शब्दनय निर्देश: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText" name="III.6.1" id="III.6.1"> शब्दनय का सामान्य लक्षण </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.6.1" id="III.6.1"> शब्दनय का सामान्य लक्षण </span><br /> | ||
आलापपद्धति/9 <span class="SanskritText">शब्दाद् व्याकरणात् प्रकृतिप्रत्ययद्वारेण सिद्ध: शब्द: शब्दनय:।</span> =<span class="HindiText">शब्द अर्थात् व्याकरण से प्रकृति व प्रत्यय आदि के द्वारा सिद्ध कर लिये गये शब्द का यथायोग्य प्रयोग करना शब्दनय है।<br /> | |||
देखें [[ नय#I.4.2 | नय - I.4.2 ]](शब्द पर से अर्थ का बोध कराने वाला शब्दनय है)।<br /> | देखें [[ नय#I.4.2 | नय - I.4.2 ]](शब्द पर से अर्थ का बोध कराने वाला शब्दनय है)।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="III.6.2" id="III.6.2">अनेक शब्दों का एक वाच्य मानता है। </span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.6.2" id="III.6.2">अनेक शब्दों का एक वाच्य मानता है। </span><br /> | ||
राजवार्तिक/4/42/17/261/16 <span class="SanskritText">शब्दे अनेकपर्यायशब्दवाच्य: एक:। </span>=<span class="HindiText">शब्दनय में अनेक पर्यायवाची शब्दों का वाच्य एक होता है।</span><br /> | |||
स्याद्वादमञ्जरी/28/313/2 <span class="SanskritText">शब्दस्तु रूढ़ितो यावन्तो ध्वनय: कस्मिश्चिदर्थे प्रवर्तन्ते यथा इन्द्रशक्रपुरन्दरादय: सुरपतौ तेषां सर्वेषामप्येकमर्थमभिप्रैति किल प्रतीतिवशाद् ।</span>=<span class="HindiText">रूढि से सम्पूर्ण शब्दों के एक अर्थ में प्रयुक्त होने को शब्दनय कहते हैं। जैसे इन्द्र शक्र पुरन्दर आदि शब्द एक अर्थ के द्योतक हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="III.6.3" id="III.6.3"> पर्यायवाची शब्दों में अभेद मानता है </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.6.3" id="III.6.3"> पर्यायवाची शब्दों में अभेद मानता है </span><br /> | ||
राजवार्तिक/4/42/17/261/11 <span class="SanskritText">शब्दे पर्यायशब्दान्तरप्रयोगेऽपि तस्यैवार्थस्याभिधानादभेद:। </span>=<span class="HindiText">शब्दनय में पर्यायवाची विभिन्न शब्दों का प्रयोग होने पर भी, उसी अर्थ का कथन होता है, अत: अभेद है।</span><br /> | |||
स्याद्वादमञ्जरी/28/313/26 <span class="SanskritText"> न च इन्द्रशक्रपुरन्दरादय: पर्यायशब्दा विभिन्नार्थवाचितया कदाचन प्रतीतयन्ते। तेभ्य: सर्वदा एकाकारपरामर्शोत्पत्तेरस्खलितवृत्तितया तथैव व्यवहारदर्शनात् । तस्मादेक एव पर्यायशब्दानामर्थ इति। शब्द्यते आहूयतेऽनेनाभिप्रायेणार्थ: इति निरुक्तात् एकार्थप्रतिपादनाभिप्रायेणैव पर्यायध्वनीनां प्रयोगात् ।</span>=<span class="HindiText">इन्द्र, शक्र और पुरन्दर आदि पर्यायवाची शब्द कभी भिन्न अर्थ का प्रतिपादन नहीं करते; क्योंकि, उनसे सर्वदा अस्खलित वृत्ति से एक ही अर्थ के ज्ञान होने का व्यवहार देखा जाता है। अत: पर्यायवाची शब्दों का एक ही अर्थ है। ‘जिस अभिप्राय से शब्द कहा जाय या बुलाया जाय उसे शब्द कहते हैं’, इस निरुक्ति पर से भी उपरोक्त ही बात सिद्ध होती है, क्योंकि एकार्थ प्रतिपादन के अभिप्राय से ही पर्यायवाची शब्द कहे जाते हैं।<br /> | |||
देखें [[ नय#III.7.4 | नय - III.7.4 ]](परन्तु यह एकार्थता समान काल व लिंग आदि वाले शब्दों में ही है, सब पर्यायवाचियों में नहीं)।<br /> | देखें [[ नय#III.7.4 | नय - III.7.4 ]](परन्तु यह एकार्थता समान काल व लिंग आदि वाले शब्दों में ही है, सब पर्यायवाचियों में नहीं)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.6.4" id="III.6.4"> पर्यायवाची शब्दों के प्रयोग में लिंग आदि का व्यभिचार स्वीकार नहीं करता </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.6.4" id="III.6.4"> पर्यायवाची शब्दों के प्रयोग में लिंग आदि का व्यभिचार स्वीकार नहीं करता </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/143/4 <span class="SanskritText">लिङ्गसंख्यासाधनादिव्यभिचारनिवृत्तिपर: शब्दनय:।</span>=<span class="HindiText">लिंग, संख्या, साधन आदि (पुरुष, काल व उपग्रह) के व्यभिचार की निवृत्ति करने वाला शब्दनय है। ( राजवार्तिक/1/33/9/98/12 ); ( हरिवंशपुराण/58/47 ); ( धवला 1/1,1,1/87/1 ); ( धवला 9/4,1,45/176/5 ); ( कषायपाहुड़ 1/13-14/197/235 ); ( तत्त्वसार/1/48 )।</span><br /> | |||
राजवार्तिक/1/33/9/98/23 <span class="SanskritText"> एवमादयो व्यभिचारा अयुक्ता:। कुत:। अन्यार्थस्याऽन्यार्थेन संबन्धाभावात् । यदि स्यात् घट: पटो भवतु पटो वा प्रासाद इति। तस्माद्यथालिङ्ग यथासंख्यं यथासाधनादि च न्याय्यमभिधानम् ।</span>=<span class="HindiText">इत्यादि व्यभिचार (देखें [[ आगे ]]) अयुक्त हैं, क्योंकि अन्य अर्थ का अन्य अर्थ से कोई सम्बन्ध नहीं है। अन्यथा घट पट हो जायेगा और पट मकान बन बैठेगा। अत: यथालिंग यथावचन और यथासाधन प्रयोग करना चाहिए। ( सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/1 ) ( श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लो.72/256) ( धवला 1/1,1,1/89/1 ) ( धवला 9/4,1,45/178/3 ); ( कषायपाहुड़ 1/13-14/197/237/3 )।</span><br /> | |||
श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लो.68/255 <span class="SanskritText">कालादिभेदतोऽर्थस्य भेदं य: प्रतिपादयेत् । सोऽत्र शब्दनय: शब्दप्रधानत्वादुदाहृत:।</span>=<span class="HindiText">जो नय काल कारक आदि के भेद से अर्थ के भेद को समझता है, वह शब्द प्रधान होने के कारण शब्दनय कहा जाता है। (प्रमेय कमल मार्तण्ड/पृ.206) ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा 275 )।</span><br /> | |||
नयचक्र बृहद्/213 <span class="PrakritGatha">जो वहणं ण मण्णइ एयत्थे भिण्ण्लिंग आईणं। सो सद्दणओ भणिओ णेओ पुंसाइआण जहा।213।</span>=<span class="HindiText">जो भिन्न लिंग आदि वाले शब्दों को एक अर्थ में वृत्ति नहीं मानता वह शब्दनय है, जैसे पुरुष, स्त्री आदि।</span><br /> | |||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.17 <span class="SanskritText">शब्दप्रयोगस्यार्थं जानामीति कृत्वा तत्र एकार्थमेकशब्देन ज्ञाने सति पर्यायशब्दस्य अर्थक्रमो यथेति चेत् पुष्यतारका नक्षत्रमित्येकार्थो भवति। अथवा दारा: कलत्रं भार्या इति एकार्थो भवतीति कारणेन लिङ्गसंख्यासाधनादिव्यभिचारं मुक्त्वा शब्दानुसारार्थं स्वीकर्तव्यमिति शब्दनय:। उक्तं च‒लक्षणस्य प्रवृत्तौ वा स्वभावाविष्टालिङ्गत:। शब्दो लिङ्गं स्वसंख्यां च न परित्यज्य वर्तते। </span>=<span class="HindiText">’शब्दप्रयोग के अर्थ को मैं जानता हूं’ इस प्रकार के अभिप्राय को धारण करके एक शब्द के द्वारा एक अर्थ के जान लेने पर पर्यायवाची शब्दों के अर्थक्रम को (भी भली भांति जान लेता है)। जैसे पुष्य तारका और नक्षत्र, भिन्न लिंगवाले तीन शब्द (यद्यपि) एकार्थवाची है’ अथवा दारा कलत्र भार्या ये तीनों भी (यद्यपि) एकार्थवाची हैं। परन्तु कारणवशात् लिंग संख्या साधन वगैरह व्यभिचार को छोड़कर शब्द के अनुसार अर्थ का स्वीकार करना चाहिए इस प्रकार शब्दनय है। कहा भी है‒लक्षण की प्रवृत्ति में या स्वभाव से आविष्ट-युक्त लिंग से शब्दनय, लिंग और स्वसंख्या को न छोड़ते हुए रहता है। इस प्रकार शब्दनय बतलाया गया है।<br /> | |||
भावार्थ‒(यद्यपि ‘भिन्न लिंग आदि वाले शब्द भी व्यवहार में एकार्थवाची समझे जाते हैं,’ ऐसा यह नय जानता है, और मानता भी है; परन्तु वाक्य में उनका प्रयोग करते समय उनमें लिंगादि का व्यभिचार आने नहीं देता। अभिप्राय में उन्हें एकार्थवाची समझते हुए भी वाक्य में प्रयोग करते समय कारणवशात् लिंगादि के अनुसार ही उनमें अर्थभेद स्वीकार करता है।) ( | भावार्थ‒(यद्यपि ‘भिन्न लिंग आदि वाले शब्द भी व्यवहार में एकार्थवाची समझे जाते हैं,’ ऐसा यह नय जानता है, और मानता भी है; परन्तु वाक्य में उनका प्रयोग करते समय उनमें लिंगादि का व्यभिचार आने नहीं देता। अभिप्राय में उन्हें एकार्थवाची समझते हुए भी वाक्य में प्रयोग करते समय कारणवशात् लिंगादि के अनुसार ही उनमें अर्थभेद स्वीकार करता है।) ( आलापपद्धति/5 )।</span><br /> | ||
स्याद्वादमञ्जरी/28/313/30 <span class="SanskritText"> यथा चायं पर्यायशब्दानामेकमर्थमभिप्रैति तथा तटस्तटी तटम् इति विरुद्धलिङ्गलक्षणधर्माभिसंबन्धाद् वस्तुनो भेदं चाभिधत्ते। न हि विरुद्धधर्मकृतं भेदमनुभवतो वस्तुनो विरुद्धधर्मायोगो युक्त:। एवं संख्याकालकारकपुरुषादिभेदाद् अपि भेदोऽभ्युपगन्तव्य:।</span><br /> | |||
स्याद्वादमञ्जरी/28/316 पर उद्धृत श्लोक नं.5 <span class="SanskritGatha">विरोधिलिङ्गसंख्यादिभेदाद् भिन्नस्वभावताम् । तस्यैव मन्यमानोऽयं शब्द: प्रत्यवतिष्ठत।5।</span>=<span class="HindiText">जैसे इन्द्र शक्र पुरन्दर ये तीनों समान लिंगी शब्द एक अर्थ को द्योतित करते हैं; वैसे तट:, तटी, तटम् इन शब्दों से विरुद्ध लिंगरूप धर्म से सम्बन्ध होने के कारण, वस्तु का भेद भी समझा जाता है। विरुद्ध धर्मकृत भेद का अनुभव करने वाली वस्तु में विरुद्ध धर्म का सम्बन्ध न मानना भी युक्त नहीं है। इस प्रकार संख्या काल कारक पुरुष आदि के भेद से पर्यायवाची शब्दों के अर्थ में भेद भी समझना चाहिए।</span><br /> | |||
धवला 1/1,1,1/ गा.7/13 <span class="PrakritText">मूलणिमेणं पज्जवणयस्स उजुसुदवयणविच्छेदो। तस्स दु सद्दादीया साह पसाहा सुहुमभेया।</span>=<span class="HindiText">ऋजुसूत्र वचन का विच्छेदरूप वर्तमानकाल ही पर्यायार्थिक नय का मूल आधार है, और शब्दादि नय शाखा उपशाखा रूप उसके उत्तरोत्तर सूक्ष्म भेद हैं।</span><br /> | |||
श्लोकवार्तिक 4/1/33/68/255/17 <span class="SanskritText">कालकारकलिङ्गसंख्यासाधनोपग्रहभेदाद्भिन्नमर्थं शपतीति शब्दो नय: शब्दप्रधानत्वादुदाहृत:। यस्तु व्यवहारनय: कालादिभेदेऽप्यभिन्नमर्थमभिप्रैति।</span>=<span class="HindiText">काल, कारक, लिंग, संख्या, साधन और उपग्रह आदि के भेदों से जो नय भिन्न अर्थ को समझाता है वह नय शब्द प्रधान होने से शब्दनय कहा गया है, और इसके पूर्व जो व्यवहारनय कहा गया है वह तो (व्याकरण शास्त्र के अनुसार) काल आदि के भेद होने पर भी अभिन्न अर्थ को समझाने का अभिप्राय रखता है। (नय/III/1/7 तथा निक्षेप/3/7)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="III.6.5" id="III.6.5"> शब्दनयाभास का लक्षण </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.6.5" id="III.6.5"> शब्दनयाभास का लक्षण </span><br /> | ||
स्याद्वादमञ्जरी/28/318/26 <span class="SanskritText">तद्भेदेन तस्य तमेव समर्थयमानस्तदाभास:। यथा बभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यादयो भिन्नकाला शब्दाभिन्नमेव अर्थमभिदधति भिन्नकालशब्दत्वात् तादृक्सिद्धान्यशब्दवत् इत्यादि:।</span>=<span class="HindiText">काल आदि के भेद से शब्द और अर्थ को सर्वथा अलग मानने को शब्दनयाभास कहते हैं। जैसे‒सुमेरु था, सुमेरु है, और सुमेरु होगा आदि भिन्न भिन्न काल के शब्द, भिन्न कालवाची होने से, अन्य भिन्नकालवाची शब्दों की भांति ही, भिन्न भिन्न अर्थों का ही प्रतिपादन करते हैं।<br /> | |||
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<li> <span class="HindiText" name="III.6.6" id="III.6.6">लिंगादि व्यभिचार का तात्पर्य <br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.6.6" id="III.6.6">लिंगादि व्यभिचार का तात्पर्य <br /> | ||
नोट‒यद्यपि व्याकरण शास्त्र भी शब्द प्रयोग के दोषों को स्वीकार नहीं करता, परन्तु कहीं-कहीं अपवादरूप से भिन्न लिंग आदि वाले शब्दों का भी सामानाधिकरण्य रूप से प्रयोग कर देता है। तहां शब्दनय उन दोषों का भी निराकरण करता है। वे दोष निम्न प्रकार हैं—</span><br /> | नोट‒यद्यपि व्याकरण शास्त्र भी शब्द प्रयोग के दोषों को स्वीकार नहीं करता, परन्तु कहीं-कहीं अपवादरूप से भिन्न लिंग आदि वाले शब्दों का भी सामानाधिकरण्य रूप से प्रयोग कर देता है। तहां शब्दनय उन दोषों का भी निराकरण करता है। वे दोष निम्न प्रकार हैं—</span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/9/98/14 <span class="SanskritText">तत्र लिङ्गव्यभिचारस्तावत्स्त्रीलिङ्गे पुल्लिङ्गाभिधानं तारका स्वातिरिति। पुंल्लिङ्गे स्त्र्यभिधानम् अवगमो विद्येति। स्त्रीत्वे नपुंसकाभिधानम् वीणा आतोद्यमिति। नपुंसके स्त्र्यभिधानम् आयुधं शक्तिरिति। पुंल्लिङ्गे नपुंसकाभिधानं पटो वस्त्रमिति। नपुंसके पुंल्लिङ्गाभिधानं द्रव्यं परशुरिति। संख्या व्यभिचार:‒एकत्वे द्वित्वम् ‒गोदौ ग्राम इति। द्वित्वे बहुत्वम् पुनर्वसू पञ्चतारका इति। बहुत्वे एकत्वम् ‒आम्रा वनमिति। बहुत्वे द्वित्वम् ‒देवमनुषा उभौ राशी इति। साधनव्यभिचार:‒एहि मन्थे रथेन यास्यसि, नहि यास्यसि यातस्ते पितेति। आदिशब्देन कालादिव्यभिचारो गृह्यते। विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता, भावि कृत्यमासीदिति कालव्यभिचार:। संतिष्ठते प्रतिष्ठते विरमत्युपरमतीति उपग्रहव्यभिचार:।</span>=<span class="HindiText">1. स्त्रीलिंग के स्थान पर पुंलिंग का कथन करना और पुलिंग के स्थान पर स्त्रीलिंग का कथन करना आदि लिंग व्यभिचार हैं। जैसे‒(1)‒</span><span class="SanskritText">‘तारका स्वाति:’</span><span class="HindiText"> स्वाति नक्षत्र तारका है। यहां पर तारका शब्द स्त्रीलिंग और स्वाति शब्द पुंलिंग है। इसलिए स्त्रीलिंग के स्थान पर पुंलिंग कहने से लिंग व्यभिचार है। (2) </span><span class="SanskritText">‘अवगमो विद्या’</span><span class="HindiText"> ज्ञान विद्या है। इसलिए पुंल्लिंग के स्थान पर स्त्रीलिंग कहने से लिंग व्यभिचार है। इसी प्रकार (3) </span><span class="SanskritText">‘वीणा आतोद्यम्’</span><span class="HindiText"> वीणा बाजा आतोद्य कहा जाता है। यहां पर वीणा शब्द स्त्रीलिंग और आतोद्य शब्द, नपुंसकलिंग है। (4)</span><span class="SanskritText"> ‘आयुधं शक्ति:’</span><span class="HindiText"> शक्ति आयुध है। यहां पर आयुध शब्द नपुंसकलिंग और शक्ति शब्द स्त्रीलिंग है। (5) ‘पटो वस्त्रम्’ पट वस्त्र है। यहां पर पट शब्द पुंल्लिंग और वस्त्र शब्द नपुंसकलिंग है। (6) </span><span class="SanskritText">‘आयुधं परशु:’</span><span class="HindiText"> फरसा आयुध है। यहां पर आयुध शब्द नपुंसकलिंग और परशु शब्द पुंलिंग है। 2. एकवचन की जगह द्विवचन आदि का कथन करना संख्या व्यभिचार है। जैसे (1) </span><span class="SanskritText">‘नक्षत्रं पुनर्वसू’</span><span class="HindiText"> पुनर्वसू नक्षत्र है। यहां पर नक्षत्र शब्द एकवचनान्त और पुनर्वसू शब्द द्विवचनान्त है। इसलिए एकवचन के स्थान पर द्विवचन का कथन करने से संख्या व्यभिचार है। इसी प्रकार‒(2) ‘नक्षत्रं शतभिषज:’ शतभिषज नक्षत्र है। यहां पर नक्षत्र शब्द एकवचनान्त और शतभिषज् शब्द बहुवचनान्त है। (3) </span><span class="SanskritText">‘गोदौ ग्राम:’ </span><span class="HindiText">गायों को देनेवाला ग्राम है। यहां पर गोद शब्द द्विवचनान्त और ग्राम शब्द एकवचनान्त है। (4) </span><span class="SanskritText">‘पुनर्वसू पञ्चतारका:’</span><span class="HindiText"> पुनर्वसू पांच तारे हैं। यहां पुनर्वसू द्विवचनान्त और पंचतारका शब्द बहुवचनान्त है। (5) </span><span class="SanskritText">‘आम्रा: वनम्’ </span><span class="HindiText">आमों के वृक्ष वन हैं। यहां पर आम्र शब्द बहुवचनान्त और वन शब्द एकवचनान्त है। (6) </span><span class="SanskritText">‘देवमनुष्या उभौ राशी’</span><span class="HindiText"> देव और मनुष्य ये दो राशि हैं। यहां पर देवमनुष्य शब्द बहुवचनान्त और राशि शब्द द्विवचनान्त है। 3. भविष्यत आदि काल के स्थान पर भूत आदि काल का प्रयोग करना कालव्यभिचार है। जैसे‒(1)</span><span class="SanskritText"> ‘विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता’</span><span class="HindiText"> जिसने समस्त विश्व को देख लिया है ऐसा इसके पुत्र उत्पन्न होगा। यहां पर विश्व का देखना भविष्यत् काल का कार्य है, परन्तु उसका भूतकाल के प्रयोग द्वारा कथन किया गया है। इसलिए भविष्यत् काल का कार्य भूत काल में कहने से कालव्यभिचार है। इसी तरह (2) </span><span class="SanskritText">‘भाविकृत्यमासीत्’</span><span class="HindiText"> आगे होने वाला कार्य हो चुका। यहां पर भूतकाल के स्थान पर भविष्य काल का कथन किया गया है। 4. एक साधन अर्थात् एक कारक के स्थान पर दूसरे कारक के प्रयोग करने को साधन या कारक व्यभिचार कहते हैं। जैसे‒’ग्राममधिशेते’ वह ग्रामों में शयन करता है। यहां पर सप्तमी के स्थान पर द्वितीया विभक्ति या कारक का प्रयोग किया गया है, इसलिए यह साधन व्यभिचार है। 5. उत्तम पुरुष के स्थान पर मध्यम पुरुष और मध्यम पुरुष के स्थान पर उत्तम पुरुष आदि के कथन करने को पुरुषव्यभिचार कहते हैं। जैसे‒’एहि मन्ये रथेन यास्यसि नहि यास्यसि यातस्ते पिता’ आओ, तुम समझते हो कि मैं रथ से जाऊंगा परन्तु अब न जाओगे, क्योंकि तुम्हारा पिता चला गया। यहां पर उपहास करने के लिए ‘मन्यसे’ के स्थान पर ‘मन्ये’ ऐसा उत्तम पुरुष का और ‘यास्यामि’ के स्थान पर ‘यास्यासि’ ऐसा मध्यम पुरुष का प्रयोग हुआ है। इसलिए पुरुषव्यभिचार है। 6. उपसर्ग के निमित्त से परस्मैपद के स्थान पर आत्मनेपद और आत्मनेपद के स्थान पर परस्मैपद का कथन कर देने को उपग्रह व्यभिचार कहते हैं। जैसे ‘रमते’ के स्थान पर ‘विरमति’; ‘तिष्ठति’ के स्थान पर ‘संतिष्ठते’ और ‘विशति’ के स्थान पर ‘निविशते’ का प्रयोग व्याकरण में किया जाना प्रसिद्ध है। ( सर्वार्थसिद्धि/1/33/143/4 ); ( श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लो.60-71/255); ( धवला 1/1,1,1/81/1 ); ( धवला 9/4,1,45/176/6 ); ( कषायपाहुड़ 1/13-14/197/235/3 )।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="III.6.7" id="III.6.7"> उक्त व्यभिचारों में दोष प्रदर्शन </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.6.7" id="III.6.7"> उक्त व्यभिचारों में दोष प्रदर्शन </span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक 4/1/33/72/257/16 <span class="SanskritGatha">यो हि वैयाकरणव्यवहारनयानुरोधेन ‘धातुसंबन्धे प्रत्यय:’ इति सूत्रमारभ्य विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता भाविकृत्यमासीदित्यत्र कालभेदेऽप्येकपदार्थमादृता यो विश्वं द्रक्ष्यति सोऽस्य पुत्रो जनितेति भविष्यकालेनातीतकालस्याभेदोऽभिमत: तथा व्यवहारदर्शनादिति। तन्न श्रेय: परीक्षायां मूलक्षते: कालभेदेऽप्यर्थस्याभेदेऽतिप्रसङ्गात् रावणशङ्खचक्रवर्तिनोरप्यतीतानागतकालयोरेकत्वापत्ते:। आसीद्रावणो राजा शङ्खचक्रवर्ती भविष्यतीति शब्दयोर्भिन्नविषयत्वान्नैकार्थतेति चेत्, विश्वदृश्वा जनितेत्यनयोरपि मा भूत् तत् एव। न हि विश्व दृष्टवानिति विश्वदृश्वेति शब्दस्य योऽर्थोऽतीतकालस्य जनितेति शब्दस्यानागतकाल:। पुत्रस्य भाविनोऽतीतत्वविरोधात् । अतीतकालस्याप्यनागतत्वाध्यारोपादेकार्थताभिप्रेतेति चेत्, तर्हि न परमार्थत: कालभेदेऽप्यभिन्नार्थव्यवस्था। तथा करोति क्रियते इति कारकयो: कर्तृकर्मणोर्भेदेऽप्यभिन्नमर्थत एवाद्रियते स एव करोति किंचित् स एव क्रियते केनचिदिति प्रतीतेरिति। तदपि न श्रेय: परीक्षायां। देवदत्त: कटं करोतीत्यत्रापि कर्तृकर्मणोर्देवदत्तकटयोरभेदप्रसङ्गात् । तथा पुष्यस्तारकेत्यत्र व्यक्तिभेदेऽपि तत्कृतार्थमेकमाद्रियन्ते, लिङ्गमशिष्यं लोकाश्रयत्वादि। तदपि न श्रेय:, पटकुटोत्यत्रापि कुटकुट्योरेकत्वप्रसङ्गात् तल्लिङ्गभेदाविशेषात् । तथापोऽभ्य इत्यत्र संख्याभेदेऽप्येकमर्थं जलाख्यतादृता: संख्याभेदस्याभेदकत्वात् गुर्वादिवदिति। तदपि न श्रेय: परीक्षायाम् । घस्तंतव इत्यत्रापि तथाभावानुषङ्गात् संख्याभेदाविशेषात् । एहि मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्यसि स यातस्ते पिता इति साधनभेदेऽपि पदार्थमभिन्नमादृता: ‘‘प्रहसे मन्यवाचि युष्मन्मन्यतरस्मादेकवच्च’’ इति वचनात् । तदपि न श्रेय: परीक्षायां, अहं पचामि त्वं पचसीत्यत्रापि अस्मद्युष्मत्साधनाभेदेऽप्येकार्थत्वप्रसङ्गात् । तथा ‘संतिष्ठते अवतिष्ठत’ इत्यत्रोपसर्गभेदेऽप्यभिन्नमर्थमादृता उपसर्गस्य धात्वर्धमात्रद्योतकत्वादिति। तदपि न श्रेय:। तिष्ठति प्रतिष्ठत इत्यत्रापि स्थितिगतिक्रिययोरभेदप्रसङ्गात् । तत: कालादिभेदाद्भिन्न एवार्थोऽन्यथातिप्रसङ्गादिति शब्दनय: प्रकाशयति। तद्भेदेऽप्यर्थाभेदे ‘दूषणान्तरं च दर्शयति‒तथा कालादिनानात्वकल्पनं निष्प्रयोजनम् । सिद्धं कालादिनैकेन कार्यस्येष्टस्य तत्त्वत:।73। कालाद्यन्यतमस्यैव कल्पनं तैर्विधीयताम् । येषां कालादिभेदेऽपि पदार्थैकत्वनिश्चय:।74। शब्दकालादिभिर्भिन्नाभिन्नार्थप्रतिपादक:। कालादिभिन्नशब्दत्वादृक्सिद्धान्यशब्दवत् ।75।</span> =<span class="HindiText">1. काल व्यभिचार विषयक—वैयाकरणीजन व्यवहारनय के अनुरोध से ‘धातु सम्बन्ध से प्रत्यय बदल जाते हैं’ इस सूत्र का आश्रय करके ऐसा प्रयोग करते हैं कि ‘विश्व को देख चुकने वाला पुत्र इसके उत्पन्न होवेगा’ अथवा ‘होने वाला कार्य हो चुका’। इस प्रकार कालभेद होने पर भी वे इनमें एक ही वाच्यार्थ का आदर करते हैं। ‘जो आगे जाकर विश्व को देखेगा ऐसा पुत्र इसके उत्पन्न होगा’ ऐसा न कहकर उपरोक्त प्रकार भविष्यत् काल के साथ अतीत काल का अभेद मान लेते हैं, केवल इसलिए कि लोक में इस प्रकार के प्रयोग का व्यवहार देखा जाता है। परीक्षा करने पर उनका यह मन्तव्य श्रेष्ठ नहीं है, क्योंकि एक तो ऐसा मानने से मूलसिद्धान्त की क्षति होती है और दूसरे अतिप्रसंग का दोष प्राप्त होता है। क्योंकि, ऐसा मानने पर भूतकालीन रावण और अनागत कालीन शंख चक्रवर्ती में भी एकपना प्राप्त हो जाना चाहिए। वे दोनों एक बन बैठेंगे। यदि तुम यह कहो कि रावण राजा हुआ था और शंख चक्रवर्ती होगा, इस प्रकार इन शब्दों की भिन्न विषयार्थता बन जाती है, तब तो विश्वदृश्वा और जनिता इन दोनों शब्दों की भी एकार्थता न होओ। क्योंकि ‘जिसने विश्व को देख लिया है’ ऐसे इस अतीतकालवाची विश्वदृश्वा शब्द का जो अर्थ है, वह ‘उत्पन्न होवेगा’ ऐसे इस भविष्यकालवाची जनिता शब्द का अर्थ नहीं है। कारण कि भविष्यत् काल में होने वाले पुत्र को अतीतकाल सम्बन्धीपने का विरोध है। फिर भी यदि यह कहो कि भूतकाल में भविष्य काल का अध्यारोप करने से दोनों शब्दों का एक अर्थ इष्ट कर लिया गया है, तब तो काल-भेद होने पर भी वास्वविकरूप से अर्थों के अभेद की व्यवस्था नहीं हो सकती। और यही बात शब्दनय समझा रहा है। 2. साधन या कारक व्यभिचार विषयक—तिस ही प्रकार वे वैयाकरणीजन कर्ताकारक वाले ‘करोति’ और कर्मकारक वाले ‘क्रियते’ इन दोनों शब्दों में कारक भेद होने पर भी, इनका अभिन्न अर्थ मानते हैं; कारण कि, ‘देवदत्त कुछ करता है’ और ‘देवदत्त के द्वारा कुछ किया जाता है’ इन दोनों वाक्यों का एक अर्थ प्रतीत हो रहा है। परीक्षा करने पर इस प्रकार मानना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर तो ‘देवदत्त चटाई को बनाता है’ इस वाक्य में प्रयुक्त कर्ताकारक रूप देवदत्त और कर्मकारक रूप चटाई में भी अभेद का प्रसंग आता है। 3. लिंग व्यभिचार विषयक—तिसी प्रकार वे वैयाकरणीजन ‘पुष्यनक्षत्र तारा है’ यहां लिंग भेद होने पर भी, उनके द्वारा किये गये एक ही अर्थ का आदर करते हैं, क्योंकि लोक में कई तारकाओं से मिलकर बना एक पुष्य नक्षत्र माना गया है। उनका कहना है कि शब्द के लिंग का नियत करना लोक के आश्रय से होता है। उनका ऐसा कहना श्रेष्ठ नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से तो पुल्लिंगी पट, और स्त्रीलिंगी झोंपड़ी इन दोनों शब्दों के भी एकार्थ हो जाने का प्रसंग प्राप्त होता है। 4. संख्या व्यभिचार विषयक—तिसी प्रकार वे वैयाकरणी जन ‘आप:’ इस स्त्रीलिंगी बहुवचनान्त शब्द का और ‘अम्भ:’ इस नपुंसकलिंगी एकवचनान्त शब्द का, लिंग व संख्या भेद होने पर भी, एक जल नामक अर्थ ग्रहण करते हैं। उनके यहां संख्याभेद से अर्थ में भेद नहीं पड़ता जैसे कि गुरुत्व साधन आदि शब्द। उनका ऐसा मानना श्रेष्ठ नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर तो एक घट और अनेक तन्तु इन दोनों का भी एक ही अर्थ होने का प्रसंग प्राप्त होता है। 5. पुरुष व्यभिचार विषयक—‘‘हे विदूषक, इधर आओ। तुम मन में मान रहे होगे कि मैं रथ द्वारा मेले में जाऊंगा, किन्तु तुम नहीं जाओगे, क्योंकि तुम्हारा पिता भी गया था?’’ इस प्रकार यहां साधन या पुरुष का भेद होने पर भी वे वैयाकरणी जन एक ही अर्थ का आदर करते हैं। उनका कहना है कि उपहास के प्रसंग में ‘मन्य’ धातु के प्रकृतिभूत होने पर दूसरी धातुओं के उत्तमपुरुष के बदले मध्यम पुरुष हो जाता है, और मन्यति धातु को उत्तमपुरुष हो जाता है, जो कि एक अर्थ का वाचक है। किन्तु उनका यह कहना भी उत्तम नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से तो ‘मैं पका रहा हूं’, ‘तू पकाता है’ इत्यादि स्थलों में भी अस्मद् और युष्मद् साधन का अभेद होने पर एकार्थपने का प्रसंग होगा। 6. उपसर्ग व्यभिचार विषयक—तिसी प्रकार वैयाकरणीजन ‘संस्थान करता है’, ‘अवस्थान करता है’ इत्यादि प्रयोगों में उपसर्ग के भेद होने पर भी अभिन्न अर्थ को पकड़ बैठे हैं। उनका कहना है कि उपसर्ग केवल धातु के अर्थ का द्योतन करने वाले होते हैं। वे किसी नवीन अर्थ के वाचक नहीं हैं। उनका यह कहना भी प्रशंसनीय नहीं है, क्योंकि इस प्रकार तो ‘तिष्ठति’ अर्थात ठहरता है और ‘प्रतिष्ठते’ अर्थात् गमन करता है, इन दोनों प्रयोगों में भी एकार्थता का प्रसंग आता है।<br /> | |||
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<li class="HindiText" name="III.6.8" id="III.6.8"> इसके अतिरिक्त अन्य भी अनेक दूषण आते हैं। (1) लकार या कृदन्त में अथवा लौकिक वाक्य प्रयोगों में कालादि के नानापने की कल्पना व्यर्थ हो जायेगी, क्योंकि एक ही काल या उपसर्ग आदि से वास्तविक रूप से इष्टकार्य की सिद्धि हो जायेगी।73। काल आदि के भेद से अर्थ भेद न मानने वालों को कोई सा एक काल या कारक आदि ही मान लेना चाहिए।74। काल आदि का भिन्न-भिन्न स्वीकार किया जाना ही उनकी भिन्नार्थता का द्योतक है।75। <br /> | <li class="HindiText" name="III.6.8" id="III.6.8"> इसके अतिरिक्त अन्य भी अनेक दूषण आते हैं। (1) लकार या कृदन्त में अथवा लौकिक वाक्य प्रयोगों में कालादि के नानापने की कल्पना व्यर्थ हो जायेगी, क्योंकि एक ही काल या उपसर्ग आदि से वास्तविक रूप से इष्टकार्य की सिद्धि हो जायेगी।73। काल आदि के भेद से अर्थ भेद न मानने वालों को कोई सा एक काल या कारक आदि ही मान लेना चाहिए।74। काल आदि का भिन्न-भिन्न स्वीकार किया जाना ही उनकी भिन्नार्थता का द्योतक है।75। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.6.9" id="III.6.9"> सर्व प्रयोगों को दूषित बताने से तो व्याकरणशास्त्र के साथ विरोध आता है? </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.6.9" id="III.6.9"> सर्व प्रयोगों को दूषित बताने से तो व्याकरणशास्त्र के साथ विरोध आता है? </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/1 <span class="SanskritText">एवं प्रकारं व्यवहारमन्याय्यं मन्यते; अन्यार्थस्यान्यार्थेन संबन्धाभावात् । लोकसमयविरोध इति चेत् । विरुध्यताम् । तत्त्वमिह मीमांस्यते, न भैषज्यमातुरेच्छानुवर्ति।</span>=<span class="HindiText">यद्यपि व्यवहार में ऐसे प्रयोग होते हैं, तथापि इस प्रकार के व्यवहार को शब्दनय अनुचित मानता है, क्योंकि पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से अन्य अर्थ का अन्य अर्थ के साथ सम्बन्ध नहीं बन सकता। प्रश्न‒इससे लोक समय का (व्याकरण शास्त्र का) विरोध होता है? उत्तर‒यदि विरोध होता है तो होने दो, इससे हानि नहीं है, क्योंकि यहां तत्त्व की मीमांसा की जा रही है। दवाई कुछ रोगों की इच्छा का अनुकरण करने वाली नहीं होती। ( राजवार्तिक/1/33/9/98/25 )।<br /> | |||
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Revision as of 19:15, 17 July 2020
- शब्दनय का सामान्य लक्षण
आलापपद्धति/9 शब्दाद् व्याकरणात् प्रकृतिप्रत्ययद्वारेण सिद्ध: शब्द: शब्दनय:। =शब्द अर्थात् व्याकरण से प्रकृति व प्रत्यय आदि के द्वारा सिद्ध कर लिये गये शब्द का यथायोग्य प्रयोग करना शब्दनय है।
देखें नय - I.4.2 (शब्द पर से अर्थ का बोध कराने वाला शब्दनय है)।
- अनेक शब्दों का एक वाच्य मानता है।
राजवार्तिक/4/42/17/261/16 शब्दे अनेकपर्यायशब्दवाच्य: एक:। =शब्दनय में अनेक पर्यायवाची शब्दों का वाच्य एक होता है।
स्याद्वादमञ्जरी/28/313/2 शब्दस्तु रूढ़ितो यावन्तो ध्वनय: कस्मिश्चिदर्थे प्रवर्तन्ते यथा इन्द्रशक्रपुरन्दरादय: सुरपतौ तेषां सर्वेषामप्येकमर्थमभिप्रैति किल प्रतीतिवशाद् ।=रूढि से सम्पूर्ण शब्दों के एक अर्थ में प्रयुक्त होने को शब्दनय कहते हैं। जैसे इन्द्र शक्र पुरन्दर आदि शब्द एक अर्थ के द्योतक हैं।
- पर्यायवाची शब्दों में अभेद मानता है
राजवार्तिक/4/42/17/261/11 शब्दे पर्यायशब्दान्तरप्रयोगेऽपि तस्यैवार्थस्याभिधानादभेद:। =शब्दनय में पर्यायवाची विभिन्न शब्दों का प्रयोग होने पर भी, उसी अर्थ का कथन होता है, अत: अभेद है।
स्याद्वादमञ्जरी/28/313/26 न च इन्द्रशक्रपुरन्दरादय: पर्यायशब्दा विभिन्नार्थवाचितया कदाचन प्रतीतयन्ते। तेभ्य: सर्वदा एकाकारपरामर्शोत्पत्तेरस्खलितवृत्तितया तथैव व्यवहारदर्शनात् । तस्मादेक एव पर्यायशब्दानामर्थ इति। शब्द्यते आहूयतेऽनेनाभिप्रायेणार्थ: इति निरुक्तात् एकार्थप्रतिपादनाभिप्रायेणैव पर्यायध्वनीनां प्रयोगात् ।=इन्द्र, शक्र और पुरन्दर आदि पर्यायवाची शब्द कभी भिन्न अर्थ का प्रतिपादन नहीं करते; क्योंकि, उनसे सर्वदा अस्खलित वृत्ति से एक ही अर्थ के ज्ञान होने का व्यवहार देखा जाता है। अत: पर्यायवाची शब्दों का एक ही अर्थ है। ‘जिस अभिप्राय से शब्द कहा जाय या बुलाया जाय उसे शब्द कहते हैं’, इस निरुक्ति पर से भी उपरोक्त ही बात सिद्ध होती है, क्योंकि एकार्थ प्रतिपादन के अभिप्राय से ही पर्यायवाची शब्द कहे जाते हैं।
देखें नय - III.7.4 (परन्तु यह एकार्थता समान काल व लिंग आदि वाले शब्दों में ही है, सब पर्यायवाचियों में नहीं)।
- पर्यायवाची शब्दों के प्रयोग में लिंग आदि का व्यभिचार स्वीकार नहीं करता
सर्वार्थसिद्धि/1/33/143/4 लिङ्गसंख्यासाधनादिव्यभिचारनिवृत्तिपर: शब्दनय:।=लिंग, संख्या, साधन आदि (पुरुष, काल व उपग्रह) के व्यभिचार की निवृत्ति करने वाला शब्दनय है। ( राजवार्तिक/1/33/9/98/12 ); ( हरिवंशपुराण/58/47 ); ( धवला 1/1,1,1/87/1 ); ( धवला 9/4,1,45/176/5 ); ( कषायपाहुड़ 1/13-14/197/235 ); ( तत्त्वसार/1/48 )।
राजवार्तिक/1/33/9/98/23 एवमादयो व्यभिचारा अयुक्ता:। कुत:। अन्यार्थस्याऽन्यार्थेन संबन्धाभावात् । यदि स्यात् घट: पटो भवतु पटो वा प्रासाद इति। तस्माद्यथालिङ्ग यथासंख्यं यथासाधनादि च न्याय्यमभिधानम् ।=इत्यादि व्यभिचार (देखें आगे ) अयुक्त हैं, क्योंकि अन्य अर्थ का अन्य अर्थ से कोई सम्बन्ध नहीं है। अन्यथा घट पट हो जायेगा और पट मकान बन बैठेगा। अत: यथालिंग यथावचन और यथासाधन प्रयोग करना चाहिए। ( सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/1 ) ( श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लो.72/256) ( धवला 1/1,1,1/89/1 ) ( धवला 9/4,1,45/178/3 ); ( कषायपाहुड़ 1/13-14/197/237/3 )।
श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लो.68/255 कालादिभेदतोऽर्थस्य भेदं य: प्रतिपादयेत् । सोऽत्र शब्दनय: शब्दप्रधानत्वादुदाहृत:।=जो नय काल कारक आदि के भेद से अर्थ के भेद को समझता है, वह शब्द प्रधान होने के कारण शब्दनय कहा जाता है। (प्रमेय कमल मार्तण्ड/पृ.206) ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा 275 )।
नयचक्र बृहद्/213 जो वहणं ण मण्णइ एयत्थे भिण्ण्लिंग आईणं। सो सद्दणओ भणिओ णेओ पुंसाइआण जहा।213।=जो भिन्न लिंग आदि वाले शब्दों को एक अर्थ में वृत्ति नहीं मानता वह शब्दनय है, जैसे पुरुष, स्त्री आदि।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.17 शब्दप्रयोगस्यार्थं जानामीति कृत्वा तत्र एकार्थमेकशब्देन ज्ञाने सति पर्यायशब्दस्य अर्थक्रमो यथेति चेत् पुष्यतारका नक्षत्रमित्येकार्थो भवति। अथवा दारा: कलत्रं भार्या इति एकार्थो भवतीति कारणेन लिङ्गसंख्यासाधनादिव्यभिचारं मुक्त्वा शब्दानुसारार्थं स्वीकर्तव्यमिति शब्दनय:। उक्तं च‒लक्षणस्य प्रवृत्तौ वा स्वभावाविष्टालिङ्गत:। शब्दो लिङ्गं स्वसंख्यां च न परित्यज्य वर्तते। =’शब्दप्रयोग के अर्थ को मैं जानता हूं’ इस प्रकार के अभिप्राय को धारण करके एक शब्द के द्वारा एक अर्थ के जान लेने पर पर्यायवाची शब्दों के अर्थक्रम को (भी भली भांति जान लेता है)। जैसे पुष्य तारका और नक्षत्र, भिन्न लिंगवाले तीन शब्द (यद्यपि) एकार्थवाची है’ अथवा दारा कलत्र भार्या ये तीनों भी (यद्यपि) एकार्थवाची हैं। परन्तु कारणवशात् लिंग संख्या साधन वगैरह व्यभिचार को छोड़कर शब्द के अनुसार अर्थ का स्वीकार करना चाहिए इस प्रकार शब्दनय है। कहा भी है‒लक्षण की प्रवृत्ति में या स्वभाव से आविष्ट-युक्त लिंग से शब्दनय, लिंग और स्वसंख्या को न छोड़ते हुए रहता है। इस प्रकार शब्दनय बतलाया गया है।
भावार्थ‒(यद्यपि ‘भिन्न लिंग आदि वाले शब्द भी व्यवहार में एकार्थवाची समझे जाते हैं,’ ऐसा यह नय जानता है, और मानता भी है; परन्तु वाक्य में उनका प्रयोग करते समय उनमें लिंगादि का व्यभिचार आने नहीं देता। अभिप्राय में उन्हें एकार्थवाची समझते हुए भी वाक्य में प्रयोग करते समय कारणवशात् लिंगादि के अनुसार ही उनमें अर्थभेद स्वीकार करता है।) ( आलापपद्धति/5 )।
स्याद्वादमञ्जरी/28/313/30 यथा चायं पर्यायशब्दानामेकमर्थमभिप्रैति तथा तटस्तटी तटम् इति विरुद्धलिङ्गलक्षणधर्माभिसंबन्धाद् वस्तुनो भेदं चाभिधत्ते। न हि विरुद्धधर्मकृतं भेदमनुभवतो वस्तुनो विरुद्धधर्मायोगो युक्त:। एवं संख्याकालकारकपुरुषादिभेदाद् अपि भेदोऽभ्युपगन्तव्य:।
स्याद्वादमञ्जरी/28/316 पर उद्धृत श्लोक नं.5 विरोधिलिङ्गसंख्यादिभेदाद् भिन्नस्वभावताम् । तस्यैव मन्यमानोऽयं शब्द: प्रत्यवतिष्ठत।5।=जैसे इन्द्र शक्र पुरन्दर ये तीनों समान लिंगी शब्द एक अर्थ को द्योतित करते हैं; वैसे तट:, तटी, तटम् इन शब्दों से विरुद्ध लिंगरूप धर्म से सम्बन्ध होने के कारण, वस्तु का भेद भी समझा जाता है। विरुद्ध धर्मकृत भेद का अनुभव करने वाली वस्तु में विरुद्ध धर्म का सम्बन्ध न मानना भी युक्त नहीं है। इस प्रकार संख्या काल कारक पुरुष आदि के भेद से पर्यायवाची शब्दों के अर्थ में भेद भी समझना चाहिए।
धवला 1/1,1,1/ गा.7/13 मूलणिमेणं पज्जवणयस्स उजुसुदवयणविच्छेदो। तस्स दु सद्दादीया साह पसाहा सुहुमभेया।=ऋजुसूत्र वचन का विच्छेदरूप वर्तमानकाल ही पर्यायार्थिक नय का मूल आधार है, और शब्दादि नय शाखा उपशाखा रूप उसके उत्तरोत्तर सूक्ष्म भेद हैं।
श्लोकवार्तिक 4/1/33/68/255/17 कालकारकलिङ्गसंख्यासाधनोपग्रहभेदाद्भिन्नमर्थं शपतीति शब्दो नय: शब्दप्रधानत्वादुदाहृत:। यस्तु व्यवहारनय: कालादिभेदेऽप्यभिन्नमर्थमभिप्रैति।=काल, कारक, लिंग, संख्या, साधन और उपग्रह आदि के भेदों से जो नय भिन्न अर्थ को समझाता है वह नय शब्द प्रधान होने से शब्दनय कहा गया है, और इसके पूर्व जो व्यवहारनय कहा गया है वह तो (व्याकरण शास्त्र के अनुसार) काल आदि के भेद होने पर भी अभिन्न अर्थ को समझाने का अभिप्राय रखता है। (नय/III/1/7 तथा निक्षेप/3/7)।
- शब्दनयाभास का लक्षण
स्याद्वादमञ्जरी/28/318/26 तद्भेदेन तस्य तमेव समर्थयमानस्तदाभास:। यथा बभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यादयो भिन्नकाला शब्दाभिन्नमेव अर्थमभिदधति भिन्नकालशब्दत्वात् तादृक्सिद्धान्यशब्दवत् इत्यादि:।=काल आदि के भेद से शब्द और अर्थ को सर्वथा अलग मानने को शब्दनयाभास कहते हैं। जैसे‒सुमेरु था, सुमेरु है, और सुमेरु होगा आदि भिन्न भिन्न काल के शब्द, भिन्न कालवाची होने से, अन्य भिन्नकालवाची शब्दों की भांति ही, भिन्न भिन्न अर्थों का ही प्रतिपादन करते हैं।
- लिंगादि व्यभिचार का तात्पर्य
नोट‒यद्यपि व्याकरण शास्त्र भी शब्द प्रयोग के दोषों को स्वीकार नहीं करता, परन्तु कहीं-कहीं अपवादरूप से भिन्न लिंग आदि वाले शब्दों का भी सामानाधिकरण्य रूप से प्रयोग कर देता है। तहां शब्दनय उन दोषों का भी निराकरण करता है। वे दोष निम्न प्रकार हैं—
राजवार्तिक/1/33/9/98/14 तत्र लिङ्गव्यभिचारस्तावत्स्त्रीलिङ्गे पुल्लिङ्गाभिधानं तारका स्वातिरिति। पुंल्लिङ्गे स्त्र्यभिधानम् अवगमो विद्येति। स्त्रीत्वे नपुंसकाभिधानम् वीणा आतोद्यमिति। नपुंसके स्त्र्यभिधानम् आयुधं शक्तिरिति। पुंल्लिङ्गे नपुंसकाभिधानं पटो वस्त्रमिति। नपुंसके पुंल्लिङ्गाभिधानं द्रव्यं परशुरिति। संख्या व्यभिचार:‒एकत्वे द्वित्वम् ‒गोदौ ग्राम इति। द्वित्वे बहुत्वम् पुनर्वसू पञ्चतारका इति। बहुत्वे एकत्वम् ‒आम्रा वनमिति। बहुत्वे द्वित्वम् ‒देवमनुषा उभौ राशी इति। साधनव्यभिचार:‒एहि मन्थे रथेन यास्यसि, नहि यास्यसि यातस्ते पितेति। आदिशब्देन कालादिव्यभिचारो गृह्यते। विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता, भावि कृत्यमासीदिति कालव्यभिचार:। संतिष्ठते प्रतिष्ठते विरमत्युपरमतीति उपग्रहव्यभिचार:।=1. स्त्रीलिंग के स्थान पर पुंलिंग का कथन करना और पुलिंग के स्थान पर स्त्रीलिंग का कथन करना आदि लिंग व्यभिचार हैं। जैसे‒(1)‒‘तारका स्वाति:’ स्वाति नक्षत्र तारका है। यहां पर तारका शब्द स्त्रीलिंग और स्वाति शब्द पुंलिंग है। इसलिए स्त्रीलिंग के स्थान पर पुंलिंग कहने से लिंग व्यभिचार है। (2) ‘अवगमो विद्या’ ज्ञान विद्या है। इसलिए पुंल्लिंग के स्थान पर स्त्रीलिंग कहने से लिंग व्यभिचार है। इसी प्रकार (3) ‘वीणा आतोद्यम्’ वीणा बाजा आतोद्य कहा जाता है। यहां पर वीणा शब्द स्त्रीलिंग और आतोद्य शब्द, नपुंसकलिंग है। (4) ‘आयुधं शक्ति:’ शक्ति आयुध है। यहां पर आयुध शब्द नपुंसकलिंग और शक्ति शब्द स्त्रीलिंग है। (5) ‘पटो वस्त्रम्’ पट वस्त्र है। यहां पर पट शब्द पुंल्लिंग और वस्त्र शब्द नपुंसकलिंग है। (6) ‘आयुधं परशु:’ फरसा आयुध है। यहां पर आयुध शब्द नपुंसकलिंग और परशु शब्द पुंलिंग है। 2. एकवचन की जगह द्विवचन आदि का कथन करना संख्या व्यभिचार है। जैसे (1) ‘नक्षत्रं पुनर्वसू’ पुनर्वसू नक्षत्र है। यहां पर नक्षत्र शब्द एकवचनान्त और पुनर्वसू शब्द द्विवचनान्त है। इसलिए एकवचन के स्थान पर द्विवचन का कथन करने से संख्या व्यभिचार है। इसी प्रकार‒(2) ‘नक्षत्रं शतभिषज:’ शतभिषज नक्षत्र है। यहां पर नक्षत्र शब्द एकवचनान्त और शतभिषज् शब्द बहुवचनान्त है। (3) ‘गोदौ ग्राम:’ गायों को देनेवाला ग्राम है। यहां पर गोद शब्द द्विवचनान्त और ग्राम शब्द एकवचनान्त है। (4) ‘पुनर्वसू पञ्चतारका:’ पुनर्वसू पांच तारे हैं। यहां पुनर्वसू द्विवचनान्त और पंचतारका शब्द बहुवचनान्त है। (5) ‘आम्रा: वनम्’ आमों के वृक्ष वन हैं। यहां पर आम्र शब्द बहुवचनान्त और वन शब्द एकवचनान्त है। (6) ‘देवमनुष्या उभौ राशी’ देव और मनुष्य ये दो राशि हैं। यहां पर देवमनुष्य शब्द बहुवचनान्त और राशि शब्द द्विवचनान्त है। 3. भविष्यत आदि काल के स्थान पर भूत आदि काल का प्रयोग करना कालव्यभिचार है। जैसे‒(1) ‘विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता’ जिसने समस्त विश्व को देख लिया है ऐसा इसके पुत्र उत्पन्न होगा। यहां पर विश्व का देखना भविष्यत् काल का कार्य है, परन्तु उसका भूतकाल के प्रयोग द्वारा कथन किया गया है। इसलिए भविष्यत् काल का कार्य भूत काल में कहने से कालव्यभिचार है। इसी तरह (2) ‘भाविकृत्यमासीत्’ आगे होने वाला कार्य हो चुका। यहां पर भूतकाल के स्थान पर भविष्य काल का कथन किया गया है। 4. एक साधन अर्थात् एक कारक के स्थान पर दूसरे कारक के प्रयोग करने को साधन या कारक व्यभिचार कहते हैं। जैसे‒’ग्राममधिशेते’ वह ग्रामों में शयन करता है। यहां पर सप्तमी के स्थान पर द्वितीया विभक्ति या कारक का प्रयोग किया गया है, इसलिए यह साधन व्यभिचार है। 5. उत्तम पुरुष के स्थान पर मध्यम पुरुष और मध्यम पुरुष के स्थान पर उत्तम पुरुष आदि के कथन करने को पुरुषव्यभिचार कहते हैं। जैसे‒’एहि मन्ये रथेन यास्यसि नहि यास्यसि यातस्ते पिता’ आओ, तुम समझते हो कि मैं रथ से जाऊंगा परन्तु अब न जाओगे, क्योंकि तुम्हारा पिता चला गया। यहां पर उपहास करने के लिए ‘मन्यसे’ के स्थान पर ‘मन्ये’ ऐसा उत्तम पुरुष का और ‘यास्यामि’ के स्थान पर ‘यास्यासि’ ऐसा मध्यम पुरुष का प्रयोग हुआ है। इसलिए पुरुषव्यभिचार है। 6. उपसर्ग के निमित्त से परस्मैपद के स्थान पर आत्मनेपद और आत्मनेपद के स्थान पर परस्मैपद का कथन कर देने को उपग्रह व्यभिचार कहते हैं। जैसे ‘रमते’ के स्थान पर ‘विरमति’; ‘तिष्ठति’ के स्थान पर ‘संतिष्ठते’ और ‘विशति’ के स्थान पर ‘निविशते’ का प्रयोग व्याकरण में किया जाना प्रसिद्ध है। ( सर्वार्थसिद्धि/1/33/143/4 ); ( श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लो.60-71/255); ( धवला 1/1,1,1/81/1 ); ( धवला 9/4,1,45/176/6 ); ( कषायपाहुड़ 1/13-14/197/235/3 )।
- उक्त व्यभिचारों में दोष प्रदर्शन
श्लोकवार्तिक 4/1/33/72/257/16 यो हि वैयाकरणव्यवहारनयानुरोधेन ‘धातुसंबन्धे प्रत्यय:’ इति सूत्रमारभ्य विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता भाविकृत्यमासीदित्यत्र कालभेदेऽप्येकपदार्थमादृता यो विश्वं द्रक्ष्यति सोऽस्य पुत्रो जनितेति भविष्यकालेनातीतकालस्याभेदोऽभिमत: तथा व्यवहारदर्शनादिति। तन्न श्रेय: परीक्षायां मूलक्षते: कालभेदेऽप्यर्थस्याभेदेऽतिप्रसङ्गात् रावणशङ्खचक्रवर्तिनोरप्यतीतानागतकालयोरेकत्वापत्ते:। आसीद्रावणो राजा शङ्खचक्रवर्ती भविष्यतीति शब्दयोर्भिन्नविषयत्वान्नैकार्थतेति चेत्, विश्वदृश्वा जनितेत्यनयोरपि मा भूत् तत् एव। न हि विश्व दृष्टवानिति विश्वदृश्वेति शब्दस्य योऽर्थोऽतीतकालस्य जनितेति शब्दस्यानागतकाल:। पुत्रस्य भाविनोऽतीतत्वविरोधात् । अतीतकालस्याप्यनागतत्वाध्यारोपादेकार्थताभिप्रेतेति चेत्, तर्हि न परमार्थत: कालभेदेऽप्यभिन्नार्थव्यवस्था। तथा करोति क्रियते इति कारकयो: कर्तृकर्मणोर्भेदेऽप्यभिन्नमर्थत एवाद्रियते स एव करोति किंचित् स एव क्रियते केनचिदिति प्रतीतेरिति। तदपि न श्रेय: परीक्षायां। देवदत्त: कटं करोतीत्यत्रापि कर्तृकर्मणोर्देवदत्तकटयोरभेदप्रसङ्गात् । तथा पुष्यस्तारकेत्यत्र व्यक्तिभेदेऽपि तत्कृतार्थमेकमाद्रियन्ते, लिङ्गमशिष्यं लोकाश्रयत्वादि। तदपि न श्रेय:, पटकुटोत्यत्रापि कुटकुट्योरेकत्वप्रसङ्गात् तल्लिङ्गभेदाविशेषात् । तथापोऽभ्य इत्यत्र संख्याभेदेऽप्येकमर्थं जलाख्यतादृता: संख्याभेदस्याभेदकत्वात् गुर्वादिवदिति। तदपि न श्रेय: परीक्षायाम् । घस्तंतव इत्यत्रापि तथाभावानुषङ्गात् संख्याभेदाविशेषात् । एहि मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्यसि स यातस्ते पिता इति साधनभेदेऽपि पदार्थमभिन्नमादृता: ‘‘प्रहसे मन्यवाचि युष्मन्मन्यतरस्मादेकवच्च’’ इति वचनात् । तदपि न श्रेय: परीक्षायां, अहं पचामि त्वं पचसीत्यत्रापि अस्मद्युष्मत्साधनाभेदेऽप्येकार्थत्वप्रसङ्गात् । तथा ‘संतिष्ठते अवतिष्ठत’ इत्यत्रोपसर्गभेदेऽप्यभिन्नमर्थमादृता उपसर्गस्य धात्वर्धमात्रद्योतकत्वादिति। तदपि न श्रेय:। तिष्ठति प्रतिष्ठत इत्यत्रापि स्थितिगतिक्रिययोरभेदप्रसङ्गात् । तत: कालादिभेदाद्भिन्न एवार्थोऽन्यथातिप्रसङ्गादिति शब्दनय: प्रकाशयति। तद्भेदेऽप्यर्थाभेदे ‘दूषणान्तरं च दर्शयति‒तथा कालादिनानात्वकल्पनं निष्प्रयोजनम् । सिद्धं कालादिनैकेन कार्यस्येष्टस्य तत्त्वत:।73। कालाद्यन्यतमस्यैव कल्पनं तैर्विधीयताम् । येषां कालादिभेदेऽपि पदार्थैकत्वनिश्चय:।74। शब्दकालादिभिर्भिन्नाभिन्नार्थप्रतिपादक:। कालादिभिन्नशब्दत्वादृक्सिद्धान्यशब्दवत् ।75। =1. काल व्यभिचार विषयक—वैयाकरणीजन व्यवहारनय के अनुरोध से ‘धातु सम्बन्ध से प्रत्यय बदल जाते हैं’ इस सूत्र का आश्रय करके ऐसा प्रयोग करते हैं कि ‘विश्व को देख चुकने वाला पुत्र इसके उत्पन्न होवेगा’ अथवा ‘होने वाला कार्य हो चुका’। इस प्रकार कालभेद होने पर भी वे इनमें एक ही वाच्यार्थ का आदर करते हैं। ‘जो आगे जाकर विश्व को देखेगा ऐसा पुत्र इसके उत्पन्न होगा’ ऐसा न कहकर उपरोक्त प्रकार भविष्यत् काल के साथ अतीत काल का अभेद मान लेते हैं, केवल इसलिए कि लोक में इस प्रकार के प्रयोग का व्यवहार देखा जाता है। परीक्षा करने पर उनका यह मन्तव्य श्रेष्ठ नहीं है, क्योंकि एक तो ऐसा मानने से मूलसिद्धान्त की क्षति होती है और दूसरे अतिप्रसंग का दोष प्राप्त होता है। क्योंकि, ऐसा मानने पर भूतकालीन रावण और अनागत कालीन शंख चक्रवर्ती में भी एकपना प्राप्त हो जाना चाहिए। वे दोनों एक बन बैठेंगे। यदि तुम यह कहो कि रावण राजा हुआ था और शंख चक्रवर्ती होगा, इस प्रकार इन शब्दों की भिन्न विषयार्थता बन जाती है, तब तो विश्वदृश्वा और जनिता इन दोनों शब्दों की भी एकार्थता न होओ। क्योंकि ‘जिसने विश्व को देख लिया है’ ऐसे इस अतीतकालवाची विश्वदृश्वा शब्द का जो अर्थ है, वह ‘उत्पन्न होवेगा’ ऐसे इस भविष्यकालवाची जनिता शब्द का अर्थ नहीं है। कारण कि भविष्यत् काल में होने वाले पुत्र को अतीतकाल सम्बन्धीपने का विरोध है। फिर भी यदि यह कहो कि भूतकाल में भविष्य काल का अध्यारोप करने से दोनों शब्दों का एक अर्थ इष्ट कर लिया गया है, तब तो काल-भेद होने पर भी वास्वविकरूप से अर्थों के अभेद की व्यवस्था नहीं हो सकती। और यही बात शब्दनय समझा रहा है। 2. साधन या कारक व्यभिचार विषयक—तिस ही प्रकार वे वैयाकरणीजन कर्ताकारक वाले ‘करोति’ और कर्मकारक वाले ‘क्रियते’ इन दोनों शब्दों में कारक भेद होने पर भी, इनका अभिन्न अर्थ मानते हैं; कारण कि, ‘देवदत्त कुछ करता है’ और ‘देवदत्त के द्वारा कुछ किया जाता है’ इन दोनों वाक्यों का एक अर्थ प्रतीत हो रहा है। परीक्षा करने पर इस प्रकार मानना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर तो ‘देवदत्त चटाई को बनाता है’ इस वाक्य में प्रयुक्त कर्ताकारक रूप देवदत्त और कर्मकारक रूप चटाई में भी अभेद का प्रसंग आता है। 3. लिंग व्यभिचार विषयक—तिसी प्रकार वे वैयाकरणीजन ‘पुष्यनक्षत्र तारा है’ यहां लिंग भेद होने पर भी, उनके द्वारा किये गये एक ही अर्थ का आदर करते हैं, क्योंकि लोक में कई तारकाओं से मिलकर बना एक पुष्य नक्षत्र माना गया है। उनका कहना है कि शब्द के लिंग का नियत करना लोक के आश्रय से होता है। उनका ऐसा कहना श्रेष्ठ नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से तो पुल्लिंगी पट, और स्त्रीलिंगी झोंपड़ी इन दोनों शब्दों के भी एकार्थ हो जाने का प्रसंग प्राप्त होता है। 4. संख्या व्यभिचार विषयक—तिसी प्रकार वे वैयाकरणी जन ‘आप:’ इस स्त्रीलिंगी बहुवचनान्त शब्द का और ‘अम्भ:’ इस नपुंसकलिंगी एकवचनान्त शब्द का, लिंग व संख्या भेद होने पर भी, एक जल नामक अर्थ ग्रहण करते हैं। उनके यहां संख्याभेद से अर्थ में भेद नहीं पड़ता जैसे कि गुरुत्व साधन आदि शब्द। उनका ऐसा मानना श्रेष्ठ नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर तो एक घट और अनेक तन्तु इन दोनों का भी एक ही अर्थ होने का प्रसंग प्राप्त होता है। 5. पुरुष व्यभिचार विषयक—‘‘हे विदूषक, इधर आओ। तुम मन में मान रहे होगे कि मैं रथ द्वारा मेले में जाऊंगा, किन्तु तुम नहीं जाओगे, क्योंकि तुम्हारा पिता भी गया था?’’ इस प्रकार यहां साधन या पुरुष का भेद होने पर भी वे वैयाकरणी जन एक ही अर्थ का आदर करते हैं। उनका कहना है कि उपहास के प्रसंग में ‘मन्य’ धातु के प्रकृतिभूत होने पर दूसरी धातुओं के उत्तमपुरुष के बदले मध्यम पुरुष हो जाता है, और मन्यति धातु को उत्तमपुरुष हो जाता है, जो कि एक अर्थ का वाचक है। किन्तु उनका यह कहना भी उत्तम नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से तो ‘मैं पका रहा हूं’, ‘तू पकाता है’ इत्यादि स्थलों में भी अस्मद् और युष्मद् साधन का अभेद होने पर एकार्थपने का प्रसंग होगा। 6. उपसर्ग व्यभिचार विषयक—तिसी प्रकार वैयाकरणीजन ‘संस्थान करता है’, ‘अवस्थान करता है’ इत्यादि प्रयोगों में उपसर्ग के भेद होने पर भी अभिन्न अर्थ को पकड़ बैठे हैं। उनका कहना है कि उपसर्ग केवल धातु के अर्थ का द्योतन करने वाले होते हैं। वे किसी नवीन अर्थ के वाचक नहीं हैं। उनका यह कहना भी प्रशंसनीय नहीं है, क्योंकि इस प्रकार तो ‘तिष्ठति’ अर्थात ठहरता है और ‘प्रतिष्ठते’ अर्थात् गमन करता है, इन दोनों प्रयोगों में भी एकार्थता का प्रसंग आता है।
- इसके अतिरिक्त अन्य भी अनेक दूषण आते हैं। (1) लकार या कृदन्त में अथवा लौकिक वाक्य प्रयोगों में कालादि के नानापने की कल्पना व्यर्थ हो जायेगी, क्योंकि एक ही काल या उपसर्ग आदि से वास्तविक रूप से इष्टकार्य की सिद्धि हो जायेगी।73। काल आदि के भेद से अर्थ भेद न मानने वालों को कोई सा एक काल या कारक आदि ही मान लेना चाहिए।74। काल आदि का भिन्न-भिन्न स्वीकार किया जाना ही उनकी भिन्नार्थता का द्योतक है।75।
- सर्व प्रयोगों को दूषित बताने से तो व्याकरणशास्त्र के साथ विरोध आता है?
सर्वार्थसिद्धि/1/33/144/1 एवं प्रकारं व्यवहारमन्याय्यं मन्यते; अन्यार्थस्यान्यार्थेन संबन्धाभावात् । लोकसमयविरोध इति चेत् । विरुध्यताम् । तत्त्वमिह मीमांस्यते, न भैषज्यमातुरेच्छानुवर्ति।=यद्यपि व्यवहार में ऐसे प्रयोग होते हैं, तथापि इस प्रकार के व्यवहार को शब्दनय अनुचित मानता है, क्योंकि पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से अन्य अर्थ का अन्य अर्थ के साथ सम्बन्ध नहीं बन सकता। प्रश्न‒इससे लोक समय का (व्याकरण शास्त्र का) विरोध होता है? उत्तर‒यदि विरोध होता है तो होने दो, इससे हानि नहीं है, क्योंकि यहां तत्त्व की मीमांसा की जा रही है। दवाई कुछ रोगों की इच्छा का अनुकरण करने वाली नहीं होती। ( राजवार्तिक/1/33/9/98/25 )।