विभाव का कथंचित् अहेतुकपना: Difference between revisions
From जैनकोष
m (Vikasnd moved page विभाव का कथंचित् अहेतुकपना to विभाव का कथंचित् अहेतुकपना without leaving a redirect: RemoveZWNJChar) |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<ol start="4"> | <ol start="4"> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> विभाव का | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> विभाव का कथंचित् अहेतुकपना</strong> <br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> जीव रागादिकरूप से स्वयं परिणमता है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> जीव रागादिकरूप से स्वयं परिणमता है</strong> </span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./121-125, 136 <span class="PrakritGatha">ण सयं बद्धो कम्मे ण सयं परिणमदि कोहमादीहिं। जइ एस तुज्झ जीवो अप्पपरिणामी तदो होदी।121। अपरिणमंतम्हि सयं जीवे कोहादिएहि भावेहिं। संसारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा।122। पुग्गलकम्मं कोहो जीवं परिणामएदि कोहत्तं। तं सयमपरिणमंतं कहं णु परिणामयदि कोहो।123। अह सयमप्पा परिणदि कोहभावेण एस दे बुद्धो। कोहो परिणामयदे जीवं कोहत्तमिदि मिच्छा।124। कोहुवजुत्तो कोहो माणुवजुत्ते य माणमेवादा। माउवजुत्तो माया लोहुवजुत्तो हवदि लोहो।125। तं खलु जीवणिवद्धं कम्मइयवग्गणागयं जइया। तइया दु होदि हेदू जीवो परिणामभावाणं।136। </span>= <span class="HindiText">सांख्यमतानुयायी शिष्य के प्रति कहते हैं कि हे भाई ! यदि यह जीव कर्म में स्वयं नहीं बँधा है और क्रोधादि भाव से स्वयं नहीं परिणमता है, ऐसा तेरा मत है तो वह अपरिणामी सिद्ध होता है।121। और इस प्रकार संसार के अभाव का तथा सांख्यमत का प्रसंग प्राप्त होता है।122। यदि क्रोध नाम का पुद्गल कर्म जीव को क्रोधरूप परिणमाता है, ऐसा तू माने तो हम पूछते हैं, कि स्वयं न परिणमते हुए को वह क्रोधकर्म कैसे परिणमन करा सकता है?।123। अथवा यदि आत्मा स्वयं क्रोधभावरूप से परिणमता है, ऐसा मानें तो ‘क्रोध जीव को क्रोधरूप परिणमन कराता है’ यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है।124। इसलिए यह सिद्धान्त है कि, क्रोध, मान, माया व लोभ में उपयुक्त आत्मा स्वयं क्रोध, मान, माया व लोभ है।125। कार्माण वर्गणागत पुद्गलद्रव्य जब वास्तव में जीव में बँधता है तब जीव (अपने अज्ञानमय) परिणामभावों का हेतु होता है।136। </span><br /> | ||
स.सा./आ./कलश नं.<span class="SanskritText">कर्तारं स्वफलेन यत्किल बलात्कर्मैव मो | स.सा./आ./कलश नं.<span class="SanskritText">कर्तारं स्वफलेन यत्किल बलात्कर्मैव मो योजयेत्, कुर्वाणः फललिप्सुरेव हि फलं प्राप्नोति यत्कर्मणः।....।152। रागद्वेषोत्पादकं तत्त्वदृष्टया, नान्यद्द्रव्यं वीक्ष्यते किंचनापि। सर्वद्रव्योत्पत्तिरन्तश्चकास्ति, व्यत्तात्यन्तं स्वस्वभावेन यस्मात्।219। रागजन्मनि निमित्ततां पर-द्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते। उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनीं, शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धयः।221।</span> = <span class="HindiText">कर्म ही उसके कर्ता को अपने फल के साथ बलात् नहीं जोड़ता। फल की इच्छा वाला ही कर्म को करता हुआ कर्म के फल को पाता है।152। तत्त्वदृष्टि से देखा जाय तो, रागद्वेष को उत्पन्न करने वाला अन्य द्रव्य किंचित् मात्र भी दिखाई नहीं देता, क्योंकि सर्व द्रव्यों की उत्पत्ति अपने स्वभाव से ही होती हुई अन्तरंग में अत्यन्त प्रगट प्रकाशित होती है।219। जो राग की उत्पत्ति में पर द्रव्य का ही निमित्तत्व मानते हैं, वे जिनकी बुद्धि शुद्ध ज्ञान से रहित अन्ध है, ऐसे मोहनदी को पार नहीं कर सकते।221। </span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./372 <span class="SanskritText">न च जीवस्य परद्रव्यं रागादीनुत्पादयतीति शङ्क्यं; अन्यद्रव्येणान्यद्रव्यगुणोत्पादकस्यायोगाद् सर्वद्रव्याणां स्वभावेनैवोत्पादात्।372।</span> = <span class="HindiText">ऐसी आशंका करने योग्य नहीं, कि परद्रव्य जीव को रागादि उत्पन्न करते हैं, क्योंकि अन्य द्रव्य के द्वारा अन्य द्रव्य के गुणों को उत्पन्न करने की अयोग्यता है, क्योंकि सर्व द्रव्यों का स्वभाव से ही उत्पाद होता है। (देखें [[ कर्ता#3.6 | कर्ता - 3.6]], 7)। </span><br /> | ||
पु.सि.उ./ | पु.सि.उ./13<span class="SanskritText"> परिणाममानस्य चितश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वकैर्भावैः। भवति हि निमित्तमात्रं पौद्ग्लिकं कर्म तस्यापि।13 </span>= <span class="HindiText">निश्चय करके अपने चेतना स्वरूप रागादि परिणामों से आप ही परिणमते हुए पूर्वोक्त आत्मा के भी पुद्गल सम्बन्धी ज्ञानावरणादिक द्रव्य कर्म कारण मात्र होते हैं। <br /> | ||
देखें [[ विभाव#5.4 | विभाव - 5.4 ]](ऋजुसूत्रादि पर्यायार्थिक नयों की अपेक्षा कषाय आदि अहेतुक हैं, क्योंकि इन नयों की अपेक्षा कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है।)। <br /> | |||
देखें [[ विभाव#2.2.3 | विभाव - 2.2.3 ]](रागादि जीव के अपने अपराध हैं, तथा कथंचित् जीव के स्वभाव हैं)। <br /> | |||
देखें [[ नियति#2.3 | नियति - 2.3 ]](कालादि लब्धि के मिलने पर स्वयं सम्यग्दर्शन आदि की प्राप्ति होती है)। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> ज्ञानियों को कर्मों का उदय भी अकिंचित्कर है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> ज्ञानियों को कर्मों का उदय भी अकिंचित्कर है</strong> </span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./32 <span class="SanskritText">यो हि नाम फलदानसमर्थतया प्रादुर्भूय भावकत्वेन भवन्तमपि दूरत एवं तदनुवृत्तेरात्मनो भाव्यस्य व्यार्क्तनेन हटान्मोहं न्यक्कृत्य.....आत्मानं संचेतयते स खलु जितमोहो जिनः। </span>= <span class="HindiText">मोहकर्म फल देने की सामर्थ्य से प्रगट उदयरूप होकर भावकपने से प्रगट होता है, तथापि तदनुसार जिसकी प्रवृत्ति है, ऐसा जो अपना आत्माभाव्य, उसको भेदज्ञान के बल द्वारा दूर से ही अलग करने से, इस प्रकार बलपूर्वक मोह का तिरस्कार करके, अपने आत्मा को अनुभव करते हैं, वे निश्चय से जितमोह जिन हैं। </span><br /> | ||
प्र.सा./ता.वृ./ | प्र.सा./ता.वृ./45/58/19 <span class="SanskritText">अत्राह शिष्यः-‘औदयिका भावाः बन्धकारण’ इत्यागमवचनं तर्हि वृथा भवति। परिहारमाह-औदयिका भावा बन्धंकारणं भवन्ति, परं किंतु मोहोदय सहिताः। द्रव्यमोहोदयेऽपि सति यदि शुद्धात्मभावनाबलेन भावमोहेन न परिणमति तदा बन्धो न भवति। यदि पुनः कर्मोदयमात्रेण बन्धो भवति तर्हि संसारिणां सर्वदैव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात्सर्वदैव बन्ध एव न मोक्ष इत्यभिप्रायः। </span>= <span class="HindiText">[पुण्य के फलरूप अर्हंत को विहार आदि क्रियाएँ यद्यपि औदयिकी हैं, परन्तु फिर भी मोहादि भावों से रहित होने के कारण उन्हें क्षायिक माना गया है-प्र.सा./मू.45] <strong>प्रश्न–</strong>इस प्रकार मानने से औदयिक भाव बन्ध के कारण है’ यह आगमवचन मिथ्या हो जाता है? <strong>उत्तर</strong>–इसका परिहार करते हैं। औदयिक भाव बन्ध के कारण होते हैं किन्तु यदि मोह के उदय से सहित हो तो। द्रव्यमोह के उदय होने पर भी यदि शुद्धात्म भावना के बल से भावमोहरूप से नहीं परिणमता है, तब बन्ध नहीं होता है। यदि कर्मोदय मात्र से बन्ध हुआ होता तो संसारियों को सदैव बन्ध ही हुआ होता मोक्ष नहीं, क्योंकि उनके कर्म का उदय सदैव विद्यमान रहता है। [यहाँ द्रव्य मोह से तात्पर्य दर्शनमोह में सम्यक्त्व प्रकृति तथा चारित्रमोह में क्रोधादि का अन्तिम जघन्य अंश है, ऐसा प्रतीत होता है।] </span><br /> | ||
स.सा./ता.वृ./ | स.सा./ता.वृ./136/191/13<span class="SanskritText"> उदयागतेषु द्रव्यप्रत्ययेषु यदि जीवः स्वस्वभावं मुक्त्वा रागादिरूपेण भावप्रत्ययेन परिणमतीति तदा बन्धो भवतीति नैवोदयमात्रेण धेरोपसर्गेऽपि पाण्डवादिवत्। यदि पुनरुदयमात्रेण बन्धो भवति तदा सर्वदैव संसार एव। कस्मादिति चेत् संसारिणां सर्वदैव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात्।</span> = <span class="HindiText">उदयागत द्रव्य प्रत्ययों में (द्रव्य कर्मों में) यदि जीव स्व स्वभाव को छोड़कर रागादि रूप भावप्रत्यय (भावकर्म) रूप से परिणमता है तो उसे बन्ध होता है, केवल उदयमात्र से नहीं। जैसे कि घोर उपसर्ग आने पर भी पाण्डव आदि। (शेष अर्थ ऊपर के समान); (स.सा./ता.वृ./164-165/230/18)। <br /> | ||
देखें [[ कारण#III.3.5 | कारण - III.3.5]]-ज्ञानियों के लिए कर्म मिट्टी के ढेले के समान है)। <br /> | |||
देखें [[ बंध#3.5 | बंध - 3.5]], 6। (मोहनीय के जघन्य अनुभाग का उदय उपशम श्रेणी में यद्यपि ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के बन्ध का तो कारण है, परन्तु स्वप्रकृति बन्ध का कारण नहीं)। </span></li> | |||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<noinclude> | |||
[[विभाव | [[ विभाव | पूर्व पृष्ठ ]] | ||
[[Category:व]] | [[ विभाव का कथंचित् सहेतुकपना | अगला पृष्ठ ]] | ||
</noinclude> | |||
[[Category: व]] |
Revision as of 21:47, 5 July 2020
- विभाव का कथंचित् अहेतुकपना
- जीव रागादिकरूप से स्वयं परिणमता है
स.सा./मू./121-125, 136 ण सयं बद्धो कम्मे ण सयं परिणमदि कोहमादीहिं। जइ एस तुज्झ जीवो अप्पपरिणामी तदो होदी।121। अपरिणमंतम्हि सयं जीवे कोहादिएहि भावेहिं। संसारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा।122। पुग्गलकम्मं कोहो जीवं परिणामएदि कोहत्तं। तं सयमपरिणमंतं कहं णु परिणामयदि कोहो।123। अह सयमप्पा परिणदि कोहभावेण एस दे बुद्धो। कोहो परिणामयदे जीवं कोहत्तमिदि मिच्छा।124। कोहुवजुत्तो कोहो माणुवजुत्ते य माणमेवादा। माउवजुत्तो माया लोहुवजुत्तो हवदि लोहो।125। तं खलु जीवणिवद्धं कम्मइयवग्गणागयं जइया। तइया दु होदि हेदू जीवो परिणामभावाणं।136। = सांख्यमतानुयायी शिष्य के प्रति कहते हैं कि हे भाई ! यदि यह जीव कर्म में स्वयं नहीं बँधा है और क्रोधादि भाव से स्वयं नहीं परिणमता है, ऐसा तेरा मत है तो वह अपरिणामी सिद्ध होता है।121। और इस प्रकार संसार के अभाव का तथा सांख्यमत का प्रसंग प्राप्त होता है।122। यदि क्रोध नाम का पुद्गल कर्म जीव को क्रोधरूप परिणमाता है, ऐसा तू माने तो हम पूछते हैं, कि स्वयं न परिणमते हुए को वह क्रोधकर्म कैसे परिणमन करा सकता है?।123। अथवा यदि आत्मा स्वयं क्रोधभावरूप से परिणमता है, ऐसा मानें तो ‘क्रोध जीव को क्रोधरूप परिणमन कराता है’ यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है।124। इसलिए यह सिद्धान्त है कि, क्रोध, मान, माया व लोभ में उपयुक्त आत्मा स्वयं क्रोध, मान, माया व लोभ है।125। कार्माण वर्गणागत पुद्गलद्रव्य जब वास्तव में जीव में बँधता है तब जीव (अपने अज्ञानमय) परिणामभावों का हेतु होता है।136।
स.सा./आ./कलश नं.कर्तारं स्वफलेन यत्किल बलात्कर्मैव मो योजयेत्, कुर्वाणः फललिप्सुरेव हि फलं प्राप्नोति यत्कर्मणः।....।152। रागद्वेषोत्पादकं तत्त्वदृष्टया, नान्यद्द्रव्यं वीक्ष्यते किंचनापि। सर्वद्रव्योत्पत्तिरन्तश्चकास्ति, व्यत्तात्यन्तं स्वस्वभावेन यस्मात्।219। रागजन्मनि निमित्ततां पर-द्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते। उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनीं, शुद्धबोधविधुरान्धबुद्धयः।221। = कर्म ही उसके कर्ता को अपने फल के साथ बलात् नहीं जोड़ता। फल की इच्छा वाला ही कर्म को करता हुआ कर्म के फल को पाता है।152। तत्त्वदृष्टि से देखा जाय तो, रागद्वेष को उत्पन्न करने वाला अन्य द्रव्य किंचित् मात्र भी दिखाई नहीं देता, क्योंकि सर्व द्रव्यों की उत्पत्ति अपने स्वभाव से ही होती हुई अन्तरंग में अत्यन्त प्रगट प्रकाशित होती है।219। जो राग की उत्पत्ति में पर द्रव्य का ही निमित्तत्व मानते हैं, वे जिनकी बुद्धि शुद्ध ज्ञान से रहित अन्ध है, ऐसे मोहनदी को पार नहीं कर सकते।221।
स.सा./आ./372 न च जीवस्य परद्रव्यं रागादीनुत्पादयतीति शङ्क्यं; अन्यद्रव्येणान्यद्रव्यगुणोत्पादकस्यायोगाद् सर्वद्रव्याणां स्वभावेनैवोत्पादात्।372। = ऐसी आशंका करने योग्य नहीं, कि परद्रव्य जीव को रागादि उत्पन्न करते हैं, क्योंकि अन्य द्रव्य के द्वारा अन्य द्रव्य के गुणों को उत्पन्न करने की अयोग्यता है, क्योंकि सर्व द्रव्यों का स्वभाव से ही उत्पाद होता है। (देखें कर्ता - 3.6, 7)।
पु.सि.उ./13 परिणाममानस्य चितश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वकैर्भावैः। भवति हि निमित्तमात्रं पौद्ग्लिकं कर्म तस्यापि।13 = निश्चय करके अपने चेतना स्वरूप रागादि परिणामों से आप ही परिणमते हुए पूर्वोक्त आत्मा के भी पुद्गल सम्बन्धी ज्ञानावरणादिक द्रव्य कर्म कारण मात्र होते हैं।
देखें विभाव - 5.4 (ऋजुसूत्रादि पर्यायार्थिक नयों की अपेक्षा कषाय आदि अहेतुक हैं, क्योंकि इन नयों की अपेक्षा कारण के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है।)।
देखें विभाव - 2.2.3 (रागादि जीव के अपने अपराध हैं, तथा कथंचित् जीव के स्वभाव हैं)।
देखें नियति - 2.3 (कालादि लब्धि के मिलने पर स्वयं सम्यग्दर्शन आदि की प्राप्ति होती है)।
- ज्ञानियों को कर्मों का उदय भी अकिंचित्कर है
स.सा./आ./32 यो हि नाम फलदानसमर्थतया प्रादुर्भूय भावकत्वेन भवन्तमपि दूरत एवं तदनुवृत्तेरात्मनो भाव्यस्य व्यार्क्तनेन हटान्मोहं न्यक्कृत्य.....आत्मानं संचेतयते स खलु जितमोहो जिनः। = मोहकर्म फल देने की सामर्थ्य से प्रगट उदयरूप होकर भावकपने से प्रगट होता है, तथापि तदनुसार जिसकी प्रवृत्ति है, ऐसा जो अपना आत्माभाव्य, उसको भेदज्ञान के बल द्वारा दूर से ही अलग करने से, इस प्रकार बलपूर्वक मोह का तिरस्कार करके, अपने आत्मा को अनुभव करते हैं, वे निश्चय से जितमोह जिन हैं।
प्र.सा./ता.वृ./45/58/19 अत्राह शिष्यः-‘औदयिका भावाः बन्धकारण’ इत्यागमवचनं तर्हि वृथा भवति। परिहारमाह-औदयिका भावा बन्धंकारणं भवन्ति, परं किंतु मोहोदय सहिताः। द्रव्यमोहोदयेऽपि सति यदि शुद्धात्मभावनाबलेन भावमोहेन न परिणमति तदा बन्धो न भवति। यदि पुनः कर्मोदयमात्रेण बन्धो भवति तर्हि संसारिणां सर्वदैव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात्सर्वदैव बन्ध एव न मोक्ष इत्यभिप्रायः। = [पुण्य के फलरूप अर्हंत को विहार आदि क्रियाएँ यद्यपि औदयिकी हैं, परन्तु फिर भी मोहादि भावों से रहित होने के कारण उन्हें क्षायिक माना गया है-प्र.सा./मू.45] प्रश्न–इस प्रकार मानने से औदयिक भाव बन्ध के कारण है’ यह आगमवचन मिथ्या हो जाता है? उत्तर–इसका परिहार करते हैं। औदयिक भाव बन्ध के कारण होते हैं किन्तु यदि मोह के उदय से सहित हो तो। द्रव्यमोह के उदय होने पर भी यदि शुद्धात्म भावना के बल से भावमोहरूप से नहीं परिणमता है, तब बन्ध नहीं होता है। यदि कर्मोदय मात्र से बन्ध हुआ होता तो संसारियों को सदैव बन्ध ही हुआ होता मोक्ष नहीं, क्योंकि उनके कर्म का उदय सदैव विद्यमान रहता है। [यहाँ द्रव्य मोह से तात्पर्य दर्शनमोह में सम्यक्त्व प्रकृति तथा चारित्रमोह में क्रोधादि का अन्तिम जघन्य अंश है, ऐसा प्रतीत होता है।]
स.सा./ता.वृ./136/191/13 उदयागतेषु द्रव्यप्रत्ययेषु यदि जीवः स्वस्वभावं मुक्त्वा रागादिरूपेण भावप्रत्ययेन परिणमतीति तदा बन्धो भवतीति नैवोदयमात्रेण धेरोपसर्गेऽपि पाण्डवादिवत्। यदि पुनरुदयमात्रेण बन्धो भवति तदा सर्वदैव संसार एव। कस्मादिति चेत् संसारिणां सर्वदैव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात्। = उदयागत द्रव्य प्रत्ययों में (द्रव्य कर्मों में) यदि जीव स्व स्वभाव को छोड़कर रागादि रूप भावप्रत्यय (भावकर्म) रूप से परिणमता है तो उसे बन्ध होता है, केवल उदयमात्र से नहीं। जैसे कि घोर उपसर्ग आने पर भी पाण्डव आदि। (शेष अर्थ ऊपर के समान); (स.सा./ता.वृ./164-165/230/18)।
देखें कारण - III.3.5-ज्ञानियों के लिए कर्म मिट्टी के ढेले के समान है)।
देखें बंध - 3.5, 6। (मोहनीय के जघन्य अनुभाग का उदय उपशम श्रेणी में यद्यपि ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के बन्ध का तो कारण है, परन्तु स्वप्रकृति बन्ध का कारण नहीं)।
- जीव रागादिकरूप से स्वयं परिणमता है