वचन: Difference between revisions
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Revision as of 13:51, 10 July 2020
- वचन सामान्य निर्देश
- 1-2. अभ्याख्यान आदि 12 भेद व उनके लक्षण।
- गर्हित, सावद्य व अप्रिय वचन।
- कर्कश आदि तथा आमन्त्रणी आदि भेद।−देखें भाषा ।
- हित-मित तथा मधुर-कटु संभाषण।−देखें सत्य - 2।
- सत्य व असत्य वचन।−देखें वह वह नाम।
- मोषवचन चोरी में अन्तर्भूत नहीं है।
- द्रव्य व भाव वचन तथा उनका मूर्तत्व।−देखें मूर्त - 2.3।
- वचन की प्रामाणिकता सम्बन्धी।−देखें आगम - 5, 6।
- 1-2. अभ्याख्यान आदि 12 भेद व उनके लक्षण।
- वचनयोग निर्देश
- वचनयोग सामान्य का लक्षण।
- वचनयोग के भेद।
- वचनयोग के भेदों के लक्षण।
- शुभ अशुभ वचन योग।
- वचन योग व वचन दण्ड का विषय।−देखें योग ।
- मरण या व्याघात के साथ ही वचन योग भी समाप्त हो जाता है।−देखें मनोयोग - 7।
- केवली के वचनयोग की सम्भावना।−देखें केवली - 5।
- वचनयोग सम्बन्धी गुणस्थान मार्गणा स्थानादि 20 प्ररूपणाएँ।−देखें सत् ।
- सत् संख्या आदि 8 प्ररूपणाएँ ।−देखें वह वह नाम।
- वचनयोगी के कर्मों का बन्ध उदय सत्व।−देखें वह वह नाम ।
- वचनयोग सामान्य का लक्षण।
- वचन सामान्य निर्देश
- वचन के अभ्याख्यान आदि 12 भेद
ष. ख. 12/4, 2, 8/सूत्र 10/285 अब्भक्खाण-कलह-पेसुण्ण-रइ-अरइ-उवहि-णियदि- माण-माय-मोस-मिच्छणाण-मिच्छादंसण-पओअ-पच्चए। = अभ्याख्यान, कलह, पैशुन्य, रति, अरति, उपधि, निकृति, मान, मेय, मोष, मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और प्रयोग इन प्रत्ययों से ज्ञानावरणीय वेदना होती है।
रा. वा./1/20/12/75/10 वाक्प्रयोगः शुभेतरलक्षणो वक्ष्यते। अभ्याख्यानकलहपैशुन्या- संबद्धप्रलापरत्यपरत्युपधिनिकृत्यप्रणतिमोषसम्यङ्मिथ्यादर्शनात्मिका भाषा द्वादशधा। = शुभ और अशुभ के भेद से वाक्प्रयोग दो प्रकार का है। अभ्याख्यान, कलह, पैशुन्य, असंबद्धप्रलाप, रति, अरति, उपधि, निकृति, अप्रणति, मोष, सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन के भेद से भाषा 12 प्रकार की है। (ध. 1, 1, 2/116/10); (ध. 9/4, 1, 45/217/1); (गो. जी./जी. प्र./365/778/20)।
- अभ्याख्यान आदि भेदों के लक्षण
रा. वा./1/20/12/75/12 हिंसादेः कर्मणः कर्तुर्विरतस्य विरताविरतस्य वायमस्य कर्तेत्यभिधानम् अभ्याख्यानम्। कलहः प्रतीतः। पृष्ठतो दोषाविष्करणं पैशुन्यम्। धर्मार्थकाममोक्षासंबद्धा, वाग् असंबद्धप्रलापः। शब्दादिविषयदेशादिषु रत्युत्पादिका, रतिवाक्। तेष्वेवारत्युत्पादिका अरतिवाक्। यां वाचं श्रुत्वा परिग्रहार्जनरक्षणादिष्वासज्यते सोपधिवाक्। बणिग्व्यवहारे यामवधार्य निकृतिप्रणव आत्मा भवति सा निकृतिवाक्। यां श्रुत्वा तपोविज्ञानाधिकेष्वपि न प्रणमति सा अप्रणतिवाक्। यां श्रुत्वा स्तेये वर्तते सा मोषवाक्। सम्यङ्मार्गस्योपदेष्ट्री सा सम्यग्दर्शनवाक्। तद्विपरीता मिथ्यादर्शनवाक्। = हिंसादि से विरक्त मुनि या श्रावक को हिंसादि का दोष लगाना अभ्याख्यान है (विशेष देखें अभ्याख्यान )। कलह का अर्थ स्पष्ट ही है (विशेष देखें कलह )। पीठ पीछे दोष दिखाना पैशून्य है (विशेष देखें पैशुन्य ) धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष इन चार पुरुषार्थों के सम्बन्ध से रहित वचन असम्बद्ध प्रलाप है। इन्द्रियों के शब्दादि विषयों में या देश नगर आदि में रति उत्पन्न करने वाला रतिवाक् है। इन्हीं में अरति उत्पन्न करने वाला अरतिवाक् है। जिसे सुनकर परिग्रह के अर्जन, रक्षण आदि में आसक्ति उत्पन्न हो वह उपधिवाक् है। जिससे व्यापार में ठगने को प्रोत्साहन मिले वह निकृतिवाक् है। जिसे सुनकर तपोनिधि या गुणी जीवों के प्रति अविनय की प्रेरणा मिले वह अप्रणतिवाक् है। जिससे चोरी में प्रवृत्ति हो वह मोषवाक् है। सम्यक् मार्गप्रवर्तक उपदेश सम्यग्दर्शनवाक् है और मिथ्यामार्ग प्रवर्तक उपदेश मिथ्यादर्शनवाक् है। (ध. 1/1, 1, 2/116/12); (घ. 9/4, 1, 45/217/3); (गो. जी./जी. प्र./365/778/19); (विशेष देखें वह वह नाम)।
- गर्हित सावद्य व अप्रिय वचन
भ. आ./मू./830-832 कक्कस्सवयणं णिठ्टुरवयणं पेसुण्णहासवयणं च। जं किंचि विप्पलावं कहिंद्रवयणं समासेण।830। जत्तो पाणवघादी दोसा जायति सावज्जवयणं च। अविचारित्ता थेणं थेणत्ति जहेवमादीयं।831। परुसं कडुयं वयणं वेरं कलहं च जं भयं कुणइ। उत्तासणं च हीलणमप्पियवयणं समासेण।832। = कर्कश-वचन, निष्ठुर भाषण, पैशुन्य के वचन, उपहास का वचन, जो कुछ भी बड़बड़ करना, ये सब संक्षेप से गर्हित वचन हैं।830। [छेदन-भेदन आदि के (पु. सि. उ.)] जिन वचनों से प्राणिवध आदि दोष उत्पन्न हों अथवा बिना विचारे बोले गये, प्राणियों की हिंसा के कारणभूत वचन सावद्य वचन हैं। जैसे−(इस सड़े सरोवर में) इस भैंस को पानी पिलाओ।831। परुष वचन जैसे - तू दुष्ट है, कटु वचन, वैर उत्पन्न करने वाले वचन, कलहकारी वचन, भयकारी या त्रासकारी वचन, दूसरों की अवज्ञाकारी होलन वचन तथा अप्रिय वचन संक्षेप से असत्य वचन हैं। (पु. सि. उ./96-98)।
- मोष वचन चोरी में अन्तर्भूत नहीं है
ध. 12/4, 2, 8, 10/286/3 मोषः स्तेयः। ण मोसो अदत्तादाणे पविस्सदि, हदपदिदपमुक्कणिहिदादाणविसयम्मि अदत्तादाणम्मि एदस्स पवेसविरोहादो। = मोष का अर्थ चोरी है। यह मोष अदत्तादान में प्रविष्ट नहीं होता, क्योंकि हृत, पतित, प्रमुक्त और निहित पदार्थ के ग्रहण विषयक अदत्तादान में इसके प्रवेश का विरोध है।
- वचन के अभ्याख्यान आदि 12 भेद
- वचनयोग निर्देश
- वचनयोग सामान्य का लक्षण
स. सि./6/1/318/9 शरीरनामकर्मोदयापादितवाग्वर्गणालम्बने सति वीर्यान्तरायमत्यक्षराद्यावरण- क्षयोपशमापादिताभ्यन्तरवाग्लब्धिसांनिध्ये वाक्परिणामाभिमुखस्यात्मनः प्रदेशपरिस्पन्दो वाग्योगः। = शरीर नामकर्म के उदय से प्राप्त हुई वचनवर्गणाओं का आलम्बन होने पर तथा वीर्यान्तराय और मत्यक्षरादि आवरण के क्षयोपशम से प्राप्त हुई भीतरी वचन लब्धि के मिलने पर वचनरूप पर्याय के अभिमुख हुए आत्मा के होने वाला प्रदेश-परिस्पन्द वचनयोग कहलाता है। (रा. वा./6/1/10/505/13)।
ध. 1/1, 1, 47/279/2 वचसः समुत्पत्त्यर्थः प्रयत्नो वाग्योगः।
ध. 1/1, 1, 65/308/5 चतुर्णां वचसां सामान्यं वचः। तज्जनितवीर्येणात्मप्रदेशपरिस्पन्दलक्षणेन योगो वाग्योगः। = वचन की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है, उसे वचनयोग कहते हैं। अथवा सत्यादि चार प्रकार के वचनों में जो अन्वय रूप से रहता है, उसे सामान्य वचन कहते हैं। उस वचन से उत्पन्न हुए आत्मप्रदेश परिस्पन्द लक्षण वीर्य के द्वारा जो योग होता है उसे वचनयोग कहते हैं।
ध. 7/2, 1, 33/76/7 भासावग्गणापोग्गलखंधे अवलंबिय जीवपदेसाणं संकोचविकोचो सो वचिजोगो णाम। = भाषावर्गणासम्बन्धी पुद्गलस्कन्धों के अवलम्बन से जो जीव प्रदेशों का संकोच विकोच होता है वह वचन योग है। (ध. 10/4, 2, 4, 175/437/10)।
- वचनयोग के भेद
ष. ख. 1/9, 1/सूत्र 52/286 वचिजोगो चउव्विहो सच्चवचिजोगो मोसवचिजोगो सच्चमोसवचिजोगो असच्चमोसवचिजोगो चेदि।52। = वचनयोग चार प्रकार का है−सत्य वचन योग, असत्य वचनयोग, उभयवचन योग और अनुभय वचन योग।52। (भ. आ. मू./1192/1188); (मू. आ./314); (रा. वा./9/7/11/604/2); (गो. जी. मू./217/474); (द्र. सं./टी./13/ 37/7)।
- वचनयोग के भेदों के लक्षण
पं. सं./प्रा./1/91-92 दसविहसच्चे वयणे जो जोगो सो दु सच्चवचिजोगो। तव्विवरीओ मोसो जाणुभयं सच्चमोस त्ति।91। जो णेव सच्चमोसो तं जाण असुच्चमोसवचिजोगो। अमणाणं जा भासा सण्णीणामंतणीयादी।92। = दस प्रकार के सत्य वचन में (देखें सत्य ) वचनवर्गणा के निमित्त से जो योग होता है, उसे सत्य वचनयोग कहते हैं। इससे विपरीत योग को मृषा वचनयोग कहते हैं। सत्य और मृषा वचनरूप योग को उभयवचनयोग कहते हैं। जो वचनयोग न तो सत्य रूप हो और न मृषा रूप ही हो, उसे असत्यमृषावचनयोग कहते हैं। असंज्ञी जीवों की जो अनक्षररूप भाषा है और संज्ञी जीवों की जो आमन्त्रणी आदि भाषाएँ हैं (देखें भाषा ) उन्हें अनुभय भाषा जानना चाहिए। (मू. आ./314); (ध. 1/1, 1, 52/गा. 158-159/286); (गो. जी./मू./220-221/478)।
ध. 1/1, 1, 52/286 चतुर्विधमनोभ्यः समुत्पन्नवचनानि चतुर्विधान्यपि तद्वयपदेशं प्रतिलभन्ते तथा प्रतीयते च। = चार प्रकार के मन से उत्पन्न हुए चार प्रकार के वचन भी उन्हीं संज्ञाओं को प्राप्त होते हैं और ऐसी प्रतीति भी होती है।
गो. जी./जी. प्र./217/475/5 सत्याद्यर्थैः सहयोगात्-संबन्धात्, खलु स्फुटं, ताः मनोवचनप्रवृत्तयः, तद्योगाः सत्यादिविशेषणविशिष्टाः, चत्वारो मनोयोगाश्चत्वारो वाग्योगाश्च भवन्ति। = सत्यादि पदार्थ के सम्बन्ध से जो मन व वचन की प्रवृत्ति होती है, वह सत्यादि विशेषण से विशिष्ट चार प्रकार के मनोयोग व वचनयोग हैं।−विशेष देखें मनोयोग - 4।
- <a name="2.4" id="2.4"></a>शुभ - अशुभ वचनयोग
बा. अ./53, 55 भत्तिच्छिरायचोरकहाओ वयणं वियाण असुहमिदि।53। संसारछेदकारणवयणं सुहवयणमिदि जिणुद्दिट्ठं।55। = भोजनकथा, स्त्रीकथा, राजकथा और चोरकथा करने को अशुभवचनयोग और संसार का नाश करने वाले वचनों को शुभ वचनयोग जानना चाहिए।
देखें प्रणिधान (निरर्थक अशुद्ध वचन का प्रयोग दुष्ट प्रणिधान है।)
रा. वा./6/3/1, 2/पृष्ठ/पंक्ति अनृतभाषणपरुषासत्यवचनादिरशुभो वाग्योगः। (506/33)। सत्यहितमितभाषणादिः शुभो वाग्योगः। (507/2)। = असत्य बोलना, कठोर बोलना आदि अशुभ वचनयोग हैं और सत्य हित मित बोलना शुभ वचनयोग है। (स. सि./6/3/619/11)।
- वचनयोग सामान्य का लक्षण