यथाख्यात चारित्र: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 10: | Line 10: | ||
षट्खण्डागम/1/1, 1/ सू. 128/377 <span class="PrakritText">जहाक्खाद - विहार-सुद्धि-संजदा चदुसुट्ठाणेसु उवसंत-कसाय-वीयराय-छदुमत्था खीण-कसाय-वीयरायछदुमत्था सजोगिकेवली अजोगिकेवलि त्ति।128। </span>= <span class="HindiText">यथा - ख्यात-विहार-शुद्धि-संयत जीव उपशान्त कषाय - वीतराग-छद्मस्थ, क्षीणकषायवीतरागछमस्थ; सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इन चार गुणस्थानों में होते हैं।128। (पं. सं./प्रा./1/133); ( धवला 1/1, 1, 123/ गा. 191/123); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/475/883 ); (पं. सं./सं./1/243); ( द्रव्यसंग्रह टीका/35/149/1 )। <br /> | षट्खण्डागम/1/1, 1/ सू. 128/377 <span class="PrakritText">जहाक्खाद - विहार-सुद्धि-संजदा चदुसुट्ठाणेसु उवसंत-कसाय-वीयराय-छदुमत्था खीण-कसाय-वीयरायछदुमत्था सजोगिकेवली अजोगिकेवलि त्ति।128। </span>= <span class="HindiText">यथा - ख्यात-विहार-शुद्धि-संयत जीव उपशान्त कषाय - वीतराग-छद्मस्थ, क्षीणकषायवीतरागछमस्थ; सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इन चार गुणस्थानों में होते हैं।128। (पं. सं./प्रा./1/133); ( धवला 1/1, 1, 123/ गा. 191/123); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/475/883 ); (पं. सं./सं./1/243); ( द्रव्यसंग्रह टीका/35/149/1 )। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> उसमें जघन्य उत्कृष्ट भेद नहीं होता</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3">उसमें जघन्य उत्कृष्ट भेद नहीं होता</strong> </span><br /> | ||
षट्खण्डागम 7/2, 11/ सू. 174/567 <span class="PrakritText">जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदस्स अजहण्णअणुक्कस्सिया चरित्त लद्धी अणंतगुणा ।174। कसायाभावेण वड्ढिहाणिकारणभावादो। तेणेव कारणेण अजहण्णा अणुवकस्सा च। </span>= <span class="HindiText">यथाख्यात विहार शुद्धि संयत की अजघन्यानुत्कृष्ट चारित्र लब्धि अनन्तगुणी है।174।.....कषाय का अभाव हो जाने से उसकी वृद्धि हानि के कारण का अभाव हो गया है इसी कारण वह अजघन्यानुत्कृष्ट भी है। </span></li> | षट्खण्डागम 7/2, 11/ सू. 174/567 <span class="PrakritText">जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदस्स अजहण्णअणुक्कस्सिया चरित्त लद्धी अणंतगुणा ।174। कसायाभावेण वड्ढिहाणिकारणभावादो। तेणेव कारणेण अजहण्णा अणुवकस्सा च। </span>= <span class="HindiText">यथाख्यात विहार शुद्धि संयत की अजघन्यानुत्कृष्ट चारित्र लब्धि अनन्तगुणी है।174।.....कषाय का अभाव हो जाने से उसकी वृद्धि हानि के कारण का अभाव हो गया है इसी कारण वह अजघन्यानुत्कृष्ट भी है। </span></li> | ||
</ol> | </ol> |
Revision as of 14:27, 20 July 2020
- यथाख्यात चारित्र
सर्वार्थसिद्धि/9/18/436/9 मोहनीयस्य निरवशेषस्योपशमात्क्षयाच्च आत्मस्वभावावस्थापेक्षालक्षणं यथाख्यातचारित्रमित्याख्यायते।.... यथात्मस्वभावोऽवस्थितस्तथैवाख्यातत्वात्। = समस्त मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय से जैसा आत्मा का स्वभाव है उस अवस्था रूप जो चारित्र होता है वह यथाख्यातचारित्र कहा जाता है।.....जिस प्रकार आत्मा का स्वभाव अवस्थित है उसी प्रकार यह कहा गया है, इसलिए इसे यथाख्यात कहते हैं। ( राजवार्तिक/9/18/11/617/29 ); ( तत्त्वसार/6/49 ); ( चारित्रसार/84/4 ); ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/547/714/8 )।
पं. सं./प्रा./1/133 उवसंते खीणे वा असुहे कम्मम्हि मोहणीयम्हि। छदुमत्थो व जिणो वा जहखाओ संजओ साहू।133। = अशुभ रूप. मोहनीय कर्म के उपशान्त अथवा क्षीण हो जाने पर जो वीतराग संयम होता है, उसे यथाख्यातसंयम कहते हैं।....।133। ( धवला 1/1, 1, 123/ गा. 191/123); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/475/883 ); (पं. सं./प्रा./1/243)।
धवला 1/1, 1, 123/371/7 यथाख्यातो यथाप्रतिपादितः विहारः कषायाभावरूपमनुष्ठानम्। यथाख्यातो विहारो येषां ते यथाख्यातविहाराः। यथाख्यातविहाराश्च ते शुद्धिसंयताश्च यथाख्यातविहारशुद्धिसंयताः। = परमागम में विहार अर्थात् कषायों के अभाव रूप अनुष्ठान का जैसा प्रतिपादन किया गया है तदनुकूल विहार जिनके पाया जाता है, उन्हें यथाख्यात विहार कहते हैं। जो यथाख्यातविहार वाले होते हुए शुद्धि प्राप्त संयत हैं, वे यथाख्यातविहार शुद्धि - संयत कहलाते हैं।
द्रव्यसंग्रह टीका/35/148/7 यथा सहजशुद्धस्वभावत्वेन निष्कम्पत्वेन निष्कषायमात्मस्वरूपं तथैवाख्यातं कथितं यथाख्यातचारित्रमिति। = जैसा निष्कम्प सहज शुद्ध स्वभाव से कषाय रहित आत्मा का स्वरूप है, वैसा ही आख्यात अर्थात् कहा गया है, सो यथाख्यातचारित्र है।
जैन सिद्धान्त प्र./226 कषायों के सर्वथा अभाव से प्रादुर्भूत आत्मा की शुद्धि विशेष को यथाख्यात चारित्र कहते हैं।
- यथाख्यात चारित्र का गुणस्थानों की अपेक्षा स्वामित्व
षट्खण्डागम/1/1, 1/ सू. 128/377 जहाक्खाद - विहार-सुद्धि-संजदा चदुसुट्ठाणेसु उवसंत-कसाय-वीयराय-छदुमत्था खीण-कसाय-वीयरायछदुमत्था सजोगिकेवली अजोगिकेवलि त्ति।128। = यथा - ख्यात-विहार-शुद्धि-संयत जीव उपशान्त कषाय - वीतराग-छद्मस्थ, क्षीणकषायवीतरागछमस्थ; सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इन चार गुणस्थानों में होते हैं।128। (पं. सं./प्रा./1/133); ( धवला 1/1, 1, 123/ गा. 191/123); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/475/883 ); (पं. सं./सं./1/243); ( द्रव्यसंग्रह टीका/35/149/1 )।
- उसमें जघन्य उत्कृष्ट भेद नहीं होता
षट्खण्डागम 7/2, 11/ सू. 174/567 जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदस्स अजहण्णअणुक्कस्सिया चरित्त लद्धी अणंतगुणा ।174। कसायाभावेण वड्ढिहाणिकारणभावादो। तेणेव कारणेण अजहण्णा अणुवकस्सा च। = यथाख्यात विहार शुद्धि संयत की अजघन्यानुत्कृष्ट चारित्र लब्धि अनन्तगुणी है।174।.....कषाय का अभाव हो जाने से उसकी वृद्धि हानि के कारण का अभाव हो गया है इसी कारण वह अजघन्यानुत्कृष्ट भी है।