वैक्रियिक: Difference between revisions
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<li class="HindiText"> वैक्रियिक शरीर नामकर्म का बंधउदय सत्त्व।–देखें [[ वह वह नाम ]]। <br /> | <li class="HindiText"> वैक्रियिक शरीर नामकर्म का बंधउदय सत्त्व।–देखें [[ वह वह नाम ]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> वैक्रियिक शरीर संघातन परिशातन कृति।–(देखें [[ | <li class="HindiText"> वैक्रियिक शरीर संघातन परिशातन कृति।–(देखें [[ धवला#9.4 | धवला - 9.4]], 1, 54/355-415 ) <br /> | ||
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<li class="HindiText">विक्रिया ऋद्धि।–देखें [[ ऋद्धि#3 | ऋद्धि - 3]]। <br /> | <li class="HindiText">विक्रिया ऋद्धि।–देखें [[ ऋद्धि#3 | ऋद्धि - 3]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> वैक्रियिक शरीर का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> वैक्रियिक शरीर का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि /2/36/191/6 <span class="SanskritText">अष्टगुणैश्वर्ययोगादेकानेकाणुमहच्छरीरविविधकरणं विक्रिया, सा प्रयोजनमस्येति वैक्रियिकम्।</span> = <span class="HindiText">अणिमा, महिमा आदि आठ गुणों के (देखें [[ ऋद्धि#3 | ऋद्धि - 3]]) ऐश्वर्य के सम्बन्ध से एक, अनेक, छोटा, बड़ा आदि नाना प्रकार का शरीर करना विक्रिया है। वह विक्रिया जिस शरीर का प्रयोजन है वह वैक्रियिक शरीर है। ( राजवार्तिक /2/36/6/146 /7 ); ( धवला 1/1, 1, 56/291/6 )। </span><br /> | |||
षट्खण्डागम 14/5, 6/ सू.238/325 <span class="PrakritText">विविहइड्ढिगुणजुत्तमिदि वेउव्वियं।538। </span>=<span class="HindiText"> विविधगुण ऋद्धियों से युक्त है (देखें [[ ऋद्धि#3 | ऋद्धि - 3]]), इसलिए वैक्रियिक है।238। ( राजवार्तिक/2/49/8/153/13 ); (देखें [[ वैक्रियिक#2.1 | वैक्रियिक - 2.1]])। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> विक्रिया के भेद व उनके लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> विक्रिया के भेद व उनके लक्षण</strong> </span><br /> | ||
राजवार्तिक/2/47/4/152/7 <span class="SanskritText">सा द्वेधा-एकत्वविक्रिया पृथक्त्वविक्रिया चेति। तत्रैकत्वविक्रिया स्वशरीरादपृथग्भावेन सिंहव्याघ्रहंसकुररादिभावेन विक्रिया। पृथक्त्वविक्रिया स्वशरीरादन्यत्वेन प्रासादमण्डपादिविक्रिया।</span> = <span class="HindiText">वह विक्रिया दो प्रकार की है–एकत्व व पृथक्त्व। तहाँ अपने शरीर को ही सिंह, व्याघ्र, हिरण, हंस आदि रूप से बना लेना एकत्व विक्रिया है और शरीर से भिन्न मकान, मण्डप आदि बना देना पृथक्त्व विक्रिया है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> वैक्रियिक शरीर का स्वामित्व</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> वैक्रियिक शरीर का स्वामित्व</strong> </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/2/46, 47 <span class="SanskritText"> औपपादिकं वैक्रियिकम्।46। लब्धिप्रत्ययं च।47।</span> =<span class="HindiText"> वैक्रियिक शरीर उपपाद जन्म से पैदा होता है। तथा लब्धि (ऋद्धि) से भी पैदा होता है। </span><br /> | |||
राजवार्तिक/2/49/8/153/23 <span class="SanskritText">वैक्रियिकं देवनारकाणाम्, तेजोवायुकायिकपञ्चेन्द्रियतिर्यङ्मनुष्याणां च केषांचित्। </span>=<span class="HindiText"> देव नारकियों की, (पर्याप्त) तेज व वायु कायिकों को तथा किन्हीं किन्हीं (पर्याप्त) पञ्चेन्द्रिय तिर्यंचों व मनुष्यों को वैक्रियिक शरीर होता है। ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/233/496 )। </span><br /> | |||
धवला 4/1, 4, 66/249/3 <span class="PrakritText">तेउक्काइयपज्जत्ता चेव बेउब्वियसरीरं उट्ठावेंति, अपज्जत्तेसु तदभावा। ते च पज्जत्ता कम्मभूमीसु चेव होंति त्ति।</span> =<span class="HindiText"> तेजस्कायिक पर्याप्तक जीव ही वैक्रियिक शरीर को उत्पन्न करते हैं, क्योंकि अपर्याप्तक जीवों में वैक्रियिक शरीर के उत्पन्न करने की शक्ति का अभाव है। और वे पर्याप्त जीव कर्मभूमि में ही होते हैं।–देखें [[ शरीर#2 | शरीर - 2 ]](पाँचों शरीरों के स्वामित्वकी ओघ आदेश प्ररूपणा/.)। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> कौन कैसी विक्रिया करे</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> कौन कैसी विक्रिया करे</strong> </span><br /> | ||
राजवार्तिक/2/47/4/152/9 <span class="SanskritText"> सा उभयी व विद्यते भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्ककल्पवासिनाम्। वैमानिकानां आसर्वा-र्थसिद्धेः प्रशस्तरूपैकत्वविक्रिथैव। नारकाणां त्रिशूलचक्रासिमुद्हगरपरशुभिण्डिवालाद्यनेकायुधैकत्वविक्रिया न पृथक्त्वविक्रिया आ षष्ठयाः। सप्तम्यां महागोकीटकप्रमाणलोहितकुन्थुरूपैकत्वविक्रिया नानेकप्रहरणविक्रिया, न च पृथकत्वविक्रिया। तिरश्चां मयूरादीनां कुमारादिभावं प्रतिविशिष्टैकत्वविक्रिया न पृथक्त्वविक्रिया। मनुष्याणां तपोविद्यादिप्राधान्यात् प्रतिविशिष्टैकत्वपृथक्त्वविक्रिया। </span>= <span class="HindiText">भवनवासी व्यन्तर ज्योतिषी और सोलह स्वर्गों के देवों के एकत्व व पृथक्त्व दोनों प्रकार की विक्रिया होती है। ऊपर ग्रैवेयक आदि सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त के देवों के प्रशस्त एकत्व विक्रिया ही होती है। छठवें नरक तक के नारकियों के त्रिशूल चक्र तलवार मुद्गर आदि रूप से जो विक्रिया होती है वह एकत्व विक्रिया ही है न कि पृथक्त्व विक्रिया। सातवें नरक में गाय बराबर कीड़े लोहू आदि रूप से एकत्वविक्रिया ही होती है, आयुधरूप से पृथक् विक्रिया नहीं होती। तिर्यंचों में मयूर आदि के कुमार आदि भावरूप एकत्व विक्रिया ही होती है पृथक्त्व विक्रिया नहीं होती। मनुष्यों के तप और विद्या की प्रधानता से एकत्व व पृथक्त्व दोनों विक्रिया होती हैं। </span><br /> | |||
धवला 9/4, 1, 71/355/2 <span class="PrakritText">णेरइएसु वेउव्वियपरिसादणकदी णत्थि पुधविउव्वणाभावादो। </span>= <span class="HindiText">नारकियों में वैक्रियिक शरीर की परिशातन कृति नहीं हेाती, क्योंकि उनके पृथक् विक्रिया का अभाव है। </span><br /> | |||
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/233/497/3 <span class="SanskritText"> येषं जीवानां औदारिकशरीरमेव विगूर्वणात्मकं विक्रियात्मकं भवेत् ते जीवाः अपृथग्विक्रियया परिणमन्तीत्यर्थः। भोगभूमिजाः चक्रवर्तिनश्च पृथग् विगूर्वन्ति।</span> = <span class="HindiText">जिन जीवों के औदारिक शरीर ही विक्रियात्मक होते हैं अर्थात् तिर्यंच और मनुष्य अपृथक् विक्रिया के द्वारा ही परिणमन करते हैं। परन्तु भोगभूमिज और चक्रवर्ती पृथक् विक्रिया भी करते हैं। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> वैक्रियिक शरीर के उ.ज.प्रदेशों का स्वामित्व</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> वैक्रियिक शरीर के उ.ज.प्रदेशों का स्वामित्व</strong> </span><br /> | ||
षट्खण्डागम 14/5, 6/ सूत्र 431-444/411-413<span class="PrakritText"> उक्कस्सपदेण वेउव्वियसरीरस्स उक्कस्सयं पदेसग्गं कस्स।431। अण्ण-दरस्स आरणअच्चुदकप्पवासियदेवस्स वावीससागरोवमट्ठिदियस्स।432। तेणे पढमसमयआहारएण पढमसमय-तब्भवत्थेण उक्कस्सजोगेण आहारिदो।433। उक्कस्सियाए वड्ढीए वड्ढिदो।434। अंतोमुहुत्तेण सव्वलहुं सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तपदो।435। तस्स अप्पाओ भासद्धाओ।436। अप्पाओ मणजोगद्धाओ।437। णत्थि अविच्छेदा।438। अप्पदरं विउव्विदो।439। थोवावसेसे जीविदव्वए त्ति जोगजवमज्झस्सुवरिमंतोमुहुत्तद्वमच्छिदो।440। चरिमे जीवगुणहाणिट्ठाणंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागमिच्छदो।441। चरिमदुचरिमसमए उक्कस्सजोगं गदो।442। तस्स चरिमसमयतब्भवत्थस्स तस्स वेउव्वियसरीरस्स उक्कस्सपदेसग्गं।443। तव्वदिरित्तमणुक्कस्सं।444। </span><br /> | |||
षट्खण्डागम 14/5, 6/ सूत्र 483-486/424-425<span class="PrakritText"> जहण्णवेउव्वियसरीरस्स जहण्णयं पदेसग्गं कस्स।483। अण्णदरस्स देवणेरइयस्स असण्णिपच्छायदस्स।484। पढमसमयआहारयस्स पढमसमयतब्भवत्थस्स जहण्णजोगिस्स तस्स वेउव्वियसरीरस्स जहण्णयं पदेसग्गं।485। तव्वदिरित्तमजहण्णं।486। </span>= <span class="HindiText">उत्कृष्ट पद की अपेक्षा वैक्रियिकशरीर के उत्कृष्ट प्रदेशाग्र का स्वामी कौन है।431। जो बाईस सागर की स्थितिवाला आरण, अच्युत, कल्पवासी अन्यतरदेव है।432। उसी देव ने प्रथमसमय में आहारक और तद्भवस्थ होकर उत्कृष्ट योग से आहार को ग्रहण किया है।433। उत्कृष्ट वृद्धि से वृद्धि को प्राप्त हुआ है।434। सर्वलघु अन्तर्मुहूर्तकाल द्वारा सब पर्याप्तियों में पर्याप्त हुआ है।435। उसे बोलने के काल अल्प हैं।436। मनोयोग के काल अल्प हैं।437। उसके अविच्छेद नहीं है।438। उसने अल्पतर विक्रिया की है।439। जीवितव्य के स्तोक शेष रहने पर वह योगयवमध्य के ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक रहा।440। अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तर में आवलि के असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक रहा।441। चरम और द्विचरम समय में उत्कृष्ट योग को प्राप्त हुआ।442। अन्तिम समय में तद्भवस्थ हुआ, वह जीव वैक्रियिक शरीर के उत्कृष्ट प्रदेशाग्र का स्वामी है।443। उससे व्यतिरिक्त अनुत्कृष्ट है।444। जघन्य पद की वैक्रियिक शरीर के जघन्य प्रदेशाग्र का स्वामी कौन है।483। असंज्ञियों से आकर उत्पन्न हुआ जो अन्यतरदेव और नारकी जीव हैं।488। प्रथम समय में आहारक और तद्भवस्थ हुआ जघन्य योग वाला वह जीव वैक्रियिक शरीर के प्रदेशाग्र का स्वामी है।485। उससे अन्यतर अजघन्य प्रदेशाग्र है।486। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> मनुष्य तिर्यंचों के वैक्रियिक शरीर अप्रधान हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> मनुष्य तिर्यंचों के वैक्रियिक शरीर अप्रधान हैं</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1, 1, 58/296/9 <span class="SanskritText"> तिर्यंचों मनुष्याश्च वैक्रियिकशरीराः श्रूयन्ते तत्कथं घटत इति चेन्न, औदारिकशरीरं द्विविधं विक्रियात्मकमविक्रियात्मकमिति। तत्र यद्विक्रियात्मकं तद्वैक्रियिकमिति तत्रोक्तं न तदत्र परिगृह्यते विविधगुणद्धर्यभावात्। अत्र विविधगुणद्धर्थात्मकं परिगृह्यते, तच्च देवनारकाणामेव।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>तिर्यंच और मनुष्य भी वैक्रियिक शरीर वाले सुने जाते हैं, (इसलिए उनके भी वैक्रियिक काययोग होना चाहिए)? <strong>उत्तर–</strong>नहीं, क्योंकि औदारिक शरीर दो प्रकार का है, विक्रियात्मक और अविक्रियात्मक। उनमें जो विक्रियात्मक औदारिक शरीर है वह मनुष्य और तिर्यंचों के वैक्रियिक रूप में कहा गया है। उसका यहाँ पर ग्रहण नहीं किया है, क्योंकि उसमें नाना गुण और ऋद्धियों का अभाव है। यहाँ पर नाना गुण और ऋद्धियुक्त वैक्रियिक शरीर का ही ग्रहण किया है और वह देव और नारकियों के ही होता है। ( धवला 9/4, 1, 69/327/12 )। </span><br /> | |||
धवला 9/4, 1, 69/327/12 <span class="PrakritText">णत्थि तिरिक्खमणुस्सेसु वेउव्वियसरीरं, एदेसु वेउव्वियसरीराणामकम्मोदयाभावादो। </span>= <span class="HindiText">तिर्यंच व मनुष्यों के वैक्रियिक शरीर सम्भव नहीं है, क्योंकि इनके वैक्रियिक शरीर नामकर्म का उदय नहीं पाया जाता। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> तिर्यंच व मनुष्यों में वैक्रियिक शरीर के विधिनिषेध का समन्वय</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> तिर्यंच व मनुष्यों में वैक्रियिक शरीर के विधिनिषेध का समन्वय</strong> </span><br /> | ||
राजवार्तिक/2/49/8/153/25 <span class="SanskritText">आह चोदकः–जीवस्थाने योगभङ्गे सप्तविधकाययोगस्वामिप्ररूपणायाम् -‘‘औदारिक-काययोगः औदारिकमिश्रकाययोगश्च तिर्यङ्मनुष्याणाम्, वैक्रियिककाययोगो वैक्रियिकमिश्रकाययोगश्च देवनारकाणाम्’’ उक्तः, इह तिर्यङ्मनुष्याणामपीत्युच्यते; तदिदमार्षविरुद्धमिति; अत्रोच्यते–न, अन्यत्रोपदेशात्। व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकेषु शरीरभङ्गे वायोरौदारिकवैक्रियिकतैजसकार्मणानि चत्वारि शरीराण्युक्तानि मनुष्याणां पञ्च। एवमप्यार्षयोस्तयोर्विरोधः, न विरोधः, अभिप्रायकत्वात्। जीवस्थाने सर्वदेवनारकाणां सर्वकालं वैक्रियिकदर्शनात् तद्योगविधिरित्यभिप्रायः नैवं तिर्यग्मनुष्याणां लब्धिप्रत्ययं वैक्रियिकं सर्वेषां सर्वकालमस्ति कादाचित्कत्वात्। व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकेषु त्वस्तित्वमात्रमभिप्रेत्योत्तम्।</span> =<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न–</strong>जीव स्थान के योगभंग प्रकरण में तिर्यंच और मनुष्यों के औदारिक और आदौरिकमिश्र तथा देव और नारकियों के वैक्रियिक और वैक्रियिकमिश्र काय योग बताया है (देखें [[ वैक्रियिक#2 | वैक्रियिक - 2]]); पर यहाँ तो तिर्यंच और मनुष्यों के भी वैक्रियिक का विधान किया है। इस तरह परस्पर विरोध आता है? <strong>उत्तर–</strong>व्याख्याप्रज्ञप्ति दण्डक के शरीर भंग में वायुकायिक के औदारिक, वैक्रियिक, तैजस और कार्माण ये चार शरीर तथा मनुष्यों के आहारक सहित पाँच शरीर बताये हैं (देखें [[ शरीर#2.2 | शरीर - 2.2]])। भिन्न-भिन्न अभिप्रायों से लिखे गये उक्त संदर्भों में परस्पर विरोध भी नहीं है। जीवस्थान में जिस प्रकार देव और नारकियों के सर्वदा वैक्रियिक शरीर रहता है, उस तरह तिर्यंच और मनुष्य के नहीं होता, इसलिए तिर्यंच और मनुष्यों के वैक्रियिक शरीर का विधान नहीं किया है। जब कि व्याख्या प्रज्ञप्ति में उसके सद्भाव मात्र से ही उसका विधान कर दिया है। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.8" id="1.8"> उपपाद व लब्धि प्राप्त वैक्रियिक शरीरों में अन्तर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.8" id="1.8"> उपपाद व लब्धि प्राप्त वैक्रियिक शरीरों में अन्तर</strong> </span><br /> | ||
राजवार्तिक/2/47/3/152/1 <span class="SanskritText">उपपादो हि निश्चयेन भवति जन्मनिमित्तत्वात्, लब्धिस्तु कादाचित्की जातस्य सत उत्तरकालं तपोविशेषाद्यपेक्षत्वादिति, अयमनयोर्विशेषः। </span>= <span class="HindiText">उपपाद तो जन्म के निमित्तवश निश्चित रूप से होता है और लब्धि किसी के ही विशेष तप आदि करने पर कभी होती है। यही इन दोनों में विशेष है। <br /> | |||
गोम्मटसार जीवकाण्ड/ भाषा/543/948/3 इहां ऐसा अर्थ जाननां–जो देवनिकै मूल शरीर तौ अन्यक्षेत्रविषै तिष्ठै है अर विहारकर क्रियारूप शरीर अन्य क्षेत्र विषैतिष्ठै है। तहाँ दोऊनि के बीचि आत्मा के प्रदेश सूच्यं गुलका असंख्यातवां भाग मात्र प्रदेश ऊँचे चौड़े फैले हैं अर यह मुख्यता की अपेक्ष संख्यात योजन लंबे कहे हैं (देखें [[ वैक्रियिक#3 | वैक्रियिक - 3]])। बहुरि देव अपनी-अपनी इच्छातैं हस्ती घोटक इत्यादिक रूप विक्रिया करैं ताकी अवगाहना एक जीव की अपेक्षा संख्यात घनांगुल प्रमाण है। ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/ भाषा/544/957/18)। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.9" id="1.9"> वैक्रियिक व आहारक शरीर में कथंचित् प्रतिघातीपना</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.9" id="1.9"> वैक्रियिक व आहारक शरीर में कथंचित् प्रतिघातीपना</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/2/40/193/11 <span class="SanskritText"> ननु च वैक्रियिकाहारकयोरपि नास्ति प्रतिघातः। सर्वत्राप्रतिघातोऽत्र विवक्षितः। यथा तैजसकार्मणयोराः लोकान्तात् सर्वत्र नास्ति प्रतिघातः न तथा वैक्रियिकाहारकयोः। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>वैक्रियिक और आहारक का भी प्रतिघात नहीं होता, फिर यहाँ तैजस और कार्मण शरीर को ही अप्रतिघात क्यों कहा (देखें [[ शरीर ]], 1/5)? <strong>उत्तर–</strong>इस सूत्र में सर्वत्र प्रतिघात का अभाव विवक्षित है जिस प्रकार तैजस और कार्मण शरीर का लोकपर्यन्त सर्वत्र प्रतिघात नहीं होता, वह बात वैक्रियिक और आहारक शरीर की नहीं है। </span></li> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> वैक्रियिक व मिश्रकाययोग के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> वैक्रियिक व मिश्रकाययोग के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
पं.सं./प्रा./1/95-96 <span class="PrakritGatha">विविहगुणइड्ढिजुत्तं वेउव्वियमहवविकिरिय चेव। तिस्से भवं च णेयं वेउव्वियकायजोगो सो।95। अंतोमुहुत्तमज्झं वियाण मिस्सं च अपरिपुण्णो त्ति। जो तेण सपओगो वेउव्वियमिस्सकायजोगो सो।96।</span> =<span class="HindiText"> विविध गुण और ऋद्धियों से युक्त, अथवा विशिष्ट क्रिया वाले शरीर को वैक्रियिक कहते हैं। उसमें उत्पन्न होने वाला जो योग है, उसे वैक्रियिककाययोग जानना चाहिए।95। वैक्रियिक शरीर की उत्पत्ति प्रारम्भ होने के प्रथम समय से लगाकर शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने तक अन्तर्मुहूर्त के मध्यवर्ती अपरिपूर्ण शरीर को वैक्रियिकमिश्र काय कहते हैं। उसके द्वारा होने वाला जो संयोग है (देखें [[ योग#1 | योग - 1]])।वह वैक्रियिकमिश्र काययोग कहलाता है। अर्थात् देव, नारकियों के उत्पन्न होने के प्रथम समय से लेकर शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने तक कार्मणशरीर की सहायता से उत्पन्न होने वाले वैक्रियिक काययोग को वैक्रियिकमिश्र काययोग कहते हैं। ( | पं.सं./प्रा./1/95-96 <span class="PrakritGatha">विविहगुणइड्ढिजुत्तं वेउव्वियमहवविकिरिय चेव। तिस्से भवं च णेयं वेउव्वियकायजोगो सो।95। अंतोमुहुत्तमज्झं वियाण मिस्सं च अपरिपुण्णो त्ति। जो तेण सपओगो वेउव्वियमिस्सकायजोगो सो।96।</span> =<span class="HindiText"> विविध गुण और ऋद्धियों से युक्त, अथवा विशिष्ट क्रिया वाले शरीर को वैक्रियिक कहते हैं। उसमें उत्पन्न होने वाला जो योग है, उसे वैक्रियिककाययोग जानना चाहिए।95। वैक्रियिक शरीर की उत्पत्ति प्रारम्भ होने के प्रथम समय से लगाकर शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने तक अन्तर्मुहूर्त के मध्यवर्ती अपरिपूर्ण शरीर को वैक्रियिकमिश्र काय कहते हैं। उसके द्वारा होने वाला जो संयोग है (देखें [[ योग#1 | योग - 1]])।वह वैक्रियिकमिश्र काययोग कहलाता है। अर्थात् देव, नारकियों के उत्पन्न होने के प्रथम समय से लेकर शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने तक कार्मणशरीर की सहायता से उत्पन्न होने वाले वैक्रियिक काययोग को वैक्रियिकमिश्र काययोग कहते हैं। ( धवला 1/1, 1, 56/ गा.162-163/291), ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/232-234/495, 497 )। </span><br /> | ||
धवला 1/1, 1, 56/291/6 <span class="SanskritText">तदवष्टम्भतः समुत्पन्नपरिस्पन्देन योगः वैक्रियिककाययोगः। कार्मणवैक्रियकस्कन्धतः समु-त्पन्नवीर्येण योगः वैक्रियिकमिश्रकाययोगः। </span>= <span class="HindiText">उस (वैक्रियिक) शरीर के अवलम्बन से उत्पन्न हुए परिस्पन्द द्वारा जो प्रयत्न होता है उसे वैक्रियिक काययोग कहते हैं। कार्मण और वैक्रियिक वर्गणाओं के निमित्त से उत्पन्न हुई शक्ति से जो परिस्पन्द के लिए प्रयत्न होता है, उसे वैक्रियिकमिश्र काययोग कहते हैं। </span><br /> | |||
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/223/495/15 <span class="SanskritText">वैगूर्विककायार्थं तद्रूपपरिणमनयोग्यशरीरवर्गणास्कन्धाकर्षणशक्तिविशिष्टात्मप्रदेश-परिस्पन्दः स वैगूर्विककाययोग इति ज्ञेयः ज्ञातव्यः। अथवा वैक्रियिककाय एव वैक्रियिककाययोगः कारणे कार्योपचारात्। </span><br /> | |||
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/234/498/1 <span class="SanskritText"> वैक्रियिककायमिश्रेण सह यः संप्रयोगः कर्मनोकर्माकर्षणशक्तिसंगतापर्याप्तकाल-मात्रात्मप्रदेश–परिस्पन्दरूपो योगः स वैक्रियिककायमिश्रयोगः। अपर्याप्तयोगे मिश्रकाययोग इत्यर्थः। </span>= <span class="HindiText">वैक्रियिक शरीर के अर्थ तिस शरीर रूप परिणमने योग्य जो आहारक वर्गणारूप स्कन्धों के ग्रहण करने की शक्ति, उस सहित आत्मप्रदेशों के चंचलपने को वैक्रियिक काययोग कहते हैं। अथवा कारण में कार्य के उपचार से वैक्रियिक काय ही वैक्रियिक काय योग है। वैक्रियिक काय के मिश्रण सहित जो संप्रयोग अर्थात् कर्म व नोकर्म को ग्रहण करने की शक्ति, उसको प्राप्त अपर्याप्त कालमात्र आत्म-प्रदेशों के परिस्पन्दनरूप योग, वह वैक्रियिक मिश्र काय योग है। अपर्याप्त योग का नाम मिश्रयोग है, ऐसा तात्पर्य है। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> वैक्रियिक व मिश्रयोग का स्वामित्व</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> वैक्रियिक व मिश्रयोग का स्वामित्व</strong> </span><br /> | ||
षट्खण्डागम/1/1, 1/ सूत्र/पृष्ठ <span class="PrakritText">वेउव्वियकायजोगो वेउव्वियमिस्सकायजोगोदेवणेरइयाणं। (58/296)। वेउव्वियकायजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव असंजदसम्माइट्ठि त्ति। (62/305)। वेउव्वियकायजोगो पज्जत्ताणं वेउव्वियमिस्स-कायजोगो अपज्जत्ताणं। (77/317)।</span> = <span class="HindiText">देव और नारकियों के वैक्रियिककाययोग और वैक्रियिक मिश्रकाययोग होता है।58। वैक्रियिककाययोग और वैक्रियिकमिश्रकाययोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि तक होते हैं।62। वैक्रियिककाययोग पर्याप्तकों के और वैक्रियिकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकों के होता है।77।–(और भी देखें [[ वैक्रियिक#1.3 | वैक्रियिक - 1.3]])। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> वैक्रियिक समुद्घात निर्देश</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> वैक्रियिक समुद्घात निर्देश</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.3.1" id="2.3.1"> वैक्रियिक समुद्धात का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3.1" id="2.3.1"> वैक्रियिक समुद्धात का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/20/12/77/16 <span class="SanskritText">एकत्वपृथक्त्वनानाविधविक्रियशरीरवाक्प्रचारप्रहरणादिविक्रियाप्रयोजनो वैक्रियिकसमु-द्धातः। </span>= <span class="HindiText">एकत्व पृथक् आदि नाना प्रकार की विक्रिया के निमित्त से शरीर और वचन के प्रचार, प्रहरण आदि की विक्रिया के अर्थ वैक्रियिक समुद्घात होता है। </span><br /> | |||
धवला 4/1, 3, 2/26/8 <span class="PrakritText">वेउव्वियसमुग्घादो णाम देवणेरइयाण वेउव्वियसरींरोदइल्लाणं सामावियमागारं छड्डिय अण्णा-गारेणच्छणं। </span>= <span class="HindiText">वैक्रियिक शरीर के उदय वाले देव और नारकी जीवों का अपने स्वभाविक आकार को छोड़कर अन्य आकार से रहने तक का नाम वैक्रियिक समुद्धात हैं । </span><br /> | |||
धवला 7/2, 6, 1/299/10 <span class="PrakritText">विविहद्धिस्स माहप्पेण संखेज्जासंखेज्जजोयणाणि सरीरेण ओट्ठहिय अवट्ठाणं वेउव्विय-समुद्घादो णाम। </span>=<span class="HindiText"> विविध ऋद्धियों के माहात्म्य से संख्यात व असंख्यात योजनों को शरीर से व्याप्त करके जीवप्रदेशों के अवस्थान को वैक्रियिक समुद्घात कहते हैं। </span><br /> | |||
द्रव्यसंग्रह टीका/10/25/5 <span class="SanskritText">मूलशरीरमपरित्यज्य किमपि विकर्तुमात्मप्रदेशानां बहिर्गमनमिति विक्रियासमुद्धातः। </span>= <span class="HindiText">किसी प्रकार की विक्रिया उत्पन्न करने के लिए अर्थात् शरीर को छोटा-बड़ा या अन्य शरीर रूप करने के लिए मूल शरीर का न त्याग कर जो आत्मा का प्रदेशों का बाहर जाना है उसको ‘विक्रिया’ समुद्घात कहते हैं। </span></li> | |||
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Revision as of 19:15, 17 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
देवों और नारकियों के चक्षु अगोचर शरीर विशेष को वैक्रियिक शरीर कहते हैं। यह छोटे बड़े हलके भारी अनेक प्रकार के रूपों में परिवर्तित किया जा सकता है। किन्हीं योगियों को ऋद्धि के बल से प्रगटा वैक्रियिक शरीर वास्तव में औदारिक ही है। इस शरीर के साथ होने वाला आत्म प्रदेशों का कम्पन्न वैक्रियिक काययोग है और कुछ आत्मप्रदेशों का शरीर से बाहर निकल कर फैलना वैक्रियिक समुद्धात है।
- [[ वैक्रियिक शरीर निर्देश ]]
- [[वैक्रियिक शरीर निर्देश #1.1 | वैक्रियिक शरीर का लक्षण।]]
- [[वैक्रियिक शरीर निर्देश #1.2 | वैक्रियिक शरीर के भेद व उनके लक्षण। ]]
- [[वैक्रियिक शरीर निर्देश #1.3 | वैक्रियिक शरीर का स्वामित्व।]]
- [[वैक्रियिक शरीर निर्देश #1.4 | कौन कैसी विक्रिया करे। ]]
- [[वैक्रियिक शरीर निर्देश #1.5 | वैक्रियिक शरीर के उ.ज.प्रदेशों का स्वामित्व। ]]
- [[वैक्रियिक शरीर निर्देश #1.6 | मनुष्य तिर्यंचों का वैक्रियिक शरीर वास्तव में अप्रधान है।]]
- [[वैक्रियिक शरीर निर्देश #1.7 | तिर्यंच मनुष्यों में वैक्रियिक शरीर के विधि निषेध का समन्वय। ]]
- [[वैक्रियिक शरीर निर्देश #1.8 | उपपाद व लब्धि प्राप्त वैक्रियिक शरीर में अन्तर।]]
- [[वैक्रियिक शरीर निर्देश #1.9 | वैक्रियिक व आहारक में कथंचित् प्रतिघातीपना। ]]
- इस शरीर की अवगाहना व स्थिति।–देखें वह वह नाम ।
- पाँचों शरीरों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता।–देखें शरीर - 1।
- वैक्रियिक शरीर नामकर्म का बंधउदय सत्त्व।–देखें वह वह नाम ।
- वैक्रियिक शरीर संघातन परिशातन कृति।–(देखें धवला - 9.4, 1, 54/355-415 )
- विक्रिया ऋद्धि।–देखें ऋद्धि - 3।
- [[वैक्रियिक शरीर निर्देश #1.1 | वैक्रियिक शरीर का लक्षण।]]
- वैक्रियिक व मिश्र काय योग निर्देश
- [[वैक्रियिक व मिश्र काय योग निर्देश #2.1 | वैक्रियिक व मिश्र काय योग के लक्षण। ]]
- [[वैक्रियिक व मिश्र काय योग निर्देश #2.2 | वैक्रियिक व मिश्र काय योग का स्वामित्व।]]
- पर्याप्त को मिश्रयोग क्यों नहीं।–देखें काय - 3।
- भाव मार्गणा इष्ट है।–देखें मार्गणा ।
- इसके स्वामियों के गुणस्थान मार्गणास्थान जीव समास आदि 20 प्ररूपणाएँ।–देखें सत् ।
- इसके स्वामियों के सत् संख्या क्षेत्र स्पर्श काल अन्तर भाव व अल्पबहुत्व।–देखें वह वह नाम ।
- इस योग में कर्मों का बन्ध उदय सत्त्व।–देखें वह वह नाम ।
- [[वैक्रियिक व मिश्र काय योग निर्देश #2.3 | वैक्रियिक समुद्घात निर्देश ]]
- [[वैक्रियिक व मिश्र काय योग निर्देश #2.3.1 | वैक्रियिक समुद्घात का लक्षण। ]]
- [[वैक्रियिक व मिश्र काय योग निर्देश #2.3.1 | वैक्रियिक समुद्घात का लक्षण। ]]
- इसमें आत्मप्रदेशों का विस्तार।–देखें वैक्रियिक - 1.8।
- इसकी दिशा व अवस्थिति।–देखें समुद्धात ।
- इसका स्वामित्व।–देखें क्षेत्र - 3।
- इसमें मन वचन योग की सम्भावना।–देखें योग - 4।
- [[वैक्रियिक व मिश्र काय योग निर्देश #2.1 | वैक्रियिक व मिश्र काय योग के लक्षण। ]]
- वैक्रियिक शरीर निर्देश
- वैक्रियिक शरीर का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि /2/36/191/6 अष्टगुणैश्वर्ययोगादेकानेकाणुमहच्छरीरविविधकरणं विक्रिया, सा प्रयोजनमस्येति वैक्रियिकम्। = अणिमा, महिमा आदि आठ गुणों के (देखें ऋद्धि - 3) ऐश्वर्य के सम्बन्ध से एक, अनेक, छोटा, बड़ा आदि नाना प्रकार का शरीर करना विक्रिया है। वह विक्रिया जिस शरीर का प्रयोजन है वह वैक्रियिक शरीर है। ( राजवार्तिक /2/36/6/146 /7 ); ( धवला 1/1, 1, 56/291/6 )।
षट्खण्डागम 14/5, 6/ सू.238/325 विविहइड्ढिगुणजुत्तमिदि वेउव्वियं।538। = विविधगुण ऋद्धियों से युक्त है (देखें ऋद्धि - 3), इसलिए वैक्रियिक है।238। ( राजवार्तिक/2/49/8/153/13 ); (देखें वैक्रियिक - 2.1)।
- विक्रिया के भेद व उनके लक्षण
राजवार्तिक/2/47/4/152/7 सा द्वेधा-एकत्वविक्रिया पृथक्त्वविक्रिया चेति। तत्रैकत्वविक्रिया स्वशरीरादपृथग्भावेन सिंहव्याघ्रहंसकुररादिभावेन विक्रिया। पृथक्त्वविक्रिया स्वशरीरादन्यत्वेन प्रासादमण्डपादिविक्रिया। = वह विक्रिया दो प्रकार की है–एकत्व व पृथक्त्व। तहाँ अपने शरीर को ही सिंह, व्याघ्र, हिरण, हंस आदि रूप से बना लेना एकत्व विक्रिया है और शरीर से भिन्न मकान, मण्डप आदि बना देना पृथक्त्व विक्रिया है। - वैक्रियिक शरीर का स्वामित्व
तत्त्वार्थसूत्र/2/46, 47 औपपादिकं वैक्रियिकम्।46। लब्धिप्रत्ययं च।47। = वैक्रियिक शरीर उपपाद जन्म से पैदा होता है। तथा लब्धि (ऋद्धि) से भी पैदा होता है।
राजवार्तिक/2/49/8/153/23 वैक्रियिकं देवनारकाणाम्, तेजोवायुकायिकपञ्चेन्द्रियतिर्यङ्मनुष्याणां च केषांचित्। = देव नारकियों की, (पर्याप्त) तेज व वायु कायिकों को तथा किन्हीं किन्हीं (पर्याप्त) पञ्चेन्द्रिय तिर्यंचों व मनुष्यों को वैक्रियिक शरीर होता है। ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/233/496 )।
धवला 4/1, 4, 66/249/3 तेउक्काइयपज्जत्ता चेव बेउब्वियसरीरं उट्ठावेंति, अपज्जत्तेसु तदभावा। ते च पज्जत्ता कम्मभूमीसु चेव होंति त्ति। = तेजस्कायिक पर्याप्तक जीव ही वैक्रियिक शरीर को उत्पन्न करते हैं, क्योंकि अपर्याप्तक जीवों में वैक्रियिक शरीर के उत्पन्न करने की शक्ति का अभाव है। और वे पर्याप्त जीव कर्मभूमि में ही होते हैं।–देखें शरीर - 2 (पाँचों शरीरों के स्वामित्वकी ओघ आदेश प्ररूपणा/.)।
- कौन कैसी विक्रिया करे
राजवार्तिक/2/47/4/152/9 सा उभयी व विद्यते भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्ककल्पवासिनाम्। वैमानिकानां आसर्वा-र्थसिद्धेः प्रशस्तरूपैकत्वविक्रिथैव। नारकाणां त्रिशूलचक्रासिमुद्हगरपरशुभिण्डिवालाद्यनेकायुधैकत्वविक्रिया न पृथक्त्वविक्रिया आ षष्ठयाः। सप्तम्यां महागोकीटकप्रमाणलोहितकुन्थुरूपैकत्वविक्रिया नानेकप्रहरणविक्रिया, न च पृथकत्वविक्रिया। तिरश्चां मयूरादीनां कुमारादिभावं प्रतिविशिष्टैकत्वविक्रिया न पृथक्त्वविक्रिया। मनुष्याणां तपोविद्यादिप्राधान्यात् प्रतिविशिष्टैकत्वपृथक्त्वविक्रिया। = भवनवासी व्यन्तर ज्योतिषी और सोलह स्वर्गों के देवों के एकत्व व पृथक्त्व दोनों प्रकार की विक्रिया होती है। ऊपर ग्रैवेयक आदि सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त के देवों के प्रशस्त एकत्व विक्रिया ही होती है। छठवें नरक तक के नारकियों के त्रिशूल चक्र तलवार मुद्गर आदि रूप से जो विक्रिया होती है वह एकत्व विक्रिया ही है न कि पृथक्त्व विक्रिया। सातवें नरक में गाय बराबर कीड़े लोहू आदि रूप से एकत्वविक्रिया ही होती है, आयुधरूप से पृथक् विक्रिया नहीं होती। तिर्यंचों में मयूर आदि के कुमार आदि भावरूप एकत्व विक्रिया ही होती है पृथक्त्व विक्रिया नहीं होती। मनुष्यों के तप और विद्या की प्रधानता से एकत्व व पृथक्त्व दोनों विक्रिया होती हैं।
धवला 9/4, 1, 71/355/2 णेरइएसु वेउव्वियपरिसादणकदी णत्थि पुधविउव्वणाभावादो। = नारकियों में वैक्रियिक शरीर की परिशातन कृति नहीं हेाती, क्योंकि उनके पृथक् विक्रिया का अभाव है।
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/233/497/3 येषं जीवानां औदारिकशरीरमेव विगूर्वणात्मकं विक्रियात्मकं भवेत् ते जीवाः अपृथग्विक्रियया परिणमन्तीत्यर्थः। भोगभूमिजाः चक्रवर्तिनश्च पृथग् विगूर्वन्ति। = जिन जीवों के औदारिक शरीर ही विक्रियात्मक होते हैं अर्थात् तिर्यंच और मनुष्य अपृथक् विक्रिया के द्वारा ही परिणमन करते हैं। परन्तु भोगभूमिज और चक्रवर्ती पृथक् विक्रिया भी करते हैं।
- वैक्रियिक शरीर के उ.ज.प्रदेशों का स्वामित्व
षट्खण्डागम 14/5, 6/ सूत्र 431-444/411-413 उक्कस्सपदेण वेउव्वियसरीरस्स उक्कस्सयं पदेसग्गं कस्स।431। अण्ण-दरस्स आरणअच्चुदकप्पवासियदेवस्स वावीससागरोवमट्ठिदियस्स।432। तेणे पढमसमयआहारएण पढमसमय-तब्भवत्थेण उक्कस्सजोगेण आहारिदो।433। उक्कस्सियाए वड्ढीए वड्ढिदो।434। अंतोमुहुत्तेण सव्वलहुं सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तपदो।435। तस्स अप्पाओ भासद्धाओ।436। अप्पाओ मणजोगद्धाओ।437। णत्थि अविच्छेदा।438। अप्पदरं विउव्विदो।439। थोवावसेसे जीविदव्वए त्ति जोगजवमज्झस्सुवरिमंतोमुहुत्तद्वमच्छिदो।440। चरिमे जीवगुणहाणिट्ठाणंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागमिच्छदो।441। चरिमदुचरिमसमए उक्कस्सजोगं गदो।442। तस्स चरिमसमयतब्भवत्थस्स तस्स वेउव्वियसरीरस्स उक्कस्सपदेसग्गं।443। तव्वदिरित्तमणुक्कस्सं।444।
षट्खण्डागम 14/5, 6/ सूत्र 483-486/424-425 जहण्णवेउव्वियसरीरस्स जहण्णयं पदेसग्गं कस्स।483। अण्णदरस्स देवणेरइयस्स असण्णिपच्छायदस्स।484। पढमसमयआहारयस्स पढमसमयतब्भवत्थस्स जहण्णजोगिस्स तस्स वेउव्वियसरीरस्स जहण्णयं पदेसग्गं।485। तव्वदिरित्तमजहण्णं।486। = उत्कृष्ट पद की अपेक्षा वैक्रियिकशरीर के उत्कृष्ट प्रदेशाग्र का स्वामी कौन है।431। जो बाईस सागर की स्थितिवाला आरण, अच्युत, कल्पवासी अन्यतरदेव है।432। उसी देव ने प्रथमसमय में आहारक और तद्भवस्थ होकर उत्कृष्ट योग से आहार को ग्रहण किया है।433। उत्कृष्ट वृद्धि से वृद्धि को प्राप्त हुआ है।434। सर्वलघु अन्तर्मुहूर्तकाल द्वारा सब पर्याप्तियों में पर्याप्त हुआ है।435। उसे बोलने के काल अल्प हैं।436। मनोयोग के काल अल्प हैं।437। उसके अविच्छेद नहीं है।438। उसने अल्पतर विक्रिया की है।439। जीवितव्य के स्तोक शेष रहने पर वह योगयवमध्य के ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक रहा।440। अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तर में आवलि के असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक रहा।441। चरम और द्विचरम समय में उत्कृष्ट योग को प्राप्त हुआ।442। अन्तिम समय में तद्भवस्थ हुआ, वह जीव वैक्रियिक शरीर के उत्कृष्ट प्रदेशाग्र का स्वामी है।443। उससे व्यतिरिक्त अनुत्कृष्ट है।444। जघन्य पद की वैक्रियिक शरीर के जघन्य प्रदेशाग्र का स्वामी कौन है।483। असंज्ञियों से आकर उत्पन्न हुआ जो अन्यतरदेव और नारकी जीव हैं।488। प्रथम समय में आहारक और तद्भवस्थ हुआ जघन्य योग वाला वह जीव वैक्रियिक शरीर के प्रदेशाग्र का स्वामी है।485। उससे अन्यतर अजघन्य प्रदेशाग्र है।486।
- मनुष्य तिर्यंचों के वैक्रियिक शरीर अप्रधान हैं
धवला 1/1, 1, 58/296/9 तिर्यंचों मनुष्याश्च वैक्रियिकशरीराः श्रूयन्ते तत्कथं घटत इति चेन्न, औदारिकशरीरं द्विविधं विक्रियात्मकमविक्रियात्मकमिति। तत्र यद्विक्रियात्मकं तद्वैक्रियिकमिति तत्रोक्तं न तदत्र परिगृह्यते विविधगुणद्धर्यभावात्। अत्र विविधगुणद्धर्थात्मकं परिगृह्यते, तच्च देवनारकाणामेव। = प्रश्न–तिर्यंच और मनुष्य भी वैक्रियिक शरीर वाले सुने जाते हैं, (इसलिए उनके भी वैक्रियिक काययोग होना चाहिए)? उत्तर–नहीं, क्योंकि औदारिक शरीर दो प्रकार का है, विक्रियात्मक और अविक्रियात्मक। उनमें जो विक्रियात्मक औदारिक शरीर है वह मनुष्य और तिर्यंचों के वैक्रियिक रूप में कहा गया है। उसका यहाँ पर ग्रहण नहीं किया है, क्योंकि उसमें नाना गुण और ऋद्धियों का अभाव है। यहाँ पर नाना गुण और ऋद्धियुक्त वैक्रियिक शरीर का ही ग्रहण किया है और वह देव और नारकियों के ही होता है। ( धवला 9/4, 1, 69/327/12 )।
धवला 9/4, 1, 69/327/12 णत्थि तिरिक्खमणुस्सेसु वेउव्वियसरीरं, एदेसु वेउव्वियसरीराणामकम्मोदयाभावादो। = तिर्यंच व मनुष्यों के वैक्रियिक शरीर सम्भव नहीं है, क्योंकि इनके वैक्रियिक शरीर नामकर्म का उदय नहीं पाया जाता।
- तिर्यंच व मनुष्यों में वैक्रियिक शरीर के विधिनिषेध का समन्वय
राजवार्तिक/2/49/8/153/25 आह चोदकः–जीवस्थाने योगभङ्गे सप्तविधकाययोगस्वामिप्ररूपणायाम् -‘‘औदारिक-काययोगः औदारिकमिश्रकाययोगश्च तिर्यङ्मनुष्याणाम्, वैक्रियिककाययोगो वैक्रियिकमिश्रकाययोगश्च देवनारकाणाम्’’ उक्तः, इह तिर्यङ्मनुष्याणामपीत्युच्यते; तदिदमार्षविरुद्धमिति; अत्रोच्यते–न, अन्यत्रोपदेशात्। व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकेषु शरीरभङ्गे वायोरौदारिकवैक्रियिकतैजसकार्मणानि चत्वारि शरीराण्युक्तानि मनुष्याणां पञ्च। एवमप्यार्षयोस्तयोर्विरोधः, न विरोधः, अभिप्रायकत्वात्। जीवस्थाने सर्वदेवनारकाणां सर्वकालं वैक्रियिकदर्शनात् तद्योगविधिरित्यभिप्रायः नैवं तिर्यग्मनुष्याणां लब्धिप्रत्ययं वैक्रियिकं सर्वेषां सर्वकालमस्ति कादाचित्कत्वात्। व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकेषु त्वस्तित्वमात्रमभिप्रेत्योत्तम्। = प्रश्न–जीव स्थान के योगभंग प्रकरण में तिर्यंच और मनुष्यों के औदारिक और आदौरिकमिश्र तथा देव और नारकियों के वैक्रियिक और वैक्रियिकमिश्र काय योग बताया है (देखें वैक्रियिक - 2); पर यहाँ तो तिर्यंच और मनुष्यों के भी वैक्रियिक का विधान किया है। इस तरह परस्पर विरोध आता है? उत्तर–व्याख्याप्रज्ञप्ति दण्डक के शरीर भंग में वायुकायिक के औदारिक, वैक्रियिक, तैजस और कार्माण ये चार शरीर तथा मनुष्यों के आहारक सहित पाँच शरीर बताये हैं (देखें शरीर - 2.2)। भिन्न-भिन्न अभिप्रायों से लिखे गये उक्त संदर्भों में परस्पर विरोध भी नहीं है। जीवस्थान में जिस प्रकार देव और नारकियों के सर्वदा वैक्रियिक शरीर रहता है, उस तरह तिर्यंच और मनुष्य के नहीं होता, इसलिए तिर्यंच और मनुष्यों के वैक्रियिक शरीर का विधान नहीं किया है। जब कि व्याख्या प्रज्ञप्ति में उसके सद्भाव मात्र से ही उसका विधान कर दिया है।
- उपपाद व लब्धि प्राप्त वैक्रियिक शरीरों में अन्तर
राजवार्तिक/2/47/3/152/1 उपपादो हि निश्चयेन भवति जन्मनिमित्तत्वात्, लब्धिस्तु कादाचित्की जातस्य सत उत्तरकालं तपोविशेषाद्यपेक्षत्वादिति, अयमनयोर्विशेषः। = उपपाद तो जन्म के निमित्तवश निश्चित रूप से होता है और लब्धि किसी के ही विशेष तप आदि करने पर कभी होती है। यही इन दोनों में विशेष है।
गोम्मटसार जीवकाण्ड/ भाषा/543/948/3 इहां ऐसा अर्थ जाननां–जो देवनिकै मूल शरीर तौ अन्यक्षेत्रविषै तिष्ठै है अर विहारकर क्रियारूप शरीर अन्य क्षेत्र विषैतिष्ठै है। तहाँ दोऊनि के बीचि आत्मा के प्रदेश सूच्यं गुलका असंख्यातवां भाग मात्र प्रदेश ऊँचे चौड़े फैले हैं अर यह मुख्यता की अपेक्ष संख्यात योजन लंबे कहे हैं (देखें वैक्रियिक - 3)। बहुरि देव अपनी-अपनी इच्छातैं हस्ती घोटक इत्यादिक रूप विक्रिया करैं ताकी अवगाहना एक जीव की अपेक्षा संख्यात घनांगुल प्रमाण है। ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/ भाषा/544/957/18)।
- वैक्रियिक व आहारक शरीर में कथंचित् प्रतिघातीपना
सर्वार्थसिद्धि/2/40/193/11 ननु च वैक्रियिकाहारकयोरपि नास्ति प्रतिघातः। सर्वत्राप्रतिघातोऽत्र विवक्षितः। यथा तैजसकार्मणयोराः लोकान्तात् सर्वत्र नास्ति प्रतिघातः न तथा वैक्रियिकाहारकयोः। = प्रश्न–वैक्रियिक और आहारक का भी प्रतिघात नहीं होता, फिर यहाँ तैजस और कार्मण शरीर को ही अप्रतिघात क्यों कहा (देखें शरीर , 1/5)? उत्तर–इस सूत्र में सर्वत्र प्रतिघात का अभाव विवक्षित है जिस प्रकार तैजस और कार्मण शरीर का लोकपर्यन्त सर्वत्र प्रतिघात नहीं होता, वह बात वैक्रियिक और आहारक शरीर की नहीं है।
- वैक्रियिक शरीर का लक्षण
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वैक्रियिक व मिश्रकाययोग निर्देश
- वैक्रियिक व मिश्रकाययोग के लक्षण
पं.सं./प्रा./1/95-96 विविहगुणइड्ढिजुत्तं वेउव्वियमहवविकिरिय चेव। तिस्से भवं च णेयं वेउव्वियकायजोगो सो।95। अंतोमुहुत्तमज्झं वियाण मिस्सं च अपरिपुण्णो त्ति। जो तेण सपओगो वेउव्वियमिस्सकायजोगो सो।96। = विविध गुण और ऋद्धियों से युक्त, अथवा विशिष्ट क्रिया वाले शरीर को वैक्रियिक कहते हैं। उसमें उत्पन्न होने वाला जो योग है, उसे वैक्रियिककाययोग जानना चाहिए।95। वैक्रियिक शरीर की उत्पत्ति प्रारम्भ होने के प्रथम समय से लगाकर शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने तक अन्तर्मुहूर्त के मध्यवर्ती अपरिपूर्ण शरीर को वैक्रियिकमिश्र काय कहते हैं। उसके द्वारा होने वाला जो संयोग है (देखें योग - 1)।वह वैक्रियिकमिश्र काययोग कहलाता है। अर्थात् देव, नारकियों के उत्पन्न होने के प्रथम समय से लेकर शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने तक कार्मणशरीर की सहायता से उत्पन्न होने वाले वैक्रियिक काययोग को वैक्रियिकमिश्र काययोग कहते हैं। ( धवला 1/1, 1, 56/ गा.162-163/291), ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/232-234/495, 497 )।
धवला 1/1, 1, 56/291/6 तदवष्टम्भतः समुत्पन्नपरिस्पन्देन योगः वैक्रियिककाययोगः। कार्मणवैक्रियकस्कन्धतः समु-त्पन्नवीर्येण योगः वैक्रियिकमिश्रकाययोगः। = उस (वैक्रियिक) शरीर के अवलम्बन से उत्पन्न हुए परिस्पन्द द्वारा जो प्रयत्न होता है उसे वैक्रियिक काययोग कहते हैं। कार्मण और वैक्रियिक वर्गणाओं के निमित्त से उत्पन्न हुई शक्ति से जो परिस्पन्द के लिए प्रयत्न होता है, उसे वैक्रियिकमिश्र काययोग कहते हैं।
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/223/495/15 वैगूर्विककायार्थं तद्रूपपरिणमनयोग्यशरीरवर्गणास्कन्धाकर्षणशक्तिविशिष्टात्मप्रदेश-परिस्पन्दः स वैगूर्विककाययोग इति ज्ञेयः ज्ञातव्यः। अथवा वैक्रियिककाय एव वैक्रियिककाययोगः कारणे कार्योपचारात्।
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/234/498/1 वैक्रियिककायमिश्रेण सह यः संप्रयोगः कर्मनोकर्माकर्षणशक्तिसंगतापर्याप्तकाल-मात्रात्मप्रदेश–परिस्पन्दरूपो योगः स वैक्रियिककायमिश्रयोगः। अपर्याप्तयोगे मिश्रकाययोग इत्यर्थः। = वैक्रियिक शरीर के अर्थ तिस शरीर रूप परिणमने योग्य जो आहारक वर्गणारूप स्कन्धों के ग्रहण करने की शक्ति, उस सहित आत्मप्रदेशों के चंचलपने को वैक्रियिक काययोग कहते हैं। अथवा कारण में कार्य के उपचार से वैक्रियिक काय ही वैक्रियिक काय योग है। वैक्रियिक काय के मिश्रण सहित जो संप्रयोग अर्थात् कर्म व नोकर्म को ग्रहण करने की शक्ति, उसको प्राप्त अपर्याप्त कालमात्र आत्म-प्रदेशों के परिस्पन्दनरूप योग, वह वैक्रियिक मिश्र काय योग है। अपर्याप्त योग का नाम मिश्रयोग है, ऐसा तात्पर्य है।
- वैक्रियिक व मिश्रयोग का स्वामित्व
षट्खण्डागम/1/1, 1/ सूत्र/पृष्ठ वेउव्वियकायजोगो वेउव्वियमिस्सकायजोगोदेवणेरइयाणं। (58/296)। वेउव्वियकायजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव असंजदसम्माइट्ठि त्ति। (62/305)। वेउव्वियकायजोगो पज्जत्ताणं वेउव्वियमिस्स-कायजोगो अपज्जत्ताणं। (77/317)। = देव और नारकियों के वैक्रियिककाययोग और वैक्रियिक मिश्रकाययोग होता है।58। वैक्रियिककाययोग और वैक्रियिकमिश्रकाययोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि तक होते हैं।62। वैक्रियिककाययोग पर्याप्तकों के और वैक्रियिकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकों के होता है।77।–(और भी देखें वैक्रियिक - 1.3)।
- वैक्रियिक समुद्घात निर्देश
- वैक्रियिक समुद्धात का लक्षण
राजवार्तिक/1/20/12/77/16 एकत्वपृथक्त्वनानाविधविक्रियशरीरवाक्प्रचारप्रहरणादिविक्रियाप्रयोजनो वैक्रियिकसमु-द्धातः। = एकत्व पृथक् आदि नाना प्रकार की विक्रिया के निमित्त से शरीर और वचन के प्रचार, प्रहरण आदि की विक्रिया के अर्थ वैक्रियिक समुद्घात होता है।
धवला 4/1, 3, 2/26/8 वेउव्वियसमुग्घादो णाम देवणेरइयाण वेउव्वियसरींरोदइल्लाणं सामावियमागारं छड्डिय अण्णा-गारेणच्छणं। = वैक्रियिक शरीर के उदय वाले देव और नारकी जीवों का अपने स्वभाविक आकार को छोड़कर अन्य आकार से रहने तक का नाम वैक्रियिक समुद्धात हैं ।
धवला 7/2, 6, 1/299/10 विविहद्धिस्स माहप्पेण संखेज्जासंखेज्जजोयणाणि सरीरेण ओट्ठहिय अवट्ठाणं वेउव्विय-समुद्घादो णाम। = विविध ऋद्धियों के माहात्म्य से संख्यात व असंख्यात योजनों को शरीर से व्याप्त करके जीवप्रदेशों के अवस्थान को वैक्रियिक समुद्घात कहते हैं।
द्रव्यसंग्रह टीका/10/25/5 मूलशरीरमपरित्यज्य किमपि विकर्तुमात्मप्रदेशानां बहिर्गमनमिति विक्रियासमुद्धातः। = किसी प्रकार की विक्रिया उत्पन्न करने के लिए अर्थात् शरीर को छोटा-बड़ा या अन्य शरीर रूप करने के लिए मूल शरीर का न त्याग कर जो आत्मा का प्रदेशों का बाहर जाना है उसको ‘विक्रिया’ समुद्घात कहते हैं।
- वैक्रियिक समुद्धात का लक्षण
- वैक्रियिक व मिश्रकाययोग के लक्षण
पुराणकोष से
औदारिक आदि पाँच शरीरों में दूसरा शरीर । यह औदारिक की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म होता है । देवों और नारकियों का ऐसा ही शरीर होता है । महापुराण 5.255, 9.184, पद्मपुराण 105.152