शुक्लध्यान: Difference between revisions
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<p><span class="HindiText">ध्यान करते हुए साधु को बुद्धिपूर्वक राग समाप्त हो जाने पर जो निर्विकल्प समाधि प्रगट होती है, उसे शुक्लध्यान या रूपातीत ध्यान कहते हैं। इसकी भी उत्तरोत्तर वृद्धिगत चार श्रेणियाँ हैं। पहली श्रेणी में अबुद्धिपूर्वक ही ज्ञान में ज्ञेय पदार्थों की तथा योग प्रवृत्तियों की संक्रान्ति होती रहती है, अगली श्रेणियों में यह भी नहीं रहती। रत्न दीपक की ज्योति की भाँति निष्कंप होकर ठहरता है। श्वास निरोध इसमें करना नहीं पड़ता अपितु स्वयं हो जाता है। यह ध्यान साक्षात् मोक्ष का कारण है।</span></p> | == सिद्धांतकोष से == | ||
<p><span class="HindiText">ध्यान करते हुए साधु को बुद्धिपूर्वक राग समाप्त हो जाने पर जो निर्विकल्प समाधि प्रगट होती है, उसे शुक्लध्यान या रूपातीत ध्यान कहते हैं। इसकी भी उत्तरोत्तर वृद्धिगत चार श्रेणियाँ हैं। पहली श्रेणी में अबुद्धिपूर्वक ही ज्ञान में ज्ञेय पदार्थों की तथा योग प्रवृत्तियों की संक्रान्ति होती रहती है, अगली श्रेणियों में यह भी नहीं रहती। रत्न दीपक की ज्योति की भाँति निष्कंप होकर ठहरता है। श्वास निरोध इसमें करना नहीं पड़ता अपितु स्वयं हो जाता है। यह ध्यान साक्षात् मोक्ष का कारण है।</span></p> | |||
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<li>शुक्लध्यानों में कथंचित् विकल्पता व निर्विकल्पता व क्रमाक्रमवर्तिपना-देखें | <li>शुक्लध्यानों में कथंचित् विकल्पता व निर्विकल्पता व क्रमाक्रमवर्तिपना-देखें [[ विकल्प ]]।</li> | ||
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== पुराणकोष से == | |||
<p> स्वच्छ एवं निर्दोष मन से किया गया ध्यान । इसके दो भेद हैं― शुक्लध्यान और परमशुक्लध्यान । इन दोनों के भी दो-दो भेद हैं । इसमें शुक्लध्यान के पृथक्त्ववितर्कविचार और एकत्ववितर्कविचार ये दो तथा दूसरे परमशुक्लध्यान के सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति ये दो भेद हैं । इस प्रकार इसके चार भेद है । <span class="GRef"> महापुराण 21. 31-43, 165-177, 194-195, 319, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 56-53-54, 65-82, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 6.53-54 </span>परिभाषाएं यथास्थान देखें</p> | |||
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Revision as of 21:48, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
ध्यान करते हुए साधु को बुद्धिपूर्वक राग समाप्त हो जाने पर जो निर्विकल्प समाधि प्रगट होती है, उसे शुक्लध्यान या रूपातीत ध्यान कहते हैं। इसकी भी उत्तरोत्तर वृद्धिगत चार श्रेणियाँ हैं। पहली श्रेणी में अबुद्धिपूर्वक ही ज्ञान में ज्ञेय पदार्थों की तथा योग प्रवृत्तियों की संक्रान्ति होती रहती है, अगली श्रेणियों में यह भी नहीं रहती। रत्न दीपक की ज्योति की भाँति निष्कंप होकर ठहरता है। श्वास निरोध इसमें करना नहीं पड़ता अपितु स्वयं हो जाता है। यह ध्यान साक्षात् मोक्ष का कारण है।
- भेद व लक्षण
- शुक्लध्यान में शुक्ल शब्द की सार्थकता-देखें शुक्लध्यान - 1.1।
- शुक्लध्यान के अपरनाम-देखें मोक्षमार्ग - 2.5।
- शुक्लध्यान निर्देश
- ध्यानयोग्य द्रव्य क्षेत्र आसनादि-देखें कृतिकर्म - 3।
- धर्म व शुक्लध्यान में कथंचित् भेदाभेद-देखें धर्मध्यान - 3।
- शुक्लध्यानों में कथंचित् विकल्पता व निर्विकल्पता व क्रमाक्रमवर्तिपना-देखें विकल्प ।
- शुक्लध्यान व रूपातीत ध्यान की एकार्थता-देखें पद्धति ।
- शुक्लध्यान व निर्विकल्प समाधि की एकार्थता-देखें पद्धति ।
- शुक्लध्यान व शुद्धात्मानुभव की एकार्थता-देखें पद्धति ।
- शुद्धात्मानुभव-देखें अनुभव ।
- शुक्लध्यान के बाह्य चिह्न-देखें ध्याता - 5।
- शुक्लध्यान में श्वासोच्छ्वास का निरोध हो जाता है।
- पृथक्त्ववितर्क में प्रतिपातीपना सम्भव है।
- एकत्व वितर्क में प्रतिपात का विधि निषेध।
- चारों शुक्लध्यानों में अन्तर।
- शुक्लध्यान में सम्भव भाव व लेश्या।
- शुक्लध्यान में संहनन सम्बन्धी नियम-देखें संहनन ।
- पंचमकाल में शुक्लध्यान सम्भव नहीं-देखें धर्मध्यान - 5।
- शुक्लध्यानों का स्वामित्व व फल
- शुक्लध्यान के योग्य जघन्य उत्कृष्ट ज्ञान-देखें ध्याता - 1।
- पृथक्त्व वितर्क विचार का स्वामित्व
- एकत्व वितर्क अवीचार का स्वामित्व
- उपशान्त कषाय में एकत्व वितर्क कैसे
- सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती व सूक्ष्म क्रिया निवृत्ति का स्वामित्व।
- स्त्री को शुक्लध्यान सम्भव नहीं।
- चारों ध्यानों का फल।
- शुक्ल व धर्मध्यान के फल में अन्तर-देखें धर्मध्यान - 3/5।
- ध्यान की महिमा-देखें ध्यान - 2।
- शंका-समाधान
- प्रथम शुक्लध्यान में उपयोग की युगपत् दो धाराएँ-देखें उपयोग - II.3.1।
पुराणकोष से
स्वच्छ एवं निर्दोष मन से किया गया ध्यान । इसके दो भेद हैं― शुक्लध्यान और परमशुक्लध्यान । इन दोनों के भी दो-दो भेद हैं । इसमें शुक्लध्यान के पृथक्त्ववितर्कविचार और एकत्ववितर्कविचार ये दो तथा दूसरे परमशुक्लध्यान के सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति ये दो भेद हैं । इस प्रकार इसके चार भेद है । महापुराण 21. 31-43, 165-177, 194-195, 319, हरिवंशपुराण 56-53-54, 65-82, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.53-54 परिभाषाएं यथास्थान देखें