भाव: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.1" id="1.1.1"> निरुक्ति अर्थ</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1.1" id="1.1.1"> निरुक्ति अर्थ</strong> <br /> | ||
</span> | </span> राजवार्तिक/1/5/28/9 <span class="SanskritText">भवनं भवतोति वा भावः।</span> = <span class="HindiText">होना मात्र या जो होता है सो भाव है। </span><br /> | ||
धवला 5/1,7,1/184/10 <span class="SanskritText">भवनं भावः, भूतिर्वा भाव इति भावसद्दस्स विउप्पति। = ‘भवनं भावः’</span> <span class="HindiText">अथवा</span> <span class="SanskritText">‘भूतिर्वा भावः’</span><span class="HindiText"> इस प्रकार भाव शब्द की व्युत्पत्ति है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong> <a name="1.1.2" id="1.1.2"></a>गुणपर्याय के अर्थ में</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="1.1.2" id="1.1.2"></a>गुणपर्याय के अर्थ में</strong> </span><br /> | ||
सिद्धि विनिश्चय/ टी./4/19/298/19 <span class="SanskritText">सहकारिसंनिधौ च स्वतः कथंचित्प्रवृत्तिरेव भावलक्षणम्।</span> = <span class="HindiText">विसदृश कार्य की उत्पत्ति में जो सहकारिकारण होता है, उसकी सन्निधि में स्वतः ही द्रव्य कथंचित् उत्तराकाररूप से जो परिणमन करता है, वही भाव का लक्षण है।</span><br /> | |||
धवला 1/1,8/ गा.103/159<span class="PrakritText"> भावो खलु परिणामो।</span> = <span class="HindiText">पदार्थों के परिणाम को भाव कहते हैं। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध 26 )।</span><br /> | |||
धवला 1/1,1,7/156/6 <span class="PrakritText">कम्म–कम्मोदय-परूवणाहि विणा ... छ–वट्टि-हाणि-ट्ठिय-भावसंखमंतरेण भाववण्णणाणुववत्तीदो वा।</span> = <span class="HindiText">कर्म और कर्मोदय के निरूपण के बिना ... अथवा षट्गुण हानि व वृद्धि में स्थित भाव की संख्या के बिना भाव-प्ररूपणा का वर्णन नहीं हो सकता।</span><br /> | |||
धवला 5/1,7,1/187/9 <span class="PrakritText"> भावो णाम दव्वपरिणामो। </span>= <span class="HindiText">द्रव्य के परिणाम को भाव कहते हैं। अथवा पूर्वापर कोटि से व्यतिरिक्त वर्तमान पर्याय से उपलक्षित द्रव्य को भाव कहते हैं। (देखें [[ निक्षेप#7.1 | निक्षेप - 7.1]]) ( धवला 9/4,1,3/43/5 )।</span><br /> | |||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/129 <span class="SanskritText">परिणाममात्रलक्षणो भावः। </span>= <span class="HindiText">भाव का लक्षण परिणाम मात्र है। ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/129/187/9 )। </span><br /> | |||
तत्त्वानुशासन/100 ... <span class="SanskritText">भावः स्याद्गुण-पर्ययौ।100। </span>= <span class="HindiText">गुण तथा पर्याय दोनों भावरूप हैं। </span><br /> | |||
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 165/391/6 <span class="SanskritText">भावः चित्परिणाम:।</span> = <span class="HindiText">चेतन के परिणाम को भाव कहते हैं। </span><br /> | |||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/279,479 <span class="SanskritGatha">भाव: परिणाम: किल स चैव तत्त्वस्वरूपनिष्पत्ति:। अथवा शक्तिसमूहो यदि वा सर्वस्वसारः स्यात्।279। भाव: परिणाममय: शक्तिविशेषोऽथवा स्वभावः स्यात्। प्रकृति: स्वरूपमात्रं लक्षणमिह गुणश्च धर्मश्च।479।</span> = <span class="HindiText">निश्चय से परिणाम भाव है, और वह तत्त्व के स्वरूप की प्राप्ति ही पड़ता है। अथवा गुणसमुदाय का नाम भाव है अथवा सम्पूर्ण द्रव्य के निजसार का नाम भाव है।279। भाव परिणाममय होता है अथवा शक्ति विशेष स्वभाव प्रकृति स्वरूपमात्र आत्मभूत लक्षण गुण और धर्म भी भाव कहलाता है।479।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.3" id="1.1.3"> कर्मोदय सापेक्ष जीव परिणाम के अर्थ में</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1.3" id="1.1.3"> कर्मोदय सापेक्ष जीव परिणाम के अर्थ में</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/8/29/8 <span class="SanskritText"> भावः औपशमिकादिलक्षणः।</span> =<span class="HindiText"> भाव से औपशमिकादि भावों का ग्रहण किया गया है। ( राजवार्तिक/1/8/9/42/17 )। </span><br /> | |||
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/150 <span class="SanskritText">भावः खल्वत्रविवक्षितः कर्मावृतचैतन्यस्य क्रमप्रवर्तमानज्ञप्तिक्रियारूपः।</span> = <span class="HindiText">यहाँ जो भाव विवक्षित है वह कर्मावृत चैतन्य की क्रमानुसार प्रवर्तती ज्ञप्तिक्रियारूप है। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="1.1.4" id="1.1.4"><strong> चित्तविकार के अर्थ में</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.1.4" id="1.1.4"><strong> चित्तविकार के अर्थ में</strong> </span><br /> | ||
परमात्मप्रकाश टीका/1/121/111/8 <span class="SanskritText">भावश्चित्तोत्थ उच्यते। </span>= <span class="HindiText">भाव अर्थात् चित्त का विकार।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="1.1.5" id="1.1.5"><strong> शुद्ध भाव के अर्थ में</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.1.5" id="1.1.5"><strong> शुद्ध भाव के अर्थ में</strong> </span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/36/150/13 <span class="SanskritText">निर्विकारपरमचैतन्यचिच्चमत्कारानुभूतिसंजातसहजानन्दस्वभावसुखामृतरसास्वादरूपो भाव इत्याध्याहारः। </span>= <span class="HindiText">निर्विकार परम चैतन्य चित् चमत्कार के अनुभव से उत्पन्न सहजआनन्द स्वभाव सुखामृत के आस्वादरूप, यह भाव शब्द का अध्याहार किया गया है। </span><br /> | |||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/115/161/14 <span class="SanskritText">शुद्धचैतन्यं भावः।</span> = <span class="HindiText">शुद्ध चैतन्य शुद्ध भाव है। </span><br /> | |||
भावपाहुड़ टीका/66/210/18 <span class="SanskritText"> भाव आत्मरूचिः जिनसम्यक्त्वकारणभूतो हेतुभूतः </span>= <span class="HindiText">आत्मा की रुचि का नाम भाव है, जो कि सम्यक्त्व का कारण है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="1.1.6" id="1.1.6"><strong> नव पदार्थ के अर्थ में</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.1.6" id="1.1.6"><strong> नव पदार्थ के अर्थ में</strong> </span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/107 <span class="SanskritText">भावाः खलु कालकलितपञ्चास्तिकायविकल्परूपा नव पदार्था:।</span> = <span class="HindiText">कालसहित पंचास्तिकाय के भेदरूप नवपदार्थ वे वास्तव में भाव हैं। </span></li> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.1" id="1.2.1"> भाव सामान्य के भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2.1" id="1.2.1"> भाव सामान्य के भेद</strong> </span><br /> | ||
राजवार्तिक/5/22/21/481/19 <span class="SanskritText">द्रव्यस्य हि भावो द्विविधः परिस्पन्दात्मकः, अपरिस्पन्दात्मकश्च।</span> =<span class="HindiText"> द्रव्य का भाव दो प्रकार का है–परिस्पन्दात्मक और अपरिस्पन्दात्मक। ( राजवार्तिक/6/6/8/515/15 )।<br> राजवार्तिक हिं./4 चूलिका./पृ. 398 ऐसे भाव छह प्रकार का है। जन्म-अस्तित्व–निर्वृत्ति-वृद्धि-अपक्षय और विनाश। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.2" id="1.2.2"> निक्षेपों की अपेक्षा</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2.2" id="1.2.2"> निक्षेपों की अपेक्षा</strong> <br /> | ||
<strong>नोट</strong>–नाम स्थापनादि भेद–देखें [[ निक्षेप#1.2 | निक्षेप - 1.2]]</span><br /> | <strong>नोट</strong>–नाम स्थापनादि भेद–देखें [[ निक्षेप#1.2 | निक्षेप - 1.2]]</span><br /> | ||
धवला 5/1,7,1/184/7 <span class="PrakritText">तव्वदिरित्त णोआगमदव्वभावो तिविहो सचित्ताचित्त-मिस्सभेएण।... णोआगमभावभावो पंचविहं </span>= <span class="HindiText">नो आगमद्रव्य भावनिक्षेप, सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार का है।... नो आगम भावनिक्षेप पाँच प्रकार है। (देखें [[ अगला शीर्षक ]])।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.3" id="1.2.3"> काल की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2.3" id="1.2.3"> काल की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
धवला 5/1,7,1,/188/4 <span class="PrakritText">अणादिओ अपज्जवसिदो जहा-अभव्वाणमसिद्धदा, धम्मत्थिअस्स गमणहेदुत्तं, अधम्मत्थिअस्सठिदिहेउत्तं, आगासस्स ओगाहणलक्खणत्तं, कालदव्वस्स परिणामहेदुत्तमिच्चादि। अणादिओ सपज्जवसिदो जहा–भव्वस्स असिद्धदा भव्वत्तं मिच्छत्तमसंजदो इच्चादि। सादिओ अपज्जवसिदो जहा–केवलणाणं केवलदंसणमिच्चादि। सादिओसपज्जवसिदो जहा–सम्मत्तसंजमपच्छायदाण मिच्छत्तासंजमा इच्चादि </span> = | |||
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<li class="HindiText"> भाव अनादि निधन है। जैसे–अभव्य जीवों के असिद्धता, धर्मास्तिकाय के गमनहेतुतता, अधर्मास्तिकाय के स्थितिहेतुता, आकाश द्रव्य के अवगाहना स्वरूपता, और काल के परिणमन हेतुता आदि। </li> | <li class="HindiText"> भाव अनादि निधन है। जैसे–अभव्य जीवों के असिद्धता, धर्मास्तिकाय के गमनहेतुतता, अधर्मास्तिकाय के स्थितिहेतुता, आकाश द्रव्य के अवगाहना स्वरूपता, और काल के परिणमन हेतुता आदि। </li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.4" id="1.2.4"> जीव भाव की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2.4" id="1.2.4"> जीव भाव की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
पंचास्तिकाय 56 <span class="PrakritText">उदयेण उवसमेण य खयेण दुहिं मिस्सिदेहिं परिणामे जुत्ताते जीवगुणा...।56।</span> = <span class="HindiText">उदय से, उपशम से, क्षय से, क्षायोपशम से और परिणाम से युक्त ऐसे (पाँच) जीवगुण (जीव के परिणाम) हैं। ( तत्त्वार्थसूत्र/2/1 ) ( धवला 5/1,7,1/ गा.5) 187) ( धवला 5/1,7,1/184 )/13;188/9) ( तत्त्वसार/2/3 ) ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड/813/987 ) ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/965-966 )।</span><br /> | |||
राजवार्तिक/2/7/21/114/1 <span class="SanskritText">आर्षे सांनिपातिकभाव उक्तः। </span>= <span class="HindiText">आर्ष में एक सान्निपातिक भाव भी कहा गया है। </span></li> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> स्व-पर भाव का लक्षण</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> स्व-पर भाव का लक्षण</strong> <br /> | ||
राजवार्तिक/ हिं./9/7/672 मिथ्यादर्शनादिक अपने भाव (पर्याय) सो स्वभाव है। ज्ञानावरणादि कर्म का रस सो परभाव है।</li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4">निक्षेपरूप भेदों के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4">निक्षेपरूप भेदों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
धवला 5/1,7,1/184/8 <span class="PrakritText"> तत्थ सचित्तो जीवदव्वं। अचित्तो पोग्गल-धम्मा-धम्म-कालागासदव्वाणि। पोग्गल-जीव दव्वाणं संजोगो कधंचिज्जच्चंतरत्तमावण्णो णोआगममिस्सदव्वभावो णाम।</span> = <span class="HindiText">जीव द्रव्य सचित्त भाव है। पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल और आकाश द्रव्य अचित्तभाव है। कथंचित् जात्यन्तर भाव को प्राप्त पुद्गल और जीव द्रव्यों का संयोग नोआगममिश्रद्रव्य भावनिक्षेप है।</span></li> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> द्रव्य को ही भाव कैसे कह सकते हैं ?</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> द्रव्य को ही भाव कैसे कह सकते हैं ?</strong></span><br /> | ||
धवला 5/1,7,1/184/10 <span class="PrakritText">कधं दव्वस्स भावव्ववएसो। ण, भवनं भावः, भूतिर्वा भाव इति भावसद्दस्स विउप्पत्ति अवलंबणादो।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–द्रव्य के ‘भाव’ ऐसा व्यपदेश कैसे हो सकता है। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, ‘भवनं भावः’ अथवा ‘भूतिर्वा भावः’ इस प्रकार भाव शब्द की व्युत्पत्ति के अवलम्बन से द्रव्य के भी ‘भाव’ ऐसा व्यपदेश बन जाता है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> भावों का आधार क्या है ?</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> भावों का आधार क्या है ?</strong> </span><br /> | ||
धवला 5/1,7/1/188/4 <span class="PrakritText">कत्थ भावो, दव्वम्हि चेव, गुणिव्वदिरेगेण गुणाणमसंभवा।</span> =<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न</strong>–भाव कहाँ पर होता है, अर्थात् भाव का अधिकरण क्या है। <strong>उत्तर</strong>–भाव द्रव्य में ही होता है, क्योंकि गुणी के बिना गुणों का रहना असम्भव है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> पंचभाव कथंचित् जीव के स्वतत्त्व हैं </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> पंचभाव कथंचित् जीव के स्वतत्त्व हैं </strong> </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/2/1 <span class="SanskritText">जीवस्य स्वतत्त्वम्।1। (स्वो भावोऽसाधारणो धर्मः राजवार्तिक )।</span> = <span class="HindiText">ये पाँचों भाव जीव के स्वतत्त्व है। (स्वभाव) अर्थात् जीव के असाधारण धर्म (गुण) हैं। ( तत्त्वसार/2/2 )। </span><br /> | |||
राजवार्तिक/1/2/10/20/2 <span class="SanskritText">स्यादेतत्–सम्यक्त्वकर्मपुद्गलाभिधायित्वेऽप्यदोष इति; तन्न; किं कारणम्। मोक्षकारणत्वेन स्वपरिणामस्य विवक्षितत्वात्। औपशमिकादिसम्यग्दर्शनमात्मपरिणामत्वात् मोक्षकारणत्वेन विवक्ष्यते न च सम्यक्त्वकर्मपर्यायः, पौद्गलिकत्वेऽस्य परपर्यायत्वात्।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–सम्यक्त्व नाम की कर्मप्रकृति का निर्देश होने के कारण सम्यक्त्व नाम का गुण भी कर्म पुद्गलरूप हो जावे। इसमें कोई दोष नहीं है। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, अपने आत्मा के परिणाम ही मोक्ष के कारणरूप से विवक्षित किये गये हैं। औपशमिकादि सम्यग्दर्शन भी सीधे आत्मपरिणामस्वरूप होने से ही मोक्ष के कारणरूप से विवक्षित किये गये हैं, सम्यक्त्व नाम की कर्म पर्याय नहीं, क्योंकि वह तो पौद्गलिक है।</span><br /> | |||
पंचास्तिकाय/56 ... <span class="PrakritText">ते जीवगुणा बहुसु य अत्थेसु विच्छिण्णा।56।</span> = <span class="HindiText">ऐसे (पाँच) जीवगुण (जीव के भाव) हैं। उनका अनेक प्रकार से कथन किया गया है। ( धवला 1/1,1,/8/60/7 )।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> सभी भाव कथंचित् पारिणामिक हैं</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> सभी भाव कथंचित् पारिणामिक हैं</strong> <br /> | ||
देखें [[ सासादन#1.6 | सासादन - 1.6 ]]सभी भावों के पारिणामिकपने का प्रसंग आता है तो आने दो, कोई दोष नहीं है।</span><br /> | देखें [[ सासादन#1.6 | सासादन - 1.6 ]]सभी भावों के पारिणामिकपने का प्रसंग आता है तो आने दो, कोई दोष नहीं है।</span><br /> | ||
धवला 5/1,8,1/242/9 <span class="PrakritText">केणप्पाबहुअं। पारिणामिएण भावेण।</span> = <span class="HindiText">अल्पबहुत्व पारिणामिक भाव से होता है।</span><br /> | |||
कषायपाहुड़ 1/1,13-14/284/319/6 <span class="PrakritText">ओदइएण भावेण कसाओ। एदं णेगमादिचउण्हं णयाणं। तिण्हं सद्दणयाणं पारिणामिएण भावेण कसाओ; कारणेण विणा कज्जुप्पत्तीदो।</span> = <span class="HindiText">कषाय औदयिक भाव से होती है। यह नैगमादि चार नयों की अपेक्षा समझना चाहिए। शब्दादि तीनों नयों की अपेक्षा तो कषाय पारिणामिक भाव से होती है, क्योंकि इन नयों की दृष्टि में कारण के बिना कार्यों की उत्पत्ति होती है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5">छहों द्रव्यों में पंचभावों का यथायोग्य सत्त्व</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5">छहों द्रव्यों में पंचभावों का यथायोग्य सत्त्व</strong> </span><br /> | ||
धवला 5/1,7,9/186/7 <span class="PrakritText">जीवेसु पंचभावाणमुवलंभा। ण च सेसदव्वेसु पंच भावा अत्थि, पोग्गलदव्वेसु ओदइयपारिणामियाणं दोण्हं चेव भावाणमुवलंभा, धम्माधम्मकालागासदव्वेसु एक्कस्स पारिणामियभावस्सेवुवलंभा। </span>= <span class="HindiText">जीवों में पाँचों भाव पाये जाते हैं किन्तु शेष द्रव्यों में तो पाँच भाव नहीं हैं, क्योंकि पुद्गल द्रव्यों में औदयिक और पारिणामिक, इन दोनों ही भावों की उपलब्धि होती है, और धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल द्रव्यों में केवल एक पारिणामिक भाव ही पाया जाता है। ( ज्ञानार्णव/6/41 )।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> पाँचों भावों की उत्पत्ति में निमित्त</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> पाँचों भावों की उत्पत्ति में निमित्त</strong> </span><br /> | ||
धवला 5/1,7,1/188/1 <span class="PrakritText">केण भावो। कम्माणमुदएण खयणखओवसमेण कम्माणमुवसमेण सभावदो वा। तत्थ जीवदव्वस्स भावा उत्तपंचकारणेहिंतो होंति। पोग्गलदव्वभावा पुण कम्मोदएण विस्ससादो वा उप्पज्जंति। सेसाणं चदुण्हं दव्वाणं भावा सहावदो उप्पज्जंति।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–भाव किससे होता है, अर्थात् भाव का साधन क्या है? <strong>उत्तर</strong>–भाव कर्म के उदय से, क्षय से, क्षायोपशम से, कर्मों के उपशम से, अथवा स्वभाव से होता है। उनमें से जीव द्रव्य के भाव उक्त पाँचों ही कारणों से होते हैं, किन्तु पुद्गल द्रव्य के भाव कर्मों के उदय से अथवा स्वभाव से उत्पन्न होते हैं। शेष चार द्रव्यों के भाव स्वभाव से ही उत्पन्न होते हैं।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7">पाँच भावों का कार्य व फल</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7">पाँच भावों का कार्य व फल</strong> </span><br /> | ||
समयसार व टी./171 <span class="PrakritGatha">जह्मा दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणोवि परिणमदि। अण्णत्तं णाणगुणो तेण दु सो बंधगो भणिदो।171।</span> <span class="SanskritText">स तु यथाख्यातचारित्रावस्थाया अधस्तादवश्यंभाविरागसद्भावात् बन्धहेतुरेव स्यात्।</span> = <span class="HindiText">क्योंकि ज्ञानगुण जघन्य ज्ञानगुण के कारण फिर से भी अन्यरूप से परिणमन करता है, इसलिए वह कर्मों का बन्धक कहा गया है।171। वह (ज्ञानगुण का जघन्य भाव से परिणमन) यथाख्यात चारित्र अवस्था से नीचे अवश्यम्भावी राग का सद्भाव होने से बन्ध का कारण ही है।</span><br> धवला 7/2,1,7/ गा.3/9 <span class="PrakritGatha">ओदइया बंधयरा उवसम-खय मिस्सया य मोक्खयरा। भावो दु पारिणामिओ करणोभयवज्जियो होहि।3।</span> = <span class="HindiText">औदयिक भाव बन्ध करने वाले हैं, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव मोक्ष के कारण हैं, तथा पारिणामिक भाव बन्ध और मोक्ष दोनों के कारण से रहित हैं।3।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8"> सारिणी में प्रयुक्त संकेत सूची</strong> </span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8"> सारिणी में प्रयुक्त संकेत सूची</strong> </span></li> | ||
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<ol start="9"> | <ol start="9"> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.9" id="2.9"> पंच भावों के स्वामित्व की ओघ प्ररूपणा</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.9" id="2.9"> पंच भावों के स्वामित्व की ओघ प्ररूपणा</strong> <br /> | ||
( | ( षट्खण्डागम 5/1,7/ सू.2-9/194-205); ( राजवार्तिक/9/1/12-24/588-590 ); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/11-14 )।</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.10" id="2.10"> पंच भावों के स्वामित्व की आदेश प्ररूपणा</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.10" id="2.10"> पंच भावों के स्वामित्व की आदेश प्ररूपणा</strong> <br /> | ||
( | ( षट्खण्डागम 5/1,7/ सू. 5-93/194-238); ( षट्खण्डागम 7/2,1/ सू.5-91/30-113); ( धवला 9/4,1,66/315-317 )। | ||
</span> | </span> | ||
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<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="726"> | <table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="726"> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="726" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण | <td width="726" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू.</strong> </span></p></td> | ||
<td width="726" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong> </span></p></td> | <td width="726" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong> </span></p></td> | ||
<td width="726" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong> </span></p></td> | <td width="726" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong> </span></p></td> | ||
Line 560: | Line 560: | ||
<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="726"> | <table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="726"> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="104" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण | <td width="104" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. </strong></span></p></td> | ||
<td width="149" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong></span></p></td> | <td width="149" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong></span></p></td> | ||
<td width="160" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong></span></p></td> | <td width="160" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong></span></p></td> | ||
Line 604: | Line 604: | ||
<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="726"> | <table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="726"> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="105" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण | <td width="105" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. </strong></span></p></td> | ||
<td width="147" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong></span></p></td> | <td width="147" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong></span></p></td> | ||
<td width="162" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong></span></p></td> | <td width="162" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong></span></p></td> | ||
Line 648: | Line 648: | ||
<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="726"> | <table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="726"> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="107" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण | <td width="107" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. </strong></span></p></td> | ||
<td width="145" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong></span></p></td> | <td width="145" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong></span></p></td> | ||
<td width="161" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong></span></p></td> | <td width="161" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong></span></p></td> | ||
Line 748: | Line 748: | ||
<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="726"> | <table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="726"> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="726" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण | <td width="726" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. </strong></span></p></td> | ||
<td width="726" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong></span></p></td> | <td width="726" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong></span></p></td> | ||
<td width="726" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong></span></p></td> | <td width="726" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong></span></p></td> | ||
Line 792: | Line 792: | ||
<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="726"> | <table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="726"> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="108" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण | <td width="108" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. </strong></span></p></td> | ||
<td width="141" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong></span></p></td> | <td width="141" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong></span></p></td> | ||
<td width="168" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong></span></p></td> | <td width="168" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong></span></p></td> | ||
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<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="726"> | <table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="726"> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="109" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण | <td width="109" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. </strong></span></p></td> | ||
<td width="141" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong></span></p></td> | <td width="141" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong></span></p></td> | ||
<td width="168" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong></span></p></td> | <td width="168" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong></span></p></td> | ||
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<tr> | <tr> | ||
<td width="110" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण | <td width="110" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. </strong></span></p></td> | ||
<td width="141" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong></span></p></td> | <td width="141" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong></span></p></td> | ||
<td width="168" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong></span></p></td> | <td width="168" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong></span></p></td> | ||
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<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="726"> | <table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="726"> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="110" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण | <td width="110" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. </strong></span></p></td> | ||
<td width="141" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong></span></p></td> | <td width="141" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong></span></p></td> | ||
<td width="169" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong></span></p></td> | <td width="169" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong></span></p></td> | ||
Line 1,059: | Line 1,059: | ||
<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="726"> | <table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="726"> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="111" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण | <td width="111" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. </strong></span></p></td> | ||
<td width="141" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong></span></p></td> | <td width="141" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong></span></p></td> | ||
<td width="170" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong></span></p></td> | <td width="170" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong></span></p></td> | ||
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<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="726"> | <table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="726"> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="111" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण | <td width="111" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. </strong></span></p></td> | ||
<td width="142" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong></span></p></td> | <td width="142" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong></span></p></td> | ||
<td width="171" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong></span></p></td> | <td width="171" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong></span></p></td> | ||
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<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="726"> | <table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="726"> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="112" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण | <td width="112" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. </strong></span></p></td> | ||
<td width="145" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong></span></p></td> | <td width="145" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong></span></p></td> | ||
<td width="170" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong></span></p></td> | <td width="170" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong></span></p></td> | ||
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<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="726"> | <table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="726"> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="109" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण | <td width="109" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. </strong></span></p></td> | ||
<td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong></span></p></td> | <td width="150" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong></span></p></td> | ||
<td width="169" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong></span></p></td> | <td width="169" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong></span></p></td> | ||
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<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="726"> | <table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="726"> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="112" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण | <td width="112" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. </strong></span></p></td> | ||
<td width="148" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong></span></p></td> | <td width="148" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>मार्गणा </strong></span></p></td> | ||
<td width="165" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong></span></p></td> | <td width="165" valign="top"><p><span class="HindiText"><strong>गुणस्थान </strong></span></p></td> | ||
Line 1,469: | Line 1,469: | ||
<ol start="11"> | <ol start="11"> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.11" id="2.11"> भावों के सत्त्व स्थानों की ओघ प्ररूपणा</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.11" id="2.11"> भावों के सत्त्व स्थानों की ओघ प्ररूपणा</strong> <br /> | ||
( | ( धवला 5/1,72/ गा.13-14/194); ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड/820/992 )<br /> | ||
<strong>नोट</strong>―औदयिकादि भावों के उत्तर भेद–देखें [[ वह वह नाम ]]। </span></li> | <strong>नोट</strong>―औदयिकादि भावों के उत्तर भेद–देखें [[ वह वह नाम ]]। </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 1,782: | Line 1,782: | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="42" valign="top"><p><span class="HindiText">3</span></p></td> | <td width="42" valign="top"><p><span class="HindiText">3</span></p></td> | ||
<td width="696" colspan="9" valign="top"><p><span class="HindiText">अध:कर्मादि षट्कर्म के स्वामी ( | <td width="696" colspan="9" valign="top"><p><span class="HindiText">अध:कर्मादि षट्कर्म के स्वामी ( धवला/ ) </span></p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
Line 1,831: | Line 1,831: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> आत्मा की भावाभाव आदि शक्तियों के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> आत्मा की भावाभाव आदि शक्तियों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
पंचास्तिकाय व त.प्र./21 <span class="PrakritGatha">एवं भावमभावं भावाभावं अभावभावं च। गुणपज्जयेहिं सहिदो संसारमाणो कुणदि जीवो।21।</span> ... <span class="SanskritText">जीवद्रव्यस्य ... तस्यैव देवादिपर्यायरूपेण प्रादुर्भवतो भावकर्तृत्वमुक्तं; तस्यैव च मनुष्यादिपर्यायरूपेण व्ययतोऽभावकर्तृत्वमाख्यातं; तस्यैव च सतो देवादिपर्यायस्योच्छेदमारभमाणस्य भावाभावकर्तृत्वमुदितं; तस्यैव चासतः पुनर्मनुष्यादिपर्यायस्योत्पादमारभमाणस्याभावभावकर्तृत्वमभिहितम्।</span> = <span class="HindiText">गुण पर्यायों सहित जीव भ्रमण करता हुआ भाव, अभाव, भावाभाव और अभावभाव को करता है।21। देवादि पर्याय रूप से उत्पन्न होता है इसलिए उसी को (जीव द्रव्य को ही) <strong>भाव</strong> का (उत्पाद का) कर्त्तृत्व कहा गया है। मनुष्यादि पर्याय रूप से नाश को प्राप्त होता है, इसलिए उसी को <strong>अभाव</strong> का (व्यय का) कर्त्तृत्व कहा गया है। सत् (विद्यमान) देवादि पर्याय का नाश करता है, इसलिए उसी को <strong>भावाभाव</strong> का (सत् के विनाश का) कर्तृत्व कहा गया है, और फिर से असत् (अविद्यमान) मनुष्यादि पर्याय का उत्पाद करता है इसलिए उसी को <strong>अभावभाव</strong> का (असत् के उत्पाद का) कर्तृत्व कहा गया है।</span><br /> | |||
समयसार / आत्मख्याति/ परि./शक्ति नं. 33-40 <span class="SanskritText">भूतावस्थत्वरूपा भावशक्तिः।33। शून्यावस्थत्वरूपा अभावशक्तिः।34। = भवत्पर्यायव्ययरूपा भावाभावशक्तिः।35। अभवत्पर्यायोदयरूपा अभावभावशक्तिः।36। भवत्यपर्यायभवनरूपा भावभावशक्तिः।37। अभवत्पर्यायाभवनरूपा अभावभावशक्तिः।38। कारकानुगतक्रियानिष्क्रान्तभवनमात्रमयी भावशक्ति:।39।</span> =<span class="HindiText"> विद्यमान-अवस्थायुक्ततारूप भावशक्ति। (अमुक अवस्था जिसमें विद्यमान हो उस रूप भावशक्ति)।33। शून्य (अविद्यमान) अवस्थायुक्तता रूप अभावशक्ति। (अमुक अवस्था जिसमें अविद्यमान हो उस रूप अभावशक्ति)।34। प्रवर्त्तमान पर्याय के व्ययरूप भावाभावशक्ति।35। अप्रवर्तमान पर्याय के उदय रूप अभावभावशक्ति।36। प्रवर्तमान पर्याय के भवनरूप भावभावशक्ति।37। अप्रवर्तमान पर्याय के अभवनरूप अभावभावशक्ति।38। (कर्ता कर्म आदि) कारकों के अनुसार जो क्रिया उससे रहित भवनमात्रमयी (होने मात्रमयी) भावशक्ति।39। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> भाववती शक्तिका लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> भाववती शक्तिका लक्षण</strong> </span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/129 <span class="SanskritText">तत्र परिणाममात्रलक्षणो भावः। </span>= <span class="HindiText">भाव का लक्षण परिणाम मात्र है। </span><br /> | |||
पंचाध्यायी x`/ पृ./134<span class="SanskritText"> भावः शक्तिविशेषस्तत्परिणामोऽथ वा निरंशांशैः।</span> = <span class="HindiText">शक्तिविशेष अर्थात् प्रदेशत्व से अतिरिक्त शेष गुणों को अथवा तरतम अंशरूप से होने वाले उन गुणों के परिणाम को भाव कहते हैं। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/26 )। </span></li> | |||
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Revision as of 19:13, 17 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
चेतन व अचेतन अभी द्रव्य के अनेकों स्वभाव हैं। वे सब उसके भाव कहलाते हैं। जीव द्रव्य की अपेक्षा उनके पाँच भाव हैं–औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक। कर्मों के उदय से होने वाले रागादि भाव औदयिक। उनके उपशम से होने वाले सम्यक्त्व व चारित्र औपशमिक हैं। उनके क्षय से होने वाले केवलज्ञानादि क्षायिक हैं। उनके क्षायोपशम से होने वाले मतिज्ञानादि क्षायोपशमिक हैं। और कर्मों के उदय आदि से निरपेक्ष चैतन्यत्व आदि भाव पारिणामिक हैं। एक जीव में एक समय में भिन्न-भिन्न गुणों की अपेक्षा भिन्न-भिन्न गुणस्थानों में यथायोग्य भाव पाये जाने सम्भव हैं, जिनके संयोगी भंगों को सान्निपातिक भाव कहते हैं। पुद्गल द्रव्य में औदयिक, क्षायिक व पारिणामिक ये तीन भाव तथा शेष चार द्रव्यों में केवल एक पारिणामिक भाव ही सम्भव है।
- भेद व लक्षण
- भाव सामान्य का लक्षण―
- निरुक्ति अर्थ
- गुणपर्याय के अर्थ में।
- भाव का अर्थ वर्तमान से अलक्षित द्रव्य–देखें निक्षेप - 7.1।
- कर्मोदय सापेक्ष जीव परिणाम के अर्थ में।
- चित्तविकार के अर्थ में।
- शुद्धभाव के अर्थ में।
- नवपदार्थ के अर्थ में।
- भावों के भेद-
- भाव सामान्य की अपेक्षा;
- निक्षेपों की अपेक्षा ;
- काल की अपेक्षा;
- जीवभाव की अपेक्षा।
- औपशमिक, क्षायिक, व औदयिक भाव निर्देश–देखें उपशम , क्षय, उदय।
- पारिणामिक, क्षायोपशमिक व सान्निपातिक भाव निर्देश–देखें वह वह नाम ।
- प्रतिबन्ध्य प्रतिबन्धक, सहानवस्था, बध्यघातक आदि भाव निर्देश।–देखें विरोध ।
- व्याप्य-व्यापक, निमित्त-नैमित्तिक, आधार-आधेय, भाव्य-भावक, ग्राह्य-ग्राहक, तादात्म्य, संश्लेष आदि भाव निर्देश–देखें संबंध ।
- शुद्ध-अशुद्ध व शुभादि भाव–देखें उपयोग - II
- भाव सामान्य की अपेक्षा;
- स्व-पर भाव का लक्षण।
- निक्षेपरूप भेदों के लक्षण।
- भाव सामान्य का लक्षण―
- काल व भाव में अन्तर–देखें चतुष्टय ।
- पंच भाव निर्देश
- द्रव्य को ही भाव कैसे कहते हैं ?
- भावों का आधार क्या है ?
- पंच भावों में कथंचित् आगम व अध्यात्म पद्धति–देखें पद्धति ।
- पंच भाव कथंचित् जीव के स्वतत्त्व हैं।
- सभी भाव कथंचित् पारिणामिक हैं।
- सामान्य गुण द्रव्य के पारिणामिक भाव हैं–देखें गुण - 2.11।
- छहों द्रव्यों में पंच भावों का यथायोग्य सत्त्व।
- पाँचों भावों की उत्पत्ति में निमित्त।
- पाँचों भावों का कार्य व फल।
- सारिणी में प्रयुक्त संकेत सूची।
- पंच भावों के स्वामित्व की ओघ प्ररूपणा।
- पंच भावों के स्वामित्व की आदेश प्ररूपणा।
- भावों के सत्त्व स्थानों की ओघ प्ररूपणा।
- अन्य विषयों सम्बन्धी सूची पत्र।
- द्रव्य को ही भाव कैसे कहते हैं ?
- भाव-अभाव शक्तियाँ
- भाव की अपेक्षा वस्तु में विधि निषेध–देखें सप्तभंगी - 5।
- जैनदर्शन में वस्तु के कथंचित् भावाभाव की सिद्धि–देखें उत्पाद व्यय ध्रौव्य - 2.7।
- आत्मा की भावाभाव आदि शक्तियों के लक्षण।
- भाववती शक्ति के लक्षण।
- भाववान् व क्रियावान् द्रव्यों का विभाग–देखें द्रव्य - 3.3।
- अभाव भी वस्तु का धर्म है–(देखें सप्तभंगी - 4)।
- भाव की अपेक्षा वस्तु में विधि निषेध–देखें सप्तभंगी - 5।
- भेद व लक्षण
- <a name="1.1" id="1.1"></a>भाव सामान्य का लक्षण
एक ग्रह है–देखें ग्रह । 1
- निरुक्ति अर्थ
राजवार्तिक/1/5/28/9 भवनं भवतोति वा भावः। = होना मात्र या जो होता है सो भाव है।
धवला 5/1,7,1/184/10 भवनं भावः, भूतिर्वा भाव इति भावसद्दस्स विउप्पति। = ‘भवनं भावः’ अथवा ‘भूतिर्वा भावः’ इस प्रकार भाव शब्द की व्युत्पत्ति है। - <a name="1.1.2" id="1.1.2"></a>गुणपर्याय के अर्थ में
सिद्धि विनिश्चय/ टी./4/19/298/19 सहकारिसंनिधौ च स्वतः कथंचित्प्रवृत्तिरेव भावलक्षणम्। = विसदृश कार्य की उत्पत्ति में जो सहकारिकारण होता है, उसकी सन्निधि में स्वतः ही द्रव्य कथंचित् उत्तराकाररूप से जो परिणमन करता है, वही भाव का लक्षण है।
धवला 1/1,8/ गा.103/159 भावो खलु परिणामो। = पदार्थों के परिणाम को भाव कहते हैं। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध 26 )।
धवला 1/1,1,7/156/6 कम्म–कम्मोदय-परूवणाहि विणा ... छ–वट्टि-हाणि-ट्ठिय-भावसंखमंतरेण भाववण्णणाणुववत्तीदो वा। = कर्म और कर्मोदय के निरूपण के बिना ... अथवा षट्गुण हानि व वृद्धि में स्थित भाव की संख्या के बिना भाव-प्ररूपणा का वर्णन नहीं हो सकता।
धवला 5/1,7,1/187/9 भावो णाम दव्वपरिणामो। = द्रव्य के परिणाम को भाव कहते हैं। अथवा पूर्वापर कोटि से व्यतिरिक्त वर्तमान पर्याय से उपलक्षित द्रव्य को भाव कहते हैं। (देखें निक्षेप - 7.1) ( धवला 9/4,1,3/43/5 )।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/129 परिणाममात्रलक्षणो भावः। = भाव का लक्षण परिणाम मात्र है। ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/129/187/9 )।
तत्त्वानुशासन/100 ... भावः स्याद्गुण-पर्ययौ।100। = गुण तथा पर्याय दोनों भावरूप हैं।
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका 165/391/6 भावः चित्परिणाम:। = चेतन के परिणाम को भाव कहते हैं।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/279,479 भाव: परिणाम: किल स चैव तत्त्वस्वरूपनिष्पत्ति:। अथवा शक्तिसमूहो यदि वा सर्वस्वसारः स्यात्।279। भाव: परिणाममय: शक्तिविशेषोऽथवा स्वभावः स्यात्। प्रकृति: स्वरूपमात्रं लक्षणमिह गुणश्च धर्मश्च।479। = निश्चय से परिणाम भाव है, और वह तत्त्व के स्वरूप की प्राप्ति ही पड़ता है। अथवा गुणसमुदाय का नाम भाव है अथवा सम्पूर्ण द्रव्य के निजसार का नाम भाव है।279। भाव परिणाममय होता है अथवा शक्ति विशेष स्वभाव प्रकृति स्वरूपमात्र आत्मभूत लक्षण गुण और धर्म भी भाव कहलाता है।479।
- कर्मोदय सापेक्ष जीव परिणाम के अर्थ में
सर्वार्थसिद्धि/1/8/29/8 भावः औपशमिकादिलक्षणः। = भाव से औपशमिकादि भावों का ग्रहण किया गया है। ( राजवार्तिक/1/8/9/42/17 )।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/150 भावः खल्वत्रविवक्षितः कर्मावृतचैतन्यस्य क्रमप्रवर्तमानज्ञप्तिक्रियारूपः। = यहाँ जो भाव विवक्षित है वह कर्मावृत चैतन्य की क्रमानुसार प्रवर्तती ज्ञप्तिक्रियारूप है। - चित्तविकार के अर्थ में
परमात्मप्रकाश टीका/1/121/111/8 भावश्चित्तोत्थ उच्यते। = भाव अर्थात् चित्त का विकार। - शुद्ध भाव के अर्थ में
द्रव्यसंग्रह टीका/36/150/13 निर्विकारपरमचैतन्यचिच्चमत्कारानुभूतिसंजातसहजानन्दस्वभावसुखामृतरसास्वादरूपो भाव इत्याध्याहारः। = निर्विकार परम चैतन्य चित् चमत्कार के अनुभव से उत्पन्न सहजआनन्द स्वभाव सुखामृत के आस्वादरूप, यह भाव शब्द का अध्याहार किया गया है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/115/161/14 शुद्धचैतन्यं भावः। = शुद्ध चैतन्य शुद्ध भाव है।
भावपाहुड़ टीका/66/210/18 भाव आत्मरूचिः जिनसम्यक्त्वकारणभूतो हेतुभूतः = आत्मा की रुचि का नाम भाव है, जो कि सम्यक्त्व का कारण है। - नव पदार्थ के अर्थ में
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/107 भावाः खलु कालकलितपञ्चास्तिकायविकल्परूपा नव पदार्था:। = कालसहित पंचास्तिकाय के भेदरूप नवपदार्थ वे वास्तव में भाव हैं।
- निरुक्ति अर्थ
- भावों के भेद
- भाव सामान्य के भेद
राजवार्तिक/5/22/21/481/19 द्रव्यस्य हि भावो द्विविधः परिस्पन्दात्मकः, अपरिस्पन्दात्मकश्च। = द्रव्य का भाव दो प्रकार का है–परिस्पन्दात्मक और अपरिस्पन्दात्मक। ( राजवार्तिक/6/6/8/515/15 )।
राजवार्तिक हिं./4 चूलिका./पृ. 398 ऐसे भाव छह प्रकार का है। जन्म-अस्तित्व–निर्वृत्ति-वृद्धि-अपक्षय और विनाश। - निक्षेपों की अपेक्षा
नोट–नाम स्थापनादि भेद–देखें निक्षेप - 1.2
धवला 5/1,7,1/184/7 तव्वदिरित्त णोआगमदव्वभावो तिविहो सचित्ताचित्त-मिस्सभेएण।... णोआगमभावभावो पंचविहं = नो आगमद्रव्य भावनिक्षेप, सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार का है।... नो आगम भावनिक्षेप पाँच प्रकार है। (देखें अगला शीर्षक )। - काल की अपेक्षा
धवला 5/1,7,1,/188/4 अणादिओ अपज्जवसिदो जहा-अभव्वाणमसिद्धदा, धम्मत्थिअस्स गमणहेदुत्तं, अधम्मत्थिअस्सठिदिहेउत्तं, आगासस्स ओगाहणलक्खणत्तं, कालदव्वस्स परिणामहेदुत्तमिच्चादि। अणादिओ सपज्जवसिदो जहा–भव्वस्स असिद्धदा भव्वत्तं मिच्छत्तमसंजदो इच्चादि। सादिओ अपज्जवसिदो जहा–केवलणाणं केवलदंसणमिच्चादि। सादिओसपज्जवसिदो जहा–सम्मत्तसंजमपच्छायदाण मिच्छत्तासंजमा इच्चादि =- भाव अनादि निधन है। जैसे–अभव्य जीवों के असिद्धता, धर्मास्तिकाय के गमनहेतुतता, अधर्मास्तिकाय के स्थितिहेतुता, आकाश द्रव्य के अवगाहना स्वरूपता, और काल के परिणमन हेतुता आदि।
- अनादि-सान्तभाव जैसे–भव्य जीव की असिद्धता, भव्यत्व, मिथ्यात्व, असंयम इत्यादि।
- सादि अनन्तभाव–जैसे–केवलज्ञान, केवलदर्शन इत्यादि।
- सादि-सान्त भाव, जैसे सम्यक्त्व और संयम धारण कर पीछे आये हुए जीवों के मिथ्यात्व असंयम आदि।
- जीव भाव की अपेक्षा
पंचास्तिकाय 56 उदयेण उवसमेण य खयेण दुहिं मिस्सिदेहिं परिणामे जुत्ताते जीवगुणा...।56। = उदय से, उपशम से, क्षय से, क्षायोपशम से और परिणाम से युक्त ऐसे (पाँच) जीवगुण (जीव के परिणाम) हैं। ( तत्त्वार्थसूत्र/2/1 ) ( धवला 5/1,7,1/ गा.5) 187) ( धवला 5/1,7,1/184 )/13;188/9) ( तत्त्वसार/2/3 ) ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड/813/987 ) ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/965-966 )।
राजवार्तिक/2/7/21/114/1 आर्षे सांनिपातिकभाव उक्तः। = आर्ष में एक सान्निपातिक भाव भी कहा गया है।
- भाव सामान्य के भेद
- स्व-पर भाव का लक्षण
राजवार्तिक/ हिं./9/7/672 मिथ्यादर्शनादिक अपने भाव (पर्याय) सो स्वभाव है। ज्ञानावरणादि कर्म का रस सो परभाव है। - निक्षेपरूप भेदों के लक्षण
धवला 5/1,7,1/184/8 तत्थ सचित्तो जीवदव्वं। अचित्तो पोग्गल-धम्मा-धम्म-कालागासदव्वाणि। पोग्गल-जीव दव्वाणं संजोगो कधंचिज्जच्चंतरत्तमावण्णो णोआगममिस्सदव्वभावो णाम। = जीव द्रव्य सचित्त भाव है। पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल और आकाश द्रव्य अचित्तभाव है। कथंचित् जात्यन्तर भाव को प्राप्त पुद्गल और जीव द्रव्यों का संयोग नोआगममिश्रद्रव्य भावनिक्षेप है।
- <a name="1.1" id="1.1"></a>भाव सामान्य का लक्षण
- पंचभाव निर्देश
- द्रव्य को ही भाव कैसे कह सकते हैं ?
धवला 5/1,7,1/184/10 कधं दव्वस्स भावव्ववएसो। ण, भवनं भावः, भूतिर्वा भाव इति भावसद्दस्स विउप्पत्ति अवलंबणादो। = प्रश्न–द्रव्य के ‘भाव’ ऐसा व्यपदेश कैसे हो सकता है। उत्तर–नहीं, क्योंकि, ‘भवनं भावः’ अथवा ‘भूतिर्वा भावः’ इस प्रकार भाव शब्द की व्युत्पत्ति के अवलम्बन से द्रव्य के भी ‘भाव’ ऐसा व्यपदेश बन जाता है। - भावों का आधार क्या है ?
धवला 5/1,7/1/188/4 कत्थ भावो, दव्वम्हि चेव, गुणिव्वदिरेगेण गुणाणमसंभवा। = प्रश्न–भाव कहाँ पर होता है, अर्थात् भाव का अधिकरण क्या है। उत्तर–भाव द्रव्य में ही होता है, क्योंकि गुणी के बिना गुणों का रहना असम्भव है। - पंचभाव कथंचित् जीव के स्वतत्त्व हैं
तत्त्वार्थसूत्र/2/1 जीवस्य स्वतत्त्वम्।1। (स्वो भावोऽसाधारणो धर्मः राजवार्तिक )। = ये पाँचों भाव जीव के स्वतत्त्व है। (स्वभाव) अर्थात् जीव के असाधारण धर्म (गुण) हैं। ( तत्त्वसार/2/2 )।
राजवार्तिक/1/2/10/20/2 स्यादेतत्–सम्यक्त्वकर्मपुद्गलाभिधायित्वेऽप्यदोष इति; तन्न; किं कारणम्। मोक्षकारणत्वेन स्वपरिणामस्य विवक्षितत्वात्। औपशमिकादिसम्यग्दर्शनमात्मपरिणामत्वात् मोक्षकारणत्वेन विवक्ष्यते न च सम्यक्त्वकर्मपर्यायः, पौद्गलिकत्वेऽस्य परपर्यायत्वात्। = प्रश्न–सम्यक्त्व नाम की कर्मप्रकृति का निर्देश होने के कारण सम्यक्त्व नाम का गुण भी कर्म पुद्गलरूप हो जावे। इसमें कोई दोष नहीं है। उत्तर–नहीं, क्योंकि, अपने आत्मा के परिणाम ही मोक्ष के कारणरूप से विवक्षित किये गये हैं। औपशमिकादि सम्यग्दर्शन भी सीधे आत्मपरिणामस्वरूप होने से ही मोक्ष के कारणरूप से विवक्षित किये गये हैं, सम्यक्त्व नाम की कर्म पर्याय नहीं, क्योंकि वह तो पौद्गलिक है।
पंचास्तिकाय/56 ... ते जीवगुणा बहुसु य अत्थेसु विच्छिण्णा।56। = ऐसे (पाँच) जीवगुण (जीव के भाव) हैं। उनका अनेक प्रकार से कथन किया गया है। ( धवला 1/1,1,/8/60/7 )। - सभी भाव कथंचित् पारिणामिक हैं
देखें सासादन - 1.6 सभी भावों के पारिणामिकपने का प्रसंग आता है तो आने दो, कोई दोष नहीं है।
धवला 5/1,8,1/242/9 केणप्पाबहुअं। पारिणामिएण भावेण। = अल्पबहुत्व पारिणामिक भाव से होता है।
कषायपाहुड़ 1/1,13-14/284/319/6 ओदइएण भावेण कसाओ। एदं णेगमादिचउण्हं णयाणं। तिण्हं सद्दणयाणं पारिणामिएण भावेण कसाओ; कारणेण विणा कज्जुप्पत्तीदो। = कषाय औदयिक भाव से होती है। यह नैगमादि चार नयों की अपेक्षा समझना चाहिए। शब्दादि तीनों नयों की अपेक्षा तो कषाय पारिणामिक भाव से होती है, क्योंकि इन नयों की दृष्टि में कारण के बिना कार्यों की उत्पत्ति होती है। - छहों द्रव्यों में पंचभावों का यथायोग्य सत्त्व
धवला 5/1,7,9/186/7 जीवेसु पंचभावाणमुवलंभा। ण च सेसदव्वेसु पंच भावा अत्थि, पोग्गलदव्वेसु ओदइयपारिणामियाणं दोण्हं चेव भावाणमुवलंभा, धम्माधम्मकालागासदव्वेसु एक्कस्स पारिणामियभावस्सेवुवलंभा। = जीवों में पाँचों भाव पाये जाते हैं किन्तु शेष द्रव्यों में तो पाँच भाव नहीं हैं, क्योंकि पुद्गल द्रव्यों में औदयिक और पारिणामिक, इन दोनों ही भावों की उपलब्धि होती है, और धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल द्रव्यों में केवल एक पारिणामिक भाव ही पाया जाता है। ( ज्ञानार्णव/6/41 )। - पाँचों भावों की उत्पत्ति में निमित्त
धवला 5/1,7,1/188/1 केण भावो। कम्माणमुदएण खयणखओवसमेण कम्माणमुवसमेण सभावदो वा। तत्थ जीवदव्वस्स भावा उत्तपंचकारणेहिंतो होंति। पोग्गलदव्वभावा पुण कम्मोदएण विस्ससादो वा उप्पज्जंति। सेसाणं चदुण्हं दव्वाणं भावा सहावदो उप्पज्जंति। = प्रश्न–भाव किससे होता है, अर्थात् भाव का साधन क्या है? उत्तर–भाव कर्म के उदय से, क्षय से, क्षायोपशम से, कर्मों के उपशम से, अथवा स्वभाव से होता है। उनमें से जीव द्रव्य के भाव उक्त पाँचों ही कारणों से होते हैं, किन्तु पुद्गल द्रव्य के भाव कर्मों के उदय से अथवा स्वभाव से उत्पन्न होते हैं। शेष चार द्रव्यों के भाव स्वभाव से ही उत्पन्न होते हैं। - पाँच भावों का कार्य व फल
समयसार व टी./171 जह्मा दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणोवि परिणमदि। अण्णत्तं णाणगुणो तेण दु सो बंधगो भणिदो।171। स तु यथाख्यातचारित्रावस्थाया अधस्तादवश्यंभाविरागसद्भावात् बन्धहेतुरेव स्यात्। = क्योंकि ज्ञानगुण जघन्य ज्ञानगुण के कारण फिर से भी अन्यरूप से परिणमन करता है, इसलिए वह कर्मों का बन्धक कहा गया है।171। वह (ज्ञानगुण का जघन्य भाव से परिणमन) यथाख्यात चारित्र अवस्था से नीचे अवश्यम्भावी राग का सद्भाव होने से बन्ध का कारण ही है।
धवला 7/2,1,7/ गा.3/9 ओदइया बंधयरा उवसम-खय मिस्सया य मोक्खयरा। भावो दु पारिणामिओ करणोभयवज्जियो होहि।3। = औदयिक भाव बन्ध करने वाले हैं, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव मोक्ष के कारण हैं, तथा पारिणामिक भाव बन्ध और मोक्ष दोनों के कारण से रहित हैं।3। - सारिणी में प्रयुक्त संकेत सूची
- द्रव्य को ही भाव कैसे कह सकते हैं ?
आ. |
आहारक |
प. |
पर्याप्त |
औद. |
औदयिक |
पारि. |
पारिणामिक |
औदा. |
औदारिक |
पु. |
पुरुष वेद |
औप. |
औपशमिक |
मनु. |
मनुष्य |
क्षायो. |
क्षायोपशमिक |
मि. |
मिश्र |
क्षा. |
क्षायिक |
वैक्रि. |
वैक्रियक |
नपुं. |
नपुंसक |
सम्य. |
सम्यक् |
पंचे. |
पंचेन्द्रिय |
सामा. |
सामान्य |
- पंच भावों के स्वामित्व की ओघ प्ररूपणा
( षट्खण्डागम 5/1,7/ सू.2-9/194-205); ( राजवार्तिक/9/1/12-24/588-590 ); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/11-14 )।
प्रमाण सू./पृ. |
मार्गणा |
मूलभाव |
अपेक्षा |
2/194 |
मिथ्यादृष्टि |
औदयिक |
मिथ्यात्व की मुख्यता |
3/196 |
सासादन |
पारिणामिक |
दर्शन मोह की मुख्यता |
4/198 |
मिश्र |
क्षायोपशमिक |
श्रद्धानांश की प्रगटता की अपेक्षा |
5/199 |
असंयत सम्य. |
औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक |
दर्शनमोह की मुख्यता |
6/201 |
असंयत सम्य. |
औदयिक |
असंयम (चारित्रमोह) की मुख्यता |
7/201 |
संयतासंयत |
क्षायोपशमिक |
चारित्र मोह (संयमासंयम) की मुख्यता |
8/204 |
प्रमत्त संयत |
क्षायोपशमिक |
चारित्रमोह (संयम) की मुख्यता |
8/204 |
अप्रमत्त संयत |
क्षायोपशमिक |
चारित्रमोह (संयम) की मुख्यता |
8/204 |
अपूर्वकरण-सूक्ष्मसाम्पराय (उपशामक) |
औपशमिक |
एकदेश उपशम चारित्र व भावि उपचार |
9/205 |
8-10 (क्षपक) |
क्षायिक |
एकदेश क्षय व भावि उपचार |
9 /205 |
उपशान्त कषाय |
औपशमिक |
उपशम चारित्र की मुख्यता |
9 /205 |
क्षीण कषाय |
क्षायिक |
क्षायिक चारित्र की मुख्यता |
9 /205 |
सयोगी व अयोगी |
क्षायिक |
सर्वघातियों का क्षय |
- पंच भावों के स्वामित्व की आदेश प्ररूपणा
( षट्खण्डागम 5/1,7/ सू. 5-93/194-238); ( षट्खण्डागम 7/2,1/ सू.5-91/30-113); ( धवला 9/4,1,66/315-317 )।- गति मार्गणा
प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. |
मार्गणा |
गुणस्थान |
मूल भाव |
कारण |
|
7/5 |
1. नरक गति सा. |
|
औदयिक |
नरकगति उदय की मुख्यता |
|
5/10 |
1. नरक गति सा. |
1 |
औदयिक |
मिथ्यात्व की मुख्यता |
|
5/11 |
1. नरक गति सा. |
2 |
पारिणामिक |
ओघवत् |
|
5/12 |
1. नरक गति सा. |
3 |
क्षायोपशमिक |
ओघवत् |
|
5/13 |
1. नरक गति सा. |
4 |
औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक |
ओघवत् |
|
5/14 |
|
4 |
औदयिक |
ओघवत् |
|
5/15 |
प्रथम पृथिवी |
1-4 |
सामान्यवत् |
सामान्यवत् |
|
5/16 |
2-7 पृथिवी |
1-3 |
सामान्यवत् |
सामान्यवत् |
|
5/17 |
2-7 पृथिवी |
4 |
औपशमिक, क्षायोपशमिक |
क्षायिक सम्यग्दृष्टि प्रथम पृथिवी से ऊपर नहीं जाता। वहाँ क्षायिक सम्यक् नहीं उपजता। |
|
5/18 |
2-7 पृथिवी |
असंयत |
औदयिक |
|
|
7/7 |
2. तिर्यंच सामान्य |
|
औदयिक |
तिर्यंचगति के उदय की मुख्यता |
|
5/19 |
पंचे. सा. व पंचे. प. |
1-5 |
ओघवत् |
ओघवत् |
|
5/19 |
योनिमति प. |
1,2,3,5 |
ओघवत् |
ओघवत् |
|
5/20 |
योनिमति प. |
4 |
औपशमिक, क्षायोपशमिक |
बद्धायुष्क क्षायिक सम्य. वहाँ उत्पन्न नहीं होता और वहाँ नया क्षायिक सम्य. नहीं उपजता। |
|
5/21 |
|
असंयत |
औदयिक |
|
|
7/9 |
3. मनुष्य सामान्य |
|
औदयिक |
मनुष्यगति के उदय की मुख्यता |
|
5/22 |
सामान्य मनु. प. मनुष्यणी |
1-14 |
ओघवत् |
ओघवत् |
|
7/11 |
4. देव सामान्य |
|
औदयिक |
देवगति के उदय की मुख्यता |
|
5/23 |
आदेश सामान्य |
1-4 |
ओघवत् |
ओघवत् |
|
5/24 |
भवनत्रिक देवदेवी व सौधर्म ईशानदेवी |
1,2,3 |
ओघवत् |
ओघवत् |
|
5/25 |
|
4 |
औपशमिक, क्षायोपशमिक |
क्षा. सम्यक्त्वी की उत्पत्ति का वहाँ अभाव है तथा नये क्षायिक सम्य. की उत्पत्ति का अभाव |
|
5/26 |
|
असंयत |
औदयिक |
|
|
5/27 |
सौधर्म उपरिम ग्रैवेयक अनुदिश सर्वार्थसिद्धि |
1-4 |
ओघवत् |
ओघवत् |
|
5/28 |
|
4 |
औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, |
द्वितीयोपशम सम्यक्त्वापेक्षया |
|
5/29 |
|
असंयत |
औदयिक |
ओघवत् |
- इन्द्रिय मार्गणा―
प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. |
मार्गणा |
गुणस्थान |
मूल भाव |
कारण |
7/15 |
1-5 इन्द्रिय सा. |
|
क्षायोपशमिक |
स्व-स्व इन्द्रिय (मतिज्ञानावरण) की अपेक्षा |
5/30 |
पंचेन्द्रिय पर्याप्त |
1-14 |
ओघवत् |
ओघवत् |
|
शेष सर्व तिर्यंच |
1 |
औदयिक |
मिथ्यात्वापेक्षया |
7/17 |
अनिन्द्रिय |
|
क्षायिक |
सर्व ज्ञानावरण का क्षय |
- काय मार्गणा―
प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. |
मार्गणा |
गुणस्थान |
मूल भाव |
कारण |
7/28-29 |
पृथिवी त्रस पर्यन्त सा. |
|
औदयिक |
उस-उस नामकर्म का उदय |
|
स्थावर |
1 |
औदयिक |
मिथ्यात्व की अपेक्षा |
5/31 |
त्रस व त्रस प. |
1-14 |
ओघवत् |
ओघवत् |
7/31 |
अकायिक |
|
क्षायिक |
नामकर्म का सर्वथा क्षय |
- योग मार्गणा―
प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. |
मार्गणा |
गुणस्थान |
मूल भाव |
कारण |
7/33 |
मन, वचन, काय सा. |
|
क्षायोपशमिक |
वीर्यान्तराय इन्द्रिय व नोइन्द्रियावरण का क्षायोपशम मुख्य |
7/35 |
अयोगी सामान्य |
|
क्षायिक |
शरीरादि नामकर्म का निर्मूल क्षय |
5/32 |
5 मन, 5 वचन काय औदा. |
1-14 |
ओघवत् |
ओघवत् |
5/33 |
औदारिक मिश्र |
1-2 |
ओघवत् |
ओघवत् |
5/34 |
औदारिक मिश्र |
4 |
क्षायिक, क्षायोपशमिक |
प्रथमोपशम में मृत्यु का अभाव। द्वितीयोपशम मुख्य |
5/35 |
औदारिक मिश्र |
असंयत |
औदयिक |
औदारिक मिश्र में नहीं वैक्रियक मिश्र में जाता है |
5/36 |
औदारिक मिश्र |
13 |
क्षायिक |
|
5/37 |
वैक्रियक |
1-4 |
ओघवत् |
ओघवत् |
5/38 |
वैक्रियक मिश्र |
1,2,4 |
ओघवत् |
औपशमिक भाव द्वितीयोपशम की अपेक्षा |
5/39 |
आहारक व आ. मिश्र |
6 |
क्षायोपशमिक |
प्रमत्तसंयतापेक्षया |
5/50 |
कार्मण |
1,2,4,13 |
ओघवत् |
ओघवत् |
5/93 |
कार्मण |
14 |
क्षायिक |
|
- वेद मार्गणा―
प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. |
मार्गणा |
गुणस्थान |
मूल भाव |
कारण |
7/39 |
त्री, पुरुष, नपुंसक सामान्य |
|
औदयिक |
चारित्रमोह (वेद) उदय मुख्य |
7/39 |
अवेदी सामान्य |
|
औपशमिक, क्षायिक |
9वें से ऊपर वेद का उपशम वा क्षय मुख्य |
5/41 |
त्री, पुरुष, नपुंसक |
1-9 |
ओघवत् |
ओघवत् |
5/42 |
अपगतवेद |
9-14 |
ओघवत् |
ओघवत् |
- कषाय मार्गणा―
प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. |
मार्गणा |
गुणस्थान |
मूल भाव |
कारण |
7/41 |
चारों कषाय सामान्य |
1 |
औदयिक |
चारित्र मोह का उदय मुख्य |
7/43 |
अकषायी सामान्य |
|
औपशमिक, क्षायिक |
11वें में औपशमिक, 12-14 में क्षायिक (चारित्र मोहापेक्षा) |
5/43 |
चारों कषाय |
1-10 |
ओघवत् |
ओघवत् |
5/44 |
अकषाय |
11-14 |
ओघवत् |
ओघवत् |
- ज्ञान मार्गणा―
प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. |
मार्गणा |
गुणस्थान |
मूल भाव |
कारण |
7/45 |
ज्ञान व अज्ञान सा. |
|
क्षायोपशमिक |
स्व स्व ज्ञानावरण का क्षायोपशम |
7/47 |
केवलज्ञान |
|
क्षायिक |
केवलज्ञानावरण का क्षय |
5/45 |
मति, श्रुत अज्ञान, विभंग |
1-2 |
ओघवत् |
ओघवत् |
5/46 |
मति, श्रुत, अवधिज्ञान |
4-12 |
ओघवत् |
ओघवत् |
5/47 |
मन:पर्यय ज्ञान |
6-12 |
ओघवत् |
ओघवत् |
5/48 |
केवलज्ञान |
13-14 |
ओघवत् |
ओघवत् |
- संयम मार्गणा―
प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. |
मार्गणा |
गुणस्थान |
मूल भाव |
कारण |
7/49 |
संयम सामान्य |
|
औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक |
चारित्रमोह का उपशम क्षय व क्षायोपशम मुख्य |
7/49 |
सामायिक, छेदोपस्थापन |
सामान्य |
औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक |
चारित्रमोह का उपशम क्षय व क्षायोपशम मुख्य |
7/51 |
परिहार विशुद्धि |
सामान्य |
क्षायोपशमिक |
चारित्रमोह का क्षायोपशम |
7/53 |
सूक्ष्म साम्पराय |
सामान्य |
औपशमिक, क्षायिक |
उपशम व क्षायिक दोनों श्रेणी हैं |
7/53 |
यथाख्यात |
सामान्य |
औपशमिक, क्षायिक |
उपशम व क्षायिक दोनों श्रेणी हैं |
7/54 |
संयतासंयत |
सामान्य |
क्षायोपशमिक |
अप्रत्याख्यानावरण का क्षायोपशम |
7/55 |
असंयत |
सामान्य |
औदयिक |
चारित्रमोह का उदय |
5/49 |
संयम सामान्य |
6-14 |
ओघवत् |
ओघवत् |
5/50 |
सामायिक छेदो. |
6-9 |
ओघवत् |
ओघवत् |
5/51 |
परिहार विशुद्धि |
6-7 |
ओघवत् |
ओघवत् |
5/52 |
सूक्ष्म साम्पराय |
10 |
ओघवत् |
ओघवत् |
5/53 |
यथाख्यात |
11-14 |
ओघवत् |
ओघवत् |
5/54 |
संयतासंयत |
5 |
ओघवत् |
ओघवत् |
5/55 |
असंयत |
1-4 |
ओघवत् |
ओघवत् |
- दर्शन मार्गणा―
प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. |
मार्गणा |
गुणस्थान |
मूल भाव |
कारण |
7/57 |
चक्षु, अचक्षु, अवधि सामान्य |
|
क्षायोपशमिक |
स्व स्व देशघाती का उदय |
7/59 |
केवलदर्शन सा. |
|
क्षायिक |
दर्शनावरण का निर्मूल क्षय |
5/56 |
चक्षु अचक्षु |
1-12 |
ओघवत् |
ओघवत् |
5/57 |
अवधिदर्शन |
4-12 |
ओघवत् |
ओघवत् |
5/58 |
केवलदर्शन |
13-14 |
ओघवत् |
ओघवत् |
- लेश्या मार्गणा―
प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. |
मार्गणा |
गुणस्थान |
मूल भाव |
कारण |
7/61 |
छहों लेश्या सा. |
|
औदयिक |
कषायों के तीव्रमन्द अनुभागों का उदय |
7/63 |
अलेश्य सामान्य |
|
क्षायिक |
कषायों का क्षय |
5/59 |
कृष्ण, नील, कापोत |
1-4 |
ओघवत् |
ओघवत् |
5/60 |
पीत, पद्म |
1-7 |
ओघवत् |
ओघवत् |
5/61 |
शुक्ल |
1-13 |
ओघवत् |
ओघवत् |
- भव्य मार्गणा―
प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. |
मार्गणा |
गुणस्थान |
मूल भाव |
कारण |
7/65 |
भव्य, अभव्य सा. |
|
पारिणामिक |
सुगम |
7/66 |
न भव्य न अभव्य |
|
क्षायिक |
सुगम |
5/62 |
भव्य |
1-14 |
ओघवत् |
ओघवत् |
5/63 |
अभव्य |
|
पारिणामिक |
उदयादि निर्पेक्ष (मार्गणापेक्षया) |
5/63 |
अभव्य |
|
औदयिक |
गुणस्थानापेक्षया |
- सम्यक्त्व मार्गणा―
प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. |
मार्गणा |
गुणस्थान |
मूल भाव |
कारण |
7/69 |
सम्यक्त्व सामान्य |
|
औप., क्षा., क्षायो. |
दर्शनमोह के उपशम, क्षय, क्षायो. अपेक्षा |
7/71 |
क्षायिक सम्यक्त्व |
|
क्षायिक |
दर्शनमोह का क्षय |
7/73 |
वेदक सम्यक्त्व |
|
क्षायोपशमिक |
दर्शनमोह का क्षायोपशम |
7/75 |
उपशम सम्यक्त्व |
|
औपशमिक |
दर्शनमोह का उपशम |
7/77 |
सासादन सम्यक्त्व |
|
पारिणामिक |
उप. क्षय. क्षायो. निरपेक्ष |
7/79 |
सम्यग्मिथ्यात्व सम्यक्त्व |
|
क्षायोपशमिक |
मिश्रित श्रद्धान का सद्भाव |
7/81 |
मिथ्यात्व |
|
औदयिक |
दर्शनमोह का उदय |
5/64 |
सम्यक्त्व सामान्य |
4-14 |
ओघवत् |
ओघवत् |
5/65 |
क्षायिक |
4 |
क्षायिक |
दर्शनमोह का क्षय |
5/67 |
क्षायिक |
4 |
औदयिक |
असंयतत्व की अपेक्षा |
5/68 |
क्षायिक |
5-7 |
क्षायोपशमिक |
चारित्र मोहापेक्षया |
5/69 |
क्षायिक |
5-7 |
क्षायिक |
दर्शन मोहापेक्षया |
5/70 |
क्षायिक |
8-11 |
औपशमिक |
चारित्रमोहापेक्षया |
5/71 |
क्षायिक |
8-11 |
क्षायिक |
दर्शनमोहापेक्षया |
5/72 |
क्षायिक |
8-14 |
क्षायिक |
दर्शन व चारित्र मोहापेक्षया |
5/74 |
वेदक |
4 |
क्षायोपशमिक |
दर्शनमोहापेक्षया |
5/76 |
वेदक |
4 |
औदयिक |
चारित्रमोहापेक्षया |
5/77 |
वेदक |
5-7 |
क्षायोपशमिक |
दर्शन व चारित्र मोहापेक्षया |
5/79 |
उपशम |
4 |
औपशमिक |
दर्शनमोहापेक्षया |
5/81 |
उपशम |
4 |
औदयिक |
चारित्रमोहापेक्षया |
5 /8 2 |
उपशम |
5-7 |
क्षायोपशमिक |
चारित्रमोहापेक्षया |
5 /8 3 |
उपशम |
5-7 |
औपशमिक |
दर्शनमोहापेक्षया |
5 /8 4 |
उपशम |
8-11 |
औपशमिक |
दर्शन व चारित्र मोहापेक्षया |
5 /8 6 |
सासादन |
2 |
ओघवत् |
ओघवत् |
5 /8 7 |
सम्यग्मिथ्यादृष्टि |
3 |
ओघवत् |
ओघवत् |
5 /8 8 |
मिथ्यादृष्टि |
1 |
ओघवत् |
ओघवत् |
- संज्ञी मार्गणा―
प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. |
मार्गणा |
गुणस्थान |
मूल भाव |
कारण |
7/83 |
संज्ञी सामान्य |
|
क्षायोपशमिक |
नोइन्द्रियावरण देशघाती का उदय |
7/85 |
असंज्ञी सामान्य |
|
औदयिक |
नोइन्द्रियावरण सर्वघाती का उदय |
7 /8 7 |
न संज्ञी न असंज्ञी |
|
क्षायिक |
नोइन्द्रियावरण का सर्वथा क्षय |
5 /8 9 |
संज्ञी |
1-12 |
ओघवत् |
ओघवत् |
5 / 90 |
असंज्ञी |
1 |
औदयिक |
औदा., वैक्रि. व आ. शरीर नामकर्म का उदय |
- आहारक मार्गणा―
प्रमाण षट्खण्डागम/ पु./सू. |
मार्गणा |
गुणस्थान |
मूल भाव |
कारण |
7/89 |
आहारक सामान्य |
|
औदयिक |
औदा., वैक्रि व आहारक शरीर नामकर्म का उदय। तैजस व कार्मण का नहीं |
7/91 |
अनाहारक सामान्य |
|
औदयिक |
विग्रहगति में सर्वकर्मों का उदय |
7 / 91 |
अनाहारक सामान्य |
|
क्षायिक |
अयोग केवली व सिद्धों में सर्व कर्मों का क्षय |
7 / 91 |
आहारक |
1-12 |
ओघवत् |
ओघवत् |
5 / 92 |
अनाहारक |
1,2,4 |
― |
कार्मण काययोगवत् |
|
|
13 |
ओघवत् |
ओघवत् |
5 / 93 |
अनाहारक |
14 |
क्षायिक |
कार्मण वर्गणाओं के आगमन का अभाव |
- भावों के सत्त्व स्थानों की ओघ प्ररूपणा
( धवला 5/1,72/ गा.13-14/194); ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड/820/992 )
नोट―औदयिकादि भावों के उत्तर भेद–देखें वह वह नाम ।
गुणस्थान |
मूल भाव |
कुल भाव |
कुल भंग |
|
भाव |
1 |
औदयिक, क्षायोपाशमिक व पारिणामिक |
1 |
10 |
औद.21 (सर्व)+क्षायो.10 (3 अज्ञान, 2 दर्शन, 5 लब्धि)+पारि.3 (जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व) |
34 |
2 |
औदयिक, क्षायोपाशमिक व पारिणामिक |
1 |
10 |
औद.20 (सर्व–मिथ्यात्व)+क्षायो.10 (उपरोक्त) +पारि. 2 (जीवत्व, भव्यत्व) |
32 |
3 |
औदयिक, क्षायोपाशमिक व पारिणामिक |
1 |
10 |
औद.20 (सर्व–मिथ्यात्व)+क्षायो.10 (मिश्रित ज्ञान, 3 दर्शन, 5 लब्धि) +पारि. 2 (जीवत्व, भव्यत्व) |
33 |
4 |
पाँचों |
5 |
26 |
औदयिक 20 (उपरोक्त)+क्षायो.12 (3 ज्ञान, 3 दर्शन, 5 लब्धि, 1 सम्यक्त्व)+उप.1+क्षा. 1 (सम्य.)+पारि. 2 (जीवत्व, भव्यत्व) |
36 |
5 |
पाँचों |
5 |
26 |
औदयिक 14 (1 मनुष्य, 1 तिर्यग्गति, 4 कषाय, 3 लिंग, 3 शुभ लेश्या, 1 असिद्ध, 1 अज्ञान)+क्षायो. 13 (3 ज्ञान, 3 दर्शन, 5 लब्धि, 1 संयमासंयम, 1 सम्यक्त्व)+उप. 1+क्षा. 1 (सम्य.) +पारि.2 (जीवत्व, भव्यत्व) |
31 |
6 |
पाँचों |
5 |
26 |
औदयिक 13 (मनुष्यगति, 3 लिंग, 3 शुभलेश्या, 4 कषाय, 1 असिद्ध, 1 अज्ञान)+क्षायो. 14 (4 ज्ञान, 3 दर्शन, 5 लब्धि, 1 सम्यक्त्व, सरागचारित्र)+उप. 1+क्षा. 1 (सम्य.) +पारि.2 (जीवत्व, भव्यत्व) |
31 |
उपशमक व क्षपक― |
|||||
8 |
पाँचों |
5 |
35 |
औ.11 (मनुष्यगति, 4 कषाय, 3 लिंग, शुक्ललेश्या, असिद्ध, अज्ञान) +क्षायो. 12 (4 ज्ञान, 3 दर्शन, 5 लब्धि) + उप.2 (सम्य. चारित्र) +क्षा. 2 (सम्य., चारित्र) + पारि.2 (जीवत्व व भव्यत्व) |
29 |
9 |
पाँचों |
5 |
35 |
औद.11 (मनुष्यगति, 4 कषाय, 3 लिंग, शुक्ललेश्या, असिद्ध, अज्ञान) +क्षायो. 12 (4 ज्ञान, 3 दर्शन, 5 लब्धि) + उप.2 (सम्य. चारित्र) +क्षा. 2 (सम्य., चारित्र) + पारि.2 (जीवत्व व भव्यत्व) |
29 |
10 |
पाँचों |
5 |
35 |
औद.5 (मनुष्यगति, शुक्ललेश्या, असिद्ध, अज्ञान, कषाय) +क्षायो. 12 (4 ज्ञान, 3 दर्शन, 5 लब्धि) + उप.2 (सम्य. चारित्र) +क्षा. 2 (सम्य., चारित्र) + पारि.2 (जीवत्व व भव्यत्व) |
23 |
11 |
पाँचों |
5 |
35 |
उपरोक्त 23 (औद.4 + क्षायो.12 +उप.2 + क्षा.1 + पारि.2) –लोभ, क्षा.चारित्र |
21 |
12 |
औदयिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारि. |
4 |
19 |
उपरोक्त 21–उप.2 (सम्य., चारित्र) + क्षा. चारित्र |
20 |
13 |
औद., क्षायिक, पारि. |
3 |
10 |
औद.3 (मनुष्यगति, शुक्ललेश्या, असिद्धत्व) + क्षा.9 (सर्व) + पारि.2 (जीवत्व, भव्यत्व) |
14 |
14 |
औद., क्षायिक, पारि. |
3 |
10 |
उपरोक्त 14 – शुक्ल लेश्या |
13 |
सिद्ध |
क्षायिक, पारिणामिक |
2 |
5 |
क्षा. 4 (सम्य., दर्शन, ज्ञान, चारित्र) + पारि. (जीवत्व) |
|
नं. |
प्रकृति |
स्थिति |
अनुभाग |
प्रदेश |
|||||
मूल प्र. |
उत्तर प्र. |
मूल प्र. |
उत्तर प्र. |
मूल प्र. |
उत्तर प्र. |
मूल प्र. |
उत्तर प्र. |
||
1 |
अ |
||||||||
1 |
जघन्य उत्कृष्ट बन्ध के स्वामी― |
||||||||
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
2 |
भुजगारादि पदों के स्वामी |
||||||||
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
3 |
वृद्धि हानिरूप पदों के स्वामी |
||||||||
|
|
|
|
ताड़पत्र नष्ट |
|
|
|
|
|
2 |
मोहनीय कर्म के स्वामियों सम्बन्धी―(क.प.) |
||||||||
1 |
जघन्य उत्कृष्ट पदों के स्वामी |
||||||||
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
2 |
भुजगारादि पदों के स्वामी |
||||||||
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
3 |
वृद्धि हानि पदों के स्वामी |
||||||||
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
4 |
28, 24 आदि सत्त्व स्थानों के स्वामी |
||||||||
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
5 |
सत्त्व असत्त्व का भाव सामान्य |
||||||||
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
3 |
अन्य विषय―(क.प.) |
||||||||
1 |
|
|
|||||||
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
2 |
नोकर्म बन्ध की सघातन परिशातन में कृति की ज. उ. आदि पदों सम्बन्धी ओघ व आदेश प्ररूपणा |
||||||||
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
3 |
अध:कर्मादि षट्कर्म के स्वामी ( धवला/ ) |
||||||||
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
4 |
पाँच शरीरों के 2,3,4 आदि भंगों के स्वामी |
||||||||
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
5 |
23 प्रकार वर्गणा के स्वामी |
||||||||
|
|
|
|
|
|
|
|
|
- <a name="3" id="3"></a>भाव-अभाव शक्तियाँ
- आत्मा की भावाभाव आदि शक्तियों के लक्षण
पंचास्तिकाय व त.प्र./21 एवं भावमभावं भावाभावं अभावभावं च। गुणपज्जयेहिं सहिदो संसारमाणो कुणदि जीवो।21। ... जीवद्रव्यस्य ... तस्यैव देवादिपर्यायरूपेण प्रादुर्भवतो भावकर्तृत्वमुक्तं; तस्यैव च मनुष्यादिपर्यायरूपेण व्ययतोऽभावकर्तृत्वमाख्यातं; तस्यैव च सतो देवादिपर्यायस्योच्छेदमारभमाणस्य भावाभावकर्तृत्वमुदितं; तस्यैव चासतः पुनर्मनुष्यादिपर्यायस्योत्पादमारभमाणस्याभावभावकर्तृत्वमभिहितम्। = गुण पर्यायों सहित जीव भ्रमण करता हुआ भाव, अभाव, भावाभाव और अभावभाव को करता है।21। देवादि पर्याय रूप से उत्पन्न होता है इसलिए उसी को (जीव द्रव्य को ही) भाव का (उत्पाद का) कर्त्तृत्व कहा गया है। मनुष्यादि पर्याय रूप से नाश को प्राप्त होता है, इसलिए उसी को अभाव का (व्यय का) कर्त्तृत्व कहा गया है। सत् (विद्यमान) देवादि पर्याय का नाश करता है, इसलिए उसी को भावाभाव का (सत् के विनाश का) कर्तृत्व कहा गया है, और फिर से असत् (अविद्यमान) मनुष्यादि पर्याय का उत्पाद करता है इसलिए उसी को अभावभाव का (असत् के उत्पाद का) कर्तृत्व कहा गया है।
समयसार / आत्मख्याति/ परि./शक्ति नं. 33-40 भूतावस्थत्वरूपा भावशक्तिः।33। शून्यावस्थत्वरूपा अभावशक्तिः।34। = भवत्पर्यायव्ययरूपा भावाभावशक्तिः।35। अभवत्पर्यायोदयरूपा अभावभावशक्तिः।36। भवत्यपर्यायभवनरूपा भावभावशक्तिः।37। अभवत्पर्यायाभवनरूपा अभावभावशक्तिः।38। कारकानुगतक्रियानिष्क्रान्तभवनमात्रमयी भावशक्ति:।39। = विद्यमान-अवस्थायुक्ततारूप भावशक्ति। (अमुक अवस्था जिसमें विद्यमान हो उस रूप भावशक्ति)।33। शून्य (अविद्यमान) अवस्थायुक्तता रूप अभावशक्ति। (अमुक अवस्था जिसमें अविद्यमान हो उस रूप अभावशक्ति)।34। प्रवर्त्तमान पर्याय के व्ययरूप भावाभावशक्ति।35। अप्रवर्तमान पर्याय के उदय रूप अभावभावशक्ति।36। प्रवर्तमान पर्याय के भवनरूप भावभावशक्ति।37। अप्रवर्तमान पर्याय के अभवनरूप अभावभावशक्ति।38। (कर्ता कर्म आदि) कारकों के अनुसार जो क्रिया उससे रहित भवनमात्रमयी (होने मात्रमयी) भावशक्ति।39। - भाववती शक्तिका लक्षण
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/129 तत्र परिणाममात्रलक्षणो भावः। = भाव का लक्षण परिणाम मात्र है।
पंचाध्यायी x`/ पृ./134 भावः शक्तिविशेषस्तत्परिणामोऽथ वा निरंशांशैः। = शक्तिविशेष अर्थात् प्रदेशत्व से अतिरिक्त शेष गुणों को अथवा तरतम अंशरूप से होने वाले उन गुणों के परिणाम को भाव कहते हैं। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/26 )।
- आत्मा की भावाभाव आदि शक्तियों के लक्षण
पुराणकोष से
(1) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25.177
(2) नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों में चौथा निक्षेप । हरिवंशपुराण 17.135
(3) जीव के पाँच परावर्तनों में पाँचवाँ परावर्तन-मिथ्यात्व आदि सत्तावन आस्रव-द्वारों से परिभ्रमण करते हुए निरन्तर दुष्कर्मों का उपार्जन करना । वीरवर्द्धमान चरित्र 11. 26, 32 देखें परावर्तन