दर्शनमोहनीय निर्देश: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> दर्शनमोह सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> दर्शनमोह सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/8/3/379/1 <span class="SanskritText">दर्शनमोहस्य तत्त्वार्थाश्रद्धानम्।...तदेवं लक्षणं कार्यं− ‘प्रक्रियते प्रभवत्यस्या इति प्रकृतिः’।</span> = <span class="HindiText">तत्त्वार्थ श्रद्धान न होने देना दर्शनमोह की प्रकृति है। इस प्रकार का कार्य किया जाता है अर्थात् जिससे होता है वह प्रकृति है। ( राजवार्तिक/8/3/4/567/4 ); (और भी देखें [[ मोह#1 | मोह - 1]])। </span><br /> | |||
धवला 6/1, 9-1, 21/38/3 <span class="PrakritText">दंसणं अत्तागम - पत्थेसु रुई पच्चओ सद्धा फोसणमिदि एयट्ठो तं मोहेदि विवरीयं कुणदि त्ति दंसणमोहणीयं। जस्स कम्मस्स उदएण अणत्ते अत्तबुद्धी, अणागमे आगमबुद्धी, अपयत्थे पयत्थबुद्धी, अत्तागमपयत्थेसु सद्धाए अत्थिरत्तं, दोसु वि सद्धा वा होदि तं दंसणमोहणीयमिदि उत्तं होदि। </span>= | |||
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<li> <span class="HindiText">दर्शन, रुचि, प्रत्यय, श्रद्धा और स्पर्शन, ये सब एकार्थवाचनक नाम हैं। आप्त या आत्मा में, आगम और पदार्थों में रुचि या श्रद्धा को दर्शन कहते हैं। उस दर्शन को जो मोहित करता है अर्थात् विपरीत कर देता है, उसे दर्शनमोहनीय कर्म कहते हैं। ( | <li> <span class="HindiText">दर्शन, रुचि, प्रत्यय, श्रद्धा और स्पर्शन, ये सब एकार्थवाचनक नाम हैं। आप्त या आत्मा में, आगम और पदार्थों में रुचि या श्रद्धा को दर्शन कहते हैं। उस दर्शन को जो मोहित करता है अर्थात् विपरीत कर देता है, उसे दर्शनमोहनीय कर्म कहते हैं। ( धवला 13/5, 5, 91/357/13 )। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> जिस कर्म के उदय से अनाप्त में आप्तबुद्धि और अपदार्थ में पदार्थ बुद्धि होती है; अथवा आप्त आगम और पदार्थों में श्रद्धान की अस्थिरता होती है; अथवा दोनों में भी अर्थात् आप्त-अनाप्त में, आगम-अनागम में और पदार्थ-अपदार्थ में श्रद्धा होती है, वह दर्शनमोहनीयकर्म है, यह अर्थ कहा गया है। </span><br /> | <li><span class="HindiText"> जिस कर्म के उदय से अनाप्त में आप्तबुद्धि और अपदार्थ में पदार्थ बुद्धि होती है; अथवा आप्त आगम और पदार्थों में श्रद्धान की अस्थिरता होती है; अथवा दोनों में भी अर्थात् आप्त-अनाप्त में, आगम-अनागम में और पदार्थ-अपदार्थ में श्रद्धा होती है, वह दर्शनमोहनीयकर्म है, यह अर्थ कहा गया है। </span><br /> | ||
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1005 <span class="PrakritGatha">एवं च सति सम्यक्त्वे गुणे जीवस्य सर्वतः। तं मोहयति यत्कर्म दृङ्मोहाख्यं तदुच्यते।1005।</span> = <span class="HindiText">इसी तरह जीव के सम्यक्त्व नामक गुण के होते हुए जो कर्म उस सम्यक्त्व गुण को सर्वतः मूर्च्छित कर देता है, उसे दर्शनमोहनीय कर्म कहते हैं। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> दर्शन मोहनीय के भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> दर्शन मोहनीय के भेद</strong> </span><br /> | ||
ष. ख. 6/1, 9-1/सूत्र 21/38<span class="PrakritText"> जं तं दंसणमोहणीयं कम्मं तं बंधादो एयविहं, तस्स संतकम्मंपुणतिविहं सम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं चेदि।21।</span> =<span class="HindiText"> जो दर्शनमोहनीय कर्म है, वह बन्ध की अपेक्षा एक प्रकार का है, किन्तु उसका सत्कर्म तीन प्रकार का है-सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व।21। (ष. ख. 13/5, 5/सूत्र 92-93/358); (मू. आ./1227); ( | ष. ख. 6/1, 9-1/सूत्र 21/38<span class="PrakritText"> जं तं दंसणमोहणीयं कम्मं तं बंधादो एयविहं, तस्स संतकम्मंपुणतिविहं सम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं चेदि।21।</span> =<span class="HindiText"> जो दर्शनमोहनीय कर्म है, वह बन्ध की अपेक्षा एक प्रकार का है, किन्तु उसका सत्कर्म तीन प्रकार का है-सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व।21। (ष. ख. 13/5, 5/सूत्र 92-93/358); (मू. आ./1227); ( तत्त्वार्थसूत्र/8/9 ); (पं. सं./प्रा./2/4 गाथा व उसकी मूल व्याख्या); ( सर्वार्थसिद्धि/2/3/152/8 ); ( राजवार्तिक/2/3/1/104/16 ); ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/25/17/9; 33/27/18 ); ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/986 )। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> दर्शनमोह की तीनों प्रकृतियों के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> दर्शनमोह की तीनों प्रकृतियों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/8/9/385/5 <span class="SanskritText">यस्योदयात्सर्वज्ञप्रणीतमार्गपराङ्मुखस्तत्त्वार्थश्रद्धाननिरुत्सुको हिताहितविचारासमर्थो मिथ्यादृष्टिर्भवति तन्मिथ्यात्वम्। तदेव सम्यक्त्वं शुभपरिणामनिरुद्धस्वरसं यदौदासीन्येनावस्थितमात्मनः श्रद्धानं न निरुणद्धि, तद्वेद्यमानः पुरुषः सम्यग्दृष्टिरित्यभिधीयते। तदेव मिथ्यात्वं प्रक्षालनविशेषात्क्षीणाक्षीणमदशक्तिकोद्रववत्सामिशुद्धस्वरसं तदुभयमिथ्याख्यायते सम्यङ्मिथ्यात्वमिति यावत्। यस्योदयादात्मनोऽर्धशुद्धमदकोद्रवौदनोपयोगापादितमिश्रपरिणामवदुभयात्मको भवति परिणामः।</span> = | |||
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<li class="HindiText"> जिसके उदय से जीव सर्वज्ञप्रणीत मार्ग से विमुख, तत्त्वार्थों के श्रद्धान करने में निरुत्सुक, हिताहित का विचार करने में असमर्थ ऐसा मिथ्यादृष्टि होता है, वह मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय है। </li> | <li class="HindiText"> जिसके उदय से जीव सर्वज्ञप्रणीत मार्ग से विमुख, तत्त्वार्थों के श्रद्धान करने में निरुत्सुक, हिताहित का विचार करने में असमर्थ ऐसा मिथ्यादृष्टि होता है, वह मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय है। </li> | ||
<li class="HindiText"> वही मिथ्यात्व जब शुभ परिणामों के कारण अपने स्वरस (विपाक) को रोक देता है और उदासीन रूप से अवस्थित रहकर आत्मा के श्रद्धान को नहीं रोकता है, तब सम्यक्त्व (सम्यक्प्रकृति) है। इसका वेदन करने वाला पुरुष सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। </li> | <li class="HindiText"> वही मिथ्यात्व जब शुभ परिणामों के कारण अपने स्वरस (विपाक) को रोक देता है और उदासीन रूप से अवस्थित रहकर आत्मा के श्रद्धान को नहीं रोकता है, तब सम्यक्त्व (सम्यक्प्रकृति) है। इसका वेदन करने वाला पुरुष सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। </li> | ||
<li class="HindiText"> वही मिथ्यात्व प्रक्षालन विशेष के कारण क्षीणाक्षीण मदशक्ति वाले कोदों के समान अर्धशुद्ध स्वरसवाला होने पर तदुभय या सम्यग्मिथ्यात्व कहा जाता है। इसके उदय से अर्धशुद्ध मदशक्ति वाले कोदों और ओदन के उपयोग से प्राप्त हुए मिश्रपरिणाम के समान उभयात्मक परिणाम होता है। ( | <li class="HindiText"> वही मिथ्यात्व प्रक्षालन विशेष के कारण क्षीणाक्षीण मदशक्ति वाले कोदों के समान अर्धशुद्ध स्वरसवाला होने पर तदुभय या सम्यग्मिथ्यात्व कहा जाता है। इसके उदय से अर्धशुद्ध मदशक्ति वाले कोदों और ओदन के उपयोग से प्राप्त हुए मिश्रपरिणाम के समान उभयात्मक परिणाम होता है। ( राजवार्तिक/8/9/2/574/3 ); ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/27/19 ); (और भी देखें [[ आगे शीर्षक नं#4 | आगे शीर्षक नं - 4]])। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> तीनों प्रकृतियों में अन्तर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> तीनों प्रकृतियों में अन्तर</strong> </span><br /> | ||
धवला 6/1, 9-1, 21/39/1 <span class="PrakritText">अत्तागम-पदत्थसद्धाए जस्सोदएण सिथिलत्तं होदि, तं सम्मत्तं।...जस्सोदएण अत्तागम-पयत्थेसु असद्धा होदि, तं मिच्छत्तं। जस्सोदएण अत्तगमपयत्थेसु तप्पडिवक्खेसु य अक्कमेण सद्धा उप्पज्जदि तं सम्मामिच्छत्तं। </span><br /> | |||
धवला 6/1, 9-8, 7/235/1 <span class="PrakritText"> मिच्छत्ताणुभागादो सम्मामिच्छत्ताणुभागो अणंतगुणहीणो, तत्ते सम्मत्ताणुभागो अणंतगुणहीणो त्ति पाहुड़सुत्ते णिद्दिट्ठादो।</span> = | |||
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<li class="HindiText"> जिस कर्म के उदय से आप्त, आगम व पदार्थों की श्रद्धा में शिथिलता (व अस्थिरता) होती है वह सम्यक्त्व प्रकृति है। जिस कर्म के उदय से आप्त, आगम और पदार्थों में अश्रद्धा होती है, वह मिथ्यात्व प्रकृति है। जिस कर्म के उदय से आप्त, आगम और पदार्थों, तथा उनके प्रतिपक्षियों में अर्थात् कुदेव, कुशास्त्र और कुतत्त्वों में, युगपत् श्रद्धा उत्पन्न होती है वह सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति है। ( | <li class="HindiText"> जिस कर्म के उदय से आप्त, आगम व पदार्थों की श्रद्धा में शिथिलता (व अस्थिरता) होती है वह सम्यक्त्व प्रकृति है। जिस कर्म के उदय से आप्त, आगम और पदार्थों में अश्रद्धा होती है, वह मिथ्यात्व प्रकृति है। जिस कर्म के उदय से आप्त, आगम और पदार्थों, तथा उनके प्रतिपक्षियों में अर्थात् कुदेव, कुशास्त्र और कुतत्त्वों में, युगपत् श्रद्धा उत्पन्न होती है वह सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति है। ( धवला 13/5, 5, 93/358/10; 359/3 )। </li> | ||
<li class="HindiText"> ‘मिथ्यात्व कर्म के अनुभाग से सम्यग्मिथ्यात्व कर्म का अनुभाग अनन्तगुणा हीन होता है और सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के अनुभाग से सम्यक्त्व प्रकृति का अनुभाग अनन्तगुणा हीन होता है’, ऐसा प्राभृतसूत्र अर्थात् कषायप्राभृत के चूर्णिसूत्रों में निर्देश किया गया है। (देखें [[ अनुभाग#4.5 | अनुभाग - 4.5]])। (और भी देखें [[ अल्पबहुत्व#3.9 | अल्पबहुत्व - 3.9]])। <br /> | <li class="HindiText"> ‘मिथ्यात्व कर्म के अनुभाग से सम्यग्मिथ्यात्व कर्म का अनुभाग अनन्तगुणा हीन होता है और सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के अनुभाग से सम्यक्त्व प्रकृति का अनुभाग अनन्तगुणा हीन होता है’, ऐसा प्राभृतसूत्र अर्थात् कषायप्राभृत के चूर्णिसूत्रों में निर्देश किया गया है। (देखें [[ अनुभाग#4.5 | अनुभाग - 4.5]])। (और भी देखें [[ अल्पबहुत्व#3.9 | अल्पबहुत्व - 3.9]])। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> एक दर्शनमोह का तीन प्रकार निर्देश क्यों ?</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> एक दर्शनमोह का तीन प्रकार निर्देश क्यों ?</strong></span><br /> | ||
धवला 13/5, 5, 93/358/7 <span class="PrakritText">कधं बंधकाले एगविहं मोहणीयं संतावत्थाए तिविहं पडिवज्जदे। ण एस दोसो, एक्कस्सेव कोद्दवस्स दलिज्जमाणस्स एगकाले एगक्रियाविसेसेण तंदुलद्धतंदुल-कोद्दवभावुवलंभादो। होदु तत्थ तथाभावो सकिरियजंतसंबंधेण। ण एत्थ वि अणियट्ठिकरणसहिजीवसंबंधेण एगविहस्स मोहणीयस्स तघाविहभाविरोधादो।</span> = <strong>प्रश्न</strong>− | |||
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<li class="HindiText"> जो मोहनीयकर्म बन्ध काल में एक प्रकार का है, वह सत्त्वावस्था में तीन प्रकार का कैसे हो जाता है ? <strong>उत्तर−</strong>यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि दला जाने वाला एक ही प्रकार का कोदों द्रव्य एक काल में एक क्रियाविशेष के द्वारा चावल, आधे चावल और कोदों, इन तीन अवस्थाओं को प्राप्त होता है। उसी प्रकार प्रकृत में भी जानना चाहिए। ( | <li class="HindiText"> जो मोहनीयकर्म बन्ध काल में एक प्रकार का है, वह सत्त्वावस्था में तीन प्रकार का कैसे हो जाता है ? <strong>उत्तर−</strong>यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि दला जाने वाला एक ही प्रकार का कोदों द्रव्य एक काल में एक क्रियाविशेष के द्वारा चावल, आधे चावल और कोदों, इन तीन अवस्थाओं को प्राप्त होता है। उसी प्रकार प्रकृत में भी जानना चाहिए। ( धवला 6/1, 9-1, 21/38/7 )। <strong>प्रश्न−</strong>वहाँ तो क्रिया युक्त जाँते (चक्की) के सम्बन्ध से उस प्रकार का परिणमन भले ही हो जाओ, किन्तु यहाँ वैसा नहीं हो सकता। <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि यहाँ पर भी अनिवृत्तिकरण सहित जीव के सम्बन्ध से एक प्रकार के मोहनीय का तीन प्रकार परिणमन होने में कोई विरोध नहीं है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> मिथ्यात्व प्रकृति में से भी मिथ्यात्वकरण कैसा ?</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> मिथ्यात्व प्रकृति में से भी मिथ्यात्वकरण कैसा ?</strong></span><br /> | ||
गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/26/19/1 <span class="SanskritText">मिथ्यात्वस्य मिथ्यात्वकरणं तु अतिस्थापनावलिमात्रं पूर्वस्थितावूनितमित्यर्थः। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>मिथ्यात्व तो था ही, उसको मिथ्यात्वरूप क्या किया ? <strong>उत्तर−</strong>पहले जो स्थिति थी उसमें से अतिस्थापनावली प्रमाण घटा दिया। अर्थात् असंख्यातगुणा हीन अनुक्रम से सर्व द्रव्य के तीन खण्ड कर दिये। उनमें से जो पहले सबसे अधिक द्रव्यखण्ड है वह ‘मिथ्यात्व’ है ऐसा अभिप्राय है। ( गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/704/1141/13 )। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7"> सम्यक्प्रकृति को ‘सम्यक्’ व्यपदेश क्यों ?</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7"> सम्यक्प्रकृति को ‘सम्यक्’ व्यपदेश क्यों ?</strong></span><br /> | ||
धवला 6/1, 9-1, 21/39/2 <span class="SanskritText">कधं तस्स सम्मत्तववऐसो। सम्मत्तसहचरिदोदयत्तादो उवयारेण सम्मत्तमिदि उच्चदे। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>इस प्रकृति का ‘सम्यक्त्व’ ऐसा नाम कैसे हुआ ? <strong>उत्तर−</strong>सम्यग्दर्शन के सहचरित उदय होने के कारण उपचार से ‘सम्यक्त्व’ ऐसा नाम कहा जाता है। ( धवला 1/1, 1, 146/398/2 ); ( धवला 13/5, 5, 93/358/11 )। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8"> सम्यक्त्व व मिथ्यात्व दोनों की युगपत् वृत्ति कैसे ?</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8"> सम्यक्त्व व मिथ्यात्व दोनों की युगपत् वृत्ति कैसे ?</strong></span><br /> | ||
धवला 13/5, 5, 93/359/2 <span class="PrakritText"> कधं दोण्णं विरुद्धाणं भावाणमक्कमेण एयजीवदव्वम्हि वुत्ती । ण, दोण्णं संजोगस्स कधंचि जच्चंतरस्स कम्मट्ठवणस्सेव ( ?) वुत्तिविरोहाभावादो।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>सम्यक्त्व और मिथ्यात्व रूप इन दो विरुद्ध भावों की एक जीव द्रव्य में एक साथ वृत्ति कैसे हो सकती है ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं, क्योंकि...( ?) क्षीणाक्षीण मदशक्ति युक्त कोदों, के समान उक्त दोनों भावों के कथंचित् जात्यन्तरभूत संयोग के होने में कोई विरोध नहीं है। (विशेष देखें [[ मिश्र#2.9 | मिश्र - 2.9]])। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.9" id="2.9"> दर्शनमोहनीय के बन्ध योग्य परिणाम</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.9" id="2.9"> दर्शनमोहनीय के बन्ध योग्य परिणाम</strong> </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/6/13 <span class="SanskritText"> केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य। </span>= <span class="HindiText">केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देव इनका अवर्णवाद दर्शनमोहनीय कर्म का आस्रव है। ( तत्त्वसार/4/27 )। </span><br /> | |||
तत्त्वसार/4/28 <span class="SanskritText"> मार्गसंदूषणं चैव तथैवोन्मार्गदेशनम्। </span>= <span class="HindiText">उपरोक्त के अतिरिक्त सत्य मोक्षमार्ग को दूषित ठहराना और असत्य मोक्षमार्ग को सच्चा बताना ये भी दर्शनमोह के कारण हैं। <br /> | |||
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Revision as of 19:11, 17 July 2020
- दर्शनमोहनीय निर्देश
- दर्शनमोह सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/3/379/1 दर्शनमोहस्य तत्त्वार्थाश्रद्धानम्।...तदेवं लक्षणं कार्यं− ‘प्रक्रियते प्रभवत्यस्या इति प्रकृतिः’। = तत्त्वार्थ श्रद्धान न होने देना दर्शनमोह की प्रकृति है। इस प्रकार का कार्य किया जाता है अर्थात् जिससे होता है वह प्रकृति है। ( राजवार्तिक/8/3/4/567/4 ); (और भी देखें मोह - 1)।
धवला 6/1, 9-1, 21/38/3 दंसणं अत्तागम - पत्थेसु रुई पच्चओ सद्धा फोसणमिदि एयट्ठो तं मोहेदि विवरीयं कुणदि त्ति दंसणमोहणीयं। जस्स कम्मस्स उदएण अणत्ते अत्तबुद्धी, अणागमे आगमबुद्धी, अपयत्थे पयत्थबुद्धी, अत्तागमपयत्थेसु सद्धाए अत्थिरत्तं, दोसु वि सद्धा वा होदि तं दंसणमोहणीयमिदि उत्तं होदि। =- दर्शन, रुचि, प्रत्यय, श्रद्धा और स्पर्शन, ये सब एकार्थवाचनक नाम हैं। आप्त या आत्मा में, आगम और पदार्थों में रुचि या श्रद्धा को दर्शन कहते हैं। उस दर्शन को जो मोहित करता है अर्थात् विपरीत कर देता है, उसे दर्शनमोहनीय कर्म कहते हैं। ( धवला 13/5, 5, 91/357/13 )।
- जिस कर्म के उदय से अनाप्त में आप्तबुद्धि और अपदार्थ में पदार्थ बुद्धि होती है; अथवा आप्त आगम और पदार्थों में श्रद्धान की अस्थिरता होती है; अथवा दोनों में भी अर्थात् आप्त-अनाप्त में, आगम-अनागम में और पदार्थ-अपदार्थ में श्रद्धा होती है, वह दर्शनमोहनीयकर्म है, यह अर्थ कहा गया है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1005 एवं च सति सम्यक्त्वे गुणे जीवस्य सर्वतः। तं मोहयति यत्कर्म दृङ्मोहाख्यं तदुच्यते।1005। = इसी तरह जीव के सम्यक्त्व नामक गुण के होते हुए जो कर्म उस सम्यक्त्व गुण को सर्वतः मूर्च्छित कर देता है, उसे दर्शनमोहनीय कर्म कहते हैं।
- दर्शन मोहनीय के भेद
ष. ख. 6/1, 9-1/सूत्र 21/38 जं तं दंसणमोहणीयं कम्मं तं बंधादो एयविहं, तस्स संतकम्मंपुणतिविहं सम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं चेदि।21। = जो दर्शनमोहनीय कर्म है, वह बन्ध की अपेक्षा एक प्रकार का है, किन्तु उसका सत्कर्म तीन प्रकार का है-सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व।21। (ष. ख. 13/5, 5/सूत्र 92-93/358); (मू. आ./1227); ( तत्त्वार्थसूत्र/8/9 ); (पं. सं./प्रा./2/4 गाथा व उसकी मूल व्याख्या); ( सर्वार्थसिद्धि/2/3/152/8 ); ( राजवार्तिक/2/3/1/104/16 ); ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/25/17/9; 33/27/18 ); ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/986 )।
- दर्शनमोह की तीनों प्रकृतियों के लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/9/385/5 यस्योदयात्सर्वज्ञप्रणीतमार्गपराङ्मुखस्तत्त्वार्थश्रद्धाननिरुत्सुको हिताहितविचारासमर्थो मिथ्यादृष्टिर्भवति तन्मिथ्यात्वम्। तदेव सम्यक्त्वं शुभपरिणामनिरुद्धस्वरसं यदौदासीन्येनावस्थितमात्मनः श्रद्धानं न निरुणद्धि, तद्वेद्यमानः पुरुषः सम्यग्दृष्टिरित्यभिधीयते। तदेव मिथ्यात्वं प्रक्षालनविशेषात्क्षीणाक्षीणमदशक्तिकोद्रववत्सामिशुद्धस्वरसं तदुभयमिथ्याख्यायते सम्यङ्मिथ्यात्वमिति यावत्। यस्योदयादात्मनोऽर्धशुद्धमदकोद्रवौदनोपयोगापादितमिश्रपरिणामवदुभयात्मको भवति परिणामः। =- जिसके उदय से जीव सर्वज्ञप्रणीत मार्ग से विमुख, तत्त्वार्थों के श्रद्धान करने में निरुत्सुक, हिताहित का विचार करने में असमर्थ ऐसा मिथ्यादृष्टि होता है, वह मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय है।
- वही मिथ्यात्व जब शुभ परिणामों के कारण अपने स्वरस (विपाक) को रोक देता है और उदासीन रूप से अवस्थित रहकर आत्मा के श्रद्धान को नहीं रोकता है, तब सम्यक्त्व (सम्यक्प्रकृति) है। इसका वेदन करने वाला पुरुष सम्यग्दृष्टि कहा जाता है।
- वही मिथ्यात्व प्रक्षालन विशेष के कारण क्षीणाक्षीण मदशक्ति वाले कोदों के समान अर्धशुद्ध स्वरसवाला होने पर तदुभय या सम्यग्मिथ्यात्व कहा जाता है। इसके उदय से अर्धशुद्ध मदशक्ति वाले कोदों और ओदन के उपयोग से प्राप्त हुए मिश्रपरिणाम के समान उभयात्मक परिणाम होता है। ( राजवार्तिक/8/9/2/574/3 ); ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/33/27/19 ); (और भी देखें आगे शीर्षक नं - 4)।
- तीनों प्रकृतियों में अन्तर
धवला 6/1, 9-1, 21/39/1 अत्तागम-पदत्थसद्धाए जस्सोदएण सिथिलत्तं होदि, तं सम्मत्तं।...जस्सोदएण अत्तागम-पयत्थेसु असद्धा होदि, तं मिच्छत्तं। जस्सोदएण अत्तगमपयत्थेसु तप्पडिवक्खेसु य अक्कमेण सद्धा उप्पज्जदि तं सम्मामिच्छत्तं।
धवला 6/1, 9-8, 7/235/1 मिच्छत्ताणुभागादो सम्मामिच्छत्ताणुभागो अणंतगुणहीणो, तत्ते सम्मत्ताणुभागो अणंतगुणहीणो त्ति पाहुड़सुत्ते णिद्दिट्ठादो। =- जिस कर्म के उदय से आप्त, आगम व पदार्थों की श्रद्धा में शिथिलता (व अस्थिरता) होती है वह सम्यक्त्व प्रकृति है। जिस कर्म के उदय से आप्त, आगम और पदार्थों में अश्रद्धा होती है, वह मिथ्यात्व प्रकृति है। जिस कर्म के उदय से आप्त, आगम और पदार्थों, तथा उनके प्रतिपक्षियों में अर्थात् कुदेव, कुशास्त्र और कुतत्त्वों में, युगपत् श्रद्धा उत्पन्न होती है वह सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति है। ( धवला 13/5, 5, 93/358/10; 359/3 )।
- ‘मिथ्यात्व कर्म के अनुभाग से सम्यग्मिथ्यात्व कर्म का अनुभाग अनन्तगुणा हीन होता है और सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के अनुभाग से सम्यक्त्व प्रकृति का अनुभाग अनन्तगुणा हीन होता है’, ऐसा प्राभृतसूत्र अर्थात् कषायप्राभृत के चूर्णिसूत्रों में निर्देश किया गया है। (देखें अनुभाग - 4.5)। (और भी देखें अल्पबहुत्व - 3.9)।
- एक दर्शनमोह का तीन प्रकार निर्देश क्यों ?
धवला 13/5, 5, 93/358/7 कधं बंधकाले एगविहं मोहणीयं संतावत्थाए तिविहं पडिवज्जदे। ण एस दोसो, एक्कस्सेव कोद्दवस्स दलिज्जमाणस्स एगकाले एगक्रियाविसेसेण तंदुलद्धतंदुल-कोद्दवभावुवलंभादो। होदु तत्थ तथाभावो सकिरियजंतसंबंधेण। ण एत्थ वि अणियट्ठिकरणसहिजीवसंबंधेण एगविहस्स मोहणीयस्स तघाविहभाविरोधादो। = प्रश्न−- जो मोहनीयकर्म बन्ध काल में एक प्रकार का है, वह सत्त्वावस्था में तीन प्रकार का कैसे हो जाता है ? उत्तर−यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि दला जाने वाला एक ही प्रकार का कोदों द्रव्य एक काल में एक क्रियाविशेष के द्वारा चावल, आधे चावल और कोदों, इन तीन अवस्थाओं को प्राप्त होता है। उसी प्रकार प्रकृत में भी जानना चाहिए। ( धवला 6/1, 9-1, 21/38/7 )। प्रश्न−वहाँ तो क्रिया युक्त जाँते (चक्की) के सम्बन्ध से उस प्रकार का परिणमन भले ही हो जाओ, किन्तु यहाँ वैसा नहीं हो सकता। उत्तर−नहीं, क्योंकि यहाँ पर भी अनिवृत्तिकरण सहित जीव के सम्बन्ध से एक प्रकार के मोहनीय का तीन प्रकार परिणमन होने में कोई विरोध नहीं है।
- जो मोहनीयकर्म बन्ध काल में एक प्रकार का है, वह सत्त्वावस्था में तीन प्रकार का कैसे हो जाता है ? उत्तर−यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि दला जाने वाला एक ही प्रकार का कोदों द्रव्य एक काल में एक क्रियाविशेष के द्वारा चावल, आधे चावल और कोदों, इन तीन अवस्थाओं को प्राप्त होता है। उसी प्रकार प्रकृत में भी जानना चाहिए। ( धवला 6/1, 9-1, 21/38/7 )। प्रश्न−वहाँ तो क्रिया युक्त जाँते (चक्की) के सम्बन्ध से उस प्रकार का परिणमन भले ही हो जाओ, किन्तु यहाँ वैसा नहीं हो सकता। उत्तर−नहीं, क्योंकि यहाँ पर भी अनिवृत्तिकरण सहित जीव के सम्बन्ध से एक प्रकार के मोहनीय का तीन प्रकार परिणमन होने में कोई विरोध नहीं है।
- मिथ्यात्व प्रकृति में से भी मिथ्यात्वकरण कैसा ?
गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/26/19/1 मिथ्यात्वस्य मिथ्यात्वकरणं तु अतिस्थापनावलिमात्रं पूर्वस्थितावूनितमित्यर्थः। = प्रश्न−मिथ्यात्व तो था ही, उसको मिथ्यात्वरूप क्या किया ? उत्तर−पहले जो स्थिति थी उसमें से अतिस्थापनावली प्रमाण घटा दिया। अर्थात् असंख्यातगुणा हीन अनुक्रम से सर्व द्रव्य के तीन खण्ड कर दिये। उनमें से जो पहले सबसे अधिक द्रव्यखण्ड है वह ‘मिथ्यात्व’ है ऐसा अभिप्राय है। ( गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/704/1141/13 )।
- सम्यक्प्रकृति को ‘सम्यक्’ व्यपदेश क्यों ?
धवला 6/1, 9-1, 21/39/2 कधं तस्स सम्मत्तववऐसो। सम्मत्तसहचरिदोदयत्तादो उवयारेण सम्मत्तमिदि उच्चदे। = प्रश्न−इस प्रकृति का ‘सम्यक्त्व’ ऐसा नाम कैसे हुआ ? उत्तर−सम्यग्दर्शन के सहचरित उदय होने के कारण उपचार से ‘सम्यक्त्व’ ऐसा नाम कहा जाता है। ( धवला 1/1, 1, 146/398/2 ); ( धवला 13/5, 5, 93/358/11 )।
- सम्यक्त्व व मिथ्यात्व दोनों की युगपत् वृत्ति कैसे ?
धवला 13/5, 5, 93/359/2 कधं दोण्णं विरुद्धाणं भावाणमक्कमेण एयजीवदव्वम्हि वुत्ती । ण, दोण्णं संजोगस्स कधंचि जच्चंतरस्स कम्मट्ठवणस्सेव ( ?) वुत्तिविरोहाभावादो। = प्रश्न−सम्यक्त्व और मिथ्यात्व रूप इन दो विरुद्ध भावों की एक जीव द्रव्य में एक साथ वृत्ति कैसे हो सकती है ? उत्तर−नहीं, क्योंकि...( ?) क्षीणाक्षीण मदशक्ति युक्त कोदों, के समान उक्त दोनों भावों के कथंचित् जात्यन्तरभूत संयोग के होने में कोई विरोध नहीं है। (विशेष देखें मिश्र - 2.9)।
- दर्शनमोहनीय के बन्ध योग्य परिणाम
तत्त्वार्थसूत्र/6/13 केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य। = केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देव इनका अवर्णवाद दर्शनमोहनीय कर्म का आस्रव है। ( तत्त्वसार/4/27 )।
तत्त्वसार/4/28 मार्गसंदूषणं चैव तथैवोन्मार्गदेशनम्। = उपरोक्त के अतिरिक्त सत्य मोक्षमार्ग को दूषित ठहराना और असत्य मोक्षमार्ग को सच्चा बताना ये भी दर्शनमोह के कारण हैं।
- दर्शनमोह सामान्य का लक्षण