भूमि: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong> भूमि का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> भूमि का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
धवला 4/1,3,1/8/2 <span class="PrakritText">आगासं गगणं देवपथं गोज्झगाचारिदं अवगाहणलक्खणं आधेयं वियापगमाधारो भूमित्ति एयट्ठो।</span> = <span class="HindiText">आकाश, गगन, देवपथ, गुह्यकाचरित (यक्षों के विचरण का स्थान) अवगाहनलक्षण, आधेय, व्यापक, आधार और भूमि ये सब नो आगमद्रव्यक्षेत्र के एकार्थक नाम हैं।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong> अष्टभूमि निर्देश</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong> अष्टभूमि निर्देश</strong> </span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/2/24 <span class="PrakritText">सत्तच्चियभूमीओ णवदिसभाएण घणोवहिविलग्गा। अट्ठमभूमी दसदिसभागेसु घणोवहिं छिवदि। </span>= <span class="HindiText">सातों पृथिवियाँ ऊर्ध्वदिशा को छोड़ शेष नौ दिशाओं में घनोदधि वातवलयसे लगी हुई हैं। परन्तु आठवीं पृथिवी दशोंदिशाओं में ही घनोदधि वातवलयको छूती है। </span><br /> | |||
धवला 14/5,6,64/495/2 <span class="PrakritText">घम्मादिसत्तणिरयपुढवीओईसप्पभारपुढवीए सह अट्ठ पुढवीओ महाखंघस्स ट्ठाणाणि होंति।</span> =<span class="HindiText"> ईषत्प्राग्भार (देखें [[ मोक्ष ]]) पृथिवी के साथ घर्मा आदि सात नरक पृथिवियाँ मिलकर आठ पृथिवियाँ महास्कन्ध के स्थान हैं।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong> कर्मभूमि व भोगभूमि के लक्षण</strong> | <li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong> कर्मभूमि व भोगभूमि के लक्षण</strong> | ||
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<li><span class="HindiText" name="31" id="31"><strong> कर्मभूमि</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="31" id="31"><strong> कर्मभूमि</strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/3/37/232/5 <span class="SanskritText">अथ कथं कर्मभूमित्वम्। शुभाशुभलक्षणस्य कर्मणोऽधिष्ठानत्वात्। ननु सर्वं लोकत्रितयं कर्मणोऽधिष्ठानमेव। तत एव प्रकर्षगतिर्विज्ञास्यते, प्रकर्षेण यत्कर्मणोऽधिष्ठानमिति। तत्राशुभकर्मणस्तावत्सप्तमनरकप्रापणस्य भरतादिष्वेवार्जनम्, शुभस्य च सर्वार्थसिद्धयादिस्थानविशेषप्रापणस्य कर्मण उपार्जनं तत्रैव, कृष्णादिलक्षणस्य षड्विधस्य कर्मण: पात्रदानादिसहितस्य तत्रैवारम्भात्कर्म भूमिव्यपदेशो वेदितव्य:।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–कर्मभूमि यह संज्ञा कैसे प्राप्त होती है ? <strong>उत्तर</strong>–जो शुभ और अशुभ कर्मों का आश्रय हो उसे कर्मभूमि कहते हैं। यद्यपि तीनों लोक कर्म का आश्रय हैं फिर भी इससे उत्कृष्टता का ज्ञान होता है कि वे प्रकर्षरूप से कर्म का आश्रय हैं। सातवें नरक को प्राप्त करने वाले अशुभ कर्मका भरतादि क्षेत्रों में ही अर्जन किया जाता है, इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि आदि स्थान विशेष को प्राप्त कराने वाले पुण्य कर्म का उपार्जन भी यहीं पर होता है। तथा पात्र दान आदि के साथ कृषि आदि छह प्रकार के कर्म का आरम्भ यहीं पर होता है इसलिए भरतादिक को कर्मभूमि जानना चाहिए। ( राजवार्तिक/3/37/1-2/204-205 )।</span><br /> | |||
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/781/936 पर उद्धृत–<span class="SanskritText">कर्मभूमिसमुत्थाश्च भोगभूमिभवास्तथा। अंतरद्वीपजाश्चैव तथा सम्मूर्च्छिमा इति। असिर्मषि: कृषि: शिल्पं वाणिज्यं व्यवहारिता। इति यत्र प्रवर्तन्ते नृणामाजीवयोनयः।प्राप्य संयमं यत्र तप: कर्मपरा नरा:। सुरसंगतिं वा सिद्धिं सयान्ति हतशत्रवः। एताः कर्मभुवो ज्ञेयाः पूर्वोक्ता दश पञ्च च। यत्र संभूय पर्याप्तिं यान्ति ते कर्मभूमिताः।</span> = <span class="HindiText">कर्मभूमिज, आदि चार प्रकार मनुष्य हैं (देखें [[ मनुष्य#1 | मनुष्य - 1]])। जहाँ असि–शस्त्र धारण करना, मषि–बही खाता लिखना, कृषि–खेती करना, पशु पालना, शिल्पकर्म करना अर्थात् हस्त कौशल्य के काम करना, वाणिज्य–व्यापार करना और व्यवहारिता–न्याय दान का कार्य करना, ऐसे छह कार्यों से जहाँ उपजीविका करनी पड़ती है, जहाँ संयम का पालन कर मनुष्य तप करने में तत्पर होते हैं और जहाँ मनुष्यों को पुण्य से स्वर्ग की प्राप्ति होती है और कर्म का नाश करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है ऐसे स्थान को कर्मभूमि कहते हैं। यह कर्मभूमि अढाई द्वीप में पन्द्रह हैं अर्थात् पाँच भरत, पाँच ऐरावत और पाँच विदेह।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="32" id="32"> भोगभूमि</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="32" id="32"> भोगभूमि</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/3/37/232/10 <span class="SanskritText">दशविधकल्पवृक्षकल्पितभोगानुभवनविषयत्वाद्-भोगभूमय इति व्यपदिश्यन्ते।</span> = <span class="HindiText">इतर क्षेत्रों में दस प्रकार के कल्पवृक्षों से प्राप्त हुए भोगों के उपभोग की मुख्यता है इसलिए उनको भोगभूमि जानना चाहिए। </span><br /> | |||
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/781/936/16 <span class="SanskritText">ज्योतिषाख्यैस्तरुभिस्तत्र जीविकाः। पुरग्रामादयो यत्र न निवेशा न चाधिपः। न कुलं कर्म शिल्पानि न वर्णाश्रमसंस्थिति:। यत्र नार्यो नराश्चैव मैथुनीभूय नीरुजः। रमन्ते पूर्वपुण्यानां प्राप्नुवन्ति परं फलं। यत्र प्रकृतिभद्रत्वात् दिवं यान्ति मृता अपि। ता भोगभूमयश्चोक्तास्तत्र स्युर्भोगभूमिजा:। </span>= <span class="HindiText">ज्योतिरंग आदि दस प्रकार के (देखें [[ वृक्ष ]]) जहाँ कल्पवृक्ष रहते हैं और इनसे मनुष्यों की उपजीविका चलती है। ऐसे स्थान को भोगभूमि कहते हैं। भोगभूमि में नगर, कुल, असिमष्यादि क्रिया, शिल्प, वर्णाश्रमकी पद्धति ये नहीं होती हैं। यहाँ मनुष्य और स्त्री पूर्वपुण्य से पतिपत्नी होकर रममाण होते हैं। वे सदा नीरोग ही रहते हैं और सुख भोगते हैं। यहाँ के लोक स्वभाव से ही मृदुपरिणामी अर्थात् मन्द कषायी होते हैं, इसलिए मरणोत्तर उनकी स्वर्ग की प्राप्ति होती है। भोगभूमि में रहने वाले मनुष्यों को भोगभूमिज कहते हैं। (देखें [[ वृक्ष ]]/1/1)</span></li> | |||
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<li class="HindiText"><strong> <a name="4" id="4"></a>कर्मभूमि की स्थापना का इतिहास</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong> <a name="4" id="4"></a>कर्मभूमि की स्थापना का इतिहास</strong> <br /> | ||
महापुराण/16/ श्लोक नं. केवल भावार्थ- कल्पवृक्षों के नष्ट होने पर कर्मभूमि प्रगट हुई।146। शुभ मुहूर्तादि में (149) इन्द्र ने अयोध्यापुरी के बीच में जिनमन्दिर की स्थापना की। इसके पश्चात् चारों दिशाओं में जिनमन्दिरों की स्थापना की गयी (149-150) तदनन्तर देश, महादेश, नगर, वन और सीमासहित गाँव तथा खेड़ों आदि की रचना की थी (151) भगवान् ऋषभदेव ने प्रजा को असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प ये छह कार्यों का उपदेश दिया (179-178) तब सब प्रजाने भगवान् को श्रेष्ठ जानकर राजा बनाया (224) तब राज्य पाकर भगवान् ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इस प्रकार चतुर्वर्ण की स्थापना की (245)। उक्त छह कर्मों की व्यवस्था होने से यह कर्मभूमि कहलाने लगी थी (249) तदनन्तर भगवान् ने कुरुवंश, हरिवंश आदि राज्यवंशों की स्थापना की (256–), (विशेष देखें [[ सम्पूर्ण सर्ग ]]), (और भी देखें [[ काल#4.6 | काल - 4.6]])।</li> | |||
<li class="HindiText" name="5" id="5"><strong> मध्य लोक में कर्मभूमि व भोगभूमिका विभाजन</strong> <br /> | <li class="HindiText" name="5" id="5"><strong> मध्य लोक में कर्मभूमि व भोगभूमिका विभाजन</strong> <br /> | ||
मध्य लोक में मानुषोत्तर पर्वत से आगे नागेन्द्र पर्वत तक सर्व द्वीपों में जघन्य भोगभूमि रहती है। ( | मध्य लोक में मानुषोत्तर पर्वत से आगे नागेन्द्र पर्वत तक सर्व द्वीपों में जघन्य भोगभूमि रहती है। ( तिलोयपण्णत्ति/2/166,173 )। नागेन्द्र पर्वत से आगे स्वयम्भूरमण द्वीप व स्वयम्भूरमण समुद्र में कर्मभूमि अर्थात् दुखमा काल वर्तता है। ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/174 )। मानुषोत्तर पर्वत के इस भाग में अढाई द्वीप प्रमाण मनुष्य क्षेत्र हैं (देखें [[ मनुष्य#4 | मनुष्य - 4]]) इन अढाई द्वीपों में पाँच सुमेरु पर्वत हैं। एक सुमेरु पर्वत के साथ भरत, हैमवत आदि सात-सात क्षेत्रहैं। तिनमें से भरत, ऐरावत व विदेह ये तीन कर्मभूमियाँ हैं, इस प्रकार पाँच सुमेरु सम्बन्धी 15 कर्मभूमियाँ हैं। यदि पाँचों विदेहों के 32-32 क्षेत्रों की गणना भी की जाय तो पाँच भरत, पाँच ऐरावत, और 160 विदेह, इस प्रकार कुल 170 कर्मभूमियाँ होती हैं। इन सभी में एक-एक विजयार्ध पर्वत होता है, तथा पाँच-पाँच म्लेच्छ खण्ड तथा एक-एक आर्य खण्ड स्थित हैं। भरत व ऐरावत क्षेत्र के आर्य खण्डों में षट्काल परिवर्तन होता है। ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/176 ) सभी विदेहों के आर्य खण्डों में सदा दुखमा-सुखमा काल वर्तता है। सभी म्लेच्छ खण्डों में सदा जघन्य भोगभूमि (सुखमा-दुखमा काल) होती है। सभी विजयार्धों पर विद्याधरों की नगरियाँ हैं उनमें सदैव दुखमा-सुखमा काल वर्तता है। हैमवत, हैरण्यवत इन दो क्षेत्रों में सदा जघन्य भोगभूमि रहती है। हरि व रम्यक इन दो क्षेत्रों में सदा मध्यम भोगभूमि (सुखमा काल) रहती है। विदेह के बहुमध्य भाग में सुमेरु पर्वत के दोनों तरफ स्थित उत्तरकुरु व देवकुरु में (देखें [[ लोक#7 | लोक - 7]]) सदैव उत्तम भोगभूमि (सुखमा-दुखमा काल) रहती है। लवण व कालोद समुद्र में कुमानुषों के 96 अन्तर्द्वीप हैं। इसी प्रकार 160 विदेहों में से प्रत्येक के 56-56 अन्तर्द्वीप हैं। (देखें [[ लोक#7 | लोक - 7]]) इन सर्व अन्तर्द्वीपों में कुमानुष रहते हैं।(देखें [[ म्लेच्छ ]]) इन सभी अन्तर्द्वीपों में सदा जघन्य भोगभूमि वर्तती है ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/54-55 )। इन सभी कर्म व भोग भूमियों की रचना का विशेष परिचय (देखें [[ काल#4.18 | काल - 4.18]])।</li> | ||
<li><span class="HindiText" name="6" id="6"><strong> कर्म व भोगभूमियों में सुख-दुःख सम्बन्धी नियम</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="6" id="6"><strong> कर्म व भोगभूमियों में सुख-दुःख सम्बन्धी नियम</strong> </span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/4/2954 <span class="PrakritGatha">छब्बीसदुदेक्कसंयप्पमाणभोगक्खिदीण सुहमेक्कं। कम्मखिदीसु णराणं हवेदि सोक्खं च दुक्खं च।2954।</span> = <span class="HindiText">मनुष्यों को एक सौ छब्बीस भोगभूमियों में (30 भोगभूमियों और 96 कुभोगभूमियों में) केवल सुख, और कर्मभूमियों में सुख एवं दुःख दोनों ही होते हैं।</span><br /> | |||
तिलोयपण्णत्ति/5/292 <span class="PrakritGatha">सव्वे भोगभुवाणं संकप्पवसेण होइ सुहमेक्कं। कम्मावणितिरियाणं सोक्खं दुक्खं च संकप्पो।298।</span> = <span class="HindiText">सब भोगभूमिज तिर्यंचों के संकल्पवश से केवल एक सुख ही होता है, और कर्मभूमिज तिर्यंचों के सुख व दुःख दोनों की कल्पना होती है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="7" id="7"><strong> कर्म व भोगभूमियों में सम्यक्त्व व गुणस्थानों के अस्तित्व सम्बन्धी</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="7" id="7"><strong> कर्म व भोगभूमियों में सम्यक्त्व व गुणस्थानों के अस्तित्व सम्बन्धी</strong> </span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/4/2936-2937 <span class="PrakritGatha">पंचविदेहे सट्ठिसमण्णिदसद अज्जखंडए अवरे। छग्गुणठाणे तत्तो चोद्दसपेरंत दीसति।2936। सव्वेसुं भोगभुवे दो गुणठाणाणि सव्वकालम्मि। दीसंति चउवियप्पं सव्वमिलिच्छम्मि मिच्छत्तं।2937।</span> = <span class="HindiText">पाँच विदेहों के भीतर एक सौ साठ आर्य खण्डों में जघन्यरूप से छह गुणस्थान और उत्कृष्टरूप से चौदह गुणस्थान तक पाये जाते हैं।2936। सब भोगभूमिजों में सदा दो गुणस्थान (मिथ्यात्व व असंयत) और उत्कृष्टरूप से चार गुणस्थान तक रहते हैं। सब म्लेच्छखण्डों में एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही रहता है।2937। ( तिलोयपण्णत्ति/5/303 ), ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/165 )।</span><br /> | |||
सर्वार्थसिद्धि/10/9/471/13 <span class="SanskritText">जन्मप्रति पञ्चदशसु कर्मभूमिषु, संहरणं प्रति मानुषक्षेत्रे सिद्धिः।</span>= <span class="HindiText">जन्म की अपेक्षा पन्द्रह कर्मभूमियों में और अपहरण की अपेक्षा मानुष क्षेत्र में सिद्धि होती है। ( राजवार्तिक/9/10/2/646/19 )।</span><br /> | |||
धवला 1/1,1,85/327/1 <span class="SanskritText">भोगभूमावुत्पन्नानां तद् (अणुव्रत) उपादानानुपपत्तेः। </span>= <span class="HindiText">भोगभूमि में उत्पन्न हुए जीवों के अणुव्रतों का ग्रहण नहीं बन सकता है। ( धवला 1/1,1,157/402/1 )।</span><br /> | |||
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/781/937/9 <span class="SanskritText">एतेषु कर्मभूमिजमानवानां एव रत्नत्रयपरिणामयोग्यता नेतरेषां इति।</span> = <span class="HindiText">इन (कर्मभूमिज, भोगभूमिज, अन्तरद्वीपज, और सम्मूर्च्छन चार प्रकार के) मनुष्यों में कर्मभूमिज है उनको ही रत्नत्रय परिणाम की योग्यता है। इतरों में नहीं है।<br /> | |||
गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/550/744/11 का भावार्थ- कर्मभूमि का अबद्धायु मनुष्य क्षायिक सम्यग्दर्शन की प्रस्थापना व निष्ठापना कर सकता है परन्तु भोगभूमि में क्षायिक सम्यग्दर्शन की निष्ठापना हो सकती है, प्रस्थापना नहीं। ( लब्धिसार/ जी. प्र./111)।</span><br /> | |||
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/703/1137/8 <span class="SanskritText">असंयते ... भोगभूमितिर्यग्मनुष्याः कर्मभूमिमनुष्या: उभये।</span> = <span class="HindiText">असंयत गुणस्थान में भोगभूमिज मनुष्य व तिर्यंच, कर्मभूमिज मनुष्य पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों होते हैं।<br /> | |||
देखें [[ वर्णव्यवस्था#1.7 | वर्णव्यवस्था - 1.7 ]](भोगभूमि में वर्णव्यवस्था व वेषधारी नहीं हैं।) </span></li> | देखें [[ वर्णव्यवस्था#1.7 | वर्णव्यवस्था - 1.7 ]](भोगभूमि में वर्णव्यवस्था व वेषधारी नहीं हैं।) </span></li> | ||
<li class="HindiText" name="8" id="8"><strong> कर्म व भोगभूमियों में जीवों का अवस्थान</strong> <br /> | <li class="HindiText" name="8" id="8"><strong> कर्म व भोगभूमियों में जीवों का अवस्थान</strong> <br /> | ||
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देखें [[ मनुष्य#4 | मनुष्य - 4]] मनुष्य अढाई द्वीप में ही होते हैं, देवों के द्वारा भी मानुषोत्तर पर्वत के पर भाग में उनका ले जाना सम्भव नहीं है।</li> | देखें [[ मनुष्य#4 | मनुष्य - 4]] मनुष्य अढाई द्वीप में ही होते हैं, देवों के द्वारा भी मानुषोत्तर पर्वत के पर भाग में उनका ले जाना सम्भव नहीं है।</li> | ||
<li><span class="HindiText" name="9" id="9"><strong> भोगभूमि में चारित्र क्यों नहीं ?</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="9" id="9"><strong> भोगभूमि में चारित्र क्यों नहीं ?</strong> </span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/4/386 ते <span class="PrakritGatha">सव्वे वरजुगला अण्णोण्णुप्पण्णवेमसंमूढा। जम्हा तम्हा तेसुं सावयवदसंजमो णत्थि।386।</span> = <span class="HindiText">क्योंकि वे सब उत्तम युगल पारस्परिक प्रेम में अत्यन्त मुग्ध रहा करते हैं, इसलिए उनके श्रावक के व्रत और संयम नहीं होता।386।</span><br /> | |||
राजवार्तिक/3/37/204/31 <span class="SanskritText">भोगभूमिषु हि यद्यपि मनुष्याणां ज्ञानदर्शने स्तः चारित्रं तु नास्ति अविरतभोगपरिणामित्वात्।</span> = <span class="HindiText">भोगभूमियों में यद्यपि ज्ञान, दर्शन तो होता है, परन्तु भोग-परिणाम होने से चारित्र नहीं होता।</span></li> | |||
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Revision as of 19:13, 17 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
अन्त;Last term in numerical series–विदेश देखें गणित - II.5.3।
लोक में जीवों के निवासस्थान को भूमि कहते हैं। नरककी सात भूमियाँ प्रसिद्ध हैं। उनके अतिरिक्त अष्टम भूमि भी मानी गयी है। नरकों के नीचे निगोदों की निवासभूत कलकल नाम की पृथिवी अष्टम पृथिवी है और ऊपर लोक के अन्त में मुक्त जीवों की आवासभूत ईषत्प्राग्भार नाम की अष्टम पृथिवी है। मध्यलोक में मनुष्य व तिर्यंचों की निवासभूत दो प्रकार की रचनाएँ हैं–भोगभूमि व कर्मभूमि। जहाँ के निवासी स्वयं खेती आदि षट्कर्म करके अपनी आवश्कताएँ पूरी करते हैं उसे कर्मभूमि कहते हैं। यद्यपि भोगभूमि पुण्य का फल समझी जाती है, परन्तु मोक्ष के द्वाररूप कर्मभूमि ही है, भोगभूमि नहीं है।
- भूमि का लक्षण
धवला 4/1,3,1/8/2 आगासं गगणं देवपथं गोज्झगाचारिदं अवगाहणलक्खणं आधेयं वियापगमाधारो भूमित्ति एयट्ठो। = आकाश, गगन, देवपथ, गुह्यकाचरित (यक्षों के विचरण का स्थान) अवगाहनलक्षण, आधेय, व्यापक, आधार और भूमि ये सब नो आगमद्रव्यक्षेत्र के एकार्थक नाम हैं। - अष्टभूमि निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/2/24 सत्तच्चियभूमीओ णवदिसभाएण घणोवहिविलग्गा। अट्ठमभूमी दसदिसभागेसु घणोवहिं छिवदि। = सातों पृथिवियाँ ऊर्ध्वदिशा को छोड़ शेष नौ दिशाओं में घनोदधि वातवलयसे लगी हुई हैं। परन्तु आठवीं पृथिवी दशोंदिशाओं में ही घनोदधि वातवलयको छूती है।
धवला 14/5,6,64/495/2 घम्मादिसत्तणिरयपुढवीओईसप्पभारपुढवीए सह अट्ठ पुढवीओ महाखंघस्स ट्ठाणाणि होंति। = ईषत्प्राग्भार (देखें मोक्ष ) पृथिवी के साथ घर्मा आदि सात नरक पृथिवियाँ मिलकर आठ पृथिवियाँ महास्कन्ध के स्थान हैं। - कर्मभूमि व भोगभूमि के लक्षण
- कर्मभूमि
सर्वार्थसिद्धि/3/37/232/5 अथ कथं कर्मभूमित्वम्। शुभाशुभलक्षणस्य कर्मणोऽधिष्ठानत्वात्। ननु सर्वं लोकत्रितयं कर्मणोऽधिष्ठानमेव। तत एव प्रकर्षगतिर्विज्ञास्यते, प्रकर्षेण यत्कर्मणोऽधिष्ठानमिति। तत्राशुभकर्मणस्तावत्सप्तमनरकप्रापणस्य भरतादिष्वेवार्जनम्, शुभस्य च सर्वार्थसिद्धयादिस्थानविशेषप्रापणस्य कर्मण उपार्जनं तत्रैव, कृष्णादिलक्षणस्य षड्विधस्य कर्मण: पात्रदानादिसहितस्य तत्रैवारम्भात्कर्म भूमिव्यपदेशो वेदितव्य:। = प्रश्न–कर्मभूमि यह संज्ञा कैसे प्राप्त होती है ? उत्तर–जो शुभ और अशुभ कर्मों का आश्रय हो उसे कर्मभूमि कहते हैं। यद्यपि तीनों लोक कर्म का आश्रय हैं फिर भी इससे उत्कृष्टता का ज्ञान होता है कि वे प्रकर्षरूप से कर्म का आश्रय हैं। सातवें नरक को प्राप्त करने वाले अशुभ कर्मका भरतादि क्षेत्रों में ही अर्जन किया जाता है, इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि आदि स्थान विशेष को प्राप्त कराने वाले पुण्य कर्म का उपार्जन भी यहीं पर होता है। तथा पात्र दान आदि के साथ कृषि आदि छह प्रकार के कर्म का आरम्भ यहीं पर होता है इसलिए भरतादिक को कर्मभूमि जानना चाहिए। ( राजवार्तिक/3/37/1-2/204-205 )।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/781/936 पर उद्धृत–कर्मभूमिसमुत्थाश्च भोगभूमिभवास्तथा। अंतरद्वीपजाश्चैव तथा सम्मूर्च्छिमा इति। असिर्मषि: कृषि: शिल्पं वाणिज्यं व्यवहारिता। इति यत्र प्रवर्तन्ते नृणामाजीवयोनयः।प्राप्य संयमं यत्र तप: कर्मपरा नरा:। सुरसंगतिं वा सिद्धिं सयान्ति हतशत्रवः। एताः कर्मभुवो ज्ञेयाः पूर्वोक्ता दश पञ्च च। यत्र संभूय पर्याप्तिं यान्ति ते कर्मभूमिताः। = कर्मभूमिज, आदि चार प्रकार मनुष्य हैं (देखें मनुष्य - 1)। जहाँ असि–शस्त्र धारण करना, मषि–बही खाता लिखना, कृषि–खेती करना, पशु पालना, शिल्पकर्म करना अर्थात् हस्त कौशल्य के काम करना, वाणिज्य–व्यापार करना और व्यवहारिता–न्याय दान का कार्य करना, ऐसे छह कार्यों से जहाँ उपजीविका करनी पड़ती है, जहाँ संयम का पालन कर मनुष्य तप करने में तत्पर होते हैं और जहाँ मनुष्यों को पुण्य से स्वर्ग की प्राप्ति होती है और कर्म का नाश करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है ऐसे स्थान को कर्मभूमि कहते हैं। यह कर्मभूमि अढाई द्वीप में पन्द्रह हैं अर्थात् पाँच भरत, पाँच ऐरावत और पाँच विदेह।
- भोगभूमि
सर्वार्थसिद्धि/3/37/232/10 दशविधकल्पवृक्षकल्पितभोगानुभवनविषयत्वाद्-भोगभूमय इति व्यपदिश्यन्ते। = इतर क्षेत्रों में दस प्रकार के कल्पवृक्षों से प्राप्त हुए भोगों के उपभोग की मुख्यता है इसलिए उनको भोगभूमि जानना चाहिए।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/781/936/16 ज्योतिषाख्यैस्तरुभिस्तत्र जीविकाः। पुरग्रामादयो यत्र न निवेशा न चाधिपः। न कुलं कर्म शिल्पानि न वर्णाश्रमसंस्थिति:। यत्र नार्यो नराश्चैव मैथुनीभूय नीरुजः। रमन्ते पूर्वपुण्यानां प्राप्नुवन्ति परं फलं। यत्र प्रकृतिभद्रत्वात् दिवं यान्ति मृता अपि। ता भोगभूमयश्चोक्तास्तत्र स्युर्भोगभूमिजा:। = ज्योतिरंग आदि दस प्रकार के (देखें वृक्ष ) जहाँ कल्पवृक्ष रहते हैं और इनसे मनुष्यों की उपजीविका चलती है। ऐसे स्थान को भोगभूमि कहते हैं। भोगभूमि में नगर, कुल, असिमष्यादि क्रिया, शिल्प, वर्णाश्रमकी पद्धति ये नहीं होती हैं। यहाँ मनुष्य और स्त्री पूर्वपुण्य से पतिपत्नी होकर रममाण होते हैं। वे सदा नीरोग ही रहते हैं और सुख भोगते हैं। यहाँ के लोक स्वभाव से ही मृदुपरिणामी अर्थात् मन्द कषायी होते हैं, इसलिए मरणोत्तर उनकी स्वर्ग की प्राप्ति होती है। भोगभूमि में रहने वाले मनुष्यों को भोगभूमिज कहते हैं। (देखें वृक्ष /1/1)
- कर्मभूमि
- <a name="4" id="4"></a>कर्मभूमि की स्थापना का इतिहास
महापुराण/16/ श्लोक नं. केवल भावार्थ- कल्पवृक्षों के नष्ट होने पर कर्मभूमि प्रगट हुई।146। शुभ मुहूर्तादि में (149) इन्द्र ने अयोध्यापुरी के बीच में जिनमन्दिर की स्थापना की। इसके पश्चात् चारों दिशाओं में जिनमन्दिरों की स्थापना की गयी (149-150) तदनन्तर देश, महादेश, नगर, वन और सीमासहित गाँव तथा खेड़ों आदि की रचना की थी (151) भगवान् ऋषभदेव ने प्रजा को असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प ये छह कार्यों का उपदेश दिया (179-178) तब सब प्रजाने भगवान् को श्रेष्ठ जानकर राजा बनाया (224) तब राज्य पाकर भगवान् ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इस प्रकार चतुर्वर्ण की स्थापना की (245)। उक्त छह कर्मों की व्यवस्था होने से यह कर्मभूमि कहलाने लगी थी (249) तदनन्तर भगवान् ने कुरुवंश, हरिवंश आदि राज्यवंशों की स्थापना की (256–), (विशेष देखें सम्पूर्ण सर्ग ), (और भी देखें काल - 4.6)। - मध्य लोक में कर्मभूमि व भोगभूमिका विभाजन
मध्य लोक में मानुषोत्तर पर्वत से आगे नागेन्द्र पर्वत तक सर्व द्वीपों में जघन्य भोगभूमि रहती है। ( तिलोयपण्णत्ति/2/166,173 )। नागेन्द्र पर्वत से आगे स्वयम्भूरमण द्वीप व स्वयम्भूरमण समुद्र में कर्मभूमि अर्थात् दुखमा काल वर्तता है। ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/174 )। मानुषोत्तर पर्वत के इस भाग में अढाई द्वीप प्रमाण मनुष्य क्षेत्र हैं (देखें मनुष्य - 4) इन अढाई द्वीपों में पाँच सुमेरु पर्वत हैं। एक सुमेरु पर्वत के साथ भरत, हैमवत आदि सात-सात क्षेत्रहैं। तिनमें से भरत, ऐरावत व विदेह ये तीन कर्मभूमियाँ हैं, इस प्रकार पाँच सुमेरु सम्बन्धी 15 कर्मभूमियाँ हैं। यदि पाँचों विदेहों के 32-32 क्षेत्रों की गणना भी की जाय तो पाँच भरत, पाँच ऐरावत, और 160 विदेह, इस प्रकार कुल 170 कर्मभूमियाँ होती हैं। इन सभी में एक-एक विजयार्ध पर्वत होता है, तथा पाँच-पाँच म्लेच्छ खण्ड तथा एक-एक आर्य खण्ड स्थित हैं। भरत व ऐरावत क्षेत्र के आर्य खण्डों में षट्काल परिवर्तन होता है। ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/176 ) सभी विदेहों के आर्य खण्डों में सदा दुखमा-सुखमा काल वर्तता है। सभी म्लेच्छ खण्डों में सदा जघन्य भोगभूमि (सुखमा-दुखमा काल) होती है। सभी विजयार्धों पर विद्याधरों की नगरियाँ हैं उनमें सदैव दुखमा-सुखमा काल वर्तता है। हैमवत, हैरण्यवत इन दो क्षेत्रों में सदा जघन्य भोगभूमि रहती है। हरि व रम्यक इन दो क्षेत्रों में सदा मध्यम भोगभूमि (सुखमा काल) रहती है। विदेह के बहुमध्य भाग में सुमेरु पर्वत के दोनों तरफ स्थित उत्तरकुरु व देवकुरु में (देखें लोक - 7) सदैव उत्तम भोगभूमि (सुखमा-दुखमा काल) रहती है। लवण व कालोद समुद्र में कुमानुषों के 96 अन्तर्द्वीप हैं। इसी प्रकार 160 विदेहों में से प्रत्येक के 56-56 अन्तर्द्वीप हैं। (देखें लोक - 7) इन सर्व अन्तर्द्वीपों में कुमानुष रहते हैं।(देखें म्लेच्छ ) इन सभी अन्तर्द्वीपों में सदा जघन्य भोगभूमि वर्तती है ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/54-55 )। इन सभी कर्म व भोग भूमियों की रचना का विशेष परिचय (देखें काल - 4.18)। - कर्म व भोगभूमियों में सुख-दुःख सम्बन्धी नियम
तिलोयपण्णत्ति/4/2954 छब्बीसदुदेक्कसंयप्पमाणभोगक्खिदीण सुहमेक्कं। कम्मखिदीसु णराणं हवेदि सोक्खं च दुक्खं च।2954। = मनुष्यों को एक सौ छब्बीस भोगभूमियों में (30 भोगभूमियों और 96 कुभोगभूमियों में) केवल सुख, और कर्मभूमियों में सुख एवं दुःख दोनों ही होते हैं।
तिलोयपण्णत्ति/5/292 सव्वे भोगभुवाणं संकप्पवसेण होइ सुहमेक्कं। कम्मावणितिरियाणं सोक्खं दुक्खं च संकप्पो।298। = सब भोगभूमिज तिर्यंचों के संकल्पवश से केवल एक सुख ही होता है, और कर्मभूमिज तिर्यंचों के सुख व दुःख दोनों की कल्पना होती है। - कर्म व भोगभूमियों में सम्यक्त्व व गुणस्थानों के अस्तित्व सम्बन्धी
तिलोयपण्णत्ति/4/2936-2937 पंचविदेहे सट्ठिसमण्णिदसद अज्जखंडए अवरे। छग्गुणठाणे तत्तो चोद्दसपेरंत दीसति।2936। सव्वेसुं भोगभुवे दो गुणठाणाणि सव्वकालम्मि। दीसंति चउवियप्पं सव्वमिलिच्छम्मि मिच्छत्तं।2937। = पाँच विदेहों के भीतर एक सौ साठ आर्य खण्डों में जघन्यरूप से छह गुणस्थान और उत्कृष्टरूप से चौदह गुणस्थान तक पाये जाते हैं।2936। सब भोगभूमिजों में सदा दो गुणस्थान (मिथ्यात्व व असंयत) और उत्कृष्टरूप से चार गुणस्थान तक रहते हैं। सब म्लेच्छखण्डों में एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही रहता है।2937। ( तिलोयपण्णत्ति/5/303 ), ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/2/165 )।
सर्वार्थसिद्धि/10/9/471/13 जन्मप्रति पञ्चदशसु कर्मभूमिषु, संहरणं प्रति मानुषक्षेत्रे सिद्धिः।= जन्म की अपेक्षा पन्द्रह कर्मभूमियों में और अपहरण की अपेक्षा मानुष क्षेत्र में सिद्धि होती है। ( राजवार्तिक/9/10/2/646/19 )।
धवला 1/1,1,85/327/1 भोगभूमावुत्पन्नानां तद् (अणुव्रत) उपादानानुपपत्तेः। = भोगभूमि में उत्पन्न हुए जीवों के अणुव्रतों का ग्रहण नहीं बन सकता है। ( धवला 1/1,1,157/402/1 )।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/781/937/9 एतेषु कर्मभूमिजमानवानां एव रत्नत्रयपरिणामयोग्यता नेतरेषां इति। = इन (कर्मभूमिज, भोगभूमिज, अन्तरद्वीपज, और सम्मूर्च्छन चार प्रकार के) मनुष्यों में कर्मभूमिज है उनको ही रत्नत्रय परिणाम की योग्यता है। इतरों में नहीं है।
गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/550/744/11 का भावार्थ- कर्मभूमि का अबद्धायु मनुष्य क्षायिक सम्यग्दर्शन की प्रस्थापना व निष्ठापना कर सकता है परन्तु भोगभूमि में क्षायिक सम्यग्दर्शन की निष्ठापना हो सकती है, प्रस्थापना नहीं। ( लब्धिसार/ जी. प्र./111)।
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/703/1137/8 असंयते ... भोगभूमितिर्यग्मनुष्याः कर्मभूमिमनुष्या: उभये। = असंयत गुणस्थान में भोगभूमिज मनुष्य व तिर्यंच, कर्मभूमिज मनुष्य पर्याप्त व अपर्याप्त दोनों होते हैं।
देखें वर्णव्यवस्था - 1.7 (भोगभूमि में वर्णव्यवस्था व वेषधारी नहीं हैं।) - कर्म व भोगभूमियों में जीवों का अवस्थान
देखें तिर्यंच - 3 भोगभूमियों में जलचर व विकलेन्द्रिय जीव नहीं होते, केवल संज्ञी पंचेन्द्रिय ही होते हैं। विकलेन्द्रिय व जलचर जीव नियम से कर्मभूमि में होते हैं। स्वयंप्रभ पर्वत के परभाग में सर्व प्रकार के जीव पाये जाते हैं। भोगभूमियों में संयत व संयतासंयत मनुष्य या तिर्यंच भी नहीं होते हैं, परन्तु पूर्व वैरीके कारण देवों द्वारा ले जाकर डाले गये जीव वहाँ सम्भव है।
देखें मनुष्य - 4 मनुष्य अढाई द्वीप में ही होते हैं, देवों के द्वारा भी मानुषोत्तर पर्वत के पर भाग में उनका ले जाना सम्भव नहीं है। - भोगभूमि में चारित्र क्यों नहीं ?
तिलोयपण्णत्ति/4/386 ते सव्वे वरजुगला अण्णोण्णुप्पण्णवेमसंमूढा। जम्हा तम्हा तेसुं सावयवदसंजमो णत्थि।386। = क्योंकि वे सब उत्तम युगल पारस्परिक प्रेम में अत्यन्त मुग्ध रहा करते हैं, इसलिए उनके श्रावक के व्रत और संयम नहीं होता।386।
राजवार्तिक/3/37/204/31 भोगभूमिषु हि यद्यपि मनुष्याणां ज्ञानदर्शने स्तः चारित्रं तु नास्ति अविरतभोगपरिणामित्वात्। = भोगभूमियों में यद्यपि ज्ञान, दर्शन तो होता है, परन्तु भोग-परिणाम होने से चारित्र नहीं होता।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- अष्टमभूमि निर्देश–देखें मोक्ष /1/7।
- कर्मभूमियों में वंशों की उत्पत्ति–देखें इतिहास - 7।
- कर्मभूमि में वर्ग व्यवस्था की उत्पत्ति–देखें वर्णव्यवस्था - 2।
- कर्मभूमिका प्रारम्भकाल (कुलकर)–देखें शलाका पुरुष - 9।
- कुभोग भूमि–देखें म्लेच्छ /अन्तर्द्वीपज।
- आर्यव म्लेच्छ खण्ड–देखें वह वह नाम ।
- कर्म व भोग भूमि की आयु के बन्ध योग्य परिणाम–देखें आयु - 3।
- इसका नाम कर्मभूमि क्यों पड़ा–देखें भूमि - 3।
- कर्म व भोगभूमि में षट्काल व्यवस्था–देखें काल - 4।
- भोगभूमिजों में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं–देखें तिर्यंच - 2.11।
- भोग व कर्म भूमिज कहाँ से मर कर कहाँ उत्पन्न हो।–देखें जन्म - 6।
- कर्मभूमिज तिर्यंच व मनुष्य–देखें वह वह नाम ।
- सर्व द्वीप समुद्रों में संयतासंयत तिर्यंचों की सम्भावना–देखें तिर्यंच - 2.10
- कर्मभूमिज व्यपदेश से केवल मनुष्यों का ग्रहण–देखें तिर्यंच - 2.12।
- भोगभूमि में जीवों की संख्या–देखें तिर्यंच - 3.4।
- अष्टमभूमि निर्देश–देखें मोक्ष /1/7।
पुराणकोष से
(1) जीवों की निवास-भूमियाँ । महापुराण 3. 82, 16.146, देखें कर्मभूमि एवं भोगभूमि
(2) अधोलोक में विद्यमान नरकों की सात भूमिया । इनके नाम हैं― रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातम:प्रभा । हरिवंशपुराण 4.43-45