पुरुष: Difference between revisions
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<p class="HindiText">भरतक्षेत्रस्य दक्षिण आर्य खण्ड का एक देश - | == सिद्धांतकोष से == | ||
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पं.सं./प्रा./ | पं.सं./प्रा./1/106 <span class="PrakritGatha">पुरु गुण भोगे सेदे करेदि लोयम्हि पुरुगुणं कम्मं। पुरु उत्तमो य जम्हा तम्हा सो वण्णिओ पुरिसो। 106।</span> = <span class="HindiText">जो उत्तम गुण और उत्कृष्ट भोग में शयन करता है, लोक में उत्तम गुण और कर्म को करता है, अथवा यतः जो स्वयं उत्तम है, अतः वह पुरुष इस नाम से वर्णित किया गया है। 106। (ध.1/1,1,101/गा.171/341); (गो.जी./मू./273)। </span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,101/341/4 <span class="SanskritText">पुरुगुणेषु पुरुभोगेषु च शेते स्वपितीति पुरुषः। सुषुप्तपुरुषवदनुगतगुणोऽप्राप्तभोगश्च यदुदयाज्जीवो भवति स पुरुषः अङ्गनाभिलाष इति यावत्। पुरुगुणं कर्म शेते करोतीति वा पुरुषः। कथं स्त्र्यभिलाषः पुरुगुणं कर्म कुर्यादिति चेन्न, तथाभूतसामर्थ्यानुविद्ध-जीवसहचरितत्वादुपचारेण, जीवस्य तत्कर्तृत्वाभिधानात्। </span>= <span class="HindiText">जो उत्कृष्ट गुणों में और उत्कृष्ट भोगों में शयन करता है उसे पुरुष कहते हैं अथवा जिस कर्म के उदय से जीव, सोते हुए पुरुष के समान, गुणों से अनुगत होता है और भोगों को प्राप्त नहीं करता है उसे पुरुष कहते हैं। अर्थात् स्त्री सम्बन्धी अभिलाषा जिसके पायी जाती है, उसे पुरुष कहते हैं। अथवा जो श्रेष्ठ कर्म करता है, वह पुरुष है। (ध.6/1,9-1,24/46/9)। <strong>प्रश्न -</strong> जिसके स्त्री-विषयक अभिलाषा पायी जाती है, वह उत्तम कर्म कैसे कर सकता है? <strong>उत्तर -</strong> नहीं, क्योंकि, उत्तम कर्म को करने रूप सामर्थ्य से युक्त जीव के स्त्रीविषयक अभिलाषा पायी जाती है अतः वह उत्तम कर्म को करता है, ऐसा कथन उपचार से किया गया है। <br /> | ||
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पु.सि.उ./ | पु.सि.उ./9 <span class="SanskritText">अस्ति पुरुषश्चिदात्मा विवर्जितः स्पर्शगन्धरसवर्णेः। गुणपर्य्यय-समवेतः समाहितः समुदयव्ययध्रौव्यैः। </span>= <span class="HindiText">पुरुष अर्थात् आत्मा चेतन स्वरूप है। स्पर्श, गन्ध, रस व वर्णादिक से रहित अमूर्तिक है। गुण पर्याय संयुक्त है। उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त है। 9। </span><br /> | ||
गो.जी./जी.प्र./ | गो.जी./जी.प्र./273/595/1 <span class="SanskritText">पुरुगुणे सम्यग्ज्ञानाधिकगुणसमूहे प्रवर्तते, पुरुभोगे नरेन्द्रनागेन्द्रदेवेन्द्राद्यधिकभोगचये, भोक्तृत्वेन प्रवर्तते, पुरुगुणं कर्म धर्मार्थकाममोक्षलक्षणपुरुषार्थसाधनरूपदिव्यानुष्ठानं करोति च। पुरूत्तमे परमेष्ठिपदे तिष्ठति पुरूत्तमः सन् तिष्ठति इत्यर्थः तस्मात् कारणात् स जीवः पुरुष इति।</span> = <span class="HindiText">जो उत्कृष्ट गुण सम्यग्ज्ञानादि का स्वामी होय प्रवर्ते, जो उत्कृष्ट इन्द्रादिक का भोग तीहि विषै भोक्ता होय प्रवर्ते, बहुरि पुरुगुणकर्म जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूप पुरुषार्थ को करै। और जो उत्तम परमेष्ठीपद में तिष्ठे, तातै वह जीव पुरुष है। <br /> | ||
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गो.जी./जी.प्र./ | गो.जी./जी.प्र./271/591/15<span class="SanskritText"> पुंवेदोदयेन स्त्रियां अभिलाषरूपमैथुन-संज्ञाक्रान्तो जीवो भावपुरुषो भवति।</span> = <span class="HindiText">पुरुष वेद के उदयतैं पुरुष का अभिलाष रूप मैथुन संज्ञा का धारक जीव सो भाव पुरुष ही है। <br /> | ||
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स.सि./ | स.सि./2/52/200/6 <span class="SanskritText">पंवेदोदयात् सूते जनयत्यपत्यमिति पुमान्।</span> =<span class="HindiText"> पुंवेद के उदय से जो अपत्य को जानता है वह पुरुष है। (रा.वा./2/52/1/157/4)। </span><br /> | ||
गो.जी./जी.प्र./ | गो.जी./जी.प्र./271/591/18 <span class="SanskritText">पुंवेदोदयेन निर्माणनामकर्मोदययुक्ताङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयवशेन श्मश्रुकूर्च्चशिश्नादि-लिगाङ्कितशरीरविशिष्टो जीवो भवप्रथमसमयादिं कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्तं द्रव्यपुरुषो भवति। </span>= <span class="HindiText">निर्माण नामकर्म का उदय संयुक्त पुरुष वेद रूप आकार का विशेष लिये अंगोपांग नामकर्म का उदय तैं मूँछ दाढी लिंगादिक चिह्न संयुक्त शरीर का धारक जीव सो पर्याय का प्रथम समयतैं लगाय अन्त समय पर्यंत द्रव्य पुरुष हो है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong>पुरुष वेद कर्म का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong>पुरुष वेद कर्म का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./8/9/386/2 <span class="SanskritText">यस्योदयात्पौंस्नान्भावानास्कन्दति स पुंवेदः। </span>=<span class="HindiText"> जिसके उदय से पुरुष सम्बन्धी भावों को प्राप्त होता है वह पंवेद है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong>जीव को पुरुष कहने की विवक्षा। - | <li><span class="HindiText"><strong>जीव को पुरुष कहने की विवक्षा। - देखें [[ जीव#1.3 | जीव - 1.3]]।</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong>ऊर्ध्वमूल अधःशाखा रूप पुरुष का स्वरूप। - देखें | <li><span class="HindiText"><strong>ऊर्ध्वमूल अधःशाखा रूप पुरुष का स्वरूप। -देखें [[ मनुष्य#2 | मनुष्य - 2]]।</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong>पुरुषवेद के बन्ध योग्य परिणाम। - | <li><span class="HindiText"><strong>पुरुषवेद के बन्ध योग्य परिणाम। - देखें [[ मोहनीय#3.6 | मोहनीय - 3.6]]।</strong></span></li> | ||
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== पुराणकोष से == | |||
<p id="1">(1) अच्छे भोगों में प्रवृत्त जीव । इसी को पुमान् भी कहते हैँ क्योंकि जीव इसी भव में अपनी आत्मा को कर्म मुक्त करना है । <span class="GRef"> महापुराण 24.106 </span></p> | |||
<p id="2">(2) भरतक्षेत्र की दक्षिण दिशा में स्थित एक देश । यह देश भरतेश के छोटे भाई के पास था । जब वह दीक्षित हो गया तो यह भरतेश के साम्राज्य का अंग हो गया । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 11.69-71 </span></p> | |||
<p id="3">(3) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 25.192 </span></p> | |||
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Revision as of 21:43, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
भरतक्षेत्रस्य दक्षिण आर्य खण्ड का एक देश - देखें मनुष्य - 4।
- उत्तम कर्म की सामर्थ्य युक्त
पं.सं./प्रा./1/106 पुरु गुण भोगे सेदे करेदि लोयम्हि पुरुगुणं कम्मं। पुरु उत्तमो य जम्हा तम्हा सो वण्णिओ पुरिसो। 106। = जो उत्तम गुण और उत्कृष्ट भोग में शयन करता है, लोक में उत्तम गुण और कर्म को करता है, अथवा यतः जो स्वयं उत्तम है, अतः वह पुरुष इस नाम से वर्णित किया गया है। 106। (ध.1/1,1,101/गा.171/341); (गो.जी./मू./273)।
ध.1/1,1,101/341/4 पुरुगुणेषु पुरुभोगेषु च शेते स्वपितीति पुरुषः। सुषुप्तपुरुषवदनुगतगुणोऽप्राप्तभोगश्च यदुदयाज्जीवो भवति स पुरुषः अङ्गनाभिलाष इति यावत्। पुरुगुणं कर्म शेते करोतीति वा पुरुषः। कथं स्त्र्यभिलाषः पुरुगुणं कर्म कुर्यादिति चेन्न, तथाभूतसामर्थ्यानुविद्ध-जीवसहचरितत्वादुपचारेण, जीवस्य तत्कर्तृत्वाभिधानात्। = जो उत्कृष्ट गुणों में और उत्कृष्ट भोगों में शयन करता है उसे पुरुष कहते हैं अथवा जिस कर्म के उदय से जीव, सोते हुए पुरुष के समान, गुणों से अनुगत होता है और भोगों को प्राप्त नहीं करता है उसे पुरुष कहते हैं। अर्थात् स्त्री सम्बन्धी अभिलाषा जिसके पायी जाती है, उसे पुरुष कहते हैं। अथवा जो श्रेष्ठ कर्म करता है, वह पुरुष है। (ध.6/1,9-1,24/46/9)। प्रश्न - जिसके स्त्री-विषयक अभिलाषा पायी जाती है, वह उत्तम कर्म कैसे कर सकता है? उत्तर - नहीं, क्योंकि, उत्तम कर्म को करने रूप सामर्थ्य से युक्त जीव के स्त्रीविषयक अभिलाषा पायी जाती है अतः वह उत्तम कर्म को करता है, ऐसा कथन उपचार से किया गया है।
- चेतन आत्मा
पु.सि.उ./9 अस्ति पुरुषश्चिदात्मा विवर्जितः स्पर्शगन्धरसवर्णेः। गुणपर्य्यय-समवेतः समाहितः समुदयव्ययध्रौव्यैः। = पुरुष अर्थात् आत्मा चेतन स्वरूप है। स्पर्श, गन्ध, रस व वर्णादिक से रहित अमूर्तिक है। गुण पर्याय संयुक्त है। उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त है। 9।
गो.जी./जी.प्र./273/595/1 पुरुगुणे सम्यग्ज्ञानाधिकगुणसमूहे प्रवर्तते, पुरुभोगे नरेन्द्रनागेन्द्रदेवेन्द्राद्यधिकभोगचये, भोक्तृत्वेन प्रवर्तते, पुरुगुणं कर्म धर्मार्थकाममोक्षलक्षणपुरुषार्थसाधनरूपदिव्यानुष्ठानं करोति च। पुरूत्तमे परमेष्ठिपदे तिष्ठति पुरूत्तमः सन् तिष्ठति इत्यर्थः तस्मात् कारणात् स जीवः पुरुष इति। = जो उत्कृष्ट गुण सम्यग्ज्ञानादि का स्वामी होय प्रवर्ते, जो उत्कृष्ट इन्द्रादिक का भोग तीहि विषै भोक्ता होय प्रवर्ते, बहुरि पुरुगुणकर्म जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूप पुरुषार्थ को करै। और जो उत्तम परमेष्ठीपद में तिष्ठे, तातै वह जीव पुरुष है।
- चेतन आत्मा
- भाव पुरुष का लक्षण
गो.जी./जी.प्र./271/591/15 पुंवेदोदयेन स्त्रियां अभिलाषरूपमैथुन-संज्ञाक्रान्तो जीवो भावपुरुषो भवति। = पुरुष वेद के उदयतैं पुरुष का अभिलाष रूप मैथुन संज्ञा का धारक जीव सो भाव पुरुष ही है।
- द्रव्य पुरुष का लक्षण
स.सि./2/52/200/6 पंवेदोदयात् सूते जनयत्यपत्यमिति पुमान्। = पुंवेद के उदय से जो अपत्य को जानता है वह पुरुष है। (रा.वा./2/52/1/157/4)।
गो.जी./जी.प्र./271/591/18 पुंवेदोदयेन निर्माणनामकर्मोदययुक्ताङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयवशेन श्मश्रुकूर्च्चशिश्नादि-लिगाङ्कितशरीरविशिष्टो जीवो भवप्रथमसमयादिं कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्तं द्रव्यपुरुषो भवति। = निर्माण नामकर्म का उदय संयुक्त पुरुष वेद रूप आकार का विशेष लिये अंगोपांग नामकर्म का उदय तैं मूँछ दाढी लिंगादिक चिह्न संयुक्त शरीर का धारक जीव सो पर्याय का प्रथम समयतैं लगाय अन्त समय पर्यंत द्रव्य पुरुष हो है।
- पुरुष वेद कर्म का लक्षण
स.सि./8/9/386/2 यस्योदयात्पौंस्नान्भावानास्कन्दति स पुंवेदः। = जिसके उदय से पुरुष सम्बन्धी भावों को प्राप्त होता है वह पंवेद है।
- अन्य सम्बन्धी विषय
- पुरुष वेद सम्बन्धी विषय। - देखें वेद ।
- जीव को पुरुष कहने की विवक्षा। - देखें जीव - 1.3।
- आदि पुरुष। - देखें ऋषभ ।
- ऊर्ध्वमूल अधःशाखा रूप पुरुष का स्वरूप। -देखें मनुष्य - 2।
- पुरुषवेद के बन्ध योग्य परिणाम। - देखें मोहनीय - 3.6।
पुराणकोष से
(1) अच्छे भोगों में प्रवृत्त जीव । इसी को पुमान् भी कहते हैँ क्योंकि जीव इसी भव में अपनी आत्मा को कर्म मुक्त करना है । महापुराण 24.106
(2) भरतक्षेत्र की दक्षिण दिशा में स्थित एक देश । यह देश भरतेश के छोटे भाई के पास था । जब वह दीक्षित हो गया तो यह भरतेश के साम्राज्य का अंग हो गया । हरिवंशपुराण 11.69-71
(3) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25.192