अज्ञान: Difference between revisions
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<p>जैनागमनें अज्ञान शब्द का प्रयोग दो अर्थों में होता है - एक तो ज्ञान का अभाव या कमी के अर्थ में और दूसरा मिथ्याज्ञान के अर्थ में। पहलेवाले को औदयिक अज्ञान और दूसरेवाले को क्षायोपशमिक अज्ञान कहते हैं। मोक्षमार्ग की प्रमुखता होने के कारण आगम में अज्ञान शब्द से प्रायः मिथ्याज्ञान कहना ही इष्ट होता है।</p> | <p>जैनागमनें अज्ञान शब्द का प्रयोग दो अर्थों में होता है - एक तो ज्ञान का अभाव या कमी के अर्थ में और दूसरा मिथ्याज्ञान के अर्थ में। पहलेवाले को औदयिक अज्ञान और दूसरेवाले को क्षायोपशमिक अज्ञान कहते हैं। मोक्षमार्ग की प्रमुखता होने के कारण आगम में अज्ञान शब्द से प्रायः मिथ्याज्ञान कहना ही इष्ट होता है।</p> | ||
<p>1. औदयिक अज्ञान का लक्षण</p> | <p>1. औदयिक अज्ञान का लक्षण</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /2/6/159 ज्ञानावरणकर्मण उदयात्पदार्थानवबोधी भवति तदज्ञानमौदयिकम्। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /2/6/159 ज्ञानावरणकर्मण उदयात्पदार्थानवबोधी भवति तदज्ञानमौदयिकम्। </p> | ||
<p>= पदार्थों के नहीं जानने को अज्ञान कहते हैं चूंकि वह ज्ञानावरण कर्म के उदय से होता है इसलिए औदयिक है। </p> | <p class="HindiText">= पदार्थों के नहीं जानने को अज्ञान कहते हैं चूंकि वह ज्ञानावरण कर्म के उदय से होता है इसलिए औदयिक है। </p> | ||
<p>राजवार्तिक अध्याय 2/6/5/109/8।</p> | <p>राजवार्तिक अध्याय 2/6/5/109/8।</p> | ||
<p> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 1022 अस्ति यत्पुनरज्ञाननर्थादौदयिकं स्मृतम्। तदस्ति शून्यतारूपं यथा निश्चेतनं वपुः ।1022। </p> | <p class="SanskritText">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 1022 अस्ति यत्पुनरज्ञाननर्थादौदयिकं स्मृतम्। तदस्ति शून्यतारूपं यथा निश्चेतनं वपुः ।1022। </p> | ||
<p>= और जो यथार्थ में औदयिक अज्ञान है वह मृत देह की तरह शून्य रूप है।</p> | <p class="HindiText">= और जो यथार्थ में औदयिक अज्ञान है वह मृत देह की तरह शून्य रूप है।</p> | ||
<p>2. क्षयोपशमिक अज्ञान का लक्षण</p> | <p>2. क्षयोपशमिक अज्ञान का लक्षण</p> | ||
<p>1. मिथ्याज्ञान की अपेक्षा</p> | <p>1. मिथ्याज्ञान की अपेक्षा</p> | ||
<p>राजवार्तिक अध्याय 9/7/11/604/8 मिथ्यादर्शनोदयापादितकालुष्यमज्ञानं त्रिविधम्। </p> | <p class="SanskritText">राजवार्तिक अध्याय 9/7/11/604/8 मिथ्यादर्शनोदयापादितकालुष्यमज्ञानं त्रिविधम्। </p> | ||
<p>= मिथ्यादर्शन के उदय से उत्पन्न होनेवाला अज्ञान तीन प्रकार का है। </p> | <p class="HindiText">= मिथ्यादर्शन के उदय से उत्पन्न होनेवाला अज्ञान तीन प्रकार का है। </p> | ||
<p>( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 5/15) ( तत्त्वार्थसार अधिकार 1/35)।</p> | <p>( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 5/15) ( तत्त्वार्थसार अधिकार 1/35)।</p> | ||
<p> धवला पुस्तक 1/1,1,15/353/7 मिथ्यात्वसमवेतज्ञानस्यैव ज्ञानकार्याकरणादज्ञानव्यपदेशात्। </p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 1/1,1,15/353/7 मिथ्यात्वसमवेतज्ञानस्यैव ज्ञानकार्याकरणादज्ञानव्यपदेशात्। </p> | ||
<p>= मिथ्यात्व सहित ज्ञान को ही ज्ञान का कार्य नहीं करने से अज्ञान कहा है। </p> | <p class="HindiText">= मिथ्यात्व सहित ज्ञान को ही ज्ञान का कार्य नहीं करने से अज्ञान कहा है। </p> | ||
<p>( धवला पुस्तक 5/1,7,45/224/3)।</p> | <p>( धवला पुस्तक 5/1,7,45/224/3)।</p> | ||
<p> समयसार / आत्मख्याति गाथा 247 सोअज्ञानत्वान्मिथ्यादृष्टिः। </p> | <p class="SanskritText">समयसार / आत्मख्याति गाथा 247 सोअज्ञानत्वान्मिथ्यादृष्टिः। </p> | ||
<p>= (परके कर्तृत्व रूप अध्यवसाय के कारण) अज्ञानी होने से मिथ्यादृष्टि है।</p> | <p class="HindiText">= (परके कर्तृत्व रूप अध्यवसाय के कारण) अज्ञानी होने से मिथ्यादृष्टि है।</p> | ||
<p> समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 88/144 शुद्धात्मादितत्त्वभावविषये विपरीतपरिच्छित्ति विकारपरिणामो जीवस्याज्ञानम्। </p> | <p class="SanskritText">समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 88/144 शुद्धात्मादितत्त्वभावविषये विपरीतपरिच्छित्ति विकारपरिणामो जीवस्याज्ञानम्। </p> | ||
<p>= शुद्धात्मादि भाव तत्त्वों के विषयमें विपरीत ग्रहण रूप विकारी परिणामों को जीव का अज्ञान कहते हैं।</p> | <p class="HindiText">= शुद्धात्मादि भाव तत्त्वों के विषयमें विपरीत ग्रहण रूप विकारी परिणामों को जीव का अज्ञान कहते हैं।</p> | ||
<p> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 1021 त्रिषु ज्ञानेषु चैतेषु यत्स्यादज्ञानमर्थतः। क्षायोपशमिकं तत्स्यान्न स्यादौदयिकं क्वचित्। </p> | <p class="SanskritText">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 1021 त्रिषु ज्ञानेषु चैतेषु यत्स्यादज्ञानमर्थतः। क्षायोपशमिकं तत्स्यान्न स्यादौदयिकं क्वचित्। </p> | ||
<p>= इन तीन ज्ञानों में जो वास्तव में अज्ञान है अर्थात् ज्ञान में विशेषता होते हुए भी यदि वह सम्यग्दर्शन सहित नहीं तो उसे वास्तव में अज्ञान कहते हैं। वह अज्ञान क्षायोपशमिक भाव है। कहीं भी औदयिक नहीं कहा जा सकता।</p> | <p class="HindiText">= इन तीन ज्ञानों में जो वास्तव में अज्ञान है अर्थात् ज्ञान में विशेषता होते हुए भी यदि वह सम्यग्दर्शन सहित नहीं तो उसे वास्तव में अज्ञान कहते हैं। वह अज्ञान क्षायोपशमिक भाव है। कहीं भी औदयिक नहीं कहा जा सकता।</p> | ||
<p> समयसार / पं.जयचन्द/165 मिथ्यात्व सहित ज्ञान ही अज्ञान कहलाता है। </p> | <p> समयसार / पं.जयचन्द/165 मिथ्यात्व सहित ज्ञान ही अज्ञान कहलाता है। </p> | ||
<p>( समयसार / पं.जयचन्द/74,177)।</p> | <p>( समयसार / पं.जयचन्द/74,177)।</p> | ||
<p>2. दूषित ज्ञान की अपेक्षा</p> | <p>2. दूषित ज्ञान की अपेक्षा</p> | ||
<p> धवला पुस्तक 1/1,1,120/364/6 यथायथमप्रतिभासितार्थ प्रत्ययानुविद्धावगमोअज्ञानम्। </p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 1/1,1,120/364/6 यथायथमप्रतिभासितार्थ प्रत्ययानुविद्धावगमोअज्ञानम्। </p> | ||
<p>= न्यूनता आदि दोषों से युक्त यथावस्थित अप्रतिभासित हुए पदार्थ के निमित्त से उत्पन्न हुए तत्सम्बन्धी बोध को अज्ञान कहते हैं।</p> | <p class="HindiText">= न्यूनता आदि दोषों से युक्त यथावस्थित अप्रतिभासित हुए पदार्थ के निमित्त से उत्पन्न हुए तत्सम्बन्धी बोध को अज्ञान कहते हैं।</p> | ||
<p>न.च.बृ./306 संसयविमोहविब्भमजुत्तं जं तं खु होइ अण्णाणं। अह्वा कुसच्छाज्झेयं पावपदं हवदि तं णाणं ।306। = संशय, विमोह, विभ्रम से युक्त ज्ञान अज्ञान कहलाता है अथवा कुशास्त्रों का अध्ययन पाप का कारण होने से वह भी अज्ञान कहलाता है।</p> | <p>न.च.बृ./306 संसयविमोहविब्भमजुत्तं जं तं खु होइ अण्णाणं। अह्वा कुसच्छाज्झेयं पावपदं हवदि तं णाणं ।306। = संशय, विमोह, विभ्रम से युक्त ज्ञान अज्ञान कहलाता है अथवा कुशास्त्रों का अध्ययन पाप का कारण होने से वह भी अज्ञान कहलाता है।</p> | ||
<p>( धवला पुस्तक 1/1,1,4/143/3)।</p> | <p>( धवला पुस्तक 1/1,1,4/143/3)।</p> | ||
<p>3. अज्ञान मिथ्यात्व की अपेक्षा</p> | <p>3. अज्ञान मिथ्यात्व की अपेक्षा</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /8/1/375 हिताहितपरीक्षाविरहोअज्ञानिकत्वम्। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /8/1/375 हिताहितपरीक्षाविरहोअज्ञानिकत्वम्। </p> | ||
<p>= हिताहित की परीक्षा से रहित होना अज्ञानिक मिथ्यादर्शन है। </p> | <p class="HindiText">= हिताहित की परीक्षा से रहित होना अज्ञानिक मिथ्यादर्शन है। </p> | ||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 8/1/28/564/22)।</p> | <p>(राजवार्तिक अध्याय 8/1/28/564/22)।</p> | ||
<p>राजवार्तिक अध्याय 8/1/12/562/13 अत्र चोद्यते-बादरायणवसुजैमिनिप्रभृतीनां श्रुतिविहितक्रियानुष्ठायिनां कथमज्ञानिकत्वमिति। उच्यते-प्राणिवधधर्मसाधनाभिप्रायात्। न हि प्राणिवधः पापहेतुधर्मसाधनत्वमापत्तुमर्हति। </p> | <p class="SanskritText">राजवार्तिक अध्याय 8/1/12/562/13 अत्र चोद्यते-बादरायणवसुजैमिनिप्रभृतीनां श्रुतिविहितक्रियानुष्ठायिनां कथमज्ञानिकत्वमिति। उच्यते-प्राणिवधधर्मसाधनाभिप्रायात्। न हि प्राणिवधः पापहेतुधर्मसाधनत्वमापत्तुमर्हति। </p> | ||
<p>= <b>प्रश्न</b> - बादरायण, वसु, जैमिनी आदि तो वेद विहित क्रियाओं का अनुष्ठान करते हैं, वे अज्ञानी कैसे हो सकते हैं? <b>उत्तर</b> - इनने प्राणी वध को धर्म माना है (परन्तु) प्राणी वध तो पाप का ही साधन हो सकता है, धर्म का नहीं। (इनकी यह मान्यता ही अज्ञान है।)</p> | <p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - बादरायण, वसु, जैमिनी आदि तो वेद विहित क्रियाओं का अनुष्ठान करते हैं, वे अज्ञानी कैसे हो सकते हैं? <b>उत्तर</b> - इनने प्राणी वध को धर्म माना है (परन्तु) प्राणी वध तो पाप का ही साधन हो सकता है, धर्म का नहीं। (इनकी यह मान्यता ही अज्ञान है।)</p> | ||
<p> धवला पुस्तक 8/3,6/20/4 विचारिज्जमाणे जीवाजीवादिपयत्था ण संति णिच्चाणिच्चवियप्पेहिं, तदो सव्वमण्णाणमेव। णाणं णत्थि ति अहिणिवेसो अण्णाणमिच्छत्तं। </p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 8/3,6/20/4 विचारिज्जमाणे जीवाजीवादिपयत्था ण संति णिच्चाणिच्चवियप्पेहिं, तदो सव्वमण्णाणमेव। णाणं णत्थि ति अहिणिवेसो अण्णाणमिच्छत्तं। </p> | ||
<p>= नित्यानित्य विकल्पों से विचार करने पर जीवा-जीवादि पदार्थ नहीं हैं, अतएव सब अज्ञान ही है, ज्ञान नहीं है, ऐसे अभिनिवेश को अज्ञान मिथ्यात्व कहते हैं।</p> | <p class="HindiText">= नित्यानित्य विकल्पों से विचार करने पर जीवा-जीवादि पदार्थ नहीं हैं, अतएव सब अज्ञान ही है, ज्ञान नहीं है, ऐसे अभिनिवेश को अज्ञान मिथ्यात्व कहते हैं।</p> | ||
<p> तत्त्वार्थसार अधिकार 5/7/278 हिताहितविवेकस्य यत्रात्यन्तमदर्शनम्। यथा पशुवधो धर्मस्तदज्ञानिकमुच्यते। </p> | <p class="SanskritText">तत्त्वार्थसार अधिकार 5/7/278 हिताहितविवेकस्य यत्रात्यन्तमदर्शनम्। यथा पशुवधो धर्मस्तदज्ञानिकमुच्यते। </p> | ||
<p>= जिस मत में हित और अहित का बिलकुल ही विवेचन नहीं है। `पशुवध धर्म है' इस प्रकार अहित में प्रवृत्ति कराने का उपदेश है वह अज्ञानिक मिथ्यात्व है।</p> | <p class="HindiText">= जिस मत में हित और अहित का बिलकुल ही विवेचन नहीं है। `पशुवध धर्म है' इस प्रकार अहित में प्रवृत्ति कराने का उपदेश है वह अज्ञानिक मिथ्यात्व है।</p> | ||
<p>नोट - और भी देखो आगे - अज्ञानवाद।</p> | <p>नोट - और भी देखो आगे - अज्ञानवाद।</p> | ||
<p>3. मति आदि ज्ञानों को अज्ञान कैसे कहते हैं</p> | <p>3. मति आदि ज्ञानों को अज्ञान कैसे कहते हैं</p> | ||
<p> धवला पुस्तक 7/2,1,45/86-88/7 कधं मदिअण्णाणिस्स खओवसमिया लद्धी। मदिअण्णाणावरणस्स देशघादिफद्दयाणमुदएण मदिअण्णाणित्तुवलंभादो। जदि देसघादिफद्दयाणमुदएण अण्णाणित्तं होदि तो तस्स ओदइयत्तं पसज्जदे। ण सव्वघादिफद्दयाणमुदयाभावा। कधं पुण खओवसमियत्तं। आवरणे संते वि आवरणिज्जस्स णाणस्स एगदेसो जम्हि उदए उवलब्भदे तस्स भावस्स खओवसमववएसादो खओवसमियत्तमण्णाणस्स ण विरुज्झदे। अधवा णाणस्स विणासो खओ णाम, तस्स उवसमो एगदेसक्खओ, तस्स खओवसमसण्णा।..... संपहि दोण्हं (सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण) पडिसेहं कादूण देसघादिफद्दयाणमुदयणेव खओवसमिय भावो होदि त्ति परुवेंतस्स लुवयणविरोहो किण्ण जायदे। ण, जदि सव्वघादिफद्दयाणमुदयक एण संजुत्तदेसघादिफद्दयाणमुदएणेव खओवसमिय भावो इच्छिज्जदि तो फासिंदिय-कायजोगो-मदि-सुदणाणाणं खओवसमिओ भावोण पावदे फासिंदियावरण वीरियंतराइयमदि-सुदणाणावरणाणं सव्वघादिफद्दयाणं सव्वकालमुदयाभावा। ण च सुववयणविरोहो वि, इंदियजोगमग्गणासु अण्णेसिमाइरियाणं भक्खाणक्कमजाणावणट्ठं तत्थ तघापरूवणादो। ज तदो णियमेण उप्पज्जदि तं तस्स कज्जमियर च कारणं। ण च देसघादिफद्दयाणमुदओ व्व सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खओ णियमेण अप्पप्पणो णाणजणओ, खीणकसायचरिमसमए ओहिमणपज्जवणाणावरणसव्वघादिफद्दयाणं खएण समुप्पज्जमाणओहिमणपज्जवणाणाणमुवलंभाभावादो। </p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 7/2,1,45/86-88/7 कधं मदिअण्णाणिस्स खओवसमिया लद्धी। मदिअण्णाणावरणस्स देशघादिफद्दयाणमुदएण मदिअण्णाणित्तुवलंभादो। जदि देसघादिफद्दयाणमुदएण अण्णाणित्तं होदि तो तस्स ओदइयत्तं पसज्जदे। ण सव्वघादिफद्दयाणमुदयाभावा। कधं पुण खओवसमियत्तं। आवरणे संते वि आवरणिज्जस्स णाणस्स एगदेसो जम्हि उदए उवलब्भदे तस्स भावस्स खओवसमववएसादो खओवसमियत्तमण्णाणस्स ण विरुज्झदे। अधवा णाणस्स विणासो खओ णाम, तस्स उवसमो एगदेसक्खओ, तस्स खओवसमसण्णा।..... संपहि दोण्हं (सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण) पडिसेहं कादूण देसघादिफद्दयाणमुदयणेव खओवसमिय भावो होदि त्ति परुवेंतस्स लुवयणविरोहो किण्ण जायदे। ण, जदि सव्वघादिफद्दयाणमुदयक एण संजुत्तदेसघादिफद्दयाणमुदएणेव खओवसमिय भावो इच्छिज्जदि तो फासिंदिय-कायजोगो-मदि-सुदणाणाणं खओवसमिओ भावोण पावदे फासिंदियावरण वीरियंतराइयमदि-सुदणाणावरणाणं सव्वघादिफद्दयाणं सव्वकालमुदयाभावा। ण च सुववयणविरोहो वि, इंदियजोगमग्गणासु अण्णेसिमाइरियाणं भक्खाणक्कमजाणावणट्ठं तत्थ तघापरूवणादो। ज तदो णियमेण उप्पज्जदि तं तस्स कज्जमियर च कारणं। ण च देसघादिफद्दयाणमुदओ व्व सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खओ णियमेण अप्पप्पणो णाणजणओ, खीणकसायचरिमसमए ओहिमणपज्जवणाणावरणसव्वघादिफद्दयाणं खएण समुप्पज्जमाणओहिमणपज्जवणाणाणमुवलंभाभावादो। </p> | ||
<p>= <b>प्रश्न</b> - मति अज्ञानी जीव के क्षयोपशम लब्धि कैसे मानी जा सकती है? <b>उत्तर</b> - क्योंकि, उस जीव के मत्यज्ञानावरण कर्म के देशघाती स्पर्धकों के उदय से अज्ञानित्व पाया जाता है। <b>प्रश्न</b> - यदि देशघाती स्पर्धकों के उदय से अज्ञानित्व होता है तो अज्ञानित्व को औदयिक भाव मानने का प्रसंग आता है? <b>उत्तर</b> - नहीं आता, क्योंकि वहाँ सर्वघाती स्पर्धकों के उदय का अभाव है। <b>प्रश्न</b> - तो फिर अज्ञानित्व में क्षायोपशमिकत्व क्या है? <b>उत्तर</b> - आवरण के होते हुए भी आवरणीय ज्ञान का एक देश जहाँ पर उदय में पाया जाता है उसी भाव को क्षायोपशमिक नाम दिया जाता है। इससे अज्ञान को क्षायोपशमिक भाव मानने में कोई विरोध नहीं आता। अथवा ज्ञान के विनाश का नाम क्षय है उस क्षय का उपशम हुआ एकदेश क्षय। इस प्रकार ज्ञान के एक देशीय क्षय की क्षयोपशम संज्ञा मानी जा सकती है.....। <b>प्रश्न</b> - यहाँ (मति अज्ञान आदिकों में) सर्वघाती स्पर्धकों के उदय, क्षय और उनके सत्त्वोपशम इन दोनों का प्रतिषेध करके केवल देशघाती स्पर्धकों के उदये क्षायोपशमिक भाव होता है ऐसा प्ररूपण करनेवाले के स्ववचन-विरोध, दोष क्यों नहीं होता? <b>उत्तर</b> - नहीं होता, क्योंकि यदि सर्वघाती स्पर्धकों के उदय क्षय से संयुक्त देशघाती स्पर्धकों के उदय से ही क्षायोपशमिक भाव मानना इष्ट है तो स्पर्शनेन्द्रिय, काययोग और मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान इनके क्षायोपशमिक भाव प्राप्त नहीं होगा। क्योंकि स्पर्शेन्द्रियावरण, वीर्यान्तराय और मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान इनके आवरणों के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय का सब काल में अभाव है। <b>प्रश्न</b> - (फिर आगम में "सर्वघाती स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय, उन्हीं का सदवस्थारूप उपशम व देशघाती का उदय" ऐसा क्षयोपशम का लक्षण क्यों किया गया?) <b>उत्तर</b> - अन्य आचार्यों के व्याख्यान क्रम का ज्ञान कराने के लिए वहाँ वैसा प्ररूपण किया गया है। इसलिए स्ववचनविरोध नहीं आता। जो जिससे नियमतः उत्पन्न होता है वह उसका कार्य होता है और वह दूसरा उसको उत्पन्न करनेवाला उसका कारण होता है। किन्तु देशघाती स्पर्धकों के उदय के समान सर्वघाती स्पर्धकों के उदय-क्षय नियम से अपने-अपने ज्ञान के उत्पादक नहीं होते क्योंकि, क्षीणकषाय के अन्तिम समय में अवधि और मनःपर्यय ज्ञानावरणों के सर्वघाती स्पर्धकों के क्षय से अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न होते हुए नहीं पाये जाते। देखें [[ ज्ञान#III | ज्ञान - III]]। मिथ्यात्व के कारण ही उसे मिथ्याज्ञान कहा जाता है। वास्तव में ज्ञान मिथ्या नहीं होता।</p> | <p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - मति अज्ञानी जीव के क्षयोपशम लब्धि कैसे मानी जा सकती है? <b>उत्तर</b> - क्योंकि, उस जीव के मत्यज्ञानावरण कर्म के देशघाती स्पर्धकों के उदय से अज्ञानित्व पाया जाता है। <b>प्रश्न</b> - यदि देशघाती स्पर्धकों के उदय से अज्ञानित्व होता है तो अज्ञानित्व को औदयिक भाव मानने का प्रसंग आता है? <b>उत्तर</b> - नहीं आता, क्योंकि वहाँ सर्वघाती स्पर्धकों के उदय का अभाव है। <b>प्रश्न</b> - तो फिर अज्ञानित्व में क्षायोपशमिकत्व क्या है? <b>उत्तर</b> - आवरण के होते हुए भी आवरणीय ज्ञान का एक देश जहाँ पर उदय में पाया जाता है उसी भाव को क्षायोपशमिक नाम दिया जाता है। इससे अज्ञान को क्षायोपशमिक भाव मानने में कोई विरोध नहीं आता। अथवा ज्ञान के विनाश का नाम क्षय है उस क्षय का उपशम हुआ एकदेश क्षय। इस प्रकार ज्ञान के एक देशीय क्षय की क्षयोपशम संज्ञा मानी जा सकती है.....। <b>प्रश्न</b> - यहाँ (मति अज्ञान आदिकों में) सर्वघाती स्पर्धकों के उदय, क्षय और उनके सत्त्वोपशम इन दोनों का प्रतिषेध करके केवल देशघाती स्पर्धकों के उदये क्षायोपशमिक भाव होता है ऐसा प्ररूपण करनेवाले के स्ववचन-विरोध, दोष क्यों नहीं होता? <b>उत्तर</b> - नहीं होता, क्योंकि यदि सर्वघाती स्पर्धकों के उदय क्षय से संयुक्त देशघाती स्पर्धकों के उदय से ही क्षायोपशमिक भाव मानना इष्ट है तो स्पर्शनेन्द्रिय, काययोग और मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान इनके क्षायोपशमिक भाव प्राप्त नहीं होगा। क्योंकि स्पर्शेन्द्रियावरण, वीर्यान्तराय और मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान इनके आवरणों के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय का सब काल में अभाव है। <b>प्रश्न</b> - (फिर आगम में "सर्वघाती स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय, उन्हीं का सदवस्थारूप उपशम व देशघाती का उदय" ऐसा क्षयोपशम का लक्षण क्यों किया गया?) <b>उत्तर</b> - अन्य आचार्यों के व्याख्यान क्रम का ज्ञान कराने के लिए वहाँ वैसा प्ररूपण किया गया है। इसलिए स्ववचनविरोध नहीं आता। जो जिससे नियमतः उत्पन्न होता है वह उसका कार्य होता है और वह दूसरा उसको उत्पन्न करनेवाला उसका कारण होता है। किन्तु देशघाती स्पर्धकों के उदय के समान सर्वघाती स्पर्धकों के उदय-क्षय नियम से अपने-अपने ज्ञान के उत्पादक नहीं होते क्योंकि, क्षीणकषाय के अन्तिम समय में अवधि और मनःपर्यय ज्ञानावरणों के सर्वघाती स्पर्धकों के क्षय से अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न होते हुए नहीं पाये जाते। देखें [[ ज्ञान#III | ज्ञान - III]]। मिथ्यात्व के कारण ही उसे मिथ्याज्ञान कहा जाता है। वास्तव में ज्ञान मिथ्या नहीं होता।</p> | ||
<p>4. अज्ञान नामक अतिचार का लक्षण</p> | <p>4. अज्ञान नामक अतिचार का लक्षण</p> | ||
<p> भगवती आराधना / मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 613/813 अज्ञानां आचरणदर्शनात्तथाचरणं, अज्ञानिना उपनीतस्य उद्गमादिदोषदुष्टस्य उपकरणादेः सेवनं वा ।13। </p> | <p class="SanskritText">भगवती आराधना / मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 613/813 अज्ञानां आचरणदर्शनात्तथाचरणं, अज्ञानिना उपनीतस्य उद्गमादिदोषदुष्टस्य उपकरणादेः सेवनं वा ।13। </p> | ||
<p>= अज्ञ जीवों का आचरण देखकर स्वयं भी वैसा आचरण करना, उसमें क्या दोष है इसका ज्ञान न होना अथवा अज्ञानी के लीये, उद्गमादि दोषों से सहित ऐसे उपकरणादिकों का सेवन करना ऐसे अज्ञान से अतिचार उत्पन्न होते हैं।</p> | <p class="HindiText">= अज्ञ जीवों का आचरण देखकर स्वयं भी वैसा आचरण करना, उसमें क्या दोष है इसका ज्ञान न होना अथवा अज्ञानी के लीये, उद्गमादि दोषों से सहित ऐसे उपकरणादिकों का सेवन करना ऐसे अज्ञान से अतिचार उत्पन्न होते हैं।</p> | ||
<p>5. अन्य सम्बन्धित विषय</p> | <p>5. अन्य सम्बन्धित विषय</p> | ||
<p>• अज्ञान सम्बन्धी शंका समाधान - देखें [[ ज्ञान#III | ज्ञान - III]]/3।</p> | <p>• अज्ञान सम्बन्धी शंका समाधान - देखें [[ ज्ञान#III | ज्ञान - III]]/3।</p> | ||
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<p>• अज्ञान क्षायोपशमिक कैसे है - देखें [[ मतिज्ञान#2.4 | मतिज्ञान - 2.4]]।</p> | <p>• अज्ञान क्षायोपशमिक कैसे है - देखें [[ मतिज्ञान#2.4 | मतिज्ञान - 2.4]]।</p> | ||
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Revision as of 13:46, 10 July 2020
जैनागमनें अज्ञान शब्द का प्रयोग दो अर्थों में होता है - एक तो ज्ञान का अभाव या कमी के अर्थ में और दूसरा मिथ्याज्ञान के अर्थ में। पहलेवाले को औदयिक अज्ञान और दूसरेवाले को क्षायोपशमिक अज्ञान कहते हैं। मोक्षमार्ग की प्रमुखता होने के कारण आगम में अज्ञान शब्द से प्रायः मिथ्याज्ञान कहना ही इष्ट होता है।
1. औदयिक अज्ञान का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /2/6/159 ज्ञानावरणकर्मण उदयात्पदार्थानवबोधी भवति तदज्ञानमौदयिकम्।
= पदार्थों के नहीं जानने को अज्ञान कहते हैं चूंकि वह ज्ञानावरण कर्म के उदय से होता है इसलिए औदयिक है।
राजवार्तिक अध्याय 2/6/5/109/8।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 1022 अस्ति यत्पुनरज्ञाननर्थादौदयिकं स्मृतम्। तदस्ति शून्यतारूपं यथा निश्चेतनं वपुः ।1022।
= और जो यथार्थ में औदयिक अज्ञान है वह मृत देह की तरह शून्य रूप है।
2. क्षयोपशमिक अज्ञान का लक्षण
1. मिथ्याज्ञान की अपेक्षा
राजवार्तिक अध्याय 9/7/11/604/8 मिथ्यादर्शनोदयापादितकालुष्यमज्ञानं त्रिविधम्।
= मिथ्यादर्शन के उदय से उत्पन्न होनेवाला अज्ञान तीन प्रकार का है।
( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 5/15) ( तत्त्वार्थसार अधिकार 1/35)।
धवला पुस्तक 1/1,1,15/353/7 मिथ्यात्वसमवेतज्ञानस्यैव ज्ञानकार्याकरणादज्ञानव्यपदेशात्।
= मिथ्यात्व सहित ज्ञान को ही ज्ञान का कार्य नहीं करने से अज्ञान कहा है।
( धवला पुस्तक 5/1,7,45/224/3)।
समयसार / आत्मख्याति गाथा 247 सोअज्ञानत्वान्मिथ्यादृष्टिः।
= (परके कर्तृत्व रूप अध्यवसाय के कारण) अज्ञानी होने से मिथ्यादृष्टि है।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 88/144 शुद्धात्मादितत्त्वभावविषये विपरीतपरिच्छित्ति विकारपरिणामो जीवस्याज्ञानम्।
= शुद्धात्मादि भाव तत्त्वों के विषयमें विपरीत ग्रहण रूप विकारी परिणामों को जीव का अज्ञान कहते हैं।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 1021 त्रिषु ज्ञानेषु चैतेषु यत्स्यादज्ञानमर्थतः। क्षायोपशमिकं तत्स्यान्न स्यादौदयिकं क्वचित्।
= इन तीन ज्ञानों में जो वास्तव में अज्ञान है अर्थात् ज्ञान में विशेषता होते हुए भी यदि वह सम्यग्दर्शन सहित नहीं तो उसे वास्तव में अज्ञान कहते हैं। वह अज्ञान क्षायोपशमिक भाव है। कहीं भी औदयिक नहीं कहा जा सकता।
समयसार / पं.जयचन्द/165 मिथ्यात्व सहित ज्ञान ही अज्ञान कहलाता है।
( समयसार / पं.जयचन्द/74,177)।
2. दूषित ज्ञान की अपेक्षा
धवला पुस्तक 1/1,1,120/364/6 यथायथमप्रतिभासितार्थ प्रत्ययानुविद्धावगमोअज्ञानम्।
= न्यूनता आदि दोषों से युक्त यथावस्थित अप्रतिभासित हुए पदार्थ के निमित्त से उत्पन्न हुए तत्सम्बन्धी बोध को अज्ञान कहते हैं।
न.च.बृ./306 संसयविमोहविब्भमजुत्तं जं तं खु होइ अण्णाणं। अह्वा कुसच्छाज्झेयं पावपदं हवदि तं णाणं ।306। = संशय, विमोह, विभ्रम से युक्त ज्ञान अज्ञान कहलाता है अथवा कुशास्त्रों का अध्ययन पाप का कारण होने से वह भी अज्ञान कहलाता है।
( धवला पुस्तक 1/1,1,4/143/3)।
3. अज्ञान मिथ्यात्व की अपेक्षा
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /8/1/375 हिताहितपरीक्षाविरहोअज्ञानिकत्वम्।
= हिताहित की परीक्षा से रहित होना अज्ञानिक मिथ्यादर्शन है।
(राजवार्तिक अध्याय 8/1/28/564/22)।
राजवार्तिक अध्याय 8/1/12/562/13 अत्र चोद्यते-बादरायणवसुजैमिनिप्रभृतीनां श्रुतिविहितक्रियानुष्ठायिनां कथमज्ञानिकत्वमिति। उच्यते-प्राणिवधधर्मसाधनाभिप्रायात्। न हि प्राणिवधः पापहेतुधर्मसाधनत्वमापत्तुमर्हति।
= प्रश्न - बादरायण, वसु, जैमिनी आदि तो वेद विहित क्रियाओं का अनुष्ठान करते हैं, वे अज्ञानी कैसे हो सकते हैं? उत्तर - इनने प्राणी वध को धर्म माना है (परन्तु) प्राणी वध तो पाप का ही साधन हो सकता है, धर्म का नहीं। (इनकी यह मान्यता ही अज्ञान है।)
धवला पुस्तक 8/3,6/20/4 विचारिज्जमाणे जीवाजीवादिपयत्था ण संति णिच्चाणिच्चवियप्पेहिं, तदो सव्वमण्णाणमेव। णाणं णत्थि ति अहिणिवेसो अण्णाणमिच्छत्तं।
= नित्यानित्य विकल्पों से विचार करने पर जीवा-जीवादि पदार्थ नहीं हैं, अतएव सब अज्ञान ही है, ज्ञान नहीं है, ऐसे अभिनिवेश को अज्ञान मिथ्यात्व कहते हैं।
तत्त्वार्थसार अधिकार 5/7/278 हिताहितविवेकस्य यत्रात्यन्तमदर्शनम्। यथा पशुवधो धर्मस्तदज्ञानिकमुच्यते।
= जिस मत में हित और अहित का बिलकुल ही विवेचन नहीं है। `पशुवध धर्म है' इस प्रकार अहित में प्रवृत्ति कराने का उपदेश है वह अज्ञानिक मिथ्यात्व है।
नोट - और भी देखो आगे - अज्ञानवाद।
3. मति आदि ज्ञानों को अज्ञान कैसे कहते हैं
धवला पुस्तक 7/2,1,45/86-88/7 कधं मदिअण्णाणिस्स खओवसमिया लद्धी। मदिअण्णाणावरणस्स देशघादिफद्दयाणमुदएण मदिअण्णाणित्तुवलंभादो। जदि देसघादिफद्दयाणमुदएण अण्णाणित्तं होदि तो तस्स ओदइयत्तं पसज्जदे। ण सव्वघादिफद्दयाणमुदयाभावा। कधं पुण खओवसमियत्तं। आवरणे संते वि आवरणिज्जस्स णाणस्स एगदेसो जम्हि उदए उवलब्भदे तस्स भावस्स खओवसमववएसादो खओवसमियत्तमण्णाणस्स ण विरुज्झदे। अधवा णाणस्स विणासो खओ णाम, तस्स उवसमो एगदेसक्खओ, तस्स खओवसमसण्णा।..... संपहि दोण्हं (सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण तेसिं चेव संतोवसमेण) पडिसेहं कादूण देसघादिफद्दयाणमुदयणेव खओवसमिय भावो होदि त्ति परुवेंतस्स लुवयणविरोहो किण्ण जायदे। ण, जदि सव्वघादिफद्दयाणमुदयक एण संजुत्तदेसघादिफद्दयाणमुदएणेव खओवसमिय भावो इच्छिज्जदि तो फासिंदिय-कायजोगो-मदि-सुदणाणाणं खओवसमिओ भावोण पावदे फासिंदियावरण वीरियंतराइयमदि-सुदणाणावरणाणं सव्वघादिफद्दयाणं सव्वकालमुदयाभावा। ण च सुववयणविरोहो वि, इंदियजोगमग्गणासु अण्णेसिमाइरियाणं भक्खाणक्कमजाणावणट्ठं तत्थ तघापरूवणादो। ज तदो णियमेण उप्पज्जदि तं तस्स कज्जमियर च कारणं। ण च देसघादिफद्दयाणमुदओ व्व सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खओ णियमेण अप्पप्पणो णाणजणओ, खीणकसायचरिमसमए ओहिमणपज्जवणाणावरणसव्वघादिफद्दयाणं खएण समुप्पज्जमाणओहिमणपज्जवणाणाणमुवलंभाभावादो।
= प्रश्न - मति अज्ञानी जीव के क्षयोपशम लब्धि कैसे मानी जा सकती है? उत्तर - क्योंकि, उस जीव के मत्यज्ञानावरण कर्म के देशघाती स्पर्धकों के उदय से अज्ञानित्व पाया जाता है। प्रश्न - यदि देशघाती स्पर्धकों के उदय से अज्ञानित्व होता है तो अज्ञानित्व को औदयिक भाव मानने का प्रसंग आता है? उत्तर - नहीं आता, क्योंकि वहाँ सर्वघाती स्पर्धकों के उदय का अभाव है। प्रश्न - तो फिर अज्ञानित्व में क्षायोपशमिकत्व क्या है? उत्तर - आवरण के होते हुए भी आवरणीय ज्ञान का एक देश जहाँ पर उदय में पाया जाता है उसी भाव को क्षायोपशमिक नाम दिया जाता है। इससे अज्ञान को क्षायोपशमिक भाव मानने में कोई विरोध नहीं आता। अथवा ज्ञान के विनाश का नाम क्षय है उस क्षय का उपशम हुआ एकदेश क्षय। इस प्रकार ज्ञान के एक देशीय क्षय की क्षयोपशम संज्ञा मानी जा सकती है.....। प्रश्न - यहाँ (मति अज्ञान आदिकों में) सर्वघाती स्पर्धकों के उदय, क्षय और उनके सत्त्वोपशम इन दोनों का प्रतिषेध करके केवल देशघाती स्पर्धकों के उदये क्षायोपशमिक भाव होता है ऐसा प्ररूपण करनेवाले के स्ववचन-विरोध, दोष क्यों नहीं होता? उत्तर - नहीं होता, क्योंकि यदि सर्वघाती स्पर्धकों के उदय क्षय से संयुक्त देशघाती स्पर्धकों के उदय से ही क्षायोपशमिक भाव मानना इष्ट है तो स्पर्शनेन्द्रिय, काययोग और मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान इनके क्षायोपशमिक भाव प्राप्त नहीं होगा। क्योंकि स्पर्शेन्द्रियावरण, वीर्यान्तराय और मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान इनके आवरणों के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय का सब काल में अभाव है। प्रश्न - (फिर आगम में "सर्वघाती स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय, उन्हीं का सदवस्थारूप उपशम व देशघाती का उदय" ऐसा क्षयोपशम का लक्षण क्यों किया गया?) उत्तर - अन्य आचार्यों के व्याख्यान क्रम का ज्ञान कराने के लिए वहाँ वैसा प्ररूपण किया गया है। इसलिए स्ववचनविरोध नहीं आता। जो जिससे नियमतः उत्पन्न होता है वह उसका कार्य होता है और वह दूसरा उसको उत्पन्न करनेवाला उसका कारण होता है। किन्तु देशघाती स्पर्धकों के उदय के समान सर्वघाती स्पर्धकों के उदय-क्षय नियम से अपने-अपने ज्ञान के उत्पादक नहीं होते क्योंकि, क्षीणकषाय के अन्तिम समय में अवधि और मनःपर्यय ज्ञानावरणों के सर्वघाती स्पर्धकों के क्षय से अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न होते हुए नहीं पाये जाते। देखें ज्ञान - III। मिथ्यात्व के कारण ही उसे मिथ्याज्ञान कहा जाता है। वास्तव में ज्ञान मिथ्या नहीं होता।
4. अज्ञान नामक अतिचार का लक्षण
भगवती आराधना / मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 613/813 अज्ञानां आचरणदर्शनात्तथाचरणं, अज्ञानिना उपनीतस्य उद्गमादिदोषदुष्टस्य उपकरणादेः सेवनं वा ।13।
= अज्ञ जीवों का आचरण देखकर स्वयं भी वैसा आचरण करना, उसमें क्या दोष है इसका ज्ञान न होना अथवा अज्ञानी के लीये, उद्गमादि दोषों से सहित ऐसे उपकरणादिकों का सेवन करना ऐसे अज्ञान से अतिचार उत्पन्न होते हैं।
5. अन्य सम्बन्धित विषय
• अज्ञान सम्बन्धी शंका समाधान - देखें ज्ञान - III/3।
• सासादन गुणस्थान में अज्ञान के सद्भाव सम्बन्धी शंका – देखें सासादन - 3।
• मिश्र गुणस्थान में अज्ञान के अभाव सम्बन्धी शंका – देखें मिश्र - 2।
• ज्ञान व अज्ञान (मत्यज्ञान) में अन्तर – देखें ज्ञान - III/2/8।
• अज्ञान क्षायोपशमिक कैसे है - देखें मतिज्ञान - 2.4।