पुण्य: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">भाव पुण्य का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">भाव पुण्य का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
प्रवचनसार/181 <span class="PrakritText">सुहपरिणामो पुण्णं ...भणियमण्णेसु।</span> = <span class="HindiText">पर के प्रति शुभ परिणाम पुण्य है। ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/108 )। </span><br /> | |||
सर्वार्थसिद्धि/6/3/320/2 <span class="SanskritText">पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम्।</span> =<span class="HindiText"> जो आत्मा को पवित्र करता है, या जिससे आत्मा पवित्र होता है, वह पुण्य है। ( राजवार्तिक/6/3/4/507/11 )। </span><br /> | |||
नयचक्र बृहद्/162 <span class="PrakritGatha">अहवा कारणभूदा तेसिं च वयव्वयाइ इह भणिया। ते खलु पुण्णं पावं जाण इमं पवयणे भणियं। 162।</span> = <span class="HindiText">उन शुभ वेदादि के कारणभूत जो व्रतादि कहे गये हैं, उसको निश्चय से पुण्य जानो, ऐसा शास्त्र में कहा है। </span><br /> | |||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/108/172/8 <span class="PrakritText">दानपुजाषडावश्यकादिरूपो जीवस्य शुभपरिणामो भावपुण्यं। </span>= <span class="HindiText">दान पूजा षडावश्यकादि रूप जीव के शुभ-परिणाम भावपुण्य हैं। <br /> | |||
देखें [[ उपयोग#II.4 | उपयोग - II.4 ]]जीव दया आदि शुभोपयोग है। 1। वही पुण्य है। 4। <br /> | देखें [[ उपयोग#II.4 | उपयोग - II.4 ]]जीव दया आदि शुभोपयोग है। 1। वही पुण्य है। 4। <br /> | ||
देखें [[ धर्म#1.4 | धर्म - 1.4 ]](पूजा, भक्ति, दया, दान आदि शुभ क्रियाओं रूप व्यवहारधर्म पुण्य है।) (उपयोग/4/7); (पुण्य/1/4)। <br /> | देखें [[ धर्म#1.4 | धर्म - 1.4 ]](पूजा, भक्ति, दया, दान आदि शुभ क्रियाओं रूप व्यवहारधर्म पुण्य है।) (उपयोग/4/7); (पुण्य/1/4)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">द्रव्य पुण्य या पुण्य कर्म का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">द्रव्य पुण्य या पुण्य कर्म का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/38/134/20 <span class="SanskritText"> पुण्यं नाम अभिमतस्य प्रापकं। </span>= <span class="HindiText">इष्ट पदार्थों की प्राप्ति जिससे होती हो वह कर्म पुण्य कहलाता है। </span><br /> | |||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/108/172/8 <span class="SanskritText"> भावपुण्यनिमित्तेनोत्पन्नः सद्वेद्यादिशुभप्रकृतिरूपः पुद्गलपरमाणुपिण्डो द्रव्यपुण्यं।</span> = <span class="HindiText">भाव पुण्य के निमित्त से उत्पन्न होनेवाले साता वेदनीय आदि (विशेष देखें [[ प्रकृतिबन्ध#2 | प्रकृतिबन्ध - 2]]) शुभप्रकृति रूप पुद्गलपरमाणुओं का पिण्ड द्रव्य पुण्य है। </span><br /> | |||
स.म./27/302/19 <span class="SanskritText">दानादिक्रियोपार्जनीयं शुभकर्म।</span> = <span class="HindiText">दान आदि क्रियाओं से उपार्जित किया जानेवाला शुभकर्म पुण्य है। <br /> | स.म./27/302/19 <span class="SanskritText">दानादिक्रियोपार्जनीयं शुभकर्म।</span> = <span class="HindiText">दान आदि क्रियाओं से उपार्जित किया जानेवाला शुभकर्म पुण्य है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="1.3" id="1.3"><strong>पुण्य जीव का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.3" id="1.3"><strong>पुण्य जीव का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
मू. आ./मू./234 <span class="PrakritText">सम्मत्तेण सुदेण य विरदीए कसायणिग्गहगुणेहिं। जो परिणदो सो पुण्णो...। 234।</span> = <span class="HindiText">सम्यक्त्व, श्रुतज्ञान, व्रतरूप परिणाम तथा कषाय निग्रहरूप गुणों से परिणत आत्मा पुण्य जीव है। ( | मू. आ./मू./234 <span class="PrakritText">सम्मत्तेण सुदेण य विरदीए कसायणिग्गहगुणेहिं। जो परिणदो सो पुण्णो...। 234।</span> = <span class="HindiText">सम्यक्त्व, श्रुतज्ञान, व्रतरूप परिणाम तथा कषाय निग्रहरूप गुणों से परिणत आत्मा पुण्य जीव है। ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/622 )। </span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह/38/158 <span class="PrakritText">सुहअसुहभावजुत्ता पुण्णं पावं हवंति खलु जीवा। </span>= <span class="HindiText">शुभ परिणामों से युक्त जीव पुण्य रूप होता है। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="1.4" id="1.4"><strong>पुण्य व पाप में अन्तरंग की प्रधानता</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.4" id="1.4"><strong>पुण्य व पाप में अन्तरंग की प्रधानता</strong> </span><br /> | ||
आप्तमीमांसा/92-95 <span class="SanskritGatha"> पापं ध्रुवं परे दुःखात् पुण्यं च सुखतो यदि। अचेतनाकषायौ च बध्येयातां निमित्ततः। 9॥ पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात्पापं च सुखतो यदि। वीतरागी मुनिर्विद्वांस्ताभ्यां युञ्ज्यान्निमित्ततः। 93। विरोधा नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषां। अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते। 94। विशुद्धिसंक्लेशाङ्गं चेत्, स्वपरस्थं सुखासुखम्। पुण्यपापास्रवौ युक्तौ न चेद्वयर्थस्तवार्हतः। 95। </span>= <span class="HindiText">यदि पर को दुख उपजाने से पाप और पर को सुख उपजाने से पुण्य होने का नियम हुआ होता तो कंटक आदि अचेतन पदार्थों को पाप और दूध आदि अचेतन पदार्थों को पुण्य हो जाता। और वीतरागी मुनि (ईर्यासमिति पूर्वक गमन करते हुए कदाचित् क्षुद्र जीवों के वध का कारण हो जाने से बन्ध को प्राप्त हो जाते। 92। यदि स्वयं अपने को ही दुःख या सुख उपजाने से पाप-पुण्य होने का नियम हुआ होता तो वीतरागी मुनि तथा विद्वान्जन भी बन्ध के पात्र हो जाते; क्योंकि, उनको भी उस प्रकार का निमित्तपना होता है। 93। इसलिए ऐसा मानना ही योग्य है कि स्व व पर दोनों को सुख या दुख में निमित्त होने के कारण, विशुद्धि व संक्लेश परिणाम उनके कारण तथा उनके कार्य ये सब मिलकर ही पुण्य व पाप के आस्रव होते हुए पराश्रित पुण्य व पापरूप एकान्त का निषेध करते हैं। 94। यदि विशुद्धि व संक्लेश दोनों ही स्व व पर को सुख व दुःख के कारण न हों तो आपके मत में पुण्य या पाप कहना ही व्यर्थ है। 95। <br /> | |||
बोधपाहुड़/ पं. जयचन्द/60/152/25 केवलबाह्यसामायिकादि निरारम्भ कार्य का भेष धारि बैठे तो किछु विशिष्ट पुण्य है नाहीं। शरीरादिक बाह्य वस्तु तौ जड़ है। केवल जड़ की क्रिया फल तौ आत्मा को लागै नाहीं। ...विशिष्ट पुण्य तौ भावनिकै अनुसार है। ...अतः पुण्य-पाप के बन्ध में शुभाशुभ भाव ही प्रधान है। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5">पुण्य (शुभ नामकर्म) के बन्ध योग्य परिणाम </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5">पुण्य (शुभ नामकर्म) के बन्ध योग्य परिणाम </strong> </span><br /> | ||
पंचास्तिकाय/135 <span class="PrakritGatha">रागो जस्स पसत्थो अणुकंपासंसिदो य परिणामो। चित्तम्हि णत्थि कलुसं पुण्णं जीवस्स आसवदि। 135।</span> = <span class="HindiText">जिस जीव को प्रशस्त राग है, अनुकम्पायुक्त परिणाम है, और चित्त में कलुषता का अभाव है उस जीव को पुण्य-आस्रव होता है। </span><br /> | |||
मू.आ./मू./235<span class="PrakritText"> पुण्णस्सासवभूदा अणुकंपा सुद्ध एव उवओगा। </span>= <span class="HindiText">जीवों पर दया, शुद्ध मन-वचन-काय की क्रिया तथा शुद्ध दर्शन-ज्ञानरूप उपयोग ये पुण्यकर्म के आस्रव के कारण हैं। ( | मू.आ./मू./235<span class="PrakritText"> पुण्णस्सासवभूदा अणुकंपा सुद्ध एव उवओगा। </span>= <span class="HindiText">जीवों पर दया, शुद्ध मन-वचन-काय की क्रिया तथा शुद्ध दर्शन-ज्ञानरूप उपयोग ये पुण्यकर्म के आस्रव के कारण हैं। ( कषायपाहुड़ 1/1,1/ गा. 2/105)</span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/6/23 <span class="SanskritText">तद्विपरीतं शुभस्य। 23। </span><br /> | |||
सर्वार्थसिद्धि/6/23/337/9 <span class="SanskritText">कायवाङ्मनसामृजुत्वमविसंवादनं च तद्विपरीतम्। ‘च’ शब्देन समुच्चितस्य च विपरीते ग्राह्यम्। धार्मिकदर्शन-संभ्रमसद्भावोपनयनसंसरणाभरुताप्रमादवर्जनादिः। तदेतच्छुभ-नामकर्मास्रवकारणं वेदितव्यम्।</span> = <span class="HindiText">काय, वचन और मन की सरलता तथा अविसंवाद ये उस (अशुभ) से विपरीत हैं। उसी प्रकार पूर्व सूत्र की व्याख्या करते हुए च शब्द से जिनका समुच्चय किया गया है, उनके विपरीत आस्रवों का ग्रहण करना चाहिए। जैसे - धार्मिक पुरुषों व स्थानों का दर्शन करना, आदर सत्कार करना, सद्भाव रखना, उपनयन, संसार से डरना, और प्रमाद का त्याग करना आदि। ये सब शुभ नामकर्म के आस्रव के कारण हैं। ( राजवार्तिक/6/23/1/528/28 ); ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड/808/984 ); ( तत्त्वसार/4/48 )। </span><br /> | |||
तत्त्वसार/4/59 <span class="SanskritText">व्रतात्किलास्रवेत्पुण्यं।</span> =<span class="HindiText"> व्रत से पुण्यकर्म का आस्रव होता है। </span><br /> | |||
यो.सा./अ./4/37 <span class="SanskritGatha">अर्हदादौ परा भक्तिः कारुण्यं सर्वजन्तुषु। पावने चरणे रागः पुण्यबन्धनिबन्धनम्। 37।</span> = <span class="HindiText">अर्हन्त आदि पाँचों परमेष्ठियों में भक्ति, समस्त जीवों पर करुणा और पवित्रचारित्र में प्रीति करने से पुण्य बन्ध होता है।</span><br> | यो.सा./अ./4/37 <span class="SanskritGatha">अर्हदादौ परा भक्तिः कारुण्यं सर्वजन्तुषु। पावने चरणे रागः पुण्यबन्धनिबन्धनम्। 37।</span> = <span class="HindiText">अर्हन्त आदि पाँचों परमेष्ठियों में भक्ति, समस्त जीवों पर करुणा और पवित्रचारित्र में प्रीति करने से पुण्य बन्ध होता है।</span><br> | ||
ज्ञानार्णव/2/7/3-7 <span class="SanskritGatha">यमप्रशमनिर्वेदतत्त्वचिन्तावलम्बितम्। मैत्र्यादिभावनारूढं मनः सूते शुभास्रवम्। 2। विश्वव्यापारनिर्मुक्तं श्रुतज्ञानावलम्बितम्। शुभास्रवाय विज्ञेयं वचः सत्यं प्रतिष्ठितम्। 5। सुगुप्तेन सुकायेन कायोत्सर्गेन वानिशम्। संचिनाति शुभं कर्म काययोगेन संयमी। 7।</span> =<span class="HindiText"> यम (व्रत), प्रशम, निर्वेद तथा तत्त्वों का चिन्तवन इत्यादि का अवलम्बन हो, एवम् मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ इन चार भावनाओं की जिसके मन में भावना हो, वही मन शुभास्रव उत्पन्न करता है। 3। समस्त विश्व के व्यापारों से रहित तथा श्रुतज्ञान के अवलम्बनयुक्त और सत्यरूप पारिणामिक वचन शुभास्रव के लिए होते हैं। 5। भले प्रकार गुप्तरूप किये हुए अर्थात् अपने वशीभूत किये हुए काय से तथा निरन्तर कायोत्सर्ग से संयमी मुनि शुभ कर्म को संचय करते हैं। </span></li> | |||
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Revision as of 19:12, 17 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
क्षौद्रवर द्वीप का रक्षक व्यन्तर देव - देखें व्यन्तर - 4।
जीव के दया, दानादि रूप शुभ परिणाम पुण्य कहलाते हैं। यद्यपि लोक में पुण्य के प्रति बड़ा आकर्षण रहता है, परन्तु मुमुक्षु जीव केवल बन्धरूप होने के कारण इसे पाप से किसी प्रकार भी अधिक नहीं समझते। इसके प्रलोभन से बचने के लिए वह सदा इसकी अनिष्टता का विचार करते हैं। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि यह सर्वथा पापरूप ही हो। लौकिकजनों के लिए यह अवश्य ही पाप की अपेक्षा बहुत अच्छा है। यद्यपि मुमुक्षु जीवों को भी निचली अवस्था में पुण्य प्रवृत्ति अवश्य होती है, पर निदान रहित होने के कारण, उनका पुण्य पुण्यानुबन्धी है, जो परम्परा मोक्ष का कारण है। लौकिक जीवों का पुण्य निदान व तृष्णा सहित होने के कारण पापानुबन्धी है, तथा संसार में डुबानेवाला है। ऐसे पुण्य का त्याग ही परमार्थ से योग्य है।
- पुण्य निर्देश
- भावपुण्य का लक्षण।
- द्रव्य पुण्य या पुण्यकर्म का लक्षण।
- पुण्य जीव का लक्षण।
- पुण्य व पाप में अन्तरंग की प्रधानता।
- पुण्य (शुभ नामकर्म) के बन्ध योग्य परिणाम।
- पुण्य प्रकृतियों के भेद। - देखें प्रकृतिबन्ध - 2।
- राग-द्वेष में पुण्य-पाप का विभाग। - देखें राग - 2।
- पुण्य तत्त्व का कर्तृत्व। - देखें मिथ्यादृष्टि - 4।
- भावपुण्य का लक्षण।
- पुण्य व पाप में पारमार्थिक समानता
- दोनों मोह व अज्ञान की सन्तान हैं।
- परमार्थ से दोनों एक हैं।
- दोनों की एकता में दृष्टान्त।
- दोनों ही बन्ध व संसार के कारण हैं।
- दोनों ही दुःखरूप या दुःख के कारण हैं।
- दोनों ही हेय हैं, तथा इसका हेतु।
- दोनों में भेद समझना अज्ञान है।
- दोनों मोह व अज्ञान की सन्तान हैं।
- पुण्य की कथंचित् अनिष्टता
- पुण्य कथंचित् विरुद्ध कार्य करनेवाला है। - देखें चारित्र - 5.5।
- संसार का कारण होने से पुण्य अनिष्ट है।
- शुभ भाव कथंचित् पापबन्ध के भी कारण हैं।
- वास्तव में पुण्य शुभ है ही नहीं।
- अज्ञानीजन ही पुण्य को उपादेय मानते हैं।
- ज्ञानी तो पापवत् पुण्य का भी तिरस्कार करते हैं।
- ज्ञानी पुण्य को हेय समझता है।
- ज्ञानी व्यवहार धर्म को भी हेय समझता है। - देखें धर्म - 4.8।
- ज्ञानी तो कथंचित् पाप को ही पुण्य से अच्छा समझता है।
- मिथ्यात्वयुक्त पुण्य तो अत्यन्त अनिष्ट है ही।
- मिथ्यात्वयुक्त पुण्य तीसरे भव नरक का कारण है।
- पुण्य कथंचित् विरुद्ध कार्य करनेवाला है। - देखें चारित्र - 5.5।
- पुण्य की कथंचित् इष्टता
- पुण्य व पाप में महान् अन्तर है।
- इष्ट प्राप्ति में पुरुषार्थ से पुण्य प्रधान है।
- पुण्य की महिमा व उसका फल।
- पुण्य करने की प्रेरणा।
- पुण्य व पाप में महान् अन्तर है।
- पुण्य की इष्टता व अनिष्टता का समन्वय
- पुण्य दो प्रकार का होता है।
- भोगमूलक ही पुण्य निषिद्ध है योगमूलक नहीं।
- पुण्य के निषेध का कारण व प्रयोजन।
- पुण्य छोड़ने का उपाय व क्रम। - देखें धर्म - 6।
- हेय मानते हुए भी ज्ञानी विषय वंचनार्थ व्यवहार धर्म करता है। - देखें मिथ्यादृष्टि - 4।
- साधु की शुभ क्रियाओं की सीमा। - देखें साधु - 2।
- सम्यग्दृष्टि का पुण्य निरीह होता है।
- पुण्य के साथ पाप प्रकृति के बन्ध का समन्वय।
- पुण्य दो प्रकार का होता है।
- पुण्य निर्देश
- भाव पुण्य का लक्षण
प्रवचनसार/181 सुहपरिणामो पुण्णं ...भणियमण्णेसु। = पर के प्रति शुभ परिणाम पुण्य है। ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/108 )।
सर्वार्थसिद्धि/6/3/320/2 पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यम्। = जो आत्मा को पवित्र करता है, या जिससे आत्मा पवित्र होता है, वह पुण्य है। ( राजवार्तिक/6/3/4/507/11 )।
नयचक्र बृहद्/162 अहवा कारणभूदा तेसिं च वयव्वयाइ इह भणिया। ते खलु पुण्णं पावं जाण इमं पवयणे भणियं। 162। = उन शुभ वेदादि के कारणभूत जो व्रतादि कहे गये हैं, उसको निश्चय से पुण्य जानो, ऐसा शास्त्र में कहा है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/108/172/8 दानपुजाषडावश्यकादिरूपो जीवस्य शुभपरिणामो भावपुण्यं। = दान पूजा षडावश्यकादि रूप जीव के शुभ-परिणाम भावपुण्य हैं।
देखें उपयोग - II.4 जीव दया आदि शुभोपयोग है। 1। वही पुण्य है। 4।
देखें धर्म - 1.4 (पूजा, भक्ति, दया, दान आदि शुभ क्रियाओं रूप व्यवहारधर्म पुण्य है।) (उपयोग/4/7); (पुण्य/1/4)।
- द्रव्य पुण्य या पुण्य कर्म का लक्षण
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/38/134/20 पुण्यं नाम अभिमतस्य प्रापकं। = इष्ट पदार्थों की प्राप्ति जिससे होती हो वह कर्म पुण्य कहलाता है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/108/172/8 भावपुण्यनिमित्तेनोत्पन्नः सद्वेद्यादिशुभप्रकृतिरूपः पुद्गलपरमाणुपिण्डो द्रव्यपुण्यं। = भाव पुण्य के निमित्त से उत्पन्न होनेवाले साता वेदनीय आदि (विशेष देखें प्रकृतिबन्ध - 2) शुभप्रकृति रूप पुद्गलपरमाणुओं का पिण्ड द्रव्य पुण्य है।
स.म./27/302/19 दानादिक्रियोपार्जनीयं शुभकर्म। = दान आदि क्रियाओं से उपार्जित किया जानेवाला शुभकर्म पुण्य है।
- पुण्य जीव का लक्षण
मू. आ./मू./234 सम्मत्तेण सुदेण य विरदीए कसायणिग्गहगुणेहिं। जो परिणदो सो पुण्णो...। 234। = सम्यक्त्व, श्रुतज्ञान, व्रतरूप परिणाम तथा कषाय निग्रहरूप गुणों से परिणत आत्मा पुण्य जीव है। ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/622 )।
द्रव्यसंग्रह/38/158 सुहअसुहभावजुत्ता पुण्णं पावं हवंति खलु जीवा। = शुभ परिणामों से युक्त जीव पुण्य रूप होता है।
- पुण्य व पाप में अन्तरंग की प्रधानता
आप्तमीमांसा/92-95 पापं ध्रुवं परे दुःखात् पुण्यं च सुखतो यदि। अचेतनाकषायौ च बध्येयातां निमित्ततः। 9॥ पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात्पापं च सुखतो यदि। वीतरागी मुनिर्विद्वांस्ताभ्यां युञ्ज्यान्निमित्ततः। 93। विरोधा नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषां। अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते। 94। विशुद्धिसंक्लेशाङ्गं चेत्, स्वपरस्थं सुखासुखम्। पुण्यपापास्रवौ युक्तौ न चेद्वयर्थस्तवार्हतः। 95। = यदि पर को दुख उपजाने से पाप और पर को सुख उपजाने से पुण्य होने का नियम हुआ होता तो कंटक आदि अचेतन पदार्थों को पाप और दूध आदि अचेतन पदार्थों को पुण्य हो जाता। और वीतरागी मुनि (ईर्यासमिति पूर्वक गमन करते हुए कदाचित् क्षुद्र जीवों के वध का कारण हो जाने से बन्ध को प्राप्त हो जाते। 92। यदि स्वयं अपने को ही दुःख या सुख उपजाने से पाप-पुण्य होने का नियम हुआ होता तो वीतरागी मुनि तथा विद्वान्जन भी बन्ध के पात्र हो जाते; क्योंकि, उनको भी उस प्रकार का निमित्तपना होता है। 93। इसलिए ऐसा मानना ही योग्य है कि स्व व पर दोनों को सुख या दुख में निमित्त होने के कारण, विशुद्धि व संक्लेश परिणाम उनके कारण तथा उनके कार्य ये सब मिलकर ही पुण्य व पाप के आस्रव होते हुए पराश्रित पुण्य व पापरूप एकान्त का निषेध करते हैं। 94। यदि विशुद्धि व संक्लेश दोनों ही स्व व पर को सुख व दुःख के कारण न हों तो आपके मत में पुण्य या पाप कहना ही व्यर्थ है। 95।
बोधपाहुड़/ पं. जयचन्द/60/152/25 केवलबाह्यसामायिकादि निरारम्भ कार्य का भेष धारि बैठे तो किछु विशिष्ट पुण्य है नाहीं। शरीरादिक बाह्य वस्तु तौ जड़ है। केवल जड़ की क्रिया फल तौ आत्मा को लागै नाहीं। ...विशिष्ट पुण्य तौ भावनिकै अनुसार है। ...अतः पुण्य-पाप के बन्ध में शुभाशुभ भाव ही प्रधान है।
- पुण्य (शुभ नामकर्म) के बन्ध योग्य परिणाम
पंचास्तिकाय/135 रागो जस्स पसत्थो अणुकंपासंसिदो य परिणामो। चित्तम्हि णत्थि कलुसं पुण्णं जीवस्स आसवदि। 135। = जिस जीव को प्रशस्त राग है, अनुकम्पायुक्त परिणाम है, और चित्त में कलुषता का अभाव है उस जीव को पुण्य-आस्रव होता है।
मू.आ./मू./235 पुण्णस्सासवभूदा अणुकंपा सुद्ध एव उवओगा। = जीवों पर दया, शुद्ध मन-वचन-काय की क्रिया तथा शुद्ध दर्शन-ज्ञानरूप उपयोग ये पुण्यकर्म के आस्रव के कारण हैं। ( कषायपाहुड़ 1/1,1/ गा. 2/105)
तत्त्वार्थसूत्र/6/23 तद्विपरीतं शुभस्य। 23।
सर्वार्थसिद्धि/6/23/337/9 कायवाङ्मनसामृजुत्वमविसंवादनं च तद्विपरीतम्। ‘च’ शब्देन समुच्चितस्य च विपरीते ग्राह्यम्। धार्मिकदर्शन-संभ्रमसद्भावोपनयनसंसरणाभरुताप्रमादवर्जनादिः। तदेतच्छुभ-नामकर्मास्रवकारणं वेदितव्यम्। = काय, वचन और मन की सरलता तथा अविसंवाद ये उस (अशुभ) से विपरीत हैं। उसी प्रकार पूर्व सूत्र की व्याख्या करते हुए च शब्द से जिनका समुच्चय किया गया है, उनके विपरीत आस्रवों का ग्रहण करना चाहिए। जैसे - धार्मिक पुरुषों व स्थानों का दर्शन करना, आदर सत्कार करना, सद्भाव रखना, उपनयन, संसार से डरना, और प्रमाद का त्याग करना आदि। ये सब शुभ नामकर्म के आस्रव के कारण हैं। ( राजवार्तिक/6/23/1/528/28 ); ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड/808/984 ); ( तत्त्वसार/4/48 )।
तत्त्वसार/4/59 व्रतात्किलास्रवेत्पुण्यं। = व्रत से पुण्यकर्म का आस्रव होता है।
यो.सा./अ./4/37 अर्हदादौ परा भक्तिः कारुण्यं सर्वजन्तुषु। पावने चरणे रागः पुण्यबन्धनिबन्धनम्। 37। = अर्हन्त आदि पाँचों परमेष्ठियों में भक्ति, समस्त जीवों पर करुणा और पवित्रचारित्र में प्रीति करने से पुण्य बन्ध होता है।
ज्ञानार्णव/2/7/3-7 यमप्रशमनिर्वेदतत्त्वचिन्तावलम्बितम्। मैत्र्यादिभावनारूढं मनः सूते शुभास्रवम्। 2। विश्वव्यापारनिर्मुक्तं श्रुतज्ञानावलम्बितम्। शुभास्रवाय विज्ञेयं वचः सत्यं प्रतिष्ठितम्। 5। सुगुप्तेन सुकायेन कायोत्सर्गेन वानिशम्। संचिनाति शुभं कर्म काययोगेन संयमी। 7। = यम (व्रत), प्रशम, निर्वेद तथा तत्त्वों का चिन्तवन इत्यादि का अवलम्बन हो, एवम् मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ इन चार भावनाओं की जिसके मन में भावना हो, वही मन शुभास्रव उत्पन्न करता है। 3। समस्त विश्व के व्यापारों से रहित तथा श्रुतज्ञान के अवलम्बनयुक्त और सत्यरूप पारिणामिक वचन शुभास्रव के लिए होते हैं। 5। भले प्रकार गुप्तरूप किये हुए अर्थात् अपने वशीभूत किये हुए काय से तथा निरन्तर कायोत्सर्ग से संयमी मुनि शुभ कर्म को संचय करते हैं।
- भाव पुण्य का लक्षण
पुराणकोष से
(1) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्-चारित्र से, अणुव्रतों और महाव्रतों के पालन से, कषाय, इन्द्रिय और योगों के निग्रह से तथा नियम, दान, पूजन, अर्हद्भक्ति, गुरुभक्ति, ध्यान, धर्मोपदेश, संयम, सत्य, शौच, त्याग, क्षमा आदि से उत्पन्न शुभ परिणाम । सुन्दर स्त्री, कामदेव के समान सुन्दर शरीर, शुभ वचन, करुणा से व्याप्त मन, रूप लावण्य सम्पदा, अन्यान्य दुर्लभ वस्तुओं की प्राप्ति, सर्वज्ञ का वैभव, इन्द्र पद और चक्रवर्ती की सम्पदाएं इसी से प्राप्त होती है । इसके अभाव में विद्याएँ भी साथ छोड़ देती है । कोई विद्या भी सहयोग नहीं कर पाती । महापुराण 5.95,100, 16.271, 28. 219, 37.191-199, वीरवर्द्धमान चरित्र 17.24-26, 35-41
(2) भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 24.42, 25.135