना, चाँदी, तपाया हुआ सोना, वैडूर्यमणि, चाँदी और सोना इनके समान रंगवाले | <li><span class="HindiText"> ये छहों पर्वत क्रम से सोना, चाँदी, तपाया हुआ सोना, वैडूर्यमणि, चाँदी और सोना इनके समान रंगवाले हैं।12। इनके पार्श्वभाग मणियों से चित्र-विचित्र हैं। तथा ये ऊपर, मध्य और मूल में समान विस्तारवाले हैं।13। (ति.प./4/94-95); (त्रि.सा./566)</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> इन कुलाचल पर्वतों के ऊपर क्रम से पद्म, महापद्म, तिगिंछ, केसरी, महापुण्डरीक, और पुण्डरीक, ये तालाब | <li><span class="HindiText"> इन कुलाचल पर्वतों के ऊपर क्रम से पद्म, महापद्म, तिगिंछ, केसरी, महापुण्डरीक, और पुण्डरीक, ये तालाब हैं।14। (ह.पु./5/120-121); (ज.प./3/69)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> पहिला जो पद्म नाम का तालाब है उसके मध्य एक योजन का कमल है। (इसके चारों तरफ अन्य भी अनेकों कमल हैं - दे आगे लोक/ | <li><span class="HindiText"> पहिला जो पद्म नाम का तालाब है उसके मध्य एक योजन का कमल है। (इसके चारों तरफ अन्य भी अनेकों कमल हैं - दे आगे लोक/3/9। इससे आगे के हृदों में भी कमल हैं। वे तालाब व कमल उत्तरोत्तर दूने विस्तार वाले हैं।17-18। (ह.पु./5/129); (ज.प./3/69)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> पद्म हृद को आदि लेकर इन कमलों पर क्रम से श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये देवियाँ, अपने-अपने सामानिक | <li><span class="HindiText"> पद्म हृद को आदि लेकर इन कमलों पर क्रम से श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये देवियाँ, अपने-अपने सामानिक परिषद् आदि परिवार देवों के साथ रहती हैं - (देखें [[ व्यंतर#3.2 | व्यंतर - 3.2]])।19। (ह.पु./5/130)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> (उपरोक्त पद्म आदि द्रहों में से निकल कर भरत आदि क्षेत्रों में से प्रत्येक में दो-दो करके क्रम से) गंगा-सिन्धु, रोहित-रोहितास्या, हरित-हरिकान्ता, सीता-सीतोदा, नारी-नरकान्ता, सुवर्णकूला-रूप्यकूला, रक्ता-रक्तोदा नदियाँ बहती हैं। | <li><span class="HindiText"> (उपरोक्त पद्म आदि द्रहों में से निकल कर भरत आदि क्षेत्रों में से प्रत्येक में दो-दो करके क्रम से) गंगा-सिन्धु, रोहित-रोहितास्या, हरित-हरिकान्ता, सीता-सीतोदा, नारी-नरकान्ता, सुवर्णकूला-रूप्यकूला, रक्ता-रक्तोदा नदियाँ बहती हैं। 20। (ह.पु./5/122-125)। (तिनमें भी गंगा, सिन्धु व रोहितास्या ये तीन पद्म द्रह से, रोहित व हरिकान्ता महापद्मद्रह से, हरित व सीतोदा तिगिंछ द्रह से, सीता व नरकान्ता केशरी द्रह से नारी व रूप्यकूला महापुण्डरीक से तथा सुवर्णकूला, रक्ता व रक्तोदा पुण्डरीक सरोवर से निकलती हैं - (ह.पु./5/132-135)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> उपरोक्त युगलरूप दो-दो नदियों में से पहली--पहली नदी पूर्व समुद्र में गिरती हैं और पिछली-पिछली नदी | <li><span class="HindiText"> उपरोक्त युगलरूप दो-दो नदियों में से पहली--पहली नदी पूर्व समुद्र में गिरती हैं और पिछली-पिछली नदी पश्चिम समुद्र में गिरती हैं।21-22) . (ह.पु./5/160); (ज.प./3/192-193)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> गंगा, सिन्धु आदि नदियों की चौदह-चौदह हजार परिवार नदियाँ हैं। (यहाँ यह विशेषता है कि प्रथम गंगा-सिन्धु यगुल में से प्रत्येक की | <li><span class="HindiText"> गंगा, सिन्धु आदि नदियों की चौदह-चौदह हजार परिवार नदियाँ हैं। (यहाँ यह विशेषता है कि प्रथम गंगा-सिन्धु यगुल में से प्रत्येक की 14000, द्वि. युगल में प्रत्येक की 28000 इस प्रकार सीतोदा नदी तक उत्तरोत्तर दूनी नदियाँ हैं। तदनन्तर शेष तीन युगलों में पुनः उत्तरोत्तर आधी-आधी हैं। (स.सि./3/23/220/10); (रा.वा./3/23/3/190/13), (ह.पु./5/275-276)।<br /> | ||
ति.प./ | ति.प./4/गा. का भावार्थ- </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> यह द्वीप एक जगती करके वेष्टित | <li><span class="HindiText"> यह द्वीप एक जगती करके वेष्टित है।15। (ह.पु./5/3), (ज.प./1/26)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> इस जगती की पूर्वादि चारों दिशाओं में विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नाम के चार द्वार | <li><span class="HindiText"> इस जगती की पूर्वादि चारों दिशाओं में विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नाम के चार द्वार हैं।41-42। (रा.वा./3/9/1/170/29); (ह.पु./5/390); (त्रि.सा./892); (ज.प./1/38,42)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> इनके अतिरिक्त यह द्वीप अनेकों वन उपवनों, कुण्डों, गोपुर-द्वारों, देव-नगरियों व पर्वत, नदी, सरोवर, कुण्ड आदि सबकी वेदियों करके शोभित हैं। | <li><span class="HindiText"> इनके अतिरिक्त यह द्वीप अनेकों वन उपवनों, कुण्डों, गोपुर-द्वारों, देव-नगरियों व पर्वत, नदी, सरोवर, कुण्ड आदि सबकी वेदियों करके शोभित हैं। 92-99।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> (प्रत्येक पर्वत पर अनेकों कूट होते हैं (देखें | <li><span class="HindiText"> (प्रत्येक पर्वत पर अनेकों कूट होते हैं (देखें [[ आगे उन ]]उन पर्वतों का निर्देश ) प्रत्येक पर्वत व कूट, नदी, कुण्ड, द्रह, आदि वेदियों करके संयुक्त होते हैं - (देखें [[ अगला शीर्षक ]])। प्रत्येक पर्वत, कुण्ड, द्रह, कूटों पर भवनवासी व व्यन्तर देवों के पुर, भवन व आवास हैं - (देखें [[ व्यन्तर#4.1 | व्यन्तर - 4.1]]-5)। प्रत्येक पर्वतादि के ऊपर तथा उन देवों के भवनों में जिन चैत्यालय होते हैं। (देखें [[ चैत्यालय#3.2 | चैत्यालय - 3.2]])।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
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</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> जम्बूद्वीप में पर्वत नदी आदि का प्रमाण <br /> | ||
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<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.2.1" id="3.2.1"> क्षेत्र, नगर आदि का प्रमाण</strong><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2.1" id="3.2.1"> क्षेत्र, नगर आदि का प्रमाण</strong><br /> | ||
(ति. प./ | (ति. प./2396-2397); (ह. पु./5/8-11); (ज. प./1/55)। </span></li> | ||
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</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText">1</span></p></td> | ||
<td width="114" valign="top"><p><span class="HindiText">महाक्षेत्र</span></p></td> | <td width="114" valign="top"><p><span class="HindiText">महाक्षेत्र</span></p></td> | ||
<td width="78" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="78" valign="top"><p><span class="HindiText">7</span></p></td> | ||
<td width="312" valign="top"><p><span class="HindiText">भरत हैमवत आदि ( देखें | <td width="312" valign="top"><p><span class="HindiText">भरत हैमवत आदि (देखें [[ लोक#3.3 | लोक - 3.3]]।।</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText">2</span></p></td> | ||
<td width="114" valign="top"><p><span class="HindiText">कुरुक्षेत्र</span></p></td> | <td width="114" valign="top"><p><span class="HindiText">कुरुक्षेत्र</span></p></td> | ||
<td width="78" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="78" valign="top"><p><span class="HindiText">2</span></p></td> | ||
<td width="312" valign="top"><p><span class="HindiText">देवकुरु व उत्तर कुरु</span></p></td> | <td width="312" valign="top"><p><span class="HindiText">देवकुरु व उत्तर कुरु</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText">3</span></p></td> | ||
<td width="114" valign="top"><p><span class="HindiText">कर्मभूमि </span></p></td> | <td width="114" valign="top"><p><span class="HindiText">कर्मभूमि </span></p></td> | ||
<td width="78" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="78" valign="top"><p><span class="HindiText">34</span></p></td> | ||
<td width="312" valign="top"><p><span class="HindiText">भरत, ऐरावत व | <td width="312" valign="top"><p><span class="HindiText">भरत, ऐरावत व 32 विदेह।</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText">4</span></p></td> | ||
<td width="114" valign="top"><p><span class="HindiText">भोगभूमि</span></p></td> | <td width="114" valign="top"><p><span class="HindiText">भोगभूमि</span></p></td> | ||
<td width="78" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="78" valign="top"><p><span class="HindiText">6</span></p></td> | ||
<td width="312" valign="top"><p><span class="HindiText">हैमवत, करि, | <td width="312" valign="top"><p><span class="HindiText">हैमवत, करि, रम्यक व हैरण्यवत तथा दोनों कुरुक्षेत्र</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText">5</span></p></td> | ||
<td width="114" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="114" valign="top"><p><span class="HindiText">आर्यखण्ड</span></p></td> | ||
<td width="78" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="78" valign="top"><p><span class="HindiText">34</span></p></td> | ||
<td width="312" valign="top"><p><span class="HindiText">प्रति कर्मभूमि एक</span></p></td> | <td width="312" valign="top"><p><span class="HindiText">प्रति कर्मभूमि एक</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText">6</span></p></td> | ||
<td width="114" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="114" valign="top"><p><span class="HindiText">म्लेच्छ खण्ड</span></p></td> | ||
<td width="78" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="78" valign="top"><p><span class="HindiText">170</span></p></td> | ||
<td width="312" valign="top"><p><span class="HindiText">प्रति कर्मभूमि | <td width="312" valign="top"><p><span class="HindiText">प्रति कर्मभूमि पांच</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText">7</span></p></td> | ||
<td width="114" valign="top"><p><span class="HindiText">राजधानी</span></p></td> | <td width="114" valign="top"><p><span class="HindiText">राजधानी</span></p></td> | ||
<td width="78" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="78" valign="top"><p><span class="HindiText">34</span></p></td> | ||
<td width="312" valign="top"><p><span class="HindiText">प्रति कर्मभूमि एक</span></p></td> | <td width="312" valign="top"><p><span class="HindiText">प्रति कर्मभूमि एक</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText">8</span></p></td> | ||
<td width="114" valign="top"><p><span class="HindiText">विद्याधरों के नगर।</span></p></td> | <td width="114" valign="top"><p><span class="HindiText">विद्याधरों के नगर।</span></p></td> | ||
<td width="78" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="78" valign="top"><p><span class="HindiText">3750</span></p></td> | ||
<td width="312" valign="top"><p><span class="HindiText">भरत व ऐरावत के विजयाधर्मों में से | <td width="312" valign="top"><p><span class="HindiText">भरत व ऐरावत के विजयाधर्मों में से प्रत्येक पर 115 तथा 32 विदेहों के विजयार्धों में से प्रत्येक पर 110 (देखें [[ विद्याधर ]])। </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
</table> | </table> | ||
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<ol start="2"> | <ol start="2"> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.2.2" id="3.2.2">पर्वतों का प्रमाण <br> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2.2" id="3.2.2">पर्वतों का प्रमाण <br> | ||
</strong>(ति. प. | </strong>(ति. प.4/2394-2397); (ह. पु./5/8-10); (त्रि. सा/731); </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</ol> | </ol> | ||
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</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="54" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="54" valign="top"><p><span class="HindiText">1</span></p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p><span class="HindiText">मेरु</span></p></td> | <td width="120" valign="top"><p><span class="HindiText">मेरु</span></p></td> | ||
<td width="72" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="72" valign="top"><p><span class="HindiText">1</span></p></td> | ||
<td width="342" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="342" valign="top"><p><span class="HindiText">जम्बूद्वीप के बीचोबीच।</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="54" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="54" valign="top"><p><span class="HindiText">2</span></p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p><span class="HindiText">कुलाचल</span></p></td> | <td width="120" valign="top"><p><span class="HindiText">कुलाचल</span></p></td> | ||
<td width="72" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="72" valign="top"><p><span class="HindiText">6</span></p></td> | ||
<td width="342" valign="top"><p><span class="HindiText">हिमवान् आदि ( देखें | <td width="342" valign="top"><p><span class="HindiText">हिमवान् आदि (देखें [[ लोक#3.3 | लोक - 3.3]])।</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="54" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="54" valign="top"><p><span class="HindiText">3</span></p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p><span class="HindiText">विजयार्ध</span></p></td> | <td width="120" valign="top"><p><span class="HindiText">विजयार्ध</span></p></td> | ||
<td width="72" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="72" valign="top"><p><span class="HindiText">34</span></p></td> | ||
<td width="342" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="342" valign="top"><p><span class="HindiText">प्रत्येक कर्मभूमि में एक। </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="54" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="54" valign="top"><p><span class="HindiText">4</span></p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p><span class="HindiText">वृषभगिरि</span></p></td> | <td width="120" valign="top"><p><span class="HindiText">वृषभगिरि</span></p></td> | ||
<td width="72" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="72" valign="top"><p><span class="HindiText">34</span></p></td> | ||
<td width="342" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="342" valign="top"><p><span class="HindiText">प्रत्येक कर्मभूमि के उत्तर मध्य-म्लेच्छ खण्ड में एक।</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="54" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="54" valign="top"><p><span class="HindiText">5</span></p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p><span class="HindiText">नाभिगिरि</span></p></td> | <td width="120" valign="top"><p><span class="HindiText">नाभिगिरि</span></p></td> | ||
<td width="72" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="72" valign="top"><p><span class="HindiText">4</span></p></td> | ||
<td width="342" valign="top"><p><span class="HindiText">हैमवत, हरि, | <td width="342" valign="top"><p><span class="HindiText">हैमवत, हरि, रम्यक व हैरण्यवत क्षेत्रों के बीचोबीच।</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="54" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="54" valign="top"><p><span class="HindiText">6</span></p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p><span class="HindiText">वक्षार</span></p></td> | <td width="120" valign="top"><p><span class="HindiText">वक्षार</span></p></td> | ||
<td width="72" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="72" valign="top"><p><span class="HindiText">16</span></p></td> | ||
<td width="342" valign="top"><p><span class="HindiText">पूर्व व ऊपर विदेह के उत्तर व दक्षिण में चार-चार।</span></p></td> | <td width="342" valign="top"><p><span class="HindiText">पूर्व व ऊपर विदेह के उत्तर व दक्षिण में चार-चार।</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="54" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="54" valign="top"><p><span class="HindiText">7</span></p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p><span class="HindiText">गजदन्त</span></p></td> | <td width="120" valign="top"><p><span class="HindiText">गजदन्त</span></p></td> | ||
<td width="72" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="72" valign="top"><p><span class="HindiText">4</span></p></td> | ||
<td width="342" valign="top"><p><span class="HindiText">मेरु की चारों विदिशाओं में।</span></p></td> | <td width="342" valign="top"><p><span class="HindiText">मेरु की चारों विदिशाओं में।</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="54" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="54" valign="top"><p><span class="HindiText">8</span></p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="120" valign="top"><p><span class="HindiText">दिग्गजेन्द्र</span></p></td> | ||
<td width="72" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="72" valign="top"><p><span class="HindiText">8</span></p></td> | ||
<td width="342" valign="top"><p><span class="HindiText">विदेह क्षेत्र के भद्रशालवन में व दोनों कुरुओं में सीता व सीतोदा नदी के दोनों तटों पर।</span></p></td> | <td width="342" valign="top"><p><span class="HindiText">विदेह क्षेत्र के भद्रशालवन में व दोनों कुरुओं में सीता व सीतोदा नदी के दोनों तटों पर।</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="54" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="54" valign="top"><p><span class="HindiText">9</span></p></td> | ||
<td width="120" valign="top"><p><span class="HindiText">यमक</span></p></td> | <td width="120" valign="top"><p><span class="HindiText">यमक</span></p></td> | ||
<td width="72" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="72" valign="top"><p><span class="HindiText">4</span></p></td> | ||
<td width="342" valign="top"><p><span class="HindiText">दो कुरुओं में सीता व सीतोदा के दोनों तटों पर।</span></p></td> | <td width="342" valign="top"><p><span class="HindiText">दो कुरुओं में सीता व सीतोदा के दोनों तटों पर।</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="54" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="54" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">10</span></p></td> | ||
<td width="120" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">कांचनगिरि</span></p></td> | <td width="120" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">कांचनगिरि</span></p></td> | ||
<td width="72" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="72" valign="top"><p><span class="HindiText">200</span></p></td> | ||
<td width="342" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">दोनों कुरुओं में | <td width="342" rowspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">दोनों कुरुओं में पांच-पांच द्रहों के दोनों पार्श्व भागों में दस-दस।</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="72" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="72" valign="top"><p><span class="HindiText">311</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
</table> | </table> | ||
Line 174: | Line 174: | ||
<ol> | <ol> | ||
<ol start="3"> | <ol start="3"> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.2.3" id="3.2.3">नदियों का प्रमाण </strong> <br>(ति. प./ | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2.3" id="3.2.3">नदियों का प्रमाण </strong> <br>(ति. प./4/2380-2385); (ह. पु./5/272-277); (त्रि. सा./747-750); (ज. प./3/197-198)। </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 183: | Line 183: | ||
नाम </span></td> | नाम </span></td> | ||
<td width="84" valign="top"><p><span class="HindiText">गणना </span></p></td> | <td width="84" valign="top"><p><span class="HindiText">गणना </span></p></td> | ||
<td width="138" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="138" valign="top"><p><span class="HindiText">प्रत्येक का परिवार </span></p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">कुल प्रमाण </span></p></td> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">कुल प्रमाण </span></p></td> | ||
<td width="179" valign="top"><p><span class="HindiText">विवरण </span></p></td> | <td width="179" valign="top"><p><span class="HindiText">विवरण </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="175" valign="top"><p><span class="HindiText">गंगा- | <td width="175" valign="top"><p><span class="HindiText">गंगा-सिन्धु</span></p></td> | ||
<td width="84" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="84" valign="top"><p><span class="HindiText">2</span></p></td> | ||
<td width="138" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="138" valign="top"><p><span class="HindiText">14000</span></p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">28002</span></p></td> | ||
<td width="179" valign="top"><p><span class="HindiText">भरतक्षेत्र में</span></p></td> | <td width="179" valign="top"><p><span class="HindiText">भरतक्षेत्र में</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="175" valign="top"><p><span class="HindiText">रोहित- | <td width="175" valign="top"><p><span class="HindiText">रोहित-रोहितास्या</span></p></td> | ||
<td width="84" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="84" valign="top"><p><span class="HindiText">2</span></p></td> | ||
<td width="138" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="138" valign="top"><p><span class="HindiText">28000</span></p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">56002</span></p></td> | ||
<td width="179" valign="top"><p><span class="HindiText">हेमवत् क्षेत्र में</span></p></td> | <td width="179" valign="top"><p><span class="HindiText">हेमवत् क्षेत्र में</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="175" valign="top"><p><span class="HindiText">हरित | <td width="175" valign="top"><p><span class="HindiText">हरित हरिकान्ता </span></p></td> | ||
<td width="84" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="84" valign="top"><p><span class="HindiText">2</span></p></td> | ||
<td width="138" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="138" valign="top"><p><span class="HindiText">56000</span></p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">112002</span></p></td> | ||
<td width="179" valign="top"><p><span class="HindiText">हरि क्षेत्र में</span></p></td> | <td width="179" valign="top"><p><span class="HindiText">हरि क्षेत्र में</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="175" valign="top"><p><span class="HindiText">नारी | <td width="175" valign="top"><p><span class="HindiText">नारी नरकान्ता </span></p></td> | ||
<td width="84" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="84" valign="top"><p><span class="HindiText">2</span></p></td> | ||
<td width="138" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="138" valign="top"><p><span class="HindiText">56000</span></p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">112002</span></p></td> | ||
<td width="179" valign="top"><p> </p> | <td width="179" valign="top"><p> </p> | ||
<p><span class="HindiText"> | <p><span class="HindiText">रम्यक क्षेत्र में</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="175" valign="top"><p><span class="HindiText">सुवर्णकूला व | <td width="175" valign="top"><p><span class="HindiText">सुवर्णकूला व रूप्यकूला</span></p></td> | ||
<td width="84" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="84" valign="top"><p><span class="HindiText">2</span></p></td> | ||
<td width="138" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="138" valign="top"><p><span class="HindiText">28000</span></p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">56002</span></p></td> | ||
<td width="179" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="179" valign="top"><p><span class="HindiText">हैरण्यवत् क्षेत्र में</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="175" valign="top"><p><span class="HindiText">रक्ता-रक्तोदा</span></p></td> | <td width="175" valign="top"><p><span class="HindiText">रक्ता-रक्तोदा</span></p></td> | ||
<td width="84" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="84" valign="top"><p><span class="HindiText">2</span></p></td> | ||
<td width="138" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="138" valign="top"><p><span class="HindiText">14000</span></p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">28002 </span></p></td> | ||
<td width="179" valign="top"><p><span class="HindiText">ऐरावत क्षेत्र में </span></p></td> | <td width="179" valign="top"><p><span class="HindiText">ऐरावत क्षेत्र में </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
Line 233: | Line 233: | ||
<td width="175" valign="top"><p><span class="HindiText">छह क्षेत्रों की कुल नदियाँ </span></p></td> | <td width="175" valign="top"><p><span class="HindiText">छह क्षेत्रों की कुल नदियाँ </span></p></td> | ||
<td width="84" valign="top"><p> </p></td> | <td width="84" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="138" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="138" valign="top"><p><span class="HindiText">392012 </span></p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p> </p></td> | <td width="96" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="179" valign="top"><p> </p></td> | <td width="179" valign="top"><p> </p></td> | ||
Line 239: | Line 239: | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="175" valign="top"><p><span class="HindiText">सीता सीतोदा </span></p></td> | <td width="175" valign="top"><p><span class="HindiText">सीता सीतोदा </span></p></td> | ||
<td width="84" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="84" valign="top"><p><span class="HindiText">2</span></p></td> | ||
<td width="138" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="138" valign="top"><p><span class="HindiText">84000</span></p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">168002</span></p></td> | ||
<td width="179" valign="top"><p><span class="HindiText">दोनों कुरुओं में</span></p></td> | <td width="179" valign="top"><p><span class="HindiText">दोनों कुरुओं में</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="175" valign="top"><p><span class="HindiText">क्षेत्र नदियाँ</span></p></td> | <td width="175" valign="top"><p><span class="HindiText">क्षेत्र नदियाँ</span></p></td> | ||
<td width="84" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="84" valign="top"><p><span class="HindiText">64</span></p></td> | ||
<td width="138" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="138" valign="top"><p><span class="HindiText">14000</span></p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">896064</span></p></td> | ||
<td width="179" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="179" valign="top"><p><span class="HindiText">32 विदेहों में</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="175" valign="top"><p><span class="HindiText">विभंगा </span></p></td> | <td width="175" valign="top"><p><span class="HindiText">विभंगा </span></p></td> | ||
<td width="84" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="84" valign="top"><p><span class="HindiText">12 </span></p></td> | ||
<td width="138" valign="top"><p align="center"><span class="HindiText">× </span></p></td> | <td width="138" valign="top"><p align="center"><span class="HindiText">× </span></p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">12 </span></p></td> | ||
<td width="179" valign="top"><p> </p></td> | <td width="179" valign="top"><p> </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
Line 262: | Line 262: | ||
<td width="84" valign="top"><p> </p></td> | <td width="84" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="138" valign="top"><p align="center"> </p></td> | <td width="138" valign="top"><p align="center"> </p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">1064078</span></p></td> | ||
<td width="179" valign="top"><p><span class="HindiText">ह.पु. व ज.प. की अपेक्षा </span></p></td> | <td width="179" valign="top"><p><span class="HindiText">ह.पु. व ज.प. की अपेक्षा </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="175" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="175" valign="top"><p><span class="HindiText">जम्बूद्वीप की कुल नदी</span></p></td> | ||
<td width="84" valign="top"><p> </p></td> | <td width="84" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="138" valign="top"><p align="center"> </p></td> | <td width="138" valign="top"><p align="center"> </p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">1456090</span></p></td> | ||
<td width="179" valign="top"><p> </p></td> | <td width="179" valign="top"><p> </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="175" valign="top"><p><span class="HindiText">विभंगा</span></p></td> | <td width="175" valign="top"><p><span class="HindiText">विभंगा</span></p></td> | ||
<td width="84" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="84" valign="top"><p><span class="HindiText">12</span></p></td> | ||
<td width="138" valign="top"><p align="center"><span class="HindiText"> | <td width="138" valign="top"><p align="center"><span class="HindiText">28000</span></p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">336000</span></p></td> | ||
<td width="179" valign="top"><p> </p></td> | <td width="179" valign="top"><p> </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="175" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="175" valign="top"><p><span class="HindiText">जम्बूद्वीप की कुल नदी</span></p></td> | ||
<td width="84" valign="top"><p> </p></td> | <td width="84" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="138" valign="top"><p align="center"> </p></td> | <td width="138" valign="top"><p align="center"> </p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">1792090</span></p></td> | ||
<td width="179" valign="top"><p><span class="HindiText">ति.प. की अपेक्षा </span></p></td> | <td width="179" valign="top"><p><span class="HindiText">ति.प. की अपेक्षा </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
Line 290: | Line 290: | ||
<ol> | <ol> | ||
<ol start="4"> | <ol start="4"> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.2.4" id="3.2.4"> द्रह- | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2.4" id="3.2.4"> द्रह-कुण्ड आदि</strong> </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 303: | Line 303: | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText">1</span></p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">द्रह</span></p></td> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">द्रह</span></p></td> | ||
<td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText">16</span></p></td> | ||
<td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText">कुलाचलों पर | <td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText">कुलाचलों पर 6 तथा दोनों कुरु में 10‒(ज. प./1/67)।</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText">2</span></p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">कुण्ड</span></p></td> | ||
<td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText">1792090</span></p></td> | ||
<td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText">नदियों के बराबर (ति. प./ | <td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText">नदियों के बराबर (ति. प./4/2386)।</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText">3</span></p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">वृक्ष</span></p></td> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">वृक्ष</span></p></td> | ||
<td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText">2</span></p></td> | ||
<td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText">जम्बू व शाल्मली (ह. पु./5/8)</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText">4</span></p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">गुफाए</span></p></td> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">गुफाए</span></p></td> | ||
<td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText">68</span></p></td> | ||
<td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText">34 विजयाधर्मों की (ह. पु./5/10)</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText">5</span></p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">वन</span></p></td> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">वन</span></p></td> | ||
<td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText">अनेक</span></p></td> | <td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText">अनेक</span></p></td> | ||
<td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText">मेरु के | <td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText">मेरु के 4 वन भद्रशाल, नन्दन, सौमनस व पाण्डुक। पूर्वा पर विदेह के छोरों पर देवारण्यक व भूतारण्यक। सर्वपर्वतों के शिखरों पर, उनके मूल में, नदियों के दोनों पार्श्व भागों में इत्यादि।</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText">6</span></p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">कूट</span></p></td> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">कूट</span></p></td> | ||
<td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText">568</span></p></td> | ||
<td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText">(ति. प./ | <td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText">(ति. प./4/2396)</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText">7</span></p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">चैत्यालय</span></p></td> | ||
<td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText">अनेक </span></p></td> | <td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText">अनेक </span></p></td> | ||
<td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText">कुण्ड, वनसमूह, नदियां, देव नगरियां, पर्वत, तोरण द्वार, द्रह, दोनों वृक्ष, आर्य खण्ड के तथा विद्याधरों के नगर आदि सब पर चैत्यालय हैं—(देखें [[ चैत्यालय ]])।</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText">8</span></p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">वेदियां</span></p></td> | ||
<td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText">अनेक</span></p></td> | <td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText">अनेक</span></p></td> | ||
<td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText">उपरोक्त प्रकार जितने भी | <td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText">उपरोक्त प्रकार जितने भी कुण्ड आदि तथा चैत्यालय आदि हैं उतनी ही उनकी वेदियां है। (ति. प./4/23-88-2390)।</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="55" valign="top"><p> </p></td> | <td width="55" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p> </p></td> | <td width="96" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText">18</span></p></td> | ||
<td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText">जम्बूद्वीप के क्षेत्रों की (ज. प./1/60-67)</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="55" valign="top"><p> </p></td> | <td width="55" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p> </p></td> | <td width="96" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText">311</span></p></td> | ||
<td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText">सर्व पर्वतों की (ज. प./ | <td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText">सर्व पर्वतों की (ज. प./1/60-67)</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="55" valign="top"><p> </p></td> | <td width="55" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p> </p></td> | <td width="96" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText">16</span></p></td> | ||
<td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText">द्रहों की (ज. प./ | <td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText">द्रहों की (ज. प./1/60-67)</span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="55" valign="top"><p> </p></td> | <td width="55" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p> </p></td> | <td width="96" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText">24</span></p></td> | ||
<td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText">पद्मादि द्रहों की (ज. प./ | <td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText">पद्मादि द्रहों की (ज. प./1/60-67) </span></p></td> | ||
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<td width="55" valign="top"><p> </p></td> | <td width="55" valign="top"><p> </p></td> | ||
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<td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText">90</span></p></td> | ||
<td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText">कुण्डों की (ज. प./1/60-67)</span></p></td> | ||
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<td width="55" valign="top"><p> </p></td> | <td width="55" valign="top"><p> </p></td> | ||
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<td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText">14</span></p></td> | ||
<td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText">गंगादि महानदियों की (ज. प./ | <td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText">गंगादि महानदियों की (ज. प./1/60-67)</span></p></td> | ||
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<td width="55" valign="top"><p> </p></td> | <td width="55" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p> </p></td> | <td width="96" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText">5200</span></p></td> | ||
<td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText">कुण्डज महानदियों की (ज. प./1/60-67)</span></p></td> | ||
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<td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="55" valign="top"><p><span class="HindiText">9</span></p></td> | ||
<td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">कमल </span></p></td> | <td width="96" valign="top"><p><span class="HindiText">कमल </span></p></td> | ||
<td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText"> | <td width="90" valign="top"><p><span class="HindiText">2241856</span></p></td> | ||
<td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText">कुल द्रह= | <td width="431" valign="top"><p><span class="HindiText">कुल द्रह=16 और प्रत्येक द्रह में <br /> | ||
कमल= | कमल=140116-(देखें [[ आगे द्रहनिर्देश ]]) </span></p></td> | ||
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<li class="HindiText"> जम्बूद्वीप के दक्षिण में प्रथम भरतक्षेत्र जिसके उत्तर में | <li class="HindiText"> जम्बूद्वीप के दक्षिण में प्रथम भरतक्षेत्र जिसके उत्तर में हिमवान् पर्वतऔर तीन दिशाओं में लवणसागर है। (रा.वा./3/10/3/171/12)। इसके बीचोंबीच पूर्वापरलम्बायमान एक विजयार्ध पर्वत है। (ति. प./4/107); (रा.वा./3/10/4/171/17); (ह.पु./5/20); (ज.प./2/32)। इसके पूर्व में गंगा और पश्चिम में सिन्धु नदी बहती है। (देखें [[ लोक#3.1 | लोक - 3.1]]) ये दोनों नदियाँ हिमवान् के मूल भाग में स्थित गंगा व सिन्धु नाम के दो कुण्डों से निकलकर पृथक्-पृथक् पूर्व व पश्चिम दिशा में, उत्तर से दक्षिण की ओर बहती हुई विजयार्ध दो गुफा में से निकलकर दक्षिण क्षेत्र के अर्धभाग तक पहुँचकर और पश्चिम की ओर मुड़ जाती हैं, और अपने-अपने समुद्र में गिर जाती हैं - ( देखें [[ लोक#3.11 | लोक - 3.11]])। इस प्रकार इन दो नदियों व विजयार्ध से विभक्त इस क्षेत्र के छह खण्ड हो जाते हैं। (ति. प./4/266); (स.सि./3//10/213/6); (रा.वा./3/10/3/171/13)। विजयार्थ की दक्षिण के तीन खण्डों में से मध्य का खण्ड आर्यखण्ड है और शेष पाँच खण्ड म्लेच्छ खण्ड हैं - (देखें [[ आर्यखण्ड#2 | आर्यखण्ड - 2]])। आर्यखण्ड के मध्य 12×9 यो. विस्तृत विनीता या अयोध्या नाम की प्रधान नगरी है जो चक्रवर्ती की राजधानी होती है। (रा.वा./3/10/1/171/6)। विजयार्ध के उत्तरवाले तीन खण्डों में मध्यवाले म्लेच्छ खण्ड के बीचों-बीच वृषभगिरि नाम का एक गोल पर्वत है जिस पर दिग्विजय कर चुकने पर चक्रवर्ती अपना नाम अंकित करता है। (ति.प./4/268-269); (त्रि.सा./710); (ज.प./2/107)। </li> | ||
<li class="HindiText"> इसके | <li class="HindiText"> इसके पश्चात् हिमवान् पर्वत के उत्तर में तथा महाहिमवान् के दक्षिण में दूसरा हेमवत क्षेत्र है (रा.वा./3/10/5/172/17); (ह.पु./5/57)। इसके बहुमध्य भाग में एक गोल शब्दवान् नाम का नाभिगिरि पर्वत है (ति.प./1704); (रा.वा./3/10/7/172/21)। इस क्षेत्र के पूर्व में रोहित और पश्चिम में रोहितास्या नदियाँ बहती हैं। (देखें [[ लोक#3.1.7 | लोक - 3.1.7]])। ये दोनों ही नदियाँ नाभिगिरि के उत्तर व दक्षिण में उससे 2 कोस परे रहकर ही उसकी प्रदक्षिणा देती हुई अपनी-अपनी दिशाओं में मुड़ जाती हैं, और बहती हुई अन्त में अपनी-अपनी दिशा वाले सागर में गिर जाती हैं। -(देखें [[ आगे लोक#3.11 | आगे लोक - 3.11]])। </li> | ||
<li class="HindiText"> इसके | <li class="HindiText"> इसके पश्चात् महाहिमवान् के उत्तर तथा निषध पर्वत के दक्षिण में तीसरा हरिक्षेत्र है (रा.वा./3/10/6/172/19)। नील के उत्तर में और रुक्मि पर्वत के दक्षिण में पाँचवाँ रम्यकक्षेत्र है। (रा.वा./3/10/15/181/15) पुनः रुक्मि के उत्तर व शिखरी पर्वत के दक्षिण में छठा हैरण्यवत क्षेत्र है। (रा.वा./3/10/18/181/21) तहाँ विदेह क्षेत्र को छोड़कर इन चारों का कथन हैमवत के समान है। केवल नदियों व नाभिगिरि पर्वत के नाम भिन्न हैं - देखें [[ लोक#3.1 | लोक - 3.1]]/7) व लोक /5/8। </li> | ||
<li class="HindiText"> निषध पर्वत के उत्तर तथा नीलपर्वत के दक्षिण में विदेह क्षेत्र स्थित है। (ति.प./ | <li class="HindiText"> निषध पर्वत के उत्तर तथा नीलपर्वत के दक्षिण में विदेह क्षेत्र स्थित है। (ति.प./4/2474); (रा.वा./3/10/12/173/4)। इस क्षेत्र की दिशाओं का यह विभाग भरत क्षेत्र की अपेक्षा है सूर्योदय की अपेक्षा नहीं, क्योंकि वहाँ इन दोनों दिशाओं में भी सूर्य का उदय व अस्त दिखाई देता है। (रा.वा./3/10/13/173/10)। इसके बहुमध्यभागमें सुमेरु पर्वत है (देखें [[ लोक#3.6 | लोक - 3.6]])। (ये क्षेत्र दो भागों में विभक्त हैं - कुरुक्षेत्र व विदेह) मेरु पर्वत की दक्षिण व निषध के उत्तर में देवकुरु है (ति.प./4/2138-2139)। मेरु के पूर्व व पश्चिम भाग में पूर्व व अपर विदेह है, जिनमें पृथक् - पृथक् 16, 16 क्षेत्र हैं, जिन्हें 32 विदेह कहते हैं। (ति.प./4/2199)। (दोनों भागों का इकट्ठा निर्देश — रा. वा./3/10/13/173/6) (नोट - इन दोनों भागों के विशेष कथन के लिए देखें [[ आगे पृथक् शीर्षक ]](देखें [[ लोक#3.1 | लोक - 3.1]]2-14) )। </li> | ||
<li class="HindiText"> सबसे अन्त में शिखरी पर्वत के उत्तर में तीन तरफ से लवणसागर के साथ स्पर्शित सातवाँ ऐरावत क्षेत्र है। (रा.वा./ | <li class="HindiText"> सबसे अन्त में शिखरी पर्वत के उत्तर में तीन तरफ से लवणसागर के साथ स्पर्शित सातवाँ ऐरावत क्षेत्र है। (रा.वा./3/10/21/181/28)। इसका सम्पूर्ण कथन भरतक्षेत्रवत् है (ति.प./4/2365); (रा.वा./3/10/22/181/30) केवल इनकी दोनों नदियों के नाम भिन्न हैं (देखें [[ लोक#3.1.7 | लोक - 3.1.7]]) तथा 5/8)।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> भरत व हैमवत इन दोनों क्षेत्रों की सीमा पर पूर्व-पश्चिम लम्बायमान ( देखें | <li class="HindiText"> भरत व हैमवत इन दोनों क्षेत्रों की सीमा पर पूर्व-पश्चिम लम्बायमान (देखें [[ लोक#3.1.2 | लोक - 3.1.2]]) प्रथम हिमवान् पर्वत है - (रा.वा./3/11/2/182/6)। इस पर 11 कूट हैं - (ति.प./4/1632); (रा.वा./3/11/2/182/16); (ह.पु./5/52); (त्रि.सा./721); (ज.प./3/39)। पूर्व दिशा के कूट पर जिनायतन और शेष कूटों पर यथा योग्य नामधारी व्यन्तर देव व देवियों के भवन हैं (देखें [[ लोक#5.4 | लोक - 5.4]])। इस पर्वत के शीर्ष पर बीचों-बीच पद्म नाम का हृद है (ति.प./4/16-58); (देखें [[ लोक#3.1.4 | लोक - 3.1.4]])।</li> | ||
<li class="HindiText"> तदनन्तर | <li class="HindiText"> तदनन्तर हैमवत् क्षेत्र के उत्तर व हरिक्षेत्र के दक्षिण में दूसरा महाहिमवान् पर्वत है। (रा.वा./3/11/4/182/31)। इस पर पूर्ववत् आठ कूट हैं (ति. प. /4/1724); (रा.वा. 3/11/4/183/4); (ह.पु. 5/70); (त्रि.सा./724)(ज.प./3/39)। इसके शीर्ष पर पूर्ववत् महापद्म नाम का द्रह है। (ति.प./4/1727); (देखें [[ लोक#3.1.4 | लोक - 3.1.4]])। </li> | ||
<li class="HindiText"> तदनन्तर हरिवर्ष के उत्तर व विदेह के दक्षिण में तीसरा निषधपर्वत है। (रा.वा./ | <li class="HindiText"> तदनन्तर हरिवर्ष के उत्तर व विदेह के दक्षिण में तीसरा निषधपर्वत है। (रा.वा./3/11/6/183/11)। इस पर्वत पर पूर्ववत 9 कूट हैं (ति. प./4/1758); (रा. वा./3/11/6/183/17): (ह.पु./5/87): (त्रि.सा./725): (ज.प./3/39)। इसके शीर्ष पर पूर्ववत् तिगिंछ नाम का द्रह है (ति.प./4/1761); (देखें [[ लोक#3.1.4 | लोक - 3.1.4]])। </li> | ||
<li class="HindiText"> तदनन्तर विदेह के उत्तर तथा रम्यकक्षेत्र के दक्षिण दिशा में दोनों क्षेत्रों को विभक्त करने वाला निषधपर्वत के सदृश चौथा नीलपर्वत है। (ति.प./ | <li class="HindiText"> तदनन्तर विदेह के उत्तर तथा रम्यकक्षेत्र के दक्षिण दिशा में दोनों क्षेत्रों को विभक्त करने वाला निषधपर्वत के सदृश चौथा नीलपर्वत है। (ति.प./4/2327); (रा.वा./3/11/8/23)। इस पर पूर्ववत् 9 कूट हैं। (ति. प./4/2328); (रा.वा./3/11/8/183/24); (ह.पु./5/99); (त्रि.सा./729); (ज.प./3/39)। इतनी विशेषता है कि इस पर स्थित द्रह का नाम केसरी है। (ति.प./4/2332); (देखें [[ लोक#3.1 | लोक - 3.1]]/4)। </li> | ||
<li class="HindiText"> तदनन्तर रम्यक व हैरण्यवत क्षेत्रों का विभाग करने वाला तथा महा हिमवान पर्वत के सदृश | <li class="HindiText"> तदनन्तर रम्यक व हैरण्यवत क्षेत्रों का विभाग करने वाला तथा महा हिमवान पर्वत के सदृश 5वाँ रुक्मि पर्वत है, जिस पर पूर्ववत आठ कूट हैं। (ति. प./4/2340); (रा.वा./3/11/10/183/30); (ह.पु./5/102); (त्रि.सा./727)। इस पर्वत पर महापुण्डरीक द्रह है। (देखें [[ लोक#3.1.4 | लोक - 3.1.4]])। ति. प. की अपेक्षा इसके द्रह का नाम पुण्ड्रीक है। (वि.प./4/2344)। </li> | ||
<li class="HindiText"> अन्त में जाकर हैरण्यवत व ऐरावत क्षेत्रों की सन्धि पर हिमवान पर्वत के सदृश छठा शिखरी पर्वत है, जिस पर | <li class="HindiText"> अन्त में जाकर हैरण्यवत व ऐरावत क्षेत्रों की सन्धि पर हिमवान पर्वत के सदृश छठा शिखरी पर्वत है, जिस पर 11 कूट हैं। (ति. प./4/2356); (रा.वा./3/11/12/184/3); (ह.पु./5/105); (त्रि. सा./728); (ज.प./3/39) इस पर स्थित द्रह का नाम पुण्ड्रीक है (देखें [[ लोक#3.1 | लोक - 3.1]]/4)। ति.प. की अपेक्षा इसके द्रह का नाम महापुण्डरीक है। (ति.प./4/2360)।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> भरतक्षेत्र के मध्य में पूर्व-पश्चिम लम्बायमान विजयार्ध पर्वत है ( देखें | <li class="HindiText"> भरतक्षेत्र के मध्य में पूर्व-पश्चिम लम्बायमान विजयार्ध पर्वत है (देखें [[ लोक#3.3.1 | लोक - 3.3.1]])। भूमितल से 10 योजन ऊपर जाकर इसकी उत्तर व दक्षिण दिशा में विद्याधर नगरों की दो श्रेणियाँ हैं। तहाँ दक्षिण श्रेणी में 55 और उत्तर श्रेणी में 60 नगर हैं। इन श्रेणियों से भी 10 योजन ऊपर जाकर उसीप्रकार दक्षिण व उत्तर दिशा में आभियोग्य देवों की श्रेणियाँ हैं। (देखें [[ विद्याधर ]]/4)। इसके ऊपर 9 कूट हैं। (ति. प./4/146); (रा.वा./3/10/4/172/10); ह.पु./5/26); (ज.प./2/48)। पूर्व दिशा के कूट पर सिद्धायतन है और शेष पर यथायोग्य नामधारी व्यन्तर व भवनवासी देव रहते हैं। (देखें [[ लोक#5.4 | लोक - 5.4]])। इसके मूलभाग में पूर्व व पश्चिम दिशाओं में तमिस्र व खण्डप्रपात नाम की दो गुफाएँ हैं, जिनमें क्रम से गंगा व सिन्धु नदी प्रवेश करती हैं। (ति. प./4/175); (रा.वा./3/10/4/17/171/27); (ज.प./2/89)। रा.वा व. त्रि.सा. के मत से पूर्व दिशा में गंगाप्रवेश के लिए खण्डप्रपात और पश्चिम दिशा में सिन्धु नदी के प्रवेश के लिए तमिस्र गुफा है (देखें [[ लोक#3.10 | लोक - 3.10]])। इन गुफाओं के भीतर बहु मध्यभाग में दोनों तटों से उन्मग्ना व निमग्ना नाम की दो नदियाँ निकलती हैं जो गंगा और सिन्धु में मिल जाती हैं। (ति. प./4/237), (रा.वा./3/10/4/171/31); (त्रि. सा./593); (ज.प./2/95-98);</li> | ||
<li class="HindiText"> इसी प्रकार ऐरावत क्षेत्र के मध्य में भी एक विजयार्ध है, जिसका सम्पूर्ण कथन भरत | <li class="HindiText"> इसी प्रकार ऐरावत क्षेत्र के मध्य में भी एक विजयार्ध है, जिसका सम्पूर्ण कथन भरत विजयार्धवत् है (दे .लोक /3/3)। कूटों व तन्निवासी देवों के नाम भिन्न हैं। (देखें [[ लोक#5.4 | लोक - 5.4]])। </li> | ||
<li class="HindiText"> विदेह के | <li class="HindiText"> विदेह के 32 क्षेत्रों में से प्रत्येक के मध्य पूर्वापर लम्बायमान विजयार्ध पर्वत है। जिनका सम्पूर्ण वर्णन भरत विजयार्धवत् है। विशेषता यह कि यहाँ उत्तर व दक्षिण दोनों श्रेणियों में 55, 55 नगर हैं . (ति. प./4/2257, 2260); (रा.वा./3/10/13/176/20); (ह.पु./5/255-256); (त्रि. सा./611-695)। इनके ऊपर भी 9,9 कूट हैं (त्रि.सा./692)। परन्तु उनके व उन पर रहने वाले देवों के नाम भिन्न हैं। (देखें [[ लोक#5.4 | लोक - 5.4]])।<br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="3.6.1" id="3.6.1"> सामान्य निर्देश</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="3.6.1" id="3.6.1"> सामान्य निर्देश</strong> <br /> | ||
विदेहक्षेत्र के बहु मध्यभाग में सुमेरु पर्वत है। (ति.प./ | विदेहक्षेत्र के बहु मध्यभाग में सुमेरु पर्वत है। (ति.प./4/1780); (रा.वा./3/10/13/173/16); (ज.प./4/21)। यह पर्वत तीर्थंकरों के जन्माभिषेक का आसनरूपमाना जाता है (ति.प./4/1780); (ज.प./4/21), क्योंकि इसके शिखर पर पाण्डुकवन में स्थित पाण्डुक आदि चार शिलाओं पर भरत, ऐरावत तथा पूर्व व पश्चिम विदेहों के सर्व तीर्थंकरों का देव लोग जन्माभिषेक करते हैं (देखें [[ लोक#3.3.4 | लोक - 3.3.4]])। यह तीनों लोकों का मानदण्ड है, तथा इसके मेरु, सुदर्शन, मन्दर आदि अनेकों नाम हैं (देखें [[ सुमेरु#2 | सुमेरु - 2]])।<br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="3.6.2" id="3.6.2"> मेरु का आकार</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="3.6.2" id="3.6.2"> मेरु का आकार</strong> <br /> | ||
यह पर्वत गोल आकार वाला है। (ति.प./ | यह पर्वत गोल आकार वाला है। (ति.प./4/1782)। पृथिवी तलपर 10,0,00 योजन विस्तार तथा 99,000 योजन उत्सेध वाला है। क्रम से हानिरूप होता हुआ इसका विस्तार शिखर पर जाकर 1000 योजन रह जाता है। (देखें [[ लोक चित्र#6.4 | लोक चित्र - 6.4]])। इसकी हानि का क्रम इस प्रकार है - क्रम से हानिरूप होता हुआ पृथिवी तल से 500 योजन ऊपर जाने पर नन्दनवन के स्थान पर यह चारों ओर से युगपत् 500 योजन संकुचित होता है। तत्पश्चात् 11,000 योजन समान विस्तार से जाता है। पुनः 51,500 योजन क्रमिक हानिरूप से जानेपर सौमनस वन के स्थान पर चारों ओर से 500 यो. संकुचित होता है। यहाँ से 11,000 योजन तक पुनः समान विस्तार से जाता है उसके ऊपर 25,000 योजन क्रमिक हानिरूप से जाने पर पाण्डुकवन के स्थान पर चारों ओर से युगपत् 494 योजन संकुचित होता है। (ति. /4/1788-1791); (ह.पु./5/287-301) इसका बाह्य विस्तार भद्रशाल आदि वनों के स्थान पर क्रम से 10,000 9954(6/11), 4272(8/11) तथा 1000 योजन प्रमाण है (ति. प./4/1783 + 1990+ 1939+ 1810); (ह.पु./5/287-301) और भी देखें [[ लोक#6.6 | लोक - 6.6 ]]में इन वनों का विस्तार)। इस पर्वत के शीश पर पाण्डुक वन के बीचों बीच 40 यो. ऊँची तथा 12 यो. मूल विस्तार युक्त चूलिका है। (ति.प./4/1814); (रा.वा./3/10/13/180/14); (ह.पु./5/302); (त्रि.सा./637); (ज.प./4/132); (विशेष देखें [[ लोक#6.4 | लोक - 6.4]]-2 में चूलिका विस्तार)।<br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="3.6.3" id="3.6.3"> मेरु की परिधियाँ</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="3.6.3" id="3.6.3"> मेरु की परिधियाँ</strong> <br /> | ||
नीचे से ऊपर की ओर इस पर्वत की परिधि सात मुख्य भागों में विभाजित है - हरितालमयी, वैडूर्यमयी, सर्वरत्नमयी, वज्रमयी, मद्यमयी और पद्मरागमयी | नीचे से ऊपर की ओर इस पर्वत की परिधि सात मुख्य भागों में विभाजित है - हरितालमयी, वैडूर्यमयी, सर्वरत्नमयी, वज्रमयी, मद्यमयी और पद्मरागमयी अर्थात् लोहिताक्षमयी। इन छहों में से प्रत्येक 16,500 यो. ऊँची है। भूमितल अवगाही सप्त परिधि (पृथिवी उपल बालु का आदि रूप होने के कारण) नाना प्रकार है। (ति.प./4/1802-1804), (ह.पु./5/304)। दूसरी मान्यता के अनुसार ये सातों परिधियाँ क्रम से लोहिताक्ष, पद्म, तपनीय, वैडूर्य, वज्र, हरिताल और जाम्बूनद-सुवर्णमयी हैं। प्रत्येक परिधि की ऊँचाई 16500 योजन है। पृथिवीतल के नीचे 1000 यो. पृथिवी, उपल, बालु का और शर्करा ऐसे चार भाग रूप हैं। तथा ऊपर चूलिका के पास जाकर तीन काण्डकों रूप है। प्रथम काण्डक सर्वरत्नमयी, द्वितीय जाम्बूनदमयी और तीसरा काण्डक चूलिका का है जो वैडूर्यमयी है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.6.4" id="3.6.4"> वनखण्ड निर्देश</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.6.4" id="3.6.4"> वनखण्ड निर्देश</strong> <br /> | ||
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<li class="HindiText"> सुमेरु पर्वत के तलभाग में भद्रशाल नाम का प्रथम वन है जो पाँच भागों में विभक्त है - भद्रशाल, मानुषोत्तर, देवरमण, नागरमण और भूतरमण। (ति. प./ | <li class="HindiText"> सुमेरु पर्वत के तलभाग में भद्रशाल नाम का प्रथम वन है जो पाँच भागों में विभक्त है - भद्रशाल, मानुषोत्तर, देवरमण, नागरमण और भूतरमण। (ति. प./4/1805); (ह.पु./5/307) इस वनकी चारों दिशाओं में चार जिनभवन हैं। (ति. प./4/2003); (त्रि.सा./611); (ज.प./4/49) इनमें से एक मेरु से पूर्व तथा सीता नदी के दक्षिण में है। दूसरा मेरु की दक्षिण व सीतोदा के पूर्व में है। तीसरा मेरु से पश्चिम तथा सीतीदा के उत्तर में है और चौथा मेरु के उत्तर व सीता के पश्चिम में है। (रा.वा./3/10/178/18) इन चैत्यालयों का विस्तार पाण्डुक वन के चैत्यालयों से चौगुना है (ति.प./4/2004)। इस वन में मेरु की चारों तरफ सीता व सीतोदा नदी के दोनों तटों पर एक-एक करके आठ दिग्गजेन्द्र पर्वत हैं। (देखें [[ लोक#3.12 | लोक - 3.12]]) </li> | ||
<li class="HindiText"> भद्रशाल वन से | <li class="HindiText"> भद्रशाल वन से 500 योजन ऊपर जाकर मेरु पर्वत की कटनी पर द्वितीय वन स्थित है। (देखें [[ पिछला उपशीर्षक#1 | पिछला उपशीर्षक - 1]])। इसके दो विभाग हैं नन्दन व उपनन्दन। (ति. प./4/1806); ह.पु./5/308) इसकी पूर्वादि चारों दिशाओं में पर्वत के पास क्रम से मान, धारणा, गन्धर्व व चित्र नाम के चार भवन हैं जिनमें क्रम से सौधर्म इन्द्र के चार लोकपाल सोम, यम, वरुण व कुबेर क्रीड़ा करते हैं।) (ति. प./4/1994-1996); (ह.पु./315-317); (त्रि. सा./619, 621); (ज.प./4/83-84)। कहीं-कहीं इन भवनों को गुफाओं के रूप में बताया जाता है। (रा.वा./3/10/13/179/14)। यहाँ भी मेरु के पास चारों दिशाओं में चार जिनभवन हैं। (ति. प./4/1998); (रा.वा./3/10/13/179/32); (ह.पु./5/358); (त्रि.सा./611)। प्रत्येक जिनभवन के आगे दो-दो कूट हैं - जिनपर दिक्कुमारी देवियाँ रहती हैं। ति. प. की अपेक्षा ये आठ कूट इस वन में न होकर सौमनस वन में ही हैं। (देखें [[ लोक#5.5 | लोक - 5.5]])। चारों विदिशाओं में सौमनस वन की भाँति चार-चार करके कुल 16 पुष्करिणियाँ हैं। (ति. प./4/1998); (रा.वा./3/10/13/179/25); (ह.पु. /5/334-335+343 - 346); (त्रि. सा./628); (ज.प./4/110-113)। इस वन की ईशान दिशा में एक बलभद्र नाम का कूट है जिसका कथन सौमनस वन के बलभद्र कूट के समान है। इस पर बलभद्र देव रहता है। (ति.प./4/1997); (रा.वा./3/10/13/179/16); (ह.पु./5/328); (त्रि.सा./624); (ज.प./4/99)। </li> | ||
<li class="HindiText"> नन्दन वन में | <li class="HindiText"> नन्दन वन में 62500 योजन ऊपर जाकर सुमेरु पर्वत पर तीसरा सौमनस वन स्थित है। देखें [[ लोक#3.6 | लोक - 3.6]],1)। इसके दो विभाग हैं- सौमनस व उपसौमनस (ति.प./4/1806); (ह.पु./5/308)। इसकी पूर्वादि चारों दिशाओं में मेरु के निकट वज्र, वज्रमय, सुवर्ण व सुवर्णप्रभ नाम के चार पुर हैं, (ति. प./4/1943); (ह.पु./5/319); (त्रि.सा./620); (ज.प./4/91) इनमें भी नन्दन वन के भवनोंवत् सोम आदि लोकपाल क्रीड़ा करते हैं। (त्रि.सा./621)। चारों विदिशाओं में चार-चार पुष्करिणी हैं। (ति.प./4/1946(1962-1966); (रा.वा./3/10/13/180/7)। पूर्वादि चारों दिशाओं में चार जिनभवन हैं (ति.प./4/1968); (ह.पु./5/357); (त्रि.सा./611); (ज.प./4/64)। प्रत्येक जिन मन्दिर सम्बन्धी बाह्य कोटों के बाहर उसके दोनों कोनों पर एक-एक करके कुल आठ कूट हैं। जिनपर दिक्ककुमारी देवियाँ रहती हैं। (देखें [[ लोक#5.5 | लोक - 5.5]])। इसकी ईशान दिशा में बलभद्र नाम का कूट है जो 500 योजन तो वन के भीतर है और 500 योजन उसके बाहर आकाश में निकला हुआ है। (ति.प./4/1981); (ज.प./4/101); इस पर बलभद्र देव रहता है। (ति. प./4/1984) मतान्तर की अपेक्षा इस वन में आठ कूट व बलभद्र कूट नहीं हैं। (रा.वा./3/10/13/180/6)। (देखें [[ सामनेवाला चित्र ]])। 4. सौमनस वनसे 36000 योजन ऊपर जाकर मेरु के शीर्ष पर चौथा पाण्डुक वन है। (देखें [[ लोक#3.6 | लोक - 3.6]],1) जो चूलिका को वेष्टित करके शीर्ष पर स्थित है (ति.प./4/1814)। इसके दो विभाग हैं - पाण्डुक व उपपाण्डुक। (ति. प./4/1806); (ह.पु./5/309)। इसके चारों दिशाओं में लोहित, अंजन, हरिद्र और पाण्डुक नाम के चार भवन हैं जिनमें सोम आदि लोकपाल क्रीड़ा करते हैं। (ति. प./4/1836, 1852); (ह.पु./5/322), (त्रि. सा./620); (ज.प./4/93); चारों विदिशाओं में चार-चार करके 16 पुष्करिणियाँ हैं। (रा.वा./3/10/16/180/26)। वन के मध्य चूलिका की चारों दिशाओं में चार जिनभवन हैं। (ति.प./4/1855, 1935); (रा.वा./3/10/13/180/28); (ह.पु./5/354); (त्रि.सा./611); (ज.प./4/64)। वन की ईशान आदि दिशाओं में अर्ध चन्द्राकार चार शिलाएं हैं - पाण्डुक शिला, पाण्डुकंबला शिला, रक्ताकंबला शिला और रक्तशिला। रा.वा. के अनुसार ये चारों पूर्वादि दिशाओं में स्थित हैं। (ति. प. /4/1818, 1830-1834); (रा.वा./3/10/13/180/15); (ह.पु./5/347); (त्रि.सा./633); (ज.प./4/138-141)। इन शिलाओंपर क्रम से भरत, अपरविदेह, ऐरावत और विदेह के तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है। (ति.प./4/1827,1831-1835); (रा.वा./3/10/13/180/22); (ह.पु./5/353); (त्रि.सा./634); (ज.प./4/148-150)।<br /> | ||
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<li class="HindiText" name="3.6" id="3.6"><strong> पाण्डुकशिला निर्देश</strong> <br /> | <li class="HindiText" name="3.6" id="3.6"><strong> पाण्डुकशिला निर्देश</strong> <br /> | ||
पाण्डुक शिला | पाण्डुक शिला 100 योजन /लम्बी 50 योजन चौड़ी है, मध्य में 8 योजन ऊँची है और दोनों ओर क्रमशः हीन होती गयी है। इस प्रकार यह अर्धचन्द्रकार है। इसके बहुमध्यदेश में तीन पीठ युक्त एक सिंहासन है और सिंहासन के दोनों पार्श्व भागों में तीन पीठ युक्त ही एक भद्रासन है। भगवान् के जन्माभिषेक के अवसर पर सौधर्म व ऐशानेन्द्र दोनों इन्द्र भद्रासनों पर स्थित होते हैं और भगवान् को मध्य सिंहासन पर विराजमान करते हैं। (ति.प./4/1819-1829); (रा.वा./3/10/13/180/20); (ह.पु./5/349-352); (त्रि.सा./635-636); (ज.प./4/142-147)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="3.8" id="3.8"><strong> अन्य पर्वतों का निर्देश</strong> <br /> | <li><span class="HindiText" name="3.8" id="3.8"><strong> अन्य पर्वतों का निर्देश</strong> <br /> | ||
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<li class="HindiText"> भरत, ऐरावत व विदेह इन तीन को छोड़कर शेष हैमवत आदि चार क्षेत्रों के बहुमध्य भाग में एक-एक नाभिगिरि है। (ह.पु./ | <li class="HindiText"> भरत, ऐरावत व विदेह इन तीन को छोड़कर शेष हैमवत आदि चार क्षेत्रों के बहुमध्य भाग में एक-एक नाभिगिरि है। (ह.पु./5/161); (त्रि.सा./718-719); (ज.प./3/209); (वि.देखें [[ लोक#5.13.2 | लोक - 5.13.2]])। ये चारों पर्वत ऊपर-नीचे समान गोल आकार वाले हैं। (ति.प./4/1704); (त्रि.सा./718); (ज.प./3/210)।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मेरु पर्वत की विदिशाओं में हाथी के दाँत के आकारवाले चार गजदन्त पर्वत हैं। जो एक ओर तो निषध व नील कुलाचलों को और दसरी तरफ मेरु को स्पर्श करते हैं। तहाँ भी मेरु पर्वत के मध्यप्रदेश में केवल एक-एक प्रदेश उससे संलग्न हैं। (ति.प./ | <li class="HindiText"> मेरु पर्वत की विदिशाओं में हाथी के दाँत के आकारवाले चार गजदन्त पर्वत हैं। जो एक ओर तो निषध व नील कुलाचलों को और दसरी तरफ मेरु को स्पर्श करते हैं। तहाँ भी मेरु पर्वत के मध्यप्रदेश में केवल एक-एक प्रदेश उससे संलग्न हैं। (ति.प./4/2012-2014)। ति. प. के अनुसार इन पर्वतों के परभाग भद्रशाल वन की वेदी को स्पर्श करते हैं, क्योंकि वहाँ उनके मध्य का अन्तराल 53000 यो. बताया गया है। तथा सग्गायणी के अनुसार उन वेदियों से 500 यो. हटकर स्थित है, क्योंकि वहाँ उनके मध्य का अन्तराल 52000 यो. बताया है। (देखें [[ लोक#6.3.1 | लोक - 6.3.1 ]]में देवकुरु व उत्तरकुरु का विस्तार)। अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार उन वायव्य आदि दिशाओं में जो-जो भी नामवाले पर्वत हैं, उन पर क्रम से 7,9,7,9 कूट हैं। (ति. प./4/2031, 2046, 2058, 2060); (ह.पु./5/216), (विशेष देखें [[ लोक#5.3.3 | लोक - 5.3.3]])। मतान्तर से इन पर क्रम से 7,10,7,9 कूट हैं। (रा.वा./30/10/13/173/23,30/14/18)। ईशान व नैर्ऋत्य दिशावाले विद्युत्प्रभ व माल्यवान गजदन्तों के मूल में सीता व सीतोदा नदियों के निकलने के लिए एक-एक गुफा होती है। (ति.प./4/2055, 2063)।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> देवकुरु व उत्तरकुर में सीतोदा व सीता नदी के दोनों तटों पर एक यमक पर्वत हैं ( देखें | <li class="HindiText"> देवकुरु व उत्तरकुर में सीतोदा व सीता नदी के दोनों तटों पर एक यमक पर्वत हैं (देखें [[ आगे लोक#3.12 | आगे लोक - 3.12]])। ये गोल आकार वाले हैं। (देखें [[ लोक#6.4.1 | लोक - 6.4.1 ]]में इनका विस्तार )। इन पर इन इन के नामवाले व्यन्तर देव सपरिवार रहते हैं। (ति. प./4/2084); (रा.वा./3/10/13/174/28)। उनके प्रासादों का सर्वकथन पद्मद्रह के कमलोंवत् है। (ज.प./6/92-102)।</li> | ||
<li class="HindiText"> उन्हीं देवकुरु व उत्तरकुरु में स्थित द्रहों के दोनों पार्श्वभागों में कांचन शैल स्थित है। ( देखें | <li class="HindiText"> उन्हीं देवकुरु व उत्तरकुरु में स्थित द्रहों के दोनों पार्श्वभागों में कांचन शैल स्थित है। (देखें [[ आगे लोक#3.12 | आगे लोक - 3.12]]) ये पर्वत गोल आकार वाले हैं। (देखें [[ लोक#6.4.2 | लोक - 6.4.2 ]]में इनका विस्तार) इनके ऊपर कांचन नामक व्यन्तर देव रहते हैं। (ति.प./4/2099); (ह.पु./5/204); (त्रि.सा./659)। </li> | ||
<li class="HindiText"> देवकुरु व उत्तरकुरु के भीतर से बाहर भद्रशाल वन में सीतोदा व सीता नदी के दोनों तटों पर आठ दिग्गजेन्द्र पर्वत हैं ( देखें | <li class="HindiText"> देवकुरु व उत्तरकुरु के भीतर से बाहर भद्रशाल वन में सीतोदा व सीता नदी के दोनों तटों पर आठ दिग्गजेन्द्र पर्वत हैं (देखें [[ लोक#3.12 | लोक - 3.12]])। ये गोल आकार वाले हैं (देखें [[ लोक#6.4 | लोक - 6.4 ]]में इनका विस्तार)। इन पर यम व वैश्रवण नामक वाहन देवों के भवन हैं। (ति.प./4/2106, 2108, 2031)। उनके नाम पर्वतों वाले ही हैं। (ह.पु./5/209); (ज.प./2/81)। </li> | ||
<li class="HindiText"> पूर्व व पश्चिम विदेह में सीता व सीतोदा नदी के दोनों तरफ उत्तर<strong>-</strong>दक्षिण लम्बायमान, | <li class="HindiText"> पूर्व व पश्चिम विदेह में सीता व सीतोदा नदी के दोनों तरफ उत्तर<strong>-</strong>दक्षिण लम्बायमान, 4, 4 करके कुल 16 वक्षार पर्वत हैं। एक ओर ये निषध व नील पर्वतों को स्पर्श करते हैं और दूसरी ओर सीता व सीतोदा नदियों को। (ति.प./4/2200, 2224, 2230); (ह.पु./5/228-232) (और भी देखें [[ आगे लोक#3.14 | आगे लोक - 3.14]])। प्रत्येक वक्षार पर चार चार कूट हैं; नदी की तरफ सिद्धायतन है और शेष कूटों पर व्यन्तर देव रहते हैं। (ति.प./4/2309-2311); (रा.वा./3/10/13/176/4); (ह.पु./5/234-235)। इन कूटों का सर्व कथन हिमवान पर्वत के कूटोंवत् है। (रा.वा./3/10/13/176/7)। </li> | ||
<li class="HindiText"> भरत क्षेत्र के पाँच म्लेच्छ खण्डों में से उत्तर वाले तीन के मध्यवर्ती खण्ड में बीचों-बीच एक वृषभ गिरि है, जिस पर दिग्विजय के | <li class="HindiText"> भरत क्षेत्र के पाँच म्लेच्छ खण्डों में से उत्तर वाले तीन के मध्यवर्ती खण्ड में बीचों-बीच एक वृषभ गिरि है, जिस पर दिग्विजय के पश्चात् चक्रवर्ती अपना नाम अंकित करता है। (देखें [[ लोक#3.3 | लोक - 3.3]])। यह गोल आकार वाला है। (देखें [[ लोक#6.4 | लोक - 6.4 ]]में इसका विस्तार) इसी प्रकार विदेह के 32 क्षेत्रों में से प्रत्येक क्षेत्र में भी जानना (देखें [[ लोक#3.14 | लोक - 3.14]])। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> हिमवान पर्वत के शीष पर बीचों-बीच पद्म नाम का द्रह है। ( देखें | <li class="HindiText"> हिमवान पर्वत के शीष पर बीचों-बीच पद्म नाम का द्रह है। (देखें [[ लोक#3.4 | लोक - 3.4]])। इसके तट पर चारों कोनों पर तथा उत्तर दिशा में 5 कूट हैं और जल में आठों दिशाओं में आठ कूट हैं। (देखें [[ लोक#5.3 | लोक - 5.3]])। हृद के मध्य में एक बड़ा कमल है, जिसके 11000 पत्ते हैं। (ति.प./1667,1670); (त्रि.सा./569); (ज.प./3/75); इस कमल पर ‘श्री’ देवी रहती है। (ति.प./4/1672); (देखें [[ लोक#3.1 | लोक - 3.1]]-6)। प्रधान कमल की दिशा-विदिशाओं में उसके परिवार के अन्य भी अनेकों कमल हैं। कुल कमल 1,40,116 हैं। तहाँ वायव्य, उत्तर व ईशान दिशाओं में कुल 4000 कमल उसके सामानिक देवों के हैं। पूर्वादि चार दिशाओं में से प्रत्येक में 4000(कुल 16000) कमल आत्मरक्षकों के हैं। आग्नेय दिशा में 32,000 कमल आभ्यन्तर पारिषदों के, दक्षिण दिशा में 40,000 कमल मध्यम पारिषदों के, नैर्ऋत्य दिशा में 48,000 कमल बाह्य पारिषदों के हैं। पश्चिम में 7 कमल सप्त अनीक महत्तरों के हैं। तथा दिशा व विदिशा के मध्य आठ अन्तर दिशाओं में 108 कमल त्रायस्त्रिंशों के हैं। (ति. प./4/1675-1689); (रा.वा./3/17-/185/11); (त्रि. सा./572-576); (ज.प./3/91-123)। इसके पूर्व पश्चिम व उत्तर द्वारों से क्रम से गंगा, सिन्धु व रोहितास्या नदी निकलती है। (देखें [[ आगे शीर्षक#11 | आगे शीर्षक - 11]])। (देखें [[ चित्र सं#24 | चित्र सं - 24]], पृ. 470)। </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> महाहिमवान् आदि शेष पांच कुलाचलों पर स्थित महापद्म, तिगिंछ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक नाम के ये पांच द्रह हैं। (देखें [[ लोक#3.4 | लोक - 3.4]]), इन हृदों का सर्व कथन कूट कमल आदि का उपरोक्त पद्महृदवत् ही जानना। विशेषता यह कि तन्निवासिनी देवियों के नाम क्रम से ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी हैं। (देखें [[ लोक#3.1 | लोक - 3.1]]6)। व कमलों की संख्या तिगिंछ तक उत्तरोत्तर दूनी है। केसरी की तिगिंछवत्, महापुण्डरीक की महापद्मवत् और पुण्डरीक की पद्मवत् है। (ति.प./4/1728-1729; 1761-1762; 2332-2333; 2345-2361)। अन्तिम पुण्डरीक द्रह से पद्मद्रहवत् रक्ता, रक्तोदा व सुवर्णकूला ये तीन नदियाँ निकलती हैं और शेष द्रहों से दो-दो नदियाँ केवल उत्तर व दक्षिण द्वारों से निकलती हैं। (देखें [[ लोक#3.1 | लोक - 3.1]]7 व 11 )। (ति.प. में महापुण्डरीक के स्थान पर रुक्मि पर्वत पर पुण्डरीक और पुण्डरीक के स्थान पर शिखरी पर्वत पर महापुण्डरीक द्रह कहा है - (देखें [[ लोक#3.4 | लोक - 3.4]])। </li> | ||
<li class="HindiText"> देवकुरु व उत्तरकुरु में दस द्रह हैं।अथवा दूसरी मान्यता से | <li class="HindiText"> देवकुरु व उत्तरकुरु में दस द्रह हैं।अथवा दूसरी मान्यता से 20 द्रह हैं। (देखें [[ आगे लोक#3.12 | आगे लोक - 3.12]]) इनमें देवियों के निवासभूत कमलों आदि का सम्पूर्ण कथन पद्मद्रहवत् जानना (ति. प./4/2093, 2126); (ह.पु./5/198-199); (त्रि.सा./658); (अ.प./6/124-129)। ये द्रह नदी के प्रवेश व निकास के द्वारों से संयुक्त हैं। (त्रि.सा./658)।</li> | ||
<li class="HindiText"> सुमेरु पर्वत के नन्दन, सौमनस व पाण्डुक वन में | <li class="HindiText"> सुमेरु पर्वत के नन्दन, सौमनस व पाण्डुक वन में 16,16 पुष्करिणी हैं, जिनमें सपरिवार सौधर्म व ऐशानेन्द्र क्रीड़ा करते हैं। तहाँ मध्य में इन्द्रका आसन है। उसकी चारों दिशाओं में चार आसन लोकपालों के हैं, दक्षिण में एक आसन प्रतीन्द्रका , अग्रभाग में आठ आसन अग्रमहिषियों के, वायव्य और ईशान दिशा में 84,00,000 आसन सामानिक देवों के, आग्नेय दिशा में 12,00,000 आसन अभ्यन्तर पारिषदों से, दक्षिण में 14,00,000 आसन मध्यम पारिषदों के, नैर्ऋत्य दिशा में 16,00,000 आसन बाह्य पारिषदों के, तथा उसी दिशा में 33 आसन त्रायस्त्रिंशों के, पश्चिम में छह आसन महत्तरों के और एक आसन महत्तरिका का है। मूल मध्य सिंहासन के चारों दिशाओं में 84,000 आसन अंगरक्षकों के हैं। (इस प्रकार कुल आसन 1,26,84,054 होते हैं)। (ति. प./4/1949-1960), (ह.पु./5/336-342)।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> हिमवान् पर्वत के मूलभाग से 25 योजन हटकर गंगा कुंड स्थित है। उसके बहुमध्य भाग में एक द्वीप है, जिसके मध्य में एक शैल है। शैल पर गंगा देवी का प्रासाद है। इसी का नाम गंगाकूट है। उस कूट के ऊपर एक-एक जिनप्रतिमा है, जिसके शीश पर गंगा की धारा गिरती है। (ति.प./4/216-230); (रा.वा./3/2/1/187/26 व 188/1); (ह.पु./5/142); (त्रि.सा./586-587); (ज.प./ 3/34-37 व 154-162)। </li> | ||
<li class="HindiText"> उसी प्रकार सिन्धु आदि शेष नदियों के पतन स्थानों पर भी अपने-अपने क्षेत्रों में अपने-अपने पर्वतों के नीचे सिन्धु आदि कुण्ड जानने। इनका सम्पूर्ण कथन उपरोक्त गंगा | <li class="HindiText"> उसी प्रकार सिन्धु आदि शेष नदियों के पतन स्थानों पर भी अपने-अपने क्षेत्रों में अपने-अपने पर्वतों के नीचे सिन्धु आदि कुण्ड जानने। इनका सम्पूर्ण कथन उपरोक्त गंगा कुण्डवत् है विशेषता यह कि उन कुण्डों के तथा तन्निवासिनी देवियों के नाम अपनी-अपनी नदियों के समान हैं। (ति.प./4/261-262;1696); (रा.वा./3/22/1/188/1,18,26,29+188/6,9,12,16, 20,23,26, 29)। भरत आदि क्षेत्रों में अपने-अपने पर्वतों से उन कुण्डों का अन्तराल भी क्रम से 25,50, 100, 200, 100, 50, 25 योजन है। (ह.पु./5/151-157)। </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> 32 विदेहों में गंगा, सिन्धु व रक्ता, रक्तोदा नामवाली 64 नदियों के भी अपने-अपने नाम वाले कुण्ड नील व निषध पर्वत के मूलभाग में स्थित हैं। जिनका सम्पूर्ण वर्णन उपर्युक्त गंगा कुण्डवत् ही है। (रा.वा./3/10/13/176/24,29+177/11)।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> हिमवान् पर्वत पर पद्मद्रह के पूर्वद्वार से गंगानदी निकलती है (ति.प./4/196); (रा.वा./3/22/1/187/22) : (ह.पु./5/132): (त्रि.सा./582):(ज.प./3/147)। द्रह की पूर्व दिशा में इस नदी के मध्य एक कमलाकार कूट है, जिसमें बला नाम की देवी रहती है। (ति.प./4/205-209/): (रा.वा./3/22/2/188/3)। द्रह से 500 योजन आगे पूर्व दिशा में जाकर पर्वत पर स्थित गंगा कूट से 1/2 योजन इधर ही इधर रहकर दक्षिण की ओर मुड़ जाती है, और पर्वत के ऊपर ही उसके अर्ध विस्तार प्रमाण अर्थात् 523 /29/152 योजन आगे जाकर वृषभाकार प्रणाली को प्राप्त होती है। फिर उसके मुख में से निकलती हई पवर्त के ऊपर से अधोमुखी होकर उसकी धारा नीचे गिरती है। (ति.प./4/210-214), (रा.वा./3/22/1/187/22): (ह.पु./5/138-140): (त्रि.सा./582/584): (ज.प./3147-149)। वहाँ पर्वत के मूल से 25 योजन हटकर वह धार गंगाकुण्ड में स्थित गंगाकूट के ऊपर गिरती है (देखें [[ लोक#3.9 | लोक - 3.9]])। इस गंगाकुण्ड के दक्षिण द्वार से निकलकर वह उत्तर भारत में दक्षिण मुखी बहती हुई विजयार्ध की तमिस्र गुफा में प्रवेश करती है। (ति.प./4/232-233): (रा.वा./3/22/1/187/27): (ह.पु./5/148): (त्रि.सा./591): (ज.प./3/174)। (रा.वा., व त्रि. सा. में तमिस्र गुफा की बजाय खण्डप्रपात नाम की गुफा में प्रवेश कराया है ) उस गुफा के भीतर वह उन्मग्ना व निमग्ना नदी को अपने में समाती हई (ति.प./4/241) :(देखें [[ लोक#3.5 | लोक - 3.5]]) गुफा के दक्षिण द्वार से निकलकर वह दक्षिण भारत में उसके आधे विस्तार तक अर्थात 119/3/19 योजन तक दक्षिण की ओर जाती है। तत्पश्चात पूर्व की ओर मुड़ जाती है और मागध तीर्थ के स्थान पर लवण सागर में मिल जाती है। (ति.प./4/243-244) : (रा.वा./3/22/1/187/28) :(ह.पु./5/148-149),(त्रि.सा./596)। इसकी परिवार नदियाँ कुल 14,000 हैं। (ति.प./1/244): (ह.पु./5/149): (देखें [[ लोक#3.1 | लोक - 3.1]]9),ये सब परिवार नदियाँ म्लेच्छ खण्ड में ही होती हैं आर्यखण्ड में नहीं (देखें [[ म्लेच्छ#1 | म्लेच्छ - 1]]), </li> | ||
<li class="HindiText"> सिन्धु नदी का सम्पूर्ण कथन गंगा नदीवत है। विशेष यह कि | <li class="HindiText"> सिन्धु नदी का सम्पूर्ण कथन गंगा नदीवत है। विशेष यह कि पद्मद्रह के पश्चिम द्वार से निकलती है। इसके भीतरी कमलाकारकूट में लवणा देवी रहती है। सिन्धुकुण्ड में स्थित सिन्धुकूट पर गिरती है। विजयार्ध की खण्डप्रपात गुफा को प्राप्त होती है।अथवा रा.वा. व त्रि.सा. की अपेक्षा तमिस्र गुफा को प्राप्त होती है।पश्चिम की ओर मुड़कर प्रभास तीर्थ के स्थान पर पश्चिम लवण सागर में मिलती है। (ति.प./4/252-264):(रा.वा.3/22/2/187/31): (ह.पु./5/151): (त्रि.सा./597)- (देखें [[ लोक#3.108 | लोक - 3.108]]) इसकी परिवार नदियाँ 14000 हैं। (ति.प./4/264); (देखें [[ लोक#3.1 | लोक - 3.1]],9)। </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> हिमवान् पर्वत के ऊपर पद्मद्रह के उत्तर द्वार से रोहितास्या नदी निकलती है जो उत्तरमुखी ही रहती हुई पर्वत के ऊपर 276(6/19) योजन चलकर पर्वत के उत्तरी किनारे को प्राप्त होती है, फिर गंगा नदीवत् ही धार बनकर नीचे रोहितास्या कुण्ड में स्थित रोहितास्याकूट पर गिरती है। (ति.प./4/1695); (रा.वा./3/22/3/188/7); (ह.पु./5/153+ 163); (त्रि.सा./598) कुण्ड के उत्तरी द्वार से निकलकर उत्तरमुखी बहती हुई वह हैमवत् क्षेत्र के मध्यस्थित नाभिगिरि तक जाती है। परन्तु उससे दो कोस इधर ही रहकर पश्चिम की ओर उसकी प्रदक्षिणा देती हई पश्चिम दिशा में उसके अर्धभाग के सम्मुख होती है। वहाँ पश्चिम दिशा की ओर मुड़ जाती है और क्षेत्र के अर्ध आयाम प्रमाण क्षेत्र के बीचोंबीच बहती हुई अन्त में पश्चिम लवणसागर में मिल जाती है। (ति. प./4/1713-1716); (रा.वा./3/22/3/188/11); (ह.पु./5/163); (त्रि.सा./598); (देखें [[ लोक#3.1 | लोक - 3.1]],8) इसकी परिवार नदियों का प्रमाण 28,000 है। (ति.प./4/1716); (देखें [[ लोक#3.1 | लोक - 3.1]]-9)।</li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> महाहिमवान् पर्वत् के ऊपर महापद्म हृद के दक्षिण द्वार से रोहित नदी निकलती है। दक्षिणमुखी होकर 1605 (5/19) यो. पर्वत के ऊपर जाती है। वहाँ से पर्वत के नीचे रोहितकुण्ड में गिरती है और दक्षिणमुखी बहती हुई रोहितास्यावत् ही हैमवतक्षेत्र में, नाभिगिरि से 2 कोस इधर रहकर पूर्व दिशा की ओर उसकी प्रदक्षिणा देती है। फिर वह पूर्व की ओर मुड़कर क्षेत्र के बीच में बहती हुई अन्त में पूर्व लवणसागर में गिर जाती है। (ति. प./4/1735-1737); (रा.वा./3/22/4/188/15) (ह.पु./5/154+163); (ज.प./3/212); (देखें [[ लोक#3.1 | लोक - 3.1]]-8)। इसकी परिवार नदियाँ 28,000 है। (ति. प./4/1737); (देखें [[ लोक#3.1 | लोक - 3.1]]-9)। </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> महाहिमवान् पर्वत के ऊपर महापद्म हृद के उत्तर द्वार से हरिकान्ता नदी निकलती है। वह उत्तरमुखी होकर पर्वत पर 1605 (5/19) यो. चलकर नीचे हरिकान्ता कुण्ड में गिरती है। वहाँ से उत्तरमुखी बहती हुई हरिक्षेत्र के नाभिगिरि को प्राप्त हो उससे दो कोस इधर ही रहकर उसकी प्रदक्षिणा देती हई पश्चिम की ओर मुड़ जाती है और क्षेत्र के बीचोंबीच बहती हुई पश्चिम लवणसागर में मिल जाती है। (ति.प./4/1747-1749); (रा.वा./3/22/5/188/19); (ह.पु./5/155+163)। (देखें [[ लोक#3.1 | लोक - 3.1]]-8) इसकी परिवार नदियाँ 56000 हैं। (ति.प./4/1749); (देखें [[ लोक#3.1 | लोक - 3.1]]-9);। </li> | ||
<li class="HindiText"> निषध पर्वत के तिगिंछद्रह के दक्षिण द्वार से निकलकर हरित नदी दक्षिणमुखी हो | <li class="HindiText"> निषध पर्वत के तिगिंछद्रह के दक्षिण द्वार से निकलकर हरित नदी दक्षिणमुखी हो 7421(1/19) यो. पर्वत के ऊपर जा, नीचे हरित कुण्ड में गिरती है। वहाँ से दक्षिणमुखी बहती हुई हरिक्षेत्र के नाभिगिरि को प्राप्त हो उससे दो कोस इधर ही रहकर उसकी प्रदक्षिणा देती हुई पूर्व की ओर मुड़ जाती है। और क्षेत्र के बीचोबीच बहती हुई पूर्व लवणसागर में गिरती है। (ति.प./4/1770-1772); (रा.वा./3/22/6/188/27); (ह.पु./5/156+163); (देखें [[ लोक#3.1 | लोक - 3.1]],8) इसकी परिवार नदियाँ 56000 हैं। (ति. प./4/1772); (देखें [[ लोक#3.1 | लोक - 3.1]],9)। </li> | ||
<li class="HindiText"> निषध पर्वत के तिगिंछह्रद के उत्तर द्वार से सीतोदा नदी निकलती है, जो उत्तरमुखी हो पर्वत के उत्तर | <li class="HindiText"> निषध पर्वत के तिगिंछह्रद के उत्तर द्वार से सीतोदा नदी निकलती है, जो उत्तरमुखी हो पर्वत के उत्तर 7421(1/19) यो. जाकर नीचे विदेह क्षेत्र में स्थित सीतोदा कुण्ड में गिरती है। वहाँ से उत्तरमुखी बहती हुई वह सुमेरु पर्वत तक पहँचकर उससे दो कोस इधर ही पश्चिम की ओर उसकी प्रदक्षिणा देती हुई, विद्युत्प्रभ गजदन्त की गुफा में से निकलती है। सुमेरु के अर्धभाग के सम्मुख हो वह पश्चिम की ओर मुड़ जाती है। और पश्चिम विदेह के बीचोंबीच बहती हुई अन्त में पश्चिम लवणसागर में मिल जाती है। (ति.प.4/2065-2073); (रा.वा./3/22/7/188/32); (ह.पु./5/157+163); (देखें [[ लोक#3.1 | लोक - 3.1]],8)। इसकी सर्व परिवार नदियाँ देवकुरु में 84,000 और पश्चिम विदेह में 4,48,038 (कुल 5,32,038) हैं (विभंगा की परिवार नदियाँ न गिनकर लोक /3/2/3वत् ); (ति.प./4/2071-2072)। लोक/3/1,9 की अपेक्षा 1,12,000 हैं। </li> | ||
<li class="HindiText"> सीता नदी का सर्व कथन | <li class="HindiText"> सीता नदी का सर्व कथन सीतोदावत् जानना। विशेषता यह कि नील पर्वत के केसरी द्रह के दक्षिण द्वार से निकलती है। सीता कुण्ड में गिरती है। माल्यवान् गजदन्त की गुफा से निकलती है। पूर्व विदेह में से बहती हुई पूर्व सागर में मिलती है। (ति.प.//4/2116-2121); (रा.वा./3/22/8/189/8); (ह.पु./5/159); (ज.प./6/55-56); (देखें [[ लोक#3.1 | लोक - 3.1]],8) इसकी परिवार नदियाँ भी सीतोदावत् जानना। (ति.प./4/2121-2122)।</li> | ||
<li class="HindiText"> नरकान्ता नदी का सम्पूर्ण कथन | <li class="HindiText"> नरकान्ता नदी का सम्पूर्ण कथन हरितवत् है। विशेषता यह कि नीलपर्वत के केसरी द्रह के उत्तर द्वार से निकलती है, पश्चिमी रम्यकक्षेत्र के बीच में से बहती है और पश्चिम सागर में मिलती है। (ति.प./4/2337-2339); (रा.वा.3/22/9/189/11); (ह.पु./5/159); (देखें [[ लोक#3.1 | लोक - 3.1]]-8)। </li> | ||
<li class="HindiText"> नारी नदी का सम्पूर्ण कथन | <li class="HindiText"> नारी नदी का सम्पूर्ण कथन हरिकान्तावत् है। विशेषता यह कि रुक्मिपर्वत के महापुण्डरीक (ति.प. की अपेक्षा पुण्डरीक) द्रह के दक्षिण द्वार से निकलती है और पूर्व रम्यकक्षेत्र में बहती हुई पूर्वसागर में मिलती है। (ति.प./4/2347-2349); (रा.वा./3/22/10/189/14); (ह.पु./5/159); (देखें [[ लोक#3.1 | लोक - 3.1]]8) </li> | ||
<li class="HindiText"> रूप्यकूला नदी का सम्पूर्ण कथन रोहितनदीवत् है। विशेषता यह कि यह रुक्मि पर्वत के महापुरण्डरीक हृद के (ति. प. की अपेक्षा | <li class="HindiText"> रूप्यकूला नदी का सम्पूर्ण कथन रोहितनदीवत् है। विशेषता यह कि यह रुक्मि पर्वत के महापुरण्डरीक हृद के (ति. प. की अपेक्षा पुण्डरीक के) उत्तर द्वार से निकलती है और पश्चिम हैरण्यवत् क्षेत्र में बहती हुई पश्चिमसागर में मिलती है। (ति.प./4/2352); (रा.वा./3/22/11/189/18); (ह.पु./5/159);(देखें [[ लोक#3.1 | लोक - 3.1]].8) .</li> | ||
<li class="HindiText"> सुवर्णकूला नदी का सम्पूर्ण कथन रोहितास्या | <li class="HindiText"> सुवर्णकूला नदी का सम्पूर्ण कथन रोहितास्या नदीवत् है। विशेषता यह कि यह शिखरी के पुण्डरीक (ति.प. की अपेक्षा महापुण्डरीक) हृद के दक्षिणद्वार से निकलती है और पूर्वी हैरण्यवत् क्षेत्र में बहती हुई पूर्वसागर में मिल जाती है। (ति.प./4/2362); (रा.वा./3/22/12/189/21); (ह.पु./5/159); (देखें [[ लोक#3.1 | लोक - 3.1]].8)। </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText">13-14 रक्ता व रक्तोदाका सम्पूर्ण कथन गंगा व सिन्धुवत् है। विशेषता यह कि ये शिखरी पर्वत के महापुण्डरीक (ति.प. की अपेक्षा पुण्डरीक) हृद के पूर्व और पश्चिम द्वार से निकलती हैं। इनके भीतरी कमलाकार कूटों के पर्वत के नीचेवाले कुण्डों व कूटों के नाम रक्ता व रक्तोदा है। ऐरावत क्षेत्र के पूर्व व पश्चिम में बहती है। (ति.प./4/2367); (रा.वा./3/22/13-14/189/25,28); (ह.पु./5/159); (त्रिसा./599); (देखें [[ लोक#3.1 | लोक - 3.1]]8)।</li> | ||
</ol> <ol start="15"> <li class="HindiText"> विदेह के | </ol> <ol start="15"> <li class="HindiText"> विदेह के 32 क्षेत्रों में भी गंगा नदी की भाँति गंगा, सिन्धु व रक्ता-रक्तोदा नाम की क्षेत्र नदियाँ (देखें [[ लोक#3.14 | लोक - 3.14]])। इनका सम्पूर्ण कथन गंगानदीवत् जानना। (ति. प./4/22-63); (रा.वा./3/10/13/176/27); (ह.पु./5/168); (त्रि.सा./691); (ज.प./7/22)। इन नदियों की भी परिवार नदियाँ 14,000, 14,000 हैं। (ति.प./4/2265); (रा.वा./3/10/13/176/28)। </li> | ||
<li class="HindiText"> पूर्व व पश्चिम विदेह में - से प्रत्येक में सीता व सीतोदा नदी के दोनों तरफ तीन-तीन करके कुल | <li class="HindiText"> पूर्व व पश्चिम विदेह में - से प्रत्येक में सीता व सीतोदा नदी के दोनों तरफ तीन-तीन करके कुल 12 विभंगा नदियाँ हैं। (देखें [[ लोक#3.1 | लोक - 3.1]]4) ये सब नदियाँ निषध या नील पर्वतों से निकलकर सीतोदा या सीता नदियों में प्रवेश करती हैं (ह.पु./5/239-243) ये नदियाँ जिन कुण्डों से निकलती हैं वे नील व निषध पर्वत के ऊपर स्थित हैं। (रा.वा./3/10/13/176/12)। प्रत्येक नदी का परिवार 28,000 नदी प्रमाण है। (ति.प./4/2232); (रा.वा./3/10/132/176/14)।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जम्बूद्वीप के मध्यवर्ती चौथे नम्बरवाले विदेहक्षेत्र के बहमध्य प्रदेश में सुमेरु पर्वत स्थित है। उसके दक्षिण व निषध पर्वत की उत्तर दिशा में देवकुरु तथा उसकी उत्तर व नीलपर्वत की दक्षिण दिशा में उत्तरकुरु स्थित हैं ( देखें | <li class="HindiText"> जम्बूद्वीप के मध्यवर्ती चौथे नम्बरवाले विदेहक्षेत्र के बहमध्य प्रदेश में सुमेरु पर्वत स्थित है। उसके दक्षिण व निषध पर्वत की उत्तर दिशा में देवकुरु तथा उसकी उत्तर व नीलपर्वत की दक्षिण दिशा में उत्तरकुरु स्थित हैं (देखें [[ लोक#3.3 | लोक - 3.3]])। सुमेरु पर्वत की चारों दिशाओं में चार गजदन्त पर्वत हैं जो एक ओर तो निषध व नील कुलाचलों को स्पर्श करते हैं और दसरी ओर सुमेरु को - देखें [[ लोक#3.8 | लोक - 3.8]]। अपनी पूर्व व पश्चिम दिशा में ये दो कुरु इनमें से ही दो-दो गजदन्त पर्वतों से घिरे हुए हैं। (ति.प./4/2131,2191); (ह.पु./5/167); (ज.प./6/2,81)। </li> | ||
<li class="HindiText"> तहाँ देवकुरु में निषधपर्वत से | <li class="HindiText"> तहाँ देवकुरु में निषधपर्वत से 1000 योजन उत्तर में जाकर सीतोदा नदी के दोनों तटों पर यमक नाम के दो शैल हैं, जिनका मध्य अन्तराल 500 योजन है। अर्थात् नदी के तटों से नदी के अर्ध विस्तार से हीन 225 यो. हटकर स्थित हैं। (ति.प./4/2075-2077); (रा.वा./3/10/13/175/26); (ह.पु./5/192); (त्रि.सा. 654-655); (ज.प./6/87)। इसी प्रकार उत्तर कुरु में नील पर्वत के दक्षिण में 1000 योजन जाकर सीतानदी के दोनों तटों पर दो यमक हैं। (ति.प./4/2132-2124); (रा.वा./3/10/13/174/25); (ह.पु./5/191); (त्रि.सा./654); (ज.प./6/15-18)। </li> | ||
<li class="HindiText"> इन यमकों से | <li class="HindiText"> इन यमकों से 500 योजन उत्तर में जाकर देवकुरु की सीतोदा नदी के मध्य उत्तर दक्षिण लम्बायमान 5 द्रह हैं। (ति.प./4/2089); (रा.वा./3/10/13/175/28); (ह.पु./5/196); (ज.प./6/83)। मतान्तर से कुलाचल से 550 योजन दूरी पर पहला द्रह है। (ह.पु./5/194)। ये द्रह नदियों के प्रवेश व निकास द्वारों से संयुक्त हैं। (त्रि.सा./658)। (तात्पर्य यह है कि यहाँ नदी की चौड़ाई तो कम है और हृदों की चौड़ाई अधिक। सीतोदा नदी के हृदों के दक्षिण द्वारों से प्रवेश करके उन के उत्तरी द्वारों से बाहर निकल जाती है। हृद नदी के दोनों पार्श्व भागों में निकले रहते हैं। ) अन्तिम द्रह से 2092(2/19) योजन उत्तर में जाकर पूर्व व पश्चिम गजदन्तों की वनकी वेदी आ जाती है। (ति. प./4/2100-2101); (त्रि.सा./660)। इसी प्रकार उत्तरकुरु में भी सीता नदी के मध्य 5 द्रह जानना। उनका सम्पूर्ण वर्णन उपर्युक्तवत् है। (ति.प./4/2125);(रा.वा./3/10/13/14/29); (ह.पु./5/194); (ज.प./6/26)। (इस प्रकार दोनों कुरुओं में कुल 10 द्रह हैं। परन्तु मतान्तर से द्रह 20 हैं )। -- मेरु पर्वत की चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में पाँच हैं। उपर्युक्तवत् 500 योजन अन्तराल से सीता व सीतोदा नदी में ही स्थित हैं। (ति.प./4/2136); (त्रि.सा./656)। इनके नाम ऊपर वालों के समान हैं। - (दे./लोक/5)। </li> | ||
<li class="HindiText"> दस द्रह वाली प्रथम मान्यता के अनुसार प्रत्येक द्रह के पूर्व व पश्चिम तटों पर दस-दस करके कुल | <li class="HindiText"> दस द्रह वाली प्रथम मान्यता के अनुसार प्रत्येक द्रह के पूर्व व पश्चिम तटों पर दस-दस करके कुल 200 कांचन शैल हैं। (ति.प./4/2094-2126); (रा.वा./3/10/13/174/2+715/1); (ह.पु./5/200); (ज.प./6/44,144)। पर 20 द्रहों वाली दूसरी मान्यता के अनुसार प्रत्येक द्रह के दोनों पार्श्व भागों में पांच-पाँच करके कुल 200 कांचन शैल हैं। (ति.प./4/2137); (त्रि.सा./659)।</li> | ||
<li class="HindiText"> देवकुरु व उत्तरकुरु के भीतर भद्रशाल वन में सीतोदा व सीता नदी के पूर्व व पश्चिम तटों पर, तथा इन कुरुक्षेत्रों से बाहर भद्रशाल वन में उक्त दोनों नदियों के उत्तर व दक्षिण तटों पर एक-एक करके कुल | <li class="HindiText"> देवकुरु व उत्तरकुरु के भीतर भद्रशाल वन में सीतोदा व सीता नदी के पूर्व व पश्चिम तटों पर, तथा इन कुरुक्षेत्रों से बाहर भद्रशाल वन में उक्त दोनों नदियों के उत्तर व दक्षिण तटों पर एक-एक करके कुल 8 दिग्गजेन्द्र पर्वत हैं। (ति.प./4/2103, 2112, 2130, 2134), (रा.वा./3/10/13/178/5); (ह.पु./5/205-209); (त्रि. सा./661); (ज.प./4/74)। </li> | ||
<li class="HindiText"> देवकुरु में सुमेरु के दक्षिण भाग में सीतोदा नदी के पश्चिम तट पर तथा उत्तरकुरु में सुमेरु के उत्तर भाग में सीता नदी के पूर्व तट पर, तथा इसी प्रकार दोनों कुरुओं से बाहर मेरु के पश्चिम में सीतोदा के उत्तर तट पर मेरु की पूर्व दिशा में सीता नदी के दक्षिण तट पर एक-एक करके चार त्रिभुवन चूड़ामणि नाम वाले जिन भवन हैं। (ति.प./ | <li class="HindiText"> देवकुरु में सुमेरु के दक्षिण भाग में सीतोदा नदी के पश्चिम तट पर तथा उत्तरकुरु में सुमेरु के उत्तर भाग में सीता नदी के पूर्व तट पर, तथा इसी प्रकार दोनों कुरुओं से बाहर मेरु के पश्चिम में सीतोदा के उत्तर तट पर मेरु की पूर्व दिशा में सीता नदी के दक्षिण तट पर एक-एक करके चार त्रिभुवन चूड़ामणि नाम वाले जिन भवन हैं। (ति.प./4/2109-2111+2132-2133)। </li> | ||
<li class="HindiText"> निषध व नील पर्वतों से संलग्न सम्पूर्ण विदेह क्षेत्र के विस्तार समान लम्बी, दक्षिण-उत्तर लम्बायमान भद्रशाल वन की वेदी है। (ति.प./ | <li class="HindiText"> निषध व नील पर्वतों से संलग्न सम्पूर्ण विदेह क्षेत्र के विस्तार समान लम्बी, दक्षिण-उत्तर लम्बायमान भद्रशाल वन की वेदी है। (ति.प./4/2114)। </li> | ||
<li class="HindiText"> देवकुरु में निषध पर्वत के उत्तर में, | <li class="HindiText"> देवकुरु में निषध पर्वत के उत्तर में, विद्युत्प्रभ गजदन्त के पूर्व में, सीतोदा के पश्चिम में और सुमेरु के नैर्ऋत्य दिशा में शाल्मली वृक्षस्थल है। (ति. प./4/2146-2147); (रा.वा.3/10/13/175/23); (ह.पु./5/187); (विशेष देखें [[ आगे ]]लोक/3/13) सुमेरु की ईशान दिशा में, नील पर्वत के दक्षिण में, माल्यवंत गजदन्त के पश्चिम में, सीता नदी के पूर्व में जम्बू वृक्षस्थल है। (ति.प./4/2194-2195); (रा.वा./3/10/13/17/7); (ह.पु./5/172); (त्रि.सा./639); (ज.प./6/57)।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> देवकुरु व उत्तरकुरु में प्रसिद्ध शाल्मली व जम्बूवृक्ष हैं। ( देखें | <li class="HindiText"> देवकुरु व उत्तरकुरु में प्रसिद्ध शाल्मली व जम्बूवृक्ष हैं। (देखें [[ लोक#3.12 | लोक - 3.12]])। ये वृक्ष पृथिवीमयी हैं (देखें [[ वृक्ष ]]) तहाँ शाल्मली या जम्बू वृक्ष का सामान्यस्थल 500 योजन विस्तार युक्त होता है तथा मध्य में 89 योजन और किनारों पर 2 कोस मोटा है। (ति.प./4/2148-2149); (ह.पु./5/174); (त्रि.सा./640)। मतान्तर की अपेक्षा वह मध्य में 12 योजन और किनारों पर 2 कोट मोटा है। (रा.वा./3/7/1/169/18); (ज.प./6/58; 149)।</li> | ||
<li class="HindiText"> यह स्थल चारों ओर से स्वर्णमयी वेदिका से वेष्टित है। इसके बहुमध्य भाग में एक पीठ है, जो आठ योजन ऊँचा है तथा मूल में | <li class="HindiText"> यह स्थल चारों ओर से स्वर्णमयी वेदिका से वेष्टित है। इसके बहुमध्य भाग में एक पीठ है, जो आठ योजन ऊँचा है तथा मूल में 12 और ऊपर 4 योजन विस्तृत है। पीठ के मध्य में मूलवृक्ष है, जो कुल आठ योजन ऊँचा है। उसका स्कन्ध दो योजन ऊँचा तथा एक कोस मोटा है। (ति.प./4/2151-2155); (रा.वा./3/7/1/169/19); (ह. पु./5/173‒177): (त्रि. सा./639‒641/648): (ज. प./6/60-64, 154-155)। </li> | ||
<li class="HindiText"> इस वृक्ष की चारों दिशाओं में छह-छह योजन लम्बी तथा इतने ही अन्तराल से स्थित चार महाशाखाएँ हैं। शाल्मली वृक्ष की दक्षिण शाखा पर और जम्बूवृक्ष की उत्तर शाखा पर जिनभवन हैं। शेष तीन शाखाओं पर व्यन्तर देवों के भवन हैं। तहाँ शाल्मली वृक्ष पर वेणु व वेणुधारी तथा जम्बू वृक्ष पर इस द्वीप के रक्षक आदृत व अनादृत नाम के देव रहते हैं। (ति.प./ | <li class="HindiText"> इस वृक्ष की चारों दिशाओं में छह-छह योजन लम्बी तथा इतने ही अन्तराल से स्थित चार महाशाखाएँ हैं। शाल्मली वृक्ष की दक्षिण शाखा पर और जम्बूवृक्ष की उत्तर शाखा पर जिनभवन हैं। शेष तीन शाखाओं पर व्यन्तर देवों के भवन हैं। तहाँ शाल्मली वृक्ष पर वेणु व वेणुधारी तथा जम्बू वृक्ष पर इस द्वीप के रक्षक आदृत व अनादृत नाम के देव रहते हैं। (ति.प./4/2156-2165-2196); (रा.वा./3/10/13/174/7+175/25); (ह.पु./5/177-182+189); (त्रि, सा./6/47-649+652); (ज.प./65-67-86; 156-160)। </li> | ||
<li class="HindiText"> इस स्थल पर एक के पीछे एक करके | <li class="HindiText"> इस स्थल पर एक के पीछे एक करके 12 वेदियाँ हैं, जिनके बीच 12 भूमियाँ हैं। यहाँ पर ह.पु. में वापियों आदि वाली 5 भूमियों को छोड़कर केवल परिवार वृक्षों वाली 7 भूमियाँ बतायी हैं . (ति.प./4/1267); (ह.पु./5/183); (त्रि.सा./641); (ज.प./6/151-152)। इन सात भूमियों में आदृत युगल या वेणुयुगल के परिवार देवों के वृक्ष हैं। </li> | ||
<li class="HindiText"> तहाँ प्रथम भूमि के मध्य में उपरोक्त मूल वृक्ष स्थित हैं। द्वितीय में वन-वापिकाएँ हैं। तृतीय की प्रत्येक दिशा में | <li class="HindiText"> तहाँ प्रथम भूमि के मध्य में उपरोक्त मूल वृक्ष स्थित हैं। द्वितीय में वन-वापिकाएँ हैं। तृतीय की प्रत्येक दिशा में 27 करके कुल 108 वृक्ष महामान्यों अर्थात् त्रायस्त्रिंशों के हैं। चतुर्थ की चारों दिशाओं में चार द्वार हैं, जिन पर स्थित वृक्षों पर उसकी देवियाँ रहती हैं। पाँचवीं में केवल वापियाँ हैं। छठीं में वनखण्ड हैं। सातवीं की चारों दिशाओं में कुल 16,000 वृक्ष अंगरक्षकों के हैं। अष्टम की वायव्य, ईशान व उत्तर दिशा में कुल 4000 वृक्ष सामानिकों के हैं। नवम की आग्नेय दिशा में कुल 32,000 वृक्ष अभ्यन्तर पारिषदों के हैं। दसवीं की दक्षिण दिशा में 40,000 वृक्ष मध्यम पारिषदों के हैं। ग्यारहवीं की नैर्ऋत्य दिशा में 48,000 वृक्ष बाह्य पारिषदों के हैं। बारहवीं की पश्चिम दिशा में सात वृक्ष अनीक महत्तरों के हैं। सब वृक्ष मिलकर 1,40,120 होते हैं। (ति.प./4/2169-2181); (रा.वा./3/10/13/174/10); (ह.पु./5/183-186); (त्रि.सा./642-646); (ज.प./6/68-74;162-167)। </li> | ||
<li class="HindiText"> स्थल के चारों ओर तीन वन खण्ड हैं। प्रथम की चारों दिशाओं में देवों के निवासभूत चार प्रासाद हैं। विदिशाओं में से प्रत्येक में चार-चार पुष्करिणी हैं प्रत्येक पुष्करिणी की चारों दिशाओं में आठ-आठ कूट हैं। प्रत्येक कूट पर चार-चार प्रासाद हैं। जिन पर उन आदृत आदि देवों के परिवाह देव रहते हैं। (रा.वा./में इसी प्रकार प्रासादों के चारों तरफ भी आठ कूट बताये हैं ) इन कूटों पर उन आदृत युगल या वेणु युगल का परिवार रहता है। (ति.प/ | <li class="HindiText"> स्थल के चारों ओर तीन वन खण्ड हैं। प्रथम की चारों दिशाओं में देवों के निवासभूत चार प्रासाद हैं। विदिशाओं में से प्रत्येक में चार-चार पुष्करिणी हैं प्रत्येक पुष्करिणी की चारों दिशाओं में आठ-आठ कूट हैं। प्रत्येक कूट पर चार-चार प्रासाद हैं। जिन पर उन आदृत आदि देवों के परिवाह देव रहते हैं। (रा.वा./में इसी प्रकार प्रासादों के चारों तरफ भी आठ कूट बताये हैं ) इन कूटों पर उन आदृत युगल या वेणु युगल का परिवार रहता है। (ति.प/4/2184-2190); (रा.वा./3/10/13/174/18)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="3.14" id="3.14"><strong> विदेह के | <li><span class="HindiText" name="3.14" id="3.14"><strong> विदेह के 32 क्षेत्र</strong> <br /> | ||
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<li class="HindiText">पूर्व व पश्चिम की भद्रशाल वन की वेदियों ( देखें | <li class="HindiText">पूर्व व पश्चिम की भद्रशाल वन की वेदियों (देखें [[ लोक#3.12 | लोक - 3.12]]) से आगे जाकर सीता व सीतोदा नदी के दोनों तरफ चार-चार वक्षारगिरि और तीन-तीन विभंगा नदियाँ एक वक्षार व एक विभंगा के क्रम से स्थित हैं। इन वक्षार व विभंगा के कारण उन नदियों के पूर्व व पश्चिम भाग आठ-आठ भागों में विभक्त हो जाते हैं। विदेह के ये 32 खण्ड उसके 32 क्षेत्र कहलाते हैं। (ति.प./4/2200-2209); (रा.वा./3/10/13/175/30+177/5, 15,24); (ह.पु./5/228,243,244); (त्रि.सा./665); (ज.प./का पूरा 8वाँ अधिकार)। </li> | ||
<li class="HindiText"> उत्तरीय पूर्व विदेह का सर्वप्रथम क्षेत्र कच्छा नाम का है। (ति.प./ | <li class="HindiText"> उत्तरीय पूर्व विदेह का सर्वप्रथम क्षेत्र कच्छा नाम का है। (ति.प./4/2233); (रा.वा./3/10/13/176/14); (ज.प./7/33)। इनके मध्य में पूर्वापर लम्बायमान भरत क्षेत्र के विजयार्धवत् एक विजयार्ध पर्वत है। (ति.प./4/2257); (रा.वा./10/13/176/19)। उसके उत्तर में स्थित नील पर्वत की वनवेदी के दक्षिण पार्श्वभाग में पूर्व व पश्चिम दिशाओं में दो कुण्ड हैं, जिनसे रक्ता व रक्तोदा नाम की दो नदियाँ निकलती हैं। दक्षिणमुखी होकर बहती हई वे विजयार्ध की दोनों गुफाओं में से निकलकर नीचे सीता नदी में जा मिलती हैं। जिसके कारण भरत क्षेत्र की भाँति यह देश भी छह खण्डों में विभक्त हो गया है। (ति.प./4/2262‒2268); (रा.वा./3/10/13/176/23): (ज. प./7/72)। यहाँ भी ऊपर म्लेच्छ खण्ड के मध्य एक वृषभगिरि है, जिस पर दिग्विजय के पश्चात् चक्रवर्ती अपना नाम अंकित करता है। (ति. प./4/2290‒2291): (त्रि. सा./710) इस क्षेत्र के आर्य खण्ड की प्रधान नगरी का नाम क्षेमा है। ( ति. प./4/2268): (रा. वा./3/10/13/176/32)। इस प्रकार प्रत्येक क्षेत्र में दो नदियाँ व एक विजयार्ध के कारण छह-छह खण्ड उत्पन्न हो गये हैं। (ति.प./4/2292); (ह.पु./5/267); (ति.सा./691)। विशेष यह है कि दक्षिण वाले क्षेत्रों में गंगा-सिन्धु नदियाँ बहती हैं (ति.प./4/2295-2296) मतान्तर से उत्तरीय क्षेत्रों में गंगा-सिन्धु व दक्षिणी क्षेत्रों में रक्ता-रक्तोदा नदियाँ हैं। (ति.प./4/2304); (रा.वा./3/10/13/176/28, 31+177/10); (ह.पु./5/267-269); (त्रि.सा./692)। </li> | ||
<li class="HindiText"> पूर्व व अपर दोनों विदेहों में प्रत्येक क्षेत्र के सीता सीतोदा नदी के दोनों किनारों पर आर्यखण्डों में मागध, बरतनु और प्रभास नामवाले तीन-तीन तीर्थस्थान हैं। (ति.प./ | <li class="HindiText"> पूर्व व अपर दोनों विदेहों में प्रत्येक क्षेत्र के सीता सीतोदा नदी के दोनों किनारों पर आर्यखण्डों में मागध, बरतनु और प्रभास नामवाले तीन-तीन तीर्थस्थान हैं। (ति.प./4/2305-2306); (रा.वा./3/10/13/177/12); (त्रि.सा./678) (ज.प./7/104)।</li> | ||
<li class="HindiText"> पश्चिम विदेह के अन्त में जम्बूद्वीप की जगती के पास सीतोदा नदी के दोनों ओर भूतारण्यक वन है। (ति.प./ | <li class="HindiText"> पश्चिम विदेह के अन्त में जम्बूद्वीप की जगती के पास सीतोदा नदी के दोनों ओर भूतारण्यक वन है। (ति.प./4/2203,2325); (रा.वा./3/10/13/177/1); (ह.पु./5/281); (त्रि.सा./672)। इसी प्रकार पूर्व विदेह के अन्त में जम्बूद्वीप की जगती के पास सीता नदी के दोनों ओर देवारण्यक वन है। (ति.प./4/2315-2316)। (देखें [[ चित्र नं#13 | चित्र नं - 13]])।</li> | ||
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Revision as of 21:41, 5 July 2020
- जम्बूद्वीप निर्देश
- जम्बूद्वीप सामान्य निर्देश
त.सू./3/9-23 तन्मध्ये मेरुनाभिवृत्तो योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः।9। भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहैरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि।10। तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निषधनीलरुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः।11।हेमार्जुनतपनीयवैडूर्यरजतहेममयाः।12। मणिविचित्रपार्श्वा उपरि मूले च तुल्यविस्ताराः।13। पद्ममहापद्मतिगिंछकेसरिमहापुण्डरीकपुण्डरीका हृदास्तेषामुपरि।14। प्रथमो योजनसहस्रायामस्तदर्द्धविष्कम्भो हृद:।।15।। दशयोजनावगाह:।।16।। तन्मध्ये योजनं पुष्करम्।17। तद्द्विगुणद्विगुणा हृदाः पुष्कराणि च ।18। तन्निवासिन्यो देव्यः श्रीह्नीधृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्यः पल्योपमस्थितयःससामानिकपरिषत्काः ।19। गङ्गासिन्धुरोहिद्रोहितास्याहरिद्धरिकान्तासीतासीतोदानारीनरकान्तासुवर्णरूप्यकूलारक्तारक्तोदाःसरितस्तमन्ध्यगाः।20। द्वयोर्द्वयोः पूर्वाः पूर्वगाः।21। शेषास्त्वपरगाः।22। चतुर्दशनदीसहस्रपरिवृता गङ्गासिन्ध्वादयो नद्यः।23। =- उन सब (पूर्वोक्त असंख्यात द्वीप समुद्रों, - देखें लोक - 2.11) के बीच में गोल और 100,000 योजन विष्कम्भवाला जम्बूद्वीप है। जिसके मध्य में मेरु पर्वत है।9। (ति.प./4/11 व 5/8); (ह.पु./5/3); (ज.प./1/20)।
- उसमें भरतवर्ष, हैमवतवर्ष, हरिवर्ष, विदेहवर्ष, रम्यकवर्ष, हैरण्यवतवर्ष और ऐरावतवर्ष ये सात वर्ष अर्थात् क्षेत्र हैं।10। उन क्षेत्रों को विभाजित करने वाले और पूर्व पश्चिम लम्बे ऐसे हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी, और शिखरी ये छह वर्षधर या कुलाचल पर्वत हैं।11। (ति.प./4/90-94); (ह.पु./5/13-15); (ज.प./2/2 व 3/2); (त्रि.सा./564)।
- ये छहों पर्वत क्रम से सोना, चाँदी, तपाया हुआ सोना, वैडूर्यमणि, चाँदी और सोना इनके समान रंगवाले हैं।12। इनके पार्श्वभाग मणियों से चित्र-विचित्र हैं। तथा ये ऊपर, मध्य और मूल में समान विस्तारवाले हैं।13। (ति.प./4/94-95); (त्रि.सा./566)
- इन कुलाचल पर्वतों के ऊपर क्रम से पद्म, महापद्म, तिगिंछ, केसरी, महापुण्डरीक, और पुण्डरीक, ये तालाब हैं।14। (ह.पु./5/120-121); (ज.प./3/69)।
- पहिला जो पद्म नाम का तालाब है उसके मध्य एक योजन का कमल है। (इसके चारों तरफ अन्य भी अनेकों कमल हैं - दे आगे लोक/3/9। इससे आगे के हृदों में भी कमल हैं। वे तालाब व कमल उत्तरोत्तर दूने विस्तार वाले हैं।17-18। (ह.पु./5/129); (ज.प./3/69)।
- पद्म हृद को आदि लेकर इन कमलों पर क्रम से श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये देवियाँ, अपने-अपने सामानिक परिषद् आदि परिवार देवों के साथ रहती हैं - (देखें व्यंतर - 3.2)।19। (ह.पु./5/130)।
- (उपरोक्त पद्म आदि द्रहों में से निकल कर भरत आदि क्षेत्रों में से प्रत्येक में दो-दो करके क्रम से) गंगा-सिन्धु, रोहित-रोहितास्या, हरित-हरिकान्ता, सीता-सीतोदा, नारी-नरकान्ता, सुवर्णकूला-रूप्यकूला, रक्ता-रक्तोदा नदियाँ बहती हैं। 20। (ह.पु./5/122-125)। (तिनमें भी गंगा, सिन्धु व रोहितास्या ये तीन पद्म द्रह से, रोहित व हरिकान्ता महापद्मद्रह से, हरित व सीतोदा तिगिंछ द्रह से, सीता व नरकान्ता केशरी द्रह से नारी व रूप्यकूला महापुण्डरीक से तथा सुवर्णकूला, रक्ता व रक्तोदा पुण्डरीक सरोवर से निकलती हैं - (ह.पु./5/132-135)।
- उपरोक्त युगलरूप दो-दो नदियों में से पहली--पहली नदी पूर्व समुद्र में गिरती हैं और पिछली-पिछली नदी पश्चिम समुद्र में गिरती हैं।21-22) . (ह.पु./5/160); (ज.प./3/192-193)।
- गंगा, सिन्धु आदि नदियों की चौदह-चौदह हजार परिवार नदियाँ हैं। (यहाँ यह विशेषता है कि प्रथम गंगा-सिन्धु यगुल में से प्रत्येक की 14000, द्वि. युगल में प्रत्येक की 28000 इस प्रकार सीतोदा नदी तक उत्तरोत्तर दूनी नदियाँ हैं। तदनन्तर शेष तीन युगलों में पुनः उत्तरोत्तर आधी-आधी हैं। (स.सि./3/23/220/10); (रा.वा./3/23/3/190/13), (ह.पु./5/275-276)।
ति.प./4/गा. का भावार्थ- - यह द्वीप एक जगती करके वेष्टित है।15। (ह.पु./5/3), (ज.प./1/26)।
- इस जगती की पूर्वादि चारों दिशाओं में विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नाम के चार द्वार हैं।41-42। (रा.वा./3/9/1/170/29); (ह.पु./5/390); (त्रि.सा./892); (ज.प./1/38,42)।
- इनके अतिरिक्त यह द्वीप अनेकों वन उपवनों, कुण्डों, गोपुर-द्वारों, देव-नगरियों व पर्वत, नदी, सरोवर, कुण्ड आदि सबकी वेदियों करके शोभित हैं। 92-99।
- (प्रत्येक पर्वत पर अनेकों कूट होते हैं (देखें आगे उन उन पर्वतों का निर्देश ) प्रत्येक पर्वत व कूट, नदी, कुण्ड, द्रह, आदि वेदियों करके संयुक्त होते हैं - (देखें अगला शीर्षक )। प्रत्येक पर्वत, कुण्ड, द्रह, कूटों पर भवनवासी व व्यन्तर देवों के पुर, भवन व आवास हैं - (देखें व्यन्तर - 4.1-5)। प्रत्येक पर्वतादि के ऊपर तथा उन देवों के भवनों में जिन चैत्यालय होते हैं। (देखें चैत्यालय - 3.2)।
- जम्बूद्वीप में पर्वत नदी आदि का प्रमाण
- क्षेत्र, नगर आदि का प्रमाण
(ति. प./2396-2397); (ह. पु./5/8-11); (ज. प./1/55)।
- क्षेत्र, नगर आदि का प्रमाण
- जम्बूद्वीप सामान्य निर्देश
नं. |
नाम |
गणना |
विवरण |
1 |
महाक्षेत्र |
7 |
भरत हैमवत आदि (देखें लोक - 3.3।। |
2 |
कुरुक्षेत्र |
2 |
देवकुरु व उत्तर कुरु |
3 |
कर्मभूमि |
34 |
भरत, ऐरावत व 32 विदेह। |
4 |
भोगभूमि |
6 |
हैमवत, करि, रम्यक व हैरण्यवत तथा दोनों कुरुक्षेत्र |
5 |
आर्यखण्ड |
34 |
प्रति कर्मभूमि एक |
6 |
म्लेच्छ खण्ड |
170 |
प्रति कर्मभूमि पांच |
7 |
राजधानी |
34 |
प्रति कर्मभूमि एक |
8 |
विद्याधरों के नगर। |
3750 |
भरत व ऐरावत के विजयाधर्मों में से प्रत्येक पर 115 तथा 32 विदेहों के विजयार्धों में से प्रत्येक पर 110 (देखें विद्याधर )। |
- पर्वतों का प्रमाण
(ति. प.4/2394-2397); (ह. पु./5/8-10); (त्रि. सा/731);
नं. |
नाम |
गणना |
विवरण |
1 |
मेरु |
1 |
जम्बूद्वीप के बीचोबीच। |
2 |
कुलाचल |
6 |
हिमवान् आदि (देखें लोक - 3.3)। |
3 |
विजयार्ध |
34 |
प्रत्येक कर्मभूमि में एक। |
4 |
वृषभगिरि |
34 |
प्रत्येक कर्मभूमि के उत्तर मध्य-म्लेच्छ खण्ड में एक। |
5 |
नाभिगिरि |
4 |
हैमवत, हरि, रम्यक व हैरण्यवत क्षेत्रों के बीचोबीच। |
6 |
वक्षार |
16 |
पूर्व व ऊपर विदेह के उत्तर व दक्षिण में चार-चार। |
7 |
गजदन्त |
4 |
मेरु की चारों विदिशाओं में। |
8 |
दिग्गजेन्द्र |
8 |
विदेह क्षेत्र के भद्रशालवन में व दोनों कुरुओं में सीता व सीतोदा नदी के दोनों तटों पर। |
9 |
यमक |
4 |
दो कुरुओं में सीता व सीतोदा के दोनों तटों पर। |
10 |
कांचनगिरि |
200 |
दोनों कुरुओं में पांच-पांच द्रहों के दोनों पार्श्व भागों में दस-दस। |
311 |
- नदियों का प्रमाण
(ति. प./4/2380-2385); (ह. पु./5/272-277); (त्रि. सा./747-750); (ज. प./3/197-198)।
नाम |
गणना |
प्रत्येक का परिवार |
कुल प्रमाण |
विवरण |
गंगा-सिन्धु |
2 |
14000 |
28002 |
भरतक्षेत्र में |
रोहित-रोहितास्या |
2 |
28000 |
56002 |
हेमवत् क्षेत्र में |
हरित हरिकान्ता |
2 |
56000 |
112002 |
हरि क्षेत्र में |
नारी नरकान्ता |
2 |
56000 |
112002 |
रम्यक क्षेत्र में |
सुवर्णकूला व रूप्यकूला |
2 |
28000 |
56002 |
हैरण्यवत् क्षेत्र में |
रक्ता-रक्तोदा |
2 |
14000 |
28002 |
ऐरावत क्षेत्र में |
छह क्षेत्रों की कुल नदियाँ |
|
392012 |
|
|
सीता सीतोदा |
2 |
84000 |
168002 |
दोनों कुरुओं में |
क्षेत्र नदियाँ |
64 |
14000 |
896064 |
32 विदेहों में |
विभंगा |
12 |
× |
12 |
|
विदेह की कुल नदियाँ |
|
|
1064078 |
ह.पु. व ज.प. की अपेक्षा |
जम्बूद्वीप की कुल नदी |
|
|
1456090 |
|
विभंगा |
12 |
28000 |
336000 |
|
जम्बूद्वीप की कुल नदी |
|
|
1792090 |
ति.प. की अपेक्षा |
- द्रह-कुण्ड आदि
नं. |
नाम |
गणना |
विवरण का प्रमाण |
1 |
द्रह |
16 |
कुलाचलों पर 6 तथा दोनों कुरु में 10‒(ज. प./1/67)। |
2 |
कुण्ड |
1792090 |
नदियों के बराबर (ति. प./4/2386)। |
3 |
वृक्ष |
2 |
जम्बू व शाल्मली (ह. पु./5/8) |
4 |
गुफाए |
68 |
34 विजयाधर्मों की (ह. पु./5/10) |
5 |
वन |
अनेक |
मेरु के 4 वन भद्रशाल, नन्दन, सौमनस व पाण्डुक। पूर्वा पर विदेह के छोरों पर देवारण्यक व भूतारण्यक। सर्वपर्वतों के शिखरों पर, उनके मूल में, नदियों के दोनों पार्श्व भागों में इत्यादि। |
6 |
कूट |
568 |
(ति. प./4/2396) |
7 |
चैत्यालय |
अनेक |
कुण्ड, वनसमूह, नदियां, देव नगरियां, पर्वत, तोरण द्वार, द्रह, दोनों वृक्ष, आर्य खण्ड के तथा विद्याधरों के नगर आदि सब पर चैत्यालय हैं—(देखें चैत्यालय )। |
8 |
वेदियां |
अनेक |
उपरोक्त प्रकार जितने भी कुण्ड आदि तथा चैत्यालय आदि हैं उतनी ही उनकी वेदियां है। (ति. प./4/23-88-2390)। |
|
|
18 |
जम्बूद्वीप के क्षेत्रों की (ज. प./1/60-67) |
|
|
311 |
सर्व पर्वतों की (ज. प./1/60-67) |
|
|
16 |
द्रहों की (ज. प./1/60-67) |
|
|
24 |
पद्मादि द्रहों की (ज. प./1/60-67) |
|
|
90 |
कुण्डों की (ज. प./1/60-67) |
|
|
14 |
गंगादि महानदियों की (ज. प./1/60-67) |
|
|
5200 |
कुण्डज महानदियों की (ज. प./1/60-67) |
9 |
कमल |
2241856 |
कुल द्रह=16 और प्रत्येक द्रह में |
- क्षेत्र निर्देश
- जम्बूद्वीप के दक्षिण में प्रथम भरतक्षेत्र जिसके उत्तर में हिमवान् पर्वतऔर तीन दिशाओं में लवणसागर है। (रा.वा./3/10/3/171/12)। इसके बीचोंबीच पूर्वापरलम्बायमान एक विजयार्ध पर्वत है। (ति. प./4/107); (रा.वा./3/10/4/171/17); (ह.पु./5/20); (ज.प./2/32)। इसके पूर्व में गंगा और पश्चिम में सिन्धु नदी बहती है। (देखें लोक - 3.1) ये दोनों नदियाँ हिमवान् के मूल भाग में स्थित गंगा व सिन्धु नाम के दो कुण्डों से निकलकर पृथक्-पृथक् पूर्व व पश्चिम दिशा में, उत्तर से दक्षिण की ओर बहती हुई विजयार्ध दो गुफा में से निकलकर दक्षिण क्षेत्र के अर्धभाग तक पहुँचकर और पश्चिम की ओर मुड़ जाती हैं, और अपने-अपने समुद्र में गिर जाती हैं - ( देखें लोक - 3.11)। इस प्रकार इन दो नदियों व विजयार्ध से विभक्त इस क्षेत्र के छह खण्ड हो जाते हैं। (ति. प./4/266); (स.सि./3//10/213/6); (रा.वा./3/10/3/171/13)। विजयार्थ की दक्षिण के तीन खण्डों में से मध्य का खण्ड आर्यखण्ड है और शेष पाँच खण्ड म्लेच्छ खण्ड हैं - (देखें आर्यखण्ड - 2)। आर्यखण्ड के मध्य 12×9 यो. विस्तृत विनीता या अयोध्या नाम की प्रधान नगरी है जो चक्रवर्ती की राजधानी होती है। (रा.वा./3/10/1/171/6)। विजयार्ध के उत्तरवाले तीन खण्डों में मध्यवाले म्लेच्छ खण्ड के बीचों-बीच वृषभगिरि नाम का एक गोल पर्वत है जिस पर दिग्विजय कर चुकने पर चक्रवर्ती अपना नाम अंकित करता है। (ति.प./4/268-269); (त्रि.सा./710); (ज.प./2/107)।
- इसके पश्चात् हिमवान् पर्वत के उत्तर में तथा महाहिमवान् के दक्षिण में दूसरा हेमवत क्षेत्र है (रा.वा./3/10/5/172/17); (ह.पु./5/57)। इसके बहुमध्य भाग में एक गोल शब्दवान् नाम का नाभिगिरि पर्वत है (ति.प./1704); (रा.वा./3/10/7/172/21)। इस क्षेत्र के पूर्व में रोहित और पश्चिम में रोहितास्या नदियाँ बहती हैं। (देखें लोक - 3.1.7)। ये दोनों ही नदियाँ नाभिगिरि के उत्तर व दक्षिण में उससे 2 कोस परे रहकर ही उसकी प्रदक्षिणा देती हुई अपनी-अपनी दिशाओं में मुड़ जाती हैं, और बहती हुई अन्त में अपनी-अपनी दिशा वाले सागर में गिर जाती हैं। -(देखें आगे लोक - 3.11)।
- इसके पश्चात् महाहिमवान् के उत्तर तथा निषध पर्वत के दक्षिण में तीसरा हरिक्षेत्र है (रा.वा./3/10/6/172/19)। नील के उत्तर में और रुक्मि पर्वत के दक्षिण में पाँचवाँ रम्यकक्षेत्र है। (रा.वा./3/10/15/181/15) पुनः रुक्मि के उत्तर व शिखरी पर्वत के दक्षिण में छठा हैरण्यवत क्षेत्र है। (रा.वा./3/10/18/181/21) तहाँ विदेह क्षेत्र को छोड़कर इन चारों का कथन हैमवत के समान है। केवल नदियों व नाभिगिरि पर्वत के नाम भिन्न हैं - देखें लोक - 3.1/7) व लोक /5/8।
- निषध पर्वत के उत्तर तथा नीलपर्वत के दक्षिण में विदेह क्षेत्र स्थित है। (ति.प./4/2474); (रा.वा./3/10/12/173/4)। इस क्षेत्र की दिशाओं का यह विभाग भरत क्षेत्र की अपेक्षा है सूर्योदय की अपेक्षा नहीं, क्योंकि वहाँ इन दोनों दिशाओं में भी सूर्य का उदय व अस्त दिखाई देता है। (रा.वा./3/10/13/173/10)। इसके बहुमध्यभागमें सुमेरु पर्वत है (देखें लोक - 3.6)। (ये क्षेत्र दो भागों में विभक्त हैं - कुरुक्षेत्र व विदेह) मेरु पर्वत की दक्षिण व निषध के उत्तर में देवकुरु है (ति.प./4/2138-2139)। मेरु के पूर्व व पश्चिम भाग में पूर्व व अपर विदेह है, जिनमें पृथक् - पृथक् 16, 16 क्षेत्र हैं, जिन्हें 32 विदेह कहते हैं। (ति.प./4/2199)। (दोनों भागों का इकट्ठा निर्देश — रा. वा./3/10/13/173/6) (नोट - इन दोनों भागों के विशेष कथन के लिए देखें आगे पृथक् शीर्षक (देखें लोक - 3.12-14) )।
- सबसे अन्त में शिखरी पर्वत के उत्तर में तीन तरफ से लवणसागर के साथ स्पर्शित सातवाँ ऐरावत क्षेत्र है। (रा.वा./3/10/21/181/28)। इसका सम्पूर्ण कथन भरतक्षेत्रवत् है (ति.प./4/2365); (रा.वा./3/10/22/181/30) केवल इनकी दोनों नदियों के नाम भिन्न हैं (देखें लोक - 3.1.7) तथा 5/8)।
- कुलाचल पर्वत निर्देश
- भरत व हैमवत इन दोनों क्षेत्रों की सीमा पर पूर्व-पश्चिम लम्बायमान (देखें लोक - 3.1.2) प्रथम हिमवान् पर्वत है - (रा.वा./3/11/2/182/6)। इस पर 11 कूट हैं - (ति.प./4/1632); (रा.वा./3/11/2/182/16); (ह.पु./5/52); (त्रि.सा./721); (ज.प./3/39)। पूर्व दिशा के कूट पर जिनायतन और शेष कूटों पर यथा योग्य नामधारी व्यन्तर देव व देवियों के भवन हैं (देखें लोक - 5.4)। इस पर्वत के शीर्ष पर बीचों-बीच पद्म नाम का हृद है (ति.प./4/16-58); (देखें लोक - 3.1.4)।
- तदनन्तर हैमवत् क्षेत्र के उत्तर व हरिक्षेत्र के दक्षिण में दूसरा महाहिमवान् पर्वत है। (रा.वा./3/11/4/182/31)। इस पर पूर्ववत् आठ कूट हैं (ति. प. /4/1724); (रा.वा. 3/11/4/183/4); (ह.पु. 5/70); (त्रि.सा./724)(ज.प./3/39)। इसके शीर्ष पर पूर्ववत् महापद्म नाम का द्रह है। (ति.प./4/1727); (देखें लोक - 3.1.4)।
- तदनन्तर हरिवर्ष के उत्तर व विदेह के दक्षिण में तीसरा निषधपर्वत है। (रा.वा./3/11/6/183/11)। इस पर्वत पर पूर्ववत 9 कूट हैं (ति. प./4/1758); (रा. वा./3/11/6/183/17): (ह.पु./5/87): (त्रि.सा./725): (ज.प./3/39)। इसके शीर्ष पर पूर्ववत् तिगिंछ नाम का द्रह है (ति.प./4/1761); (देखें लोक - 3.1.4)।
- तदनन्तर विदेह के उत्तर तथा रम्यकक्षेत्र के दक्षिण दिशा में दोनों क्षेत्रों को विभक्त करने वाला निषधपर्वत के सदृश चौथा नीलपर्वत है। (ति.प./4/2327); (रा.वा./3/11/8/23)। इस पर पूर्ववत् 9 कूट हैं। (ति. प./4/2328); (रा.वा./3/11/8/183/24); (ह.पु./5/99); (त्रि.सा./729); (ज.प./3/39)। इतनी विशेषता है कि इस पर स्थित द्रह का नाम केसरी है। (ति.प./4/2332); (देखें लोक - 3.1/4)।
- तदनन्तर रम्यक व हैरण्यवत क्षेत्रों का विभाग करने वाला तथा महा हिमवान पर्वत के सदृश 5वाँ रुक्मि पर्वत है, जिस पर पूर्ववत आठ कूट हैं। (ति. प./4/2340); (रा.वा./3/11/10/183/30); (ह.पु./5/102); (त्रि.सा./727)। इस पर्वत पर महापुण्डरीक द्रह है। (देखें लोक - 3.1.4)। ति. प. की अपेक्षा इसके द्रह का नाम पुण्ड्रीक है। (वि.प./4/2344)।
- अन्त में जाकर हैरण्यवत व ऐरावत क्षेत्रों की सन्धि पर हिमवान पर्वत के सदृश छठा शिखरी पर्वत है, जिस पर 11 कूट हैं। (ति. प./4/2356); (रा.वा./3/11/12/184/3); (ह.पु./5/105); (त्रि. सा./728); (ज.प./3/39) इस पर स्थित द्रह का नाम पुण्ड्रीक है (देखें लोक - 3.1/4)। ति.प. की अपेक्षा इसके द्रह का नाम महापुण्डरीक है। (ति.प./4/2360)।
- विजयार्ध पर्वत निर्देश
- भरतक्षेत्र के मध्य में पूर्व-पश्चिम लम्बायमान विजयार्ध पर्वत है (देखें लोक - 3.3.1)। भूमितल से 10 योजन ऊपर जाकर इसकी उत्तर व दक्षिण दिशा में विद्याधर नगरों की दो श्रेणियाँ हैं। तहाँ दक्षिण श्रेणी में 55 और उत्तर श्रेणी में 60 नगर हैं। इन श्रेणियों से भी 10 योजन ऊपर जाकर उसीप्रकार दक्षिण व उत्तर दिशा में आभियोग्य देवों की श्रेणियाँ हैं। (देखें विद्याधर /4)। इसके ऊपर 9 कूट हैं। (ति. प./4/146); (रा.वा./3/10/4/172/10); ह.पु./5/26); (ज.प./2/48)। पूर्व दिशा के कूट पर सिद्धायतन है और शेष पर यथायोग्य नामधारी व्यन्तर व भवनवासी देव रहते हैं। (देखें लोक - 5.4)। इसके मूलभाग में पूर्व व पश्चिम दिशाओं में तमिस्र व खण्डप्रपात नाम की दो गुफाएँ हैं, जिनमें क्रम से गंगा व सिन्धु नदी प्रवेश करती हैं। (ति. प./4/175); (रा.वा./3/10/4/17/171/27); (ज.प./2/89)। रा.वा व. त्रि.सा. के मत से पूर्व दिशा में गंगाप्रवेश के लिए खण्डप्रपात और पश्चिम दिशा में सिन्धु नदी के प्रवेश के लिए तमिस्र गुफा है (देखें लोक - 3.10)। इन गुफाओं के भीतर बहु मध्यभाग में दोनों तटों से उन्मग्ना व निमग्ना नाम की दो नदियाँ निकलती हैं जो गंगा और सिन्धु में मिल जाती हैं। (ति. प./4/237), (रा.वा./3/10/4/171/31); (त्रि. सा./593); (ज.प./2/95-98);
- इसी प्रकार ऐरावत क्षेत्र के मध्य में भी एक विजयार्ध है, जिसका सम्पूर्ण कथन भरत विजयार्धवत् है (दे .लोक /3/3)। कूटों व तन्निवासी देवों के नाम भिन्न हैं। (देखें लोक - 5.4)।
- विदेह के 32 क्षेत्रों में से प्रत्येक के मध्य पूर्वापर लम्बायमान विजयार्ध पर्वत है। जिनका सम्पूर्ण वर्णन भरत विजयार्धवत् है। विशेषता यह कि यहाँ उत्तर व दक्षिण दोनों श्रेणियों में 55, 55 नगर हैं . (ति. प./4/2257, 2260); (रा.वा./3/10/13/176/20); (ह.पु./5/255-256); (त्रि. सा./611-695)। इनके ऊपर भी 9,9 कूट हैं (त्रि.सा./692)। परन्तु उनके व उन पर रहने वाले देवों के नाम भिन्न हैं। (देखें लोक - 5.4)।
- सुमेरु पर्वत निर्देश
- सामान्य निर्देश
विदेहक्षेत्र के बहु मध्यभाग में सुमेरु पर्वत है। (ति.प./4/1780); (रा.वा./3/10/13/173/16); (ज.प./4/21)। यह पर्वत तीर्थंकरों के जन्माभिषेक का आसनरूपमाना जाता है (ति.प./4/1780); (ज.प./4/21), क्योंकि इसके शिखर पर पाण्डुकवन में स्थित पाण्डुक आदि चार शिलाओं पर भरत, ऐरावत तथा पूर्व व पश्चिम विदेहों के सर्व तीर्थंकरों का देव लोग जन्माभिषेक करते हैं (देखें लोक - 3.3.4)। यह तीनों लोकों का मानदण्ड है, तथा इसके मेरु, सुदर्शन, मन्दर आदि अनेकों नाम हैं (देखें सुमेरु - 2)।
- मेरु का आकार
यह पर्वत गोल आकार वाला है। (ति.प./4/1782)। पृथिवी तलपर 10,0,00 योजन विस्तार तथा 99,000 योजन उत्सेध वाला है। क्रम से हानिरूप होता हुआ इसका विस्तार शिखर पर जाकर 1000 योजन रह जाता है। (देखें लोक चित्र - 6.4)। इसकी हानि का क्रम इस प्रकार है - क्रम से हानिरूप होता हुआ पृथिवी तल से 500 योजन ऊपर जाने पर नन्दनवन के स्थान पर यह चारों ओर से युगपत् 500 योजन संकुचित होता है। तत्पश्चात् 11,000 योजन समान विस्तार से जाता है। पुनः 51,500 योजन क्रमिक हानिरूप से जानेपर सौमनस वन के स्थान पर चारों ओर से 500 यो. संकुचित होता है। यहाँ से 11,000 योजन तक पुनः समान विस्तार से जाता है उसके ऊपर 25,000 योजन क्रमिक हानिरूप से जाने पर पाण्डुकवन के स्थान पर चारों ओर से युगपत् 494 योजन संकुचित होता है। (ति. /4/1788-1791); (ह.पु./5/287-301) इसका बाह्य विस्तार भद्रशाल आदि वनों के स्थान पर क्रम से 10,000 9954(6/11), 4272(8/11) तथा 1000 योजन प्रमाण है (ति. प./4/1783 + 1990+ 1939+ 1810); (ह.पु./5/287-301) और भी देखें लोक - 6.6 में इन वनों का विस्तार)। इस पर्वत के शीश पर पाण्डुक वन के बीचों बीच 40 यो. ऊँची तथा 12 यो. मूल विस्तार युक्त चूलिका है। (ति.प./4/1814); (रा.वा./3/10/13/180/14); (ह.पु./5/302); (त्रि.सा./637); (ज.प./4/132); (विशेष देखें लोक - 6.4-2 में चूलिका विस्तार)।
- मेरु की परिधियाँ
नीचे से ऊपर की ओर इस पर्वत की परिधि सात मुख्य भागों में विभाजित है - हरितालमयी, वैडूर्यमयी, सर्वरत्नमयी, वज्रमयी, मद्यमयी और पद्मरागमयी अर्थात् लोहिताक्षमयी। इन छहों में से प्रत्येक 16,500 यो. ऊँची है। भूमितल अवगाही सप्त परिधि (पृथिवी उपल बालु का आदि रूप होने के कारण) नाना प्रकार है। (ति.प./4/1802-1804), (ह.पु./5/304)। दूसरी मान्यता के अनुसार ये सातों परिधियाँ क्रम से लोहिताक्ष, पद्म, तपनीय, वैडूर्य, वज्र, हरिताल और जाम्बूनद-सुवर्णमयी हैं। प्रत्येक परिधि की ऊँचाई 16500 योजन है। पृथिवीतल के नीचे 1000 यो. पृथिवी, उपल, बालु का और शर्करा ऐसे चार भाग रूप हैं। तथा ऊपर चूलिका के पास जाकर तीन काण्डकों रूप है। प्रथम काण्डक सर्वरत्नमयी, द्वितीय जाम्बूनदमयी और तीसरा काण्डक चूलिका का है जो वैडूर्यमयी है।
- वनखण्ड निर्देश
- सुमेरु पर्वत के तलभाग में भद्रशाल नाम का प्रथम वन है जो पाँच भागों में विभक्त है - भद्रशाल, मानुषोत्तर, देवरमण, नागरमण और भूतरमण। (ति. प./4/1805); (ह.पु./5/307) इस वनकी चारों दिशाओं में चार जिनभवन हैं। (ति. प./4/2003); (त्रि.सा./611); (ज.प./4/49) इनमें से एक मेरु से पूर्व तथा सीता नदी के दक्षिण में है। दूसरा मेरु की दक्षिण व सीतोदा के पूर्व में है। तीसरा मेरु से पश्चिम तथा सीतीदा के उत्तर में है और चौथा मेरु के उत्तर व सीता के पश्चिम में है। (रा.वा./3/10/178/18) इन चैत्यालयों का विस्तार पाण्डुक वन के चैत्यालयों से चौगुना है (ति.प./4/2004)। इस वन में मेरु की चारों तरफ सीता व सीतोदा नदी के दोनों तटों पर एक-एक करके आठ दिग्गजेन्द्र पर्वत हैं। (देखें लोक - 3.12)
- भद्रशाल वन से 500 योजन ऊपर जाकर मेरु पर्वत की कटनी पर द्वितीय वन स्थित है। (देखें पिछला उपशीर्षक - 1)। इसके दो विभाग हैं नन्दन व उपनन्दन। (ति. प./4/1806); ह.पु./5/308) इसकी पूर्वादि चारों दिशाओं में पर्वत के पास क्रम से मान, धारणा, गन्धर्व व चित्र नाम के चार भवन हैं जिनमें क्रम से सौधर्म इन्द्र के चार लोकपाल सोम, यम, वरुण व कुबेर क्रीड़ा करते हैं।) (ति. प./4/1994-1996); (ह.पु./315-317); (त्रि. सा./619, 621); (ज.प./4/83-84)। कहीं-कहीं इन भवनों को गुफाओं के रूप में बताया जाता है। (रा.वा./3/10/13/179/14)। यहाँ भी मेरु के पास चारों दिशाओं में चार जिनभवन हैं। (ति. प./4/1998); (रा.वा./3/10/13/179/32); (ह.पु./5/358); (त्रि.सा./611)। प्रत्येक जिनभवन के आगे दो-दो कूट हैं - जिनपर दिक्कुमारी देवियाँ रहती हैं। ति. प. की अपेक्षा ये आठ कूट इस वन में न होकर सौमनस वन में ही हैं। (देखें लोक - 5.5)। चारों विदिशाओं में सौमनस वन की भाँति चार-चार करके कुल 16 पुष्करिणियाँ हैं। (ति. प./4/1998); (रा.वा./3/10/13/179/25); (ह.पु. /5/334-335+343 - 346); (त्रि. सा./628); (ज.प./4/110-113)। इस वन की ईशान दिशा में एक बलभद्र नाम का कूट है जिसका कथन सौमनस वन के बलभद्र कूट के समान है। इस पर बलभद्र देव रहता है। (ति.प./4/1997); (रा.वा./3/10/13/179/16); (ह.पु./5/328); (त्रि.सा./624); (ज.प./4/99)।
- नन्दन वन में 62500 योजन ऊपर जाकर सुमेरु पर्वत पर तीसरा सौमनस वन स्थित है। देखें लोक - 3.6,1)। इसके दो विभाग हैं- सौमनस व उपसौमनस (ति.प./4/1806); (ह.पु./5/308)। इसकी पूर्वादि चारों दिशाओं में मेरु के निकट वज्र, वज्रमय, सुवर्ण व सुवर्णप्रभ नाम के चार पुर हैं, (ति. प./4/1943); (ह.पु./5/319); (त्रि.सा./620); (ज.प./4/91) इनमें भी नन्दन वन के भवनोंवत् सोम आदि लोकपाल क्रीड़ा करते हैं। (त्रि.सा./621)। चारों विदिशाओं में चार-चार पुष्करिणी हैं। (ति.प./4/1946(1962-1966); (रा.वा./3/10/13/180/7)। पूर्वादि चारों दिशाओं में चार जिनभवन हैं (ति.प./4/1968); (ह.पु./5/357); (त्रि.सा./611); (ज.प./4/64)। प्रत्येक जिन मन्दिर सम्बन्धी बाह्य कोटों के बाहर उसके दोनों कोनों पर एक-एक करके कुल आठ कूट हैं। जिनपर दिक्ककुमारी देवियाँ रहती हैं। (देखें लोक - 5.5)। इसकी ईशान दिशा में बलभद्र नाम का कूट है जो 500 योजन तो वन के भीतर है और 500 योजन उसके बाहर आकाश में निकला हुआ है। (ति.प./4/1981); (ज.प./4/101); इस पर बलभद्र देव रहता है। (ति. प./4/1984) मतान्तर की अपेक्षा इस वन में आठ कूट व बलभद्र कूट नहीं हैं। (रा.वा./3/10/13/180/6)। (देखें सामनेवाला चित्र )। 4. सौमनस वनसे 36000 योजन ऊपर जाकर मेरु के शीर्ष पर चौथा पाण्डुक वन है। (देखें लोक - 3.6,1) जो चूलिका को वेष्टित करके शीर्ष पर स्थित है (ति.प./4/1814)। इसके दो विभाग हैं - पाण्डुक व उपपाण्डुक। (ति. प./4/1806); (ह.पु./5/309)। इसके चारों दिशाओं में लोहित, अंजन, हरिद्र और पाण्डुक नाम के चार भवन हैं जिनमें सोम आदि लोकपाल क्रीड़ा करते हैं। (ति. प./4/1836, 1852); (ह.पु./5/322), (त्रि. सा./620); (ज.प./4/93); चारों विदिशाओं में चार-चार करके 16 पुष्करिणियाँ हैं। (रा.वा./3/10/16/180/26)। वन के मध्य चूलिका की चारों दिशाओं में चार जिनभवन हैं। (ति.प./4/1855, 1935); (रा.वा./3/10/13/180/28); (ह.पु./5/354); (त्रि.सा./611); (ज.प./4/64)। वन की ईशान आदि दिशाओं में अर्ध चन्द्राकार चार शिलाएं हैं - पाण्डुक शिला, पाण्डुकंबला शिला, रक्ताकंबला शिला और रक्तशिला। रा.वा. के अनुसार ये चारों पूर्वादि दिशाओं में स्थित हैं। (ति. प. /4/1818, 1830-1834); (रा.वा./3/10/13/180/15); (ह.पु./5/347); (त्रि.सा./633); (ज.प./4/138-141)। इन शिलाओंपर क्रम से भरत, अपरविदेह, ऐरावत और विदेह के तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है। (ति.प./4/1827,1831-1835); (रा.वा./3/10/13/180/22); (ह.पु./5/353); (त्रि.सा./634); (ज.प./4/148-150)।
- सामान्य निर्देश
- पाण्डुकशिला निर्देश
पाण्डुक शिला 100 योजन /लम्बी 50 योजन चौड़ी है, मध्य में 8 योजन ऊँची है और दोनों ओर क्रमशः हीन होती गयी है। इस प्रकार यह अर्धचन्द्रकार है। इसके बहुमध्यदेश में तीन पीठ युक्त एक सिंहासन है और सिंहासन के दोनों पार्श्व भागों में तीन पीठ युक्त ही एक भद्रासन है। भगवान् के जन्माभिषेक के अवसर पर सौधर्म व ऐशानेन्द्र दोनों इन्द्र भद्रासनों पर स्थित होते हैं और भगवान् को मध्य सिंहासन पर विराजमान करते हैं। (ति.प./4/1819-1829); (रा.वा./3/10/13/180/20); (ह.पु./5/349-352); (त्रि.सा./635-636); (ज.प./4/142-147)।
- अन्य पर्वतों का निर्देश
- भरत, ऐरावत व विदेह इन तीन को छोड़कर शेष हैमवत आदि चार क्षेत्रों के बहुमध्य भाग में एक-एक नाभिगिरि है। (ह.पु./5/161); (त्रि.सा./718-719); (ज.प./3/209); (वि.देखें लोक - 5.13.2)। ये चारों पर्वत ऊपर-नीचे समान गोल आकार वाले हैं। (ति.प./4/1704); (त्रि.सा./718); (ज.प./3/210)।
- मेरु पर्वत की विदिशाओं में हाथी के दाँत के आकारवाले चार गजदन्त पर्वत हैं। जो एक ओर तो निषध व नील कुलाचलों को और दसरी तरफ मेरु को स्पर्श करते हैं। तहाँ भी मेरु पर्वत के मध्यप्रदेश में केवल एक-एक प्रदेश उससे संलग्न हैं। (ति.प./4/2012-2014)। ति. प. के अनुसार इन पर्वतों के परभाग भद्रशाल वन की वेदी को स्पर्श करते हैं, क्योंकि वहाँ उनके मध्य का अन्तराल 53000 यो. बताया गया है। तथा सग्गायणी के अनुसार उन वेदियों से 500 यो. हटकर स्थित है, क्योंकि वहाँ उनके मध्य का अन्तराल 52000 यो. बताया है। (देखें लोक - 6.3.1 में देवकुरु व उत्तरकुरु का विस्तार)। अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार उन वायव्य आदि दिशाओं में जो-जो भी नामवाले पर्वत हैं, उन पर क्रम से 7,9,7,9 कूट हैं। (ति. प./4/2031, 2046, 2058, 2060); (ह.पु./5/216), (विशेष देखें लोक - 5.3.3)। मतान्तर से इन पर क्रम से 7,10,7,9 कूट हैं। (रा.वा./30/10/13/173/23,30/14/18)। ईशान व नैर्ऋत्य दिशावाले विद्युत्प्रभ व माल्यवान गजदन्तों के मूल में सीता व सीतोदा नदियों के निकलने के लिए एक-एक गुफा होती है। (ति.प./4/2055, 2063)।
- देवकुरु व उत्तरकुर में सीतोदा व सीता नदी के दोनों तटों पर एक यमक पर्वत हैं (देखें आगे लोक - 3.12)। ये गोल आकार वाले हैं। (देखें लोक - 6.4.1 में इनका विस्तार )। इन पर इन इन के नामवाले व्यन्तर देव सपरिवार रहते हैं। (ति. प./4/2084); (रा.वा./3/10/13/174/28)। उनके प्रासादों का सर्वकथन पद्मद्रह के कमलोंवत् है। (ज.प./6/92-102)।
- उन्हीं देवकुरु व उत्तरकुरु में स्थित द्रहों के दोनों पार्श्वभागों में कांचन शैल स्थित है। (देखें आगे लोक - 3.12) ये पर्वत गोल आकार वाले हैं। (देखें लोक - 6.4.2 में इनका विस्तार) इनके ऊपर कांचन नामक व्यन्तर देव रहते हैं। (ति.प./4/2099); (ह.पु./5/204); (त्रि.सा./659)।
- देवकुरु व उत्तरकुरु के भीतर से बाहर भद्रशाल वन में सीतोदा व सीता नदी के दोनों तटों पर आठ दिग्गजेन्द्र पर्वत हैं (देखें लोक - 3.12)। ये गोल आकार वाले हैं (देखें लोक - 6.4 में इनका विस्तार)। इन पर यम व वैश्रवण नामक वाहन देवों के भवन हैं। (ति.प./4/2106, 2108, 2031)। उनके नाम पर्वतों वाले ही हैं। (ह.पु./5/209); (ज.प./2/81)।
- पूर्व व पश्चिम विदेह में सीता व सीतोदा नदी के दोनों तरफ उत्तर-दक्षिण लम्बायमान, 4, 4 करके कुल 16 वक्षार पर्वत हैं। एक ओर ये निषध व नील पर्वतों को स्पर्श करते हैं और दूसरी ओर सीता व सीतोदा नदियों को। (ति.प./4/2200, 2224, 2230); (ह.पु./5/228-232) (और भी देखें आगे लोक - 3.14)। प्रत्येक वक्षार पर चार चार कूट हैं; नदी की तरफ सिद्धायतन है और शेष कूटों पर व्यन्तर देव रहते हैं। (ति.प./4/2309-2311); (रा.वा./3/10/13/176/4); (ह.पु./5/234-235)। इन कूटों का सर्व कथन हिमवान पर्वत के कूटोंवत् है। (रा.वा./3/10/13/176/7)।
- भरत क्षेत्र के पाँच म्लेच्छ खण्डों में से उत्तर वाले तीन के मध्यवर्ती खण्ड में बीचों-बीच एक वृषभ गिरि है, जिस पर दिग्विजय के पश्चात् चक्रवर्ती अपना नाम अंकित करता है। (देखें लोक - 3.3)। यह गोल आकार वाला है। (देखें लोक - 6.4 में इसका विस्तार) इसी प्रकार विदेह के 32 क्षेत्रों में से प्रत्येक क्षेत्र में भी जानना (देखें लोक - 3.14)।
- भरत, ऐरावत व विदेह इन तीन को छोड़कर शेष हैमवत आदि चार क्षेत्रों के बहुमध्य भाग में एक-एक नाभिगिरि है। (ह.पु./5/161); (त्रि.सा./718-719); (ज.प./3/209); (वि.देखें लोक - 5.13.2)। ये चारों पर्वत ऊपर-नीचे समान गोल आकार वाले हैं। (ति.प./4/1704); (त्रि.सा./718); (ज.प./3/210)।
- द्रह निर्देश
- हिमवान पर्वत के शीष पर बीचों-बीच पद्म नाम का द्रह है। (देखें लोक - 3.4)। इसके तट पर चारों कोनों पर तथा उत्तर दिशा में 5 कूट हैं और जल में आठों दिशाओं में आठ कूट हैं। (देखें लोक - 5.3)। हृद के मध्य में एक बड़ा कमल है, जिसके 11000 पत्ते हैं। (ति.प./1667,1670); (त्रि.सा./569); (ज.प./3/75); इस कमल पर ‘श्री’ देवी रहती है। (ति.प./4/1672); (देखें लोक - 3.1-6)। प्रधान कमल की दिशा-विदिशाओं में उसके परिवार के अन्य भी अनेकों कमल हैं। कुल कमल 1,40,116 हैं। तहाँ वायव्य, उत्तर व ईशान दिशाओं में कुल 4000 कमल उसके सामानिक देवों के हैं। पूर्वादि चार दिशाओं में से प्रत्येक में 4000(कुल 16000) कमल आत्मरक्षकों के हैं। आग्नेय दिशा में 32,000 कमल आभ्यन्तर पारिषदों के, दक्षिण दिशा में 40,000 कमल मध्यम पारिषदों के, नैर्ऋत्य दिशा में 48,000 कमल बाह्य पारिषदों के हैं। पश्चिम में 7 कमल सप्त अनीक महत्तरों के हैं। तथा दिशा व विदिशा के मध्य आठ अन्तर दिशाओं में 108 कमल त्रायस्त्रिंशों के हैं। (ति. प./4/1675-1689); (रा.वा./3/17-/185/11); (त्रि. सा./572-576); (ज.प./3/91-123)। इसके पूर्व पश्चिम व उत्तर द्वारों से क्रम से गंगा, सिन्धु व रोहितास्या नदी निकलती है। (देखें आगे शीर्षक - 11)। (देखें चित्र सं - 24, पृ. 470)।
- महाहिमवान् आदि शेष पांच कुलाचलों पर स्थित महापद्म, तिगिंछ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक नाम के ये पांच द्रह हैं। (देखें लोक - 3.4), इन हृदों का सर्व कथन कूट कमल आदि का उपरोक्त पद्महृदवत् ही जानना। विशेषता यह कि तन्निवासिनी देवियों के नाम क्रम से ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी हैं। (देखें लोक - 3.16)। व कमलों की संख्या तिगिंछ तक उत्तरोत्तर दूनी है। केसरी की तिगिंछवत्, महापुण्डरीक की महापद्मवत् और पुण्डरीक की पद्मवत् है। (ति.प./4/1728-1729; 1761-1762; 2332-2333; 2345-2361)। अन्तिम पुण्डरीक द्रह से पद्मद्रहवत् रक्ता, रक्तोदा व सुवर्णकूला ये तीन नदियाँ निकलती हैं और शेष द्रहों से दो-दो नदियाँ केवल उत्तर व दक्षिण द्वारों से निकलती हैं। (देखें लोक - 3.17 व 11 )। (ति.प. में महापुण्डरीक के स्थान पर रुक्मि पर्वत पर पुण्डरीक और पुण्डरीक के स्थान पर शिखरी पर्वत पर महापुण्डरीक द्रह कहा है - (देखें लोक - 3.4)।
- देवकुरु व उत्तरकुरु में दस द्रह हैं।अथवा दूसरी मान्यता से 20 द्रह हैं। (देखें आगे लोक - 3.12) इनमें देवियों के निवासभूत कमलों आदि का सम्पूर्ण कथन पद्मद्रहवत् जानना (ति. प./4/2093, 2126); (ह.पु./5/198-199); (त्रि.सा./658); (अ.प./6/124-129)। ये द्रह नदी के प्रवेश व निकास के द्वारों से संयुक्त हैं। (त्रि.सा./658)।
- सुमेरु पर्वत के नन्दन, सौमनस व पाण्डुक वन में 16,16 पुष्करिणी हैं, जिनमें सपरिवार सौधर्म व ऐशानेन्द्र क्रीड़ा करते हैं। तहाँ मध्य में इन्द्रका आसन है। उसकी चारों दिशाओं में चार आसन लोकपालों के हैं, दक्षिण में एक आसन प्रतीन्द्रका , अग्रभाग में आठ आसन अग्रमहिषियों के, वायव्य और ईशान दिशा में 84,00,000 आसन सामानिक देवों के, आग्नेय दिशा में 12,00,000 आसन अभ्यन्तर पारिषदों से, दक्षिण में 14,00,000 आसन मध्यम पारिषदों के, नैर्ऋत्य दिशा में 16,00,000 आसन बाह्य पारिषदों के, तथा उसी दिशा में 33 आसन त्रायस्त्रिंशों के, पश्चिम में छह आसन महत्तरों के और एक आसन महत्तरिका का है। मूल मध्य सिंहासन के चारों दिशाओं में 84,000 आसन अंगरक्षकों के हैं। (इस प्रकार कुल आसन 1,26,84,054 होते हैं)। (ति. प./4/1949-1960), (ह.पु./5/336-342)।
- कुण्ड निर्देश
- हिमवान् पर्वत के मूलभाग से 25 योजन हटकर गंगा कुंड स्थित है। उसके बहुमध्य भाग में एक द्वीप है, जिसके मध्य में एक शैल है। शैल पर गंगा देवी का प्रासाद है। इसी का नाम गंगाकूट है। उस कूट के ऊपर एक-एक जिनप्रतिमा है, जिसके शीश पर गंगा की धारा गिरती है। (ति.प./4/216-230); (रा.वा./3/2/1/187/26 व 188/1); (ह.पु./5/142); (त्रि.सा./586-587); (ज.प./ 3/34-37 व 154-162)।
- उसी प्रकार सिन्धु आदि शेष नदियों के पतन स्थानों पर भी अपने-अपने क्षेत्रों में अपने-अपने पर्वतों के नीचे सिन्धु आदि कुण्ड जानने। इनका सम्पूर्ण कथन उपरोक्त गंगा कुण्डवत् है विशेषता यह कि उन कुण्डों के तथा तन्निवासिनी देवियों के नाम अपनी-अपनी नदियों के समान हैं। (ति.प./4/261-262;1696); (रा.वा./3/22/1/188/1,18,26,29+188/6,9,12,16, 20,23,26, 29)। भरत आदि क्षेत्रों में अपने-अपने पर्वतों से उन कुण्डों का अन्तराल भी क्रम से 25,50, 100, 200, 100, 50, 25 योजन है। (ह.पु./5/151-157)।
- 32 विदेहों में गंगा, सिन्धु व रक्ता, रक्तोदा नामवाली 64 नदियों के भी अपने-अपने नाम वाले कुण्ड नील व निषध पर्वत के मूलभाग में स्थित हैं। जिनका सम्पूर्ण वर्णन उपर्युक्त गंगा कुण्डवत् ही है। (रा.वा./3/10/13/176/24,29+177/11)।
- नदी निर्देश
- हिमवान् पर्वत पर पद्मद्रह के पूर्वद्वार से गंगानदी निकलती है (ति.प./4/196); (रा.वा./3/22/1/187/22) : (ह.पु./5/132): (त्रि.सा./582):(ज.प./3/147)। द्रह की पूर्व दिशा में इस नदी के मध्य एक कमलाकार कूट है, जिसमें बला नाम की देवी रहती है। (ति.प./4/205-209/): (रा.वा./3/22/2/188/3)। द्रह से 500 योजन आगे पूर्व दिशा में जाकर पर्वत पर स्थित गंगा कूट से 1/2 योजन इधर ही इधर रहकर दक्षिण की ओर मुड़ जाती है, और पर्वत के ऊपर ही उसके अर्ध विस्तार प्रमाण अर्थात् 523 /29/152 योजन आगे जाकर वृषभाकार प्रणाली को प्राप्त होती है। फिर उसके मुख में से निकलती हई पवर्त के ऊपर से अधोमुखी होकर उसकी धारा नीचे गिरती है। (ति.प./4/210-214), (रा.वा./3/22/1/187/22): (ह.पु./5/138-140): (त्रि.सा./582/584): (ज.प./3147-149)। वहाँ पर्वत के मूल से 25 योजन हटकर वह धार गंगाकुण्ड में स्थित गंगाकूट के ऊपर गिरती है (देखें लोक - 3.9)। इस गंगाकुण्ड के दक्षिण द्वार से निकलकर वह उत्तर भारत में दक्षिण मुखी बहती हुई विजयार्ध की तमिस्र गुफा में प्रवेश करती है। (ति.प./4/232-233): (रा.वा./3/22/1/187/27): (ह.पु./5/148): (त्रि.सा./591): (ज.प./3/174)। (रा.वा., व त्रि. सा. में तमिस्र गुफा की बजाय खण्डप्रपात नाम की गुफा में प्रवेश कराया है ) उस गुफा के भीतर वह उन्मग्ना व निमग्ना नदी को अपने में समाती हई (ति.प./4/241) :(देखें लोक - 3.5) गुफा के दक्षिण द्वार से निकलकर वह दक्षिण भारत में उसके आधे विस्तार तक अर्थात 119/3/19 योजन तक दक्षिण की ओर जाती है। तत्पश्चात पूर्व की ओर मुड़ जाती है और मागध तीर्थ के स्थान पर लवण सागर में मिल जाती है। (ति.प./4/243-244) : (रा.वा./3/22/1/187/28) :(ह.पु./5/148-149),(त्रि.सा./596)। इसकी परिवार नदियाँ कुल 14,000 हैं। (ति.प./1/244): (ह.पु./5/149): (देखें लोक - 3.19),ये सब परिवार नदियाँ म्लेच्छ खण्ड में ही होती हैं आर्यखण्ड में नहीं (देखें म्लेच्छ - 1),
- सिन्धु नदी का सम्पूर्ण कथन गंगा नदीवत है। विशेष यह कि पद्मद्रह के पश्चिम द्वार से निकलती है। इसके भीतरी कमलाकारकूट में लवणा देवी रहती है। सिन्धुकुण्ड में स्थित सिन्धुकूट पर गिरती है। विजयार्ध की खण्डप्रपात गुफा को प्राप्त होती है।अथवा रा.वा. व त्रि.सा. की अपेक्षा तमिस्र गुफा को प्राप्त होती है।पश्चिम की ओर मुड़कर प्रभास तीर्थ के स्थान पर पश्चिम लवण सागर में मिलती है। (ति.प./4/252-264):(रा.वा.3/22/2/187/31): (ह.पु./5/151): (त्रि.सा./597)- (देखें लोक - 3.108) इसकी परिवार नदियाँ 14000 हैं। (ति.प./4/264); (देखें लोक - 3.1,9)।
- हिमवान् पर्वत के ऊपर पद्मद्रह के उत्तर द्वार से रोहितास्या नदी निकलती है जो उत्तरमुखी ही रहती हुई पर्वत के ऊपर 276(6/19) योजन चलकर पर्वत के उत्तरी किनारे को प्राप्त होती है, फिर गंगा नदीवत् ही धार बनकर नीचे रोहितास्या कुण्ड में स्थित रोहितास्याकूट पर गिरती है। (ति.प./4/1695); (रा.वा./3/22/3/188/7); (ह.पु./5/153+ 163); (त्रि.सा./598) कुण्ड के उत्तरी द्वार से निकलकर उत्तरमुखी बहती हुई वह हैमवत् क्षेत्र के मध्यस्थित नाभिगिरि तक जाती है। परन्तु उससे दो कोस इधर ही रहकर पश्चिम की ओर उसकी प्रदक्षिणा देती हई पश्चिम दिशा में उसके अर्धभाग के सम्मुख होती है। वहाँ पश्चिम दिशा की ओर मुड़ जाती है और क्षेत्र के अर्ध आयाम प्रमाण क्षेत्र के बीचोंबीच बहती हुई अन्त में पश्चिम लवणसागर में मिल जाती है। (ति. प./4/1713-1716); (रा.वा./3/22/3/188/11); (ह.पु./5/163); (त्रि.सा./598); (देखें लोक - 3.1,8) इसकी परिवार नदियों का प्रमाण 28,000 है। (ति.प./4/1716); (देखें लोक - 3.1-9)।
- महाहिमवान् पर्वत् के ऊपर महापद्म हृद के दक्षिण द्वार से रोहित नदी निकलती है। दक्षिणमुखी होकर 1605 (5/19) यो. पर्वत के ऊपर जाती है। वहाँ से पर्वत के नीचे रोहितकुण्ड में गिरती है और दक्षिणमुखी बहती हुई रोहितास्यावत् ही हैमवतक्षेत्र में, नाभिगिरि से 2 कोस इधर रहकर पूर्व दिशा की ओर उसकी प्रदक्षिणा देती है। फिर वह पूर्व की ओर मुड़कर क्षेत्र के बीच में बहती हुई अन्त में पूर्व लवणसागर में गिर जाती है। (ति. प./4/1735-1737); (रा.वा./3/22/4/188/15) (ह.पु./5/154+163); (ज.प./3/212); (देखें लोक - 3.1-8)। इसकी परिवार नदियाँ 28,000 है। (ति. प./4/1737); (देखें लोक - 3.1-9)।
- महाहिमवान् पर्वत के ऊपर महापद्म हृद के उत्तर द्वार से हरिकान्ता नदी निकलती है। वह उत्तरमुखी होकर पर्वत पर 1605 (5/19) यो. चलकर नीचे हरिकान्ता कुण्ड में गिरती है। वहाँ से उत्तरमुखी बहती हुई हरिक्षेत्र के नाभिगिरि को प्राप्त हो उससे दो कोस इधर ही रहकर उसकी प्रदक्षिणा देती हई पश्चिम की ओर मुड़ जाती है और क्षेत्र के बीचोंबीच बहती हुई पश्चिम लवणसागर में मिल जाती है। (ति.प./4/1747-1749); (रा.वा./3/22/5/188/19); (ह.पु./5/155+163)। (देखें लोक - 3.1-8) इसकी परिवार नदियाँ 56000 हैं। (ति.प./4/1749); (देखें लोक - 3.1-9);।
- निषध पर्वत के तिगिंछद्रह के दक्षिण द्वार से निकलकर हरित नदी दक्षिणमुखी हो 7421(1/19) यो. पर्वत के ऊपर जा, नीचे हरित कुण्ड में गिरती है। वहाँ से दक्षिणमुखी बहती हुई हरिक्षेत्र के नाभिगिरि को प्राप्त हो उससे दो कोस इधर ही रहकर उसकी प्रदक्षिणा देती हुई पूर्व की ओर मुड़ जाती है। और क्षेत्र के बीचोबीच बहती हुई पूर्व लवणसागर में गिरती है। (ति.प./4/1770-1772); (रा.वा./3/22/6/188/27); (ह.पु./5/156+163); (देखें लोक - 3.1,8) इसकी परिवार नदियाँ 56000 हैं। (ति. प./4/1772); (देखें लोक - 3.1,9)।
- निषध पर्वत के तिगिंछह्रद के उत्तर द्वार से सीतोदा नदी निकलती है, जो उत्तरमुखी हो पर्वत के उत्तर 7421(1/19) यो. जाकर नीचे विदेह क्षेत्र में स्थित सीतोदा कुण्ड में गिरती है। वहाँ से उत्तरमुखी बहती हुई वह सुमेरु पर्वत तक पहँचकर उससे दो कोस इधर ही पश्चिम की ओर उसकी प्रदक्षिणा देती हुई, विद्युत्प्रभ गजदन्त की गुफा में से निकलती है। सुमेरु के अर्धभाग के सम्मुख हो वह पश्चिम की ओर मुड़ जाती है। और पश्चिम विदेह के बीचोंबीच बहती हुई अन्त में पश्चिम लवणसागर में मिल जाती है। (ति.प.4/2065-2073); (रा.वा./3/22/7/188/32); (ह.पु./5/157+163); (देखें लोक - 3.1,8)। इसकी सर्व परिवार नदियाँ देवकुरु में 84,000 और पश्चिम विदेह में 4,48,038 (कुल 5,32,038) हैं (विभंगा की परिवार नदियाँ न गिनकर लोक /3/2/3वत् ); (ति.प./4/2071-2072)। लोक/3/1,9 की अपेक्षा 1,12,000 हैं।
- सीता नदी का सर्व कथन सीतोदावत् जानना। विशेषता यह कि नील पर्वत के केसरी द्रह के दक्षिण द्वार से निकलती है। सीता कुण्ड में गिरती है। माल्यवान् गजदन्त की गुफा से निकलती है। पूर्व विदेह में से बहती हुई पूर्व सागर में मिलती है। (ति.प.//4/2116-2121); (रा.वा./3/22/8/189/8); (ह.पु./5/159); (ज.प./6/55-56); (देखें लोक - 3.1,8) इसकी परिवार नदियाँ भी सीतोदावत् जानना। (ति.प./4/2121-2122)।
- नरकान्ता नदी का सम्पूर्ण कथन हरितवत् है। विशेषता यह कि नीलपर्वत के केसरी द्रह के उत्तर द्वार से निकलती है, पश्चिमी रम्यकक्षेत्र के बीच में से बहती है और पश्चिम सागर में मिलती है। (ति.प./4/2337-2339); (रा.वा.3/22/9/189/11); (ह.पु./5/159); (देखें लोक - 3.1-8)।
- नारी नदी का सम्पूर्ण कथन हरिकान्तावत् है। विशेषता यह कि रुक्मिपर्वत के महापुण्डरीक (ति.प. की अपेक्षा पुण्डरीक) द्रह के दक्षिण द्वार से निकलती है और पूर्व रम्यकक्षेत्र में बहती हुई पूर्वसागर में मिलती है। (ति.प./4/2347-2349); (रा.वा./3/22/10/189/14); (ह.पु./5/159); (देखें लोक - 3.18)
- रूप्यकूला नदी का सम्पूर्ण कथन रोहितनदीवत् है। विशेषता यह कि यह रुक्मि पर्वत के महापुरण्डरीक हृद के (ति. प. की अपेक्षा पुण्डरीक के) उत्तर द्वार से निकलती है और पश्चिम हैरण्यवत् क्षेत्र में बहती हुई पश्चिमसागर में मिलती है। (ति.प./4/2352); (रा.वा./3/22/11/189/18); (ह.पु./5/159);(देखें लोक - 3.1.8) .
- सुवर्णकूला नदी का सम्पूर्ण कथन रोहितास्या नदीवत् है। विशेषता यह कि यह शिखरी के पुण्डरीक (ति.प. की अपेक्षा महापुण्डरीक) हृद के दक्षिणद्वार से निकलती है और पूर्वी हैरण्यवत् क्षेत्र में बहती हुई पूर्वसागर में मिल जाती है। (ति.प./4/2362); (रा.वा./3/22/12/189/21); (ह.पु./5/159); (देखें लोक - 3.1.8)।
- 13-14 रक्ता व रक्तोदाका सम्पूर्ण कथन गंगा व सिन्धुवत् है। विशेषता यह कि ये शिखरी पर्वत के महापुण्डरीक (ति.प. की अपेक्षा पुण्डरीक) हृद के पूर्व और पश्चिम द्वार से निकलती हैं। इनके भीतरी कमलाकार कूटों के पर्वत के नीचेवाले कुण्डों व कूटों के नाम रक्ता व रक्तोदा है। ऐरावत क्षेत्र के पूर्व व पश्चिम में बहती है। (ति.प./4/2367); (रा.वा./3/22/13-14/189/25,28); (ह.पु./5/159); (त्रिसा./599); (देखें लोक - 3.18)।
- विदेह के 32 क्षेत्रों में भी गंगा नदी की भाँति गंगा, सिन्धु व रक्ता-रक्तोदा नाम की क्षेत्र नदियाँ (देखें लोक - 3.14)। इनका सम्पूर्ण कथन गंगानदीवत् जानना। (ति. प./4/22-63); (रा.वा./3/10/13/176/27); (ह.पु./5/168); (त्रि.सा./691); (ज.प./7/22)। इन नदियों की भी परिवार नदियाँ 14,000, 14,000 हैं। (ति.प./4/2265); (रा.वा./3/10/13/176/28)।
- पूर्व व पश्चिम विदेह में - से प्रत्येक में सीता व सीतोदा नदी के दोनों तरफ तीन-तीन करके कुल 12 विभंगा नदियाँ हैं। (देखें लोक - 3.14) ये सब नदियाँ निषध या नील पर्वतों से निकलकर सीतोदा या सीता नदियों में प्रवेश करती हैं (ह.पु./5/239-243) ये नदियाँ जिन कुण्डों से निकलती हैं वे नील व निषध पर्वत के ऊपर स्थित हैं। (रा.वा./3/10/13/176/12)। प्रत्येक नदी का परिवार 28,000 नदी प्रमाण है। (ति.प./4/2232); (रा.वा./3/10/132/176/14)।
- देवकुरु व उत्तरकुरु निर्देश
- जम्बूद्वीप के मध्यवर्ती चौथे नम्बरवाले विदेहक्षेत्र के बहमध्य प्रदेश में सुमेरु पर्वत स्थित है। उसके दक्षिण व निषध पर्वत की उत्तर दिशा में देवकुरु तथा उसकी उत्तर व नीलपर्वत की दक्षिण दिशा में उत्तरकुरु स्थित हैं (देखें लोक - 3.3)। सुमेरु पर्वत की चारों दिशाओं में चार गजदन्त पर्वत हैं जो एक ओर तो निषध व नील कुलाचलों को स्पर्श करते हैं और दसरी ओर सुमेरु को - देखें लोक - 3.8। अपनी पूर्व व पश्चिम दिशा में ये दो कुरु इनमें से ही दो-दो गजदन्त पर्वतों से घिरे हुए हैं। (ति.प./4/2131,2191); (ह.पु./5/167); (ज.प./6/2,81)।
- तहाँ देवकुरु में निषधपर्वत से 1000 योजन उत्तर में जाकर सीतोदा नदी के दोनों तटों पर यमक नाम के दो शैल हैं, जिनका मध्य अन्तराल 500 योजन है। अर्थात् नदी के तटों से नदी के अर्ध विस्तार से हीन 225 यो. हटकर स्थित हैं। (ति.प./4/2075-2077); (रा.वा./3/10/13/175/26); (ह.पु./5/192); (त्रि.सा. 654-655); (ज.प./6/87)। इसी प्रकार उत्तर कुरु में नील पर्वत के दक्षिण में 1000 योजन जाकर सीतानदी के दोनों तटों पर दो यमक हैं। (ति.प./4/2132-2124); (रा.वा./3/10/13/174/25); (ह.पु./5/191); (त्रि.सा./654); (ज.प./6/15-18)।
- इन यमकों से 500 योजन उत्तर में जाकर देवकुरु की सीतोदा नदी के मध्य उत्तर दक्षिण लम्बायमान 5 द्रह हैं। (ति.प./4/2089); (रा.वा./3/10/13/175/28); (ह.पु./5/196); (ज.प./6/83)। मतान्तर से कुलाचल से 550 योजन दूरी पर पहला द्रह है। (ह.पु./5/194)। ये द्रह नदियों के प्रवेश व निकास द्वारों से संयुक्त हैं। (त्रि.सा./658)। (तात्पर्य यह है कि यहाँ नदी की चौड़ाई तो कम है और हृदों की चौड़ाई अधिक। सीतोदा नदी के हृदों के दक्षिण द्वारों से प्रवेश करके उन के उत्तरी द्वारों से बाहर निकल जाती है। हृद नदी के दोनों पार्श्व भागों में निकले रहते हैं। ) अन्तिम द्रह से 2092(2/19) योजन उत्तर में जाकर पूर्व व पश्चिम गजदन्तों की वनकी वेदी आ जाती है। (ति. प./4/2100-2101); (त्रि.सा./660)। इसी प्रकार उत्तरकुरु में भी सीता नदी के मध्य 5 द्रह जानना। उनका सम्पूर्ण वर्णन उपर्युक्तवत् है। (ति.प./4/2125);(रा.वा./3/10/13/14/29); (ह.पु./5/194); (ज.प./6/26)। (इस प्रकार दोनों कुरुओं में कुल 10 द्रह हैं। परन्तु मतान्तर से द्रह 20 हैं )। -- मेरु पर्वत की चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में पाँच हैं। उपर्युक्तवत् 500 योजन अन्तराल से सीता व सीतोदा नदी में ही स्थित हैं। (ति.प./4/2136); (त्रि.सा./656)। इनके नाम ऊपर वालों के समान हैं। - (दे./लोक/5)।
- दस द्रह वाली प्रथम मान्यता के अनुसार प्रत्येक द्रह के पूर्व व पश्चिम तटों पर दस-दस करके कुल 200 कांचन शैल हैं। (ति.प./4/2094-2126); (रा.वा./3/10/13/174/2+715/1); (ह.पु./5/200); (ज.प./6/44,144)। पर 20 द्रहों वाली दूसरी मान्यता के अनुसार प्रत्येक द्रह के दोनों पार्श्व भागों में पांच-पाँच करके कुल 200 कांचन शैल हैं। (ति.प./4/2137); (त्रि.सा./659)।
- देवकुरु व उत्तरकुरु के भीतर भद्रशाल वन में सीतोदा व सीता नदी के पूर्व व पश्चिम तटों पर, तथा इन कुरुक्षेत्रों से बाहर भद्रशाल वन में उक्त दोनों नदियों के उत्तर व दक्षिण तटों पर एक-एक करके कुल 8 दिग्गजेन्द्र पर्वत हैं। (ति.प./4/2103, 2112, 2130, 2134), (रा.वा./3/10/13/178/5); (ह.पु./5/205-209); (त्रि. सा./661); (ज.प./4/74)।
- देवकुरु में सुमेरु के दक्षिण भाग में सीतोदा नदी के पश्चिम तट पर तथा उत्तरकुरु में सुमेरु के उत्तर भाग में सीता नदी के पूर्व तट पर, तथा इसी प्रकार दोनों कुरुओं से बाहर मेरु के पश्चिम में सीतोदा के उत्तर तट पर मेरु की पूर्व दिशा में सीता नदी के दक्षिण तट पर एक-एक करके चार त्रिभुवन चूड़ामणि नाम वाले जिन भवन हैं। (ति.प./4/2109-2111+2132-2133)।
- निषध व नील पर्वतों से संलग्न सम्पूर्ण विदेह क्षेत्र के विस्तार समान लम्बी, दक्षिण-उत्तर लम्बायमान भद्रशाल वन की वेदी है। (ति.प./4/2114)।
- देवकुरु में निषध पर्वत के उत्तर में, विद्युत्प्रभ गजदन्त के पूर्व में, सीतोदा के पश्चिम में और सुमेरु के नैर्ऋत्य दिशा में शाल्मली वृक्षस्थल है। (ति. प./4/2146-2147); (रा.वा.3/10/13/175/23); (ह.पु./5/187); (विशेष देखें आगे लोक/3/13) सुमेरु की ईशान दिशा में, नील पर्वत के दक्षिण में, माल्यवंत गजदन्त के पश्चिम में, सीता नदी के पूर्व में जम्बू वृक्षस्थल है। (ति.प./4/2194-2195); (रा.वा./3/10/13/17/7); (ह.पु./5/172); (त्रि.सा./639); (ज.प./6/57)।
- जम्बू व शाल्मली वृक्षस्थल
- देवकुरु व उत्तरकुरु में प्रसिद्ध शाल्मली व जम्बूवृक्ष हैं। (देखें लोक - 3.12)। ये वृक्ष पृथिवीमयी हैं (देखें वृक्ष ) तहाँ शाल्मली या जम्बू वृक्ष का सामान्यस्थल 500 योजन विस्तार युक्त होता है तथा मध्य में 89 योजन और किनारों पर 2 कोस मोटा है। (ति.प./4/2148-2149); (ह.पु./5/174); (त्रि.सा./640)। मतान्तर की अपेक्षा वह मध्य में 12 योजन और किनारों पर 2 कोट मोटा है। (रा.वा./3/7/1/169/18); (ज.प./6/58; 149)।
- यह स्थल चारों ओर से स्वर्णमयी वेदिका से वेष्टित है। इसके बहुमध्य भाग में एक पीठ है, जो आठ योजन ऊँचा है तथा मूल में 12 और ऊपर 4 योजन विस्तृत है। पीठ के मध्य में मूलवृक्ष है, जो कुल आठ योजन ऊँचा है। उसका स्कन्ध दो योजन ऊँचा तथा एक कोस मोटा है। (ति.प./4/2151-2155); (रा.वा./3/7/1/169/19); (ह. पु./5/173‒177): (त्रि. सा./639‒641/648): (ज. प./6/60-64, 154-155)।
- इस वृक्ष की चारों दिशाओं में छह-छह योजन लम्बी तथा इतने ही अन्तराल से स्थित चार महाशाखाएँ हैं। शाल्मली वृक्ष की दक्षिण शाखा पर और जम्बूवृक्ष की उत्तर शाखा पर जिनभवन हैं। शेष तीन शाखाओं पर व्यन्तर देवों के भवन हैं। तहाँ शाल्मली वृक्ष पर वेणु व वेणुधारी तथा जम्बू वृक्ष पर इस द्वीप के रक्षक आदृत व अनादृत नाम के देव रहते हैं। (ति.प./4/2156-2165-2196); (रा.वा./3/10/13/174/7+175/25); (ह.पु./5/177-182+189); (त्रि, सा./6/47-649+652); (ज.प./65-67-86; 156-160)।
- इस स्थल पर एक के पीछे एक करके 12 वेदियाँ हैं, जिनके बीच 12 भूमियाँ हैं। यहाँ पर ह.पु. में वापियों आदि वाली 5 भूमियों को छोड़कर केवल परिवार वृक्षों वाली 7 भूमियाँ बतायी हैं . (ति.प./4/1267); (ह.पु./5/183); (त्रि.सा./641); (ज.प./6/151-152)। इन सात भूमियों में आदृत युगल या वेणुयुगल के परिवार देवों के वृक्ष हैं।
- तहाँ प्रथम भूमि के मध्य में उपरोक्त मूल वृक्ष स्थित हैं। द्वितीय में वन-वापिकाएँ हैं। तृतीय की प्रत्येक दिशा में 27 करके कुल 108 वृक्ष महामान्यों अर्थात् त्रायस्त्रिंशों के हैं। चतुर्थ की चारों दिशाओं में चार द्वार हैं, जिन पर स्थित वृक्षों पर उसकी देवियाँ रहती हैं। पाँचवीं में केवल वापियाँ हैं। छठीं में वनखण्ड हैं। सातवीं की चारों दिशाओं में कुल 16,000 वृक्ष अंगरक्षकों के हैं। अष्टम की वायव्य, ईशान व उत्तर दिशा में कुल 4000 वृक्ष सामानिकों के हैं। नवम की आग्नेय दिशा में कुल 32,000 वृक्ष अभ्यन्तर पारिषदों के हैं। दसवीं की दक्षिण दिशा में 40,000 वृक्ष मध्यम पारिषदों के हैं। ग्यारहवीं की नैर्ऋत्य दिशा में 48,000 वृक्ष बाह्य पारिषदों के हैं। बारहवीं की पश्चिम दिशा में सात वृक्ष अनीक महत्तरों के हैं। सब वृक्ष मिलकर 1,40,120 होते हैं। (ति.प./4/2169-2181); (रा.वा./3/10/13/174/10); (ह.पु./5/183-186); (त्रि.सा./642-646); (ज.प./6/68-74;162-167)।
- स्थल के चारों ओर तीन वन खण्ड हैं। प्रथम की चारों दिशाओं में देवों के निवासभूत चार प्रासाद हैं। विदिशाओं में से प्रत्येक में चार-चार पुष्करिणी हैं प्रत्येक पुष्करिणी की चारों दिशाओं में आठ-आठ कूट हैं। प्रत्येक कूट पर चार-चार प्रासाद हैं। जिन पर उन आदृत आदि देवों के परिवाह देव रहते हैं। (रा.वा./में इसी प्रकार प्रासादों के चारों तरफ भी आठ कूट बताये हैं ) इन कूटों पर उन आदृत युगल या वेणु युगल का परिवार रहता है। (ति.प/4/2184-2190); (रा.वा./3/10/13/174/18)।
- विदेह के 32 क्षेत्र
- पूर्व व पश्चिम की भद्रशाल वन की वेदियों (देखें लोक - 3.12) से आगे जाकर सीता व सीतोदा नदी के दोनों तरफ चार-चार वक्षारगिरि और तीन-तीन विभंगा नदियाँ एक वक्षार व एक विभंगा के क्रम से स्थित हैं। इन वक्षार व विभंगा के कारण उन नदियों के पूर्व व पश्चिम भाग आठ-आठ भागों में विभक्त हो जाते हैं। विदेह के ये 32 खण्ड उसके 32 क्षेत्र कहलाते हैं। (ति.प./4/2200-2209); (रा.वा./3/10/13/175/30+177/5, 15,24); (ह.पु./5/228,243,244); (त्रि.सा./665); (ज.प./का पूरा 8वाँ अधिकार)।
- उत्तरीय पूर्व विदेह का सर्वप्रथम क्षेत्र कच्छा नाम का है। (ति.प./4/2233); (रा.वा./3/10/13/176/14); (ज.प./7/33)। इनके मध्य में पूर्वापर लम्बायमान भरत क्षेत्र के विजयार्धवत् एक विजयार्ध पर्वत है। (ति.प./4/2257); (रा.वा./10/13/176/19)। उसके उत्तर में स्थित नील पर्वत की वनवेदी के दक्षिण पार्श्वभाग में पूर्व व पश्चिम दिशाओं में दो कुण्ड हैं, जिनसे रक्ता व रक्तोदा नाम की दो नदियाँ निकलती हैं। दक्षिणमुखी होकर बहती हई वे विजयार्ध की दोनों गुफाओं में से निकलकर नीचे सीता नदी में जा मिलती हैं। जिसके कारण भरत क्षेत्र की भाँति यह देश भी छह खण्डों में विभक्त हो गया है। (ति.प./4/2262‒2268); (रा.वा./3/10/13/176/23): (ज. प./7/72)। यहाँ भी ऊपर म्लेच्छ खण्ड के मध्य एक वृषभगिरि है, जिस पर दिग्विजय के पश्चात् चक्रवर्ती अपना नाम अंकित करता है। (ति. प./4/2290‒2291): (त्रि. सा./710) इस क्षेत्र के आर्य खण्ड की प्रधान नगरी का नाम क्षेमा है। ( ति. प./4/2268): (रा. वा./3/10/13/176/32)। इस प्रकार प्रत्येक क्षेत्र में दो नदियाँ व एक विजयार्ध के कारण छह-छह खण्ड उत्पन्न हो गये हैं। (ति.प./4/2292); (ह.पु./5/267); (ति.सा./691)। विशेष यह है कि दक्षिण वाले क्षेत्रों में गंगा-सिन्धु नदियाँ बहती हैं (ति.प./4/2295-2296) मतान्तर से उत्तरीय क्षेत्रों में गंगा-सिन्धु व दक्षिणी क्षेत्रों में रक्ता-रक्तोदा नदियाँ हैं। (ति.प./4/2304); (रा.वा./3/10/13/176/28, 31+177/10); (ह.पु./5/267-269); (त्रि.सा./692)।
- पूर्व व अपर दोनों विदेहों में प्रत्येक क्षेत्र के सीता सीतोदा नदी के दोनों किनारों पर आर्यखण्डों में मागध, बरतनु और प्रभास नामवाले तीन-तीन तीर्थस्थान हैं। (ति.प./4/2305-2306); (रा.वा./3/10/13/177/12); (त्रि.सा./678) (ज.प./7/104)।
- पश्चिम विदेह के अन्त में जम्बूद्वीप की जगती के पास सीतोदा नदी के दोनों ओर भूतारण्यक वन है। (ति.प./4/2203,2325); (रा.वा./3/10/13/177/1); (ह.पु./5/281); (त्रि.सा./672)। इसी प्रकार पूर्व विदेह के अन्त में जम्बूद्वीप की जगती के पास सीता नदी के दोनों ओर देवारण्यक वन है। (ति.प./4/2315-2316)। (देखें चित्र नं - 13)।