मनोयोग: Difference between revisions
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<ol> | == सिद्धांतकोष से == | ||
<li><span class="HindiText" name="1" id="1"><strong>मनोयोग</strong></span><br>स.सि./ | <ol> | ||
ध. | <li><span class="HindiText" name="1" id="1"><strong>मनोयोग</strong></span><br>स.सि./6/1/318/11 <span class="SanskritText">अभ्यन्तरवीर्यान्तरायनोइन्द्रियावरणक्षयोपशमात्मकमनोलब्धिसंनिधाने बाह्यनिमित्तमनोवर्गणालम्बने च सति मन:परिणामाभिमुखस्यात्मप्रदेशपरिस्पन्दो मनोयोग:।</span> = <span class="HindiText">वीर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण के क्षयोपशमरूप आन्तरिक मनोलब्धि के होने पर तथा बाहरी निमित्तभूत मनोवर्गणाओं का आलम्बन मिलने पर मनरूप पर्याय के सम्मुख हुए आत्मा के होने वाला प्रदेशपरिस्पन्द मनोयोग कहलाता है। (रा.वा./6/1/10/505/15)। </span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,50/282/9 <span class="HindiText">मनस: समुत्पत्तये प्रयत्नो मनोयोग:।</span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,65/308/3 <span class="SanskritText">चतुर्णां मनसां सामान्यं मन:, तज्जनितवीर्येण परिस्पन्दलक्षणेन योगो मनोयोग:।</span> =<span class="HindiText"> मनकी उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है उसे मनोयोग कहते हैं। (ध.1/1,1,47/279/2)।–सत्य आदि चार प्रकार के मन में जो अन्वयरूप से रहता है उसे सामान्य मन कहते हैं। उस मन से उत्पन्न हुए परिस्पन्द लक्षण वीर्य के द्वारा जो योग होता है उसे मनोयोग कहते हैं। (विशेष देखो आगे शीर्षक नं.5)।</span><br /> | ||
ध. | ध.7/2,1,33/76/6 <span class="PrakritText">मणवग्गणादो णिप्पण्णदव्वमणमवलंबिय जो जीवस्स संकोचविकोचो सो मणजोगो।</span> = <span class="HindiText">मनोवर्गणा से निष्पन्न हुए द्रव्यमन के अवलम्बन से जो जीव का संकोच-विकोच होता है वह मनोयोग है।</span><br /> | ||
ध.10/4,2,4,175/437/10 <span class="PrakritText">बज्झत्थचिंतावावदमणादो समुप्पण्ण जीवपदेसपरिप्फंदो मणोजोगो णाम।</span> =<span class="HindiText">बाह्य पदार्थ के चिन्तन में प्रवृत्त हुए मन से उत्पन्न जीव-प्रदेशों के परिस्पन्द को मनोयोग कहते हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong> मनोयोग के भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong> मनोयोग के भेद</strong> </span><br /> | ||
ष.खं. | ष.खं.1/1,1/सूत्र 49/280 <span class="PrakritText">मणजोगो चउव्विहो सच्चमणजोगो मोसमणजोगो सच्चमोसमणजोगो असच्चमोसमणजोगो चेदि।49।</span> = <span class="HindiText">मनोयोग चार प्रकार का है–सत्यमनोयोग, मृषामनोयोग, सत्यमृषामनोयोग और असत्यमृषा (अनुभय) मनोयोग।49। (रा.वा./1/7/14/39/21); (ध. 8/3,6/21/6); (गो.जी./मू./217/475); (द्र.सं./टी./13/37/7)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong> इन चार के अतिरिक्त सामान्य मनोयोग | <li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong> इन चार के अतिरिक्त सामान्य मनोयोग क्या ?</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,50/282/8<span class="SanskritText"> मनोयोग इति पञ्चमो मनोयोग: क्व लब्धश्चेन्नैष दोष:, चतसृणां मनोव्यक्तीनां सामान्यस्य पञ्चमत्वोपपत्ते:। किं तत्सामान्यमिति चेन्मनस: सादृश्यम्।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–चार मनोयोगों के अतिरिक्त (मार्गणा प्रकरण में) ‘मनोयोग’ इस नाम का पाँचवाँ मनोयोग कहाँ से आया। <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, भेदरूप चार प्रकार के मनोयोगों में रहने वाले सामान्य योग के पाँचवीं संख्या बन जाती है। <strong>प्रश्न</strong>–वह सामान्य क्या है ? <strong>उत्तर</strong>–यहाँ पर सामान्य से मन की सदृशता का ग्रहण करना चाहिए।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> मनोयोग के भेदों के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> मनोयोग के भेदों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
पं.सं./प्रा./ | पं.सं./प्रा./1/89-90<span class="PrakritGatha"> सब्भावो सच्चमणो जो जोगो सो दु सच्चमणजोगो। तव्विवरीओ मोसो जाणुभयं सच्चमोस त्ति।89। ण य सच्चमोसजुत्तो जो हु मणो सो असच्चमोसमणो। जो जोगो तेण हवे असच्चमोसो दु मणजोगो।90।</span> =<span class="HindiText"> सद्भाव अर्थात् समीचीन पदार्थ के विषय करने वाले मन को सत्यमन कहते हैं; और उसके द्वारा जो योग होता है उसे सत्यमनोयोग कहते हैं। इससे विपरीत योग को मृषा मनोयोग कहते हैं। सत्य और मृषा योग को सत्यमृषा मनोयोग कहते हैं।89। जो मन न तो सत्य हो और न मृषा हो उसे असत्यमृषामन कहते हैं और उसके द्वारा जो योग होता है उसे असत्यमृषामनोयोग कहते हैं।90। (ध.1/1,1/49/गा.156-157/281,282); (गो.जी./मू./218-219/477)।</span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,149/281/4 <span class="SanskritText">समनस्केषु मन:पूर्विका वचस: प्रवृत्ति: अन्यथानुपलम्भात्। तत्र सत्यवचननिबन्धनमसा योग: सत्यमनोयोग:। तथा मोषवचननिबन्धनमनसा योगो मोषमनोयोग:। उभयात्मकवचननिबन्धनमनसा योग: सत्यमोषमनोयोग:। त्रिविधवचनव्यतिरिक्तामन्त्रणादि वचननिबन्धनमनसा योगोऽसत्यमोषमनोयोग:। नायमर्थो मुख्य: सकलमनसामव्यापकत्वात्। क: पुनर्निरवद्योऽर्थश्चेद्यथावस्तु प्रवृत्तं मन: सत्यमन:। विपरीतमसत्यमन:। द्वयात्मकमुभययमन:। संशयानध्यवसायज्ञाननिबन्धनमसत्यमोषमन इति। अथवा तद्वचनजननयोग्यतामपेक्ष्य चिरन्तनोऽप्यर्थ: समीचीन एव। </span>= | ||
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<li> <span class="HindiText">समनस्क जीवों में वचनप्रवृत्ति मनपूर्वक देखी जाती है, क्योंकि, मन के बिना उनमें वचनप्रवृत्ति नहीं पायी जाती। इसलिए उन चारों में से सत्यवचननिमित्तक मन के निमित्त से होने वाले योग को सत्यमनोयोग कहते हैं। असत्य वचन निमित्तक मन से होने वाले योग को असत्यमनोयोग कहते हैं। सत्य और मृषा इन दोनों रूप वचन निमित्तक मन से होने वाले योग को उभयमनोयोग कहते हैं। उक्त तीनों प्रकार के वचनों से भिन्न आमन्त्रण आदि अनुभयरूप वचननिमित्तक मन से होने वाले योग को अनुभय मनोयोग कहते हैं। फिर भी उक्त प्रकार का कथन मुख्यार्थ नहीं है, क्योंकि, इसकी सम्पूर्ण मन के साथ व्याप्ति नहीं पायी जाती। | <li> <span class="HindiText">समनस्क जीवों में वचनप्रवृत्ति मनपूर्वक देखी जाती है, क्योंकि, मन के बिना उनमें वचनप्रवृत्ति नहीं पायी जाती। इसलिए उन चारों में से सत्यवचननिमित्तक मन के निमित्त से होने वाले योग को सत्यमनोयोग कहते हैं। असत्य वचन निमित्तक मन से होने वाले योग को असत्यमनोयोग कहते हैं। सत्य और मृषा इन दोनों रूप वचन निमित्तक मन से होने वाले योग को उभयमनोयोग कहते हैं। उक्त तीनों प्रकार के वचनों से भिन्न आमन्त्रण आदि अनुभयरूप वचननिमित्तक मन से होने वाले योग को अनुभय मनोयोग कहते हैं। फिर भी उक्त प्रकार का कथन मुख्यार्थ नहीं है, क्योंकि, इसकी सम्पूर्ण मन के साथ व्याप्ति नहीं पायी जाती। अर्थात् यह कथन उपचरित है, क्योंकि, वचन की सत्यादिकता से मन में सत्य आदि का उपचार किया गया है। <strong>प्रश्न</strong>–तो फिर यहाँ पर निर्दोष अर्थ कौन-सा लेना चाहिए। <strong>उत्तर</strong></span></li> | ||
<li class="HindiText"> जहाँ जिस प्रकार की वस्तु विद्यमान हो वहाँ उसी प्रकार से प्रवृत्ति करने वाले मन को सत्यमन कहते हैं। उससे विपरीत मन को असत्यमन कहते हैं। सत्य और असत्य इन दोनों रूप मन को उभयमन कहते हैं। तथा जो संशय और अनध्यवसायरूप ज्ञान का कारण है, उसे अनुभयमन कहते हैं। </li> | <li class="HindiText"> जहाँ जिस प्रकार की वस्तु विद्यमान हो वहाँ उसी प्रकार से प्रवृत्ति करने वाले मन को सत्यमन कहते हैं। उससे विपरीत मन को असत्यमन कहते हैं। सत्य और असत्य इन दोनों रूप मन को उभयमन कहते हैं। तथा जो संशय और अनध्यवसायरूप ज्ञान का कारण है, उसे अनुभयमन कहते हैं। </li> | ||
<li><span class="HindiText"> अथवा मन में सत्य-असत्य आदि वचनों को उत्पन्न करने रूप योग्यता है, उसकी अपेक्षा से सत्य वचनादि निमित्त से होने के कारण जिसे पहले उपचार कह आये हैं; वह कथन मुख्य भी है।</span><br /> | <li><span class="HindiText"> अथवा मन में सत्य-असत्य आदि वचनों को उत्पन्न करने रूप योग्यता है, उसकी अपेक्षा से सत्य वचनादि निमित्त से होने के कारण जिसे पहले उपचार कह आये हैं; वह कथन मुख्य भी है।</span><br /> | ||
गो.जी./जी.प्र./ | गो.जी./जी.प्र./217-219/475/4<span class="SanskritText"> सत्यासत्योभयानुभयार्थेषुया: प्रवृत्तय: मनोवचनयो: तदा ज्ञानवाक्प्रयोगजनने जीवप्रयत्नरूपप्रवृत्तीनां सत्यादि तन्नाम भवति सत्यमन इत्यादि। ... सम्यग्ज्ञानविषयोऽर्थ: सत्यं यथा जलज्ञानविषयो जलं स्नानपानाद्यर्थक्रियासद्भावात्। मिथ्याज्ञानविषयोऽर्थ:, असत्य: यथा जलज्ञानविषयो मरीचिका जले जलं, स्नानपानाद्यर्थक्रियाविरहात्। सत्यासत्यज्ञानविषयोऽर्थ:, उभय: सत्यासत्य इत्यर्थ: यथा जलज्ञानविषय: कमण्डलुनि घट:। अत्र जलधारणार्थक्रियाया: सद्भावात् सत्यताया: घटाकारविकलत्वादसत्यतायाश्च प्रतीतेः। अयं गौणार्थ: अग्निर्माणवक इत्यादिवत्। अनुभयज्ञानविषयोऽर्थ: अनुभय: सत्यासत्यार्थद्वयेनावक्तव्यः यथा किंचित्प्रतिभासते। सामान्येन प्रतिभासमानोऽर्थ: स्वार्थक्रियाकारिविशेषनिर्णयाभावात् सत्य इति वक्तुं न शक्यते। सामान्य इति प्रतिभासात् असत्य इत्यपि वक्तुं न शक्यते। सामान्य इति प्रतिभासात् असत्य इत्यपि वक्तुं न शक्यते। सामान्य इति प्रतिभासात् असत्य इत्यपि वक्तुं न शक्यते, इति जात्यन्तरम् अनुभयार्थ: स्फुटं चतुर्थो भवति। एवं घटे घटविकल्प: सत्य:, घटे पटविकल्पोऽसत्य:, कुण्डिकायां जलधारणे घटविकल्प: उभय:, आमन्त्रणादिषु अहो देवदत्त इति विकल्प: अनुभय:। कालेनैव, गृहीता सा कन्या किं मृत्युना अथवा धर्मणा इत्यनुभय:।217। सत्यमन:, सत्यार्थज्ञानजननशक्तिरूपं भावमन इत्यर्थ:। तेन सत्यमनसा जनितो योग:–प्रयत्नविशेष: स सत्यमनोयोग:, तद्विपरीत: असत्यार्थविषयज्ञानजनितशक्तिरूपभावमनसा जनितप्रयत्नविशेष: मृषा असत्यमनोयोग:। उभय–सत्यमृषार्थज्ञानजननशक्तिरूपभावमनोजनितप्रयत्नविशेष: उभयमनोयोग:।218। असत्यमषामन:, अनुभयार्थज्ञानजननशक्तिरूपं भावमन इत्यर्थ:। तेन भावमनसा जनितो यो योग: प्रयत्नविशेष: स तु पुन: असत्यमृषामनोयोगो भवेत् अनुभयमनोयोग इत्यर्थ:। इति चत्वारो मनोयोगा: कथिता:।</span> = <span class="HindiText">सत्य असत्य उभय और अनुभय इन चार प्रकार के अर्थों को जानने या कहने में जीव के मन व वचन की प्रयत्नरूप जो प्रवृत्ति विशेष होती है, उसी को सत्यादि मन व वचन योग कहते हैं। तहाँ–यथार्थ ज्ञानगोचर पदार्थ सत्य है, जैसे जलज्ञान का विषयभूत जल, क्योंकि, उसमें स्नान, पान आदि अर्थक्रिया का सद्भाव है। अयथार्थ ज्ञानगोचर पदार्थ असत्य है, जैसे जलज्ञान का विषयभूत मरीचिका का जल, क्योंकि, उसमें स्नान, पान आदि अर्थक्रिया का अभाव है। यथार्थ और अयथार्थ दोनों ज्ञानगोचर अर्थ उभय अर्थात् सत्यासत्य हैं, जैसे जलज्ञान के विषयभूत कमण्डलु में घट का ग्रहण, क्योंकि, जलधारण आदिरूप क्रिया के सद्भाव से यह घट की नाई सत्य है, परन्तु घटाकार के अभाव से असत्य है। प्रतिभाशाली देखकर बालक को अग्नि कहने की भाँति यह कथन गौण है। यथार्थ अयथार्थ दोनों ही प्रकार के निर्णय से रहित ज्ञानगोचर पदार्थ अनुभय है, जैसे ‘यह कुछ प्रतिभासित होता है।’ इस प्रकार के सामान्यरूपेण प्रतिभासित पदार्थ में स्वार्थक्रियाकारी विशेष के निर्णय का अभाव होने से उसे सत्य नहीं कह सकते और न ही उसे असत्य कह सकते हैं, इसलिए वह जात्यन्तरभूत अनुभव अर्थ है।–इसी प्रकार घट में घट का विकल्प सत्य है, घट में पट का विकल्प असत्य है, कुण्डी में जलधारण देखकर घट का विकल्प उभय है, और ‘अहो देवदत्त!’ इस प्रकार की आमत्रणी आदि भाषा (देखें [[ भाषा ]]) में उत्पन्न होने वाला विकल्प अनुभय है। अथवा ‘वह कन्या काल के द्वारा ग्रहण की गयी है’ ऐसा विकल्प अनुभय है, क्योंकि, काल का अर्थ मृत्यु व मासिक धर्म दोनों हो सकते हैं।217। सत्यमन अर्थात् सत्यार्थज्ञान को उत्पन्न करने की शक्तिरूप भावमन। ऐसे सत्यमन से जनित योग या प्रयत्नविशेष सत्यमनोयोग है। उससे विपरीत असत्यार्थविषयक ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्तिरूप भावमन से जनित प्रयत्नविशेष असत्यमनोयोग है। उभयार्थ विषयक ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्तिरूप भावमन से जनित प्रयत्नविशेष उभयमनोयोग है। और अनुभयार्थ विषयक ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्तिरूप भावमन से जनित प्रयत्नविशेष अनुभयमनोयोग है। इस प्रकार चार मनोयोग कहे गये।</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong> शुभ-अशुभ मनोयोग</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong> शुभ-अशुभ मनोयोग</strong> </span><br /> | ||
बा.अ./गा. <span class="PrakritText">आहारादो सण्णा असुहमणं इदि | बा.अ./गा. <span class="PrakritText">आहारादो सण्णा असुहमणं इदि विजाणेहि।50। किण्हादितिण्णि लेस्सा करणजसोक्खेसु गिद्दिपरिणामो। ईसाविसादभावो असुहमणंत्ति य जिणा वेंति।51। रागो दोसो मोहो हस्सादी-णोकसायपरिणामो। थूलो वा सुहुमो वा असुहमणोत्ति य जिणा वेंति।52। मोत्तूण असुहभावं पुव्वुत्तं णिरवसेसदो दव्वं। वदसमिदिसीलसंजमपरिणामं सुहमणं जाणे।54।</span> = <span class="HindiText">आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, कृष्ण-नील व कापोत लेश्याएँ, इन्द्रिय सुखों में लोलुपता, ईर्षा, विषाद, राग, द्वेष, मोह, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, त्रीवेद, पुरुषवेद, और नपुंसकवेद रूप परिणाम अशुभ मन हैं।50-52। इन अशुभ भावों व सम्पूर्ण परिग्रह को छोड़कर व्रत, समिति, शील और संयमरूप परिणाम होते हैं, उन्हें शुभ मन जानना चाहिए।<br /> | ||
देखें [[ उपयोग#II.4.1 | उपयोग - II.4.1]],2 (जीवदया आदि शुभोपयोग हैं और विषयकषाय आदि में प्रवृत्ति अशुभोपयोग हैं।)<br /> | |||
देखें | देखें [[ प्रणिधान ]]–(इन्द्रिय-विषयों में परिणाम तथा क्रोधादि कषाय अशुभ प्रणिधान हैं और व्रत समिति गुप्तिरूप परिणाम शुभ प्रणिधान हैं)। </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./6/3/1,2/पृष्ठ/पंक्ति <span class="SanskritText">वधचिन्तनेर्ष्यासूयादिरशुभो मनोयोग:। (506/33)। अर्हदादिभक्तितपोरुचिश्रुतविनयादि: शुभोमनोयोग:। (507/3)।</span> = <span class="HindiText">हिंसक विचार, ईर्षा, असूया आदि अशुभ मनयोग हैं और अर्हन्तभक्ति, तप की रुचि, श्रुत, विनयादि विचार शुभ मनोयोग हैं। (स.सि./6/3/619/11)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="6" id="6"><strong> मनोज्ञान व मनोयोग में अन्तर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="6" id="6"><strong> मनोज्ञान व मनोयोग में अन्तर</strong> </span><br /> | ||
ध./ | ध./1/1,1,50/283/1<span class="SanskritText"> पूर्वप्रयोगात् प्रयत्नमन्तरेणापि मनस: प्रवृत्तिर्दृश्यते इति चेद्भवतु, न तेन मनसा योगोऽत्र मनोयोग इति विवक्षित:, तन्निमित्तप्रयत्नसंबन्धस्य परिस्पन्दरूपस्य विवक्षितत्वाद्।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–पूर्व प्रयोग से प्रयत्न के बिना भी मनकी प्रवृत्ति देखी जाती है ? <strong>उत्तर</strong>–यदि ऐसा है तो होने दो, क्योंकि, ऐसे मन से होने वाले योग को मनोयोग कहते हैं, यह अर्थ यहाँ विवक्षित नहीं है, किन्तु मन के निमित्त से जो परिस्पन्दरूप प्रयत्नविशेष होता है, वह यहाँ पर योगरूप से विवक्षित है।</span><br /> | ||
गो.जी./जी.प्र./ | गो.जी./जी.प्र./703/1137/20<span class="SanskritText"> लब्ध्युपयोगलक्षणं भावमन: तद्वयापारो मनोयोग:।</span> = <span class="HindiText">लब्धि व उपयोग लक्षणवाला तो भावमन है और उसका व्यापार विशेष मनोयोग है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="7" id="7"><strong> मरण या व्याघात के साथ ही मन व वचन योग भी समाप्त हो जाते हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="7" id="7"><strong> मरण या व्याघात के साथ ही मन व वचन योग भी समाप्त हो जाते हैं</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,5,175/416/9 <span class="PrakritText">मुदे वाघादिदे वि कायजोगं मोत्तूण अण्णजोगाभावो।</span> = <span class="HindiText">मरण अथवा व्याघात होने पर भी काययोग को छोड़कर अन्य योग का अभाव है।</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"> मनोयोग सम्बन्धी विषय।–देखें | <li><span class="HindiText"> मनोयोग सम्बन्धी विषय।–देखें [[ योग ]]।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> केवली में मनोयोग | <li><span class="HindiText"> केवली में मनोयोग विषयक।–देखें [[ केवली#5 | केवली - 5]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> मनोयोग में गुणस्थान, जीवसमास मार्गणास्थान आदि | <li><span class="HindiText"> मनोयोग में गुणस्थान, जीवसमास मार्गणास्थान आदि 20 प्ररूपणाएँ।–देखें [[ सत् ]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> मनोयोग की | <li><span class="HindiText"> मनोयोग की सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ।–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> मनोयोगियों में कर्मों का बन्ध, उदय, | <li><span class="HindiText"> मनोयोगियों में कर्मों का बन्ध, उदय, सत्त्व।–देखें [[ वह वह नाम ]]।</span></li> | ||
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== पुराणकोष से == | |||
<p> मन के निमित्त से आत्म-प्रदेशों में उत्पन्न क्रिया-परिस्पन्दन । यह चार प्रकार का होता है― सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, सत्य-मृषा-उभय मनोयोग और अनुभय मनोयोग । <span class="GRef"> महापुराण 62.309-310 </span>मनोयोग-दुष्प्रणिधान― सामायिक शिक्षाव्रत का एक अतिचार-मन को अन्यथा चलायमान करना । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 58.180 </span></p> | |||
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Revision as of 21:45, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- मनोयोग
स.सि./6/1/318/11 अभ्यन्तरवीर्यान्तरायनोइन्द्रियावरणक्षयोपशमात्मकमनोलब्धिसंनिधाने बाह्यनिमित्तमनोवर्गणालम्बने च सति मन:परिणामाभिमुखस्यात्मप्रदेशपरिस्पन्दो मनोयोग:। = वीर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण के क्षयोपशमरूप आन्तरिक मनोलब्धि के होने पर तथा बाहरी निमित्तभूत मनोवर्गणाओं का आलम्बन मिलने पर मनरूप पर्याय के सम्मुख हुए आत्मा के होने वाला प्रदेशपरिस्पन्द मनोयोग कहलाता है। (रा.वा./6/1/10/505/15)।
ध.1/1,1,50/282/9 मनस: समुत्पत्तये प्रयत्नो मनोयोग:।
ध.1/1,1,65/308/3 चतुर्णां मनसां सामान्यं मन:, तज्जनितवीर्येण परिस्पन्दलक्षणेन योगो मनोयोग:। = मनकी उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है उसे मनोयोग कहते हैं। (ध.1/1,1,47/279/2)।–सत्य आदि चार प्रकार के मन में जो अन्वयरूप से रहता है उसे सामान्य मन कहते हैं। उस मन से उत्पन्न हुए परिस्पन्द लक्षण वीर्य के द्वारा जो योग होता है उसे मनोयोग कहते हैं। (विशेष देखो आगे शीर्षक नं.5)।
ध.7/2,1,33/76/6 मणवग्गणादो णिप्पण्णदव्वमणमवलंबिय जो जीवस्स संकोचविकोचो सो मणजोगो। = मनोवर्गणा से निष्पन्न हुए द्रव्यमन के अवलम्बन से जो जीव का संकोच-विकोच होता है वह मनोयोग है।
ध.10/4,2,4,175/437/10 बज्झत्थचिंतावावदमणादो समुप्पण्ण जीवपदेसपरिप्फंदो मणोजोगो णाम। =बाह्य पदार्थ के चिन्तन में प्रवृत्त हुए मन से उत्पन्न जीव-प्रदेशों के परिस्पन्द को मनोयोग कहते हैं।
- मनोयोग के भेद
ष.खं.1/1,1/सूत्र 49/280 मणजोगो चउव्विहो सच्चमणजोगो मोसमणजोगो सच्चमोसमणजोगो असच्चमोसमणजोगो चेदि।49। = मनोयोग चार प्रकार का है–सत्यमनोयोग, मृषामनोयोग, सत्यमृषामनोयोग और असत्यमृषा (अनुभय) मनोयोग।49। (रा.वा./1/7/14/39/21); (ध. 8/3,6/21/6); (गो.जी./मू./217/475); (द्र.सं./टी./13/37/7)। - इन चार के अतिरिक्त सामान्य मनोयोग क्या ?
ध.1/1,1,50/282/8 मनोयोग इति पञ्चमो मनोयोग: क्व लब्धश्चेन्नैष दोष:, चतसृणां मनोव्यक्तीनां सामान्यस्य पञ्चमत्वोपपत्ते:। किं तत्सामान्यमिति चेन्मनस: सादृश्यम्। = प्रश्न–चार मनोयोगों के अतिरिक्त (मार्गणा प्रकरण में) ‘मनोयोग’ इस नाम का पाँचवाँ मनोयोग कहाँ से आया। उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, भेदरूप चार प्रकार के मनोयोगों में रहने वाले सामान्य योग के पाँचवीं संख्या बन जाती है। प्रश्न–वह सामान्य क्या है ? उत्तर–यहाँ पर सामान्य से मन की सदृशता का ग्रहण करना चाहिए। - मनोयोग के भेदों के लक्षण
पं.सं./प्रा./1/89-90 सब्भावो सच्चमणो जो जोगो सो दु सच्चमणजोगो। तव्विवरीओ मोसो जाणुभयं सच्चमोस त्ति।89। ण य सच्चमोसजुत्तो जो हु मणो सो असच्चमोसमणो। जो जोगो तेण हवे असच्चमोसो दु मणजोगो।90। = सद्भाव अर्थात् समीचीन पदार्थ के विषय करने वाले मन को सत्यमन कहते हैं; और उसके द्वारा जो योग होता है उसे सत्यमनोयोग कहते हैं। इससे विपरीत योग को मृषा मनोयोग कहते हैं। सत्य और मृषा योग को सत्यमृषा मनोयोग कहते हैं।89। जो मन न तो सत्य हो और न मृषा हो उसे असत्यमृषामन कहते हैं और उसके द्वारा जो योग होता है उसे असत्यमृषामनोयोग कहते हैं।90। (ध.1/1,1/49/गा.156-157/281,282); (गो.जी./मू./218-219/477)।
ध.1/1,149/281/4 समनस्केषु मन:पूर्विका वचस: प्रवृत्ति: अन्यथानुपलम्भात्। तत्र सत्यवचननिबन्धनमसा योग: सत्यमनोयोग:। तथा मोषवचननिबन्धनमनसा योगो मोषमनोयोग:। उभयात्मकवचननिबन्धनमनसा योग: सत्यमोषमनोयोग:। त्रिविधवचनव्यतिरिक्तामन्त्रणादि वचननिबन्धनमनसा योगोऽसत्यमोषमनोयोग:। नायमर्थो मुख्य: सकलमनसामव्यापकत्वात्। क: पुनर्निरवद्योऽर्थश्चेद्यथावस्तु प्रवृत्तं मन: सत्यमन:। विपरीतमसत्यमन:। द्वयात्मकमुभययमन:। संशयानध्यवसायज्ञाननिबन्धनमसत्यमोषमन इति। अथवा तद्वचनजननयोग्यतामपेक्ष्य चिरन्तनोऽप्यर्थ: समीचीन एव। =- समनस्क जीवों में वचनप्रवृत्ति मनपूर्वक देखी जाती है, क्योंकि, मन के बिना उनमें वचनप्रवृत्ति नहीं पायी जाती। इसलिए उन चारों में से सत्यवचननिमित्तक मन के निमित्त से होने वाले योग को सत्यमनोयोग कहते हैं। असत्य वचन निमित्तक मन से होने वाले योग को असत्यमनोयोग कहते हैं। सत्य और मृषा इन दोनों रूप वचन निमित्तक मन से होने वाले योग को उभयमनोयोग कहते हैं। उक्त तीनों प्रकार के वचनों से भिन्न आमन्त्रण आदि अनुभयरूप वचननिमित्तक मन से होने वाले योग को अनुभय मनोयोग कहते हैं। फिर भी उक्त प्रकार का कथन मुख्यार्थ नहीं है, क्योंकि, इसकी सम्पूर्ण मन के साथ व्याप्ति नहीं पायी जाती। अर्थात् यह कथन उपचरित है, क्योंकि, वचन की सत्यादिकता से मन में सत्य आदि का उपचार किया गया है। प्रश्न–तो फिर यहाँ पर निर्दोष अर्थ कौन-सा लेना चाहिए। उत्तर
- जहाँ जिस प्रकार की वस्तु विद्यमान हो वहाँ उसी प्रकार से प्रवृत्ति करने वाले मन को सत्यमन कहते हैं। उससे विपरीत मन को असत्यमन कहते हैं। सत्य और असत्य इन दोनों रूप मन को उभयमन कहते हैं। तथा जो संशय और अनध्यवसायरूप ज्ञान का कारण है, उसे अनुभयमन कहते हैं।
- अथवा मन में सत्य-असत्य आदि वचनों को उत्पन्न करने रूप योग्यता है, उसकी अपेक्षा से सत्य वचनादि निमित्त से होने के कारण जिसे पहले उपचार कह आये हैं; वह कथन मुख्य भी है।
गो.जी./जी.प्र./217-219/475/4 सत्यासत्योभयानुभयार्थेषुया: प्रवृत्तय: मनोवचनयो: तदा ज्ञानवाक्प्रयोगजनने जीवप्रयत्नरूपप्रवृत्तीनां सत्यादि तन्नाम भवति सत्यमन इत्यादि। ... सम्यग्ज्ञानविषयोऽर्थ: सत्यं यथा जलज्ञानविषयो जलं स्नानपानाद्यर्थक्रियासद्भावात्। मिथ्याज्ञानविषयोऽर्थ:, असत्य: यथा जलज्ञानविषयो मरीचिका जले जलं, स्नानपानाद्यर्थक्रियाविरहात्। सत्यासत्यज्ञानविषयोऽर्थ:, उभय: सत्यासत्य इत्यर्थ: यथा जलज्ञानविषय: कमण्डलुनि घट:। अत्र जलधारणार्थक्रियाया: सद्भावात् सत्यताया: घटाकारविकलत्वादसत्यतायाश्च प्रतीतेः। अयं गौणार्थ: अग्निर्माणवक इत्यादिवत्। अनुभयज्ञानविषयोऽर्थ: अनुभय: सत्यासत्यार्थद्वयेनावक्तव्यः यथा किंचित्प्रतिभासते। सामान्येन प्रतिभासमानोऽर्थ: स्वार्थक्रियाकारिविशेषनिर्णयाभावात् सत्य इति वक्तुं न शक्यते। सामान्य इति प्रतिभासात् असत्य इत्यपि वक्तुं न शक्यते। सामान्य इति प्रतिभासात् असत्य इत्यपि वक्तुं न शक्यते। सामान्य इति प्रतिभासात् असत्य इत्यपि वक्तुं न शक्यते, इति जात्यन्तरम् अनुभयार्थ: स्फुटं चतुर्थो भवति। एवं घटे घटविकल्प: सत्य:, घटे पटविकल्पोऽसत्य:, कुण्डिकायां जलधारणे घटविकल्प: उभय:, आमन्त्रणादिषु अहो देवदत्त इति विकल्प: अनुभय:। कालेनैव, गृहीता सा कन्या किं मृत्युना अथवा धर्मणा इत्यनुभय:।217। सत्यमन:, सत्यार्थज्ञानजननशक्तिरूपं भावमन इत्यर्थ:। तेन सत्यमनसा जनितो योग:–प्रयत्नविशेष: स सत्यमनोयोग:, तद्विपरीत: असत्यार्थविषयज्ञानजनितशक्तिरूपभावमनसा जनितप्रयत्नविशेष: मृषा असत्यमनोयोग:। उभय–सत्यमृषार्थज्ञानजननशक्तिरूपभावमनोजनितप्रयत्नविशेष: उभयमनोयोग:।218। असत्यमषामन:, अनुभयार्थज्ञानजननशक्तिरूपं भावमन इत्यर्थ:। तेन भावमनसा जनितो यो योग: प्रयत्नविशेष: स तु पुन: असत्यमृषामनोयोगो भवेत् अनुभयमनोयोग इत्यर्थ:। इति चत्वारो मनोयोगा: कथिता:। = सत्य असत्य उभय और अनुभय इन चार प्रकार के अर्थों को जानने या कहने में जीव के मन व वचन की प्रयत्नरूप जो प्रवृत्ति विशेष होती है, उसी को सत्यादि मन व वचन योग कहते हैं। तहाँ–यथार्थ ज्ञानगोचर पदार्थ सत्य है, जैसे जलज्ञान का विषयभूत जल, क्योंकि, उसमें स्नान, पान आदि अर्थक्रिया का सद्भाव है। अयथार्थ ज्ञानगोचर पदार्थ असत्य है, जैसे जलज्ञान का विषयभूत मरीचिका का जल, क्योंकि, उसमें स्नान, पान आदि अर्थक्रिया का अभाव है। यथार्थ और अयथार्थ दोनों ज्ञानगोचर अर्थ उभय अर्थात् सत्यासत्य हैं, जैसे जलज्ञान के विषयभूत कमण्डलु में घट का ग्रहण, क्योंकि, जलधारण आदिरूप क्रिया के सद्भाव से यह घट की नाई सत्य है, परन्तु घटाकार के अभाव से असत्य है। प्रतिभाशाली देखकर बालक को अग्नि कहने की भाँति यह कथन गौण है। यथार्थ अयथार्थ दोनों ही प्रकार के निर्णय से रहित ज्ञानगोचर पदार्थ अनुभय है, जैसे ‘यह कुछ प्रतिभासित होता है।’ इस प्रकार के सामान्यरूपेण प्रतिभासित पदार्थ में स्वार्थक्रियाकारी विशेष के निर्णय का अभाव होने से उसे सत्य नहीं कह सकते और न ही उसे असत्य कह सकते हैं, इसलिए वह जात्यन्तरभूत अनुभव अर्थ है।–इसी प्रकार घट में घट का विकल्प सत्य है, घट में पट का विकल्प असत्य है, कुण्डी में जलधारण देखकर घट का विकल्प उभय है, और ‘अहो देवदत्त!’ इस प्रकार की आमत्रणी आदि भाषा (देखें भाषा ) में उत्पन्न होने वाला विकल्प अनुभय है। अथवा ‘वह कन्या काल के द्वारा ग्रहण की गयी है’ ऐसा विकल्प अनुभय है, क्योंकि, काल का अर्थ मृत्यु व मासिक धर्म दोनों हो सकते हैं।217। सत्यमन अर्थात् सत्यार्थज्ञान को उत्पन्न करने की शक्तिरूप भावमन। ऐसे सत्यमन से जनित योग या प्रयत्नविशेष सत्यमनोयोग है। उससे विपरीत असत्यार्थविषयक ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्तिरूप भावमन से जनित प्रयत्नविशेष असत्यमनोयोग है। उभयार्थ विषयक ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्तिरूप भावमन से जनित प्रयत्नविशेष उभयमनोयोग है। और अनुभयार्थ विषयक ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्तिरूप भावमन से जनित प्रयत्नविशेष अनुभयमनोयोग है। इस प्रकार चार मनोयोग कहे गये।
- शुभ-अशुभ मनोयोग
बा.अ./गा. आहारादो सण्णा असुहमणं इदि विजाणेहि।50। किण्हादितिण्णि लेस्सा करणजसोक्खेसु गिद्दिपरिणामो। ईसाविसादभावो असुहमणंत्ति य जिणा वेंति।51। रागो दोसो मोहो हस्सादी-णोकसायपरिणामो। थूलो वा सुहुमो वा असुहमणोत्ति य जिणा वेंति।52। मोत्तूण असुहभावं पुव्वुत्तं णिरवसेसदो दव्वं। वदसमिदिसीलसंजमपरिणामं सुहमणं जाणे।54। = आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, कृष्ण-नील व कापोत लेश्याएँ, इन्द्रिय सुखों में लोलुपता, ईर्षा, विषाद, राग, द्वेष, मोह, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, त्रीवेद, पुरुषवेद, और नपुंसकवेद रूप परिणाम अशुभ मन हैं।50-52। इन अशुभ भावों व सम्पूर्ण परिग्रह को छोड़कर व्रत, समिति, शील और संयमरूप परिणाम होते हैं, उन्हें शुभ मन जानना चाहिए।
देखें उपयोग - II.4.1,2 (जीवदया आदि शुभोपयोग हैं और विषयकषाय आदि में प्रवृत्ति अशुभोपयोग हैं।)
देखें प्रणिधान –(इन्द्रिय-विषयों में परिणाम तथा क्रोधादि कषाय अशुभ प्रणिधान हैं और व्रत समिति गुप्तिरूप परिणाम शुभ प्रणिधान हैं)।
रा.वा./6/3/1,2/पृष्ठ/पंक्ति वधचिन्तनेर्ष्यासूयादिरशुभो मनोयोग:। (506/33)। अर्हदादिभक्तितपोरुचिश्रुतविनयादि: शुभोमनोयोग:। (507/3)। = हिंसक विचार, ईर्षा, असूया आदि अशुभ मनयोग हैं और अर्हन्तभक्ति, तप की रुचि, श्रुत, विनयादि विचार शुभ मनोयोग हैं। (स.सि./6/3/619/11)। - मनोज्ञान व मनोयोग में अन्तर
ध./1/1,1,50/283/1 पूर्वप्रयोगात् प्रयत्नमन्तरेणापि मनस: प्रवृत्तिर्दृश्यते इति चेद्भवतु, न तेन मनसा योगोऽत्र मनोयोग इति विवक्षित:, तन्निमित्तप्रयत्नसंबन्धस्य परिस्पन्दरूपस्य विवक्षितत्वाद्। = प्रश्न–पूर्व प्रयोग से प्रयत्न के बिना भी मनकी प्रवृत्ति देखी जाती है ? उत्तर–यदि ऐसा है तो होने दो, क्योंकि, ऐसे मन से होने वाले योग को मनोयोग कहते हैं, यह अर्थ यहाँ विवक्षित नहीं है, किन्तु मन के निमित्त से जो परिस्पन्दरूप प्रयत्नविशेष होता है, वह यहाँ पर योगरूप से विवक्षित है।
गो.जी./जी.प्र./703/1137/20 लब्ध्युपयोगलक्षणं भावमन: तद्वयापारो मनोयोग:। = लब्धि व उपयोग लक्षणवाला तो भावमन है और उसका व्यापार विशेष मनोयोग है। - मरण या व्याघात के साथ ही मन व वचन योग भी समाप्त हो जाते हैं
ध.4/1,5,175/416/9 मुदे वाघादिदे वि कायजोगं मोत्तूण अण्णजोगाभावो। = मरण अथवा व्याघात होने पर भी काययोग को छोड़कर अन्य योग का अभाव है।
- * अन्य सम्बन्धित विषय
- मनोयोग सम्बन्धी विषय।–देखें योग ।
- केवली में मनोयोग विषयक।–देखें केवली - 5।
- मनोयोग में गुणस्थान, जीवसमास मार्गणास्थान आदि 20 प्ररूपणाएँ।–देखें सत् ।
- मनोयोग की सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व प्ररूपणाएँ।–देखें वह वह नाम ।
- मनोयोगियों में कर्मों का बन्ध, उदय, सत्त्व।–देखें वह वह नाम ।
पुराणकोष से
मन के निमित्त से आत्म-प्रदेशों में उत्पन्न क्रिया-परिस्पन्दन । यह चार प्रकार का होता है― सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, सत्य-मृषा-उभय मनोयोग और अनुभय मनोयोग । महापुराण 62.309-310 मनोयोग-दुष्प्रणिधान― सामायिक शिक्षाव्रत का एक अतिचार-मन को अन्यथा चलायमान करना । हरिवंशपुराण 58.180